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साहित्य अकादेमी से प्रकाशित तीन किताबें/ डॉ. नीरज दइया

·         कृति : पियू की डायरी (बाल उपन्यास)

लेखक : संगीता बर्वे ; अनुवादक : सुभाष तळेकर

पृष्ठ : 80 ; मूल्य : 100/- ; संस्करण : 2024

·         कृति : आओ हया, किस्सा सुनाऊं  (बाल कहानी संग्रह)

लेखक : योसेफ मेकवान ; अनुवादक : योगेश अवस्थी

पृष्ठ : 72 ; मूल्य : 75/- ; संस्करण : 2024

·         कृति : आनंदम  (बाल कहानी संग्रह)

लेखक : दासरि वेंकट रमण ; अनुवादक : पारनंदि निर्मला

पृष्ठ : 100 ; मूल्य : 100/- ; संस्करण : 2024

तीनों पुस्तकों के प्रकाशक : साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली

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अनुवाद में अनुवादक का खून-पसीना और मेधा का विलय

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डॉ. नीरज दइया

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हमारे पास हैं अपने दुखों के पहाड़ ● डॉ. नीरज दइया

साहित्य में सर्वाधिक लोकप्रिय विधा कविता रही है और वर्तमान में भी उसी का बोलबाला है। आज जब इतने अधिक कवि सक्रिय हैं तो उन्हें उनकी कविता से पहचानना बेहद मुश्किल हो गया है। भाषा, शिल्प अथवा कथ्य में कुछ तो ऐसा होना चाहिए कि किसी संग्रह की कविताओं से गुजरते हुए एक अहसास बने। जैसे कवि की भाषा में समाहित सहज आंचलिकता से उसके क्षेत्र विशेष का पता चले। उसकी भाषा से उसके नए अथवा पुराने होने का आभास हो। उसके कथ्य से उसकी उम्र और व्यक्तिगत नजरिए की जानकारी मिले। हो सकता है कवि और कविता को लेकर यह मेरा पूर्वाग्रह हो किंतु मेरा मानना है कि प्रत्येक कवि में उसकी निजता होनी ही चाहिए, इसे प्रत्येक की अपनी मौलिकता भी कहा जा सकता है। उसका कुछ निजी अवदान कविता को लेकर प्रकट होना चाहिए।


ऐसी ही कुछ मनः स्थिति में जब मैं साहित्य अकादेमी के राजस्थानी युवा पुरस्कार से सम्मानित युवा कवि कुमार अजय का पहला हिंदी कविता संग्रह 'कहना ही है तो कहो' देखता हूं तो मेरा विश्वास प्रगाढ़ होता है। 

संग्रह की कुछ कविताओं की भाषा में लोक-जीवन से जुड़ी शब्दावली यह अहसास दिलाने के लिए पर्याप्त है कि कवि राजस्थान का बाशिंदा है, वहीं कुछ कविताएं उनके इस क्षेत्र में नए और युवा होने के प्रमाण भी प्रस्तुत करती हैं। 

कुमार अजय की 'काल' कविता को देखें- 'हौळा करते वक्त/ जैसे भूनी जाती है/ घेघरी में/ निश्चिंत होकर/ बैठी लट।

चूल्हे में डाले गए/ ऊपले में/ छुपकर बैठा/ भूंडिया जैसे/ हो जाता है राख।

किसी फटकारे से/ झड़कर गर्म रेत में/ कुलबुलाकर/ मर जाता है कातरा।' यहां प्रकृति द्वारा अचानक बिना कहे जीवन को लील जाने के संदर्भों से अंत में कवि स्वयं को प्रस्तुत करते हुए लिखता है- 'हां, वैसे ही/ किसी एक क्षण पर/ लिखा है/ मेरा भी विश्राम/ प्रतीक्षारत हूं/ निश्चिंत/ चलते हुए निरंतर।' इस कविता में खेत में 'लावणी' कर रहा किसान हो या कि उसके जूतों तले दबकर मरने वाली 'टीटण', लोक जीवन से जुड़ी शब्दावली को प्रस्तुत किया गया है जो कवि की निजी संपदा है। वहीं इस संग्रह की शीर्षक कविता का यह अंश देखें- 'समय से कुछ मत कहो/ मत कोसो समय को/ इस बुरे समय से निजात/ उसके बस की बात नहीं।' इसके बाद 'कहना ही है अगर तुम्हें तो कहो' के स्थाई अंतरे के रूप में  पंछियों, गायों, नदियों, पहाड़ों, हवाओं, झरनों और बच्चों को विकल्प के रूप में प्रस्तुत करता हुआ कहता है- 'और कहो खुद से भी/ किसी शाम तो दफ्तर से जल्दी घर लौटें/ और घुटनों के बल चलती नन्हीं बिटिया से/ तुतलाकर बतियाएं।

