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यादगार बाल कहानियों का संग्रह : माटी की महक/ डॉ. नीरज दइया

 बाल साहित्य को अपने लेखन से समृद्ध करने वाले बड़े लेखकों में एक नाम देवेंद्र सत्यार्थी (1908-2003) बड़े सम्मान पूर्वक लिया जाता रहेगा। अद्वितीय प्रतिभा के धनी सत्यार्थी अपनी सहज किस्सागोई के बल पर अपनी कहानियों में भाषा का ऐसा जादू रचते थे कि उनको पढ़ने वाला उसमें खो जाता था। वे घुमंतू साहित्यकार के रूप में प्रसिद्ध है और उनका पूरा जीवन ही जैसे यात्राओं में गुजरा। जीवन की सहजता, सरलता के साथ बाल सुलभ कल्पनाशीलता से उनकी कहानियां जैसे एक इतिहास रचती है। उनकी सरस कहानियों का संकलन अलका सोई ने ‘माटी की महक’ नामक संग्रह में किया है जिसे साहित्य अकादेमी ने प्रकाशित किया है। इस संकलन में सत्यार्थी जी की आठ बाल कहानियां के साथ बाल साहित्य के प्रख्यात लेखक प्रकाश मनु जी की संक्षिप्त भूमिका में इन कहानियों का महत्त्व प्रतिपादित किया गया है।
    प्रकश मनु जी लिखते हैं- ‘सत्यार्थी जी की कहानियों के इस जादू के कारण उन्हें 'किस्सा बादशाह' भी कहा गया है। उनमें कहानी लिखने की ऐसी उस्तादी थी, जिसका कोई जवाब ही नहीं। इसीलिए अपने जीवन में उन्होंने जो कुछ देखा-भाला, अपनी लंबी यात्राओं में जो अजब-अनोखे अनुभव हुए, उन सबको उन्होंने बड़ी खूबसूरती से इन कहानियों में ढाल दिया है। लगता है, इन्हें पढ़ते हुए हम कहानियों के घने, हरियाले जंगल में पहुँच गए हैं। और फिर देखते-ही-देखते जीवन के कितने ही रंग हमारी आँखों के आगे झिलमलाने लगते हैं।’
    परियों की कहानियों और संगीत से बालकों को विशेष प्रेम होता है और संग्रह की पहली कहानी- ‘माटी की महक’ जिस पर कृति का शीर्षक भी निर्धारित किया गया हैम उनके उसी प्रेम को तप्त करने वाली कहानी है। यथार्थ के साथ जादू, रहस्य और रोमांच में पगी इन कहानियों में जमीनी सच्चाई का बोध एक विशेषता है। कहानियां एक नए वितान को खोलती है वहीं विशद अर्थों में इस संग्रह की सभी कहनियों में बच्चे अपनी विभिन्न कलाओं के साथ जमीन से जुड़ाव की शिक्षा भी पाते हैं। संभवतः इसका एक कारण इन कहानियों में कहीं न कहीं लेखक के अनुभव सूत्र जुड़े हुए हैं। कुछ कहानियां तो जैसे संस्मरण को ही कहानी के रूप में प्रस्तुत करते हुए बालकों को जीवन-मूल्यों की शिक्षा दी गई है। इसी प्रकार संगीत कला से जुड़ी कहानी ‘सदारंग-अदारंग’ दो भाइयों की कहानी में कला के साथ स्वाभिमान की बात बहुत सुंदर ढंग से प्रस्तुत हुई है।
    घर-परिवार और समाज में प्रेम और आपसी सौहार्द की बात ‘मौसी पपीते वाली’ कहानी में बड़े सुंदर ढंग से सामने आती है। कालिंदी फल बेचने वाली का कविता से प्रेम ‘काबुलीवाला’ की याद ताजा कर देता है। कहानी बताती है कि संबंधों में कुछ संबंध हमारे रक्त के संबंधों से भी अधिक धनिष्ठ हो जाते हैं और संबंधों में प्रेम और आपसी विश्वास ही महत्त्वपूर्ण होता है।
