-->

श्रेष्ठ बाल कहानियों का अनोखा गुलदस्ता / डॉ. नीरज दइया

चयन एवं संपादन : प्रकाश मनु
कृति : श्रेष्ठ बाल कहानियां (भाग- 1) पृष्ठ : 64 ; मूल्य : 90/-
कृति : श्रेष्ठ बाल कहानियां (भाग- 2) पृष्ठ : 68 ; मूल्य : 90/-
प्रकाशक : साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली
प्रथम संस्करण : 2023
समीक्षक : डॉ. नीरज दइया

बाल सहित्य लेखन, संपादन और आलोचना के क्षेत्र में प्रकाश मनु किसी परिचय के मोहताज नहीं है। आपको ‘एक था ठुनठुनिया’ (उपन्यास) पर साहित्य अकादेमी के प्रथम बाल साहित्यकार पुरस्कार-2010 बिजेता होने का गौरव प्राप्त हैं। हम जानते हैं कि बाल साहित्य के अंतर्गत विपुल मात्रा में बाल कहानियों का लेखन हुआ है और अनेक रचनाकारों के विभिन्न बाल कहानी संग्रह भी प्रकाशित हैं। वहीं सुखद है कि चयनित बाल कहानियां और प्रतिनिधि बाल कहानियों के साथ 101 बाल काहनियों का प्रकाशन-संपादन भी हिंदी में मिलता है। यह पहली बार है जब साहित्य अकादेमी द्वारा हिंदी बाल कहानियों के अंतर्गत ‘श्रेष्ठ बाल कहानियां’ शीर्षक से दो भागों में पुस्तकों का प्रकाशन हुआ है। इसी भांति बाल कविताओं का प्रकाशन भी साहित्य अकादेमी ने किया है, जो दिविक रमेश के संपादन में काफी बड़ा संकलन कहा जा सकता है। उसकी तुलना में यहां उस भांति संकलित करने का भाव नहीं है। इस चयन और संपादन की चर्चा करें तो प्रकाश मनु ने तीन पीढ़ियों की 16 महत्त्वपूर्ण कहानियों का चयन दो खंडों के लिए किया है। यहां यह भी उल्लेखनीय है इन संग्रहों के लिए 9 पृष्ठों विशद भूमिका संपादक ने लिखी है, जिसमें संकलित कहानियों पर विस्तार से पत्र के रूप में चर्चा हुई है। श्रेष्ठ बाल कहानियों के पहले भाग में आठ लेखकों की आठ कहानियां और दूसरे भाग में भी आठ लेखकों की आठ कहानियां है किंतु भूमिका पहले भाग वाली ही दूसरे संग्रह में शामिल है। दोनों भागों में दी गई भूमिका ही संकलित कहानियों की बेहतर समीक्षा और व्याख्या है। यह बेहद सुखद है कि हिंदी और भारतीय भाषाओं की अनूदित बाल सहित्य की पुस्तकों का गुणवत्तापूर्ण सुंदर प्रकाशन साहित्य अकादेमी कर रही है। इन दोनों संग्रहों पर समान आवरण है, जिसमें भाग एक में शामिल चार कहानियों की विषय-वस्तु पर आधारित चित्रों का एक कोलाज सुंदर बन पड़ा है।
    श्रेष्ठ बाल कहानियां के दोनों भागों में संकलित कहानियां एक से बढ़कर एक हैं और उनके द्वारा बाल पाठकों को शिक्षा और संदेश को देने के प्रयास हुए हैं, साथ ही इन कहानियों द्वारा बाल साहित्य में बाल कहानी के विकास और प्रयोग को भी रेखांकित किया जा सकता है। समकालीन विषयों को नई और बदलती भाषा-शैली में निर्वाहन करना यहां हम देख सकते हैं, वहीं बच्चों के कल्पनाशीलता की अनेक कहानियां भी लुभाने वाली है। किंतु यह भी सच है कि श्रेष्ठता के लिए किसी का कोई दावा नहीं हो सकता है और प्रत्येक संपादक का अपना-अपना नजरिया होता है। जाहिर है कि यहां कहानियों के चयन की भी अपनी सीमा रही होगी। पहले संग्रह ‘श्रेष्ठ बाल कहानियां’ (भाग- 1) में देवेंद्र सत्यार्थी, आनंदप्रकाश जैन, मनोहर वर्मा, स्वयं प्रकाश, देवेंद्र कुमार, विनायक, उषा यादव और दिविक रमेश की कहानियों को स्थान मिला है, वहीं ‘श्रेष्ठ बाल कहानियां’ (भाग- 2) में क्षमा शर्मा, सुनीता, जाकिर अली ‘रजनीश’, सूर्यनाथ सिंह, साजिद खान, पंकज चतुर्वेदी, अरशद खान और स्वयं संपादक प्रकाश मनु शामिल हैं।
    पहली बात तो इन संकलकों के विषय में यह कि अनुक्रम लेखकों अथवा कहानियों के शीर्षकों के अकादि क्रम अथवा लेखकों की आयु क्रम से प्रतीत नहीं होता, दूसरी अनेक महत्त्वपूर्ण लेखक इसमें नहीं हैं। यह संपादक और चयनकर्त्ता का अधिकार है कि वह किसे शामिल करे अथवा किसे नहीं, किंतु यहां यह भी देखा जाना जरूरी है कि संकलन साहित्य अकादेमी द्वारा प्रकाशित हो रहा है। उदाहरण के लिए हरिकृष्ण देवसरे और जयप्रकाश भारती जैसे बड़े रचनाकारों का नहीं होना अथवा राजस्थान की ही बात करें तो यादवेंद्र शर्मा ‘चंद्र’, डॉ. भैरूंलाल गर्ग और गोविंद शर्मा जैसे दिग्गज बाल साहित्य के लेखकों का शामिल नहीं होना अखरने वाला हैं। कहा जा सकता है कि इस शृंखला के आगे के भागों में उनको शामिल किया जाएगा तो इन पुस्तकों अथवा भूमिका में इसका कोई संकेत नहीं मिलता है।   
    बाल साहित्य की पुस्तकें के विषय में यह सत्य नहीं है कि वे केवल बच्चों के लिए ही होती है। बाल सहित्य की पुस्तकें जितने चाव से बच्चे पढ़ते हैं उतने ही चाव से बड़े और बूढ़े भी पढ़ते हैं। अभिभावकों को भी बाल सहित्य की पुस्तकों से बहुत कुछ सीखने-समझने को मिलता है। फिर बालकों में भी आयु के हिसाब से कुछ वर्गों को हम अलग अलग रखते हुए छोटे बच्चों और किशोरों के लिए साहित्य को विशेष रूप से रेखांकित करते रहे हैं। ऐसे में बाल साहित्य लेखन, चयन और संपादन में जिम्मेदारी बढ़ जाती है। बच्चों को लेखकों-संपादक द्वारा पढ़ने को क्या देना चाहिए और क्या नहीं देना चाहिए? इस विषय पर भी संवाद किया जा सकता है किंतु फिलहाल विषय यह है कि श्रेष्ठता का पैमाना कैसे निर्धारित किया जाता है? संपादक का कहना- ‘उम्मीद है, हिंदी के विशालकथा समंदर में से चुनी गई तीन पीढ़ियों के लेखकों की एक से एक सुंदर और भावपूर्ण कहानियों का यह सुंदर गुलदस्ता अपनी खुशबू और रंग-बिरंगी झांकी से नन्हे पाठकों को मोह लेगा।’ निसंदेह यह झांकी अनुपम और मनमोहक बन पड़ी है। बाल कहानियां नन्हे पाठकों के लिए हैं, संभवतः इसी कारण संकलित बाल कहानीकारों और संपादक का परिचय इन पुस्तकों में नहीं दिया है। यदि ऐसा है तो हमें विचार करना होगा कि संपादक की विशद भूमिका अथवा उसकी पुनरावर्ती का भी क्या औचित्य है! यह भी खेद का विषय है कि विद्वान संपादक ने भूमिका में जो उन्होंने पत्र के रूप में अपने नन्हे मित्रों को संबोधित की है में प्रस्तुत कहानियों की विशेषताएं और सार तो प्रस्तुत किया है किंतु संकलित लेखकों के इतर तीन पीढ़ियों के अन्य लेखकों का कहीं नामोल्लेख अथवा बाल कहानी के उत्तरोत्तर विकास को रेखांकित नहीं किया गया है। जाहिर है कि तीन पीढ़ियों में वे कहां कहां किन-किन बाल साहित्यकारों को शामिल करते हैं जानना सुखद होगा क्योंकि पहले भाग में देवेंद्र सत्यार्थी (1908-2003) शामिल है तो बीसवीं-इक्कीसवीं शताब्दी में हुए बाल साहित्य के रचनाकारों को संपादक ने तीन पीढ़ी में किस आधार से देखा-परखा है और स्वयं को किस पीढ़ी में कहां रखते हैं। साहित्य अकादेमी ने बाल साहित्य की दिशा में अभी कार्य आरंभ किया है और आशा की जाती है कि जल्द ही वह अपने अन्य प्रकाशनों के मानकों के अनुरूप भी बाल सहित्य के प्रकाशनों के मानक, दिशानिर्देश और प्रारूप निर्धारित कर लेगी। 
 

समीक्षक : डॉ. नीरज दइया


Share:

