कविता-यात्रा में युवा कवि शंकारानंद ने अपना विशिष्ट स्थान बनाया है। वह अपने आसपास की भाषा से कविता में सहज-सरल रहते हुए ऐसी द्युति उत्पन्न करने की क्षमता रखते हैं कि कविता बहुत कम शब्दों में गहरे अर्थों को व्यंजित करती है। उनके तीसरे काव्य-संग्रह 'इनकार की भाषा' में उनकी काव्य-भाषा का उत्थान देख सकते हैं और सर्वाधिक उल्लेखनीय यह है कि उनके यहां इनकार की भाषा में भी आत्मीयता और विवेकवान होना अपने आप में एक अतिरिक्त विशेषता है। यह उन्होंने सहजता के साथ सायास हासिल की है। बिना मुखर या अतिरेक के वे इनकार की स्थितियों में जिस सजगता को कविता में हमें सौंपते हैं, वह रेखांकित किए जाने योग्य है। संभवतः ऐसे ही कुछ कारण रहे होंगे कि उन्हें ‘इनकार की भाषा’ संग्रह के लिए वर्ष 2022 का 'मलखान सिंह सिसोदिया कविता पुरस्कार' अर्पित किया गया है।
इस संग्रह की पहली कविता 'आवाज़' का यह अंश इस बात का प्रमाण है कि वर्तमान समय के कोलाहल में किस प्रकार छोटे-बड़े स्वरों को दबाया जा रहा है। यहां तक कि आम आदमी के दुख-दर्द और पीड़ा से भी किसी को कोई सरोकार नहीं है। यह संवेदनहीनता का ऐसा दौर है जिसमें सत्ता और उससे जुड़े लोगों ने देश को शक्ति-प्रदर्शन का अखाड़ा बना लिया है। 'इन दिनों असंख्य आवाज़ हवा में गूंज रही है/ इसमें अन्याय की आवाज़ सबसे अधिक है/ यह शोर का समय है/ जब चीख को दबाना भी एक कला है।' कवि का मानना है कि आवाजों के इस शोर में जो दूसरी आवाज़ है, उसके लिए भी जगह बची रहनी चाहिए। यह हमारे समय का इतना निराशाजनक परिदृश्य है कि इस कविता की अंतिम पंक्ति के रूप में कवि जैसे विवश होकर लिखता है- 'आवाज़ की दुनिया के लोकतंत्र का सूर्यास्त हो गया है।' जाहिर है कि हम सभी यह चाहते हैं कि आवाज की दुनिया का लोकतंत्र प्रकाशवान रहे, उसमें सभी आवाजों का मान-सम्मान और चेहरा बना रहे। जीवन की मूलभूत आवश्यकताएं सुलभ हो यह लोकतंत्र का दायित्व है, किंतु देखिए हो क्या रहा है- 'बहुत मुश्किल से मिलता है दो घूँट पानी पीने लायक/ अन्न भी घर भी दवा भी अब दुर्लभ है/ हर चीज़ नकली है असली के सामने
लोकतंत्र का उत्सव चरम पर है और/ नागरिक का जीवन ख़तरे में हर दिन।' (कविता- 'साँस')
यही वह भाषा है जिसमें कवि का इनकार प्रस्तुत होता है और यह इस भाषा का जादू है कि वह इनकार के लिए आम आदमी को जाग्रत करने का सामर्थ्य रखती है। जैसे 'पेड़' कविता में किसानों की आत्महत्या के प्रसंग को उनसे सीधे आह्वान के साथ लिखते हुए एकालाप की स्थिति है, किंतु संयम को बनाते हुए यहां लोकतंत्र को बचाने का एक सपना भी शामिल है। इसके लिए सब को एकजुट होकर बोलना होगा। यदि अन्याय के विरूद्ध चुप रहेंगे तो कवि के अनुसार- 'चुप रहने पर आवाज चुप हो जाती है एक दिन/ भाषा चुप हो जाती है/ व्याकरण बिगड़ जाता है चुप रहने से।' (कविता- 'विरोध')
कवि शंकारानंद की काव्यगत विशेषताओं में विशेष उल्लेखनीय यह है कि वे अपनी कविताओं में नए तरह के प्रतीक और बिंब सामने लाते हैं, जिससे उनकी काव्य-अनुभूतियां बहुत सहजता के साथ पाठकों से जुड़ती चली जाती है। उदाहरण के लिए 'गिरना' कविता को देखें- 'एक बच्चा जो अभी चलना सीख रहा है/ उसके हिस्से में अभी/ चलने से ज्यादा गिरना है
