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भावों और अभावों के संवेदनात्मक शब्द-चित्र/ डॉ. नीरज दइया

    श्रीमती रजनी छाबड़ा कविता, अनुवाद और अंक-ज्योतिष के क्षेत्र में बहुत बड़ा नाम है। यह मेरे लिए बेहद सुखद है कि उनके इस नए कविता संग्रह ‘बात सिर्फ इतनी सी’ के माध्यम से मैं आपसे मुखातिब हूं। उनके इस कविता संग्रह पर बात करने से पहले अच्छा होगा कि मैं यहां यह खुलासा करूं कि एक ही शहर बीकानेर में हम लंबे अरसे तक रहे, यहां उनका अंग्रेजी शिक्षिका के रूप में लंबा कार्यकाल रहा किंतु उनकी रचनात्मकता से परिचित होते हुए भी मेरी व्यक्तिशः मुलाकात नहीं हो सकी। पहली मुलाकात हुई बेंगलुरु में 14 नवंबर, 2014 को, जब मैं वहां साहित्य अकादेमी पुरस्कार अर्पण समारोह में भाग लेने गया। इसके बाद तो जैसे बातों और मुलाकातों का अविराम सिलसिला आरंभ हो गया।
    रजनी छाबड़ा जी ने मेरी राजस्थानी कविताओं के अंग्रेजी अनुवाद किए किंतु 12 फरवरी, 2018 का दिन उन्होंने मेरे लिए अविस्मरणीय बना दिया। वह दिन मेरे लिए खास था कि मुझे साहित्य अकादेमी द्वारा मुख्य पुरस्कार मिला किंतु उनका सरप्राइज मेरे राजस्थानी कविता संग्रह का अंग्रेजी अनुवाद पुस्तक के रूप में मेरे हाथों में सौंपना बेहद सुखद अनुभूति देने वाला रहा। यह तो जानकारी मुझे थी कि वे मेरी कविताओं का अनुवाद कर रही हैं किंतु उन्होंने या डॉ. संजीव कुमार जी ने कुछ पहले बताया नहीं था।
    एक साथी रचनाकार-अनुवाद के रूप में समय के साथ हमारे संबंधों का सफर प्रगाढ़ होता चला गया और यह उनका अहेतुक स्नेह है कि मैं यहां उपस्थित हूं। ‘बात सिर्फ इतनी सी’ है पर आप और हम जानते हैं कि हर बात के पीछे उसका एक विस्तार समाहित होता है। हाल ही में प्रकाशित राजस्थानी कविताओं के अंग्रेजी अनुवाद के दो संचयन मुझे बहुत महत्त्वपूर्ण लगते हैं, इन दोनों संकलनों के कवियों और कविताओं के चयन से लेकर अनुवाद तक सभी काम रजनी छाबड़ा ने किया है। आज हमारी क्षेत्रीय भाषाओं से अंग्रेजी-हिंदी भाषाओं द्वारा उनको व्यापक फलक देने वाले ऐसे अनेक कार्यों की महती आवश्यता है।
    रजनी छाबड़ा की कविता-यात्रा की बात करें तो इससे पहले उनके तीन कविता संग्रह- ‘होने से न होने तक’ (2016), पिघलते हिमखंड (2016) और ‘आस की कूँची से’ (2021) प्रकाशित हुए हैं। अंग्रेजी, हिंदी की अनेक किताबें किंडल पर देखी जा सकती है और आपके कविता संग्रह विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनूदित भी हुए हैं। अनुवाद और अंक-शास्त्र की अनेक किताबों का मैं साक्षी रहा हूं और कह सकता हूं कि वे बहुत जिम्मेदारी और जबाबदारी के साथ कार्य करती हैं। आपके पहले कविता संग्रह ‘होने से न होने तक’ के विषय में लिखते हुए मैंने अपने आलेख का शीर्षक ‘स्वजन की अनुपस्थिति का कविता में गान’ दिया था। यहां उस आलेख की महत्त्वपूर्ण बात स्मरण करना चाहता हूं, मैंने लिखा था- ‘संग्रह की कविताओं की मूल संवेदना में स्मृति का ऐसा वितान कि फिर-फिर उस में नए-नए रूपों में खुद को देखना-परखना महत्त्वपूर्ण है। जैसे इस गीत का आरंभ उसके होने से था, किंतु उसका न होना भी अब होने जैसे सघन अहसास में कवयित्री के मनोलोक में सदा उपस्थित है।’