हां, इन सब से कहो/ लेकिन समय से कुछ मत कहो/ क्योंकि इस बुरे समय से निजात/ उसके बस की बात नहीं।'

असल में यह कविता हमारे वर्तमान समय के सीमित होने पर हस्तक्षेप करती हुई जीवन के विस्तार को रेखांकित करती है। विकल्प तो बहुत है किंतु सांकेतिक रूप से इन सब के सहारे कविता से भागदौड़ भरी जिंदगी में अपने घर-परिवार और साथ चल रही अनोखी दुनिया को जोड़ने का प्रयास किया है, क्योंकि जीवन का वह आनंद बाद में संभव नहीं। तुतलाकर बोलना और वह भी अपनी बेटी से, किसी भी बुरे समय को पीछे धकेल सकता है। कवि का मानना है कि संवेदनहीनता के इस दौर में अब भी संवेदनाएं बची हुई हैं और उन्हें बचाया जाना बेहद जरूरी है। जो चीजें हमारे हाथ में नहीं उन्हें छोड़ देना बेहतर विकल्प की दिशा में बढ़ना है। 

यह ऐसी कविता है जो देश दुनिया के किसी भी युवा कवि की मानसिकता को प्रस्तुत करती हुई उसकी अनुभूति और ज्ञान को साझा करती है। असंवेदनशीलता के इस दौर में कवि होना ही अपनी संवेदनाओं को संरक्षित करना है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि इस संग्रह के समर्पण पृष्ठ पर लिखा है- 'उन संवेदनाओं को जिनके बूते पर जीने का भ्रम पाले बैठे हैं।' 

इस संग्रह की दूसरी कविता 'नई सदी के बच्चे' में भी इन्हीं छीजती संवेदनाओं और मशीनी युग में पल रहे बच्चों के जीवन को सीमाओं और बंधनों में बांधने पर करारा व्यंग्य किया गया है। बच्चों का सहज स्वाभाविक विकास होना चाहिए,  उन्हें अपनी परंपरा और संस्कृति से जुड़ना चाहिए, उन्हें हमारी जड़ों से जीवन का हरापन ग्रहण करना चाहिए किंतु हो यह रहा है कि आधुनिकता और पाश्चात्य जीवन शैली के कारण उन्हें दादा-दादी की छाया से भी दूर कर दिया गया है। 

प्रेम के विषय में कवि की कोरी भावुकता नहीं वरन उसका मजबूत नजरिया व्यक्त हुआ है। वहीं, कुमार अजय की कविताओं में संघर्षरत किसान है तो औरतों के जीवन की त्रासदियां हैं। उनके जीवन की अधूरी लालसाओं और त्रासद स्थितियों का प्रभावशाली चित्रण भी है। कवि के आस-पास जैसा जीवन जिस रंग रूप में उसे नजर आता है, उसे वैसे ही अभिव्यक्त करने के कौशल में भाषा की सहजता है। महाभारत के प्रसंगों से जुड़ी कविताओं में कवि का बौद्धिक विमर्श देख सकते हैं। इन सब में जो सर्वाधिक रेखांकित किए जाने योग्य है, वह है कवि का सामान्य जीवन के व्यंग्य और त्रासदी का निरूपण। कवि इस तथ्य को अनुभूत करता है कि हमारे आस-पास की परिस्थितियां ऐसी हो गई  हैं कि एक आदमी खुलकर रो भी नहीं सकता है। उसके पास रोने को उपयुक्त जगह और समय नहीं है। इस स्थिति को कवि ने सूक्ष्मता से कविता 'रोने के लिए उपयुक्त नहीं है ये समय' में उठाया है। 