कवि कबीर का जीवन और काव्य/ डॉ. नीरज दइया

       यदि हम एक ऐसे कवि को पाना चाहे जिसकी प्रतिभा, बुद्धि और काव्य-शक्ति में अनेकानेक विरोधी तत्वों का आश्चर्यजनक समन्वय हो जिसने समाज के निम्न कहे जाने वाले वर्ग में जन्म लेकर अपनी विचारधारा से सभी वर्गों को प्रतिभा के बल से परास्त कर दिया हो, जिसने सर्वथा उपेक्षित हेते हुए कागद और मसि को बिना छू कर ही कालजयी काव्य रचनाएं देकर कोटि-कोटि जन विद्वानों, आलोचकों, चिंतकों विचरकों को अपनी भावधरा का लोहा मनवा दिया तो हमारा साक्षात्कार महाकवि, महासुधारक, महान क्रान्तिकारी विचारक, संत, नेता महात्मा कबीर से होगा।
    हिंदी के वरिष्ठ आलोचक डॉ. नामवर सिंह ने अपने एक साक्षात्कार में कहा- इक्कीसवी सदी में कबीर फिर पैदा होगा। वर्तमान हिंदी साहित्य में डॉ. सिंह की कही उक्ति सामन्य नहीं समझी जाती। कबीर के पुनः आगमन की आकांक्ष व्यक्त करना निश्चय ही यह सिद्ध करता है कि कवि कबीर एक उच्च कोटि के रचनाकार हैं।
    संत कबीर की समस्त रचनाओं के संग्रह और टीका का सिलसिला वैसे तो काफी पुराना है किंतु बीसवीं शती के अंत में 1994 में प्रचारक ग्रंथवाली परियोजना हिंदी प्रचारक संस्थान वाराणसी द्वारा लगभग हजार पृष्ठों की ‘कबीर ग्रंथाव’ली पुस्तक प्रो. युगेश्वर के संपादन में मिलना छपना भी महत्वपूर्ण भूमिका चिंतन विचार शोध संदर्भ के नए आयाम प्रस्तुत करती हैं। हिंदी साहित्य में जितनी भी साहित्यिक निबंधों की पुस्तकें छपी अथवा भविष्य में छपेंगी उनमें कबीर को अवश्य स्थान मिला है और आगे भी निरंतर यह संभावना बनी रहेगी। कबीर आज भी प्रासंगिक हैं, आकलन करें तो पाएंगे बीसवी सदी में कबीर पर अधिक कार्य हुआ। आजादी के बाद कबीर के व्यक्तित्व का विश्लेषण करते हुए एक स्थान पर समालोचक डॉ. इन्द्रनाथ मदान ने उनकी तुलना महात्मा गांधी से की है। कबीर और गांधी दोना ही अपने अपने युग के सर्वाधिक प्रभावशाली व्यक्ति सिद्ध हुए हैं। दोनों ही महापुरूषों ने प्राचीन घर्म और दर्शन को अपने अपने स्वंतत्र दृष्टिकोण से ग्रहण किया। डॉ. गणपति चन्द्र गुप्त लिखते है- महात्मा कबीर और महात्मा गांधी के व्यक्तित्व के अंतर को स्पष्ट करने वाला सबसे बडा तथ्य कबीर का कवि रूप हैं। अस्तु कहा जा सकता है कि कबीर समकालीन समय-संदर्भ और युग चेतना में अपनी एक अलग पहचान रखते हैं तथा साहित्य प्रेमियों की उत्सुकता का केंद्र बने हुए हैं इस युग में कबीर ही ऐसे कवि कहे जा सकते हैं जिन्हें सर्वाधिक ख्याति प्रशंसा प्रासंगिकता मिली है। कबीर के समयकालीन रचनाकारों में कबीर का स्कान युग की सीमाओं को तोडकर वर्तमान तक आ गया है।
    कबीर साहब के विषय में हम प्रमाणिक तथ्य जानकारी का दावा नहीं कर सकते हैं। अनुमान के कच्चे धागे के साहरे कुछ तथ्य तय भी किए जा सकते है अथवा बहुमत को सही मान सकते हैं। तर्क के द्वारा अनुमान की जांच की जा सकती है किंतु यहां एक बात स्पष्ट कर देना जरूरी है कि विभिन्न विद्वानों के अलग-अलग दृष्टिकोण, विचारधारा और मान्यता के रहते साहित्य का आम पाठक जिज्ञासु विद्यार्थी शिक्षार्थी निश्चय कर सकते में असमर्थ होता है। किसी सर्व सुलभ और बहुतमत को ही वह अपना सत्य मान लेना है, जो आगे निश्चय ही परिवर्तित भी हो सकता हैं और परिवर्द्धित भी।
    भक्तमाल की टीका लिखी प्रियादास ने उसमें भी कबीर के बारे में ऐतिहासिक संकेत मिलते हैं। प्रियादास ने कबीर साहब को सिकंदर लोदी के समकालीन माना है, कबीर को रामानंद का शिष्य कहा गया है तथा कुछ अलौकिक प्रसंग घटनाओं का भी उल्लेख हमें इस टीका में मिलता है। अनुमान किया जाता है कि कवि कबीर का जन्म 1585 से पूर्व हुआ था।
    सिखों के धर्मग्रंथ गुरुग्रंथ साहिब में कबीर वाणी के बहुत से अंश मिलते है। संत तुकराम, पीपा ने भी कबीर का उल्लेख किया है। कबीर पंथ के ग्रंथों में कबीर साहब का उल्लेख पूरे विस्तार के साथ किया गया है। कबीर के बारे में लोक में किवदंतियां अतिश्योक्तिपूर्ण कथन घटनाएं कबीर पंथ के प्रचार प्रसार के करण प्रचलित हो चुकी हैं, इनमें कबीर साहब के उद्भुत अवतार और उद्धारक माना गया हैं ।
    कबीर जुलाहे मुसलमान थे। कपडा बुनना उनका व्यवसाय और वंश परंपरा थी। कबीर वाणी के आधार पर हम कह सकते है कि कबीर विवाहित थे तथा पुत्र-पुत्री सहित एक समाजिक के रूप में रहे। कबीर को नीमा नीम ने पाला-पोला, अतः कबीर जुलाहे और मुसलमान कहे जा सकते है। उनका विवाह जिस स्त्री के साथ हुआ उसका नाम लोई था। लोई भी मुसलमान परिवाल द्वारा पालित थी। कुछ विद्वान कबीर को अविविाहित मानते हैं और लोई को कबीर की शिष्या मानते हैं। जो भक्ति भाव से कबीर की सेवा किया करती थी।  कुछ विद्वान कबीर के दो पत्निया मानते हैं- लोई और धनिय। पहली पत्नी लोई कुरूप और धनिया सुन्दर थी। कल्पनाओं और कुछ तथ्यों-विचारों के आधार पर इन कथा विस्तारों का कोई अंत नहीं है। कोई स्पष्ट प्रमाण साक्ष्य नहीं मिलता है।
    विद्यागुरु और दीक्षा गुरु वैसे तो कबीर का कोई नहीं है क्योंकि कबीर कभी विद्यालय में ज्ञानार्जन के लिए नहीं गए और ना उन्होंने विधिवत दी़क्षा ली। डॉ. मोहन सिंह कहते हैं- कबीर का कोई लौकिक गुरू नहीं था। कुछ विद्वानों ने स्वामी रामानंद को कबीर का गुरु माना है। वहीं कबीर पंथी लोग कबीर के लिए विद्या अथवा दीक्षा गुरू की आवश्यकता ही नहीं समझते। कबीर स्वयं तत्व ज्ञानी थे वे ऐसा मानते हैं।
    कबीर ने अपनी वाणी में गुरु का महत्त्व बताया है, अतः कबीर स्वयं बिना गुरु के नहीं हो सकते । कबीर ने रामानंद को अपना गुरु बनाना चाहा तथा कई किवदंतियों भी इस संबंध में प्रचलित है कबीर ने समर्पण की कई पद्वतियां अपनाई तो गुरू रामानंद ने एक दिन प्रसन्न होकर कबीर को रामनाम की दीक्षा देकर अपना शिष्य बना लिया। जनश्रुति में प्रसिद्व है कि रामनंद जी पंच गंगा घाट पर प्रतिदिन ब्रह्म मुहूर्त में स्नान करने जाया करते थे। घाट की सीढियों पर पहले जाकर कबीर लेट गए तथा उन पर जब रामानंद जी का पैर अनजान में पड़ गया तो रामानंद जी के मुख से राम-राम निकला। कबीर उठ खडे हुए और इस गुरू रामनंद के पैर पकड कर बोले- आज आप ने मुझे ‘राम’ नाम का गुरु-मंत्र दिया है, आज से आप मेरे दीक्षा गुरू हैं।
    काल विभेद के कारण कुछ विद्वानों को कबीर और रामनंद के इस संबंध में सत्यता नजर नहीं आती। एक सुप्रसिद्ध सूफी संत हुए हैं- शेख तकी और शेख तकी का नाम भी गुरु के रूप में प्रचलित है। किंतु डॉ. भंडाकर, डॉ. श्याम सुन्दर दास, डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी आदि ने तो स्वामी रामानंद को ही कबीर का गुरु माना है।
    जीविका के लिए कबीर ने कपड़ा बुनने का व्यवसाय अपनाया। वे जुलाहा थे। जुलाहा का कार्य कोई उच्च व्यवसाय में नहीं माना जाता फिर भी कबीर ने वंशीय परंपरा का व्यवसाय छोड़ा नहीं। उसे अपनी जीविका के लिए जारी रखा। रचनाओं ने भी कबीर ने इस कर्म से संबंधित कई शब्दों का प्रयोग ताना-बाना, सूत-कपास कतना बुनना आदि आध्यात्मिक रहस्यवाद दार्शनिक बातों को सुलझाने में करते हैं। ‘झीनी-झीनी बिनी रे चदरिया’ जैसे अतिमहत्वपूर्ण पद ऐसा कुछ संदेश करते हैं।
    कबीर प्रखर तेजस्वी स्पष्ट वक्ता सहासी निर्भीक निरभिमानी समाज सुधारक व्यक्तित्व वाले जीवट इंसान थे, जो कभी डरे नहीं और अपनी बात पर सदा डटे रहे। एक योद्वा की भांति उन्होंने समाज सुधारक का जैसे ठेका ही ले रखा हो। उनकी वाणी में हिंदू-मुसलमान दोनों ही धर्मों के बारे में जिस ढंग से बात कहीं गई है- वहां कुरीतियों पर जमकर एक नहीं अनेकानेक प्रहार मिलते है फिर भी साधु संत के चरित्र में जो मर्यादा होती है वह भी उन्होने नहीं छोड़ी। कहा जा सकता है कि कबीर अपने समय में नहीं वरन आज तक कहें तो अद्वितीय कवि हैं।
    कबीर ने अपने युग में प्रचलित अंधविश्वासों पाखंड़ों छल-कपट दुराचार रूढियों का तीव्र विरोध किया, वैसा न ता उनके समकालीन कवियों के स्वरों में मिलता है और ना ही परवर्ती हिंदी साहित्य में उसी रूप और मात्रा में वह मिलता है। कबीर ने कहा था- जो तोकु कांटा बुवे, ताहि बोय तू फूल। तोकू फूल के फूल है, बाकू है त्रिशूल। क्या गांधी जी चिंतन में हमें कबीर-दर्शन की झलक नहीं दिखाई देती है।
    कवि कबीर के जन्म स्थान के विषय में भी मतभेद है। अधिकांश विद्वान कबीर का जन्म काशी मानते हैं। कबीर पंथियों की भी यही धारणा हैं कुछ विद्वन कबीर का जन्म स्थान मगहर मानते हैं। कबीर वाणी मे काशी और मगहर दोनों स्थानों का उल्लेख मिलता है। मगहर के बारे में लोक प्रचलित धारण थी कि मगहर शापग्रस्त है। वहां जनश्रुति के अनुसार मरने वाला व्यक्ति सीधा नर्क में जाता है। उसे नर्क में स्थान मिलता है। अतः कबीर ने इस धारणा को मिथ्या सिद्व करने कलए अपना निर्वाण स्थाल मगहर को चुना। विभिन्न विभिन्न मत मृत्यु के बारे में प्रचलित है- घटनाओं और अन्तः साक्ष्यों के आधार पर परिस्थितियों को देखते हुए अधिकांश विद्वान अब कबीर की जीवन यात्रा 120 वर्ष मानते हैं। उनकी मृत्यु सन 1518 ई. स्वीकार करते हैं।
    कबीर मध्यकाल के कवि समाज सुधारक चिंतक थे। अतः उन्हें समझने के लिए जरूरी है कि मध्यकालीन परिस्थितियों पर भी विचार विमर्श किया  जाए। काव्य कला को साहित्य की कसौटी पर कसते समय यह आवश्यक हेा जाता है कि उसकी तत्कालीक परिस्थितियों का ज्ञान प्राप्त किया जाए। किसी युग की परिस्थितियों को जानने के लिए उस युग के राजनीतिक घार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, साहित्यिक परिस्थितियां ही वातावरण के रूप में कवि की रचनात्मकता को कभी प्रत्यक्ष कभी अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती है। इन सभी स्थितियों का प्रभाव उनके समकालीन कवियों पर भी रहा। कबीर काव्य में भाव पक्ष और कला पक्ष देखें तो भाव और विचार तथ्य कल्पना, भाषा और अलंकारों का आश्यर्चजनक रूप में समन्वय दिखाई देता है।

  • तुलसी दास महान कहें जाते हैं किंतु उनके पास शिक्षा ज्ञान और संस्कारों की ऐसी थाती थी जिसके बल पर आगे बढ़ना कठिन नहीं था किंतु कबीर निम्न श्रेणी में जन्म लेकर बिना अक्षर ज्ञान के भी भाव विचार और साधना के जिस उच्च शिखर तक पहुंचे वह अद्भुत हैं।
  • सूरदास ने कृष्ण का परंपरागत रूप श्रीमद्भगवत से ग्रहण कर सूरसागर की रचना की किंतु उनमें कबीर जैसी तेजस्विता नहीं मिलती है।
  • जायसी प्रेम मार्ग के पथिक दूसरों को ही दूसरों की राम-कहानी सुनाने लगे। वहां स्वानुभूतियों की कबीर जैसी मार्मिकता नहीं है। डॉ. नामवर सिंह ने कहा था- कबीर हर दशक हर शताब्दी में पैदा नहीं होता लेकिन कबीर की परंपरा में निराला जैसा कवि 20 वीं शताब्दी में हुआ और फिर मुक्तिबोध, नागार्जुन भी। जरूरत इस परंपरा को हर कीमत पर जिंदा रखने की है और यह परंपरा यदि जीवित रहीं तो उम्मीद की जानी चाहिए कि इक्कीसवी सदी में कबीर पैदा होकर रहेगा और इसके लिए हमें किसी ज्योतिषी का मोहताज नही होना है।

पूरे भक्ति काल की विभिन्न धाराओं और कवियों के बीच कवि कबीर की शैली की बात करें तो कबीर का समस्त काव्य मुक्तक के विविध रूपों में फैला है सबद, राखी, रैमणी अथवा पदों में अनेकानेक विशेषताएं हैं और उनके यहां भावों के अनुसार शैली बदल जाती है।

  • खंडनात्मक शैली में तीखा व्यंग्य भाव लिए कबीर ने जहां कही भी थोथ देखी जमकर प्रहार किया। धर्म के छल-छंदों पाखंडों पर और बनी हुई रूढ़ियों पर कबीर मर्म पर सीधी और करारी चोट करते हैं।
  • उपदेशात्क शैली में अति सहज सरल सुग्राहय शैली जैसे श्रोता के लिए संप्रेषणिक कथन है, जो वह हदयगम कर सके। हिंदुओ को उपदेश देते समय शुद्ध हिंदी भाषा का प्रयोग करते थे तथा हिंदुओं में प्रचलित प्रतीको का उपयोग करते थे, वही मुसलमानों को उपदेश देते समय वह फारसी-अरबी शब्दों का तथा इस्लामी प्रतीकों का प्रयोग करते हुए दिखाई देते हैं।
  • अनुभूति व्यंजन शैली में कबीर के साहित्यिक स्वरूप का प्रतिनिधित्व देख सकते हैं। पदों में गीति काव्य के समस्त लक्षण, मार्मिकता, अनुभूति की गहराई, संक्षिप्तता, संगीतात्मकता आदि दिखाई देते हैं। पदों की भाषा अपेक्षाकृत सुघड़ है।

    कबीर के काव्य के अनेक पक्ष है किंतु रहस्यवाद पर बात की जानी जरूरी है। मनुष्य चिरकाल से ही उस अव्यक्त अज्ञात और असीम सता की खोज करता चला आ रहा है। मनुष्य को अज्ञात सता का आभास मात्र ही हुआ किंतु वह उसको स्पष्टतः नहीं जान सका और उसके प्रश्न अनुतरित ही हैं- वह कौन है?, कहां रहता है? और उसका स्वरूप कैसा है, क्या है? आदि प्रश्न मन में उमडते रहे हैं। इस अप्राप्त सता ब्रह्म को प्राप्त करने के लिए मानव हदय और मानव मन ने जो प्रयत्न किए है वह रहस्यवाद के अन्तर्गत आ जाते हैं। उस अनंत अपार अगम अगोचर को इन्द्रिय-गम्य बनाने के लिए मनुष्य की चेस्टा आज भी बनी हुई है। मनुष्य उस सता के आयामों के रहस्य आवरणों को खोजने के लिए ना जाने कब से छटपटा रहा हैं। रहस्यवाद के विषय में  हिंदी साहित्य कोष में लिखा है- ‘अपनी अन्तः स्फुरित अपरोक्ष अनुभूति द्वारा सत्य परम तत्व अथावा ईश्वर का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने की प्रवृति रहस्यवाद है।’ आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ज्ञान के क्षेत्र में जिसे अद्वैतवाद कहते हैं भावना के क्षेत्र में वही रहस्यवाद कहलाता है। रहस्यवाद के मूल में वस्तुतः अज्ञात शक्ति को जिज्ञासा काम करती हैं, उस अज्ञात शक्ति को अनुभूति से प्राप्त करके सका निरूपण करते समय वाणी एवं उक्तियों में उस्पष्टता का समावेश सहज स्वाभाविक है, इस आलौकिक अनुभूति की स्थिति में साधक अनन्त शक्ति के उनंत वैभव और प्रभुत्व द्वारा ओत-प्रोत हो जाता है। संसार के कण-कण में उसी परम सता का अनुभव करना ही रहस्यानुभूति है।
    कबीर में कई प्रकार के रहस्यवाद मिलते हैं। शास्त्रीय विवेचन से अधिक अच्छा होगा कबीर की काव्य रचनाओं में रहस्यवाद की जो प्रवृतियां अनुभूतियां अथवा प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष बातें मिलती है उनकी विवेचना की जाए। भाव मूलक रहस्यवाद- कबीर मूलतः ज्ञानी भक्त थे। कबीर की अनुभूति तो अद्वैत वैदांती है किंतु उन्होंने इसे प्रेम के स्वाद के लिए रहस्यमयी आवरण दे दिया। उसी के कारण उन्हे रहस्यवादी बनाना पडा। यदि कबीर सगुण ब्रह्म को स्वीकार कर लेते तो उनका यह रहस्यवादी स्वरूप नहीं बन पाता। दूसरा कबीर के यहां सूफियों की भंति कथा रूपक नहीं मिलते हैं। कबीर जीवात्मा-परमात्मा के प्रेम संबंध का सीधा चित्रण करते हैं। कबीर में भावात्मक और साधनात्मक दोनों ही प्रकार के रहस्यवाद मिलते हैं। भावनात्मक रहस्यवाद की तीनों अवस्थाओं-जिज्ञासा, परिचय और मिलन की गहरी अनुभूति के दर्शन कबीर में मिलते हैं। ‘कबीर बादल प्रेम का हम पर बरसा आय।/ अन्तर भीगी आत्मा हरी भई बनराय।।’ अथवा ‘कबीर चित किया चहुदिसि लागी आग।/ हरि सुमिरन हाथू घडा बेगे लेहु बुझाया।।’ जैसी अनेक उक्तियां इस संदर्भ में देखी जा सकती है।
    प्रेम के विषय में कवि कबीर की पंक्तियां हैं- ‘प्रेम न बाडी नीपजै प्रेम न हाठ विकाइ।/ राजा प्ररजा जिहिं रूचै सीस देइ ले जाइ।। अपनी उलट बांसियों में भी कबीर हमें आश्चर्य लोक में ले जाते हैं। उन्हें सुलझाने के प्रयास निरंतर जारी है। कवि कबीर पर अनेक शोध और अनेक पुस्तकों के प्रकाशित हो जाने के उपरांत भी अभी भी कवि कबीर के काव्य के अनेक पक्ष हमारे समक्ष आते जा रहे हैं। निर्विवादित रूप से कहा जा सकता है कि कबीर जैसी बहुमुखी प्रतिभा का कवि आज भी प्रासंगिक है और कबीर की प्रासंगिता बनी रहेगी।
-----

