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हिंदी कविता में अनिर्मित पंथ के पंथी सुधीर सक्सेना/ डॉ. नीरज दइया


 आधुनिक हिंदी कविता के परिदृश्य में वरिष्ठ कवि सुधीर सक्सेना की कविता-यात्रा पर विचार करते हुए मैं सर्वप्रथम कवि सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की पंक्तियों का स्मरण करना चाहूंगा- ‘लीक पर वे चलें जिनके/ चरण दुर्बल और हारे हैं,/ हमें तो जो हमारी यात्रा से बने/ ऐसे अनिर्मित पंथ प्यारे हैं।’ कवि सुधीर सक्सेना की कविताएं किसी परंपरागत लीक पर चलने वाली सहज, सामान्य अथवा साधारण कविताएं नहीं है। वे असहजता को सहजता से स्वीकार करते हुए अपने विशिष्ट विन्यास में सामान्य से अलग प्रतीत होती हैं। उनके यहां असाधारण चीजों को साधारण बनाने का सतत उपक्रम कविता में होता रहा है। सुधीर सक्सेना अपनी लीक सदैव स्वयं निर्मित करते रहे हैं। अपने प्रत्येक कविता संग्रह में उन्होंने निरंतर स्वयं को जटिलताओं अथवा कहें अतिसंवेदनशीलताओं में गाहे-बगाहे डालते हुए हर बार मजूबत-दृढ़ कदमों के साथ आगे बढ़ते हुए मनुष्यता की जीत का अहसास कराया है। आपको किसी धारा या वाद में आबद्ध नहीं किया जा सकता है। कहना होगा कि उन्होंने अपनी कविता यात्रा द्वारा हिंदी कविता के प्रांगण में अनेक अनिर्मित पंथ सृजित करते हुए अपने एक अलबेले पंथी होने का साक्ष्य छोड़ा है। आज आवश्यकता यह है कि हम इन साक्ष्यों के आलोक में अनिर्मित पंथ के पंथी मुक्त और स्वछंद विचरने वाले सुधीर सक्सेना की कविता-यात्रा को देख-परखकर उनका उचित स्थान निर्धारित करें।
    सुधीर सक्सेना का जन्म 30 सितंबर, 1955 को लखनऊ में हुआ। आपने विज्ञान, लोकप्रशासन, हिंदी साहित्य और पत्रकारिता में डिग्रियां हासिल की और रूसी भाषा व आदिवासी भाषा और संस्कृति में डोप्लोमा प्राप्त किया। वर्ष 1975 से कविता के मार्ग पर बढ़े कि आज तक बढ़ते चले जा रहे हैं। इस मार्ग में अनेक धाराएं और कुछ विराम भी रहे हैं, किंतु उनकी विविध रचनात्मकता में उनके कवि ने उनका साथ नहीं छोड़ा या कहें कि वे पत्रकार-संपादक बने तो भी उन्होंने अपने कवि को बचाए रखा। परिमल प्रकाशन से ‘बहुत दिनों के बाद’ (1990) आपका पहला कविता संग्रह आया जिसे मध्य प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा वागीश्वरी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
    यहां यह भी उल्लेखनीय है कि कवि सुधीर सक्सेना ने देश-विदेश अनेक यात्राएं की और अपने अध्ययन-चिंतन-मनन का दायरा व्यापक करते हुए अनुवाद की दिशा में भी महत्त्वपूर्ण कार्य किए। उनके अध्ययन का सिलसिला विद्यार्थीकाल से ही उल्लेखनीय रहा है जिसका अनुमान हम आपके सद्य प्रकाशित कविता संग्रह ‘सलाम लुई पाश्चर’ (2022) कविता संग्रह की लंबी भूमिका से हो सकता है जिसमें कवि ने जहां वर्ष 1970 से अपनी स्मृतियों का गुल्लक खोला है वहीं आश्चर्यचकित और हैरतअंगेज तथ्यों से हमारा साक्षात्कार कराया है। विज्ञान विषयक कविताएं हिंदी में ही नहीं भारतीय भाषाओं में और अन्यत्र भी इतनी देखने को नहीं मिलती जितनी सुधीर सक्सेना के यहां है। जैसे वे इस धारा का सूत्रपात कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि यह संग्रह अचानक और एकाएक प्रकट हो गया है। इस संग्रह में संकलित कुछ कविताएं उनके पूर्ववर्ती संग्रह में देखी जा सकती है। अपने समय के साथ और परंपरा को खंगालते हुए कवि ने अपनी कविता यात्रा में अनेक ऐसे स्थल निर्मित किए हैं जिनके उल्लेख के बिना आधुनिक हिंदी कविता का इतिहास पूरा नहीं हो सकेगा।
    सुधीर सक्सेना की कविता यात्रा के उद्गम से आरंभ करें तो आपके पहले कविता ‘बहुत दिनों के बाद’ की एक कविता ‘शर्त’ का यहां उल्लेख जरूरी लगता है-
“ममाखियों के घरौंदे में/ हाथ डाल/ और जान ज़ोख़िम में
लाया हूँ/ ढेर सारा शहद
पर एक शर्त है/ शहद के बदले में/ तुम्हें देना होगा/ अपना सारा नमक।”
    अपने पहले ही संग्रह से कवि सुधीर सक्सेना ने एक व्यवस्थित कवि होने का अहसास कराते हुए अनेक उल्लेखनीय कविताएं दी है। इन कविताओं में उनका अपना समय-समाज और इतिहास-बोध अपने गहरे रंगों में अंकित हुआ है।  
    अगले संग्रह ‘समरकंद में बाबर’ (1997) पर आपको रूस के प्रतिष्ठित ‘पूश्किन पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया। यह संग्रह अपनी सहजता, संप्रेषणीयता, सृजनात्मकता और विषयगत विविधता के कारण एक संग्रहणीय है। अपने समय की अनिश्चिता को कवि ने इन शब्दों द्वारा जैसे परिभाषित किया- “कुछ भी/ ऐतबार के काबिल नहीं रहा/ न कहा गया,/ न सुना गया,/ और न लिखा गया/ कुछ भी नहीं/ जहां भरोसा कोहनी टिका सके,/ कोई कोना नहीं,/ जहां यकीन बैठ सके,/ आलथी-पालथी मारकर।” (‘समरकंद में बाबर’ की पहली कविता से)
    सुधीर सक्सेना के ‘समरकंद में बाबर’ संग्रह के साथ ही एक अन्य संग्रह ‘काल को भी नहीं पता’ (1997) प्रकाशित हुआ था जिसने हिंदी आलोचना का ध्यानाकर्षित किया। यह संग्रह सुधीर सक्सेना के कवि की कीर्ति को अभिवृद्धि करते हुए उनका एक अगला पड़ाव है। यहां कवि की अपनी चिरपरिचित भाषा और कहन को स्थापित करते हुए पहचान बना चुका है। यह संग्रह पुखता अहसास करता है कि यह कवि सामान्य नहीं वरन विशेष है, जो हिंदी कविता में प्रयोग और अपने अद्वितीय विचार-बल पर कविता की ऊंचाई पर ले जाने वाला कहा जाएगा। कवि की सहजता में भीतर की असहजता को हम सहज ही देख-परख सकते हैं। शहर, घटनाओं और व्यक्तिपरक कविताओं के अनेक रूप यहां हमें मिलते हैं। संग्रह ‘काल को भी नहीं पता’ में शृंखला में रचित तीस कविताएं ‘तूतनख़ामेन के लिए’ जैसे हिंदी कविता में एक नया अध्याय है जिसमें इतिहास जैसे निरस विषय को सरस बनाते हुए कविता के प्रांगण में कवि ने प्रस्तुत किया है। यह कवि का स्वयं को एक समय से दूसरे समय में ले जाकर, वहीं लंबे समय तक ठहर जाना है। बिना ठहराव के यहां जो अनुभूतियां शब्दों के रूपांतरित होकर हमारे सामने है, वे कदापि संभव नहीं थी। इन कविताओं में कोरा ऐतिहासिक ज्ञान अथवा विमर्श नहीं, वरन कवि के वर्तमान से अतीत को छूने की चाह में उस बिंदु तक पहुंच जाना अर्थात कवि का काल को विजित करना है।
    ‘काल को भी नहीं पता’ संग्रह के अंत में ‘बीसवीं सदी, इक्कीसवी सदी’ एक लंबी कविता है जो बाद में स्वतंत्र पुस्तिका के रूप में भी प्रकाशित हुई है। इस कविता में बेहद उत्सुकता के साथ समय में झांकने का रचनात्मक उपक्रम हुआ है। यहां समय के बदलाव को देखने-समझने का विन्रम प्रयास निसंदेह रेखांकित किए जाने योग्य है। कवि का मानना है कि समय तो एक समय के बाद अपनी सीमा-रेखा को लांध कर, अंकों के बदलाव के साथ दूसरे में रूपांतरित हो जाता है किंतु उस बदलाव के साथ बदलने वाले सभी घटकों का बदलाब क्या सच में होता है? या यह एक कृतिम और आभाषित स्थित है? इस भ्रम में खोये हुए हैं हम और कविता के अंत तक पहुंचते पहुंचते स्वयं प्रश्न-मुद्रा में समय के बदलाव को नियति की विडंबना मान कर चुप रहने की त्रासदी झेलने की विवशता को रेखांकित किया है।     
    सुधीर सक्सेना की काव्य यात्रा में अनेक लंबी कविताएं हैं। ‘धूसर में बिलासपुर’ (2015) और ‘अर्द्धरात्रि है यह...’ (2017) आदि लघु-पुस्तिकाओं के रूप में प्रकाशित हैं । ‘धूसर में बिलासपुर’ संभवतः किसी शहर पर अपने ढंग की अद्भुद विराट कविता है। यहां एक ऐसा बिलासपुर है जिस की छाया में हमें अपना अपना बिलासपुर दिखता है। बदलाव की आंधी में आधुनिक समय के साथ बदलते इतिहास और एक शहर का यह दस्तावेज एक आईना है। किसी शहर को उसके ऐतिहासिक सत्यों और अपनी अनुभूतियों के द्वारा सजीव करना सुधीर सक्सेना के कवि का अतिरिक्त काव्य-कौशल है। कविता की अंतिम पंक्तियां है- ‘किसे पता था/ कि ऐसा भी वक्त आयेगा/ बिलासपुर के भाग्य में/ कि सब कुछ धूसर हो जायेगा/ और इसी में तलाशेगा/ श्वेत-श्याम गोलार्द्धों से गुजरता बिलासपुर/ अपनी नयी पहचान।’ अस्तु कहा जा सकता है कि जिस नई पहचान को संकेतित यह कविता है वैसी ही हिंदी कविता यात्रा की नई पहचान के एक मुकम्मल कवि के रूप में सुधीर सक्सेना को पहचाना जा सकता है।
    बिलासपुर के साथ ही अन्य कविताओं में बांदा, बस्तर, रायबरेली, अयोध्या के संदर्भों में गूंथी उनकी लंबी कविताओं को ‘सुधीर सक्सेना की लंबी कविताएं’ (2019) संपादक- उमाशंकर परमार में देखा जा सकता है। जाहिर है इस संकलन में संपादक की लंबी भूमिका ‘सामूहिक संवेगों की अंतर्कथा’ में इन कविताओं पर विवेचन किया गया है जिस पर वरिष्ठ आलोचक धनंजय वर्मा की यह टिप्पणी सटीक लगती है- ‘मैं मुतमईन हूं कि सुधीर सक्सेना की ये लंबी कविताएं और उनके मर्म को उद्घाटित करता उमाशंकर जी का आलेख, आप अनुभव करेंगे, हमारी भावना और अनुभूति के सथ हमारी दृष्टि के कोण और दिशा को भी इस तरह बदलता है कि हम अपने समकालीन माहौल को नए संदर्भ और आयाम में देखने लगते हैं।’ (पृष्ठ-14) कहना होगा कि सुधीर सक्सेना हिंदी के विशिष्ट और प्रयोगधर्मी कवि रहे हैं और उन्होंने लंबी कविता के क्षेत्र में अद्वितीय योगदान दिया है।
    यहां यह भी स्पष्ट करना आवश्यक है कि मैं कवि सुधीर सक्सेना की कविता-यात्रा से इतना प्रभावित रहा हूं कि उनके दस संग्रहों से चयनित कविताओं का राजस्थानी अनुवाद ‘अजेस ई रातो है अगूण’ शीर्षक से राजस्थानी भाषा में किया है, वहीं उनके संग्रह ‘ईश्वर : हां, नहीं... तो’ (2014) का भी अनुवाद किया है। कोरोना काल की 21 कविताएं अंग्रेजी अनुवाद के साथ पुस्तकाकार ‘लव इन क्वारंटाइन’ नामक संग्रह में देखी जा सकती है। सुधीर सक्सेना और बांग्ला के शुभाशीष भादूड़ी के संयुक्त हिंदी-बांग्ला संग्रह ‘शब्दों के संग रूबरू’ में अनुवादिका अमृता बेरा ने दो भारतीय भाषाओं के कवियों के एक साथ देखने दिखाने का उपक्रम किया है। यह भी उल्लेखनीय है कि कवि की कविताओं का अनेक देशी-विदेशी भाषाओं में होकर चर्चित रहा है।
    ईश्वर विषयक संग्रह का नामकरण ही बेजोड़-अद्वितीय है। परमपिता और अदृश्य शक्ति को लेकर संग्रह की कविताओं में किसी संत कवि-सी दार्शनिकता और कोमलता है, तो साथ ही इतिहास-बोध के विराट रूप को दृष्टि में रखते हुए असमंजस, संशय, द्वंद्व और विरोधाभास जैसे अनेक घटक हमें अद्वितीय अनुभव और विस्तार देते हैं। इस संग्रह की अनेक कविताएं कवि के आत्म-संवाद के शिल्प से उजागर होती है। यहां उल्लेखनीय है कि जो ईश्वर से अपरिमित दूरी है अथवा होना न होना जिस संशय-द्वंद्व में है, उसके अस्थित्व को कवि ने आशा और विश्वास से भाषा में नई अभिव्यंजनाएं प्रस्तुत की है।