    बच्चों की जिद्द का एक प्रसंग ‘खाना नहीं खाऊंगा’ में फत्तू के माध्यम से प्रस्तुत होता है जो बिन मां का बच्चा सबको अपने मोह में इतना बांध लेता है कि उसका बिछुड़न सभी के लिए दुखदायी होता है। मूलतः फत्तू का एक भैंस को परिवार के सदस्य के रूप में रखने और नहीं बेचने के तर्क के पीछे  बच्चों का बालसुलभ जीव-दया और प्रेम अभिव्यक्त होता है। कहानियों की भाषा और संवाद इतने सहज-सरल है कि कहानी अपने प्रवाह के साथ पाठकों को बांधे हुए आगे आगे खींचती ले जाती है।
    मूर्तिकला से जुड़ी कहानी ‘काली शिला’ में भी अपनी जमीन का महत्त्व और मोह उजागर होता है वहीं आधुनिक समय में युवा पीढ़ी का अपनी कलाओं के प्रति मोहभंग की त्रासदी भी व्यक्त हुई है। कहानी कहती है कि रूपम जैसे बालक ही अपनी जमीन और कलाओं से जुड़कर देश का नाम रोशन करते हैं और ऐसे ही बालकों की हमें आज आवश्यकता है।
    गांधी जी और देश भक्ति के एक प्रसंग से जुड़ी कहानी ‘पिता के लिए’ इस संग्रह की अनमोल कहानी है। बच्चों के लिए ऐसी कहानियां होनी चाहिए जिनसे उन्हें अपने देश के महापुरुषों के आदर्श का बोध हो वहीं उनमें देश भक्ति, सेवा और त्याग जैसे गुणों का विकास हो सके। इस कहानी में बापू के शब्द बच्चों पर जादू का काम करने वाले हैं। रहस्य, रोमांच और कौतूहल से भरपूर इन कहानियों में मानवीय संबंध में जो मूलभूत मूल्यों को दर्शाने का घटक प्रस्तुत हुआ है वह अद्वितीय है। इसी प्रकार कहानी ‘एक था अमृतयान’ में लेखक का नाम अमृतयान है जिसे नन्हा पुरु ‘घुम्मू बाबा’ कह कर संबोधित करता है में भी गांधी जी के स्मरण-प्रसंग से कहानी में जैसे जान आ जाती है। कहानी लुप्त होती पत्र-लेखन कला को भी अनजाने में छूती हुई हमें प्रेरणा से भर देती है कि सबसे बड़ा काम प्रत्येक देशवासी के लिए देश की रक्षा का भाव है। यह एकदम सच्ची कहानी कहते हुए लेखक ने अपने आने वाली पीढ़ियों के लिए जैसे किसी अनमोल धरोहर को सौंप दिया है।
    धन का महत्त्व प्रतिपादित करने वाली कहानी ‘कहानी एक इकन्नी की’ में स्वयं लेखक देवेंद्र सत्यार्थी जी के अनुभव प्रस्तुत हुए हैं। उनकी यात्राएं और देश भ्रमण की कामना जहां देशाटन की प्रेरणा देती है वहीं उसके संघर्षों को भी हमारे समाने सच्चाई के रूप में प्रस्तुत करती है।
    संग्रह की सभी कहानियों में भाषा के द्वारा लेखक का कहन जादू जैसे सिर चढ़कर बोलता है। कहानियों में प्रसंगानुकूल पर्याप्त चित्रों की उपस्थिति और साहित्य अकादेमी द्वारा बाल कहानियों का प्रस्तुतीकरण बेहद उत्तम है। साहित्य अकादेमी देश की सबसे बड़ी संस्था है और उनका बाल सहित्य की दिशा में भारतीय बाल साहित्य को प्रकाश में लाने का उत्तम विचार निसंदेश देश के लाखों करोड़ों बाल पाठकों की संभवानाओं को विकसित करने में सहयोगी सिद्ध होगा। इन कहानियों के चयन और सुंदर प्रस्तुति के लिए अलका सोईं जी का बहुत आभार कि उन्होंने इस श्रमसाध्य अनुपन कार्य को कर दिखाया। अंत में फिर से प्रकाश मनु जी के ही शब्दों में- ‘सच कहूँ तो सत्यार्थी जी की बाल कहानियों का एक अलग रंग, अलग आनंद, अलग ख़ुशबू है, जो बच्चों को रिझा लेती है। इस नाते उनकी सुंदर और रसभीनी बाल कहानियों की पुस्तक माटी की महक का आना बच्चों के लिए किसी खूबसूरत उपहार से कम नहीं है।’
 
      समीक्षक : डॉ. नीरज दइया, बीकानेर (राज.)