(आकाशवाणी, बीकानेर से प्रसारित : दिसंबर, 2023)

डॉ. नीरज दइया




Share:

दीठ साम्हीं सांस लेवती अेक अदीठ दुनिया/ डॉ. नीरज दइया

 राजस्थान सूं जिण हिंदी रचनाकारां नै आखै भारत मांय ओळखीजै बां मांय सूं चावो-ठावो अेक हरावळ नांव- पद्मजा शर्मा रो मानीजै। आपरा दस नैड़ा कविता-संग्रै साम्हीं आयोड़ा। कवितावां मांय सहजता-सरलता सूं मन नै परस करती, हियै ढूकती बातां अर जूण रा न्यारा-न्यारा लखावां नै नवी दीठ सूं राखणो पद्मजा जी री कवितावां री लूंठी खासियत कैय सकां। आपरो मूळ विसय लुगाई-जूण रैयो है अर ‘धरती पर औरतें’ कविता-संग्रै इणी खातर खास रूप सूं ओळखीजै। घणै हरख री बात कै इणी संग्रै रो राजस्थानी उल्थो आपां साम्हीं चावा-ठावा रचनाकार बसंती पंवार जी रै मारफत आयो है।
            राजस्थानी अर हिंदी दोनूं भासावां मांय न्यारी न्यारी विधावां मांय बसंती पंवार री केई पोथ्यां साम्हीं आयोड़ी अर निरा मान-सम्मान ई मिल्योड़ा। उल्थाकार खुद चावी-ठावी रचनाकार रूप आपरी सांवठी ओळख राखै। आज चेतै करूं तो लखावै कै लगैटगै पच्चीस बरसां पैली री बात हुवैला जद म्हैं बसंती पंवार रै पैलै उपन्यास ‘सोगन’ नै बांच्यो। उणी दिनां ठाह लाग्यो कै आप शिक्षक विभाग मांय काम करै अर आपरी जलमभोम बीकानेर है। ‘सोगन’ उपन्यास नै राजस्थानी भाषा, साहित्य अेवं संस्कृति अकादमी बीकानेर रो ‘सांवर दइया पैली पोथी पुरस्कार’ 1998 अरपण करीज्यो, तद बसंती जी सूं पैली दफै मिलणो ई हुयो। अठै आं सगळी बातां नै गिणावण रो मकसद ओ है कै बसंती जी लगोलग संजीदा रचनाकार रूप लिखता-पढता रैया है। राजस्थानी री बात करूं तो इण ढाळै रा महिला रचनाकार आंगळियां माथै गिण सकां जिका लगोलग राजस्थानी साहित्य नै विकसित करणै री हूंस दरसावता रैया है।
            अेक रचनाकार रूप बसंती पंवार मानै कै मिनखां करता लुगायां मांय संवेदनशीलता कीं बेसी हुवै अर इणी सारू बै सवाई हुवै। साहित्य रो मूळ आधार संवेदना ई हुवै अर न्यारी न्यारी विधावां मांय कोई रचनाकार संवेदना नै किण ढाळै परोटै इणी मांय उण री कला अर खासियत हुवै। उपन्यास अर कहाणी साथै साथै बसंती जी री कवि रूप रचनात्मकता राजस्थानी-हिंदी दोनूं भासावां मांय देख सकां। ‘जोवूं अेक विस्वास’ राजस्थानी कविता संग्रै अर ‘कब आया बसंत!’ हिंदी कविता-संग्रै छप्योड़ा। इण पोथी रै मारफत आपां बसंती पंवार जी नै सिरजण रै भेळै अनुसिरजण रै लेखै ई देखां-परखां।
           अनुवाद अर उल्थो सबद करता अनुसिरजण सबद म्हनै बेसी अरथावू इण रूप मांय लखावै कै इण सबद मांय मूळ सबद सिरजण बिराजै। अनुसिरजण री सगळा सूं लांठी खासियत उण रो मूळ सिरजण अर सिरजक रै सबदां री भावनावां नै सिरै मानणो समझणो-समझावणो मानीजै। जिण ढाळै कोई अभिनेता किणी किरदार नै निभावै उणी ढाळै अनुसिरजक मूळ सिरजक रै किरदार नै खुद री भासा मांय साकार करै। इण पोथी री कवितावां बांचता घणी दफै आपां नै इयां लागै कै जाणै आपां मूळ राजस्थानी री कवितावां ई बांच रैया हां, आ किणी पण अनुसिरजण री सखरी बात हुवै। आपां आ बातां ई जाणा कै अनुसिरजण बो ई सफल अर सारथक मानीजै जिको खुद सिरजण दांई गुणवान हुय जावै।
            पोथी री कवितावां री बात करण सूं पैली भासा री बात करणी जरूरी लखावै। राजस्थानी भासा मानकीकरण अर अेकरूपता सूं बेसी जरूरी बात आज सबदां री समरूपता री मानणी चाइजै। औकारांत अर ओकारांत भासा रा दोय रूप आपां रै अठै मानीजै पण अरथ मांय जे कोई बदळाव नीं निगै आवै तो आं दोनूं रूपां नै लेखक आपरै विवेक सूं बरत सकै। अनुसिरजण रै मामलै मांय मूळ सिरजक री बात नै अनुसिरजक किण ढाळै समझी उणी माथै उण रै सबदां रो चुनाव हुया करै। किणी अेक सबद खातर अनुसिरजक किसो सबद बरतै आ उण री समझ अर खिमता री बात हुवै। ‘धरती’ खातर राजस्थानी मांय केई केई सबद मिलैला, जे बसंती पंवार जी ‘धरणी’ सबद बरतै तो ओ बां रो लखाव अर फैसलो है कै कवितावां री भावनावां सूं ओ सबद बेसी जुड़ैला। इणी खातर अेक अनुसिरजण हुया पछै उणी पोथी रो अनुसिरजण कोई दूजो रचनाकार भळै करै।
            पैली कविता ‘अपछरा’ री आज री लुगायां पेटै कैयोड़ी आं ओळ्यां नै देखां-
वै कोई चीजबस्त नीं है
मोलावौ बरतौ अर फेंक देवौ
लुगायां मांय ई जीव हुवै
            इण पूरी पोथी मांय ठौड़ ठौड़ इण ढाळै री ओळ्यां मिलैला जिण मांय आपां नै लुगायां मांयलै जीव री ओळख हुवैला। कवितवां मांयली लुगायां किणी दूजै लोक का परदेस री लुगायां कोनी। आपां रै आसै पासै री दुनिया मांय अठै तांई कै आपां रै घर-परिवार अर समाज मांय इण ढाळै री केई केई लुगायां न्यारै न्यारै रूपां अर संबंधां मांय आपां देखता रैया हां। पण खाली देखण अर ओळखण मांय आंतरो हुवै। अठै आ बात ई जोर देय’र कैवणी चाइजै कै कवयित्री री आंख सूं सागी दुनिया अर लुगाई जात नै ओळखणो कीं न्यारो हुया करै।
            राजस्थानी समाज मांय जिका बदळाव आया है उण मांय सगळा सूं मोटो बदळाव बगत साम्हीं सवाल करती लुगाई मान सकां अर ओ कविता संग्रै उण सवाल करती लुगाई जात री मनगत री पुड़ता नै होळै होळै खोलै। लुगाई नै दूजां करता घणो सुणणो-सैवणो पड़ै। बां कीं करै तो उण नै सुणणो पड़ै अर कीं नीं करै तो ई सुणण री बारी उण री ई हुवै। समाज किणी पण गत मांय लुगाई जात नै कीं न कीं कैवतो रैयो है अर इण कवितावां मांय ठीमर रूप लुगाई जात री अलेखू बातां होळै होळै साम्हीं आवै। ‘खुद री पांख्यां सूं उडूंला’ कविता री आं ओळ्यां नै देखो-
अैड़ौ ई हुवै जणैं थांरा फैसला कोई दूजा लेवै
म्हैं तै कर लियौ हूं
म्हैं दूजां री पांख्यां सूं नीं
खुद री पांख्यां सूं उड़ूला
खुद रै पगां सूं आगै पूगूंला
खुद री जुबान सूं खुद री बात आपौआप कैऊंला
कांई हुयग्यौ जे होळै-होळै ठैर-ठैर नै कैऊंला
            आं हूंस जसजोग हियै ढूकती कैय सकां। संग्रै मांय घणै सरल अर सीधै सबदां मांय जूण री अबखायां अर आंकी बांकी हुयोड़ी बातां समझ मांय आवै। लुगाई अर मिनख जूण-गाड़ी रा दोय पहिया मानीजै आं मांय समानता अर आपसी समझ घणी जरूरी हुवै। ‘म्हैं’ कविता नै अठै दाखलै रूप लेय सकां हां जिण मांय लुगाई जात रो मिनखां री दुनिया मांय छोटी हुय’र बरताव करणो बां नै लगोलग ओ भरम देय रैयो है कै बै उण सूं मोटा घणा मोटा हुयग्या है जद कै समझण री बात है कै असलियत दूजी हुया करै। आं कवितावां री मूळ संवेदना आ ई है कै आपां रै अठै लुगाई नै सगती रो रूप मानता रैया हां तो इण मानीजती बात बिचाळै झोळ कठै है कै समाज मांय उण री बेकदरी देखी जावै।
            संग्रै मांय घणी कवितावां है जिकी बांचता आपनै लागैला इण कविता रो जिकर म्हैं म्हारी बात लिखती वेळा क्यूं नीं करियो, अठै म्हारै लिखण री सींव रै कारण बै कवितावां छोड़णी पड़ी। सेवट मांय संग्रै री कविता ‘इणरौ मरणौ तै है’ री अै ओळ्यां आपरी निजर करता म्हैं म्हारी बात पूरी करूंला-
अै छोरियां जितरी हंसैला
उतरी ई हित्यारां री निजरां मांय आवैला
क्यूंकै हंसण रौ कानून संविधान मांय नीं है
अर संविधान री रक्सा रौ ठेकौ
इण दिनां में ले राख्यौ है ‘वै’
            ओ संग्रै जे आप अेकर बांच लेवो तो दीठ साम्हीं सांस लेवती अेक अदीठ दुनिया उजागर हुवैला। ओ आं कवितावां रो असर कैयो जावैला कै अेकर हाथ मांय लिया पछै आं सूं छूटणो का बचर निकळ जावणो आपां रै हाथ री बात नीं रैवै। मानीता बसंती पंवार जी नै मोकळा मोकळा रंग कै बां ओ जसजोग काम करियो।
            डॉ. नीरज दइया

Share:

एक आंसु को भी देखने की क्षमता और तलाश की कविताएं/ डॉ. नीरज दइया

     स्त्रियों की कविता में ऐसा क्या होता है जो केवल उनकी ही कविताओं में होता है, इसके साथ समानांतर यह विचार किया जाना भी जरूरी प्रतीत होता है कि क्या स्त्री-पुरुष जैसा कोई भेद कविता में होना भी चाहिए? कविता को केवल कविता के रूप में देखने जाने का पक्षधर होते हुए भी मैं बहुधा पाता हूं कि कुछ कविताओं और संग्रहों में बारंबार जो दुनिया दिखाई देती है वह अहसास कराती है कि यह आंख किसी स्त्री-मन की कोमलता और दुख-दर्द को समाहित किए हुए है। अनेक रचनाओं में तो अनुभूति-पक्ष की भाषा से भी यह इंगित हो जाता है कि रचनाकार कवि है अथवा कवयित्री।
    दूसरा पक्ष यह भी है कि यदि कविता को स्त्री-पुरुष के दो समूहों में विभाजित कर देखा जाए तो गलत क्या है? वैसे कविता का इतिहास इस बात का गवाह है कि संख्यात्मक और गुणात्मक दोनों रूपों में देखेंगे तो दोनों पलड़ों में कभी समानता नहीं रही है। घर-परिवार की जिम्मेदारियों और अपने बंधनों में स्त्रियां पहले भी बंधी हुई थीं और अब जो सच्चाई है उससे हम मुंह कैसे मोड़ सकते हैं। यह अकारण नहीं है कि वर्ष 2022 में प्रकाशित कवयित्री ऋतु त्यागी के कविता संग्रह का नाम है- ‘मुझे पतंग हो जाना है’। वैसे ‘पंतग’ संज्ञा से आलोक धन्वा का स्मरण होना स्वाभाविक है क्योंकि उन्होंने इस बिंब और शीर्षक को अनेक कविताओं में प्रयुक्त किया है। अन्य कवियों ने भी पंतग को केंद्र बनाकर कविताएं लिखी हैं किंतु ऋतु त्यागी की इस शीर्षक कविता की आरंभिक पंक्तियां हैं-
    ‘स’ (स्त्री) ने कहा-
    ‘मुझे पतंग हो जाना है’
    ‘प’ (पुरुष) ने ‘स’ के
    होंठों का एक दीर्घ चुंबन लकर कहा-
    ‘डोर मेरी होगी प्रिय’
    ‘स’ की शर्त के काले बादलों में
    प्रेम की गहरी कौंध दिखी
    अब शुरू हुई उड़ान
    ‘स’ उड़ने लगी
    ऊंचे... और ऊंचे...
    आह...
    वह अब तक कहां थी? (पृष्ठ-15)
    संवाद और कथात्मकता से आरंभ हुई यह कविता बहुत कुछ कहती है। यदि कवयित्री ने स्त्री और पुरुष को कोष्ठक में लिखा नहीं होता तो भी यह आभास यहां मौजूद है। डोर से बंधी रहना क्या स्त्रियों की नियति है अथवा विवशता.... यहां हम कटी पतंग फिल्म का लता मंगेशकर द्वारा गाया प्रसिद्ध गीत याद कर सकते हैं- ना कोई उमंग है, ना कोई तरंग है, मेरी जिंदगी है क्या एक कटी पतंग है... निसंदेह यह प्रसंग और कहानी बहुत पुराने समय से चली आ रही है किंतु क्या इसका कोई हल अब तक निकल सका है? स्त्रियों की आजादी के संदर्भ में यह कविता पुनः पुनः एक बड़ा हस्तक्षेप करती है कि पुरुष डोर को छोड़ रहा था... छोड़ता जा रहा था... फिर सत्ता पक्ष द्वारा कसकर डोर का खींचे जाने से ‘स’ का फड़फड़ाना क्या है? क्या ‘स’ की नियति अब भी यह सब देखने रहने की है...? कविता की अंतिम पंक्तियां हैं- ‘अब वह डोर से कटकर हवा की नमी में/ घुल रही थी।’ यहां कवयित्री ऋतु त्यागी बेहद सरलता और सहजता के साथ बिना मुखर हुए जिस गंभीरता से इस प्रसंग में बहा ले जाती है वह इस विचार को जन्म देने के लिए पर्याप्त है कि हमारी इक्कीसवीं शताब्दी और बाराबरी की बातों का परिणाम अब तक भी किसी पुराने राग की भांति केवल बज रहा है।
      डॉ. ऋतु त्यागी का ‘मुझे पतंग हो जाना है’ तीसरा कविता संग्रह है, जो उनके- ‘कुछ लापता ख़्वाबों की वापसी’ (2018) और ‘समय की धुन पर’ (2019) कविता संग्रहों का विस्तार है। वर्तमान समय के जटिल दौर में जब व्यक्ति संवेदनहीन होता जा रहा है, भाषा से उसके अर्थ कूच करते चले जा रहे हैं, स्वार्थ, संशय और संदेह के बीच यदि यथार्थ के कठोर घरातल पर हमें हमारे लापता ख़्वाबों का पता मिल जाए या उनकी ख़्वाबों की वापसी का अहसास भी हो जाए तो कह सकते हैं कि संवेदनाओं की नदियों में प्रवाह की भरपूर संभावनाएं हैं। सूखती संवेदनाओं के बीच कविता के पास उसकी भाषा ही होती है जिसके द्वारा कोई रचनाकार लुप्त अथवा सुप्त होती संवेदनाओं को जगाता है। यह जागना-जगाना तब घनीभूत होता है जब कलम किसी स्त्री-मन का स्पर्श पाती है। मन तो मन होता है, मन के स्त्री-पुरुष आदि विभेद की कुछ सीमाएं हैं। यहां कहां जाना चाहिए कि इनको आलोचना ने अपनी सुविधा से निर्मित किया है।     
    अपने पहले ही संग्रह में कवयित्री डॉ. ऋतु त्यागी अपने कुछ लापता ‘ख़्वाबों’ की वापसी करती है वरन सच यह भी है कि यह कृति स्वयं उनकी साहित्य में वापसी का एक अध्याय है। करीब डेढ़ दशक से अधिक समय हुआ जब वे साहित्य में सक्रिय थीं और कहना होगा उनका युवा रचनाकार के रूप में सार्थक हस्तक्षेप रहा है। इस यात्रा के सतत न रहने अथवा होने के कुछ कारण इनकी कविताओं में भी देखे-समझे और सुने जा सकते हैं। तीनों ही संग्रह की कविताओं को देखेंगे तो कविताओं के साथ उनका रचनाकाल कहीं नहीं दिया गया है। ऐसे में इन कविताओं को कृतियों के प्रकाशन काल के पूर्व के किसी भी खंड से जोड़ते हुए देखा-परखा जाना चाहिए।
    ऋतु त्यागी के तीनों संग्रहों की कविताओं से गुजरते हुए हमें अनेक स्थल ऐसे मिलते हैं जहां हम थम से जाते हैं। इसे ऐसा भी कह सकते हैं कि उनकी अनुभूतियों के वितान में फिर फिर जाने का मन करता है। जो जीवन अथवा घटना-प्रसंग कविताओं में घटित होता हमें मिलता है वह जीवन हमें फिर फिर मोहित करने वाला है। यह त्यागी की कविताओं की विशेषता और विशिष्ठता भी है।
    पहले संग्रह की पहली और शीर्षक कविता ‘कुछ लापता ख़्वाबों की वापसी’ की इन पंक्तियों को देखें-
यदि बचपन सरपट रेलगाड़ी की तरह ना दौड़ता
तो हो सकता था
कि मेरे ख़्वाब लापता होने से बच जाते
पर बचपन में तो बचपना था
दौड़ पड़ा और हमें पटक दिया दुनियादारी की उम्र में
सो हम भूल गए कि हमने अपने ख़्वाबों से कुछ वायदे किए थे
पर वायदे तो जैसे काँच के थे
समय के साथ टूटकर गिरने लगे। (पृष्ठ-11)
    समय की गतिशीलता के साथ अनेकानेक परिवर्तनों का रेखांकन ऋतु त्यागी की कविताओं में मिलता है। इन कविताओं में बचपन से घर-गृहस्ती के बीच की विभिन्न स्मृतियों के गलियारों में उड़ान भराता एक निर्दोष मन है सर्वत्र व्यप्त है। कविताओं का विषय जीवन की सुकोमल भावनाओं, संवेदनाओं और आत्म को बचाने की यथार्थपरक चेतना का चित्रण करना प्रमुख रहा है। विभिन्न जीवनानुभूतियों-स्थितियों को उनके घरातल से उठाते हुए कवयित्री ने उन्हें नवीन बिंबों से शब्दबद्ध किया है। इन कविताओं के भाव से कहीं हमारे भीतर हलचल होती है। कहना होगा कि पहले संग्रह की कविताओं के माध्यम से ना केवल कवयित्री के कुछ लापता ख़्वाबों की ही वापसी होती है, वरन पाठकों के ख़्वाबों की भी वापसी के अनेक मार्ग नजर आते हैं।
    'फ़ुर्सत के लम्हों की रेसिपी' जैसी अनेक कविताओं में जिस अमूर्त को मूर्त में ढालते हुए कल्पनालोक में ले जाने का प्रयास है वह अपनी नवीनता के कारण तो प्रभावित करता है साथ ही पाठकों को एक अनजाने अनदेखे लोक में यात्रा का विकल्प भी देता है।
    घर-परिवार के अनेक संबंधों के बीच कवयित्री का मन एक लड़की से स्त्री की जीवन-संघर्षों उसकी यात्रा के भीतर की यात्रा के विविध अनुभवों-पड़ावों का निरूपण है। संग्रह की अनेक कविताओं में कथा के रास्ते से गुजरते हुए भी कवयित्री कविता को उसकी अपनी शर्तों पर संभव बनाती है। उदाहरण के लिए ‘मेरी उलझनों’ कविता देखें-
मेरी उलझनों
रूई के गोले सी हो जाओ
कोई हवा आए
तो तुम्हें उड़ा कर दूर ले जाए
या तुम मेरी आँखों की नींद बन जाओ
कोई रात आए
जो तुम्हें सुला कर दूर... निकल जाए।
हाँ! ऐसा भी हो सकता है
कि तुम मेरी हथेली पर
रेखा बनकर चिपक जाओ
जिसे मैं मिटाने की
ता-उम्र कोशिश करती रहूँ। (पृष्ठ-32)
    कोई रचना जब अनुभूति और विचार से जन्म लेती है तब वह आत्मा का गीत बन जाती है। इसमें सतत संघर्ष और जिस जीजीविषा के दर्शन होते हैं वे जनमानस को प्रेरित करते हैं।
मैं हमेशा जीना चाहती हूँ
या इस कोशिश में मरना
कि जिंदा रहने के मायने
किसी भी हर उस चीज से बड़े हैं
जो हर एक आदमी के सामने
एक शुत्र की तरह आकर खड़े हो जाते हैं। (पृष्ठ-106)
    जीवन अपने आप में एक ऐसा गणित है जिसे हर कोई समझने-समझाने का प्रयास कर रहा है या कहें कि करता रहा है और ऐसे प्रयास होते रहेंगे। ऋतु त्यागी की कविताएं जीवन की नितांत निजी अनुभूतियों के होते हुए भी अपने बिंबों-प्रतीकों के साहरे जीवन को पर्यावरण, परिवेश और देस-दुनिया की समग्रता से जोड़ती हुई जीवन की व्यापकता और विशालता का यशोगान करती हैं। कविता जीवन में हमारे संवादों, विचारों और गुप्त मंत्रणाओं में संभव होती हैं। बहुत सारी कविताओं को किसी व्यवस्था अथवा क्रम में बांधना उनकी क्षमताओं-सीमाओं को कम करना होता है। यहां एक नई काव्य-भाषा का निर्माण सुखद और सराहनीय कहा जा सकता है। उदाहरण के लिए कविता ‘सिसकती रातें’ देखें-
सिसकती रातों के सफर पर
निकलने से बचना
आँखें सूजकर गोलगप्पा हो जातीं हैं
और छाती धड़धडाती रेलगाड़ी
पलकों से बे-सब्र आशिक से
रिसते हैं आँसू
और कम-बख्त नींद
गिलहरी-सी
भाग जाती है सरपट। (पृष्ठ-12)
    यहां स्थितियों और अनुभूतियों का बिना किसी निष्कर्ष के कविता में प्रस्तुत करना और वह भी अपनी भाषा के प्रति सजगता-सावचेती के भाव से कि टटकापन निखर निखर जाता है। इसके बाद के कविता संग्रह- ‘समय की धुन पर’ (2019) नवीनता का अग्रह प्रभावित करने वाला है। विशेष यह कि कवयित्री ने कविताओं में जैसे काव्यमय गद्य संरचना को सिद्ध किया है। अंतिम अवरण पृष्ठ पर आत्मकथ्य की पंक्तियां देखें- ‘समय अपनी ही धुन पर नृत्यरत था जब मैंने थोड़ा ठिठककर अपने आसपास देखा। भीड़ का एक लंबा रेला, जिसमें कुछ परिचित तथा कुछ अपरिचित चेहरे नजर आए। अतीत के कुछ हिस्से भी मेरा साथ देने यहां तक चले आए थे। मैं समंदर सी भीड़ में खड़े होकर भी उसके हाहाकार से दूर एक ऐसी अंदरूनी यात्रा पर थी जहां मेरे साथ मेरा समय एक मीठी सी गंध और लहक के साथ मेरी हथेलियों में अपनी हथेलियां फंसाकर चल रहा था और मुझसे सटकर दुनिया की कुछ अनाम उदासी, नीला जादू, कांच की तरह टूटता-बिखरता मन और कुछ अनचीन्ही गंध भी साथ चल रही थी। इसी अंदरूनी यात्रा में डूबते उतरते जो नमी मैंने अपनी हथेलियों पर महसूस की उसी की बानगी मेरी रचनाओं में दर्ज है।’
    समय किसी को नहीं छोड़ता, सभी को नाच नचाता है और उसके-हमारे यानी सबके नाच में ही जीवन और जीवन की सार्थकता है। इनकी कविताओं में इसी जीवन दृष्टि का विस्तार है। कवयित्री जीवन के इस रहस्य को अपने अनुभवों से हासिल कर स्मित, आह्लाद, हर्ष, हंसी-खुशी को पाया है, जिसे वे अपने पाठकों से साझा करती हैं। संग्रह की कविताएं हमारी तय सुदा धारणाओं को ध्वस्त करती हुई एक स्त्री-मन की कविताओं को कविता के पूरे परिदृश्य में देखे-परखे जाने की मांग करती हैं।
    पूर्व की भांति यहां भी कविताओं में नवीन बिंबों की छटाएं सम्मोहित करती हैं, वहीं वे भाषा में एक नया मुहावरे को बुनती हुई जिस भांति एक अर्थ का वितान रचती हैं जिसमें बहु आयाम और अर्थ की छटाएं भी हैं। दूसरे संग्रह की पहली कविता- ‘बहुत वक्त घिसा है तुम पर’ की आरंभिक पंक्तियां देखें-
मैंने
बहुत वक्त घिसा है तुम पर
ठीक वैसे ही
जैसे कि एक गरीब घिसता है
धरती पर अपना तलुवा
चांद आकाश पर अपनी चांदनी
और नदी
समंदर में अपना समूचा अस्तित्व। (पृष्ठ-13)
    कविताओं में कवयित्री की निजता और अनुभवों की अभिव्यक्ति की भाषा पाठकों से एक रिश्ता बनाती है। दूसरे संग्रह की कविताओं में स्थितियों को लेकर व्यंग्य का स्वर भी प्रमुखता से देखा जा सकता है। ‘उंगुली का इशारा’ कविता की पंक्तियां देखें-
कभी कभी किसी की
एक उंगुली का इशारा भी
खोल देता है जेहन का ताला

पर दुनिया की बहुत-सी
इशारा करने में पारंगत
उंगुलियों को
इसलिए तोड़ दिया जाता है

क्योंकि हर ताकतवर उंगली
अपने इशारों पर
दुनिया को चलाने की
बे-वजह-सी हसरत पाले है। (पृष्ठ-21)
    इन कविताओं में कहन की सादगी-सरलता और मार्मिकता उन्हें अपने समकालीन कवियों से अलग और विशिष्ट बनाती हैं। जैसे- ‘तारीफ का अखबार’ में वे लिखती हैं-
उसके
कान की खिड़की पर
तारीफ का अखबार फेंककर
वह मुस्कुरा दिया।

मुमकिन है अब
टूटी हुई बात का बनना। (पृष्ठ-28)
    ऋतु त्यागी की इन कविताओं में उनका मन, घर-परिवार, स्कूल, बच्चे, समाज, देश-दुनिया और बदलते घटनाक्रम के साथ कल्पनाओं का एक ऐसा संसार है जिसमें वे इस पूरी दुनिया को अपनी नजर से देखना-दिखाना चाहती हैं। उनकी मानवीय संवेदनाओं में प्रेम एक स्थाई घटक है जो मोह और निर्मोह रूपी दो छोर बिंदुओं के मध्य जैसे नृत्य करता है। यहां उनकी मौलिकता स्वयं को समय के भीतर रखते हुए देखे गए दृश्यों को नए ढंग से देखने में भी सिद्ध होती है। जैसे उदाहरण के लिए ‘सुबह’ शीर्षक से इस छोटी-सी कविता को देखिए-
आकाश के सीने पर
सूरज ने लिखा

‘सुबह’
तभी रात
अचानक फिसलकर
नदी में गिर गई। (पृष्ठ-70)
    दूसरे संग्रह की कविताएं दो खंड़ों- ‘मैं समय के भीतर’ और ‘हम स्त्रियां’ में विभक्त हैं। यहां स्त्री किसी रूढ़ या परंपरावादी स्वरूप में नहीं वरन वह आज के समय-संदर्भों के साथ-साथ चलने वाली है। और कहें तो मन में समय को भी पीछे छोड़ने का हौसला-हिम्मत लिए हुए स्त्री का वजूद यहां है। समाजिक रीति-रिवाज, मर्यादाओं का अपना महत्त्व है किंतु यहां उन्हें किसी बंधन या रूढ़ी की बजाय आधुनिकता के साथ विकसित और परिष्कृत रूप में सम्मान दिया गया है। ‘दुखी लड़का’ कविता देखिए-
लड़का दुखी था
प्रेम की गहरी खाई में कूदने वाली लड़कियां
अब नहीं मिलती।

प्रेम की कसमों को अपने संदूक में छिपा कर
रखने वाली लड़कियां भी अब नहीं मिलती।

लड़का शायद नहीं जानता
कि लड़कियां समझ गईं है रिश्तों का गणित
बाजार के गणित से अलग नहीं होता। (पृष्ठ-86)
    इसी भांति ‘समय’ कविता में वे बाजार और समय के गणित को समझती-समझाती बहुत कुछ कहती हैं-
समय उसके सामने
महीन तार पर झूल रहा था।