    ‘ईश्वर : हां, ना... नहीं’ संग्रह पर मैंने विस्तार से विचार करते हुए ‘अतिसंवेदनशीलता में कविता का प्रवेश’ शीर्षक से एक आलेख भी लिखा जो इस पुस्तक के दूसरे संस्करण जिसका संपादक- बुलाकी शर्मा ने किया उसमें संकलित है। सुधीर सक्सेना समकालीन कविता के विशिष्ट कवि हैं। विशिष्ट इस अर्थ में कि वे अब तक की यात्रा में सदैव प्रयोगधर्मी और नवीन विषयों के प्रति मोहग्रस्त रहे हैं। कहा जा सकता कि उनकी भाषा, शिल्प और कथ्य के स्तर अन्य कवियों से भिन्न हैं। संभवतः उनके प्रभावित और स्मरणीय बने रहने का कारण उनकी नवीनता और प्रयोगधर्मिता है। वे विषयों का हर बार अविष्कार करते हैं। या यूं कहें कि उनकी कविताओं के विषय अपनी ताजगी और नवीन दृष्टिकोण के कारण नवीन अहसासों, और ऐसी मनःस्थितियों में ले जाने में सक्षम हैं जहां हम प्रभावित हुए बिना रह नहीं सकते हैं। वे इतिहास और वर्तमान को जैसे किसी धागे से जोड़ते हुए, मंथर गति से हमारे सामने उपस्थित करते हैं। उनकी कविताएं तीनों कालों में अविराम गति करती हुई अनेक व्यंजनाएं प्रस्तुत करती है। कहीं सांकेतिकता है तो कहीं खुलकर उनका कवि-मन अपने विमर्श में हमें शामिल कर लेता है। उनकी कविताओं के सवाल हमारे अपने सवाल प्रतीत होते हैं, कवि के द्वंद्व में हम भी द्वंद्वग्रस्त हो जाते हैं। वे अभिनव विषयों से मुठभेड़ करते हुए अपने चिंतन-मनन का वातायान प्रस्तुत कर हिंदी अथवा कहें भारतीय कविता के अन्य कवियों और कविताओं में वरेण्य है।
    ईश्वर विषयक ‘हां’ और ‘ना’ के दो पक्षों के अतिरिक्त उनके यहां जो ‘तो’ का एक अन्य पक्ष है, वह कवि का इजाद किया हुआ नहीं है। तीनों पक्षों को एक साथ में कविता संग्रह का केंद्रीय विषय बनाना कवि का इजाद किया हुआ है। हिंदी साहित्य में भक्तिकाल में ईश्वर के संबंध में ‘हां’ की बहुलता और एकनिष्टता है वहीं आधुनिक काल और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के रहते बीसवीं शताब्दी में ईश्वर के विषय में ‘ना’ का बाहुल्य है। यह भी सच है कि सुधीर सक्सेना अपने काव्यात्मक विमर्श में जिस ‘तो’ को संकेतित करते हैं वह बीसवीं शताब्दी के उतरार्द्ध का सच है। कवि के अनुभव और चिंतन में जहां तार्किता है वहीं इन छत्तीस कविताओं निर्भिकता भी है।
    रूप अर अरूप के दो बिंदुओं के बीच गति करती इन कविताओं में निसंदेह किसी एक ठिकाने की कवि को तलाश है। ‘कितना कुछ शको-शुबहा है/ तुम्हें लेकर/ सदियों की मुंडेर पर’ अथवा ‘तुम्हारी भौतिकी के बारे में कहना कठिन/ मगर तुम्हारा रसायन भी मेल नहीं खाता/ किसी और से, ईश्वर!’ जैसी अभिव्यक्ति में पाप और पुण्य से परे हमारे आधुनिक जीवन के संताप देखे जा सकते हैं। कवि की दृष्टि असीम होती है और वह इसी दृष्टि के बल पर जान और समझ लेता है कि इस संसार में माया का खेल विचित्र है- ‘कभी भी सर्वत्र न अंधियारा होता है/ न उजियारा’। यहां यह भी रेखांकित किया जाना चाहिए कि सुधीर सक्सेना की काव्य-भाषा में प्रयुक्त शब्दावली एक विशेष प्रकार के चयन को साथ लेकर चलती है। यह उनका शब्दावली चयन उन्हें भाषा के स्तर पर अन्य कवियों से विलगित करती विशिष्ट बनाती है।
    प्रेम कविताओं की बात हो तो उनके संग्रह ‘रात जब चंद्रमा बजाता है बांसुरी’ (2019) का स्मरण किया जाएगा। संग्रह में सांसारिक और प्रकृतिक-प्रेम एक ऐसे विन्यास में समायोजित है कि कविताएं विराट को व्यंजित करती हुई, बेहद निजता को भी अनेक अर्थों में जोड़ती हुई भीतर समाहित करती है। प्रेम में पगी इस संग्रह की प्रथम कविता ‘नियति’ को उदाहरण के रूप में देखें-
“मैंने तुम्हें चाहा/ तुम धरती हो गईं
तुमने मुझे चाहा/ मैं आकाश हो गया
और फिर/ हम कभी नहीं मिले,/ वसुंधरा!”
    सुधीर सक्सेना जहां अपनी लघु आकार की कविताओं में तुलना और बिंबों का आश्रय लेते हैं वहीं औसत और लंबी आकार की कविताओं में घटना-अनुभवओं के साथ विचारों का सूत्रपात करते हैं। कवि के दायरे में घर-परिवार के अनेक संबंधों के साथ देश-विदेश के अनेक मित्र हैं और वे भी उनके परिवार जैसे उनसे घनिष्ठता से जुड़े हैं। उनकी इस आत्मीयता के अदृश्य रंगों को कविता में उनके संग्रह ‘किताबें दीवार नहीं होतीं’ (2012) में देखा जा सकता है। मेरे विचार से समग्र आधुनिक भारतीय कविता में यह कविता संग्रह रेखांकित किए जाने योग्य है। इस संग्रह में कवि ने अपने आत्मीय मित्रों और परिवारिक जनों पर जो कविताएं लिखी हैं, वे असल में अनकी आत्मानुभूतियां और हमारा जीवन हैं। इस कविता संग्रह को हिंदी कविता में कवि के व्यक्तिगत जीवन के विशेष काल-खंडों और आत्मीय क्षणों का काव्यात्मक-रूपांतरण कर सहेजने-संवारने का अनुपम उदाहण कहा जाएगा। व्यक्तिपरक कविता लिखना जहां बेहद कठिन है वहीं अनेक खतरे भी हैं कि अभिव्यक्ति को किन अर्थों में लिया जाएगा। यह संग्रह सुधीर सक्सेना को हिंदी समकालीन कविता के दूसरे हस्ताक्षरों से न केवल पृथक करता है वरन यह उनके अद्वितीय होने का साक्ष्य भी है।
    ‘किरच-किरच यकीन’ (2013) सुधीर सक्सेना की कविता-यात्रा को समृद्ध करने वाला कविता-संकलन है। इसमें छोटी और मध्यम आकार की कविताओं में संक्षेप में कवि ने अपने काव्य-कौशल दिखाया है वहीं शैल्पिक प्रयोग से कविताओं को प्रभावशाली बनाने का हुनर पा लिया है।
    ‘कुछ भी नहीं अंतिम’ (2015) संग्रह अपने नाम को सार्थक करता अपनी कविताओं से बहुत बार हम में यह अहसास जगाता कि सच में कवि के लिए कविता का कोई प्रारूप अंतिम और रूढ़ नहीं है। संकलित कविताओं में कुछ शब्दों के प्रयोग को लेकर इससे पहले भी मुझे लगता रहा है कि सुधीर सक्सेना जैसे कवि हमारे भाषा-ज्ञान में भी विस्तार करते हुए नया वितान देते हैं। अनेक ऐसे शब्द हैं जो एक पाठक और रचनाकार के रूप में सक्सेना को पढ़ते हुए मैंने पाया कि यह भाषा का एक विशिष्ट रूप है जिसे हमें सीखना हैं। कविता के प्रवाह और आवेग में कहीं कोई ऐसा शब्द अटक जाता है कि हम उस शब्द का पीछा करते हैं। हम शब्दकोश तक पहुंचते हैं और लोक में उसे तलाशते हैं। संग्रह की कविताओं के पाठ को फिर-फिर पढ़ने का उपक्रम असल में हमारा कविता में डूबना है। बहुत गहरे उतरना है। जहां हम पाते हैं कि एक ऐसा दृश्य है जो हमारी आंखों के सामने होते हुए भी अब तक हमसे अदृश्य रहा है। सुधीर सक्सेना की कविताएं हमें हमारे चिरपरिचित संसार में बहुत कम परिचित अथवा कहें समाहित अदृश्य संसार को दृश्य की सीमा में प्रस्तुत करती है। सच तो यह है कि ‘कुछ भी नहीं अंतिम’ संग्रह में गहन संभवनाएं हैं। यहां उनकी काव्य-यात्रा के परिभाषित-अपरिभाषित अनेक संकेत देखे जाने शेष हैं।
    संग्रह की कविता ‘अनंतिम’ पूरी देखें- “कुछ भी अंतिम नहीं/ कुछ भी नहीं अंतिम,/ शेष है एक घड़ी के बाद दूसरी घड़ी,/ उमंग के बाद ललछौंही उमंग,/ उल्लास के बाद रोमिल उल्लास,/ सैलाब के बाद भी एक बूंद,/ आबदार कहीं दुबका हुआ एक कतरा ख़ामोश/ बची है पत्तियों की नोंक के भी आगे सरसराहट,/ पक्षियों के डैनों से आगे भी उड़ान,/ पेंटिंग के बाहर भी रंगों का संसार,/ संगीत के सुरों के बाहर संगीत,/ शब्दों से पर निःशब्द का वितान/ ध्वनियों से पर मौन का अनहद नाद/ कोई भी ग्रह अंतिम नहीं आकाशगंगा में,/ कोई भी आकाशगंगा अंतिम नहीं ब्रह्मांड में,/ अचानक नमूदार होगा कहीं भी कोई ग्रह/ अंतरिक्ष में अचानक/ अचानक फूट पड़ेगा मरू में सोता/ अचानक भलभला उठेगा ज्वालामुखी में लावा/ अचानक कहीं होगा उल्कापात/ तत्वों की तालिका में बची रहेगी/ हमेशा जगह किसी न किसी/ नए तत्व के लिए/ शब्दकोश में नए शब्दों के लिए/ और कविताओं की दुनियां में नई कविता के लिए।”
    यह एक कविता जिन विशद अर्थों और घटकों को समाहित किए हुए है वह अपने आप में एक साक्ष्य है कि कवि कहां और कितनी संभवानाएं तलाश करने में सक्षम है। जिस अनिर्मित पंथ की बात आरंभ में मैंने की है वह इन्हीं संभावनाओं से संभव होता है।
    ‘यह कैसा समय’ (2021) संग्रह में समय के साथ बदलते राजनीति के घटकों को भी कवि ने समाहित किया है। यहां हमारे समय की त्रासदियां और आंकड़ों के जाल निर्भीकता से उजागर हुए हैं वहीं इस संग्रह में मेरे शहर ‘बीकानेर’ पर कविताएं हैं जो सुधीर सक्सेना जैसे कवि द्वारा ही संभव है। यह अथवा ‘सलाम लुई पाश्चर’ संग्रह उनकी काव्य-यात्रा के ऐसे वृहत्तर मुकाम हैं, जिन्हें समय रहते पहचाना जाना आवश्यक है।  
    सक्सेना की विविधता और बहुवर्णी काव्य-सरोकारों को जानने-समझने के लिए उनके पूर्व प्रकाशित सात कविता-संग्रहों से चयनित ‘111 कविताएं’ (2016) मजीद अहमद द्वारा किया गया एक महत्त्वपूर्ण संचयन है। संपादक के कथन- ‘सुधीर सक्सेना की कविओं की शक्ति, सुन्दरता के आयामों की विविधता ही कवि को समकालीन हिंदी कविता की अग्रिम पंक्त में ला खड़ा करती है।’ से सहमत हो सकते हैं।
    साहित्य की यह एक त्रासदी है कि हमारे समय के रचनाकारों का समय पर आकलन नहीं होता है। हम साहित्य के शीर्ष बिंदुओं को पहचानते नहीं, संभवतः ऐसी ही न्यूनताओं को दूर करने के प्रयास में लोकमित्र से तीन पुस्तकें प्रकाशित हुई है- जैसे धूप में घना साया (सं. रईस अहमद ‘लाली’), शर्म की सी शर्त नामंजूर (सं. ओम भारती) और कविता ने जिसे चुना (सं. यशस्विनी पांडेय) जो हिंदी के ख्यातनाम कवि सुधीर सक्सेना की रचनात्मकता के विविध आयाम प्रस्तुत करती हैं। ‘शर्म की सी शर्त नामंजूर’ के संपादक प्रसिद्ध कवि-आलोचक ओम भारती लिखते हैं- “वह कवि, अनुवादक, संपादक, इतिहासकार, उपन्यासकार, पत्रकार, सलाहकार इत्यादि है। वह पैरोड़ी बनाने, लतीफ़े गढ़ने, तुके मिलाने, चौंकाने और हंसाने में, कह देने में ही शह देने में भी माहिर है। वह शर्तें नहीं मानता और मुक्तिबोध के शब्दों का सहारा लूं तो जिंदगी में शर्म की सी शर्त उसे शुरु से ही नामंजूर रही है। वह अपना रास्ता खुद चुनता है, और जहां नहीं हो, वहां बना भी लेता है।” अभी सुधीर सक्सेना की कविता-यात्रा की विशद पड़ताल शेष है और उनकी रचनात्मकता-रागात्मकता जारी है। इसलिए यह संभव है कि उनकी कविता-यात्रा से अभी हिंदी कविता के लिए कुछ अनिर्मित पंथ बनें क्योंकि उनकी कविताई लीक छोड़कर चली है और चलती रहेगी।
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आधुनिक राजस्थानी साहित्य का विहंगम परिदृश्य / डॉ. नीरज दइया


