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व्यंग्य ने जिसे चुना : प्रेम जनमेजय/ डॉ. नीरज दइया


 समकालीन हिंदी साहित्य में और खासकर व्यंग्य के क्षेत्र में एक बहुत बड़ा नाम है- प्रेम जनमेजय। यह पंक्ति मैंने बहुत सम्मानपूर्वक लिखी है, किंतु यह पंक्ति मेरी मौलिक अथवा निजी स्थापना नहीं है। यह सबका या कहें व्यंग्य को जानने वालों का मानना है, और यहां मैं ‘बड़ा नाम’ पद को प्रयुक्त करते हुआ कुछ डर रहा हूं। मेरे डर का कारण मेरे भीतर जो अदना सा एक व्यंग्यकार है वह बिना अवसर के भी कभी भी चेतन अवस्था में आ जाता है। मैंने मेरे लिए ‘अदना’ शब्द इस संदर्भ में प्रयुक्त किया है कि आदरणीय प्रेम जनमेजय जैसे बड़े व्यंग्यकार और संपादक के सामने मेरा इस क्षेत्र में कार्य बहुत सामान्य और थोड़ा-सा है। मैं अपने भीतर के व्यंग्यकार को रोकता हूं कि यह बात कहने की तेरी औकात नहीं है। मैं यह भी नहीं जानता हूं कि प्रेम जनमेजय जी की प्लैटिनम जयंती के अवसर यह बात कितनी उचित अथवा अनुचित है। किंतु कहावत है और लोग इसे रसीली मानते हैं। लोगों का तो यह भी कहना हैं कि बड़े आदमियों के दोस्त और दुश्मन दोनों होते हैं। मैं इन खेमों से दूर हूं और यह विश्वास के साथ कह सकता हूं कि प्रेम जनमेजय जिस प्रकार के लेखक हैं, उनके दुश्मन ढूंढ़ने से भी नहीं मिलेंगे। दोस्त तो उन के देश-विदेश में असंख्य हैं। खैर, जिस कहावत की तरफ मैंने संकेत किया उसे आप जान गए होंगे- ‘नाम बड़े और दर्शन छोटे’। मेरा दावा है कि यह कहावत भले कितनी ही रसीली हो, किंतु यहां इससे रस नहीं निकलने वाला है। माफ करें मुझे, मैं तो बस यहां आपको अपने पाठ की गिरफ्त में लेना चाहता था। प्रेम जी का नाम भी बड़ा है और उनके दर्शन भी। उनके पास ऐसा बहुत कुछ है जिनसे हम सीख सकते हैं।
    प्रेम जनमेजय जी अब उम्र के उस मुकाम जो पार कर रहे हैं जहां पहुंच कर मन होता है कि जो कुछ इस संसार से ग्रहण किया है पाया है उसे किसी न किसी रूप में लौटा दिया जाए। आपका रचना-संसार बहुत बड़ा और व्यापक है। जब मैंने उन्हें एक लेखक के रूप में जाना, तब वे बहुत बड़े लेखक के रूप में स्थापित हो चुके थे। मेरा यह वह दौर था जब मैंने जयशंकर प्रसाद के नाटक ‘जनमेजय का नाग-यज्ञ’ पढ़ा और ‘जनमेजय’ से मैं प्रेम जनमेजय की छवि देखता था। माना कि यह संज्ञा प्रसाद जी के नाटक में धनुर्धारी अर्जुन के पौत्र के लिए प्रयुक्त है, किंतु मेरे मन का क्या? वह तो जनमेजय के रूप में प्रेम जी से ही साम्य रखे हुए है। बाद में मैंने पढ़ते-लिखते जाना कि प्रेम जनमेजय के व्यंग्य अर्जुन के निशाने की भांति अचूक होते हैं। अर्जुन को जिस प्रकार चिड़िया की आंख के अलावा कुछ नहीं दिखता था, वैसे ही प्रेम जनमेजय जी की व्यंग्य को लेकर स्थिति है। हिंदी साहित्य में बहुत कुछ है, अनेक विधाएं हैं किंतु प्रेम जनमेजय जी का व्यंग्य को लेकर लंबे समय से समर्पण देखा जा सकता है। इसी के रहते यदि यह कहा जाए कि हिंदी साहित्य में उनको व्यंग्य के अतिरिक्त कुछ दिखाई नहीं देता है तो गलत नहीं होगा। वे चाहते तो साहित्य की अन्य अन्य विधाओं में भी सतत कार्य कर सकते थे। किंतु अब तक का हिसाब यह है कि आपने व्यंग्य के क्षेत्र में विपुल योगदान दिया है। व्यंग्य लेखन ही नहीं संपादन और व्यंग्य विधा के उन्नयन के लिए साथी लेखकों को प्रेरित प्रोत्साहित करने का कार्य किया है। वे हर बात का मर्म पहचानते हैं। वे बहुधा जो कहना है उसे कहने से नहीं चूकते हैं। कभी सीधे तो कभी लपेट कर बात कहते हैं। आज यदि व्यंग्य को स्वतंत्र विधा के रूप में जाना-पहचाना जाने लगा है तो इसे स्थापित करने में जिन प्रमुख रचनाकारों का नाम लिया जाता है, उनमें एक प्रमुख नाम प्रेम जनमेजय जी का है।
      प्रेम जनमेजय जी को मैंने पढ़ा तो बहुत पहले से था किंतु उनसे पहली मुलाकात मई, 2019 में बीकानेर और दूसरी सितंबर, 2021 में श्रीगंगानगर में हुई। उम्मीद पर दुनिया कामय है इसलिए तीसरी मुलाकात भी जल्दी होगी ऐसा मानते हुए यहां कहना चाहता हूं कि दूसरी मुलाकात काफी सघन और यादगार रही। हुआ यूं कि सृजन सेवा संस्थान और नोजगे पब्लिक स्कूल, श्रीगंगानगर के द्वारा आयोजित ‘राष्ट्रीय व्यंग्य संगोष्ठी’ में भाई कृष्ण कुमार ‘आशु’ ने आदरणीय हरीश नवल, सुभाष चंदर और प्रेम जनमेजय जी के साथ-साथ बीकानेर से मुझे और बुलाकी शर्मा आदि को भी कार्यक्रम में आमंत्रित किया था। जैसा कि मैंने कहा कि मैं प्रेम जनमेजय जी से ‘प्रभावित’ तो था, किंतु इस दूसरी मुलाकात के बाद ‘बेहद’ विशेषण के रूप में जुड़ गया है। मेरे बेहद प्रभावित होने के कारणों को जब मैं तलाशता हूं तो पाता हूं कि आदरणीय प्रेम जनमेजय जी के साथ जब आप होते हैं तो बहुत अच्छा लगता है। वे बेहद उदारमना और मित्रवत लेखक के रूप में व्यवहार करते हैं। यदि मुझे कहने की अनुमति हो तो यहां यह तक कह सकता हूं कि वे साहित्य परिवार के एक बड़े-बुजुर्ग की भांति स्नेह लुटाने में कोई कमी नहीं रखते हैं। ऐसा नहीं है कि उनका भरपूर स्नेह केवल मुझे मिला हो, जो भी उनके संपर्क में आए है उसे यह अनुभूति अवश्य हुई है कि वे अपने सभी साथी रचनाकारों को अग्रजों और अनुजों सरीखा मान-सम्मान प्यार-दुलार देते हैं। उन पर मुग्ध होने का एक कारण यह भी है कि वे हर किसी से बड़े आदर और सम्मान के साथ मिलते हैं, उनके अपनेपन की एक महक चारों तरफ बिखरी मिलेगी आपको।
    केवल हंसमुख और मिलनसार स्वभाव प्रेम जी की खासियत नहीं है, खासियत है इन सब को हमारे बर्तमान समय और लेखक-समाज में बचाए रखना है। आज के दौर में जब आदमी अनेक क्षेत्रों में कार्यरत रहता है तो उसके पास इतना समय नहीं होता है कि वह सब को पर्याप्त समय दे सके। घर-परिवार, मित्र, सगे-संबंधियों के बीच ‘व्यंग्य-यात्रा’ का नियमित प्रकाशन-संपादन निसंदेह एक बहुत बड़ा काम है। वे पत्रिका के साथ अपने वरिष्ठ लेखकों पर पुस्तकें लिख रहे हैं, संपादित कर रहे हैं और साथ में खुद का नियमित लेखन। इन दिनों ऑनलाइन पत्रिका भी हमारे समाने हैं। कभी-कभी आश्चर्य होता है कि वे इतना समय कैसे निकाल लेते हैं!
    प्रेम जनमेजय जी की सफलता का सबसे बड़ा रहस्य है- उनका लगातार व्यंग्य के क्षेत्र में कर्मठता से सक्रिय रहना। आपके अब तक तेरह व्यंग्य संकलन, तीन व्यंग्य नाटक, दो संस्मरणात्मक कृतियां प्रकाशित हो चुकी हैं। अनेक विश्वविद्यालयों द्वारा आपकी रचनाओं पर शोध कार्य हुए हैं। प्रेम जनमेजय जी की लंबी साहित्यिक-यात्रा पर विस्तार से लिखा जा सकता है। किंतु यह सच्चाई है कि मैंने आपकी सभी व्यंग्य रचनाएं पढ़ी नहीं है, इसलिए व्यंग्य-अवदान पर लिखना फिलहाल टालते हुए यहां मैं संक्षेप में उनके सद्य कविता-संग्रह ‘मेरी नादान काव्याभिव्यक्तियां’ पर अपनी बात केंद्रित करना चाहता हूं। यह चर्चा यहां इसलिए भी जरूरी लगती है कि हाल ही में प्रेम जनमेजय जी को साहित्य अकादेमी ने कविता पाठ के लिए आमंत्रित किया है और कुछ मित्रों का कहना है कि प्रेम जी ने पाला बदल लिया है। मेरा कहना है कि यह जल्दबाजी में दिया गया बयान है। क्योंकि व्यंग्य ने जिसे चुना बह प्रेम जनमेजय है और वे कविता या किसी अन्य विधा क्षेत्र में रहते हुए भी व्यंग्य की ही बात करेंगे।     प्रेम जनमेजय जी ने अपने कविता संग्रह ‘मेरी नादान काव्याभिव्यक्तियां’ में अपनी बात ‘सुप्त काव्यकीटक का पुर्नजागरण’ शीर्षक से लिखी है। जिसमें उन्होंने लिखा है कि वे व्यंग्य लेखन में बाद में आए, उससे पहले कहानीकार और कवि के रूप में काफी काम किया था। कविता-संग्रह का श्रेय वे हरीश नवल जी और डॉ. संजीव जी को देते हुए बहुत सी बातों को भूमिका में विस्तार से लिखा गया हैं। इसी संग्रह में कवि-आलोचक दिविक रमेश और नीरज कुमार मिश्रा के आलेख हैं। ये दोनों आलेख प्रेम जी की कविता के पक्ष में लिखे गए हैं, जो इन कविताओं की पृष्ठभूमि के साथ समझने में बेहद सहायक कहे जा सकते हैं। सब कुछ गुडी-गुडी होने के बाद भी मेरा मानना है कि इस पुस्तक का प्रकाशन जल्दबाजी में किया गया है। हालांकि प्रेम जनमेजय जी ने लिखा है- “मैं अपनी किताब पर गंभीरता से काम करता हूं और कच्चापन बर्दाशत नहीं।” साथ ही इस कृति के लिए उन्होंने ‘तुतलाते साहित्य’ पद प्रयुक्त किया है। प्रेम जी की इस बात पर संदेह नहीं है कि वे किताब पर गंभीरता से काम करते हैं किंतु प्रकाशक ने यहां उनकी गंभीरता को खंडित किया है।
    संग्रह के विषय में सर्वप्रथम तो यह कि इसमें प्रेम जनमेजय की अलग-अलग दौर और मनःस्थितियों में लिखी कविताएं संग्रहित है। अच्छा होता कि कविताओं के साथ उनका रचनाकाल भी दिया जाता। दूसरा यह भी कि अनेक स्थलों पर प्रूफ की भूलों के साथ ही अनुक्रम में पृष्ठ संख्या दर्ज नहीं है। साथ ही कुछ कविताओं को किसी अन्य कविता के हिस्से के रूप में मर्ज कर दिया गया है। यह जिसे आप ‘तुतलाते साहित्य’ और ‘नादान’ जैसे नामों से परिचित करा रहे हैं इसमें भी नादानी अथवा अभिव्यक्ति की कमी नजर नहीं आती है। प्रेम जनमेजय गहरे अध्येयता और साहित्य के रसिक रहे हैं साथ ही लंबे समय तक प्राध्यापक के रूप में साहित्य से जुड़े रहे हैं। आप ने देश-विदेश के अनेक विश्वविद्यालयों में अपनी सेवाएं दी है। ऐसे में कोई कैसे मान सकता है कि हिंदी कविता के बदलते मिजाज से आप पूर्णरूपेण परिचित ही नहीं हैं, ये सभी नादानियां भी है तो सोच समझ कर पूरे होश-ओ-हवास के साथ है। यह जरूर है कि आपने नियमित रूप से कविताएं नहीं लिखी किंतु एक लंबे दौर- छायावद से नई कविता की महक इन कविताओं में है। विद्यार्थियों को आपने अनेक हिंदी कवियों की कविताओं के मर्म को समझाया है। वे इस क्षेत्र के ओर-छोर से पूर्णतः परिचित हैं।
    ‘प्राध्यापक’ शीर्षक से छोटी व्यंग्य कविता है, जिसमें कवि ने विनोद किया है- ‘नवीन, कुंजियों को/ नक्ल अक्ल से कर-कहने वाली/ -एक मशीन-’ इसके पश्चात की कविता जिसे अनुक्रम में ‘मॉड’ शीर्षक दिया है उसे भी इस कविता के हिस्से के रूप में मर्ज कर प्रस्तुत करने की नादानी यहां जरूरी हुई है। शिक्षक और विद्यार्थी के ज्ञान और संबंधों के विषय में विरोधाभास को वे व्यंग्य के माध्यम से वे उजागर करते हैं। गहरे व्यंग्य का स्वर भी अनेक कविताओं में प्रमुखता से देखा जा सकता है।    
    इस संग्रह में संकलित कविताओं में बदलती काव्य-भाषा के विभिन्न रूपों को देख सकते हैं, वहीं छंद-गीत और नई कविता के अनेक अयामों को उद्घाटित होते भी देखा जा सकता है। ‘हमारा हिंदी गीत’ में हिंदी की महिमा का गान हुआ है, तो जहाजी चालीसा और मुक्तक-दोहा आदि का भी अपना महत्त्व है। ‘कुछ मुक्तक’ के साथ ‘असफल गीत’ को मिला कर मुद्रित किया गया है। संभवतः अनुक्रम में चार खंडों को करने का प्रयास हुआ है किंतु जितनी और जैसी गंभीरता से संपादन-प्रकाशन का काम होना चाहिए, वह इस संस्करण में नहीं हुआ है। ऐसा लगता है कि सुप्त काव्यकीटकों को फिर से सुलाने का कुछ काम जाने-अनजाने में हुआ है। इतना सब कुछ होने के बाद भी ऐसा बिल्कुल नहीं है कि ‘ऊंची दुकान फीके पकवान’। पकवान तो मीठे ही हैं, जितना उन्हें मीठा होना चाहिए था। बस इन पकवानों को अगर आप पहचान सकेंगे तो निसंदेह इस कृति को पढ़कर आनंद आएगा। यह प्रेम जनमेजय की अतिरिक्त मेधा का परिचय देने वाली कृति है। मेरा मत है कि यह कृति असल में आनंद देने-लेने के लिए ही तैयार की गई है। कवि ने श्री नागार्जुन से क्षमा-याचना सहित एक कविता ‘आपात अकाल चर्चा’ इस संग्रह में संकलित की है, जिसे अनुक्रम में ‘आकाल-चर्चा’ नाम दिया गया है। साथ ही यह कविता ‘पत्रोत्तर’ के नीचे प्रकाशित हुई है। कविता का अंश देखिए- ‘बहुत दिनों तक जनता सोई/ संसद रही उदास/ बहुत दिनों तक पत्नी सोई/ डरे पति के पास।’ ऐसी पेरोड़ी व्यंग्य कविता कोई अकवि अथवा कुकवि नहीं लिख सकता है इसलिए मेरा मत है कि बेशक यह हिस्सा आपके साहित्य में तुलनात्मक रूप से बहुत छोटा हो किंतु यह एक जरूरी हिस्सा है जिसे देखा-समझा जाना चाहिए। प्लैटिनम जयंती के अवसर पर आदरणीय कवि प्रेम जनमेजय जी को अपार शुभकामनाएं।
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डॉ. नीरज दइया