कवि 'खबर' कविता में अपने पेशे से जुड़ी विडंबनाओं और त्रासदियों को शब्दबद्ध करता है कि खबर बनाने वाले किसी घटना की प्रतीक्षा करते हैं, चिड़िया की चहचहाहट हो या किसी का सामान्य हंसता-खेलता जीवन, वह खबर का हिस्सा नहीं है। 

अपने पहले कविता संग्रह से कवि यह उम्मीद और विश्वास सौंपता है कि भविष्य में वह संभावनाओं के द्वारा खोलेगा। यहां कवि ने अपनी भाषा के बल पर अपने कहन को हासिल कर लिया है। बानगी के तौर पर कविता 'इस नरभक्षी समय में' का यह आरंभिक अंश देखें- 'मत सोचो तेजी से सूखते कुओं के बारे में/ वैसे भी इस नरभक्षी समय में/ आदमी के लहू से ही बुझेगी आदमी की प्यास।

पीछे सरकते पहाड़ों पर मत रोओ/ हमारे पास हैं अपने दुखों के पहाड़/ जिनके पार हम देखते रहेंगे/ अपने सुखी जीवन के सूर्यास्त।' मेरा विश्वास है कि यदि कोई युवा कवि अपने आरंभिक काल में यह संज्ञान ले लेता है कि हमारे पास हैं अपने दुखों के पहाड़ तो वह दूसरों के मुकाबले जीवन की त्रासदी और निरंतरता को गंभीरता से रेखांकित कर सकता है। 

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इनकार की आत्मीय और विवेकवान भाषा ● डॉ. नीरज दइया

कविता-यात्रा में युवा कवि शंकारानंद ने अपना विशिष्ट स्थान बनाया है। वह अपने आसपास की भाषा से कविता में सहज-सरल रहते हुए ऐसी द्युति उत्पन्न करने की क्षमता रखते हैं कि कविता बहुत कम शब्दों में गहरे अर्थों को व्यंजित करती है। उनके तीसरे काव्य-संग्रह 'इनकार की भाषा' में उनकी काव्य-भाषा का उत्थान देख सकते हैं और सर्वाधिक उल्लेखनीय यह है कि उनके यहां इनकार की भाषा में भी आत्मीयता और विवेकवान होना अपने आप में एक अतिरिक्त विशेषता है। यह उन्होंने सहजता के साथ सायास हासिल की है। बिना मुखर या अतिरेक के वे इनकार की स्थितियों में जिस सजगता को कविता में हमें सौंपते हैं, वह रेखांकित किए जाने योग्य है। संभवतः ऐसे ही कुछ कारण रहे होंगे कि उन्हें ‘इनकार की भाषा’ संग्रह के लिए वर्ष 2022 का 'मलखान सिंह सिसोदिया कविता पुरस्कार' अर्पित किया गया है। 

इस संग्रह की पहली कविता 'आवाज़' का यह अंश इस बात का प्रमाण है कि वर्तमान समय के कोलाहल में किस प्रकार छोटे-बड़े स्वरों को दबाया जा रहा है। यहां तक कि आम आदमी के दुख-दर्द और पीड़ा से भी किसी को कोई सरोकार नहीं है। यह संवेदनहीनता का ऐसा दौर है जिसमें सत्ता और उससे जुड़े लोगों ने देश को शक्ति-प्रदर्शन का अखाड़ा बना लिया है। 'इन दिनों असंख्य आवाज़ हवा में गूंज रही है/ इसमें अन्याय की आवाज़ सबसे अधिक है/ यह शोर का समय है/ जब चीख को दबाना भी एक कला है।' कवि का मानना है कि आवाजों के इस शोर में जो दूसरी आवाज़ है, उसके लिए भी जगह बची रहनी चाहिए। यह हमारे समय का इतना निराशाजनक परिदृश्य है कि इस कविता की अंतिम पंक्ति के रूप में कवि जैसे विवश होकर लिखता है- 'आवाज़ की दुनिया के लोकतंत्र का सूर्यास्त हो गया है।' जाहिर है कि हम सभी यह चाहते हैं कि आवाज की दुनिया का लोकतंत्र प्रकाशवान रहे, उसमें सभी आवाजों का मान-सम्मान और चेहरा बना रहे। जीवन की मूलभूत आवश्यकताएं सुलभ हो यह लोकतंत्र का दायित्व है, किंतु देखिए हो क्या रहा है- 'बहुत मुश्किल से मिलता है दो घूँट पानी पीने लायक/ अन्न भी घर भी दवा भी अब दुर्लभ है/ हर चीज़ नकली है असली के सामने