 कृति :  राजस्थानी विरासत का वैभव (आलोचना)

रचनाकार : नंद भारद्वाज

प्रकाशक : राजस्थानी ग्रंथागार, जोधपुर  

पृष्ठ : 192 ; मूल्य : 300/-

प्रथम संस्करण : 2023

समीक्षक : डॉ. नीरज दइया

 

 

 राजस्थानी साहित्य में प्रथम आलोचना-पुस्तक का श्रेय विधिवत रूप से ‘दौर अर दायरो’ (1981) नंद भारद्वाज को दिया जाता है। लंबे अंतराल के बाद ‘नवी कविता रौ आज अर आगम’ (2023) राजस्थानी में आपकी दूसरी आलोचना पुस्तक प्रकाशित हुई है। यहां यह भी उल्लेखनीय है आलोचना के क्षेत्र में नंद भारद्वाज ने वर्ष 2016 में आलोचना की वैश्विक विरासत का एक विशद परिचय राजस्थानी में अनुवाद के माध्यम से करवाया है। जिसमें देश-विदेश के अनेक आलोचकों के महत्त्वपूर्ण आलेखों का राजस्थानी भाषा में अनुवाद प्रस्तुत किया गया है। उनके इस संग्रह के लिए लिखी उनकी यादगार भूमिका का हिंदी अनुवाद ‘साहित्य आलोचना की आधारभूमि’ को इस संग्रह में शामिल किया गया है। ‘साहित्य परंपरा और नया रचनाकर्म’ आपकी चर्चित हिंदी आलोचना पुस्तक है। राजस्थानी और हिंदी आलोचना की दिशा में अन्य विधाओं की अपेक्षा में बहुत कम किए जाने की महती आवश्यकता है।
    हिंदी और राजस्थानी साहित्य में नंद भारद्वाज एक प्रतिष्ठत कवि-कहानीकार, संपादक, अनुवादक और आलोचक के रूप में पहचाने जाते हैं। आपने विविध विधाओं में विपुल कार्य किया है। भारत की किसी भी प्रांतीय भाषा का हिंदी अथवा अन्य प्रांतीय भाषाओं से सीधा-सीधा मुकाबला या तुलना के स्थान पर वर्तमान समय की एक बड़ी जरूरत यह है कि हमें हमारी प्रांतीय भाषाओं, साहित्य और कला-संस्कृति से संबंधित आलोचनात्मक पुस्तकें हिंदी-अंग्रेजी में लानी चाहिए, जिससे देश-दुनिया में भारतीय साहित्य का एक व्यापक परिदृश्य निर्मित हो सके। इसी दृष्टिकोण से मैं नंद भारद्वाज की सद्य प्रकाशित पुस्तक- ‘राजस्थानी विरासत का वैभव’ को देखता हूं।
    पुस्तक की भूमिका के रूप में ‘अपनी बात’ में आलोचक नंद भारद्वाज पुरजोर तरीके से लिखते हैं- ‘संसार की किसी भाषा के साहित्य की उसके पिछले-अगले या मौजूदा समय की दूसरी साहित्य विधाओं के साथ कोई प्रतिस्पर्धा या तुलना नहीं हो सकती और न यह करना उचित ही है। प्रत्येक भाषा और साहित्य का अपना विकास-क्रम है, उसकी अपनी कठिनाइयां हैं और उनसे उबरने के उपाय भी उन्हीं को खोजने हैं। लोक-भाषा जन-अभिव्यक्ति का आधार होती है। प्रत्येक जन-समुदाय अपने ऐतिहासिक विकास-क्रम में जो भाषा अर्जित और विकसित करता है, वही उसके सर्जनात्मक विकास की सारी संभावनाएं खोलती है। उसकी उपेक्षा करके कोई माध्यम जनता के साथ सार्थक संवाद कायम नहीं कर सकता। इस आधारभूत सत्य के साथ ही लोक-भाषाओं को अपनी ऊर्जा को बचाकर रखनी है। साहित्य का काम अपने उसी लोक-जीवन के मनोबल को बचाये रखना है। दरअसल भाषा, साहित्य और संवाद के यही वे सूत्र हैं, जिन्हें जान-समझ कर ही शायद हम किसी नये सार्थक सृजन की कल्पना कर पाएं।’ (पृष्ठ- 8)
    ‘राजस्थानी विरासत का वैभव’ में राजस्‍थानी साहित्‍य की विविध विधाओं पर केंदित बाईस साहित्यिक निबंधों को संग्रहित किया गया है, जिससे राजस्थानी साहित्य की विरासत और समकालीन राजस्थानी लेखन के बारे में समुचित जानकारी प्राप्त हो सके। यहां यह उल्लेखनीय है कि इन निबंधों को पिछले दशकों में राजस्थानी की पत्र-पत्रिकाओं और साहित्यिक आयोजनों के लिए राजस्थानी अथवा हिंदी में लिखा-पढ़ा गया है। असल में यह पुस्तक कवि-आलोचक नंद भारद्वाज के सुनियोजित चिंतन का फलन है। उन्होंने ‘अपनी बात’ में लिखा है- ‘राजस्थानी लेखन की अलग-अलग विधाओं में लिखते-पढ़ते बहुत से रचनाकारों को पिछले वर्षों में हुए अच्छे सृजन के मुकाबले अगर आलोचना का पक्ष कुछ कमजोर नजर आता है तो इस पर अफसोस करने की बजाय उसके कारणों को जानने-समझने का प्रयास अवश्य करना चाहिए।’ निसंदेह यह एक ऐसा झरोखा है जिसमें हमें आधुनिक राजस्थानी साहित्य का विहंगम परिदृश्य देखने को मिलता है।  
    पुस्तक के प्रथम निबंध में नंद भारद्वाज द्वारा साहित्य अकादेमी पुरस्कार- 2005 के समय दिए गए लेखकीय वक्तव्य का प्रारूप है। ‘भाषा के मान बिना’ शीर्षक से संग्रहित इस आलेख में लेखक ने अपने लेखन और भाषाई जमीन पर प्रकाश डालते हुए पुरस्कृत उपन्यास ‘साम्हीं खुलतो मारग’ पर अपनी बात रखी है। इस में राजस्थानी की समृद्ध विरासत के साथ वर्तमान समय की आवश्यकताओं को देखते हुए राजस्थानी भाषा की मान्यता नहीं दिए जाने पर गहन पीड़ा की अभिव्यक्ति हुई है। संग्रह के दूसरे निबंध- ‘राजपुताना में आजादी की अलख’ में पर्याप्त उदाहरणों के साथ इस बात को रेखांकित किया गया है कि राजस्थान में आजादी के आंदोलन में राजस्थानी भाषा और साहित्य का अतुलनीय योगदान रहा है। इसी विषय से संबंधित अन्य पक्षों को ‘स्वाधीनता आंदोलन, कविता और जनकवि उस्ताद’ में उद्धटित किया गया है। नंद भारद्वाज ने हमारी राजस्थानी विरासत को स्पष्ट करते हुए आधुनिक राजस्थानी कविता के अग्रिम पंक्ति के कवि के रूप में स्थापित जनकवि उस्ताद की कविताओं पर प्रकाश डाला है। पुस्तक में ‘उस्ताद’ के साथ अन्य कवियों के रूप में प्रतिष्ठित राजस्थानी कवि सत्यप्रकाश जोशी, नारायणसिंह भाटी, पारस अरोड़ा, हरीश भादानी के अवदान पर भी व्यापक-विशद चर्चा और विमर्श प्रस्तुत हुआ है। आधुनिक कविता की परंपरा-विकास को ‘राजस्थानी काव्य-परंपरा और पृष्ठभूमि’ और ‘नयी कविता का बदलता परिदृश्य’ जैसे निबंधों में जानने-पहचानने के साथ रेखांकित करने की दिशा में सार्थक प्रयास हुआ है। काव्यालोचना के अंतर्गत ‘राजस्थानी की प्रगतिशील काव्यधारा’ और ‘जन-जागरण की कविता और उस्ताद’ जैसे निबंधों के माध्यम से कविता में सक्रिय विविध धाराओं और रचनाओं का आलोचनात्मक परिचय मिलता है।
    आजादी के बाद अनेक रचनाकारों द्वारा हिंदी में प्रांतीय भाषाओं के रचनाकारों के बारे में शोध आलेख लिखे जाते रहे हैं। उन आलेखों में प्राचीन और मध्यकालीन रचनाओं और रचनाकारों के बारे में जानने के अवसर मिलते थे वहीं इधर ऐसे प्रयासों में रुचि और प्रयास कम दिखाई दे रहे हैं। कहना होगा कि यह हिंदी में राजस्थानी के बारे में ‘राजस्थानी साहित्य का समकाल’ (2020) नीरज दइया के बाद यह दूसरी पुस्तक है जिसमें राजस्थानी साहित्य के बारे में हिंदी में निबंधों के माध्यम से आधुनिक राजस्थानी साहित्य का विहंगम परिदृश्य प्रस्तुत हो रहा है। यह भी संभव है ऐसी अन्य पुस्तकें भी प्रकाशिय हुई हो और मेरे संज्ञान में नहीं हो।
    नंद भारद्वाज जहां स्वयं एक प्रतिष्ठित कवि-आलोचक के रूप में राजस्थानी से जुड़े रहे हैं वहीं उन्होंने संपादन की दिशा में भी अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य किए हैं। साहित्य अकादेमी नई दिल्ली के लिए आजादी के बाद की राजस्थानी कविताओं का एक प्रतिनिधि संकलन ‘जातरा अर पड़ाव’ नाम से प्रकाशित किया गया, जिसका संपादन नंद भारद्वाज ने किया है। इसी पुस्तक का प्रकाशन साहित्य अकादेमी ने हिंदी में भी किया है। यहां अनुवादक के रूप में संपादक नंद भारद्वाज की उल्लेखनीय भूमिका रही है। संकलन की भूमिका को भी इस संग्रह में एक निबंध में शामिल किया गया है। इसी प्रकार नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया नई दिल्ली के लिए आजादी के बाद की राजस्थानी कहानियों का एक संकलन नंद भारद्वाज ने संपादित किया- ‘तीन बीसी पार’ अर्थात साठ वर्षों की राजस्थानी कहानीकारों की चयनित कहानियां का संग्रह। इसकी विशद भूमिका में उन्होंने आधुनिक राजस्थानी कहानी के क्रमिक विकास और विविध पड़ावों को प्रस्तुत किया हैं। हर्ष का विषय है कि एनबीटी द्वारा इस मूल राजस्थानी के कहानी संग्रह का इसी नाम- ‘तीन बीसी पार’ से हिंदी में भी प्रकाशन किया है। इस संग्रह भूमिका को निबंध के रूप में इस संग्रह में समाहित किया गया है। यही कारण है कि इन निबंधों में लेखक का विशद अध्ययन और चिंतन मुंह बोलता है।
    राजस्थानी गद्य की विरासत में लक्ष्मीकुमार चूड़ावत, विजयदान देथा और अन्नाराम सुदामा जैसे प्रतिष्ठित लेखकों के अवदान को साहित्य के विविध पक्षों को समाहित करते हुए रखा गया है। ‘राजस्थानी कथा-लेखन का राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य’ में तीन बीसी पार की कथा-यात्रा का विस्तार है, वहीं ‘राजस्थानी कहानियों का पहला शतक’ में डॉ. नीरज दइया द्वारा संपादित कहानी संग्रह- ‘101 राजस्थानी कहानियां’ पर आलोचनात्मक आलेख इस पुस्तक में शामिल किया गया है। रचना और आलोचना के संबंधों को ‘राजस्थानी सृजन और आलोचना’ जैसे निबंध में रेखांकित करते हुए नंद भारद्वाज लिखते हैं- ‘हर रचना के साथ सर्जक का अपना आत्मिक लगाव और मोह होना स्वाभाविक बात है, वह उतना निरपेक्ष नहीं हो सकता कि अपनी रचना का सही मूल्य महत्व स्वयं ही आंक ले। यह कार्य एक सजग अध्येता और अच्छा आलोचक ही निरपेक्ष ढंग से कर पाता है और इसी अर्थ में एक युग के रचनाकर्म के साथ कुछ आलोचक भी सामने आते हैं, जो उस युग के सृजन को अपने समय की कसौटी पर परखते हैं और उसका सही मूल्य-महत्व आंकते हैं।’ (पृष्ठ-147) यह कृति इसी मूल्य-महत्त्व को आंकने का एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है। यह आलेख नंद भारद्वाज ने साहित्य अकादेमी द्वारा आयोजित सेमीनार में बीज वक्तव्य के रूप में दिया था जिसे यहां संग्रहित किया गया है।
    आज यह बहुत जरूरी है कि हम भाषा और साहित्य की चुनौतियों को जानने समझने का प्रयास करें। इसी विषय पर ‘राजस्थानी भाषा और साहित्य की चुनौतियां’ पर एक उल्लेखनीय और जरूरी निबंध इस संग्रह में शामिल है। साहित्य और सिनेमा का संबंध बहुत पुराना है और एक दौर ऐसा भी रहा है जब हिंदी सिनेमा में कुछ राजस्थानी गीत बेहद लोकप्रिय हुए हैं। पुस्तक के अंत में ‘राजस्थानी सिनेमा : दुविधाओं के दरिया पार’ में राजस्थानी सिनेमा की गहन पड़ताल भारतीय सिनेमा के परिप्रेक्ष्य में की गई है। राजस्थानी के श्रेष्ठ साहित्य को सिनेमा जैसे लोकप्रिय माध्यम में ले जाने के लिए जहां अनेक दुविधाएं-चुनौनियां हैं, वहीं इच्छाशक्ति का अभाव भी है। लेखक के इस कथन से सहमत हो सकते हैं- ‘फिल्म निर्माण आज एक बेहद खर्चीला माध्यम हो गया है और उस प्रतिस्पर्धा रहने के लिए उसी स्तर की तैयारी की जरूरत है, इसके बावजूद सीमित संसाधनों में बेहतर रचनाशीलता का प्रयोग करते हुए सार्थक और कामयाब फिल्मों के निर्माण की संभावनाएं कम नहीं हैं। जरूरत है तो उस जज्बे और सूझबूझ को बनाए रखने की, जो एक फिल्मकार के जुनून को सार्थकता प्रदान करती है।’  (पृष्ठ- 191)
    यह पुस्तक इस बात का भी प्रमाण है कि हिंदी अथवा अन्य प्रांतीय भाषाओं की तुलना में समकालीन राजस्थानी आलोचना किसी भी प्रकार से कमतर नहीं वरन वह भारतीय साहित्य आलोचना का एक अभिन्न और महत्त्वपूर्ण घटक के रूप में रेखांकित किए जाने योग्य है। राजस्थानी की समृद्ध विरासत के वैभव के साथ ही समकालीन राजस्थानी साहित्य का एक कोलाज प्रस्तुत कर निसंदेह इस कृति द्वारा आलोचक नंद भारद्वाज ने उल्लेखनीय कार्य किया है। साहित्य की विविध विधाओं को लेकर प्रांतीय भाषाओं से हिंदी में ऐसे कार्य निरंतर होने चाहिए।    


      समीक्षक : डॉ. नीरज दइया





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राजस्थानी व्यंग्य की प्राथमिकताएं/ डॉ. नीरज दइया