 






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लघकथा विधा सूं ‘भ्रमर’ री अपणायत/ डॉ. नीरज दइया

    भंवरलाल ‘भ्रमर’ राजस्थानी रा चावा-ठावा कहाणीकार अर संपादक रूप जाणीजै। आपरा तीन कहाणी-संग्रै ‘तगादो’, ‘अमूझो कद तांई’ अर ‘सातूं सुख’ घणा चर्चित रैया। कहाणियां रै अेक संपादित संग्रै ‘पगडांडी’ रो जस ई आपरै नांव। बाल उपन्यास ‘भोर रा पगलिया’ अर लघुकथा संग्रह ‘सुख सागर’ (1997) ई राजस्थानी में छप्योड़ा। आपरै संपादक-रूप री बात करां तो ‘मनवार’ (1981) नांव सूं कहाणी पत्रिका काढी, जिण रो फगत अेक अंक ई साम्हीं आयो। मुरलीधर व्यास ‘राजस्थानी’ री प्रेरणा सूं राजस्थानी कहाणी रै विगसाव सारू आप घणा जतन करिया। कहाणी विधा रै विगसाव नै लेय’र ‘मरवण’ (1986) नांव सूं अेक तिमाही पत्रिका आप बरसां-बरस आपां साम्हीं राखी। ‘मरवण’ सूं अेक कथा आंदोलन री सरुआत हुई। इण रा कहाणी-अंक, व्यंग्य अंक अर ‘कनक सुंदर’ उपन्यास अंक बरसां याद करीजैला। इणी ढाळै आप राजस्थानी भाषा साहित्य अेवं संस्कृति अकादमी बीकानेर री पत्रिका ‘जागती जोत’ रै अेक अंक संपादित करियो। इण नै लघकथा विधा सूं ‘भ्रमर’ री अपणायत ही कैय सकां कै बां लघुकथा विधा री सबळी ओळखाण खातर ‘अपणायत’ (1996) नांव सूं अेक पत्रिका सरु करी।
    पत्रिकावां रै इतिहास मांय भंवरलाल ‘भ्रमर’ री इतिहासू भूमिका मानी जावैला क्यूं कै कोई पण लघुपत्रिका काढणी अर उण नै चलावणी घणो अबखो काम है। कैवै कै पत्रिका काढणो हाथी पाळणो हुवै। नफै री बात तो कठैई कोई कोनी, इण सूं खुद री रचनात्मकता अर पइसा-टका रो नुकसाण ई साफ निजर आवै। संपादन नै केई-केई स्तर माथै सैयोग चाइजै। आर्थिक समस्या हल करै तो ढंग री रचनावां री समस्या अर उण रै संपादन पछै छापैखानै री समस्या। आजकलै तो छपाई कंप्यूटराइज हुया केई सुभीता हुया है भ्रमर जी री टैम राजस्थानी नै लेय’र छापाखाना री घणी अबखाई ही। अबखाई तो हाल ई है कै राजस्थानी नै सावळ टाइप करणियां टाइपिस्ट साव कमती है जिका नै इण काम री जाणकारी है। भ्रमर जी रै साम्हीं आयै छपाई रै अबखै काम में सदीव राजस्थानी रा विद्वान लेखक माणक तिवाड़ी ‘बंधु’ रो मोटो सैयोग रैयो। तिवाड़ी जी खुद प्रेस लाइन सूं जुड़ियोड़ा हा अर ‘मरवण’ अर ‘अपणायत’ रै प्रकाशन नै लेय’र बां घणी मैनत करी। ‘अपणायत’ रो चौथो अर पांचवो अंक कंप्यूटराइज हुवण सूं उणां में लारलै अंक सूं फरक साफ-साफ निगै आवै। अबै जरूरत ‘अपणायत’ अर दूजी दूजी पत्र-पत्रिकावां रै पीडीएफ का इमेज रूपां नै इंटरनेट रै हवालै सूंपण री जिण सूं आगै रै सोध-खोज रै कामां मांय सुभीतो हुवै। अबै अपणात पत्रिका का किणी दूजी पत्रिका का जूना अंक कठै मिलै अर बां बाबत पुखता जाणकारी ई कठै। राजस्थानी मांय इण ढाळै रै कामां री अंवेर हुवणी चाइजै।
    विगतवार बात करां तो लघुकथा विधा रै विगसाव नै लेय’र भंवरलाल ‘भ्रमर’ घणी हूंस साथै ‘अपणायत’ नै तिमाही रूप काढण री योजना बणाई ही। पत्रिका रो पैलो अंक मार्च, 1996 मांय पाठकां साम्हीं राख्यो। पत्रिका रो दूसरो अंक जून में आवणो हो पण नीं आय सक्यो। बरस 1996 रा लारला दोय अंक-  सितंबर अर दिसंबर में बगतसर प्रकाशित हुया। उण पछै बरस 1997 रै दिसंबर महीनै में ‘अपणायत- 4’ आपां साम्हीं आवै, उण पछै अेक मोटो गेप अर ‘अपणायत- 5’ रो अंक दिसंबर, 2007 में पाठकां साम्हीं आवै। इण कमी रै छता अठै आ कम मोटी बात मानीजैला कै कोई संपादक राजस्थानी में लघुकथा विधा री स्वतंत्र पत्रिका का पांच अंक काढ्या। अपणायत रो छठो अंक तैयार जरूर करीज्यो पण प्रेस में अटकग्यो अर पछै इण ढाळै रो कोई काम राजस्थानी में कोनी हुयो।
    आज देखां तो राजस्थानी री कोई पत्रिका लघुकथा रै विगसाव पेटै समरपित कोनी। बगत-बगत माथै पत्रिकावां में लघुकथावां छापै पण दुर्गेश टाळ कोई दूजो लेखक कोनी जिण सूं लघुकथा विधा री का उण लेखक री ओळखाण राजस्थानी लघुकथाकार रूप बणी हुवै। फगत अेक पत्रिका- ‘राजस्थली’ है, जिकी बरसां पैली लघुकथा केंद्रित विशेषांक काढ्यो। इणी ढाळै जे लघुकथा रै संपादित ग्रंथां री बात करां तो इण विधा रो पैलो संपादक हुवण रो जस कवि श्याम महर्षि नै जावै, बांरै संपादन में अेक लघुकथा संग्रै प्रकाशित हुयो। प्रयास संस्थान अर रामकुमार घोटड़ इण दिसा में काम करिया है अर ‘मिणिया मोत’ नांव सूं पैलो व्यवस्थित संपादित लघुकथा संग्रै साम्हीं आयो। काम तो केई हुया अर भळै ई हुवैला पण अठै भंवरलाल ‘भ्रमर’ री बात करूं तो कैयो जावैला कै बां मांय संपादन नै लेय’र अेक गैरी दीठ देखी जाय सकै।
    अपणायत-1 सूं 5 तांई हरेक अंक मांय संपादक आपरै संपादकीय मांय लघुकथा विगसाव री बातां नै लेय’र चिंता करै साथै ई अंक नै न्यारा-न्यारा संतभां सूं उल्लेखजोग बणावण री खेचळ ई करै। दाखलै रूप बात करां तो बडेरा लेखकां री लघुकथा लेखन रचनात्मकता नै दरसावण सारू ‘धरोड़’ स्तंभ में मुरलीधर व्यास ‘राजस्थानी’ सांवर दइया, श्रीचंद राय, नृसिंह राजपुरोहित, दुर्गेश री लघुकथावां अेकठ प्रकाशित करी तो किणी लेखक री अेकठ रचनात्मकता रै दरसाव सारू ‘हेमाणी’ स्तंभ में नीरज दइया, डॉ. मनोहर शर्मा, भंवरलाल ‘भ्रमर’, बुलाकी शर्मा, उदयवीर शर्मा री लघुकथावां नै ठौड़ दीवी। अठै सवाल ओ पण करियो जावणो चाइजै कै लेखकां रै नांव मांय वरिष्ठता रो ध्यान क्यूं नीं राखीज्यो तो इण पेटै म्हारो कैवणो है क्यूं कै म्हैं ई संपादन रै काम सूं जुड़ाव राखूं कै किणी पण पत्रिका रै संपादक साम्हीं बगत बगत माथै केई अबखायां रैवै। रचनावां नै संपादन रै मारग सोधणो अर संजोवणो सरल नीं है अर जे भंवरलाल ‘भ्रमर’ जद कदैई कोई लघुकथा रो संकलन संपादित करैला तद बै अवस वरिष्ठता क्रम का अकादि क्रम सूं लघुकथा लेखकां नै राखैला।
    म्हारै इण आलेख रो मकसद लघुकथा लेखकां अर बां रै संग्रां रा नांव गिणावण रो नीं मानता थकां म्हैं कैवणी चावूं कै लघुकथावां रै विगवास री सोध करणिया आ पण कैवै कै आ विधा आजादी सूं पैली पांगरी। भ्रमर जी आपरै पैलै अंक रै संपादकीय मांय लिखै- ‘‘स्व. मुरलीधर व्यास ‘राजस्थानी’ री ‘प्रभु रो धरम’ राजस्थानी री पैली लघुकथा मानीजै, जिकी ‘ओळमो’ रै प्रवेशांक (1954) में छपी।” अपणायत रै प्रवेशांक में व्यास जी री तीन लघुकथावां ‘धरोड़’ स्तंभ में छपी जिण मांय अेक ‘प्रभु रो धरम’ ई सामिल है। लघुकथा में ‘लघु’ सबद रो मायनो कम सबदां सूं लियो जावै पण कम नै आपां किणी सबद सींव मांय नीं बांध सकां। लघुकथा में मूळ सबद लघु नीं ‘कथा’ है। अठै विरोधाभास ई देख सकां कै कथा रै दायरै मांय उपन्यास अर कहाणी दोनूं नै मान्या जावै फेर इसो उपन्यास का कहाणी जिकी कम सबदां मांय लिखीजै कांई बा लघुकथा कैयी जावै?