लोकतंत्र का उत्सव चरम पर है और/ नागरिक का जीवन ख़तरे में हर दिन।' (कविता- 'साँस')

यही वह भाषा है जिसमें कवि का इनकार प्रस्तुत होता है और यह इस भाषा का जादू है कि वह इनकार के लिए आम आदमी को जाग्रत करने का सामर्थ्य रखती है। जैसे 'पेड़' कविता में किसानों की आत्महत्या के प्रसंग को उनसे सीधे आह्वान के साथ लिखते हुए एकालाप की स्थिति है, किंतु संयम को बनाते हुए यहां लोकतंत्र को बचाने का एक सपना भी शामिल है। इसके लिए सब को एकजुट होकर बोलना होगा। यदि अन्याय के विरूद्ध चुप रहेंगे तो कवि के अनुसार- 'चुप रहने पर आवाज चुप हो जाती है एक दिन/ भाषा चुप हो जाती है/ व्याकरण बिगड़ जाता है चुप रहने से।' (कविता- 'विरोध')

कवि शंकारानंद की काव्यगत विशेषताओं में विशेष उल्लेखनीय यह है कि वे अपनी कविताओं में नए तरह के प्रतीक और बिंब सामने लाते हैं, जिससे उनकी काव्य-अनुभूतियां बहुत सहजता के साथ पाठकों से जुड़ती चली जाती है। उदाहरण के लिए 'गिरना' कविता को देखें- 'एक बच्चा जो अभी चलना सीख रहा है/ उसके हिस्से में अभी/ चलने से ज्यादा गिरना है

वह एक कदम उठाता है तो/ दो बार गिरता है/ दो कदम उठाता है तो पाँच बार गिरता है

उसके चलने के औसत से ज्यादा/ उसके गिरने का औसत है,

फिर भी वह मेरे बार-बार मना करने के बावजूद चल रहा है/ मैं हाथ पकड़ता हूँ तो/ वह हाथ छुड़ा कर भाग जाता है।'

कवि शंकरनंद के यहां बच्चा एक संभावना और प्रश्न के रूप में बार-बार उपस्थित होता है, साथ ही वे आवाज की बात अनेक कविताओं में करते हैं। ऐसी कविताओं से पाठक जब आत्मसात होता है तो उसे यह अनुभूतियां अपनी लगने लगती है।

यहां यह भी कहना होगा कि इनकी कविताएँ अपने विन्यास में भले ही शाब्दिक रूप में छोटी दिखाई देती हो, किंतु वे अपनी संरचना में पूरी रचनात्मक शक्ति को लेकर चलती है। शायद यही कारण है कि वे मानवीय संवेदनाओं का वाहक बनती हुई, हमारी चेतना को बारंबार झंकृत करती है। उदाहरण के लिए एक अन्य कविता- 'आता हुआ वसंत' का यह अंश देखें- 'इतना आसान नहीं है फूल का खिलना/ जैसे एक मशीन काग़ज़ पर खिला देता है/ एक साथ हजार फूल रंग और चमक से भरकर।' यह कितना सही और सटीक संकेत है जब आज आधुनिकता की आड़ में प्रकृति का निरंतर दोहन हो रहा है, वहीं उसके समांतर एक ऐसी मशीनी दुनिया है जिसमें रंग और चमक तो है किंतु संबंधों की ऊष्मा और ऊर्जा नहीं है। इसी कविता में आगे की पंक्तियां हैं- 'इतना आसान नहीं होता/ पत्तों का हरा होना बहुत गाढ़ा/ पक्षी का उड़ना ज़हर लगे तीर के बीच/ बच जाना हर बार चिड़ीमार से/ या बीज का अंकुर में बदल जाना रातों रात/ फल का पकना चुपचाप/ या गिर जाना किसी स्वाद के लिए/ जो न जाने कब से उसकी प्रतीक्षा कर रहा है।' 