वह उसे रोज देखती
और सोचती कहां जाएगा ये?
मेरा ही तो है
उतार लूंगी एक दिन

पर आज
महीन तार टूट गया

नीचे उसका समय घायल पड़ा था। (पृष्ठ-101)
    इन कविताओं में एक नया स्वर है जो निश्चय ही समकालीन स्त्री कविता की उपलब्धि कहा जाएगा। ऋतु की कविताएं जीवन के सुखों के साथ दुख के एक एक आंसु को भी देखने की क्षमता और तलाश की कविताएं हैं। अपने समय के अनेक संदर्भों को समेटती और हमें समय के महत्त्व में परिवृत्त को दिखाती इन कविताओं में उन स्त्रियों के जीवन को गहराई से रेखांकित किया है जो परस्पर कपड़ों, रिश्तों, शारीरिक बुनावट आदि अनेक विषयों पर बेखोफ चर्चाएं करती हैं और वे इन चर्चाओं में भूल जाती है कि उन सबके गाल पर तिल-सा चिपका है एक आंसु। ऋतु त्यागी की इन कविताओं में जीवन की तमाम ताम-झाम के बीच एक आंसु को भी देखने की क्षमता और तलाश कर उसे रेखांकित किए जाने की योग्यता है। दूसरे संग्रह की कविताओं के विषय में कवि मायामृग अपनी टिप्पणी में लिखते हैं- ‘समय की पहचान है इसमें, पढ़ लीजिए, ये कविताएं समय की धुन पर हैं और समय के साथ चलते हुए सामने देखने की नजर देती हैं।’ ऋतु त्यागी की कविताओं में शीर्षकों को देखेंगे अथवा कविताओं की भाषा में छुपी किसी भी कहानी को तो लगेगा कि यहां किसी प्रकार का समझौता अथवा बन बनाए मानदंडों को निभाने का रिवाज नहीं के बराबर है। वे जिस सहजता और सरलता से जिस नवीनता को प्रस्तुत करती है वह नया है, अन्यों से भिन्न है। यही कारण है कि तीसरे संग्रह में कवि अरुण शीतांश ने लिखा है- ‘यहां बावजूद इतने कविता संग्रहों की बाढ़ में ऋतु की कविताएं तमाम कविताओं से बिल्कुल अलग तरीके से आईडेंटिफाई की जाएगी जो समाज की बेहतरी की शनाख्त करेंगे। ऐसे में दूसरे कवि भी अपने में एक फितरत पैदा करेंगे कि इनके बनिस्बत लिखें।’                
०००००

Share:

यादगार बाल कहानियों का संग्रह : माटी की महक/ डॉ. नीरज दइया

 बाल साहित्य को अपने लेखन से समृद्ध करने वाले बड़े लेखकों में एक नाम देवेंद्र सत्यार्थी (1908-2003) बड़े सम्मान पूर्वक लिया जाता रहेगा। अद्वितीय प्रतिभा के धनी सत्यार्थी अपनी सहज किस्सागोई के बल पर अपनी कहानियों में भाषा का ऐसा जादू रचते थे कि उनको पढ़ने वाला उसमें खो जाता था। वे घुमंतू साहित्यकार के रूप में प्रसिद्ध है और उनका पूरा जीवन ही जैसे यात्राओं में गुजरा। जीवन की सहजता, सरलता के साथ बाल सुलभ कल्पनाशीलता से उनकी कहानियां जैसे एक इतिहास रचती है। उनकी सरस कहानियों का संकलन अलका सोई ने ‘माटी की महक’ नामक संग्रह में किया है जिसे साहित्य अकादेमी ने प्रकाशित किया है। इस संकलन में सत्यार्थी जी की आठ बाल कहानियां के साथ बाल साहित्य के प्रख्यात लेखक प्रकाश मनु जी की संक्षिप्त भूमिका में इन कहानियों का महत्त्व प्रतिपादित किया गया है।
    प्रकश मनु जी लिखते हैं- ‘सत्यार्थी जी की कहानियों के इस जादू के कारण उन्हें 'किस्सा बादशाह' भी कहा गया है। उनमें कहानी लिखने की ऐसी उस्तादी थी, जिसका कोई जवाब ही नहीं। इसीलिए अपने जीवन में उन्होंने जो कुछ देखा-भाला, अपनी लंबी यात्राओं में जो अजब-अनोखे अनुभव हुए, उन सबको उन्होंने बड़ी खूबसूरती से इन कहानियों में ढाल दिया है। लगता है, इन्हें पढ़ते हुए हम कहानियों के घने, हरियाले जंगल में पहुँच गए हैं। और फिर देखते-ही-देखते जीवन के कितने ही रंग हमारी आँखों के आगे झिलमलाने लगते हैं।’
    परियों की कहानियों और संगीत से बालकों को विशेष प्रेम होता है और संग्रह की पहली कहानी- ‘माटी की महक’ जिस पर कृति का शीर्षक भी निर्धारित किया गया हैम उनके उसी प्रेम को तप्त करने वाली कहानी है। यथार्थ के साथ जादू, रहस्य और रोमांच में पगी इन कहानियों में जमीनी सच्चाई का बोध एक विशेषता है। कहानियां एक नए वितान को खोलती है वहीं विशद अर्थों में इस संग्रह की सभी कहनियों में बच्चे अपनी विभिन्न कलाओं के साथ जमीन से जुड़ाव की शिक्षा भी पाते हैं। संभवतः इसका एक कारण इन कहानियों में कहीं न कहीं लेखक के अनुभव सूत्र जुड़े हुए हैं। कुछ कहानियां तो जैसे संस्मरण को ही कहानी के रूप में प्रस्तुत करते हुए बालकों को जीवन-मूल्यों की शिक्षा दी गई है। इसी प्रकार संगीत कला से जुड़ी कहानी ‘सदारंग-अदारंग’ दो भाइयों की कहानी में कला के साथ स्वाभिमान की बात बहुत सुंदर ढंग से प्रस्तुत हुई है।
    घर-परिवार और समाज में प्रेम और आपसी सौहार्द की बात ‘मौसी पपीते वाली’ कहानी में बड़े सुंदर ढंग से सामने आती है। कालिंदी फल बेचने वाली का कविता से प्रेम ‘काबुलीवाला’ की याद ताजा कर देता है। कहानी बताती है कि संबंधों में कुछ संबंध हमारे रक्त के संबंधों से भी अधिक धनिष्ठ हो जाते हैं और संबंधों में प्रेम और आपसी विश्वास ही महत्त्वपूर्ण होता है।
    बच्चों की जिद्द का एक प्रसंग ‘खाना नहीं खाऊंगा’ में फत्तू के माध्यम से प्रस्तुत होता है जो बिन मां का बच्चा सबको अपने मोह में इतना बांध लेता है कि उसका बिछुड़न सभी के लिए दुखदायी होता है। मूलतः फत्तू का एक भैंस को परिवार के सदस्य के रूप में रखने और नहीं बेचने के तर्क के पीछे  बच्चों का बालसुलभ जीव-दया और प्रेम अभिव्यक्त होता है। कहानियों की भाषा और संवाद इतने सहज-सरल है कि कहानी अपने प्रवाह के साथ पाठकों को बांधे हुए आगे आगे खींचती ले जाती है।
    मूर्तिकला से जुड़ी कहानी ‘काली शिला’ में भी अपनी जमीन का महत्त्व और मोह उजागर होता है वहीं आधुनिक समय में युवा पीढ़ी का अपनी कलाओं के प्रति मोहभंग की त्रासदी भी व्यक्त हुई है। कहानी कहती है कि रूपम जैसे बालक ही अपनी जमीन और कलाओं से जुड़कर देश का नाम रोशन करते हैं और ऐसे ही बालकों की हमें आज आवश्यकता है।
    गांधी जी और देश भक्ति के एक प्रसंग से जुड़ी कहानी ‘पिता के लिए’ इस संग्रह की अनमोल कहानी है। बच्चों के लिए ऐसी कहानियां होनी चाहिए जिनसे उन्हें अपने देश के महापुरुषों के आदर्श का बोध हो वहीं उनमें देश भक्ति, सेवा और त्याग जैसे गुणों का विकास हो सके। इस कहानी में बापू के शब्द बच्चों पर जादू का काम करने वाले हैं। रहस्य, रोमांच और कौतूहल से भरपूर इन कहानियों में मानवीय संबंध में जो मूलभूत मूल्यों को दर्शाने का घटक प्रस्तुत हुआ है वह अद्वितीय है। इसी प्रकार कहानी ‘एक था अमृतयान’ में लेखक का नाम अमृतयान है जिसे नन्हा पुरु ‘घुम्मू बाबा’ कह कर संबोधित करता है में भी गांधी जी के स्मरण-प्रसंग से कहानी में जैसे जान आ जाती है। कहानी लुप्त होती पत्र-लेखन कला को भी अनजाने में छूती हुई हमें प्रेरणा से भर देती है कि सबसे बड़ा काम प्रत्येक देशवासी के लिए देश की रक्षा का भाव है। यह एकदम सच्ची कहानी कहते हुए लेखक ने अपने आने वाली पीढ़ियों के लिए जैसे किसी अनमोल धरोहर को सौंप दिया है।
    धन का महत्त्व प्रतिपादित करने वाली कहानी ‘कहानी एक इकन्नी की’ में स्वयं लेखक देवेंद्र सत्यार्थी जी के अनुभव प्रस्तुत हुए हैं। उनकी यात्राएं और देश भ्रमण की कामना जहां देशाटन की प्रेरणा देती है वहीं उसके संघर्षों को भी हमारे समाने सच्चाई के रूप में प्रस्तुत करती है।
    संग्रह की सभी कहानियों में भाषा के द्वारा लेखक का कहन जादू जैसे सिर चढ़कर बोलता है। कहानियों में प्रसंगानुकूल पर्याप्त चित्रों की उपस्थिति और साहित्य अकादेमी द्वारा बाल कहानियों का प्रस्तुतीकरण बेहद उत्तम है। साहित्य अकादेमी देश की सबसे बड़ी संस्था है और उनका बाल सहित्य की दिशा में भारतीय बाल साहित्य को प्रकाश में लाने का उत्तम विचार निसंदेश देश के लाखों करोड़ों बाल पाठकों की संभवानाओं को विकसित करने में सहयोगी सिद्ध होगा। इन कहानियों के चयन और सुंदर प्रस्तुति के लिए अलका सोईं जी का बहुत आभार कि उन्होंने इस श्रमसाध्य अनुपन कार्य को कर दिखाया। अंत में फिर से प्रकाश मनु जी के ही शब्दों में- ‘सच कहूँ तो सत्यार्थी जी की बाल कहानियों का एक अलग रंग, अलग आनंद, अलग ख़ुशबू है, जो बच्चों को रिझा लेती है। इस नाते उनकी सुंदर और रसभीनी बाल कहानियों की पुस्तक माटी की महक का आना बच्चों के लिए किसी खूबसूरत उपहार से कम नहीं है।’
 
      समीक्षक : डॉ. नीरज दइया, बीकानेर (राज.)

--------------------

रचनाकार : देवेंद्र सत्यार्थी
कृति : माटी की महक (बाल कहानी संग्रह)
प्रस्तुति : अलका सोईं
प्रकाशक : साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली
पृष्ठ : 68 ; मूल्य : 90/-
प्रथम संस्करण : 2023
समीक्षक : डॉ. नीरज दइया

---------------------

Share:

मेरे गुरुदेव आदरणीय भवानीशंकर व्यास ‘विनोद’/ डॉ. नीरज दइया

मैं अपने अध्ययन-काल के दौरन जिन शिक्षकों से प्रभावित रहा और जिनका लोहा आज तक मानता चला आ रहा हूं, उन में से एक हैं- आदरणीय श्री भवानीशंकर व्यास ‘विनोद’। शिक्षक और संपादक के रूप में मैंने आपको बहुत करीब से देखा है। बाद में आपके विविध रूप और कार्य मेरे लिए आपके प्रति सम्मान में श्रीवद्धि करते रहे हैं। आपसे मैंने बहुत कुछ सीखा और समझा है। जब मैं बीकानेर के टी.टी.कॉलेज से बी.एड. कर रहा था तो आपका विद्यार्थी रहा। मेरे पिता श्री सांवर दइया जब ‘शिविरा’ में संपादक रहे तब आप वरिष्ठ संपादक के रूप में सेवारत थे। वैसे आपसे पहली भेंट संभवतः सीटी स्कूल में हुई। आप वहां प्रधानाचार्य के रूप में काफी कठोर और अनुशासन प्रिय माने जाते थे। अपने काम के प्रति बेहद गंभीर और अनुशासित।
बी.एड. कॉजेल में उनकी कक्षा में पिन-ड्राप साइलेंस और उनके गंभीर भाव-विभोर कर देने वाले व्याख्यानों से हम सभी प्रभावित रहते थे। ठीक समय पर पूरी तैयारी के साथ कक्षा में आना और अध्यापन में डूब कर गहराई में भावी शिक्षकों को ले जाने की उनकी अद्वितीय कला थी। लूना की सवारी, एक हाथ में चमड़े का बैग लिए उस दौर में उनके जैसा हमारे कॉलेज में कोई दूसरा नहीं था। अन्य शिक्षक भी बेहद गुणी थे पर वे सारे उनके बाद में उनके पीछे विराजित थे।
स्मरण शक्ति गजब की, सभी सोचते इतना सर को मुख-जबानी याद कैसे रहता है। व्यास सर के शव्दों से जहां हमने व्यक्ति की संवेदनशीलता-सहनशीलता और मानवता के पाठ पढ़े, वहीं उनकी कविताओं पर मोहित होकर खूब तालियां बजाते थे। कवि सम्मेलनों के दौर हो अथवा किसी राजकीय आयोजन का मसला, अक्सर आप संचालन करते थे और पूरा चार्ट कौन कितने मिनिट बोलेगा, कार्यक्रम का कुल समय कितना होगा। कोई नियम भंग करता और आप खीजते तो झुंझलाहट चेहरे पर साफ दिखाई देती थी। ‘तेरा मन दर्पन कहलाए’ जैसी पंक्ति आप पर लागू होती है, जैसा जो मन में है वही चेहरे पर दिखता है। दोगले विचारों और ख्यालों की आपके पास जगह नहीं रही। काम इतना अधिक कि फुर्सत का एक पल की नहीं और समय सब को इतना अवश्य देते थे जितना जरूरी होता था। ‘शिविरा’ में इतना काम होता था कि वहां कार्यरत सभी उसके बोझ से दबे रहते थे। मेरे पिताश्री भी समय के पाबंद रहे और वे स्वयं व्यास सर का बहुत सम्मान करते थे। एक संपादक का अपरिमित-श्रम और अपने काम के प्रति निष्ठा और डूब कर अध्ययन करने का पाठ मैंने इन्हीं दिनों सीखा।
मेरे पिता के जाने के बाद मैंने राजस्थानी में एक लंबी कविता ‘देसूंटो’ लिखी जिसमें पिता और परम-पिता के श्लेष के साथ कुछ दार्शनिक बातें समय-परिस्थितियों के कारण आ गई थी। उससे पहले के कविता-संग्रह ‘साख’ की कविताओं से भी मेरे गुरुदेव भवानी शंकर व्यास ‘विनोद’ मुदित होते और कहते- ‘इन कविताओं में पीड़ा की अद्वितीय अनुभूति को शब्दों में ढालकर बड़ा काम किया है।’ यह उनका अतिरिक्त स्नेह था कि जब भी मैं किसी काम के लिए उनके पास गया तो सदैव मुझे ‘हां’ सुनने को मिला। आपने ‘इक्यावन व्यंग्य’ (सांवर दइया) पुस्तक पर लिखा और मेरी लंबी कविता पर भी लंबा आलेख लिखा। समय और शब्दों की गणना कोई गुरुदेव से सीख सकता है। जितने बजे और जिस दिन का कहा वह वचन है और उनका वचन खाली नहीं जाता है। जितने शव्दों में लिखना है उतने ही शब्दों में लिखेंगे ना कम ना ज्यादा। यह शब्दों का अनुशासन ऐसा कि दस्ते के लाइनदार पेज और लाल-नीला रेनॉल्ड्स बॉल पेन भी जानने लगे थे कि पचासवें शब्द के नीचे नीले पेन से छोटी सी लाइन और सौवें शब्द के नीचे लाल पेन से छोटी सी लाइन अथवा डबल लाइन उनकी आदत में शुमार हो गया है।
गुरुदेव को मैंने सदा किसी न किसी काम में व्यस्त पाया है। वे कभी खाली या बिना काम आज तक नहीं देखे गए हैं। उम्र का कुछ-कुछ असर जरूर उन को दबोच रहा है, पहले जहां वे आने-जाने में किसी पर निर्भर नहीं थे वहीं अब सहारे और सहयोग की जरूरत रहने लगी है। इस सब के उपरांत भी वे कभी हार मानने वाले नहीं रहे हैं, साहित्य के प्रति उनका जोश, उत्साह, उमंग वरेण्य है। उनकी अध्ययनशीलता और गतिशीलता सदा प्रेरित-प्रोत्साहित करती हैं। उम्र के इस मुकाम पर उनसे ईष्या करने वाले बहुत हैं कि डवल ऐट की उम्र में भी वे इतने सक्रिय क्यों और कैसे बने हुए हैं? अभी पिछले दिनों की ही बात है। मैंने एक मुलाकात में कहा कि आपने ‘देसूंटो’ किताब पर जो वर्षों पहले लिखा था वह मुझे मिल नहीं रहा है। उन्होंने कहा कि मैं मेरे पास है क्या देखूंगा। बाद में जब पता चला कि उसकी कॉपी उनके पास भी नहीं है तब उन्होंने कहा- ‘किताब एकर म्हनै पाछी ला दियै, म्हैं दुबारा लिख देसूं।’ उनका यह कहना ही मेरे लिए लिखने जितना और लिखने से भी बहुत बड़ा है। उनका मुझ पर भरपूर आशीर्वाद रहा है और इतना कि मैं अनेक अंतरंग बातें भी थोड़े साहस के साथ कर सकता हूं। अन्यथा मेरी हिम्मत नहीं होती, यह हिम्मत आपने ही वर्षों पहले प्रदान की है।
भाषा में शुद्धता और समरूपता के प्रति आप विशेष आग्रही रहे हैं। किसी शब्द को कैसे लिखा जाए इस पर अब भी चिंतन-मनन और शोध-खोज करते हैं। आपकी स्मरण शक्ति ईश्वरीय देन है कि सब कुछ कंठस्थ और मुंह जबानी हिसाव जैसे अब भी याद रहता है संभवतः इसलिए आपको अपने समय का इनसाइक्लोपीडिया कहा जाता है। कहने को बहुत कुछ है, फिलहाल गुरुदेव के चरणों में वंदन-प्रणाम।
-----------
डॉ. नीरज दइया