    राजस्थानी में अेक ही रचना नै कठैई कहाणी अर कठैई उपन्यास कैवणिया ई मिलै अर इण ढाळै री रचनावां पण मिलै जिकी कहाणी रूप रचनाकार राखी, पण पछै उण नै विस्तार देय’र उपन्यास रो नांव अर सरूप देय दियो। सांवर दइया रो दाखलो आपां साम्हीं है जिका छोटी छोटी कहाणियां रै कोलाज सूं ‘हालत’ अर ‘स्कूल : अेक कोलाज कथा’ मांडी जिण रै मूळ मांय लघुकथावां है इणी ढाळै बां री छोटी छोटी व्यंग्य-कथावां नै ई आपां ‘लघुकथा’ रै पाळै राख सकां। इण रो अरथाव ओ पण मान सकां कै कोई रचनाकार किणी लघुकथा नै ई विस्तार देय’र कहाणी का उपन्यास अथवा लघुकथवां रै कोलाज सूं ई कहाणी बण सकै। भरत ओळा रो दाखलो आपां साम्हीं है जिका कहाणियां रै कोलाज सूं उपन्यास बणावण री खिमता राखै। सबद तो रचनाकार रै हाथां री माटी है जिण सूं बो किणी रचना नै आकार प्रकार देवै। ‘लघुकथा’ विधा में कथा रो अरथाव उण री खिमता साथै रस नै अंगेजै। लघुकथा मांय व्यंग्य अर विरोधाभास री पूछ कीं बेसी हुवै। इण सारू व्यंग्य नै विरोधाभास नै लघुकथा रा जरूरी घटक मान सकां। आ बात आखै लघुकथा इतिहास रै विगसाव नै देखता साची निजर आवै। इण रै दाखलै रूप अठै कहाणी रा आगीवाण लेखक मुरलीधर व्यास ‘राजस्थानी’ री लघुकथा ‘न्याय’ देखां- जिकी लुगाई अर पंच रै फगत अेक संवाद सूं बणाइजी है। अेक सवाल है अर दूजो पड़ूतर। लघुकथा इयां है-
    लुगाई – मनै अेकली नै ई कियां दंड देवो हो? म्हारै जिसी खोटा करतब करणआळी बीजी रांडां नै भी तो दंड मिलणो चाइजै।
    पंच – थां रै पाप रो घड़ो फूटग्यो, समझगी! नहीं जणै धोती मांय कुण नागो कोनी?!
    कुल 37 सबदां री इण रचना में जठै अेक समाजिक साच प्रगट हुवै बठै ई न्याय व्यवस्था रा पोत ई निगै आवै। इण ढाळै री व्यंग्य री लकब आगै चाल’र लक्ष्मीनारायण रंगा, भंवरलाल ‘भ्रमर’ आद लघुकथाकारां री केई-केई लघुकथावां में ई देखी जाय सकै।
    राजस्थानी लघुकथा विधा री जातरां देखां तो ठाह लागै कै मानीता कवि कन्हैयालाल सेठिया री गद्य कवितावां री कृति ‘गळगचिया’ मांय लघुकथा सोधणिया बिरथा जतन करै! क्यूं कै राजस्थानी में घणा लेखक मिलैला जिका छिड़ी-बिछड़ी लघुकथावां मांडी, पण इण विधा खातर समरपित लेखक कमती है। म्हारी इण बात मांय नृसिंह राजपुरोहित अर सांवर दइया आद लेखकां नै सामिल करता कैवणी चावूं कै बां बगत रै दबाव में कणाई कीं रचनावां लघुकथा रै रूप मांडी पण बै प्रमुख लघुकथाकार रूप नीं जाणिया जावै। मनोहर शर्मा, उदयवीर शर्मा, दुर्गेश, भानसिंह शेखावत, नीरज दइया, पवन पहाड़िया, भंवरलाल ‘भ्रमर’, माधव नागदा, रामकुमार घोटड़ आद केई लेखकां रा नांव इण खातर उल्लेखजोग कैया जावैला कै आं लघुकथा विधा मांय आपरो अवदान बरसां सूं लगोलग दरसावता थकां विधा रै विगसाव सारू सोच्यो।
    ‘अपणायत’ पत्रिका में देस-दिसावर-विदेस तीन स्तंभ तीन दिसावां रा मारग खोलै। ‘देस’ संतभ मांय मूळ राजस्थानी लेखकां री रचनात्मकता देखी जाय सकै तो परदेस अर विदेस दो दूजा स्तंभां मांय केई-केई भासावां सूं अनूदित लघुकथावां सामिल कर’र संपादक इण विधा रा नवा दीठावां साम्हीं राखै। भंवरलाल ‘भ्रमर’ लघुकथा आलोचना री दिसा में ई काम करियो अर ‘लघुकथा रा बिगसता दरसाव : अेक इतिहासू दीठ’ नांव रै आलेख में बां लघुकथा नै परिभाषित करता थकां उण रै उद्भव अर विकास री बात करी है। अठै खास उल्लेखजोग बात आ है कै भंवरलाल ‘भ्रमर’ ‘अपणायत-1’ में लिख्यो कै स्व. मुरलीधर व्यास ‘राजस्थानी’ री ‘प्रभु रो धरम’ राजस्थानी री पैली लघुकथा मानीजै, जिकी ‘ओळमो’ रै प्रवेशांक (1954) में छपी। जद कै बां आपरै इण आलेख में लिख्यो है- ‘आधुनिक राजस्थानी लघुकथा रो श्रीगणेश लगैटगै 1937-38 ई. मांय श्रीलाल नथमल जोशी रै संपादन में ‘ज्योति’ हस्तलिखित पत्रिका में प्रकाशित श्रीचंद राय री ‘जापानी बबुओ’ सूं मानी जाय सकै। राजस्थानी री पैली लघुकथा रो जस ‘जापानी बबुओ’ नै मिलै। नित नवै सोध-खोज सूं जूनी स्थापनावां बदळै अर कैय सकां कै इण दिसा मांय फेर ई काम हुवैला अर नवी बातां आपां साम्हीं आवैला। आपरी कैयोड़ी बात नै सुधारणी अर स्वीकार करणी भ्रमर जी री मोटी बात कैय सकां।
    मुरलीधर व्यास ‘राजस्थानी’ री लघुकथा ‘न्याय’ नै इणी आलेख मांय आपरै साम्हीं राखी जिकी इयां लखावै कै राजस्थानी री सबसू छोटी लघुकथा हुवैला पण भ्रंवरलाल ‘भ्रमर’ आपरै आलोचनात्मक आलेख में लिख्यो है- ‘विकट पहेली’ बां (श्रीचंद राय) री लघुतम लघुकथा ही, जिकी आजादी सूं घणी पैली छ्प’र मोकळी चावी हुई- ‘अेक सत्ताधारी मिनख नरमुंडा री फुटबाल खेलतो कीं नहीं लखै, पण बो ही जद सत्ताहीण हो जावै तो गळियां रै मांय फिरता सूं नर नूं नारायण जाण दोनूं हाथ जोड़नै नमस्कार करण लागै।’ मुरलीधर व्यास ‘राजस्थानी’ री लघुकथा ‘न्याय’ कुल 37 सबदां री ही अर 34 सबदां री। उण मांय अेक संवाद है अर इण मांय अेक स्टेटमेंट है। लघुकथा री सबसूं मोटी खासियत ‘घाव करै गंभीर’ मानीजै अर देखणो ओ चाइजै कै अै दोनूं लघुकथावां कित्तो, कांई कोई घाव करै...!
    हरेक रचनाकार अर आलोचक री आपरी आपरी मनगत अर सींव हुवै। दूजी दूजी भासावां मांय ई पैली लघुकथा बाबत केई केई बातां मिलै अर सोधणिया आ पण सोधै कै संसार री सगळा सूं छोटी लघुकथा किण नै माना। लघुकथा में मरम री गैरी बात हुवणी चाइजै अठै दाखलै रूप चावा-ठावा लेखक खलील जीब्रान री लघुकथा ‘लोमड़ी’ री चरचा करणी ठीक रैसी।
    सूरज ऊगाळी री टैम खुद री छियां देख’र लोमड़ी कैवै- आज दुपारा रै खाणै मांय ऊंठ खासूं।
    दिनूगै रो पूरो बगत उणा ऊंठ री तलास मांय गुजार दियो फेर दुपारां उण आपरी छियां देख’र कैयो- अेक मूसो ई घणो हुसी।
    दूजी बात- लोक में अेक छोटी कहाणी चलै- ‘अेक हो राजा, अेक ही राणी। दोनूं मरगिया, खतम कहाणी।’ आपां जाणा कै इयां राजा-राणी रै मरिया कहाणी खतम कोनी हुवै। खलील जीब्रान री लघुकथा लोमड़ी मांय जिण ढाळै लोमड़ी आपरी छियां देख’र रंग बदळै उण सूं घणी बातां आपां रै मनां मांय उठै-बैठै। अंतस मांय इण ढाळै री बात जाणै किणी खूंटी माथै अटक जावै। लागै कै कीं तो हुयो है अर नवो हुयो है। कोई पण रचना आपरै पाठकां नै संस्कारित करै। पंच की बात करां का सत्ताधारी अर सत्ताहीन री तो आं री मनगत लोक मांय आगूंच ई इणी ढाळै री बणियोड़ी है।
    कवि नारायणसिंह भाटी आपरी चावी कविता ‘मिनख नै समझावणो दोरौ है’ में लिखै- ‘जोयेड़ी जोत रो कांई जोणो है/ होवतै काम रौ कांई होणौ है/ अणु नै उधेड़णो सोरौ है/ पण मिनख नै समझावणो दोरौ है।’ म्हारो मानणो है कि कोई पण रचना रो मूळ काम मिनख नै समझावणो है अर ओ काम दोरौ इण खातर है कै बो आगूंच समझ्यो-समझायोड़ो है। अेक रचनाकार अर रचना री इणी चुनौती नै आलोचना देख्या करै का कैवां कै आलोचना नै देखणो चाइजै। अठै भाटी साब री काव्य-ओळी सूं ई अेक बात आलोचना रै सीगै कैवणी चावूंला कै आलोचना नै ‘जोयेड़ी जोत रो कांई जोणो है’ ओळी रै मरम नै समझणो चाइजै। किणी पण आलेख में फगत इतिहासू बिकास रै नांव माथै पैली सूं बखाणीज्या आंकड़ा सूचनावां नै खुद रै आलेख मांय राखण रो काम ई राजस्थानी आलोचना करती रैयी है, बात बिना होवतै काम नै करण री हूंस लेय’र कीं नवो करण री हुया करै। अर नवी बात लघकथा विधा सूं ‘भ्रमर’ री अपणायत नै देखण-परखण री है।
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डॉ. नीरज दइया