हम देखते हैं कि कहीं भी किसी कोण पर प्रकृति में कोई शोरशराबा नहीं है। वह चुपचाप शांत भाव से अपनी धुन में अपना कार्य कर रही है और उसी समय प्रचार-विमर्श के दौर में ये सब अप्रासांगिक होता जा रहा है। किसी को पल भर की फुर्सत नहीं कि वह देखे- पत्तों का हरा रंग कैसे गाढ़ा होता है? रातों रात कोई बीज कब कैसे अंकुरित होता है? फल का पकाना क्या कोई संदेश दे रहा है? कि किस तरह वह पकने के बाद गिर जाता है चुपचाप.... कौन है जो इन सब की प्रतीक्षा में बेचैन है? वर्तमान समय में तो हर कोई बहुत जल्दी और समय से पहले पाने की दौड़ में उलझा हुआ है। ऐसे में बिना अतिरेक में जाए कवि बहुत सहजता-सरलता से ऐसे संकेत अपनी कविताओं में करता जाता है कि धीरे धीरे बात का सिरा पकड़ में आने लगता है। 'पहले तो रंग बहुत थे जीवन में/ फिर धीरे-धीरे सिमटने लगा सब कुछ/ उदासी बढ़ी दुःख बढ़ा मृत्यु का कारण बढ़ा/ फिर तो रंग स्वप्न से भी लापता हो गये।' (कविता- 'रंग के चोर')

हमारे समय में रंगहीन होती इस दुनिया के सांस्कृतिक क्षरण के लिए 'मेला' जैसी कविता बेहद प्रासंगिक है, इस कविता में कवि वर्तमान समय की त्रासदियों को उजागर करते हुए अपनी उसी पुरानी दुनिया में लौटने का आह्वान करता है। समय में लौटना संभव नहीं, किंतु उस समय के मूल्यों को बचना जरूरी है। संवेदनशील के साथ प्रत्येक जीवन होना चाहिए। इस कविता में अंतिम संदर्भ के रूप में कवि कविता में प्रेमचंद जैसे महान कथाकार की कहानी ईदगाह का जिक्र हामिद के बहाने करता है। यह एक ऐसा संकेत है जिस समय रहते समझा जाना चाहिए कि आधुनिता का अर्थ यह कदापि नहीं है कि हम मेलों की उस दुनिया को पृथ्वी से गायब कर दें और चिमटा खरीदने का विकल्प बच्चों के सामने से देखते ही देखते लुप्त कर दें। जाहिर है कि कवि यह आह्वान करते हुए वांछित बदलाव चाहता है- 'मैं वह चिट्ठी नहीं बनना चाहता जो/ लिखी तो गई पर पहुँची नहीं/ बिना पते के ताखों पर ही गल गई अपनी नमी में/ उस तरह बाकी नहीं रखना चाहता हूँ कुछ।' (कविता- 'एक पल में') कवि का विश्वास है कि हमारी इच्छाशक्ति और भाषा में ही वह शक्ति और सामर्थ्य है कि वह स्थितियों को परिवर्तित कर सकती है। 'अलग करना' कविता में भाषा की इसी क्षमता को रेखांकित किया गया है- 'एक मनुष्य से दूसरे की दूरी के लिए/ एक भाषा काफी है/ वहाँ दीवार हो या न हो/ इससे फर्क नहीं पड़ता।' अथवा भाषा के पक्ष में ये पंक्तियां देखी जा सकती है- 'चुप रहने पर आवाज चुप हो जाती है एक दिन/ भाषा चुप हो जाती है/ व्याकरण बिगड़ जाता है चुप रहने से।' (कविता- 'विरोध')

परंपरा और अपनी जमीन से जुड़े लोगों के प्रति बदलते नजरिये पर भी संग्रह में कविताएं हैं, तो अनेक कविताएं हमारे आत्मीय संबंधों की भी हैं। संग्रह में मां और पिता विषयक कविताएं बेहद मार्मिक है।