 


Share:

जलम शताब्दी सिमरण- अन्नाराम सुदामा री साहित्य-साधना/ डॉ. नीरज दइया

          राजस्थान शिक्षा विभाग सूं जुड़िया केई रचनाकारां रो नांव आवणवाळै टैम मांय विभाग भूल सकै पण साहित्य रो इतिहास कदैई कोनी भूलैला। विभाग री आपरी सींव अर हिसाब-किताब हुवै, नौकरी मांय जठै कठै कोई काम करै बठै जाणीजै। सेवामुगत हुया पछै ई विभाग सूं जुड़ाव रैवै। इण ढाळै कैय सकां कै जे कोई विभाग रो कर्मचारी किणी पण क्षेत्र मांय कोई नांव हासिल करै तो उण रो जस विभाग नै जावै। साहित्य री बात करां तो शिक्षा विभाग राजस्थान आखै देस मांय फगत अेक इसो संस्थान रैयो जिको आपरै गुरुजनां-कर्मचारियां री रचनात्मकता पेटै सजगता बरता थका बरसां लग पांच पोथ्यां शिक्षक दिवस रै टांणै छापी। देस रा नामी लेखक-कवि संपादक रैया। बरस 1997 मांय राजस्थानी साहित्य री संपादित पोथी ‘कोरणी कलम री’ विभाग प्रकाशित करी, जिण रो संपादन अन्नाराम ‘सुदामा’ करियो। सुदामा जी रै उपनांव सूं जाणीजता आं गुरुदेव रो जलम 23 मई, 1923 नै अर सरगवास 02 जनवरी, 2014 नै हुयो। अठै खास ध्यानदेवण जोग बात आ है कै 23 मई, 2023 सूं सरू हुयो ओ वगत अन्नाराम जी री जलम शताब्दी रो बरस है। आओ आपां इण मिस गुरुजी अन्नाराम सुदामा री साहित्य-साधना पेटै कीं चरचा करां।

          चावा-ठावा रचनाकार अन्नाराम सुदामा रै सिरजण रा केई-केई पख देखण-परखण नै मिलै। बां राजस्थानी अर हिंदी दोनूं भासावां मांय कहाणियां अर उपन्यासां रै अलावा संस्मरण, बाल साहित्य अर कविता आद विधावां मांय लगोलग सिरजण करियो। बां री रचनावां रो देस-विदेस री भासावां मांय अनुवाद ई हुयो। बां सूं म्हारी ओळख रो मोटो कारण म्हारा जीसा सांवर दइया रैया। अेक लेखक-कवि रै घरै जलम हुयां म्हारै नजीक पोथ्यां कीं बेसी रैयी पण पोथ्यां नजीक रैयां ई कीं कोनी हुवै। बांचण रो चाव मोटी बात हुया करै। स्कूल रै दिनां री बात करूं तो म्हैं नोखा रै सेठिया स्कूल सूं छोटूनाथ उच्च माध्यमिक स्कूल पूग्यो तो डेलूजी गुरुजी जिका पीटीआई हा, बां री मीठी वाणी मांय सुदामाजी री रचनावां सुणण रो सौभाग मिल्यो। फेर राजस्थानी साहित्य री रावत सारस्वत जी री परीक्षावां अर कन्हैयालाल सेठिया जी रो मायड़ रो हेलो इण मारग माथै म्हनै गति दीवी। ‘पिरोळ में कुत्ती ब्याई’ अर ‘दूर-दिसावर’ पोथ्यां पछै बरस 1985 मांय जद म्हारै जीसा सांवर दइया नै साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिल्यो तो बां रै सम्मान में नागरी भंडार बीकानेर में हुयै जळसै री अध्यक्षता अन्नाराम सुदामा करी अर म्हारा पैला दरसण हुया।

          अन्नाराम सुदामा रै जीवन परिचय अर साहित्‍य री बात करां तो राजस्‍थानी में आपरा छव उपन्यास- ‘मैकती काया: मुळकती धरती’ (1966), ‘आंधी अर आस्था’ (1974), ‘मेवै रा रूंख? (1977), ‘डंकीजता मानवी’ (1981), ‘घर-संसार’ पैलो भाग (1983), ‘घर-संसार’ दूजो भाग (1985) अर ‘अचूक इलाज’ (1990) प्रकाशित हुया। कहाणी संग्रै च्यार- ‘आंधै नै आंख्यां’ (1971), ‘गळत इलाज’ (1983), ‘माया रो रंग’ (1976) अर ‘औ इक्कीस’ (2002) प्रकाशित हुया। आपरी ख्याति मूळ रूप सूं गद्यकार अर खास तौर माथै कथाकार रूप बेसी मानीनै। बियां आप बीजी बीजी विधावां मांय ई सांगोपांग लेखन करियो।

          जातरा संस्मरण री बात करां तो दोय पोथ्यां- ‘दूर-दिसावर’ (1975) अर ‘आंगण सूं अर्नाकुलम’ (2002) छपी थकी नै चावी। आपरा च्यार कविता-संग्रह- ‘पिरोळ में कुत्ती ब्याई’ (1969), ‘व्यथा-कथा अर दूजी कवितावां’ (1981), ‘ओळभो जड़ आंधै नै’ (2002) ‘ऊंट रै मिस : थारी-म्हारी सगळां री’ (2015) साम्हीं आया तो अेक-अेक पोथी नाटक- ‘बधती अंवळाई’ (1979), निवंध- ‘मनवा थारी आदत नै’ (2003) अर बाल-साहित्य- ‘गांव रो गौरव’ (1981) री ई जसजोग मान सकां।   

          आपरै हिंदी साहित्य लेखन री बात करां तो छव उपन्यास- ‘जगिया की वापसी’ (1979), ‘आंगन-नदिया’ (1990) ‘अजहुं दूरी अधूरी’ (1996), ‘अलाव’ (2000), ‘बाघ और बिल्लियां’ (2007) अर ‘त्रिभुवन को सुख लागत फीको’ (2009) प्रकाशित हुया। चिंतनपरक साहित्य पेटै दोय पोथ्यां- ‘त्रिभुवन को सुख लागत फीको’ (2015) अर ‘अवधू अरथ उघारा’ (2015) छपी। महात्मा गांधी रै शताब्दी वर्ष रै मौकै गांधीजी री भारत यात्रा पेटै चावी पोथी ‘उत्सुक गांधी : उदास भारत’ (1970) ई घणी चर्चित रैयी।

          विभाग कानी सूं श्रेष्ठ शिक्षक सम्मान रै अलावा अन्नाराम सुदामा नै घणा मान-सम्मान अर पुरस्कार मिल्या जिण मांय खास खास री बात करां तो राजस्थानी उपन्यास 'मेवै रा रूंख?' नै साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली रो राजस्थानी भाषा रो मुख्य पुरस्कार बरस 1978 रो आपनै अरपण करीज्यो। इणी ढाळै हिंदी उपन्यास ‘आंगन-नदिया’ नै राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर रो सर्वोच्च ‘मीरां पुरस्कार’ (1991-92) मिल्तो तो उपन्यास ‘अचूक इलाज’ नै राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी रो ‘सूर्यमल्ल मीसण शिखर पुरस्कार’ बरस 1992 रो अरपण करीज्यो। श्रेष्ठ गद्य लेखन सारू गोइन्का फाउंडेशन रो ‘कमला गोइन्का राजस्थानी साहित्य पुरस्कार’ बरस 2005 रो मिल्यो अर बीजा ई केई सम्मान-पुरस्कार आपनै मिल्या। मोटो सम्मान अर पुरस्कार तो ओ है कै राजस्थानी उपन्यास ‘मेवै रा रूंख?’ अर ‘मैकती काया : मुळकती धरती’ जयनारायण व्यास वि.वि. जोधपुर, म. द. स. विश्वविद्यालय, अजमेर अर महाराजा गंगा सिंह विश्वविद्यालय, बीकानेर रै पाठ्यक्रमां मांय बरसां सूं सामल है अर लाखू पढेसरी आपनै पढ रैया है। आपरी रचनावां रो केई केई भाषावां मांय अनुवाद ई हुयो। सार रूप कैवां तो शिक्षा विभाग राजस्थान रो नांव आखै देस-विदेस अर खास कर राजस्थानी साहित्य मांय जसजोग बणावणवाळा कमलकारां मांय आप सिरै मानीजो।

          सुदामा जी सूं जुड़ी केई बातां अर यादां बां रै हरेक पढेसरी पाखती हुवणी लाजमी है। बां माथै शोध हुया है अर भळै ई हुवैला। आखो जीवण साहित्य नै सूंपण वाळा सुदामा जी लिखण माथै भरोसो करियो अर तद ई इत्तो साहित्य बै लिखग्या। काण-कायदा अर नेम नै पक्का मानण वाळा सुदामा जी रै जीवण, व्यवहार, आचार-विचार अर साहित्य सूं आपां घणो कीं सीख सकां। बां रै विविधवर्णी आखै सिरजण संसार माथै बात कीं कर’र अठै फगत राजस्थानी कथा-साहित्य री बात करालां।

          लोकथावां रै मायाजाळ सांम्ही आधुनिक कहाणी नै ऊभी करण मांय सिरै कहाणीकार अन्नाराम सुदामा रो नांव हरावळ इण सारू मानीजै कै बै पैली पीढी रा कहाणीकार हा अर पैलै कहाणी संग्रै- ‘आंधै नैं आंख्यां’ री भूमिका मांय बां लिख्यो- ‘राजस्थानी में कहाणी साहित्य री कमी है। है जिको घणखरो पुराणी खुरचण खा’र जीवै इसो। बींनै अलग-अलग आदम्यां, न्यारा-न्यारा गाभा पैरा’र आप आपरै ढंग सूं सजावण री सस्ती चेष्टा करी है, मूळ में कोई अंतर को आयोनी। केयां, संकलन अर संपादन, भूमिका में दो शब्द अर बीं में ही दो-दो पांती घाल, कथा साहित्य रो खासो भलो उपकार कियो है पण ऐ आसार कीं सीमा तांई ही ठीक हुवै। वर्तमान भी कठै न कठै, मोटो महीन चित्रित हुणो चाहीजै। बींरी पूर्ति अतीत सूं थोड़ी ही हुसी....।’

          कहाणीकार अन्नाराम सुदाम वर्तमान रै मोटो-महीन चित्रण अर अतीत सूं मुगती री बात उण दौर मांय करी जद लोककथावां रै संकलन-संपादन रो काम घणो जोरां माथै हो। आगै चाल’र बां कहाणी नै आधुनिक बणावण मांय योगदान दियो। इण सारू कहाणी-जातरां री संभाळ करतां कहाणीकार अन्नाराम सुदामा री कहाणियां माथै बात करणी लाजमी लखावै।

          ओ संजोग है कै सुदामा जी री च्यारू राजस्थानी कहाणी-पोथ्यां मांय कुल इक्कावन कहाणियां है अर बां आपरै छेहलै कहाणी-संग्रै रो नांव ‘ऐ इक्कीस’ राख्यो। किणी कहाणीकार री कहाणी-जातरा बाबत बात करता आलोचना नै बगत अर कहाणीकार री दीठ माथै ध्यान देवणो चाइजै। बरस 1971 मांय कहाणी-संग्रै ‘आंधै नैं आंख्यां’ सूं सुदामा जी जिकी जातरा चालू करी बा जातरा 2011 तांई चालू राखी। राजस्थानी कहाणी अर लोककथा री संभाळियोड़ी पूरी भाषा नै बां आपरै पैलै कहाणी-संग्रै ‘आंधै नैं आंख्यां’ री पांचू लांबी कहाणियां रै मारफत बदळ’र नुंवै ढाळै ढाळण री तजबीज करी। परंपरा मांय आ नवी भाषा नै सोधण री खेचळ ही।