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अे.वी. कमल रो रचना-संसार/ डॉ. नीरज दइया

 6 मार्च पुण्यतिथि माथै खास सिमरण-

राजस्थानी कवि-कथाकार-नाटककार मानीता अब्दुल वहीद ‘कमल’ (17 अप्रैल, 1936 - 6 मार्च, 2006) नै इण संसार सूं गया नै आज लगैटगै अठारा बरस हुवण नै आया है। आपां जे अेम.अे. कॉलेज रै हाई-वे सूं मुक्ता प्रसाद कानी जावां तद मुक्ता प्रसाद सरु हुवण सूं पैली जीवणै हाथ कानी मोटै आखरां मांय ‘घराणो’ नांब लिख्यो दीसैला। ओ गुरुजी अे.वी.कमल रो रैवास हो अर बां रै चावै उपन्यास रो नांव ई ‘घराणो’ हो जिको बरस 1996 में छप्यो अर उण नै साहित्य अकादेमी पुरस्कार बरस 2021 रो मिल्यो। इण उपन्यास री भूमिका लिखता पद्मश्री लक्ष्मीकुमारी चूण्डावत अर दूजा लेखकां ई सरावणा करी। इण उपन्यास पछै आपरो दूजो उपन्यास ‘रूपाळी’ (2003) ई घणो चरचा में रैयो। आं दोनूं उपन्यासां नै केंद्र में राखता म्हैं अेक लांबो आलेख ई उपन्यास विधा रै विगसाव रूप परखता मांडियो हो। म्हारो मानणो है कै राजस्थानी उपन्यास परंपरा नै पोखण पैटै अे.वी.कमल रा दोनूं उपन्यास आपरी कथा-जमीन अर पात्रां रै पाण घणा-घणा महतावूं है।
म्हैं जद सार्दूल स्कूल मांय पढ़तो हो तद मानीता अे.वी. कमल, मो. सद्दीक, अजीज आदाज आद केई गुरुजनां सूं घणो कीं सीखण नै मिल्यो। साहित्य सूं ओळखाण करवाण मांय घर-परिवार अर स्कूल री मोटी भूमिका हुवै। कमल गुरुजी स्कूटर राख्या करता हा अर बां रै जीवण रै लारलै बरसां बां रो पृथ्वीराज रतनू अर कन्हैयालाल बोथरा सूं बेसी घराणो रैयो। बां मिमझर नांव सूं संस्था रै मारफत काम करिया अर जसजोग ग्रंथ ‘आपणी धरती आपणा लोग’ मांय बां रो मोटो सैयोग रैयो। गुरुजी अे. वी. कमल कवि अर नाटककार रै साथै बाल साहित्यकार रूप ई जाणीजै। बां रो बाल उपन्यास ‘हावड़ै रो धोरो’ घणो चावो रैयो। इणी ढाळै नवयुग ग्रंथ कुटीर सूं बां रो कविता संग्रै छप्यो। नाटक री बात करां तो राजस्थानी नाटक ‘तूं जांणी का म्हैं जांणी’ (1993) जिको अकादमी सैयोग सूं बां खुद बाबुल प्रकाशन सूं छाप्यो। इण नाटक रो 23 मार्च, 1993 नै रेलवे प्रेक्षागृह मांय लक्ष्मीनारायण सोनी रै निर्देशन में मंचन हुयो। ओ मंचन राजस्थली संस्थान कानी सूं हुयो अर राजस्थान संगीत नाटक अकादमी री मंचीकरण योजना रै तैत इण नाटक मांय हनुमान पारीक, प्रदीप भटनागर, जगदीश सिंह राठौड़, सुरेश खत्री, सीमा माथुर आद कलाकार रूप भाग लियो तो ओम सोनी, आभाशंकर जिसा दिग्गज नांव ई इण नाटक सूं जुड़्या हा। कैवण रो अरथाव कै कोई रचनाकार आपरै जीवण काल मांय खूब काम करै पण उण रै जायां पछै उण काम री अंवेर कम हुया करै। इण रा केई कारण कैया जाय सकै। घर-परिवार कानी सूं उण री सिरजणा रो मोल-तोल नीं करीजै तद उण काम नै ठबक लागै। कमल गुरुजी री केई अणछपी रचनावां फाइलां अर पांडुलिपियां रूप ई रैयगी। जिकी छपी बै अबै सगळी मिलण मांय समस्या है। बां रै समग्र साहित्य माथै पोथ्यां नीं मिलण सूं बात नीं हुय सकै पण बां रै उपन्यासकार रूप बाबत अठै कीं खास खास बातां कैवणी चावूं।
अब्दुल वहीद 'कमल' आपरै दोय उपन्यासां घराणो (1996) अर रूपाळी (2003) रै पाण जिकी कीरत कमाई उण री बात करां तो उपन्यासकार कमल री सगळां सूं लांठी खासियत आ है कै बां आपरै समाज रो जिको सांतरो चितराम सबदां रै मारफत राख्यो बो मुसळमान समाज रै जुदा-जुदा रूप-रंग नै राखतां थकां उण मायंला दुख-दरद अर सांच नै राखै। राजस्थानी उपन्यासां में कमल सूं पैला किणी रचनाकार इण दिस इण ढाळै री रचनावां कोनी करी। राजस्थानी उपन्यास परंपरा में संजोग रा खेल बात परंपरा सूं हाल तांई साथै-साथै चालै। घराणो में ई संजोग-दर-संजोग उण री कथा रै जथारथ नै अळघो बैठावै, पण आ कुबाण तो आपां देखां, उपन्यास परंपरा री खास खासियत है। उपन्यास ‘घराणो’ में काव्यात्मक गद्य रा दरसण ई हुवै, जिण रो अेक दाखलो- ‘मांझळ रात ही। तारां छायी चूनड़ी सो आभो आपरी छक जवानी माथै हो। स्यांत समुंदर-सो गहरी नींद में सूत्यो सगळो गांव। बाळू रेत रै धोरां सूं चौफेरो घिरियोड़ो ओ गांव अर गांव रै च्यारूंमेर पसरियोड़ो सागीड़ो सरणाटो, जाणै ओ सरणाटो सगळै गांव नै आपरी गोदी मांय सांवट राख्यो हो।’ (पेज - 11)
भासा बाबत अेक बीजी घणी सरावणजोग बात आ है कै आं उपन्यासां में मुसळमान समाज री जिण राजस्थानी भासा रो अेक खरो-खरो रूप आपां सामीं आवै बो आपरै लोक जथारथ रै कारण घणो असरदार है। भासा में सामाजिक रूप-रंग नै राखतां थकां, उणां मांयला दुख-दरद अर सांच नै लेखक जिण रूप में चवड़ै करै बो उपन्यास परंपरा में सदव यादगार रैवैला। घराणो में ‘म्हारा दो आखर’ में उपन्यासकार री टीप तीन पानां में छपी है। कबीर आपां नै ढाई आार में पंडत बणा देवै, तो लेखक आगूंच दो-आखर में रचना रा सगळा पोत चवड़ै कर देवै। आगूंच दो आखर में उपन्यासकार लिखै- ‘म्हैं इण उपन्यास में आ कैवण री चेष्टा करी है कै ‘घराणो बेटी’ रै नांव सूं, बेटी रे सुभाव सूं, बेटी रै बरताव सूं अर बेटी रै चाल-चलन सूं ओळखीजै।’ तो सा ओ मूळ मंतर है जिको इण रचाव रो सार है। अेक समाज रै सांच नै लेखक इण ढाळै प्रगटै- ‘बेटी नै जलमतै ई गळो घोट’र का अमल देयर मारणै री रीत इण घराणै में लारली चार-पांच पीढियां सूं चाल रैयी है। इणां रौ ओ मानणो है कै बेटी तो भाग-फूट्यां रे हुवै है।’ (पेज - 17)
घरणो मुसळमान दांईं हमीदा री कीरत नै बखाणै। उपन्यास अेक छोरै री आस में गळती सूं जलमी छोरी रै प्राणां री अेंवर रै मिस सवाल उठावै, पण उण नै जिण रूप में बिगसावै बो सहज कोनी। असहज कथा ई कथा रो आधार होया करै, पण असहज नै लेखक सहज रै रूप में प्रगटै आ लेखक री खिमता मानीजै। विचार में आ बुणगट कै हिंदू-मुसलमान अेक है-हमीदा रो हीराबाई रै रूप में बदळाव प्रभावित करै, अर ठाकर धनजी अर जीवण रो आंतरो मिनख-मिनख रै विचारां रै आंतरै नै दरसावै।
घराणो बरस 1957 सूं 1966 तांईं रै बगत नै आधार बणावै। रूपाळी में बगत बरस 1965 अर 1971 रै भारत-पाकिस्तान जुद्ध रै अेनाणां रै अैन बीचाळै ऊभो है। जुद्ध रै मांयला-बारला नफा-नुकसाणां री विगतां में केई विगतां अधूरी रैय जावै। बां री संभाळ रचनाकार ई कर सकै, अर अेक संभाळ नै आपां उपन्यास ‘रूपाळी’ में देख सकां। रूपाळी में हिंदू-मुसळमान अेकता अर सद्भाव नै जठै सुर मिल्या है, बठै ई मिनखबायरै घर में किणी लुगाई अर उण रै टाबरां नै हुवण आळी तकलीफां रो लेखो-जोखो पूरी ईमानदारी सूं सामीं राखीज्यो है। जीवण-जुद्ध जूझती लुगाई-जात री इण अंवेर खातर लखदाद। आगूंच ढाई आखर में उपन्यासकार कमल लिख्यो है- ‘उपन्यास में म्हैं आ कैवण री चेष्टा करी है कै जकी लुगाई, लोक लाज सूं, लुगाई जात री मर्यादा सूं आज तक घुट-घुट’र मरती रैयी है। अबै बा समाज री कुरीत्यां अर लोक री अनीत्यां सूं जुड़ै थकां जुलमां अर अणकथ कष्टा नै भोगण नै त्यार नीं है। चावै बा रूपाळी (जमाली) हो का राधा। क्यूं कै लुगाई जात है। लुगाई रो धरम लुगाई है। उपन्यास री नायिका रूपाळी रो चरित्र अेक अेड़ो ई चरित्र है।’
लुगाई जात रो समाज री जूनी मानता, परंपरा, रिवाज का अणचाइजती बात सामीं हुवणो नै पेटै गळत रै विरोध मे हरफ काढणो किणी, आधुनिक रचना में सरावणाजोग मानीजै। स्त्रीवाद जैड़ी चरचा राजस्थानी में कोनी पण उपन्यास रूपाळी रै मारफत जे लेखक राजस्थानी समाज री किणी लुगाई रै इण नवै रूप री ओळखाण करावै तो उण री सरावण हुवणी चाइजै। अठै आ ओळी लिखतां रूपाळी री इण दीठ सूं पुरजोर सरावणा करणी चावूं। उपन्यास-जातरा में ‘रूपाळी’ उपन्यास रो खास उल्लेख इण खातर करियो जावैला कै इण में उपन्यासकार हिंदू-मुसळमान अेकता अर बां री आपसरी री प्रीत रा केई बेजोड़ चितराम ई मांड्या है। बियां घणै गौर सूं रूपाळी री कथा माथै विचार करां तो आ अेक प्रेम-कथा है, जिण में रूपाळी री प्रेमकथा रै साथै-साथै उण री मां जुबैदा री आपरै घरधणी रै लारै प्रेम अर विरह री कथा आधार रूप गूंथीजी है। सगळां सूं सिरै बात आ है कै जुबैदा आपरै घराळै जमालखां (जगमाल) अर छोरी जमाली (रूपाळी) रै सुख-दुख में बंधी राजस्थानी उपन्यासां में जीवटआळी यादगार नायिका रै रूप में आपां सामीं ऊभी होई है। उपन्यास में मुसळमान रो ठेठ भारतीयकरण मिलै, जिण नै कोई हिंदूवाद का हिंदूकरण ई मान सकै। लेखक जमाली रो नांव ई रूपाळी अर जमाल खां रो जगमाल बरतै। आं चरित्रा में लेखक रो मकसद हिंदूवाद नीं पण अेक गांव री भारतीयता रो रंग उजागर करण रो रैयो है।
सगळा सूं मोटी बात आ कै कमल गुरुजी खुद आपरै जीवण मांय धरम का किणी पण आधार रो भेदभाव कोनी राख्यो। बै किणी जात का संप्रदाय रा लेखक नीं हा अर बां रै लेखन सूं इण संसार साथै बसतो लोक जीवण रो अंस उजागर हुवै जिको भारत री मूरत नै पूरण करण मांय मददगार बणै। बै सदीव राजीमन सूं बोलता-बतळावता अर छोटा रो खास लाड रखता हा। बां रै उपन्यासां माथै फिलम बण सकै आ बात बै जाणता इण सारू बां कीं प्रयास ई करिया। म्हनै चेतै आवै कै आमीर खान सूं ई इण सिलसिलै मांय मिल्या पण आगै संयोज ओ रैयो कै बै इण संसार सूं विदा ले लीवी अर सगळी बातां लारै रैयगी। आज जरूरत बां रै प्रकाशित अप्रकाशित साहित्य नै अंवेरण री कैय सका जिण सूं बां रै साहित्य माथै विगतवार चरचा हुय सकै।