'पिता आज भी वैसे ही हैं मेरे लिए पहले की तरह/ पर उनके झुके हुए कंधे/ उनके काँपते हुए हाथ सब बेचैन करते हैं/ वे कहते हैं चिंता की कोई बात नहीं/ और उनकी चुप्पी मेरी नींद उड़ा देती है।' कवि का जीवन की विविध स्थितियों में संवेदनशील होना प्रभावित करता है, वहीं स्थितियों को देखने-समझने की दृष्टि में परिपक्वता है। 'भरोसा' कविता का यह अंश देखें- 'न पिता की उँगली है यहाँ न माँ के भरोसे के हाथ का आसरा/ कोई तरीका नहीं जो बता दे कि ये दिशा सही है/ इतना रहस्य है इतना धुआँ इतना विश्वासघात/ कि हर पता गलत निकलता है।' वहीं दूसरी तरफ इन विरोधियों स्थितियों के बीच एक जगह शेष है जिसके विषय में 'लौटने की जगह' कविता में कवि ने लिखा है- 'दुनिया में कहीं भी रहें/ घर आपकी लौटने की जगह है/ एक अंतिम आसरा सूर्यास्त के बाद।'

अगर कहा जाए कि कवि की रचनात्मकता के उत्कर्ष को देखने के लिए इस संग्रह की कोई एक कविता प्रस्तुत करें, तो मेरा मत रहेगा कि 'पहाड़' कविता देखें- 'ये पहाड़ की ऊँचाई है/ किताबों में जिसे/ बित्ते भर में दिखा दिया गया 

अब अगर इसे देखा जाए तस्वीरों में/ यह ऐसा ही दिखेगा/ जैसे नाप लिया जाए दो कदम में/ और सारा पहाड़/ पैरों के नीचे आ सकता है

यह तस्वीर सच नहीं है/ इससे नहीं जाना जा सकता एक पहाड़।'

पहाड़ को जानने के लिए केवल किताबें पर्याप्त नहीं, हमें उसकी छाती पर कदम रखना होगा ठीक वैसे ही हमको 'इनकार की भाषा' को स्वयं जांचना-परखना होगा।

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बहुत कुछ होने की संभावना में/ डॉ. नीरज दइया

'सलीब पर सच' के बाद कवि-संपादक सुभाष राय का दूसरा कविता संग्रह है- 'मूर्तियों के जंगल में'। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि सुभाष राय कवि-संपादक से अधिक इन दिनों अपने अक्क महादेवी पर किए काम के कारण बेहद चर्चा में हैं, जो उनके दोनों रूप यथा कवि और संपादक होने से सहज संभव हो सका है। उनके लिए कविता बहुत कुछ होने की संभावना में निरंतर एक सृजन-यात्रा है। 'मूर्तियों के जंगल में' शीर्षक कविता छीजती मनुष्यता को अभिव्यक्त करती हुई जीवन के विरोधाभासों को उद्धाटित करती है- 'सुन रहा हूँ/ झूठ के घण्टनाद सुन रहा हूँ/ मूर्तियों के जंगल में पत्थर की जय जयकार सुन रहा हूँ/ सफलता के आत्मगान सुन रहा हूँ/ बिहान के पक्ष में रात का बयान सुन रहा हूँ/ श्मशान और क़ब्रिस्तान सुन रहा हूँ/ टैंक सुन रहा हूँ, तोप सुन रहा हूँ/ सहयोग के लिए आभार सुन रहा हूँ/ मूर्तियों के जंगल में पत्थर की/ जय जयकार सुन रहा हूँ।' इसी संग्रह की एक अन्य कविता- 'मूर्तियाँ' भी यहां उल्लेखनीय है जिसमें कवि ने लिखा है- 'मूर्तियाँ बोलतीं नहीं/ विचार नहीं करतीं/ चाहे कितनी भी ख़तरनाक परिस्थिति हो/ वे खड़ी रहती हैं चुपचाप/ और इस तरह याद दिलाती हैं/ कि मूर्ति में बदल जाना/ कितना अप्रासंगिक हो जाना है।' सुभाष राय की कविताओं की अन्य कविताओं में भी ईश्वर को लेकर आत्ममंथन और चिंतन के अनेक स्तर देख सकते हैं। उनकी 'ईश्वर' कविता का अंतिम अंश देखें- ' मैं हर किसी से पूछ रहा हूँ/ क्या वेदना के किसी पल में कभी/ ईश्वर ने तुम्हारे माथे पर हाथ रखा/ कोई कुछ बोलना नहीं।' 