    ‘राजस्थानी व्यंग्य’ से यहां मेरा अभिप्राय राजस्थानी भाषा में आजादी के बाद विकसित और स्थापित एक गद्य विधा से है। सबसे बड़ा व्यंग्य यह है कि राजस्थानी भाषा और साहित्य की विशालता की बात करते हुए हम हिंदी भाषा और साहित्य को पीछे छोड़ देना चाहते हैं। इसे एक विशेष अर्थ में देखेंगे तो यकीक करना होगा कि वास्तव में राजस्थानी भाषा का हिंदी भाषा पर अतुलनीय ऋण है। यह वास्तविकता है कि हिंदी साहित्य के विशाल भवन की नींव में राजस्थानी साहित्य ही है। आदिकालीन रासो-काव्य के अंतर्गत ‘पृथ्वीराज रासो’ और अन्य रसो काव्य रचनाएं मूल में राजस्थानी भाषा की हैं। यहां यह भी कहा जा सकता है कि वर्षों पहले राजस्थानी के ऊपर हिंदी को व्यवस्थित कर उसका भवन बनाया गया और उसे निरंतर विकसित किया गया है। हिंदी भाषा और साहित्य के विकास के साथ ही संभावित विकास को महत्त्व देते हुए यहां किन्हीं भाषाओं के मुकाबले अथवा तुलना की बात खासकर आधुनिक व्यंग्य विधा पर चर्चा करते हुए करेंगे तो संभवतः यह उचित नहीं होगा। खासकर राजस्थानी भाषा में लिखे गए व्यंग्य और राजस्थान भूभाग अथवा राजस्थानी समाज के रचनाकारों द्वारा लिखे गए हिंदी व्यंग्य की बात व्यापक भारतीय परिदृश्य में सद्भावना से होनी चाहिए। राजस्थानी व्यंग्य की प्रमुखता अथवा प्राथमिकता सद्भावना ही है, और यहां विषय का दायरा व्यापक करते हुए मैं निवेदन करना चाहता हूं कि मूलतः हमारे संपूर्ण वैश्विक साहित्य की प्राथमिकता सद्भावना ही है।
    सद्भावना का घटक राजस्थानी लोक साहित्य में बहुत व्यापकता और विस्तृत रूप में चित्रित हुआ है। आधुनिक साहित्य और व्यंग्य विधा पर चर्चा से पूर्व सद्भावना का एक उदाहरण अपने शहर बीकानेर की स्थापना विषयक मैं प्रस्तुत करना चाहता हूं। एक दिन राव जोधा दरबार में बैठे थे, बीकाजी दरबार में देर से आए तथा प्रणाम कर अपने चाचा कांधल से कान में धीर-धीरे कुछ बात करने लगे। यह देख कर जोधा जी ने व्यंग्य में कहा- ‘मालूम होता है कि चाचा-भतीजा किसी नवीन राज्य को विजित करने की योजना बना रहे हैं।’ इस पर बीका और कांधल ने कहा कि यदि आप की कृपा होगी तो यही होगा। और इसी के साथ चाचा-भतीजा दोनों दरबार से उठ के चले आए तथा दोनों ने बीकानेर राज्य की स्थापना की। इस संदर्भ के हवाले व्यंग्य की प्राथमिकता की बात कर सकते हैं कि व्यंग्य को सदैव सकारात्मक रूप से ग्रहण किए जाने की योग्यता दोनों पक्षों में होनी चाहिए। साथ ही व्यंग्य को अपने लक्ष्य का संधान उद्देश्यपरक रखना होता है। राजस्थानी साहित्य के लोक साहित्य और आधुनिक कविता में प्रचुर मात्रा में व्यंग्य एक घटक के रूप में उपस्थित रहा है, किंतु हम जिस गद्य विधा व्यंग्य की बात कर रहे हैं वह बहुत बाद में और धीरे-धीरे विकसित हुई है। यह भी संदेह है कि व्यंग्य विधा को जितना और जिस रूप में विकसित होना चाहिए था, वह विकास हुआ भी है अथवा नहीं।
    हम राजस्थानी व्यंग्य विधा के विकास की बात करें उसके पूर्व कुछ प्रसिद्ध व्यंग्यकारों की व्यंग्य विषयक अवधारणों के आलोक में व्यंग्य की सीमाओं, संभावनाओं और प्राथमिकताओं को जानना जरूरी लगता है। प्रख्यात लेखक मनोहर श्याम जोशी कहते थे- ‘हम निर्लज्ज समाज में रहते हैं, यहां व्यंग्य से क्या फर्क पड़ेगा।’ इस कथक के आलोक में व्यंग्य की पहली प्राथमिकता है कि उससे समाज पर फर्क पड़ना चाहिए। बहुत बार हम अपनी प्राथमिकताओं से समझौता कर लेते हैं, किंतु यह जरूरी है कि ऐसा समझौता नहीं हो। ‘व्यंग्य-यात्रा’ के जनवरी-मार्च, 2010 अंक का यहां उल्लेख इसलिए आवश्यक है कि इस अंक में भारतीय भाषाओं के अंतर्गत व्यंग्य की चर्चा में राजस्थानी भाषा के व्यंग्य विमर्श को शामिल किया गया था। संपादक-व्यंग्यकार प्रेम जनमेजय का मानना है कि व्यंग्य में आलोचना कर्म उतना नहीं हुआ है, जितना अन्य विधाओं में... और यही कारण है कि वे अपनी पत्रिका के माध्यम से निरंतर सक्रिय हैं और व्यंग्य-आलोचना को प्रोत्साहित करते रहे हैं।
    व्यंग्य पुरोधा परसाई जी मानते थे- ‘व्यंग्य जीवन से साक्षात्कार करता है, जीवन की आलोचना करता है, विसंगतियों-मिथ्याचारों और पाखंडों का पर्दाफाश करता है।’ और प्रसिद्ध व्यंग्यकार डॉ. हरीश नवल ने कहा है कि व्यंग्य लिखना खाला का घर नहीं है। इसी क्रम में हम व्यंग्य-आलोचक सुभाष चंद्र जी की इस उक्ति का भी स्मरण कर सकते हैं कि व्यंग्यकार लेखक के लिए नहीं वरन पाठक के लिए लिखें। अर्थात व्यंग्यकार को अपनी प्राथमिकता में सदैव पाठक को केंद्र में रखते हुए बहुत सावधानी से व्यंग्य में हाथ डालना चाहिए क्योंकि यह खाला का घर नहीं हैं। व्यंग्य आलोचना के क्षेत्र में स्वयं व्यंग्यकार आलोचना की दिशा में सजग हो रहे हैं लेकिन हमें इस प्राथमिकता को गहराई से समझना होगा कि अपने अध्ययन में हम जिससे प्रभावित हों उसकी चर्चा ईमानदारी से करें और जो कुछ अच्छा नहीं लगे अथवा कुछ न्यूनताएं दिखाई देती हैं तो उसे खुलकर प्रस्तुत करने की हिम्मत दिखानी होगी। ऐसी चर्चा और आलोचना से ही साहित्य के क्षेत्र में जो खरपतवार उग आई है उसका सफाया होगा।
    व्यंग्य विधा के अंतर्गत भाषा ही वह औजार है जिसके द्वारा व्यंग्यकार पाठक के अंतस में पेठ कर उसे गहरे तक स्पर्श करता है। बिना धारदार अथवा मारक भाषा के बिना यह स्पर्श ऐसा होगा कि पाठक को मालूम भी नहीं चलेगा कि व्यंग्य कहां स्पर्श कर रहा है। सपाटबयानी से बचते हुए यदि व्यंग्यकार सहज-सरल भाषा में शैल्पिक आकर्षण का रहस्य खोज लेता है तो बात दूर तक जाती है। यहां पाठक के साथ जुड़ने के लिए व्यंग्यकार को सजगता, प्रासंगिकता और समयानुकूलता के घटकों पर सतत ध्यान रखना होता है। किसी के पास ऐसा कोई सूत्र नहीं है कि आप और हम व्यंग्य में कितने प्रतिशत हास्य का इस्तेमाल करें और कितने प्रतिशत मिर्च का? यह स्पष्ट हो जाए। व्यंग्य को रोचक होना चाहिए और रोचकता के लिए मौलिकता के साथ-साथ प्रभावशाली भाषा हमें दूर तक ले जा सकती है। आत्म-व्यंग्य से खुद को बचाना अथवा समाज की रग-रग से वाकिफ नहीं होना व्यंग्यकार की कमजोरी है। व्यंग्यकार केवल व्यंग्यकार ही नहीं अपने भीतर के आलोचक, चित्रकार अथवा डाक्टर को भी पहचान लें। यहां अनेक संभावनाओं के साथ चुनौतियां भी है।
    हमारी प्रांतीय भाषाओं में लोक की अमूल्य थाती है। परंपरा विकास की यात्रा में लोक उसे मजबूत और दृढ़ बनाते हुए बहुत सटीक भाषा प्रदान करता है। राजस्थानी में व्यंग्य की जमीन बनाने में मनोहर शर्मा के ‘रोहिड़ै रा फूल’, श्रीलाल नथमल जोशी के ‘सवड़का’, नृसिंह राजपुरोहित के ‘हास्यां हरि मिळै’, बुद्धिप्रकाश पारीक के ‘चबड़का’ और मूलचंद प्राणेश के ‘हियै तणा उपाय’ का योगदान माना जाना चाहिए। राजस्थानी भाषा में विधिवत व्यंग्य साहित्य का आरंभ भी आधुनिक कहानी और कविता के आरंभ होने के कालखंड 1971 के आसपास माना जाना चाहिए। राजस्थानी भाषा के सामने संकट प्रकाशन का भी रहा है। अनेक व्यंग्यकारों के संकलन समय पर प्रकाशित नहीं हुए और अनेक व्यंग्यकारों ने ऐसी समस्याओं के रहते व्यंग्य लेखन से हाथ पीछे खींच लिया। राजस्थानी व्यंग्य के आरंभिक काल में व्यंग्य और हास्य को पर्याय मानकर लिखने वाले अनेक रचनाकार हुए हैं। व्यंग्य में सद्भावना और सुधार के मूल उद्देश्य को अनेक स्थलों पर उपदेश के रूप में देखा जा सकता है। मुहावरों और कहवतों द्वारा किसी भी बात को अच्छे ढंग से संक्षिप्ता के साथ प्रस्तुत कर सकते हैं वहीं अगर यह उद्देश्यपरक नहीं हो तो युगबोध की अभिव्यक्ति नहीं हो सकती है। कुछ न्यूनताओं के उपरांत भी राजस्थानी भाषा की ठकस और बांकपन के साथ कुछ ऐसे व्यंग्य लिखे गए हैं, जिनको पढ़कर बेजुबान लोग भी तिलमिलाने और बोलने लगते हैं।
    राजस्थानी व्यंग्य के आदि पुरुष अथवा पहला व्यंग्यकार भले कोई रहा हो, किंतु पुस्तकाकार अपनी पहली कृति ‘कवि, कविता अर घरआळी’ (1981) का श्रेय व्यंग्यकार बुलाकी शर्मा को है। दोनों भाषाओं में व्यंग्यकार के रूप में ख्यातिप्राप्त बुलाकी शर्मा के अनेक व्यंग्य संग्रह प्रकाशित हैं, किंतु राजस्थानी की बात करेंगे तो ‘इज्जत में इजाफो’ (2000) और ‘आपां महान’ (2020) कुल तीन कृतियां प्रकाशित हुई है। प्रहलाद श्रीमाळी के ‘आवळ-कावळ’ (1991) और भगवतीप्रसाद चौधरी के ‘सुपनै में चाणक’ (1995) के बाद युवा व्यंग्यकार के रूप में जिस रचनाकार को ख्याति मिली वह शंकरसिंह राजपुरोहित है। राजपुरोहित ने ‘सुण अरजुण’ (1995) और ‘म्रित्यु रासौ’ (2017) द्वारा व्यंग्य को एक नई भाषा देने के साथ ही राजस्थानी लोक की ऊर्जा से व्यंग्य को प्राणवान बनाया।
    प्रख्यात कवि-कहानीकार सांवर दइया (1948-1992) के निधन के चार वर्ष बाद उनका व्यंग्य संग्रह ‘इक्कयावन व्यंग्य’ (1996) प्रकाशित हुआ जिसमें वे व्यंग्य शामिल है जो उन्होंने काफी पहले लिखे थे और विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और संकलनों में प्रकाशित हुए थे। नृसिंह राजपुरोहित का कहना था- ‘सांवर दइया में व्यंग्य करने का अच्छा सामर्थ्य है। चादर में लपेट कर जूता मारना हरेक के बस का रोग नहीं है।’ यहां यह भी उल्लेखनीय है कि व्यंग्य की प्राथमिका है कि वह चादर और जूते का आकलन करता चले। इसी दौरान श्याम गोइन्का के तीन व्यंग्य संग्रह– बनड़ां रो सौदागर (1988), लोड़ी मोड़ी मथरी (1994), गादड़ो बड़ग्यो (1999) प्रकाशित हुए हैं।     बीसवीं शताब्दी के पूरे परिदृश्य में राजस्थानी व्यंग्य विधा के रूप में विधिवत स्थापित हुआ और व्यंग्य में भाषा और शिल्प के स्तर पर अनेक प्रयोग भी हुए हैं। इक्कीसबीं शताब्दी में प्रकाशित राजस्थानी के व्यंग्य संग्रह हैं- मदन केवलिया - गिनिज बुक सारू (2004), नंदकिशोर सोमानी - फाईल री आत्मकथा (2004), नागराज शर्मा- धापली रो लोकतंत्र’ (2005) ‘एक अदद सुदामा’ (2010), मनोहरसिंह राठौड़ – मूंछां री मरोड़ (2005), विनोद सोमानी हंस - पांच छंग तीस (2005), दुर्गेश - उजळा दागी (2005), हरमन चौहान - लखणां रा लाडा (2006), शरद उपाध्याय - चुगली री गुगली (2007), देवकिशन राजपुरोहित- ‘म्हारा व्यंग्य’ (2009) अर ‘निवण’ (2012), मंगत बादल- भेड़ अर उन रो गणित (2010), श्याम जांगिड़ – म्हारो अध्यक्षता कांड (2010), श्यामसुंदर भारती - कलम अर बंदूक (2012), सुरेंद्र शर्मा - महूँ पिच खोद्यां मानूंगो (2013), छगनलाल व्यास - पत्नीव्रता (2015), छत्र छाजेड़- जे इयां है तो है (2015), कैलासदान लालस - भला जो देखन मैं चला(2016), पूरन सरमा - चस्को राम राज रो (2017), राजेन्द्र शर्मा मुसाफिर- सत्त बोल्यां गत्त (2020) आदि। संभव है कुछ लेखक और किताबों के नाम यहां छूट गए हो, किंतु इस यात्रा में केवल बीस-बाइस अथवा इससे कुछ अधिक व्यंग्य संग्रहों का प्रकाशित होना बहुत कम कहा जाएगा। जब आलोचना की बात करेंगे तो इन में से काफी-कुछ को व्यंग्य की परिधि से बाहर करना होगा। व्यंग्य के विकास में सक्रिय रचनाकारों की प्राथमिकता में सर्वाधिक जरूरी व्यंग्य विधा में भारतीय साहित्य में सक्रिय रचनाकारों का अध्ययन, चिंतन और मनन है। राजस्थानी व्यंग्य के क्षेत्र में प्रयोग और विषयगत नवीनता के क्षेत्र में अधिक काम करने की आवश्यकता है। घिटे-पिटे विषयों की तुलना में हमें वर्तमान समय और समाज की आवश्यकता को गहराई ने जानने के प्रयास अधिक तेज करने होंगे।
    सुखद है कि कृष्ण कुमार आशु का राजस्थानी में पहला व्यंग्य उपन्यास ‘ब्याधि उच्छब’ आया है और वे प्रेम जनमेजय के चयनित व्यंग्य भी राजस्थानी में ला रहे हैं। राजस्थानी व्यंग्य के विकास के लिए जागती जोत, बिणजारो, राजस्थली, मरवण आदि अनेक पत्रिकाएं सक्रिय है वहीं बहुभाषी पत्रिका ‘हास्य व्यंग्यम’ भी निरंतर राजस्थानी व्यंग्य रचनाओं को स्थान दे रही है। राजस्थानी भाषा के समर्पित रचनाकारों के बीच कुछ रचनाकार ऐसे भी शामिल हैं जो मूल में हिंदी व्यंग्यकार हैं किंतु कुछ लाभ देखकर राजस्थानी में आए हैं। उनका भी स्वागत है किंतु उन्हें भाषा के प्रति सजग होना होगा। आलोचना में राजस्थानी भाषा के व्यंग्य की हिंदी अथवा अन्य भारतीय भाषाओं के साथ तुलाना करते हुए हमें इसके विकास की परिस्थितियों को भी ध्यान में रखना होगा। भविष्य में सरकारी संरक्षण और भाषा की मान्यता से प्रकाशन के क्षेत्र में सुगमता आएगी, वहीं अन्य लेखक सक्रियता के साथ जुड़ेंगे तब विकास की गति तेज हो सकेगी वहीं हमें युवा व्यंगकारों को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता को समझना होगा।   
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डॉ. नीरज  दइया
 