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बटन रोज : प्रेम-संबंधों की अबूझ पहेली/ डॉ. नीरज दइया

    चर्चित कथाकार रजनी मोरवाल ने अपने दूसरे उपन्यास ‘बटन रोज़’ को ‘प्रेम करने वालों के नाम’ समर्पित किया है। उपन्यास के विषय में उपन्यासकार ने ‘अपनी बात’ में लिखा है कि वे एक प्रेम कहानी लिखने बैठी थीं और कहानी बढ़ते-बढ़ते उपन्यास में तब्दील हो गई। उपन्यास के नामकरण के विषय में उपन्यासकार का मत है : पाठकों के मन में ये प्रश्न कौंधेगा कि रोज़ (गुलाब) तो आखिर रोज़ (गुलाब) है, फिर बटन रोज़ क्यों? तब शायद उपन्यास के नायक-नायिका की तरह वे आपस में संवाद करने लगें-  
    - ‘तुम्हें ये बटन रोज इतने क्यों पसंद हैं?’
    - ‘क्योंकि ये सुबह की पहली किरण के साथ उगते हैं, किंतु दिन पर धीमे-धीमे खुलते हैं, ठीक प्रेम की मानिंद... जो होता है, तो होता है या होता ही नहीं... और जब होता है तो पूरे जीवन पर महकता है।’
    - ‘लेकिन इनकी सुगंध बहुत मंद-मंद होती है...’
    - ‘हां, लेकिन ये कई दिनों तक अपनी भीनी-भीनी सुगंध बिखेरते रहते हैं।’
    बस यहीं से इस उपन्यास का नामकरण बटन रोज़ हो गया।
    ‘बटन रोज’ को उपन्यास में एक प्रतीक के रूप में प्रस्तुत करते हुए नवीनता के साथ यह सर्वांगीण हो इसलिए अनेक प्रयास किए गए हैं। वैसे प्रेम का प्रतीक गुलाब को माना जाता रहा है और उसके रंगों के हिसाब से काफी बातें कही गई है। इस संसार में ऐसा कौन होगा जिसके जीवन में कभी ‘प्रेम’ घटित नहीं हुआ होगा! सूरदास जी की गोपियों ने उद्धव को कहा था- ‘प्रीति-नदी में पाँव न बोरयो, दृष्टि न रूप परागी।’ किंतु यह सत्य है कि यह नदी जीवन में बरसात बन कर आती है और सभी को आर्द्र करती है। रजनी मोरवाल के रचना-संसार में इससे पहले भी स्त्री की स्वतंत्रता और स्वच्छंदता को विभिन्न कोणों से उठाया जाता रहा है। वे यहां भी नायिका मारिया के माध्यम से एक ऐसी स्त्री के जीवन की महागाथा को प्रस्तुत कर रही हैं जिसके पार जीवन को देखने और समझने की अपनी दृष्टि है। तीस खंडों में उपन्यास की कथा इस प्रकार प्रस्तुत हुई है जैसे वे अलग-अलग काल खंड की अनुभूतियां चित्रों के रूप में होकर एक बड़ा कोलाज बनाए। मुख्य रूप से उपन्यास की कथा के चार आधार कहे जा सकते हैं। पहला- मारिया और एडवर्ड का पहला प्यार, दूसरा- मारिया और हैनरी का वैवाहिक जीवन-संबंध, तीसरा- विवाहित मारिया और इरफान का प्रेम तथा चौथा- मारिया की घर वापसी।
    प्रेम के साथ संयोग और वियोग दो घटक जुड़े हैं। किंतु प्रेम जब भी होता है, जिस किसी अवस्था में होता है, वह जहां भी होता है अद्वितीय होता है। उसकी अनुभूति अथवा होना जीवन का एक ऐसा अनिर्वचनीय सुख है, जिसे शब्दों में पूरा का पूरा अभिव्यक्ति नहीं किया सकता है। वह जितनी भी बार घटित होता है नया नया बनकर घटित होता है। उसे रंगों में पूरा का पूरा उकेरा नहीं जा सकता है। उसे किसी गीत में पूरा गाया नहीं जा सकता है। अभिव्यक्ति के सभी माध्यम और कलाएं मिलकर भी उसे रूपायित करने का प्रयास करें तो बस उसका आभास भर होता है। उपन्यास का मुख्य नायक इरफान चित्रकार है और नायिका मारिया कला प्रेमी। चित्रकला, मूर्तिकला, कविता, इतिहास और समय-संदर्भों के साथ संगीत के घटक भी समाहित किए गए है। प्यानों के म्यूजिक पीस हो अथवा प्रकृति के रूप-रंग और संगीत की बात सभी मिलकर एक ऐसा व्यापक कला-वितान रचते हैं। सब कुछ रचे और कहे जाने के बाद भी प्रेम के लिए बस इतना ही कहा जाएगा कि बिना इस नदी में स्नान किए, प्रेम में आर्द्र होने की अनुभूति को नहीं पाया जा सकता है।
    प्रेम को फिर-फिर नए-नए रूपों-स्थितियों में चित्रित करने के प्रयास हुए हैं, और होते रहेंगे। यहां नायिका के रूप में मारिया को चुना गया है, जो मध्यवर्गीय एंग्लो इंडियन परिवार की लड़की का प्रतिनिधित्व करती है। किशोरावस्था के प्रेम में सुख के साथ दुख और अवसाद का एक ऐसा जटिल समीकरण प्रस्तुत होता है कि नायिका का विवाह हो जाता है किंतु वह किसी तलाश में है। उसकी तलाश इरफान में पूरी होती है किंतु अंत में वहां भी निराशा हाथ लगती है। असल में उपन्यास का केंद्रीय विषय एक ऐसी स्त्री के मनोलोक को उजागर करना रहा है जो विवाह पूर्व और विवाह पश्चात के प्रेम-संबंधों की अबूझ पहेली को सुलझाते हुए किसी निर्णायक स्थिति तक पहुंचना चाहती है। समाज ने वैध और अवैध दो धाराएं निर्मित की है, किंतु प्रेम जीवन में अविस्मरणीय और अद्वितीय होता है और जब उस रास्ते पर कदम उठ जाते हैं तो स्मृति से संसार घर-परिवार सभी जैसे लुप्त होने लगते हैं।
    लेखिका रजनी मोरवाल ने अपने पहले उपन्यास ‘गली हसनपुरा’ (2020) में भी अमर प्रेम की एक दर्द भरी दास्तान से अपने पाठकों को रू-ब-रू कराया था। दोनों उपन्यास में प्रेम का अधूरापन है। अधूरापन इस रूप में कि प्रेम बार-बार जीवन में आकर फिर फिर छूट क्यों जाता है? प्रेम का होना कौन निर्धारित करता है? यह जटिल प्रश्न है कि कब, किसका, कहां और किससे प्रेम होगा। विवाह समाज में क्या प्रेम होने की गारंटी नहीं देता है। मारिया के जीवन में आधुनिक होने की स्थितियों के साथ त्रासदियां है। उसका अपनी जीवन स्थितियों से जूझना और फिर-फिर अपनी परंपरा, मान्यताओं और बंधनों में बंध जाने की नियति को लेखिका ने यहां रेखांकित की है। नारी विमर्श के अंतर्गत ऐसी अनेक रचनाएं हमारे सामने हैं जिन में मुक्ति के मार्ग की तलाश करती में स्त्री जीवन के अनेक आयामों को उजागर किया गया है। उल्लेखनीय है कि यहां परंपरा और आधुनिकता का समन्वय है। लेखिका किसी विचार अथवा निर्णय को अपने पाठकों पर आरोपित नहीं करती हैं। आधुनिकता की त्रासदी के रेखांकन में भारतीय परिवेश में नारी के लिए स्वतंत्रता व स्वच्छंदता में विभेदीकरण करने वाले सवालों का यहां सूक्ष्म अंकन हुआ है। यह सत्य है कि नैसर्गिक अधिकार स्त्री-पुरुष के लिए समान होने चाहिए। कुछ मूलभूत सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए प्रत्येक स्थिति में नारी की व्यक्तिगत परिस्थितियां भी विचारणीय रखी जानी चाहिए। कवि कृष्ण कल्पित ने उपन्यास की भूमिका में लिखा है- ‘रजनी मोरवाल का यह उपन्यास इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि यह काम और प्रेम के द्वंद्व को प्रस्तुत करता है। यह उपन्यास प्रेम जैसी संदेहस्पद चीज के बरक्स काम को विश्वसनीय बताता है। पुरुरवा और उर्वशी के जमाने से शुरू हुए इस सनातन द्वंद्व को रजनी मोरवाल ने नयी कथा में गूंथकर नए ढंग से अभिव्यक्त किया है।’
    बटन रोज बारहमासी फूलों वाला आउटडोर पौधा है। प्रेम के लिए इसके समय में तो साम्य दिखाई देता है किंतु इसका आउटडोर होना प्रेम के संबंध में पूर्णतः सही नहीं है। प्रेम के लिए कोई स्थल अथवा स्थान निर्धारित नहीं किया जा सकता है। अंत में इसके शीर्षक को लेकर यह भी कि ‘बटन रोज़’ में ‘ज’ के नीचे लगे नुक्ता लगाया गया है जिसके बिना भी काम चल सकता था। यहां परिहास में कहें तो यह मुक्ता काले टीके के रूप में इसे नजर से बचने का टोटका है। किंतु कहा गया है- इश्क़ और मुश्क छुपाए नहीं छुपते। यह प्रेम-संबंधों की अबूझ पहेली है जिसे इसके पाठ में उपन्यासकार के साथ खोजना सुखद है।
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उपन्यास : ‘बटन रोज़’  
उपन्यासकार : रजनी मोरवाल
प्रकाशक : सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली
पृष्ठ :192 ;
मूल्य : 395/- (पेपर बैक)
संस्करण : 2023