इन कविताओं में कोरी भावुकता अथवा जल्दबाजी में कोई बयान नहीं है, वरन विषय पर गहन चिंतन-मनन और तार्किकता के साथ कवि अपनी अनुभूतियों को प्रस्तुत करता है। इस संग्रह में कवि ने हिंदी के चार प्रतिष्ठित कवियों- धर्मवीर भारती, मुक्तिबोध, निराला और केदारनाथ सिंह का स्मरण किया है जो संग्रह को चार खंडों में एक अलग आयाम देते हुए प्रतीत होते हैं। इन कवियों की अपनी धारा और प्रतिष्ठा रही है उसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए सुभाष राय किसी विषय या शैली-शिल्प में कहीं बंधकर कैद होने की तुलना में विविध आयामों तक अपने पाठकों को ले जाने में यकीन करते हैं। 

संग्रह के आरंभ में धर्मवीर भारती की प्रसिद्ध कविता 'प्रमथ्यु गाथा' से अग्नि का संदर्भ लेते हुए आग विषयक अनेक सुंदर कविताओं संग्रह में शामिल किया गया है। यहां यह भी उल्लेखनीय  है कि कविताओं के अंत में उनका रचनाकाल भी दिया गया है। इन कविताओं को वर्ष 2018 से 2020 के मध्य रचा गया है, जिसमें कोरोना की विभीषिका से भी पूरी दुनिया को जूझना पड़ा था। संग्रह मैं कोरोना काल के दुखद समय पर भी अनेक कविताएं हैं जिसमें असहाय जूझती मानवता के बीच सब कुछ गडमड हो गया और जिस किसी सत्ता अथवा परमसत्ता का भरोसा विश्वास था वह भी खंडित हो गया है- 'बड़े-बड़े तानाशाह हाँफ रहे/ एक मामूली वायरस का कुछ नहीं/ बिगाड़ सकते ताकतवर परमाणु बम/ असहाय हैं मौलवी, पादरी, पुजारी और धर्माधिकारी/ ईश्वर बेमियादी क्वारण्टीन में चला गया है/ सारी क्रूरताएँ और बर्बरताएँ/ याचना की मुद्रा में खड़ी हैं निरुपाय।'

मृत्यु के विषय में कवि का मानना है- 'मृत्यु और कुछ भी नहीं है/ सिर्फ आग लौट जाती है पृथ्वी में/ मिट्टी में समा जाती है मिट्टी/ और आग में आग।' कवि के अनुसार आग के प्रत्यारोपण से मृत्यु को भी एक दिन मनुष्य जीत सकता है। इन कविताओं में आग के विविध अर्थ और आयाम उद्घाटित होते हैं। उदाहरण के लिए 'पतन की संभावना से परे' कविता में कवि ने लिखा है- 'जब तक जुल्म के खिलाफ/ फूटती है चिंगारियां, हम जिंदा हैं/ जब तक हम खुद नहीं चुनते/ बुझ जाना, हम जिंदा हैं।' यह ऐसी आग है कि उससे हर आदमी की गुजरना होगा। 

संग्रह के इस खंड में आग के विषय में अद्वितीय कल्पनाशीलता का परिचय मिलता है। जैसे- 'आग की ही तरह/ जन्म लेता है प्रेम/ पहले कुछ सुलगता है/ फिर भभक कर जल उठता है/ सब कुछ जगमग-जगमग हो उठता है।' (कविता- 'जलकर भी जलता नहीं') अथवा 'इसी से मैंने जाना/ कि ऊष्मा का एक रंग होता है/ कि आज नहीं होती/ तो स्वप्न नहीं होते/ स्वप्न नहीं होते/ तो प्रेम नहीं होता।' (कविता- 'ऊष्मा का रंग')