    रजनी छाबड़ा के भीतर मैंने शब्दों और अंकों को लेकर एक जिद और जुनून को देखा है। वे कविता रचती हो या भाषांतरण में शब्दों को एक भाषा से दूसरी भाषा में ले जा रहीं हो अथवा अंकों के गणितय रहस्यों में उलझ रही हो, एक समय में एक काम और उसे पूरी तन्मयता के साथ करती हैं। मैं यहां केवल उनके गुण गान नहीं कर रहा आपसे कुछ सच्चाइयां साझा कर रहा हूं। उनकी कविताओं में मुझे भावों और अभावों के संवेदनात्मक शब्द-चित्र नजर आते रहे हैं और इस संग्रह ‘बात सिर्फ इतनी सी’ में भी यह क्रम जारी है। सकारात्मक सोच और आशावादी दृष्टिकोण के साथ वे अपने स्त्री-मन को खोलते हुए किसी प्रकार का कोई बंधन नहीं रखती हैं। जो है जैसा है उसे शब्दों के माध्यम से चित्रात्मक ढंग से प्रस्तुत करने का उनका हुनर प्रभावित करता है। बेशक ‘बात सिर्फ इतनी सी’ है किंतु उसे उल्लेखनीय बना कर रजनी छाबड़ा जैसे अपने समय और समाज को कविताओं में रेखांकित करती रही हैं। ‘अपनी माटी’ कविता की पंक्तियां देखें- ‘कैसे भूल जाऊं/ अपने गांव को/ रिश्तों की/ सौंधी गलियों में/ वहां अपनेपन का/ मेह बरसता है।’ इस संग्रह की कविताओं में अपनेपन के मेह की अनुभूतियां पाठक महसूस कर सकेंगे और यही इन कविताओं की सार्थकता है कि यहां भाषा के आडंबर से दूर सरलता-सहजता से कवयित्री अपने अहसासों से प्रस्तुत करती हैं। ‘जुबान मैं भी रखती हूं/ मगर खामोश हूं/ क्या दूं/ दुनिया के सवालों का जवाब/ जिंदगी जब खुद/ एक सवाल बन कर रह गयी। (कविता- खामोश हूं) इस खामोशी में ही हमें सवालों के जवाब ढूंढ़ने हैं।
    रजनी छाबड़ा अपनी कविता ‘रेत के समंदर से’ में जिंदगी और रेत को समानांतर रखते हुए लिखती हैं कि रेत के कण जो फिसल गए वे पल कभी मेरे थे ही नहीं और उनका विश्वास है कि जो हाथों में है वही अपना है उस पर भसोसा किया जाना चाहिए, बेशक वह एक इकलौता रेत का कण जैसा ही क्यों ना हो। कवयित्री रेत में तपकर सोना होने की प्रेरणा देती हैं तो संबंधों में स्वार्थ से ऊपर उठकर रिश्तों को सांसों में बसा कर बचाकर जीने की बात करती हैं। ‘भटके राही’ कविता में वे लिखती हैं- ‘जब कोई किसी का/ पर्थप्रदर्शक नहीं बनता/ न कोई पूछता है/ न कोई बताता है/ सब का जब/ खुद से ही नाता है।’ स्वार्थों की नगरी में भटके राही को तकनीक के साथ स्वयं के संसाधनों से आगे बढ़ना होता है।
    यह अकारण नहीं है कि इस संग्रह की अनेक कविताओं में विभिन्न अहसासों की कुछ-कुछ कहानियां अंश-दर-अंश हमारे हिस्से लगती हैं क्योंकि पूर्णता का अभिप्राय जिंदगी में ठहर जाना या थम जाना है जो कवयित्री को मंजूर नहीं है। ‘पूर्णता की चाह’ कविता की इन पंक्तियों को देखें- ‘या खुदा!/ थोड़ा सा अधूरा रहने दे/ मेरी जिंदगी का प्याला/ ताकि प्रयास जारी रहे/ उसे पूरा भरने का...’ एक अन्य कविता ‘हम जिंदगी से क्या चाहते हैं’ कि आरंभिक पंक्ति देखें- ‘हम खुद नहीं जानते/ हम जिंदगी से क्या चाहते हैं/ कुछ कर गुजारने की चाहत मन में लिए/ अधूरी चाहतों में जिए जाते हैं।’ यह दुविधा और अनिश्चय ही हमारा जीवन है। 