वह एक कदम उठाता है तो/ दो बार गिरता है/ दो कदम उठाता है तो पाँच बार गिरता है
उसके चलने के औसत से ज्यादा/ उसके गिरने का औसत है,
फिर भी वह मेरे बार-बार मना करने के बावजूद चल रहा है/ मैं हाथ पकड़ता हूँ तो/ वह हाथ छुड़ा कर भाग जाता है।'
कवि शंकरनंद के यहां बच्चा एक संभावना और प्रश्न के रूप में बार-बार उपस्थित होता है, साथ ही वे आवाज की बात अनेक कविताओं में करते हैं। ऐसी कविताओं से पाठक जब आत्मसात होता है तो उसे यह अनुभूतियां अपनी लगने लगती है।
यहां यह भी कहना होगा कि इनकी कविताएँ अपने विन्यास में भले ही शाब्दिक रूप में छोटी दिखाई देती हो, किंतु वे अपनी संरचना में पूरी रचनात्मक शक्ति को लेकर चलती है। शायद यही कारण है कि वे मानवीय संवेदनाओं का वाहक बनती हुई, हमारी चेतना को बारंबार झंकृत करती है। उदाहरण के लिए एक अन्य कविता- 'आता हुआ वसंत' का यह अंश देखें- 'इतना आसान नहीं है फूल का खिलना/ जैसे एक मशीन काग़ज़ पर खिला देता है/ एक साथ हजार फूल रंग और चमक से भरकर।' यह कितना सही और सटीक संकेत है जब आज आधुनिकता की आड़ में प्रकृति का निरंतर दोहन हो रहा है, वहीं उसके समांतर एक ऐसी मशीनी दुनिया है जिसमें रंग और चमक तो है किंतु संबंधों की ऊष्मा और ऊर्जा नहीं है। इसी कविता में आगे की पंक्तियां हैं- 'इतना आसान नहीं होता/ पत्तों का हरा होना बहुत गाढ़ा/ पक्षी का उड़ना ज़हर लगे तीर के बीच/ बच जाना हर बार चिड़ीमार से/ या बीज का अंकुर में बदल जाना रातों रात/ फल का पकना चुपचाप/ या गिर जाना किसी स्वाद के लिए/ जो न जाने कब से उसकी प्रतीक्षा कर रहा है।'
हम देखते हैं कि कहीं भी किसी कोण पर प्रकृति में कोई शोरशराबा नहीं है। वह चुपचाप शांत भाव से अपनी धुन में अपना कार्य कर रही है और उसी समय प्रचार-विमर्श के दौर में ये सब अप्रासांगिक होता जा रहा है। किसी को पल भर की फुर्सत नहीं कि वह देखे- पत्तों का हरा रंग कैसे गाढ़ा होता है? रातों रात कोई बीज कब कैसे अंकुरित होता है? फल का पकाना क्या कोई संदेश दे रहा है? कि किस तरह वह पकने के बाद गिर जाता है चुपचाप.... कौन है जो इन सब की प्रतीक्षा में बेचैन है? वर्तमान समय में तो हर कोई बहुत जल्दी और समय से पहले पाने की दौड़ में उलझा हुआ है। ऐसे में बिना अतिरेक में जाए कवि बहुत सहजता-सरलता से ऐसे संकेत अपनी कविताओं में करता जाता है कि धीरे धीरे बात का सिरा पकड़ में आने लगता है। 'पहले तो रंग बहुत थे जीवन में/ फिर धीरे-धीरे सिमटने लगा सब कुछ/ उदासी बढ़ी दुःख बढ़ा मृत्यु का कारण बढ़ा/ फिर तो रंग स्वप्न से भी लापता हो गये।' (कविता- 'रंग के चोर')