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संपर्क : डॉ. नीरज दइया


 


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राजस्थानी कविता यात्रा : एक परिचय

 

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प्रकाश मनु के सात रोचक बाल उपन्यास/ डॉ. नीरज दइया

 

प्रकाश मनु के सात रोचक बाल उपन्यास

डॉ. नीरज दइया

 

            बाल साहित्य में प्रकाश मनु चर्चित नाम है। आपने साहित्य की विविध विधाओं में लेखन किया है किंतु विशेष ख्याति आपको बालसाहित्यकार के रूप में मिली है। इसके अनेक कारणों में पहला कारण बच्चों की लोकप्रिय पत्रिका ‘नंदन’ के संपादन से पच्चीस वर्षों तक जुड़े रहना और दूसरा कारण आपके नाम साहित्य अकादेमी नई दिल्ली का प्रथम बाल साहित्य पुरस्कार होना कहे जाते हैं। किंतु इनसे भी बड़ा कारण है आपका सतत लेखन और बाल साहित्य के प्रति समर्पण। आपने बाल साहित्य के विकास को ध्यान में रखते हुए बाल कहानियां, बाल उपन्यास, बाल नाटक और बाल कविताओं के साथ ही बाल साहित्य को केंद्र में रखते हुए महत्त्वपूर्ण आलोचनात्मक कार्य भी किया है। ‘हिंदी बाल साहित्य का इतिहास’ और ‘हिंदी बाल साहित्य नई चुनौतियां और संभावनाएं’ आपकी प्रमुख आलोचनात्मक पुस्तकें है। बाल साहित्य के विशद लेखन के बाद आपकी रचनाओं पर केंद्रित अनेक बड़े संकलन भी प्रकाशित हुए हैं। यथा- ‘चार बाल उपन्यास’, ‘बच्चों के तीन उपन्यास’, ‘मेरी संपूर्ण बाल कविताएं’, ‘बच्चों की एक सौ एक कविताएं’, ‘प्रकाश मनु की सौ श्रेष्ठ बाल कविताएं’, ‘चुनमुन के नन्हे-मुन्ने गीत’, ‘बच्चों की अनोखी हास्य कविताएं’, ‘प्रकाश मनु की लोकप्रिय कहानियां’, ‘बच्चों की सदाबाहर कहानियां’, ‘बच्चों को सीख देने वाली इक्यावन कहानियां’, ‘इक्कीसवीं सदी के बाल नाटक’, ‘इक्कीसवीं सदी की श्रेष्ठ बाल कहानियां’, ‘मेरी प्रिय बाल कहानियां’, ‘बच्चों की इक्यावन हास्य कथाएं’, और ‘बच्चों को सीख देते अनोखे नाटक’ आदि-आदि। आपने पौराणिक कहानियों और बाल साहित्य के लिए अनेक घटकों पर विशद कार्य किया है इसी क्रम में डायमंड बुक्स द्वारा प्रकाशित ‘बच्चों के सात रोचक उपन्यास’ वर्ष 2024 में प्रकाशित हुआ है। इस संकलन में आपके पूर्व प्रकाशित सात रोचक उपन्यास संकलित हैं- जिसमें साहित्य अकादेमी के बाल साहित्य पुरस्कार से सम्मानित उपन्यास ‘एक था ठुनठुनिया’ भी शामिल है। प्रकाशक ने पुस्तक के आवरण पर इसका उल्लेख भी किया है। इसमें शामिल अन्य उपन्यास हैं- ‘नन्हीं गोगो के अजीब कारनामे’, ‘सब्जियों का मेला’, ‘फागुन गांव की परी’, ‘सांताक्लाज का पिटारा’, ‘दुनिया का सबसे अनोखा चोर’ और ‘किरनापुर का शहीद मेला’। साथ ही इस संकलन में पंद्रह पृष्ठों की विशद भूमिका में प्रकाश मनु ने अपनी रचना यात्रा और संकलित उपन्यासों की पृष्ठभूमि के साथ कथानकों पर प्रकाश डाला है। यहां यह भी उल्लेख किया जाना चाहिए कि आपकी पूर्व प्रकाशित कृति ‘चार बाल उपन्यास’ में भी ‘सांताक्लाज का पिटारा’ बाल उपन्यास को शामिल किया गया था और वह इसमें भी है। यह कृति प्रकाश मनु ने ‘बाल साहित्य में अपने ढंग के निराले लेखक देवेंद्रकुमार जी को, जिन्होंने बड़ों के साथ-साथ बच्चों के लिए भी एक से एक लाजवाब कहानियां और उपन्यास लिखें, बड़े आदर के साथ’ समर्पित की है।    

            प्रकाश मनु बच्चों के सुविख्यात कथाकार हैं और बच्चे, किशोर, बड़े-बूढ़े भी आपकी रचनाओं को खूब रस ले-लेकर पढ़ने, सराहने के साथ ही जीवन के लिए बहुत कुछ सीखते हैं। निसंदेह बाल साहित्य लेखन में यह बड़ी चुनौती रहती है कि वह पठनीय हो और भाषा के स्तर पर विशेष ध्यान रखा जाए। ऐसा गद्य जिसे पढ़कर बच्चे रोमांचित हो, उनका मनोरंजन हो और सोचकता के साथ साथ वे पढ़ने के खेल में कुछ सीख भी सकें। उत्सुकता और कौतुकपूर्ण बाल रचनाएं बच्चों को आकर्षित करती हैं। स्वयं प्रकाश मनु का मानना है- ‘बच्चों और बचपन को पूरी निश्छलता के साथ प्यार किए बिना आप बच्चों के लिए कुछ भी लिख नहीं सकते।’ वे वर्षों से सक्रिय हैं और लेखन के आरंभिक काल से ही बाल मनोविज्ञान के गहरे अध्येता रहे हैं। वे जानते हैं कि बच्चों को कैसे लुभाना है। यही कारण है कि उनकी रचनाओं में प्रयोग के साथ भाषा की कलात्मकता देखी जा सकती है।