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एक अलग और विशिष्ट अंदाज की कवयित्री रति सक्सेना/ डॉ. नीरज दइया

            आज रति सक्सेना एक ऐसा नाम है जिसे साहित्य की विधाओं, भाषाओं अथवा क्षेत्र की सीमाओं में बांधना संभव नहीं है। आपने जहां कविता, अनुवाद, यात्रा-वृतांत, शोध, आलोचना, संपादन आदि में विपुल कार्य किया है, वहीं विभिन्न भाषाओं में समानांतर लेखन-अनुवाद द्वारा देश-दुनिया में अपनी पहचान को नए रंग दिए हैं। मुझे लगता है कि रति सक्सेना जैसी गंभीर रचनाकार के विविध विधाओं और माध्यमों में सक्रिय रहने से उनकी रचनात्मकता के कुछ मूलभूत पक्षों का विशद मूल्यांकन नहीं हुआ है। आपके यात्रा-वृतांत के विषय में पढ़ते-लिखते हुए मैंने यह महसूस किया कि वे हमे वैश्विक परिदृश्यों से जहां रू-ब-रू करती हैं, तो उनकी भाषा में एक किस्म की काव्यात्मकता भी अनेक स्थलों पर देखी जा सकती है। असल में उनके यात्रा-वृतांत विशेषकर कविता आयोजनों में शामिल होने से जुड़े हैं। उनके गद्य में अनेक स्थलों पर उनका कविताओं से जुड़ाव-लगाव देखते ही बनता है। वहीं बीच बीच में कविताओं अथवा काव्यांशों के साथ साहित्य की दुनिया भी हमारा ध्यान आकर्षित करती है। हमें यात्राओं में केवल दुनिया के विविध देशों जगहों का परिचय या ब्यौरा ही नहीं मिलता वरन हमारा वैश्विक साहित्य और इतिहास से परिचय व्यापक होता चला जाता है।
            रति सक्सेना के प्रथम कविता-संग्रह ‘माया महाठगिनी’ (1999) से मैं उनका पाठक रहा हूं। हमारे संवाद का आरंभ भी इसी संग्रह के आने से हुआ था। यह संग्रह मेरे शहर बीकानेर से प्रकाशित हुआ है। मुझे लगता रहा है कि राजस्थान के उदयपुर में 08 जनवरी, 1954 को जन्मी रति सक्सेना के काव्य-पक्ष पर बहुत कम ध्यान दिया गया है, जबकि उनके कविता संग्रह लगातार प्रकाशित होते रहे हैं। उनकी काव्य-यात्रा के अगले पड़ावों की बात करें तो काव्य संग्रह- ‘अजन्मी कविता की कोख से जन्मी कविता’ (2001), ‘सपने देखता समुद्र’ (2003), ‘एक खिड़की आठ सलाखें’ (2007) और ‘हँसी एक प्रार्थना है’ (2019) तक की पूरी एक लंबी यात्रा है। यह संग्रह उनके अलग और विशिष्ट अंदाज की कवयित्री होने के लगातार संकेत देते रहे हैं। यह बेहद सुखद है कि हाल ही में आपके कविता-संग्रह ‘हँसी एक प्रार्थना है’ पर राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर का सर्वोच्च पुरस्कार ‘मीरा पुरस्का’ घोषित हुआ है। देश विदेश में कविता की दुनिया में पहचानी जानी वाली कवयित्री का यह राजस्थान से पहला बड़ा पुरस्कार है।  
            रति सक्सेना की कविताओं में प्रवेश से पहले यह जानना जरूरी है कि वे कविता को लेकर किस हद तक समर्पित, गंभीर और संघर्ष करती रही है। यह बहुत महत्त्वपूर्ण है कि कवयित्री ने अपने अध्ययन-चिंतन-मनन को आपने कविता के उद्गम या कहें वेदों से आरंभ कर इति तक गहन जुड़ाव से इस यात्रा को समृद्ध किया है। निसंदेह वेदों पर कार्य श्रमसाध्य रहा है। उन्होंने वैश्विक परिदृश्य में अनेक नवीन प्रतिमान प्रतिस्थापित भी किए हैं। भारतीय मेधा का प्रमाण हमारे वेद और उनमें छिपे गूढ़ अभिप्रायों को आपने आलेखों और अपनी पुस्तकों के माध्यम से जहां स्पष्ट किया है वहीं उन पर शोध आपका प्रिय विषय रहा है। हिंदी और अंग्रेजी में आप द्वारा संपादित इंटरनेट पत्रिका ‘कृत्या’ का उद्देश्य भारतीय साहित्य को विश्व पटल पर ख्याति प्रदान करवाना रहा है। यह पत्रिका हिंदी और अंग्रेजी में समानांतर रूप से इंटरनेट पर प्रकाशित हो रही है। यह भी सुखद है कि उम्र के इस मुकाम पर भी रति सक्सेना सक्रिय है और युवाओं के प्रति अतिरिक्त संवेदनशीलता के साथ कार्य कर रही हैं। कविता को लेकर उनकी सजगता और गंभीरता का ही परिणाम है कि वे अनेक विश्वस्तरीय कविता आयोजनों का हिस्सा रही हैं। उन्होंने स्वयं ऐसे आयोजनों को भारत में ‘कृत्या’ के माध्यम से करवाया भी है। उनकी कविता की जमीन के विषय में हम उनके यात्रा वृत्तांत-संग्रह ‘चींटी के पर’, ‘सफ़र के पड़ाव’ और ‘अटारी पर चांद’ से बहुत कुछ जान सकते हैं। इस पूरी पृष्ठभूमि उनके कविता प्रदेश में प्रवेश कर उसके आस्वाद के लिए जरूरी हैं।
            रति सक्सेना एक सहज, सरल अथवा साधारण कवयित्री नहीं, वरन वे अपनी काव्य-यात्रा द्वारा एक गूढ़, संश्लिष्ट और असाधारण होती जा रही हैं। सीधे शब्दों में कहें तो वे एक अलग और विशिष्ट अंदाज की अपनी तरह की एक ऐसी कवयित्री है जिसने अपनी कविता-भूमि का विस्तार भाषा, शिल्प और भाव के स्तर पर किया है। इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि उन्होंने कविता को समकालीन परिदृश्य में वैश्विक कविता के समानांतर ले जाने के लिए लंबी यात्रा की है। हिंदी, अंग्रेजी, मलयालम के साथ विश्व की अनेक भाषाओं से रति सक्सेना का संपर्क और जुड़ाव उनकी  कविता को निरंतर नए आयाम, विस्तार और वितान देते रहे हैं। वे संभवतः पहली ऐसी भारतीय कवयित्री हैं जिनको देश-विदेश में दूर-दूर तक एक व्यापक पहचान और सहमति मिली है। वे जितनी यायावर रहीं हैं, उतनी अन्य कोई उनकी समकालीन नहीं है। यह सब उनकी कविता के लिए एक पूरा परिदृश्य और खाद-पानी तैयार करने जैसा रहा है।
            रति सक्सेना की कविता अथवा ऐसी किसी महिला रचनाकार की कविता पर बात करते हुए यह कहना बेहद सरल और साधारणीकृत मानक है कि आपकी कविता में एक स्त्री मन के संघर्ष की विविध व्यंजनाएं नजर आती हैं। ऐसा नहीं है कि उनकी कविता में यह पक्ष नहीं है। निर्मला पुतुल ने लिखा है- ‘तन के भूगोल से परे/ एक स्त्री के/ मन की गाँठे खोलकर/ कभी पढ़ा है तुमने/ उसके भीतर का खौलता इतिहास’ इन्हीं शब्दों में कहें तो रति सक्सेना की कविता में स्त्री मन की अनेक गांठों के भीतर खौलते इतिहास को प्रस्तुत करने का साहस है। ‘एक खिड़की आठ सलाखें’ कविता-संग्रह की पहली शीर्षक कविता की पंक्तियां है- ‘मैं खिड़की के पीछे हूं/ खिड़की मेरे सामने है/ दोनों क्या एक बात है?’
            रति सक्सेना की यह विशेषता है कि वे कुछ शब्दों और चंद पंक्तियों के माध्यम से एक लंबी कहानी कहने का सामर्थ्य रखती हैं। केवल दो पंक्तियों की एक कविता पूर्ण होती है- ‘जैसे ही खिड़की खुलती है/ मेरी बंद सांस चलने लगती है।’ इसी प्रकार एक अन्य उदाहरण देखें- ‘मेरा अपना सपना/ खिड़की के बाहर/ मैं भीतर।’ यह केवल एक भारतीय स्त्री का खौलता इतिहास नहीं है, बल्कि संपूर्ण स्त्री जाति के अनेक संदर्भ इसमें समाहित है। सरलता, सहजता और साधारण शब्दावली के आवरण में कवयित्री जैसे कुछ विस्फोटक पदार्थों का संचय करती हुई आगे और आगे बढ़ती जाती हैं। उनकी पहली यात्रा-वृतांत की पुस्तक का शीर्षक ‘चींटी के पर’ है और ‘एक खिड़की आठ सलाखें’ कविता में भी एक छोटी सी कविता के माध्यम से लघुता में विराट होने के संघर्ष और संदर्भ को प्रस्तुत किया गया है- ‘पिता का एक प्रिय वाक्य था/ ‘जब चींटी की मौत आती है तो पर निकलते हैं’/ इस मुहावरे का प्रयोग वे जब तब कर लिया करते थे/ जब कभी हमारे सपने उड़ान के लिए तैयार होते/ उनका मुहावरा हमारे सामने डट जाता।’
            आज भी पितृसत्तात्मक समाज में बहुत बदलाव नहीं आया है। सपनों की उड़ान नहीं, उसकी तैयारी में यह प्रतिरोध का प्रथम ‘सामाने डट’ जाना निसंदेह सबसे बड़ा प्रतिरोध है। घर-परिवार के बाद पति का घर और सास-ससुर बाद बच्चे... सभी घटक सपनों की उड़ान के विपक्ष में इस प्रकार व्यवस्थित कर दिए गए हैं कि चींटी के पर निकलने हीं नहीं देते हैं। और यदि निकल भी आएं तो उड़ान कहां संभव होती है? बंद घर में एक खिड़की नहीं है। और यदि है भी तो उसकी एक सलाख ही उसे रोकने के लिए पर्याप्त है। फिर यहां तो आठ सलाखों की अभिव्यक्ति करते हुए रति सक्सेना स्त्रियों को जड़ बना दिए जाने की त्रासदियों को व्यंजित करती हैं। समाज के पूरे आधे हिस्से को किसी चित्र में कैद कर देने वाले समाज में उनकी आजादी और अभिव्यक्ति की बात वे करती हैं। ‘रिश्ते’ कविता में हमारे संबंधों की वास्तविकता को कुछ पंक्तियों में इस प्रकार अभिव्यक्ति मिली है-