    कवयित्री रजनी छाबड़ा का मानना है- ‘जो दूसरों के दर्द को/ निजता से जीता है/ भावनाओं और संवेदनाओं को/ शब्दों में पिरोता है/ वही कवि कहलाता है।’ मैं यहां यह लिखते हुए गर्वित हूं कि रजनी छाबड़ा के अपने इस कविता संग्रह तक आते आते सांसारिक विभेदों के सांचों से दूर एक मनुष्यता का रंग हमारे समक्ष प्रस्तुत करती हुई सच के धरातल को अंगीकार करती हैं। उन्हीं की पंक्तियों का सहारा लेकर अपनी बात कहूं तो- ‘नहीं जीना चाहती/ पतंग की जिंदगी/ लिए आकाश का विस्तार/ जुड़ कर सच के धरातल से/ अपनी जिंदगी का खुद/ बनना चाहती हूं आधार।’ यह स्वनिर्मित आधार ही इन कविताओं की पूंजी है और मैं स्वयं इस पूंजी में शामिल होने के सुख से अभिभूत हूं।
    अंत में रजनी जी को बहुत-बहुत बधाई देते हुए यहां शुभकामनाएं व्यक्त करता हूं कि वे अपने कविता के प्याले में थोड़े-थोड़े शब्दों के इस सफर को सच के धरातल से अभिव्यक्त करती रहेंगी। हमें उनके आने वाले कविता संग्रहों में रिश्तों की सौंधी गलियों में अपनेपन के मेह के अहसास को तिनका-तिनका सहेज कर सुख मिलेगा।
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13/03/2023




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स्थानीय रंगों में सजी अनुभूतियों की कविताएं/ नीरज दइया

     मदन गोपाल लढ़ा के कविता संग्रह ‘सुनो घग्घर’ नाम से ध्वनित होता है कि इसमें ‘घग्घर’ से कवि संबोधित होगा। वास्तविकता भी यही है कि प्रस्तुत संग्रह में नौ कविताएं ‘घग्घर : नौ चित्र’ नामक उप खंड में संकलित है। अन्य कविताओं में भी कहीं-कहीं नदी के साथ स्थानीय संदर्भ है। घग्घर नामक नदी के विषय में कुछ विद्वानों और लोक-मान्यता है कि प्राचीनकाल में बहने वाली महान नदी सरस्वती का ही यह बचा हुआ रूप है। इसमें मतभेद हो सकते हैं, किंतु राजस्थान के कवि लढ़ा का घग्घर अथवा अपने यहां स्थित कालीबंगा को कविता के केंद्र में रखना एक सुखद अहसास है। वर्तमान कविता में जब वैश्विक परिवेश, भूमंडलीकरण और विमर्शों का बोलबाला अधिक है ऐसे में कवि का अपनी जमीन से प्रेम और स्थानीय रंग की अनुभूतियां कविता को स्मरणीय और उल्लेखनीय बनाते हैं। बहुत से कवियों की कविताओं को पढ़कर यह अंदाजा लगाना कठिन होता जा रहा है कि वह किस प्रदेश-प्रांत अथवा जमीन की कविता है। हिंदी कविता से निजी और स्थानीय रंग जैसे लुप्त होते जा रहे हैं, ऐसे में कवि लढ़ा का अपनी रचनात्मकता के केंद्र में नदी, प्राचीन अवशेषों अथवा अपने घर-परिवार-गांव को रखते हुए अपने पर्यावरण और परंपरा से जुड़ना, उनकी चिंता करना... निसंदेह रेखांकित किया जाना चाहिए।
    मदन गोपाल लढ़ा हिंदी और राजस्थानी भाषा के प्रतिष्ठित युवा हस्ताक्षर हैं। ‘सुनो घग्घर’ कविता संग्रह के तीन खंड है- ‘बिसरी हुई तारीखें’, ‘फूल से झरी हुई पंखुरी’ और ‘घर-बाहर’। इन तीनों में अनेक उपखंडों में कविताओं को विषय-वस्तु के अनुसार व्यवस्थित किया गया है। यहां इस संग्रह से पूर्व प्रकाशित कविता-संग्रह ‘होना चाहता हूं जल’ का उल्लेख इसलिए भी जरूरी है कि उसके नाम में ‘जल’ होने की अभिलाषा व्यंजित होती है और यहां जैसे उसी अभिलाषा का एक विकसित रूप है- ‘सुनो घग्घर’। सरस्वती नदी के लुप्त होने की बात को अभिव्यक्त करते हुए कवि ने लिखा है कि घग्घर नदी धरा पर बहता हुआ एक इतिहास है। कवि इसे वर्तमान और अतीत के मध्य एक पुल मानते हुए वीणा के स्वरों को इसी में समाहित करते हुए, हमें सुनता है। असल में घग्घर कवि के लिए कल, आज और आने वाले कल के बीच काल को जानने-समझने का माध्यम है। कवि सृजनधर्मी है और उसे घग्घर नदी भी अपने समान सृजनधर्मी प्रतीत होती है-