            सद्य प्रकाशित संकलन की भूमिका को आपने शीर्षक दिया है- ‘मेरे बाल उपन्यासों में भोला और नटखट बचपन झांक रहा है....’ संभवतः प्रत्येक बाल रचना में बचपन को झांकना जरूरी होता है। इसी सूत्र से रचनाएं बाल पाठकों को प्रिय होती हैं। उन्हें लगाता है कि किताब में चित्रित दुनिया उनकी अपनी दुनिया है। इस संकलन में संकलित पहला बाल उपन्यास उनका चर्चित उपन्यास ‘एक था ठुनठुनिया’ है, जिसमें नायक का नाम ‘ठुनठुनिया’ प्रभावित करने वाला है। इस उपन्यास की विशेषता है कि इसे छोटे-छोटे छब्बीस अध्यायों के रूप में बुना गया है और प्रत्येक अध्याय की अपनी कहानी स्वतंत्र होते हुए भी व्यापक रूप में एक औपन्यासिक कोलाज निर्मित करती है। प्रकाश मनु अपनी रचनाओं में साहित्य की परंपरा से खुद को जोड़ने हुए आधुनिकता को अंगीकार करने वाले रचनाकार हैं। वे लोक-साहित्य से भी अपनी रचनाओं को समृद्ध करते रहे हैं। राजस्थानी में ‘झिंतरियो’ और ‘झिंडियो’ नाम को दो बाल पात्र लोक साहित्य में हैं जो नानी के घर जाते समय जंगली जानवरों से संवाद करते हैं। सभी से एक ही कौल ‘नानी रै घर जावण दे, मोटो-ताजो हुय’र आवण दे, पाछो घिरतै नै खा लियै।’ और बाद में नानी के घर से ढोलकी में बैठ कर वह सब को गच्चा देता प्रस्थान करता है- ‘चल मेरी ढोलकी ढमाक ढम’। यहां इसे उल्लेखित करने का कारण यह है कि ठुनठुनिया असल में उसी झिंडिये की पृष्ठभूमि से विकसित मुझे उसका आधुनिक रूप लगता है। वह और यह दोनों ही जीवन-संघर्षों में अपनी अदम्य शक्ति और बल से आगे बढ़ते हैं। इसी भांति इस बाल उपन्यास के दूसरे अध्याय ‘मेले में हाथी’ में हमें वह बालक स्मरण हो आता है जो राजा को नंगा बोलने का साहस दर्शाता है तो तीसरे अध्याय ‘आह रे मालपूए’ में भी उसकी स्मरण शक्ति और मालपुए के नाम बदलने की कथा में पुरानी लोक कथा झांकती नजर आती हैं। आगे की कथाओं में भी ऐसे अनेक घटक शामिल हैं जैसे बांसुरी बजाना अथवा भालू का मुखौटा पहन कर लोगों को डराना आदि कहीं-कहीं किसी अन्य घटना अथवा रचना से प्रेरित-प्रभावित हैं। ये शैल्पिक प्रयोग और लोक-साहित्य के प्रभाव उपन्यास की रोचकता में वृद्धि करने वाले हैं।  

            ठुनठुनिया के परिवार की आर्थिक दशा ठीक नहीं हैं। उसके पिता नहीं है और मां बहुत गरीबी में उसे पाल-पोस रही है। बच्चे को घर की परेशानियों के क्या मतलब। वह तो उम्मीद का दामन थामे मस्ती भरा जीवन जीना चाहता है और जीता है। लेखक ने ठुनठुनिये को बड़ा खुशमिजाज, हरफनमौला और हाजिरजवाब चित्रित किया है और उसकी बड़ी से बड़ी मुश्किलों के बीच ऐसे रास्ते निकाल आते हैं कि वह आगे बढ़ता चला जाता है। वह पढ़ाई लिखाई में कम और हाथ के हुनर सीखने में अधिक रुचि प्रदर्शित करता है। उसे किताबी पढ़ाई के स्थान पर जिंदगी को अपने ही ढंग से जीने में आनंद आता है। वह रग्घू चाचा के पास जाकर खिलौने बनाना सीखता है तो कभी कठपुतलियां बनाने का काम करता है और बाद में कठपुतलियों को नचाने का काम शुरू कर देता है। उसके शो के दौरान उसे मास्टर अयोध्या बाबू मिलते हैं जो बताते हैं कि मां बीमारी है और ठुनठुनिया सब कुछ छोड़-छाड़ कर घर की ओर दौड़ पड़ता है।

            पढ़ाई के साथ-साथ हाथ का हुनर सीखना और कोई काम छोटा बड़ा नहीं होता है इस बात को लेखक प्रकाश मनु ठुनठुनिया के माध्यम से बाल पाठकों में मध्य इस उपन्यास से प्रतिस्थापित करते हैं। इस उपन्यास में मां के पास धन का अभाव आरंभ में प्रदशित किया गया है किंतु बाद में ठुनठुनिया पर वह बड़ा खर्च करने में सक्षम दिखाई जाती है।

            ‘एक दिन ठुनठुनिया दौड़ा-दौड़ा घर गया। मां से बोला- मां-मां, एक इकन्नी तो देना। कंचे लेने हैं।

            गोमती दुखी होकर बोली- ‘बेटा, आज तो घर में बिल्कुल पैसे नहीं है। वैसे तो तेरे सारे शौक पूरे हों, इतने पैसे हमारे पास कहां हैं। बस, किसी तरह गुजारा चलता रहे, इतना-भर ही मेरे पास है। आगे तू बड़ा होकर कमाने लगेगा तो...। कहते-कहते मां की आंखें गीली हो गई।

            - नहीं मां, नहीं। एक इकन्नी तो आज मुझे दे दे, फिर नहीं मांगूगा। ठुनठुनिया के जिद करते हुए कहा।

            गोमती के पास उस समय मुश्किल से कुछ आने बचे थे। सोच रही है कि वह पैसा घर की जरूरतों के लिए बचाकर रखा जाए। उसी से निकालकर गोमती ने इकन्नी दी, तो ठुनठुनिया उसी समय भागा और इकन्नी के आठ नए-नकोर कंचे खरीद लाया।’ (पृष्ठ-40)

            यह वही ठुनठुनिया है जिसमें अध्याय दो में मेले में मां के साथ घूमते हुए दस रुपए की मलाई वाली कुल्फी खाई, दो बार चरखी वाला झूला झूला और फिर मां के साथ पीं-पीं बाजा और गुब्बारे लेकर लौटा था। साथ ही उसके साथ जो उसकी मां है वह अध्याय दस में ठुनठुनिया के लिए स्कूल में फीस के पूरे साढ़े पांच रुपये जमा करती है और उसे नई किताबें, कॉपियां, बस्ता खरीद कर देती है। सवाल बालकों के मन में भले उठे ना उठे किंतु लेखक के मन में क्यों नहीं उठा कि रुपयों-पैसों की इस दुनिया में ठुनठुनिया को एक इकन्नी के लिए अध्याय सात में तरसाया क्यों गया है? यहां उपन्यास के कालखंड को लेकर यह भी कहा जा सकता है कि यह कैसी दुनिया है जहां एक इकन्नी में आठ नए-नकोर कंचे मिलते हैं वहीं दस रुपये में मलाई वाली कुल्फी और पूरे साढ़े पांच रुपये में स्कूल में दाखिला मिलता है। अब तो निःशुक्ल शिक्षा देने का समय चल रहा है।

            बाल साहित्य की रचनाओं में कल्पना और संयोग का बड़ा महत्त्व होता है इसलिए यह भी कहा जा सकता है कि सपनों की दुनिया में लेखक कुछ भी दिखा सकता है। यह भी सत्य है कि बच्चों के सामने जीवन के जटिल यथार्थ को प्रस्तुत करते हुए उनके विकास और कल्पनाओं को बाधित नहीं किया जाना चाहिए। इस खूबसूरत दुनिया में कुछ भी हो सकता है अथवा कहें कि लेखक कुछ भी घटित होता हुआ दिखा सकता है। बच्चे भोले हैं नासमझ और नादान है। किंतु क्या हमारे समय और समाज में बच्चे वे पुराने वाले भोले बच्चे अब भी बचे हुए हैं क्या? बच्चे बहुत कुछ जानते हैं और वे इतना जानते हैं कि बड़े भी नहीं जानते हैं। वे अपने आधुनिक समय में तकनीक के द्वारा इतने आगे बढ़ चुके हैं कि उनके पास बहुत सारे रास्ते हैं। दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुनने वाले बच्चे अब नहीं रहे हैं, और तो और अब ऐसे दादा-दादी और नाना-नानी भी नहीं रहे हैं। अब बच्चे कार्टून और एनिमेशन वीडियो की दुनिया में प्रवेश के बाद ज्ञान-विज्ञान के अनेक साधनों से जुड़ गए हैं। उनमें बड़ा बदलाव आ चुका है ऐसे में बाल साहित्य के सामने अनेक नई चुनौतियां भी निसंदेह सामने है।

            इस कृति के दूसरे बाल उपन्यास ‘नन्ही गोगो के अजीब कारनामें’ में एक छोटी, बहुत छोटी-सी बच्ची गोगो और उसकी दुनिया है। इस बालिका का देश और दुनिया को देखने का अपना नजरिया है। यहां इस दुनिया के यथार्थ के साथ-साथ गोगो की एक काल्पनिक दुनिया भी चलती है। वह दोनों जगहों पर अपने कारनामों से हिम्मत और हौसला दर्शाती हुई नई-नई बातें और जानकारियां देती हैं। प्रकाश मनु की भाषा शैली में प्रवाह है जिससे इस बाल उपन्यास में एक के बाद दूसरे घटना क्रम को जोड़ते हुए पहले बाल उपन्यास की भांति कोलाज निर्मित होता है। इन सभी बाल उपन्यासों में एक उल्लेखनीय घटक छोटी-छोटी काव्यात्मक बाननियां भी हैं। समग्रता से विचार करें तो बाल उपन्यास के बीच इस प्रकार की काव्य-रचनाओं में पाठक अधिक रस नहीं लेता है। इनका ध्वन्यात्मक प्रभाव अथवा गेयता में संदेह नहीं है किंतु गद्य का पाठक किसी भी कथा में आगे क्या हुआ जानने को उत्सुक रहता है इसलिए इनको पढ़ने में छोड़ता भी चले तो मूल कथा में कोई अंतर नहीं आता है। गद्य और पद्य के समानांतर पहले चंपू भी विधा के रूप में प्रचलित रहा है। किसी गद्य रचना में पद्य रचनाओं की अधिकता से वह गद्य गद्य नहीं चंपू कहलाता है और वर्तमान में चंपू का प्रचलन नहीं है। अब ठुनठुनिया के विषय में इन पंक्तियों पर विचार करें-

भालू रे भालू!

अम्मां, मैं तेरा भालू!

अभी-अभी चलकर जंगल से आया भालू,

ला खिला दे, ला खिला दे, दो-चार आलू!

अम्मां, मैं नहीं टालू,

अम्मां, मैं नहीं कालू,

अम्मां, मैं तेरा भालू...!

अथवा

ठुनठुनिया जी, ठुनठुनिया,

हां जी, हां जी... ठुनठुनिया,

ठुन-ठुन, ठुन-ठुन ठुनठुनिया,

ठिन-ठिन, ठिन-ठिन ठुनठुनिया,

देखो, मैं हूं ठुनठुनिया!

हां जी, हां जी... ठुनठुनिया!