कहना होगा कि ये कविता विषय में गहरे डूब कर रची गई हैं। 

कोरोना काल को जिस तरह के व्यंग्य-बोध को इन कविताओं में सांकेतिक रूप से प्रस्तुत किया गया है वह भी अन्यत्र दुर्लभ है। यहां सीधे-सीधे सत्ता और शक्ति से मुठभेड़ है। कविता 'एक उद्बोधन' का यह आरंभिक अंश देखें- 'देश आगे जा रहा है/ मैं सोच रहा हूँ, देश को किधर ले जाना है/ बाक़ी लोग व्यर्थ में न सोचें/ देश जहाँ भी जाएगा/ सभी अपने आप वहाँ पहुँच जाएँगे।' जब सब चुप हैं और शिकारी को पहचानते हुए भी चुप हैं ऐसे में कुछ बोलने का खतरा कवि स्वीकार करता है। 'उनके चरणों की महिमा आज भी बरकरार है/ उनके चरण छूकर ही अपने/ अभियान पर निकलते हैं हत्यारे।' (कविता- 'महिमा') यह प्रतिरोध और प्रतिकार 'चींटियाँ' कविता में बहुत मार्मिक ढंग से बेहद कम शब्दों में व्यंजित हुआ है- 'अकेली चींटी को/ कुचल देना बहुत आसान है/ पर जब एकसाथ निकल पड़ती हैं/ करोड़ों-करोड़ चींटियाँ/ जंगल का राजा भी/ ख़ाली कर देता है रास्ता।' साथ और हिम्मत की संभावना कवि को बच्चे में लगती है क्योंकि वह अभी डर से दूर है और तानाशाही के विरुद्ध ये पंक्तियां सदा स्मरणीय रहेंगी- 'जब भी लड़ाई बड़ी हो, डर लगे/ बच्चों को पुकारना चाहिए/ वे भेड़िये की पूँछ खींच सकते हैं/ साँप का फन दबोच सकते हैं/ मौत को दोनों हाथों से दबोचकर/ दाँतों के बीच कुचल सकते हैं।' 

सुभाष राय अपनी कविताओं में पूरी मानवता और मानव जाति की बात करते हैं। उनकी कविताओं में आम आदमी जो जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं से लड़ रहा है वह भूखा आदमी संसार के किसी भी कोने में हो सकता है। जहां कहीं भी है, उससे ये कविताएं जुड़ती हैं। कवि का मानना है- 'जुबानें अलग-अलग/ हो सकती है सारी दुनिया में/ पर एक होती है आंखों की भाषा।'

आंखों की भाषा के साथ ही हमारे इस संसार में कुछ भाषाएं ऐसी भी है जिन से हम अपने संबंधों का गणित समझते हैं, जिस भाषा में अपने माता-पिता और अपनी परंपरा से जुड़ते हैं, जुड़ती है हमारी पीढ़ियां। संग्रह के अंतिम खंड में 'पितरपख में माँ' और 'पितरपख में पिता' में मृत्यु के बाद जो मन का संवाद है उसे हर किसी भाषा में समझा नहीं जा सकता है। यह हमारे पुरखों का केवल पंचतत्त्वों में विलीन हो जाना नहीं है। यह हमारे उसी विस्तार की आवाजाही है जिसमें हमारी संस्कृति और परंपरा के आत्म-तत्व का वास है। यह स्वीकार है किंतु पूरी सावधानी और सजगता भी है। 'स्त्री' कविता की इन पंक्तियों को देखिए- 'माना कि यह सब इतिहास है/ और एक बड़ी छलाँग लगाकर/ तुम इतिहास से बहुत आगे आ खड़ी हुई हो/ लेकिन असावधान मत होना/ निर्मम और नृशंस निगाहें/ अब भी पीछा कर रही हैं तुम्हारा।' इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि इस धरती को बसाने वाले ही इसे उजाड़ने का काम कर रहे हैं- 'बेटे ही जुटे चीरहरण में/ खींचतान में फट गयी है हरी साड़ी/ पेड़ों की बाँहें, जाँचें काटकर ले जा रहे/ अपने ड्राइंग रूमों में/ पहाड़ों का सिर तोड़कर/ फर्श पर बिछा रहे/ नदियों के पेट में ठूस रहे/ विकास का कचरा।' यहां बड़ा सवाल यह है कि फिर आधुनिकता के नाम पर कैसा विकास है? ऐसी ही अनेक चिंताओं को हम इस कविता संग्रह में देख सकते हैं जहां कोई दूसरा नहीं हमारी मानव प्रजाति ही मूर्तियों के जंगल में प्रवेश कर चुकी है और जाहिर है मूर्तियों को कुछ कहना-सुनना नहीं फकत देखना होता है। कवि की चिंता वाजिब है कि संवेदनहीनता के इस दौर में हम कहीं मूर्तियों में तब्दील ना हो जाएं।

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