    ‘‘पानी के मिस/ लेकर जाती है सरहद पार/ कथाएं पुरखों की/ अतीत के अहसास/ निबंध गलतियों के/ और रिश्तों की कविताएं।
    कितना कुछ कहना चहती है/ कितना कुछ सुनना चाहती है/ सृजनधर्मी घग्घर।’’
(सृजनधर्मी घग्घर, पृष्ठ-25)
    ‘घग्घर के जल को छूकर/ महसूस होता है/ जैसे अतीत के तहखाने में/ खड़े हैं हम।’ (घग्घर देवी, पृष्ठ-31) कवि मदन गोपाल लढ़ा की ये अनुभूतियां घग्घर के समानांतर राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले के एक प्राचीन एवं ऐतिहासिक स्थल कालीबंगा को लेकर भी देखी जा सकती है। ‘कालीबंगा : नौ चित्र’ खंड की यह कविता देखें-
    ‘‘जिस जगह को छुआ है मैंने/ अभी-अभी/ उस जगह को छुआ होगा/ जाने कितने हाथों ने।
    जहां खड़ा हूं मै इस वक्त/ वहां कितने पांव पड़े होंगे कभी।
    जहां सांस ले रहा हूं मैं इस पल/ जाने कितनों ने ली होगी सांसें/ कितनी-कितनी बार।
    कालीबंगा के बहरे-गूंगे थेहड़/ कितना बतियाते हैं/ मुझ सरीखे बावरे लोगों से।’’
(कितना बतियाते हैं, पृष्ठ-14)
    क्या अपने क्षेत्र की नदी अथवा थेहड़ से बतियाना कवि का बावरापन है? अथवा यह एक ऐसी स्थानीयता है जो स्थानीय होकर भी अपने स्थान और समय का अतिक्रमण करती हैं। कवि का काल की सीमाओं से मुक्त होकर यह सोचना कि ‘अलग क्या रहा होगा फिर’ ही यहां ध्यानाकर्षण का विषय है जो कवि को अपने समय में कुछ अलग करने का कौशल देता है। इसी के बल पर वह सैंधव सभ्यता की लिपि की बात करता है जिसमें मानवता का आदिम इतिहास सुरक्षित है और वह एक अबूझ पहेली बुनी हुई है। ‘दर्द की लिपि को बांचना/ आसान कहां होता है भला।’ जैसी काव्य पंक्तियों के माध्यम से कवि अपने पाठकों को भी समय का अतिक्रमण और दर्द का अहसास कराने में सफल होता है। कवि कालीबंगा में मिली मिट्टी की ठीकरियों, काली चूड़ियों, घग्घर नदी आदि में आदिम वक्त को देखने का प्रयास करता है।     
    “... श्राद्ध पक्ष में उपस्थित हुआ हूं पुरखों/ अतीत की भूली-बिसरी सरगम को सुनने/ मुझे अपने आशीर्वाद की शीतल छाया में/ कुछ पल गुजारने दो/ अपनी चेतना से आप्लावित करो/ मेरा अतंस/ भरोसा रखो/ मैं तर्पण करूंगा तुम्हारा/ कविता में शब्दों से।”
(कविता में तर्पण, पृष्ठ-23)
    अगले उपखंड ‘स्मृति : पांच चित्र’ में कवि जहां बहुरुपा स्मृति को परिभाषित करता है वहीं ‘स्मृति-छंद’ कविता में लिखता है- “नदी-/ मछली की स्मृति है/ पेड़-/ गोरैया की स्मृति है/ आग-/ दीपक की स्मृति है/ धरा-/ स्मृति है जीवन की।’ (पृष्ठ-36) और कवि अपनी धरा की स्मृति को चित्रों के रूप में सहेजते हुए आगे से आगे बढ़ता है। यह अकारण नहीं है कि ‘पिता : पांच चित्र’ में अपने दिवंगत पिता का स्मरण करते हुए कवि लिखता है-
     “लिखने के नाम पर/ पिता ने नहीं लिखा/ एक भी शब्द/ मगर जो कुछ लिखा-छपा है/ मेरे नाम से/ या फिर लिखूंगा भविष्य में कभी/ सब कुछ पिता का ही है/ मेरा कुछ भी नहीं।
    पिता से बड़ा लेखक/ मैंने आज तक नहीं देखा।”
(सब कुछ पिता का ही है, पृष्ठ-39)