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रचनाकार : देवेंद्र सत्यार्थी
कृति : माटी की महक (बाल कहानी संग्रह)
प्रस्तुति : अलका सोईं
प्रकाशक : साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली
पृष्ठ : 68 ; मूल्य : 90/-
प्रथम संस्करण : 2023
समीक्षक : डॉ. नीरज दइया

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मेरे गुरुदेव आदरणीय भवानीशंकर व्यास ‘विनोद’/ डॉ. नीरज दइया

मैं अपने अध्ययन-काल के दौरन जिन शिक्षकों से प्रभावित रहा और जिनका लोहा आज तक मानता चला आ रहा हूं, उन में से एक हैं- आदरणीय श्री भवानीशंकर व्यास ‘विनोद’। शिक्षक और संपादक के रूप में मैंने आपको बहुत करीब से देखा है। बाद में आपके विविध रूप और कार्य मेरे लिए आपके प्रति सम्मान में श्रीवद्धि करते रहे हैं। आपसे मैंने बहुत कुछ सीखा और समझा है। जब मैं बीकानेर के टी.टी.कॉलेज से बी.एड. कर रहा था तो आपका विद्यार्थी रहा। मेरे पिता श्री सांवर दइया जब ‘शिविरा’ में संपादक रहे तब आप वरिष्ठ संपादक के रूप में सेवारत थे। वैसे आपसे पहली भेंट संभवतः सीटी स्कूल में हुई। आप वहां प्रधानाचार्य के रूप में काफी कठोर और अनुशासन प्रिय माने जाते थे। अपने काम के प्रति बेहद गंभीर और अनुशासित।
बी.एड. कॉजेल में उनकी कक्षा में पिन-ड्राप साइलेंस और उनके गंभीर भाव-विभोर कर देने वाले व्याख्यानों से हम सभी प्रभावित रहते थे। ठीक समय पर पूरी तैयारी के साथ कक्षा में आना और अध्यापन में डूब कर गहराई में भावी शिक्षकों को ले जाने की उनकी अद्वितीय कला थी। लूना की सवारी, एक हाथ में चमड़े का बैग लिए उस दौर में उनके जैसा हमारे कॉलेज में कोई दूसरा नहीं था। अन्य शिक्षक भी बेहद गुणी थे पर वे सारे उनके बाद में उनके पीछे विराजित थे।
स्मरण शक्ति गजब की, सभी सोचते इतना सर को मुख-जबानी याद कैसे रहता है। व्यास सर के शव्दों से जहां हमने व्यक्ति की संवेदनशीलता-सहनशीलता और मानवता के पाठ पढ़े, वहीं उनकी कविताओं पर मोहित होकर खूब तालियां बजाते थे। कवि सम्मेलनों के दौर हो अथवा किसी राजकीय आयोजन का मसला, अक्सर आप संचालन करते थे और पूरा चार्ट कौन कितने मिनिट बोलेगा, कार्यक्रम का कुल समय कितना होगा। कोई नियम भंग करता और आप खीजते तो झुंझलाहट चेहरे पर साफ दिखाई देती थी। ‘तेरा मन दर्पन कहलाए’ जैसी पंक्ति आप पर लागू होती है, जैसा जो मन में है वही चेहरे पर दिखता है। दोगले विचारों और ख्यालों की आपके पास जगह नहीं रही। काम इतना अधिक कि फुर्सत का एक पल की नहीं और समय सब को इतना अवश्य देते थे जितना जरूरी होता था। ‘शिविरा’ में इतना काम होता था कि वहां कार्यरत सभी उसके बोझ से दबे रहते थे। मेरे पिताश्री भी समय के पाबंद रहे और वे स्वयं व्यास सर का बहुत सम्मान करते थे। एक संपादक का अपरिमित-श्रम और अपने काम के प्रति निष्ठा और डूब कर अध्ययन करने का पाठ मैंने इन्हीं दिनों सीखा।