            ‘कुछ रिश्ते/ तपती रेत पर बरसात से/ बुझ जाते हैं/ बनने से पहले
            रिश्ते/ ऐसे भी होते हैं/ चिनगारी बन/ सुलगते रहते हैं जो/ जिंदगी भर
            चलते साथ/ कुछ कदम/ कुछ रुक जाते हैं/ बीच रास्ते
            रिश्ते होते हैं कहां/ जो साथ निभाते हैं/ सफर के खत्म होने तक।’
            यहां कविता में जिस प्रकार बिंबों से हमारे रिश्तों की अनुभूतियों को अभिव्यक्त किया गया है, वह समझने-समझाने के लिए पर्याप्त है। जीवनानुभव के साथ एक व्यापक दृष्टिकोण ही नहीं कविता में अंत तक पहुंचते-पहुंचते जिस साहस को अप्रत्यक्ष रूप से लाया गया है, वह निश्चय ही कहीं खड़ित होने वाला नहीं है। अन्य एक उदाहरण इन पंक्तियों में भी देखा जा सकता है- ‘वे कहते हैं कि/ उनकी रातें पहाड़ है/ पर मेरी तो/ उथला पोखर ही/ फिर भी/ रात जागती है/ मेरी आंखों में।’ (पहाड़ी रातें)
            रति सक्सेना की आरंभ की कविता-यात्रा में जहां कविता में जीवन की विविध अनुभूतियों को समाहित करते हुए, वे अपने लिए रास्ता बनाने की एक मुहिम चलाती नजर आती हैं। वहीं आगे की इस यात्रा में वे बड़े फलक पर अनेक नए घटकों को जोड़ते हुए जैसे विस्तारित वैश्विक जगत में मनुष्य की पहचान को उसकी अपनी एक इकाई के साथ प्रस्तुत करती हैं। इस विस्तार को हम हमारी अनुभूतियों में समाहित करने के लिए जब कविता में उतरते हैं, तब जाने-अनजाने अनेक संदर्भ हमारे सामने आते हैं। ‘जुले-लेह’ कविता में जुले का अभिप्राय स्वागत है, इसका भान कविता कराती है। यदि नहीं कराती है तो वह पाठक को प्रेरित करती है कि देश के भीतर और आस-पास के क्षेत्रों के अनेक शब्दों को उनके सांस्कृतिक जीवन के साथ ग्रहण करना जरूरी है। लोक और विज्ञान के द्वंद्व को भी कविता में प्रकारांतर से प्रस्तुत किया गया है। इसी कविता में कवि के जीवन और उसकी विकसित होती विचारधारों के संघर्षों को भी हम देख सकते हैं।
            धरती पर प्रांतों की सीमाएं हैं। एक राजस्थान तो दूसरा केरल है जहां से कवयित्री के जीवन संदर्भ जुड़े हैं। ऐसे में धरती के भू-भागों की विविधताओं में आकाश, चंद्रमा और बादलों की विविधता अथवा समानता के विषय में क्या कहा जाएगा?
            ‘इसे मून-लैंड कहते हैं/ नवांग छेरिंग कहता है-/ तो फिर चंद वैसा नहीं जैसा कि/ मुझे दिखता है?/ उदयपुर की झील में/ कांसे की थाली सा तैरता/ नारियल के दरख्तों में/ उलझा सा/ बादलों से झगड़ता सा’ रति सक्सेना के यहां कविताओं का मूल संघर्ष चीजों की वास्तविकताओं के उझले होने का है। सवाल यह है कि जो जहां से जैसी दिखती है या कहें दिखाई जाती है, वह केंद्र और अक्ष के बदल जाने पर भिन्न क्यों हो जाती है? स्थितियों के बनने और बिगड़ने के इस क्रम में वह अनेक यात्राएं करती है। जिस भांति कोई योगी जगह-जगह ईश्वर को खोजता है, वैसे ही कवयित्री परम सत्य की तलाश में यात्राओं में भटकन झेलती है। यह भटकन भीतरी है। जो सदैव आकुलता और उत्सुकता से सत्य को परखना चाहती है। उदाहरण के लिए- जैसे कामाक्षी के मंदिर में पहुंच कर कवयित्री ने एक कविता रची- ‘गर्भ जल के संस्कार’। जिसमें परम सत्य के खंड-खंड में विभाजित कर सत्य को संस्कार के नाम पर विचलित करने का बोध होता है, वहीं भक्त और शिव का मर्म भी उद्घाटित होता है।
            दुनिया का प्रयास है कि सभी कुछ समानांतर रहे और जीवन अपनी अबाध गति से जैसा बह रहा है वैसे ही बहे, और बहता रहे। किंतु इस जैसे रूप पर रति सक्सेना की कविताएं यथास्थितिवाद का प्रतिरोध है। ‘मैं सूरज तो नहीं कि/ निकले मेरे तन से/ उजाले की लकीरें/ फिर भी/ फूट पड़ती है/ कालिख भरी परछाई/ जब भी मैं खड़ी होती हूं/ सूरज के विरोध में।’
            कविताओं में जहां सीधे-सीधे विचार और कार्य-क्रिया के स्तर विरोधाभास को कवयित्री ताड़ लेती है, वहीं बहुत सूक्ष्म अनुभूतियां भी उनकी कविताओं में बेहद कोमलता के साथ स्थान पाती हैं- ‘लिफाफा आया/ साथ आई छुअन/ ढेर सारी यादों से घिरी।’ (उसका खत) अथवा- ‘पहली याद आई/ तिनका धर, चली गई/ दूसरी ने तिनकों पर/ सजा दिए तिनकें/ धीरे-धीरे/ घोंसला ही चहचहा उठा।’ (याद-2)
            परंपरा और आधुनिकता के बीच जो गणित व्यवस्थिति है, उसे कोई भाट नहीं जानता और ना ही कोई ज्योतिषी भविष्य के गणित को जानता है। रति सक्सेना का विश्चास है कि जिंदगी का कोई ज्योषिती नहीं है। इससे भी महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि ‘शुरु हो सकता है/ सफर कहीं भी/ कभी भी।’ (जिंदगी का ज्योषित) कविता के परंपरागत शिल्प और शैली को भी ‘खेल खतम, पैसा हजम’ जैसी कविता में नवप्रयोग के स्तर पर सहेजने का प्रयास है। ‘झील पर मंडराती, मसालों की खुशबू’ कविता में अपने अग्रज वरिष्ठ कवियों के काव्यांशों को कविता में प्रस्तुत करते हुए काव्य-परंपरा का विकास नए संदर्भों में प्रस्तुत हुआ है। ‘एक खिड़की आठ सलाखें’ की एक कविता ‘रास्ता’ जैसे अब तक की इस पूरी चर्चा को बहुत कम शब्दों में अभिव्यक्त करती है- ‘आधा रास्ता/ पता पूछने में गुजरा/ आधा/ मुकाम खोजते/ मंजिल तक/ पहुंच न पाए कि/ गुम हो गया/ पूरा रास्ता।’ उनकी कविताओं में हर बार एक नया आरंभ और अगाज देखने को मिलता है।
            कवयित्री रति सक्सेना का यह काव्यात्मक अंवेषण है कि उनके अहसास पाठकों तक संप्रेषित होता हैं- ‘हंसी एक प्रार्थना है।’ यह एक विरल अनुभव है- ‘हंसी एक प्रार्थना है/ जिसे दुहराव की जरूरत नहीं/ आलाप से लेकर स्थाई तक पहुंचन के लिए/ सम्मिलित स्वरों की जरूरत होती है।’ और यहां यह कहना जरूरी नहीं है कि यह सम्मिलित स्वरों में सभी के स्वरों के समाहित होने की कामना है। संगीत और लय के साथ जीवन की सार्थकता के लिए प्रार्थना के इस नवीन आविष्कार के साथ ही, इस कविता की अगली पंक्तियां भी इसी भाव को विस्तार देती है- ‘हंसी का आलाप ईश्वर को जगाता है/ स्थाई पर आते-आते यह समय से जुड़ जाती है।’ केवल इसी कविता में नहीं वरन अन्य अनेक कविताओं में रति सक्सेना के यहां अखिल संसार के मंगल की कामना का भाव देखा जा सकता है।
            रति सक्सेना कविता में हमारे सामने एक ऐसे वितान को रचती हैं कि उसमें हमारी दृष्टि दूर-दूर तक जाने और पहुंचने में समर्थ होती है। उनके यहां ऐसा क्यों है इसलिए एक उत्तर उनकी कविता- ‘सपनों की भटकन’ में मिलता है, जिसमें वे लिखती हैं- ‘हर सुबह/ शुरु हो जाती है, मेरे सपनों की/ भटकन।’ असल में प्रतिदिन की यह भटकन किसी स्थिरता और स्थाई भाव की खोज है। अपनी एक अन्य कविता में कवयित्री का कहना है- ‘अक्सर मैं अपनी जड़ों को खोजती/ न जाने कहां कहां भटक आती हूं।’ (‘जड़े’ : पृष्ठ-14)
            हर व्यक्ति का अपना एक संघर्ष होता है जिसमें वह बाहर-भीतर जूझता है। स्त्री के लिए एक घर और उसकी जड़ें जहां एक आंगन तक उसकी उडान को संकुचित बनाने के उपक्रम रहे है, वहीं सपनों की उड़ान के लिए उसकी अपनी परिकल्पना और वितान की अभिलाषा भी रही है। यह संयोग नहीं है कि ‘चींटी के पर’ नाम से वर्ष 2012 में रति सक्सेना की यात्रा-वृतांत की एक पुस्तक प्रकाशित हुई। वहीं उन्होंने इसी शीर्षक से वर्ष 2014 में एक कविता लिखी जो उनके संग्रह ‘हँसी एक प्रार्थना है’ (2019) में संकलित है। उनके यात्रा-वृतांत एक किस्म की उनकी डायरी भी है। जिसमें यात्राओं के साथ न केवल कविताओं का उल्लेख है वरन अनेक कविताएं और उनकी रचना-प्रक्रिया और काव्य-चिंतन को भी हम सतत रूप से विकासित होता देख सकते हैं।