    ‘सुनो घग्घर’ कविता संग्रह के पहले खंड ‘बिखरी हुई तारीखें’ में कवि ने विभिन्न चित्रों के माध्यम से समय को विविधवर्णी रूपों में देखने-दिखाने का उपक्रम किया है। दूसरे खंड ‘फूल से झरी हुई पंखुड़ी’ में ‘प्रेम : नौ चित्र’, ‘आना-जाना : छह चित्र’ और ‘आंगन में अपवन : चार चित्र’ तीन उपखंड है। इन कविताओं पर भी लंबी चर्चा हो सकती है किंतु यदि संक्षेप में कहा जाए तो यहां प्रेम के सूक्ष्म अहसास के साथ-साथ हमारे संसार से आने-जाने और जीवन-आंगन की बगिया में रहने के कुछ चित्रों को संजोया गया है।
    ‘‘..... केवल शब्दकोश के भरोसे/ हल नहीं होती/ प्रीत-पहेली/ प्रियतम के कंधे पर/ सिर रखकर/ बंद आंखों से ही/ सुलझ सकती है/ यह गुलझटी।’’ (प्रीत-पहेली, पृष्ठ-47)
    मदन गोपाल लढ़ा की इन कविताओं में बंद आंखों और खुली आंखों के अनेक अहसास चित्रों में विविध रूपों में आकार लेते हुए हमारे स्वयं के जीवन से संयुक्त होते चले जाते हैं। इन कविताओं की भाषा में स्थानीय रंगत जहां इनको अपने स्थानीय परिवेश से जोड़ती है वहीं वह सहजता और सादगी भी अनकहे सौंप देती है, जो ऐसी कविताओं के लिए बेहद जरूरी है। जैसे- ‘भरता है उनका पेट’ कविता की अंतिम पंक्तियां देखें- “खाने को तो वे/ रोज दोपहर में भी खाते हैं/ मगर शाम को/ बच्चों के बीच/ जीमकर ही/ भरता है उनका पेट।” (पृष्ठ-60)
    तीसरे खंड ‘घर-बाहर’ में भी तीन उपखंड है- ‘घर : सात चित्र’, ‘भट्टा : पांच चित्र’ और ‘इर्द-गिर्द’। घर अपना हो अथवा किराए का किंतु उसका अहसास जीवन पर्यंत बना रहता है। मदन गोपाल लढ़ा के कवि मन की यह विशिष्टता है कि वह किसी सूक्ष्म से सूक्ष्म से अहसास को एक अनूठे चित्र के रूप में अभिव्यक्त करते हुए उसे उसके संदर्भों से व्यापक और विशद बना सकते हैं।
    “सालों रहने पर भी/ नहीं बन पाए बाशिंदें/ दुनिया के लिए/ रहे किरायेदार के किरायेदार।
    घर ने/ एक दिन भी/ नहीं किया फर्क/ अपना समझा हमेशा/ बरसाया अपनापन।
    अपना-पराया तो/ सिर्फ दुनियादारी है।”
(अपना-पराया, पृष्ठ- 69)
    एक अन्य कविता जो आकार में छोटी सी है किंतु जैसे कवि ने सादगी-सरलता और सहजता से सूत्र रूप में बहुत कुछ कह दिया है। देखें-
    “कुछ घर/ किरायेदार को भी रखते हैं/ अपनों की तरह।
    कुछ लोग/ अपने घर में भी रहते हैं/ किरायेदार की तरह।”
 (कुछ घर – कुछ लोग, पृष्ठ-71)
    ‘गिरना’ कविता में कवि इस क्रिया पर विमर्श करते हुए वर्तमान समय को जैसे खोल कर रख देता है। वह पुराने पड़ गए गुरुत्वाकर्षण के नियम को बदलने की बात गिरते हुए विचारों, भावों, भाषा, लोगों, रिश्तों को देखकर प्रस्तावित करते हुए कहता है- ‘कह पाना मुश्किल है/ कि कोई/ कब, कहां, कैसे और कितना/ गिरेगा/ अलबत्ता अब/ किसी के गिरने का/ अचंभा भी नहीं रहा। (गिरना, पृष्ठ-85) यहां हम एक कवि के ऐसे कौशल से रू-ब-रू होते हैं कि वह कौशल इन कविताओं में कलात्मक रूप में उपस्थित होते हुए भी उनमें कहीं छुपा कर रख दिया गया है। कवि प्रांजल धर ने इस संग्रह के विषय में उचित ही लिखा है- ‘‘यह संकलन उस ईमानदारी का साक्षी और प्रमाण है जिसके तहत सरलता को सबसे बड़ा जीवन मूल्य माना जाता है और तब कविता वमन नहीं हुआ करती, वरन शांति के घनीभूत संवेगों का एकत्रण हो जाया करती है।” निसंदेह इस संग्रह से गुजरते हुए हम अनेक संवेगों में अपनेपन का अहसास कर पाते हैं तो वह इसलिए कि मदन गोपाल लढ़ा की इन कविताओं में स्थानीयता रंगों में सजी अनुभूतियों की ऐसी ऐसी व्यंजनाएं हैं जो अपनी सरलता-सहजता और सादगी के कारण विशिष्ट पहचान बनाने में सक्षम है।