            मेरा मानना है कि प्रिय ठुनठुनिया को प्रकाश मनु जी केवल बड़े मजे से कलामुंडियां खाने देते तो बेहतर था किंतु वे उसे खाते हुए जोर जोर से गाने का कार्य देते हुए मूल कथा को आगे या पीछे नहीं ले जा रहे हैं। सांताक्लॉज का पिटारा और अन्य बाल उपन्यासों में प्रयुक्त काव्यात्मक गीति अंशों के विषय में भी मेरा विनम्र मानना है कि यह फिल्मी अंदाज बच्चों को गद्य के बीच काव्य के कारण पाठ में कूदने फांदने को ही बाध्य करता है। हां यदि इनका नाट्य रूपांतरण किया गया और मंचन में ऐसे काव्यात्मक अंश हो तो अवश्य वे संगीत और वादन-यंत्रों के सहयोग से बेहद प्रभावशाली हो सकते हैं।

            इसके साथ ही बालसाहित्यकार के सामने यह भी चुनौती है कि वह किस आयु वर्ग के लिए लिख रहा है। ऐसा कुछ इन सात बाल उपन्यासों के संदर्भ में कहीं निर्धारित नहीं है। बाल उपन्यास में शब्द-सीमा अन्य रचनाओं की तुलना में अधिक होती है तो उसे पढ़ने वाले पाठक भी बहुत छोटे-छोटे नर्सरी राइम वाले तो होगे नहीं। मैं मानता हूं कि अब भी ‘बा-बा ब्लेक शीप’ वाला दौर गया नहीं है किंतु यह सब छोटे बच्चों के लिए है। उनके लिए जो पढ़ने के रास्ते से अभी-अभी जुड़े हैं, ऐसे बच्चों को इन बाल उपन्यास का पाठक नहीं कहा जा सकता है।

            हास्य-विनोद और कौतुक से भरपूर ‘सब्जियों का मेला’ बाल उपन्यास अजीब और निराला लगेगा है। सब्जियों का मानवीकरण करना निसंदेह बच्चों को नवीन कल्पनाशीलता सौंपना है। सब्जियां भी हमारी दुनिया की भांति समानांतर अपनी दुनिया रखती है। वे भी बिल्कुल मनुष्यों की तरह ही बोलती-बतियाती हैं और उनका पूरा जीता-जागता संसार इस उपन्यास के माध्यम से सामने आता है। नाम बड़े रोचक बन पड़े हैं और इन नामों के माध्यम से लिंग भेद की अच्छी जानकारी अप्रत्यक्ष रूप से बच्चों को होती है।  

            ‘फागुन गांव में आई परी’ को यहां बाल उपन्यास के रूप में शामिल किया गया है और इसी नाम से एक रचना स्वयं प्रकाश मनु ने संपादक के रूप में ‘श्रेष्ठ बाल कहानियां’ (भाग-2) प्रकाशन वर्ष 2023 में शामिल की है। यह एक रोचक फंतासी विधा के स्तर पर उपन्यास है अथवा कहानी है। क्या किसी कहानी को रचना का विकास करते हुए उपन्यास का रूप दिया जा सकता है? अथवा किसी उपन्यास को काट छांट कर कहानी का रूप दे सकते हैं क्या? यह किसी रचना के प्रति लेखकीय ईमानदारी भी है कि उसके विधा रूप को स्पष्ट किया गया। प्रकाश मनु ने लेखकीय ईमानदारी का परिचय देते हुए इस पुस्तक की भूमिका में इस संबंध में लिखा भी है- ‘मेरा यह बाल उपन्यास थोड़े संक्षिप्त रूप में बाल साहित्य की बहुचर्चित पत्रिका बालवाटिका में छपा था, तो इस पर पाठकों के फोन और चिट्ठियों की जैसे बारिश आ गई।’

            किसी बाल उपन्यास को लेखक अपनी इच्छा से संक्षिप्त कर सकता है उसे श्रेष्ठ बाल कहानी के रूप में भी प्रकाशित कर सकता है और तो और अपनी भूमिका में उसका सार भी बच्चों बड़ों को बता सकता है। क्या यह सभी बातें सही है? मुझे लगता है कि रचना को बड़े धैर्य और धीरज से लिखा जाना चाहिए और यदि वह कहानी है तो कहानी है और बाल उपन्यास है तो वह बाल उपन्यास है। इस प्रकार विधाओं में आवाजाही आलोचना और मूल्यांकन को प्रभावित करती है। रचना में वे कौनसे घटक है जिनको जोड़कर हम किसी कहानी को उपन्यास का रूप दे सकते हैं। कथा-तत्वों की बात करें तो काफी समानता के बाद भी कोई रचना और उसका आवेग स्वयं निर्धारित करता है कि वह कहानी के रूप में जन्म लेती है अथवा उपन्यास के रूप में। विभिन्न कहानियों का कोई कोलाज जोड़ते हुए उसे बाल उपन्यास का रूप दिया जा सकता है और ऐसा प्रकाश मनु ने किया भी है। किसी पात्र और घटनाओं के शृंखलाबद्ध लेखन का भी प्रचलन रहा है और अनेक रचनाओं को अनेक भागों में लिखा भी गया है। एक कहानी से दूसरी और दूसरी से तीसरी का निकलना आगे से आगे चलना हमारी भारतीय कथा-परंपरा में है भी। यहां भी यह शोध खोज का विषय है कि वरिष्ठ बाल साहित्यकार प्रकाश मनु ‘फागुन गांव में आई परी’ के बाल कहानी और बाल उपन्यास में क्या-क्या, कहां-कहां और कितना-कितना परिवर्तन परिवर्द्धन कैसे-कैसे करते हैं।

            इस उपन्यास में परी जो विशुद्ध काल्पनिक है को वास्तविक दुनिया में उतरने का अभिप्राय दो दुनिया को जोड़ना है। स्वयं लेखक ने इस संबंध में लिखा भी  है- ‘मैं अपनी इस कथाकृति के जरिए बताना चाहता हूं कि देखो भाई, बदले हुए जमाने की परियां भी कितनी बदल गई है, और परीकथाएं भी। पर उन्हें देखने का हमारा नजरिया आज भी पिछड़ा हुआ है। मेरा मानना है कि हम नए जमाने की नई परीकथाएं लिखें, तो उसमें बहुत कुछ नया होगा, और वे बच्चों के दिल पर कहीं ज्यादा असर छोड़ेंगी।’ इस बाल उपन्यास में ग्रामीण जीवन के यथार्थ से परी को जोड़ते हुए यहां गांव के सीधे-सरल लोग, उनका निश्छल प्रेम और मेहनत-सच्चाई का आदर्श प्रस्तुत किया गया है। यह ऐसा आदर्श है जो परियों को भी लुभाता है।

            ‘सांताक्लाज का पिटारा’ बेहद रोमांचक और कौतुक पूर्ण बाल उपन्यास है। इसमें बच्चों से खुद उनका प्यारा दोस्त बनकर सांता मिलता है। उनकी समस्याओं और जरूरतों को जानने समझने के साथ ही उनके निदान के लिए भी वह जुट जाता है। हर साल क्रिसमस पर लाखों बच्चों को वह चुपके से सुंदर, रंग-बिरंगे उपहार दे जाता है। इस बाल उपन्यास में आरंभ से लेकर अंत तक, कठोर जीवन के सत्यों को बातों बातों में किस्से-कहानियों की शक्ल में बुना गया है। सांता दुनिया में खुशियां बांटते हुए बच्चों में एक दूसरे से तुलना का भाव जगाता हुआ हमें जीवन संघर्ष के लिए प्रेरित करता है। अनेक बच्चों को यह महसूस करता है कि उनकी मुश्किलें तो कुछ नहीं है।

            बकौल लेखक इस पुस्तक में दो एकदम नए बाल उपन्यास शामिल हैं- ‘दुनिया का सबसे अनोखा चोर’ और ‘हिरनापुर का शहीद मेला’। इनमें ‘दुनिया का सबसे अनोखा चोर’ में एक जीनियस चोर के अजीबोगरीब चरित्र को उजागर करने के प्रयासों के साथ ही उसके विचित्र कारनामों की किस्से हैं वहीं उसके लिए एक छोटा जीनियस बाल पात्र के रूप में प्रस्तुत किया है। चोर ने एक ऐसा सुपर कंप्यूटर बना लिया है, जिसके जरिए वह किसी भी आदमी के मन को काबू करके, अपने ढंग से चला सकता है। वह चोर लोगों को वश में कर उनके दिमाग पढ़कर बड़े आराम से बड़ी चोरियों के कारनामे करता और अंत में सहासी बाल कहानियों की भांति नायक उसे उसके घर में घुसकर अपने तरीके से पकड़ लेता है। वहीं छोटे से बाल उपन्यास ‘हिरनापुर का शहीद मेला’ में देश प्रेम की भावना से ओतप्रोत कथा है। देश के लिए कुछ कर गुजरने की भावनाओं के लिए ऐसी प्रेरणास्पद रचनाओं का अपना महत्त्व होता है।  

            प्रकाश मनु का मानना है कि बच्चों या बड़ों के लिए लिखने में उन्हें कोई फर्क नजर नहीं आता। ऐसा वे अपनी निजी रचनात्मकता के सिलसिले में कहते हैं कि दोनों ही अवस्थाओं में लेखक के भीतर दबाव या तनाव में कोई अंतर नहीं होता। यह बाल साहित्य के प्रति रागात्मकता से जुड़ने की अवस्था है। बच्चों के लिए लिखना बड़ों के लिए लिखने से भी अधिक चुनौतीपूर्ण है ऐसा नहीं है कि बच्चों के लिए लिखना है तो जो मर्जी आए लिख दिया जाए। प्रकाश मनु अपने रचनात्मक अनुभव को साझा करते यह भी लिखते हैं कि उन्हें बाल साहित्य लिखते हुए पचास बरस से अधिक समय हो गया है किंतु अब भी जब वे किसी नई रचना को शुरू करते हैं तो उन्हें प्रतीत होता है कि जैसे वे पहली बार हाथ में कलम पकड़ रहे हैं और जब तक रचना पूरी हो कर आनंद के क्षणों तक नहीं पहुँचती, वे निरंतर उसके प्रति श्रम से निष्ठावान रहते हुए उत्साहित रहते हैं। आत्ममूल्यांनक के बाद ही वे रचना को प्रकाशित कराते हैं। यह उनका बाल साहित्य के प्रति अतिरिक्त लगाव है कि वे इस अवस्था में भी रत्ती भर दंभ नहीं करते हैं और सतत रूप से सक्रिय रहते हैं। वे बच्चों के लिए लिखने की अपार ऊर्जा और आनंद को बच्चों और बचपन को पूरी निश्छलता के साथ प्यार करते हुए पाते हैं। कामना है कि वे सतत सक्रिय रहते हुए बाल साहित्य की श्रीवृद्धि करते रहेंगे।  

    

डॉ. नीरज दइया,

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कृति :  बच्चों के सात रोचक उपन्यास  (बाल उपन्यास संग्रह) 

लेखक : प्रकाश मनु

प्रकाशक : डायमंड बुक्स, नई दिल्ली 

 पृष्ठ : 316 ; मूल्य : 300/- ; पहला संस्करण : 2024

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व्यंग्य ने जिसे चुना : प्रेम जनमेजय/ डॉ. नीरज दइया

 समकालीन हिंदी साहित्य में और खासकर व्यंग्य के क्षेत्र में एक बहुत बड़ा नाम है- प्रेम जनमेजय। यह पंक्ति मैंने बहुत सम्मानपूर्वक लिखी है, किंत...

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