          ‘आंधै नैं आंख्यां’ संग्रै री भाषा मांय हास्य अर व्यंग्य सूं बांचणियां नै रस तो आवै पण बिम्बां री भरमार सूं कहाणी री मूळ बात अर संवेदना कठैई दब-सी जावै। कहाणी जठै दौड़णी निगै आवणी चाइजै बठै कहाणी डिगू-डिगू करती आगै बधै। कहाणीकार नुंवै गद्य री सिरजणा मांय कहाणी विधा सूं घणी घणी आंतरै निकळ जावै। सुदामा री आं कहाणियां री भाषा री आलोचना हुई अर आ पूरी भाषा-बुणगट सेवट मांय कहाणीकार दूजै रूप मांय सोधण री तजबीज कर लेवै। सुदामा जी री कहाणी जातरा मांय सेवट भाषा सूं बेसी भाव, आदर्श, जीवण-मूल्य अर संस्कार मेहताऊ हुय जावै। भाषा अर दीठ अेक खास रंग-ढंग मांय लैण माथै जाणै ठेठ तांई पाटी पढावती निगै आवै। उल्लेखजोग है कै आं पाटी पढावती कहाणियां रो मूळ सुर आदर्श री थरपणा है अर इण मांय कहाणीकार आपरी सफलता दरसावै। लोक भाषा री सहजता-सरलता आं कहाणियां री मोटी खासियत मानी जाय सकै। आं सगळी बातां रै उपरांत ई कहाणीकार रो भाषा-रूप पूरी इण पूरी जातरा मांय ठैरियोड़ो-सो लखावै। प्रयोग अर इक्कीसवी सदी रै असवाड़ै-पसवाड़ै जिको बदळाव राजस्थानी कहाणी मांय निगै आवै उण भेळै आं कहाणियां नैं कोनी राख सकां। 

          ग्रामीण जन-जीवण सूं जुड़ी सुदामा जी री कहाणियां मांय सामाजिक सरोकार, जीवण-मूल्य, संस्कार अर मिनखपणै री जगमगाट जाणै बगत नै दीठ देवै। आधुनिक कहाणी परंपरा मांय आं कहाणियां री आपरी अेक न्यारी ओळखाण करी जावैला। कोई कहाणीकार कहाणी क्यूं लिखै? इण सवाल रा न्यारा न्यारा जबाब हुय सकै। कहाणीकार अन्नाराम सुदामा बाबत विचार करां तो लखावै कै बां आखी उमर माइत बण’र कहाणियां चूळियै उतरतै मानवियां नैं लैणसर लावण री दीठ सूं करी। ‘गळत इलाज’ संग्रै री कहाणियां सूं जिकी छवि कहाणीकार री बणै उण सूं आगै री कहाणियां मांय बो मुकाम बणायो राखै। बै औस्था रै बंघण सूं मुगत रैय’र ढळती उमर मांय लगोलग कहाणियां लिखता रैया। जसजोग बात आ कै अन्नाराम सुदामा मान-सम्मान अर पुरस्कारां पछै ई लिखणो सदीव चालू राख्यो। आकाशवाणी खातर बां केई कहाणियां लिखी जिकी लारला दोय कहाणी संग्रै मांय देखी जाय सकै। सुदामा जी नै बां रा करीबी मास्टर जी कैया करता हा। मास्टर जी री कहाणियां मांय ठेठ सूं अेक आदर्श मास्टर किणी बडेरै दांई सीख सीखावतो-समझावतो मिलै।

          बगत रै साथै-साथै ग्रामीण जीवण मांय शहर री हवा पूग्यां उण रै रूप-रंग मांय केई बदळाव हुया। सत-असत अर आस्थावां माथै बगत रो हमलो हुयो। इण सूं अंतस मांय सत-असत नै तोलण रा हरेक का आपरा नुंवा बाट बणग्या। कहाणी मांय जथारथ अर अंतस री दोधाचींत री पूरी पड़ताळ करीजण लागी। मिनख री इण जूझ मांय केई चितराम आंख्यां अगाड़ी किणी कहाणी रूप सांम्ही आया। मिनख रै मन मांयली जूझ रै उजळ पख रा केई केई चितरामां री ओळखाण सुदामा जी री कहाणियां सूं हुवै। ‘माया रो रंग’ अर ‘ऐ इक्कीस’ कहाणी संग्रै आं बातां नै पुखता करै।

          अन्नाराम सुदामा री कहाणियां रै केंद्र मांय- बाल-विवाह, सुगन-विचार, जीव-दया, छुआ-छूत, स्वाभिमान, आत्म-सम्मान, ईमानदारी, पाड़ौस-धर्म, अंध-भगती, जबान रो मोल, दया, संस्कार, संबंध, स्वार्थ आद मिलै। कहाणीकार रै पात्रां मांय घणखारा पचास रै आसै-पासै रा पात्र है। आपसी सम्पत अर सद्भाव सूं मेळ-मुलाकाती आं पात्रां रो सोच लूंठो है। जियां कै आगूंच जिण धन री आंधी दौड़ री बात करी उण पेटै कहाणीकार री आ थरपणा सरावणजोग है कै आज रै जुग मांय धन ई स्सौ कीं नीं हुवणो चाइजै। दोय उल्लेखजोग कहाणियां री चरचा जरूरी है। कहाणी ‘सूझती दीठ’ मांय दूध अर ‘अखंड जोत’ मांय धी नै बेचण री बात है। आज रै जुग मुजब हरेक खुद रो नफो विचारै। कीं बेसी धन मांय खुद रो लाभ विचारण रै इण जुग सांम्ही आं कहाणियां रा पात्र दूध अर घी रै बेच्या पछै उण रै उपयोग नै विचारता नफो करता जाणै घाटै नै अंगेजै। तुळछी रो हवेली रै बारकर दूध री कार निकाळण नै दूध का मीरां बाई रो सेठ चूनीलालजी रै रामशरण हुयां घी नै अंखड़ जोत करण खातर नटणो घणो अबखो काम है। आज ओ रूप कठैई देखण नै कोनी मिलै। ओ रूप अर सोच हुय सकै आ दरसावणो कहाणीकार री लांठी सोच है। दूध-घी मिनखां खातर है इण ऐळो गवाण सूं कांई सरै। इण ढाळै री आं कुरीतियां रो छेड़ो कोनी। सुदामा री खासियत आ कै हरेक कहाणी मांय याद रैवण जोग कथानक है। हरेक कहाणी री आपरी कहाणी है। कहाणी रो प्रभाव इत्तो कै उण मांय पूग्या पछै जाणै कीं बातां हियै रै आंगणै सदा खातर मंड जावै। कहाणी रा पात्र-वातावरण अर संवाद चाहे बिसर जावां पण मूळ मुद्दो जिको कहाणी कैवै बो अंतस मांय बैठ जावै।

          उपन्यास विधा पेटै पैली पीढी रा उपन्यासकार सुदामा जी रो घणो जस मानीजै। आपरा छव उपन्यासां मांय राजस्थान रै गांवां रा सांवठा चितराम मिलै। कैय सकां कै राजस्थान रै गांवां री बदळती तासीर रा केई-केई रंग सुदामा जी आपरै उपन्यासां मांय अंवेरै। आजादी पछै गांव रो रंग-रूप बदळतो गयो। मोटो बदळाव ओ हुयो कै अंग्रेजी राज तो गयो परो पण अबै उण ठौड़ गांव रा सेठ-साहूकार अर जमीदार आय'र बैठग्या। पैली राज करणिया अर लूट मचावणिया दूजा हा। अबै घर रा भेदी लंका ढावण आळा अर घर नै ई खावण आळा हुयग्या। पंच-पटवारी, पुलिस-थाणो सगळी ठौड़ आम आदमी माथै मोटी मार। किसान जिको अन्नदाता बाजै, नित अकाळ भोगै अर अन्न खातर तरसै। जे कदैई कीं भगवान री मेहर सूं खेत सावळ हुवै तो बो करजै रै मांय डूब्योड़ो ब्याज भरै अर ऊपर सूं बेगार न्यारी काढै।

          सुदामा जी रै उपन्यासां रै मूळ मांय सामंती सोसण व्यवस्था री व्यथा-कथा मिलै। बै जिण गांवां रा चितराम आपां साम्हीं राखै, उणा मांय जात-पांत रो टंटो मिलै। मिनख-लुगाई किणी इकाई रूप कोनी। बै का तो गरीब है का अमीर। बै का तो सोसक है का सोसित। निम्न-मध्यम वरग री मानसिकता मांय जीवता घणा लोग-लुगाई जद धन री अनीत देखै, उणा नै कोई मारग नीं लाधै। रछक ई भछक भेळै रळियोड़ा दीसै। गांव री जीया-जूण मांय पग-पग परसती राजनीति रा रंग-ढंग। गरीब अर किसान नै ठौड़-ठौड़ मार। कदैई कोई तो कदैई कोई अर सुणवाई कठैई कोनी। आं सगळी बातां अर हालातां बिचाळै सुदामा जी आपरै उपन्यासां मांय इसा पात्रां नै ऊभा करै जिका कीं बदळाव री हूंस लियोड़ा हुवै। आत्मकथात्मक उपन्यास 'मैकती काया : मुळकती धरती' री नायिका सुगनी नानी आपरै दोहितै गोरधन नै आपरी जूण-गाथा मांड'र कैवै। इण कैवणगत मांय कथा नै कैवण रो जूनो तरीको मिलै। लोककथा दांई हंकारो भरणियो ई दोहितो है अर मुंहबोली नानी सूं उण री जूण-विगत सुण रैयो है। सुगनी रै मारफत उपन्यासकार अेक लुगाई री जूझ नै साम्हीं राखै।

          'आंधी अर आस्था' उपन्यास मांय सुदामा जी मेट माथै काम करणियै जगन्नाथ री जूण-गाथा राखै। जगन्नाथ अर सरपंच रै कांई ठाह कांई बैर बंधै कै बो आंख बांध लेवै। ओ अेक संजोग ई कैयो जाय सकै कै जगन्नाथ सेठ प्रताप रै घरै चारो लावण नै जावै अर रात रै बगत बो सेठ नै घर री विधवा बीनणी भेळै सूतो देख लेवै। जगन्नाथ आंख्यां मींच छानै-मानै पाछो आ जावै, पण सेठ नै काळो खावै अर बो आत्मघात कर लेवै। इसो मौको सरपंच ताकै ही हो अर उपन्यास री कथा इण ढाळै आगै बधै कै बो जगन्नाथ नै फसा देवै। उण नै जेळ हुय जावै। उपन्यास मांय दूजो संजोग ओ सधै कै जगन्नाथ री बहू यसोदा ई बीकानेर मांय अेक सेठ रै चक्कारियै मांय उळूझै जावै अर अठै आळो सेठ ई मर जावै। दुख-दरद ई जूण री कहाणी बणै पण जद जीवण मांय दुख-दरद, कलीफां री आंधी पूरै परिवार माथै आय जावै तो कोई कांई करै।

          ‘मैवै रा रूंख?’ उपन्यास रो सिरैनांव प्रतीकात्मक है। उपन्यास मांय अेक ठौड़ डोकरी कैवै- ‘ना अन्नदाताजी, खूंटण री जबान मत काढोन, फळो फूलो मैवै रा रूंख हो थे, म्हे तो दिया लेवा, म्हारै सागै घणो नान्हो लेखो करता थे फूठरा को लागोनी।’ (पेज-53) रसूखदार मिनख, जिका कीं अड़ी मांय किणी रो काम काढ सकै, जिका माथै भगवान री मेहरबानी कीं बेसी है - बै सेठ-साहूकार-जमीदार-पइसैआळा मैवै का रूंख है। पण उपन्यासकार आं रूंखा माथै सवाल रो निसाण लगावै। असल मांय अै लोग खाली कैवण कैवण नै मैवै रा रूंख है, पण असल मांय आं रो मैवो फगत खुद खातर ई है। प्रेमचंद रै होरी रो प्रभाव भण्यै-गुण्यै किसान सिनाथ माथै देख्यो जाय सकै।          

          ‘डंकीजता मानवी’ उपन्यास मांय सुदामा जी जिण डंक री बात करै वो फगत कोई अेक गांव मांय कोनी, ओ डंक तो फगत अेक दाखलै रूप समझो। राजस्थान रै ई नीं आखै देस रै गांवां मांय मानवी डंकीजता जाय रैया है। हालत अर हालात मांय उगणीस-बीस फरक हुय सकै, पण सगळै गांवां अर लोगां री दसा इण सूं न्यारी नीं कैय सकां। ब्याज भुगतता अर बेगार करता गांव रा लोग-लुगाई अन्याय री घाणी मांय पीसता जावै। कोई रकम नीं, जाणै बां री सांस अडाणै राखीजगी। जिकी अेक'र फस्या पछै इण जूण मांय तो मुगती कोनी मिलै।  

          ‘घर-संसार’ उपन्यास दोय खंड मांय साम्हीं आयो अर ओ गांधी-दर्शन, अछूत-उद्धार माथै आधारित राजस्थानी रो पैलो उपन्यास है। अछूत-उद्धार री बात सुदामा जी रै पैला रा उपन्यासां मांय ई मिलै पण इण मांय पूरी बात इणी विसय माथै केंद्रीत करीजी है। समाज मांय बदळाव लावणो कोई सरल काम कोनी। समाज बीसवीं सदी मांय पूगग्यो पण हाल बो डोरा-मादळिया री बात करै। समझावण री कोई कमी कोनी, पण समझता थकां ई कोई नासमझ बणै उण रो कांई करियो जावै। ‘घर-संसार’ री अेक दूजी खासियत खुद री खुद सूं बातां ई कैय सकां – ‘सुधा सोचै ही अै आदमी-लुगाई ही कदेई स्वाभिमान अर सुतंत्र कमाई री खरीदी खुद री पौसाक पैरसी? मैनत जे मोड़ बदळ लियो तो क्योंनी? बण ही सवाल कियो अर बण ही समाधान।’ उपन्यास मांय इण ढाळै सवाल-जबाब मांय पात्रां री मनगत तो साम्हीं आवै ई आवै, साथै इण ढाळै बांचणियां साम्हीं सीख रा दरवाजा ई खुलै। उठै उपन्यासकार बिना कैया ई कैय देवै कै चिंतन ई किणी पण काम री सफलता रो आधार हुवै।