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सुनो घग्घर (कविता-संग्रह) : मदन गोपाल लढ़ा ; बोधि प्रकाशन, जयपुर ; 2022 ; 150/-
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डॉ. नीरज दइया


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कहानी के प्रचलित मुहावरे से इतर कहानियां/ डॉ. नीरज दइया


            ऋतु त्यागी की पहचान एक कवियत्री के रूप में है। उनके तीन कविता संग्रह- ‘कुछ लापता सपनों की वापसी’, ‘समय की धुन पर’ और ‘मुझे पतंग हो जाना है’ प्रकाशित हुए हैं। सद्य प्रकाशित कहानी संग्रह “एक स्कर्ट की चाह” के लिए यह कहना बहुत सरल है कि उनकी कहानियों में यत्र-तत्र-सर्वत्र एक कवि-मन उपस्थित है। इसी सरलीकृत विवेचना में यह भी जोड़ा जा सकता है कि इन कहनियां में अनुभूति के स्तर पर एक स्त्री मन आछादित है। प्रस्तुत कथा-संसार की निजता में जाएं तो स्कूली लड़के-लड़कियों की उपस्थित के साथ कुछ स्थलों पर शिक्षिका के रूप में स्वयं लेखिका को भी देखा जा सकता है।
            संग्रह के आरंभ में आत्मकथ्य में लेखिका लिखती हैं- “चलते चलते पाँव का किसी लम्हे पर टिकना, किसी कण्ठ में उठते हाहाकार, आश्रुओं की चटकन, रात के किसी अबूझे पहर में धप्पा मारकर भागते स्वप्न और... अतीत की श्वेत-श्याम पगडण्डी पर न जाने कितनी बैचनियाँ दौड़ती मिली? जब भी मैं आईने के सामने आती या अपनी टकटकी से एक सुई-सी चुभो जाती तब मन घायल हो जाता फिर कुछ आधी अधूरी कहानियाँ जो डायरी में घुट रही थीं उन्हें उनके हिस्से के पँख तो देने ही थे और..... किसी का देय जो पीछा करता ही जा रहा था ये सभी कहानियाँ उन्हीं से मुक्ति का स्वर हैं।”
            हमें यहां भाषा की नवीनता और बिम्बों की अनोखी छटा की जो झलक मिलती है, वह संग्रह की लगभग सभी कहानियों में देख सकते हैं। कहते हैं कि कहानी यथार्थ और कल्पना के मिश्रण का एक रसायन है जिसे प्रत्येक कहानीकार अपने-अपने विवेक से त्यार करता है। कहानी की लंबी परंपरा में उसके अनेक घटकों को लेकर प्रयोग हुए हैं और हो रहे हैं। संग्रह का शीर्षक ‘एक स्कर्ट की चाह’ जैसे अपने भीतर कोई कहानी लिए हुए है। यहां यह बताना जरूरी है कि शीर्षक को संग्रह में संकलित कहानी ‘एक स्कर्ट की चाह और सपने खोदती स्त्री’ से लिया गया है। अन्य कहानियों के शीर्षक और कहानियां भी ऐसे ही कुछ रहस्यों को लिए हुए हैं। अब देखना यह है कि लेखिका ने अपने अनुभवों को किस प्रकार कहानियों में प्रस्तुत किया है।
            “आईने की तरफ देखकर वह न जाने आज कैसे मुस्कुरा दी। बहुत समय बाद आज फिर उसे वही सपना दिखा था लाल स्कर्ट। सफेद टॉप। पर अब चाँद की छाती नहीं थी। करीब चालीस साल पहले कुछ कठोर कुछ मुलायम छाती जिस पर सिर रखकर उसने अपनी दुनिया का एक नक्शा बनाया था और जो उसके जन्मदिन पर लाल डिब्बे में लाल स्कर्ट और सफेद टॉप लाया था।” (एक स्कर्ट की चाह और सपने खोदती स्त्री, पृष्ठ-39)
            यह शीर्षक कहानी का अंतिम परिच्छेद है। इसके साथ ही कहानी का आरंभिक वाक्य भी देखें- ‘आईना सामने था और वह उसमें उतर कर खुद को देख रही थी।’ इसके विस्तार में एक छोटा सा विवरण और निष्कर्ष भी है- ‘अरसे बाद।’, ‘कितना कुछ बदल गया था।’