            ‘उन्होंने कहा- चींटी के पर नहीं होते/ फिर कहा- पर हो तो भी वह उडेगी नहीं/ यदि उड़ान ही नहीं तो परों की व्यथा कैसी?
            परों पर चींटी की मौत सवार है/ मौत में उड़ान है/ चींटी ने उड़ना शुरु कर दिया।’
            यह विरोधाभास और संघर्ष ही जीवन में स्त्रियों की अस्मिता अथवा आगामी पीढ़ियों के लिए उड़ान के लिए एक किस्म का बीज बोना है। जिसे इस कविता की अंतिम पंक्तियों में कवयित्री ने रेखांकित भी किया है- ‘चींटी ने अगली पीढ़ी के लिए/ उड़ान का बीज बो दिया।’ (चींटी के पर : पृष्ठ-15) किसी अहम से परे यह विनम्रता और विश्वास ही रति सक्सेना को एक अलग और विशिष्ट अंदाज की कवयित्री स्थापित करता है।
            ‘पिता एक पहाड़ थे, जिनके नीचे हम/ बरसाती रातों में अभय पाते/ पिता एक दाहड़ थे, जो सोते में भी/ हमारी नसों में खलबली मचा देती/ पिता एक दीवार थे, जो हर बहारी तूफान को/ भीतर आने से रोकते।’ (आखिर बचता क्या है?, पृष्ठ-19) पिता के भूमिका बहुत बड़ी होती है और ‘पितृ तर्पण’ और ‘पिता’ जैसी कविताओं में भी पिता के चले जाने के बाद की अनुभूतियों को बेहद मार्मिकता से साथ प्रस्तुत किया गया है। इसी प्रकार मां और अन्य संबंधों के विषय में अथवा अपने पुराने शहर उदयपुर के बारे में हो या अन्य स्थान विशेष के संबंध में आपकी कविताओं में अनेक स्मृतियां हैं। जिनको हम अनेक अनुभवों के रूप में देखते हैं। वहीं इन कविताओं में कवि-मन का समय-रेखा पर गतिशील रहते हुए निरंतर एक आत्मसंवाद करना भी लुभाता है। अपनी बाद की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी के लिए कवयित्री को दुनिया में अभिव्यक्ति को बनाए रखना है, वहीं वह नए-नए रूपों और माध्यमों की तलाश में यह कह कर हमें उत्साहित करती हैं- ‘मैं लिखना चाहती हूं-/ उस कविता को/ जो तुम्हारे रुदन के भीतर सुर में/ भीगी हुई दीपक बाती की तरह/ लहक-लहक कर जल रही हो।’ (पृष्ठ- 29-30)    
            रति सक्सेना के यहां किसी भी वस्तु अथवा बिंब को जहां विशद अर्थ में प्रस्तुत किया गया है, वहीं उनके अनेक पक्षों को संकेतों के साथ उभरने की भी भरपूर ललक है। कहीं कहीं अर्थ सीधे और सपाट है जहां कोई किसी प्रकार का प्रतिरोध नहीं है। किंतु जहां प्रतिरोध है उसे उस रूप में चित्रित करते हुए आगे बढ़ते हुए, उसके भीतर के सकारात्मक पक्षों पर भी विचार किया गया है। समय के साथ-साथ संसार में भी निरंतर बदलाव हो रहा है। कवयित्री समय के साथ अपनी कविताओं में व्यक्ति और समाज की बदलती भूमिकाओं के साथ परिवर्तित होती स्थितियों का आकलन प्रस्तुत करती हैं। वह अपनी कविताओं में रूढ़ता को छोड़कर सदैव नवीनता का स्वागत करने को उत्सुक है। वह काव्य-भाषा और शिल्प के साथ नवीन बिंबों द्वारा कविताओं को विशिष्टता प्रदान करती रही हैं।
            अपने समकालीनों से अलग उनका कविता को देखने-परखने और कहने का अपना अलग नजरिया है। जैसे- ‘कौन कहता है कि सपने/ नींद को बेहद प्यार करते हैं/ कुछ सपने ऐसे होते हैं जो/ भोली सी नींद पर बुलडोजर से/ कुचल कर गुजर जाते हैं/ नींद अकबका कर जगती है/ अंग-अंग समेटती हुई।’ (पृष्ठ-39), ‘मेरी दाहिनी आंख ने/ मेरी बाईं के विरोध में/ बगावत छेड़ दी है।’ (दृष्टिविरोध : पृष्ठ-34) अथवा ‘मुझे यह शहर एक गदबदा खरगोश लगता है।’ (पृष्ठ-36)
            एक अन्य उदाहरण के रूप में हम ‘किताब परख लेती है’ कविता को देख सकते हैं। जिसमें किताबों की क्षमताओं के साथ उसके पाठक के अहसास और सावधानी को बेहद सुंदर रूप में अभिव्यक्त किया गया है-
            ‘पढ़ने से पहले/ किताब को धीमे से खोल/ उसकी खुश्बू को नथुनों में भरो/ और फिर गुटक लो/ हौले से/
            मन बरगद बना/ इस तरह छवा लो/ कि अक्षर/ उतर आये पखेरू से/
            इंतजार करो/ एक बरगद के खुल जाने का/ जिसमें गूंथे पड़े हैं/ हजारों अर्थ/
            फिर महसूस करो/ पंखों की सरसराहट।’ (पृष्ठ-43)
            यह अकारण नहीं है कि रति सक्सेना की कविता जमीन पर चलती हुई वहीं से आसमान का चेहरा देखना दिखाना चाहती है, वहीं नकली सभ्यताओं के किलों की चूले हिलाकर परिवर्तन की मांग करती है। उनके रचना-संसार में अनेक कविताएं देश-विदेश के कवियों के लिए लिखी गई हैं, वहीं विभिन्न कला-माध्यमों यथा फिल्मों और जगहों आदि से प्रभावित हो कर भी उनकी अनेक कविताएं मिलती हैं। जाहिर है कि इन विशद संदर्भों के लिए पाठक को अपने धरातल से उस तक पहुंचने में समय और श्रम दोनों देना होंगे, किंतु यह हिंदी और भारतीय कविता की एक उपलब्धि है कि उनकी कविता का वितान बेहद व्यापक है जो इतना कुछ समेटे हुए हैं। उदाहरण के लिए ‘सूरज को सहेजती तुम!’ कविता को देखा जा सकता है जिसे ट्रिन सूमेत्स के लिए रति सक्सेना ने चार मार्च 2015 को लिखा है। ‘सूरज के होने से कुछ नहीं होता/ बस हमें उसे सहेजना आना चाहिये,/ दुनिया के किसी भी कोने से/ तुम्हारी कविता के शब्द मेरे कानों में फुसफुसाते हैं।’ (पृष्ठ-55) यह कवि, कविता और भावक का एक त्रिभुज है। इसमें सभी के अपने अपने स्थान, प्रयास और चयन हैं। यहां यह काव्यांश भी देख सकते हैं- ‘कविता खुद चुनती है/ कलम को और उसे थामने वाली/ अंगुलियों को, अंगुलियों पर/ बैठे शब्दों को,/ और शब्दों में दिखाई न देते भावों को।’ (पृष्ठ-60)
            कविता को कवि लिखता है अथवा कविता खुद कवि को लिखती है? रचना के पारंपरारिक रूप से इतर सक्सेना के काव्य संसार में नवीनता का कारण जहां कवयित्री की अनेक यात्राएं हैं, वहीं उनका स्वयं का भीतर ही भीतर भी निरंतर यात्रारत रहना है। बाहर और भीतर के ये आकलन ही हैं कि उसे कोई मुगालता नहीं है। ‘मुगालते पालना’ जैसे कविता में वे लिखती हैं- ‘बड़ा आसान होता है/ मुलागते पालना/ सीने के करीब की चार इंची जेब में/ चार मील लंबा मुगालता सिमट आता है।’ (पृष्ठ-75)
            यहां चार नहीं, चार सौ अथवा चार हजार मील लंबा मुगालता यह भी है कि रति सक्सेना की अनेक कविताएं अपने आप में इतनी व्यापक और बड़ी है कि उन पर विस्तार से बात की जा सकती है। इन कविताओं को किसी एक धारा, सूत्र अथवा विचार के बंधन में हम बांध नहीं सकते हैं क्योंकि इनमें हर बार अपने अतीत से मोहभंग के साथ नवीनता को स्वीकारने का भाव है। यह नवीनता विषयों की विविधता के साथ हमारे सामने अनेक नए विमर्शों के दरवाजे खोलती हैं, जिसमें पुराना सब कुछ खो जाता है और कवयित्री ‘खोना’ कविता में लिखती हैं- ‘खोना मेरे लिए उतना ही सहज है जितना कि/ सांस लेना, उंघना, या फिर सोने के खुर्राटे लेना/ इतना त्वरित कि ‘ख’ का उच्चारण करते ही/ खोने की प्रक्रिया शुरु हो जाती है और/ पूरी होने से पहले ही खोजने की।’ (पृष्ठ-90)
            कहना होगा कि वैश्विक स्तर पर हिंदी और भारतीय कविता के लिए संघर्षरत कवयित्री रति सक्सेना की अपनी काव्य-यात्रा में विविध रंगों के साथ कला मानकों द्वारा निरंतर आगे बढ़ते हुए विभिन्न प्रतिमान प्रस्तुत किए हैं। इन प्रतिमानों का समय रहते हुए आकलन और मूल्यांकन करते हुए इस काव्य यात्रा से गुजरना बेहद जरूरी है। अंत में इस काव्यांश से मैं अपनी बात पूरी करना चाहूंगा- ‘अक्षर मेरी अंगुलियों के पौरों पर टिक गए/ जिस वक्त मेरे कंप्यूटर पर एक नई/ कविता जन्म ले रही थी/ समय मेरे आसपास/ पालतू कुत्ते सा मंडरा रहा था।’ (पृष्ठ-120) यहां महज कविता के जन्म की स्थिति का साधारण वर्णन नहीं है, अपितु कवयित्री रति सक्सेना अपनी अनुभूतियों की अभिव्यक्त एक अलग और विशिष्ट अंदाज से कर रही हैं। इस अभिव्यक्ति में जहां संवेदना है तो वहीं एक विशद अध्यनन के साथ वैश्विक काव्य-परिदृश्य के अवलोकन के साथ नवीताबोध भी समाहित है। मैं कामना करता हूं कि इसी प्रकार नई नई कविताओं के जन्म से आपका काव्य-संसार समृद्ध होता रहेगा।
००००