हमारे समय में रंगहीन होती इस दुनिया के सांस्कृतिक क्षरण के लिए 'मेला' जैसी कविता बेहद प्रासंगिक है, इस कविता में कवि वर्तमान समय की त्रासदियों को उजागर करते हुए अपनी उसी पुरानी दुनिया में लौटने का आह्वान करता है। समय में लौटना संभव नहीं, किंतु उस समय के मूल्यों को बचना जरूरी है। संवेदनशील के साथ प्रत्येक जीवन होना चाहिए। इस कविता में अंतिम संदर्भ के रूप में कवि कविता में प्रेमचंद जैसे महान कथाकार की कहानी ईदगाह का जिक्र हामिद के बहाने करता है। यह एक ऐसा संकेत है जिस समय रहते समझा जाना चाहिए कि आधुनिता का अर्थ यह कदापि नहीं है कि हम मेलों की उस दुनिया को पृथ्वी से गायब कर दें और चिमटा खरीदने का विकल्प बच्चों के सामने से देखते ही देखते लुप्त कर दें। जाहिर है कि कवि यह आह्वान करते हुए वांछित बदलाव चाहता है- 'मैं वह चिट्ठी नहीं बनना चाहता जो/ लिखी तो गई पर पहुँची नहीं/ बिना पते के ताखों पर ही गल गई अपनी नमी में/ उस तरह बाकी नहीं रखना चाहता हूँ कुछ।' (कविता- 'एक पल में') कवि का विश्वास है कि हमारी इच्छाशक्ति और भाषा में ही वह शक्ति और सामर्थ्य है कि वह स्थितियों को परिवर्तित कर सकती है। 'अलग करना' कविता में भाषा की इसी क्षमता को रेखांकित किया गया है- 'एक मनुष्य से दूसरे की दूरी के लिए/ एक भाषा काफी है/ वहाँ दीवार हो या न हो/ इससे फर्क नहीं पड़ता।' अथवा भाषा के पक्ष में ये पंक्तियां देखी जा सकती है- 'चुप रहने पर आवाज चुप हो जाती है एक दिन/ भाषा चुप हो जाती है/ व्याकरण बिगड़ जाता है चुप रहने से।' (कविता- 'विरोध')
परंपरा और अपनी जमीन से जुड़े लोगों के प्रति बदलते नजरिये पर भी संग्रह में कविताएं हैं, तो अनेक कविताएं हमारे आत्मीय संबंधों की भी हैं। संग्रह में मां और पिता विषयक कविताएं बेहद मार्मिक है।
'पिता आज भी वैसे ही हैं मेरे लिए पहले की तरह/ पर उनके झुके हुए कंधे/ उनके काँपते हुए हाथ सब बेचैन करते हैं/ वे कहते हैं चिंता की कोई बात नहीं/ और उनकी चुप्पी मेरी नींद उड़ा देती है।' कवि का जीवन की विविध स्थितियों में संवेदनशील होना प्रभावित करता है, वहीं स्थितियों को देखने-समझने की दृष्टि में परिपक्वता है। 'भरोसा' कविता का यह अंश देखें- 'न पिता की उँगली है यहाँ न माँ के भरोसे के हाथ का आसरा/ कोई तरीका नहीं जो बता दे कि ये दिशा सही है/ इतना रहस्य है इतना धुआँ इतना विश्वासघात/ कि हर पता गलत निकलता है।' वहीं दूसरी तरफ इन विरोधियों स्थितियों के बीच एक जगह शेष है जिसके विषय में 'लौटने की जगह' कविता में कवि ने लिखा है- 'दुनिया में कहीं भी रहें/ घर आपकी लौटने की जगह है/ एक अंतिम आसरा सूर्यास्त के बाद।'
अगर कहा जाए कि कवि की रचनात्मकता के उत्कर्ष को देखने के लिए इस संग्रह की कोई एक कविता प्रस्तुत करें, तो मेरा मत रहेगा कि 'पहाड़' कविता देखें- 'ये पहाड़ की ऊँचाई है/ किताबों में जिसे/ बित्ते भर में दिखा दिया गया
अब अगर इसे देखा जाए तस्वीरों में/ यह ऐसा ही दिखेगा/ जैसे नाप लिया जाए दो कदम में/ और सारा पहाड़/ पैरों के नीचे आ सकता है
यह तस्वीर सच नहीं है/ इससे नहीं जाना जा सकता एक पहाड़।'
पहाड़ को जानने के लिए केवल किताबें पर्याप्त नहीं, हमें उसकी छाती पर कदम रखना होगा ठीक वैसे ही हमको 'इनकार की भाषा' को स्वयं जांचना-परखना होगा।
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