            एक स्त्री की वेदनाओं और अभिलाषाओं के संसार में यह कहानी सार्थक हस्तक्षेप करती है। कहानीकार अपनी जादुई भाषा के बल पर अपने पाठकों को जैसे किसी तिलिस्म की दुनिया में होले होले उतारती चली जाती है। यह कहानी जैसे एक ऐसी स्त्री का कोई हल्फिया बयान है जिसमें उसने अपने साठ साल के जीवन और उसमें भी अड़तीस साल के वैवाहिक जीवन को शामिल किया है। आज जब हम आधुनिकता के आईने में स्त्री-पुरुष की समानता और अधिकारों की बात करते हैं तो हमें इस कहानी के प्रथम वाक्य से ही कहानीका त्यागी का मन्तव्य जान लेना चाहिए- ‘आईना सामने था और वह उसमें उतर कर खुद को देख रही थी।’ असल में यह कहानी एक स्त्री के अपने विगत में वर्षों बाद उतर कर खुद को देखने की कहानी के बहाने ‘स्त्री विमर्श’ के नाम पर लिखी जाने वाली अनेक कहानियों के समक्ष फटी जिंदगी की तुरपाई करने की कहानी है। क्या यह एक बड़ी त्रासदी नहीं है कि अपने परिवार और संसार में इतनी समर्पित होने के बाद भी किसी स्त्री को अपने कोई एक अदद मामूली सपने के पूरित नहीं होने का दुख भोगना जैसे नियति में लिख दिया गया है। यहां एक बात स्पष्ट रूप से उभर कर सामने आती हैं कि कहानी के प्रचलित मुहावरे से इतर ऋतु त्यागी की कहानियां समकालीन हिंदी कहानी के क्षेत्र में एक नवीन प्रयोग है।
            “ये उन दिनों की बात है जब दुनिया मोबाइल जैसी बला से कोसों दूर थी। पाने की चाह पाने से कहीं ज्यादा कीमती थी। किसी को दूर से देखकर श्वास की बिगड़ी मात्रा को भी ठीक करने की कोई कवायद नहीं होती थी। बारिश की बूंदें, हवा की रुनझुन और धूप का तीखापन दिन को मुलायम कर जाता था और रात को शरबती.... तो किस्सा कुछ यूँ था....” (कौन थी वो?, पष्ठ- 94)
            ‘कौन थी वो?’ संग्रह की अंतिम कहानी कुछ कहानी जैसी कहानी है। यह कहानी अपने परंपरागत ढांचे का निर्वाहन करते हुए संग्रह की अन्य कहानियों से एकदम अलग है किंतु इसमें भी भाषिक स्तर पर प्रयोग के स्वर समाहित है। रहस्य, कौतूहल और भाषा का जादू जिसमें बिंबों और कविता के अहसास की सुखद अनुभूति लिए ऋतु त्यागी की कहानियां बदलते संसार में जैसे एक बड़ा कोलाज प्रस्तुत करती है। इस कोलाज में स्त्री की अस्मिता के सवाल बहुत गहराई से रेखांकित किए गए हैं। कहानीकार ‘मिशिका और सप्ताह का एक दिन’ कहानी में एक छोटी लड़की के माध्यम से ऐसे-ऐसे प्रश्नों को उठाती है जिनका तथाकथित आधुनिक कहे जाने वाले समाज से सीधा सरोकार है। एक पुरुष के दो घर और उसमें एक स्त्री के हिस्से में केवल सप्ताह का एक दिन। यह हमारे भारतीय समाज की कुछ ऐसी तश्वीरें हैं जिन्हें हम देखकर भी अनदेखा कर देते हैं, बच्चों से छिपाते हैं। ऐसे में यह कहानी इसके प्रतिकार में बाल मनोवैज्ञानिक ढंग से एक लड़की के समक्ष न केवल उसके आस-पास के संसार को खोलती चली जाती है वरन यहीं से उसके जानने-समझने और परखने की साहस भरी एक मुहिम दिखाती है। इस कहानी का एक अंश देखें-
            ‘आँटी आप अपनी मम्मी के पास क्यों नहीं चली जाती?’
            मिशिका के मासूम सवालों से घिरी गौरी आँटी आज जैसे अपने अन्तस के सारे कपाट खोलकर बैठी हो- ‘हमारी मम्मी नहीं होती बिटिया...’
            ‘मतलब’
            ‘मतलब हम कोठेवालियों को।’
            ‘कोठेवालियों मतलब?’