- डॉ. नीरज दइया


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डॉ. सुमन बिस्सा रो चौथो राजस्थानी कविता-संग्रै अंतस रा सुर सांतरा

           कविता जातरा अर विगासव नै देखण-परखण खातर आपां न्यारै-न्यारै ढंग-ढाळै सूं मारग लेवां कै जिण सूं उणनै आखै रूप मांय निरख-परख सकां। साव सीधो मारग- बगत री दीठ सूं बीसवीं अर इक्कीसवीं सदी रा दोय फंटवाड़ा माना। बियां हाल इक्कीसवीं सदी च्यार आना ई साम्हीं देखी हां, पण आधुनिक राजस्थानी कविता मांय खासकर नै महिला री कवितावां मांय मोटो नै उल्लेखजोग बदळाव संख्यात्मक अर गुणात्मक दीठ रो देख सकां। महिला कवियां बिचाळै डॉ. सुमन बिस्सा रो नांव हरावळ मानीजै। लगोलग कविता जातरा पेटै ‘अंतस रा सुर सांतरा’ आपरो चौथो राजस्थानी कविता-संग्रै है, जिण मांय असवाड़ै-पसवाड़ै रा भांत-भांत रा विसयां नै परोटण रा जतन साफ देख्या जाय सकै।
            आधुनिक राजस्थानी कविता रै आंगणै डॉ. सुमन बिस्सा रो नांव खास इण खातर ई मानीजैला कै बां इण पोथी मांय कविता री न्यारी न्यारी बुणगट नै परोटण री खिमता उजागर करै। बियां संग्रै री विगत मांय किणी ढाळै रो विभाजन कोनी पण संग्रै मांय छंद-अछंद साथै न्यारै-न्यारै काव्य-रूपां जियां- गीत, गजल, नवगीत, दोहा, सोरठा, कुंडलियां, मुक्तक, हाइकू अर नवी कविता आद देखण नै मिलै। कैवण रो अरथाव ओ है कै कवयित्री री प्रतिभा रो पूरो परिचै इण संग्रै मांय मिलै। आप जठै आपरी परपंरा सूं जुड़ी थकी आगै बधै बठै ई आधुनिक काव्य रूपां नै ई परोटण पेटै ई सावचेत निजर आवै।
            आधुनिक कविता पेटै डॉ. सुमन बिस्सा एक भरोसैमंद नांव है जिण री कविता मांय फगत राजस्थान ई नीं आखै जगत री माया-काया नै देखण-परखण अर भाखण री खिमता मिलै। जूनी बातां अर भरोसा नै तोड़’र बगत मुजब नवी बातां नै नवी भासा मांय अंगेजण रा अनुभव आं कवितावां मांय मिलैला। म्हैं इण संग्रै खातर बड़ी बैन सुमन बिस्सा जी नै मोकळी मंगळकामनावां अरपण करूं। म्हनै पतियारो है कै इण संग्रै रो जोरदार स्वागत हुवैला।

- डॉ. नीरज दइया   

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NAND JI SE HATHAI (साक्षात्कार)

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