मेरे पिता के जाने के बाद मैंने राजस्थानी में एक लंबी कविता ‘देसूंटो’ लिखी जिसमें पिता और परम-पिता के श्लेष के साथ कुछ दार्शनिक बातें समय-परिस्थितियों के कारण आ गई थी। उससे पहले के कविता-संग्रह ‘साख’ की कविताओं से भी मेरे गुरुदेव भवानी शंकर व्यास ‘विनोद’ मुदित होते और कहते- ‘इन कविताओं में पीड़ा की अद्वितीय अनुभूति को शब्दों में ढालकर बड़ा काम किया है।’ यह उनका अतिरिक्त स्नेह था कि जब भी मैं किसी काम के लिए उनके पास गया तो सदैव मुझे ‘हां’ सुनने को मिला। आपने ‘इक्यावन व्यंग्य’ (सांवर दइया) पुस्तक पर लिखा और मेरी लंबी कविता पर भी लंबा आलेख लिखा। समय और शब्दों की गणना कोई गुरुदेव से सीख सकता है। जितने बजे और जिस दिन का कहा वह वचन है और उनका वचन खाली नहीं जाता है। जितने शव्दों में लिखना है उतने ही शब्दों में लिखेंगे ना कम ना ज्यादा। यह शब्दों का अनुशासन ऐसा कि दस्ते के लाइनदार पेज और लाल-नीला रेनॉल्ड्स बॉल पेन भी जानने लगे थे कि पचासवें शब्द के नीचे नीले पेन से छोटी सी लाइन और सौवें शब्द के नीचे लाल पेन से छोटी सी लाइन अथवा डबल लाइन उनकी आदत में शुमार हो गया है।
गुरुदेव को मैंने सदा किसी न किसी काम में व्यस्त पाया है। वे कभी खाली या बिना काम आज तक नहीं देखे गए हैं। उम्र का कुछ-कुछ असर जरूर उन को दबोच रहा है, पहले जहां वे आने-जाने में किसी पर निर्भर नहीं थे वहीं अब सहारे और सहयोग की जरूरत रहने लगी है। इस सब के उपरांत भी वे कभी हार मानने वाले नहीं रहे हैं, साहित्य के प्रति उनका जोश, उत्साह, उमंग वरेण्य है। उनकी अध्ययनशीलता और गतिशीलता सदा प्रेरित-प्रोत्साहित करती हैं। उम्र के इस मुकाम पर उनसे ईष्या करने वाले बहुत हैं कि डवल ऐट की उम्र में भी वे इतने सक्रिय क्यों और कैसे बने हुए हैं? अभी पिछले दिनों की ही बात है। मैंने एक मुलाकात में कहा कि आपने ‘देसूंटो’ किताब पर जो वर्षों पहले लिखा था वह मुझे मिल नहीं रहा है। उन्होंने कहा कि मैं मेरे पास है क्या देखूंगा। बाद में जब पता चला कि उसकी कॉपी उनके पास भी नहीं है तब उन्होंने कहा- ‘किताब एकर म्हनै पाछी ला दियै, म्हैं दुबारा लिख देसूं।’ उनका यह कहना ही मेरे लिए लिखने जितना और लिखने से भी बहुत बड़ा है। उनका मुझ पर भरपूर आशीर्वाद रहा है और इतना कि मैं अनेक अंतरंग बातें भी थोड़े साहस के साथ कर सकता हूं। अन्यथा मेरी हिम्मत नहीं होती, यह हिम्मत आपने ही वर्षों पहले प्रदान की है।
भाषा में शुद्धता और समरूपता के प्रति आप विशेष आग्रही रहे हैं। किसी शब्द को कैसे लिखा जाए इस पर अब भी चिंतन-मनन और शोध-खोज करते हैं। आपकी स्मरण शक्ति ईश्वरीय देन है कि सब कुछ कंठस्थ और मुंह जबानी हिसाव जैसे अब भी याद रहता है संभवतः इसलिए आपको अपने समय का इनसाइक्लोपीडिया कहा जाता है। कहने को बहुत कुछ है, फिलहाल गुरुदेव के चरणों में वंदन-प्रणाम।
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डॉ. नीरज दइया




 


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