            ‘मतलब... जिसका कोई नहीं होता। जिसका हक किसी पर नहीं होता पर जिस पर सबका हक होता है।’ गौरी आँटी जैसे अचानक किसी गहरे कुँए में उतर गई हों और मिशिका उन्हें डूबते हुए देख रही हो, मिशिका घबराकर आँटी का हाथ कसकर पकड़ लेती है।’ (मिशिका और सप्ताह का एक दिन , पृष्ठ-16)
            इस संग्रह में 13 कहानियां हैं और प्रत्येक कहानी को एक प्रयोग की तरह कहानीकार ने प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। कहानी ‘फस्लें दिल है खुला है मयखाना...’ में बस के पांच यात्री अपने क्रम से अपनी बात और जीवन के प्रति दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं तो ‘फरवरी का महीना और सुलगती चत की लपटों में झुलसा मन’ कहानी अपने तीन दृश्यों में संवेदनाओं को अलग अलग आयामों से प्रस्तुत करते हुए किसी घटना के पीछे बनने वाले कारणों की तलाश की कहानी है।
            स्त्री-पुरुष संबंधों को संग्रह की कहानियां रेखांकित करती है किंतु एक स्त्री का किसी दूसरी स्त्री के प्रति दृष्टिकोण ‘आंसुओं के गुच्छे’ में जिस रूप में प्रस्तुत हुआ है वह नया नहीं है। प्रेम संबंधों के बनते बिगड़ते समीकरण के बीच बहुत सहजता से कहानी अपनी बात कहती भी है किंतु अंत में सुजाता का अभिमन्यु को ब्लॉक कर देना आरोपित लगता है। कहानी अभिमन्यु के बहाने पुरुष प्रवृत्ति को रेखांकित करने में सफल रही है कि वे अस्थिर व्यवहार करते हैं और उनमें समय-परिस्थिति के अनुसार असहज विचलन देखा जा सकता है। इसी के चलते अभिमन्यु अदिति से सुजात की तरफ लौटता है और उसके लौटने के विकल्प में ही कहानी को समाप्त हो जाना चाहिए था। ‘उसके मैसेज के अक्षरों को आकृतियाँ तथा प्यार की इमोजी कसैले धुएँ का बादल बनकर उड़ने लगी। अपनी राख होती आँखों के बिखरने से पहले सुजाता ने मोबाइल उठाया और अभिमन्यु का नंबर ब्लॉक कर दिया।’ (पृष्ठ-48) अतिरिक्त कथन और सूचना है। अन्य कहानियों में जो भरोसा और विश्वास लेखिका ने पाठकों पर दिखाया है वह यहां भी दिखाते हुए सुजाता के निर्णय को स्थगित रखा जा सकता था।
            ‘गुलमोहर’ कहानी में पंतासी है किंतु वह बहुत सहजता से एक स्त्री मन और संवेदनाओं को प्रकट करती हैं। काला पत्थर और गुलमोहर का बत्तख में बदल जाना असहज होते हुए भी जिस काव्यात्मक भाषा के रस में लिपटा हुआ प्रस्तुत हुआ है वह उल्लेखनीय है। ‘वो गहरी साँवली लड़की’ और ‘माँ और दुबली लड़की’ के केंद्र में लड़कियां हैं जो अपने पंखों की पहचान करना चाहती हैं पर इनसे भी उल्लेखनीय वे छात्र-छात्राएं हैं जो कहानी ‘स्कूल डायरी के हाशिए पर पड़े नोट्स’ से बाहर निकल कर हमारे सामने आते हैं। यहां मुख्य मुद्दा संभवतः लेखिका का यह देखना और दिखाना रहा है कि हमारी बदलती दुनिया में हम किस तेजी से और किस प्रकार बदल रहे हैं। वह ध्यानाकर्षण का विषय बनाती है कि हमारी परंपरा, संस्कृति और मूल्यों का किस कदर लोप होता जा रहा है। हमारे संसार में रचने में महत्त्वपूर्ण भागीदारी स्त्रियों की हैं और वे आरंभ ही जिस क्षरण के मार्ग से होकर गुजर रही है तो भविष्य कैसा होगा यह जरूरी सवाल इन कहानियों के केंद्र में देख सकते हैं। निसंदेह यह एक पठनीय और हमारे समय का जरूरी कहानी संग्रह है इसे पढ़ा जाना जरूरी है। इसमें न केवल कहानी के क्षेत्र में होने वाले परिवर्तनों को देखा जा सकता है वरन यह संग्रह परंपरागत स्त्री छवि और मूल्यों को भी फिर से देखने-परखने और कुछ समय रहते का आह्वान प्रस्तुत करता है।  
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एक स्कर्ट की चाह (कहानी संग्रह)
कहानीकार – ऋतु त्यागी
प्रकाशक- न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन, नई दिल्ली
प्रथम संस्करण- 2022 ; पृष्ठ- 108 ; मूल्य- 200/-
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  समीक्षक : डॉ. नीरज दइया, बीकानेर (राज.)




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