          ‘अचूक इलाज’ तांई पूगता-पूगता सुदामा जी आपरी जमीन माथै आदर्स भेळै आक्रोस रा सुर ई साम्हीं लावै। बै जीवण मूल्यां नै पोखै। भलै साथै भलो अर बुरै साथै बुरो हुवण रो संदेस देवै। भासा मांय हास्य व्यंग्य अर लोक री रंजकता रूढ हुवती जावै। गांव जिसा गांव है। खेत जिसा खेत है। किसान जिसा किसान है। सेठ-साहूकार जिसा सेठ-साहूकार है अर बाणियां, प्याऊ, बूढ़ा-बडेरा सगळा आपरी संवेदनावां मांय सामाजिक सरोकारां सूं जुड़ता चेतना अर क्रांति खातर उडीक करै। अकाळ हुवो भलाई बिखै रा दिना, आं सगळां री जूझ अर हूंस कमती नीं हुवै। बदरंग हुवती जूण मांय रंगां री आस मांय सुदामा जी रा पात्रां सूं भरोसो उपजै। भरोसै सूं भरियोड़ा पात्र नवै समाज रो सपनो फगत देखै-विचारै ई नीं, उण नै साकार ई करै। वां रै उपन्यासां रा पात्र जमीन सूं उठियोड़ा अर जमीन सूं बंध्योड़ा हुवै। भलाई वै किणी पोसाळा मांय भणिया-गुणिया ना हुवो, पण बै अक्कल रै मामलै मांय इक्कीस कैया जावैला। अक्कल जाणै बां रै हियै उपज्योड़ी हुवै। सगळां सूं सांवठी बात कै बां पाखती जूण रै अनुभवां ई मोटी कमाई हेमाणी रूप मिलै, जिकी नै बै अेक-दूजै री मदद खातर बरतता रैवै। सार रूप कैयो जाय सकै कै आधुनिकता रै पाण हुया बदळावां बिचाळै गांवां रै राजस्थानी समाज रो सुदामा-पख असल मांय अेक सरकारी मास्टर अन्नाराम सुदामा री आंख सूं देख्योड़ो साच अर सुपनां रो जंजाळ है। 

डॉ. नीरज दइया. संपादक- ‘नेगचार’ (पाक्षिक)





 

 

Share:

छूटे और बचे हुए रंगों के आस-पास / डॉ. नीरज दइया

मैंने एक कागज पर
          एक लाइन खींची
          और साथ में ही कुछ फूल
          कुछ पत्ते कुछ कांटे बना दिए
          उसने देखा और हंसा
          क्या यही कविता है
          मैंने कहा- हां यह एक खूबसूरत कविता है।
          (...खेतों में रची जाती कविता : ‘रंग जो छूट गया था’, पृष्ठ-87)
          कुँअर रवीन्द्र जाना-पहचाना एक नाम है। वे स्वयं को मूलतः चित्रकार मानते हैं किंतु रंगों-रेखाओं के साथ-साथ शब्दों की दुनिया में भी उनकी समान सक्रियता रही हैं। उनके चित्र समोहित करते हुए हमें कला-अनुरागी बनाते है। कला के प्रति गहन जानकारी के बिना भी हम उनके प्रति मुगधता के भाव से भर जाते हैं। उनकी कूची और कलम की सतत साधना का यह परिणाम है कि चित्र चित्ताकर्षक और कविताएं बेहद मर्मस्पर्शी हैं। सीधे सरल शब्दों में कहें तो उनका कोई शानी नहीं है। उनकी कविताओं में जीवनानुभवों के साथ अनेक रंगों से सज्जित चित्र देखे जा सकते हैं। हिंदी आलोचना में रेखाचित्र विधा के लिए विद्वानों ने ‘शब्दचित्र’ उपयुक्त शब्द माना, वहीं रवीन्द्र जी के यहां ऐसी सीमाएं ध्वस्त होती हैं। उनकी कविताएं पढ़ते हुए हम बारंबार अनुभूत करते हैं कि उनके यहां शब्दचित्रों और रेखाचित्रों की सीमाओं का समन्वय है, वे काफी उभयनिष्ठ होती हुई हमारा दायरा विस्तृत करती हैं। कहा जा सकता है कि वे अपने चित्रों में कविताएं रचते हैं और कविताओं में चित्र लिखते हैं। कलाओं के लोक में यह ऐसा आलोक है जहां रंगों, रेखाओं और शब्दों के समन्वय से जीवन के रंगों को बेहतर बनाने की एक मुहिम है। बदरंग और दागदार होती इस दुनिया के रंगों को बचाने के लिए वे समानांतर अपनी दुनिया सृजित करते हैं। जहां आशा-विश्वास और रंगों से भरी एक दुनिया नजर आती है। जो बेशक हमारे जैसी ही अथवा कहे बेहतर दुनिया  इस अर्थ में है कि वहां कुछ रंग और सपने के साथ जीवन है।
         कुँअर रवीन्द्र के दो कविता संग्रह ‘रंग जो छूट गया था’ (2016) और ‘बचे रहेंगे रंग’ (2017) प्रकाशित हुए हैं। कहना होगा कि इनकी कविताएं रंग से रंग की एक विराट यात्रा है जिसमें छूटे हुए रंगों के साथ रंगों के बचे रहने का विश्वास और उम्मीद है। देश और दुनिया के आवरण चित्र बनाने वाले कवि रवीन्द्र के दोनों संग्रहों पर उन्हीं के बनाएं अवारण है। दोनों को हम चाहे देर तक देखते रहे तो मन नहीं भरता है। क्या यह कवि अथवा उनकी कला के प्रति मेरा अतिरिक्त अनुराग है, ऐसा कहा भी जाए तो मुझे स्वीकार है। रचना और रचनाकार के प्रति स्नेह और सम्मान ही श्रेष्ठ मूल्यांकन का आधार होता है। इसे आलोचना का प्रवेश द्वारा कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। यहां यह अंतःप्रसंग भी जरूरी है कि मेरी और मेरे अनेक मित्रों की पुस्तकों के आवरण चित्र कुँअर रवीन्द्र द्वारा सहर्ष प्रदान किए गए हैं। मैं उनकी कविताओं से प्रभावित रहा और कुछ कविताओं का मैंने राजस्थानी में अनुवाद भी किया है।
          कुँअर रवीन्द्र की कविताओं का केंद्रीय विषय रंग के अतिरिक्त अन्य कुछ कहा नहीं जाना चाहिए। उनके दोनों कविता संग्रहों के शीर्षक में रंग शब्द समाहित है। ‘रंग जो छूट गया था’ अर्थात जिस रंग को उनके रंगों में स्थान नहीं मिला उसे उन्होंने शब्दों में कविताओं के माध्यम से अभिव्यक्त किया है। रंग ही जीवन है। यह पूरा जगत ही अनेक रंगों का संकाय है। ‘रंग’ अपने आप में बहुत बड़ा विषय है और वे चित्रकार-कवि के रूप में सदैव रंगों के निकट रहे हैं अथवा रहना चाहते हैं और उनकी ही नहीं हम सब की यही अभिलाषा है कि ‘बचे रहेंगे रंग’। इन रंगों के बचे रहने से हम भी बचे रहेंगे, इसलिए भी रंगों को बचाया जाना बेहद जरूरी है। रंग ही हमारी अभिलाषा, आकांक्षा और इच्छाओं को गतिशील बनाते हैं।
           ‘रंग जो छूट गया था’ संग्रह में प्रत्येक कविता को शीर्षक दिया गया है, जबकि ‘बचे रहेंगे रंग’ में कविताएं बिना शीर्षक से है। यह कवि का व्यक्तिगत फैसला है कि किसी कविता को वह शीर्षक दे अथवा नहीं दे। किसी अन्य कवि के विषय में तो मैं नहीं कहता पर कुँअर रवीन्द्र की कविताओं के विषय में कह सकता हूं कि इनकी सभी कविताओं के शीर्षक भले हो अथवा नहीं किंतु सभी कविताएं खंड खंड जीवन के विविध रंगों को प्रस्तुत करती हैं अस्तु सभी कविताएं रंग शीर्षक की शृंखलाबद्ध कविताएं हैं। दोनों संग्रहों की कविताएं प्रकाशन के लिए एक क्रम में रखी गई है किंतु यह रंगों की ऐसी माला है कि इसको जहां चाहे वहीं से आरंभ किया जा सकता है और इसकी इति कहीं नहीं है। यह कविताएं रंगों का जीवन में सतत प्रवाह है। जहां रंग नहीं है अथवा कम हैं वहां भी कवि की दृष्टि से हम रंगों को देख सकते हैं। कवि जीवन में रंग भरने का आह्वान भी करता है- ‘आओ रचें/ एक नया दृश्य/ एक नया आयाम/ एक नई सृष्टि/ एक बिंब तुम्हारा/ और हो एक बिंब मेरा/ हां/ इन बिंबों में/ रंग भी भरना होगा’ (...सार्वभौम बिंब : ‘रंग जो छूट गया था’ पृष्ठ- 72)
         ‘रंग जो छूट गया था’ संग्रह की कविताओं के शीर्षकों के साथ एक अन्य कलाकारी भी देखी जानी अनिवार्य है कि प्रत्येक कविता के शीर्षक से पहले तीन बिंदु खूंटियों जैसे टांगने के लिए बनाएं गए हैं जहां शीर्षक को अटकाया गया है। जैसा कि पहले कहा गया है कि दूसरे संग्रह में यह सब नहीं होकर कविताएं केवल गणितय अंकों के क्रम में व्यवस्थित की गई है और उसमें भी उनका होना बस उनके आरंभ भर की सूचना है। दोनों संग्रहों की कविताओं के अंत में कविताओं को जैसा कि बंद करने अथवा उनके पूर्ण होने पर कोई संकेत होता है वह यहां नहीं है। यह उनके अनंत होने का संकेत हैं और आरंभ भी कहीं से भी हो सकता है इस सूचना के साथ है जो अंकित नहीं है। यह आवश्यक अथवा अनावश्यक सभी बातें यहां इसलिए भी होनी थी कि कवि केवल कवि नहीं है वरन एक चित्रकार है और वह दोनों माध्यमों के समन्वय हेतु सक्रिय है। वह नए दृश्य रचकर रंग भरना चाहता है।
          कविताओं में रंगों की उपस्थिति स्थूल और सूक्ष्म दोनों स्तरों और रूपों में अभिव्यंजित हुई है। कवि के कविता समय में कवि का पूरा पर्यावरण समाहित है। वे घर-परिवार, गांव-देस, मौहल्ले-बाजार से दिल्ली पुस्तक मेले तक के प्रसंगों को कविता की दुनिया में प्रस्तुत करते हैं कि उनका समय और दुनिया से हमारा साक्षात्कार होता है। अनेक विषयों को जीवन के विरोधाभासों के साथ कविताओं में पिरोया गया गया है या कहें कि कुछ ऐसा हुआ और वे इस रूप में ढल गई। यहां कवि अच्छाई-बुराई, सच-झूठ, सुख-दुख, प्रेम-घृणा जैसे अनेक युग्म शब्दों को प्रचलित अर्थों से इतर नए अर्थों-रंगों में सज्जित करता है- ‘तुमने पूछा है मुझसे/ रोटी का स्वाद?/ नहीं/ तुमने किया है/ मेरी निजता पर/ मेरी अस्मिता पर प्रहार/ क्या तुम जानते हो/ भूख की परिभाषा...।’ (...तुमने पूछा है मुझसे : ‘रंग जो छूट गया था’ पृष्ठ- 73) अथवा ‘जब अच्छे दिनों में/ कुछ भी अच्छा न हो/ सिवाय अच्छा शब्द के/ तब/ बुरे दिनों की यादें/ सुख देती हैं।’ (...बुरे दिनों की याद : ‘रंग जो छूट गया था’ पृष्ठ- 78)
          समाज में स्त्रियों की भूमिका पर कवि चिंतित हैं वहीं पुरुष मानसिकता से त्रस्त। वह दुनिया के रंगों को बनाएं रखने की पैरवी इस अर्थ में अभिव्यक्त करता है कि विचारों का आदान-प्रदान और विमर्श कभी एक तरफा नहीं होना चाहिए। हरेक स्थिति में खुलापन और आजादी अनिवार्य है। दुनिया को सहकारिता और सहभागिदारी से चलया जा सकता है। तभी उसकी सुंदरता रहेगी। कवि सरहदें मिटाने की बात करता है और एक ऐसी दुनिया की कल्पना करता है जहां किसी भी प्रकार की दीवारें नहीं हो। वह इस विरोधाभास को भी जानता है कि दीवारों के बिना घर नहीं होता और घर होता है तो दीवारें भी होती हैं। वह लिखता है- ‘दरअसल/ मैं अब सरहदों के पार जाना चाहता हूं/ जिस तरह दीवारें गिरायी/ सरहदें भी तो/ मिटाई जा सकती है।’ (...सरहदें भी तो मिटाई जा सकती हैं : ‘रंग जो छूट गया था’ पृष्ठ- 82) इतनी बड़ी अभिलाषा का आरंभ घर से होना चाहिए- ‘औरतें!/ बहुत भली होती है/ जब तक वे/ आपकी हां में हां मिलाती है/ औरतें!/ बहुत बुरी होती है/ जब वे सोचने-समझने/ और/ खड़ी होकर बोलने लगती हैं।’ (...औरतें : ‘रंग जो छूट गया था’ पृष्ठ- 101) औरतों का बोलना जरूरी है। उनके बोलने से ही जीवन और रंग बोलते हैं। वे ही प्रत्येक सृजन का आधार और प्रेरणा है।         
 रंगों की आब कवि के दूसरे संग्रह में सघन से सघनतर होती देखी जा सकती है। कवि का विश्वास है कि वह उजाले को देश और दुनिया के लिए बचाएगा इसलिए वह उजाले को अपने हाथ में लेकर चलता है। वह उजाले की बाड बानकर अंधेरे को घुसने नहीं देगा ठीक वैसे ही जैसे एक किसान अपने गन्ने के खेत को जंगली सूअरों से बचता है वह भी हमारे पास अंधेरे को फटकने नहीं देगा क्यों कि उसमे उजाले को पहचान लिया है और उसी उजाले की हमारी पहचान कविताओं के माध्यम से वह कराता है। कवि का मानना है कि हम हमारी स्थिति से अपनी नियति की तरफ अग्रसर होते हैं। नियति के लिए फैसला जरूरी है कि हम क्या तय करते हैं। कवि के शब्दों में देखें- ‘जहां पर तुम खड़े हो/ हां वहीं पर क्षितिज है/ उदय भी/ और अस्त भी वहीं होता है/ बस एक कदम आगे अंधेरा/ या फिर उजाला/ और यह तय तुम्हें ही करना है/ कि/ जाना किधर है।’ (बचे रहेंगे रंग : पृष्ठ- 74) कविताओं में सभ्यता के संकटों को भी समाहित किया गया है। कवि शहर और गांव में फैलते बाजारीकरण से चिंतत है और वह आदमी की तलाश में है जो स्थितियों से जूझ सके जो स्थितियों को बदलने के लिए हरावल बन सके। इस लड़ाई में इंसानों के मारे जाने पर कवि को दुख भी होता है किंतु वह धर्म जाति और बंधनों से परे हमारे समक्ष ऐसी जमीन तैयार करता है जहां बिना संघर्ष से कुछ हासिल नहीं होता। और वह हमें संघर्ष के लिए प्रेरित भी करता है- ‘लड़ना है/ लड़ना ही पड़ेगा/ अपने लिए/ अपने खेतों के लिए/ अपने जंगलों के लिए/ लड़ना है/ अपने आकाश, अपनी नदियों के लिए/ अपने विचारों के लिए/ अपने आपको जीवित रखने के लिए।’ (बचे रहेंगे रंग : पृष्ठ- 46) इस लड़ाई में ‘समय के साथ सब कुछ बदलता है’ और अंततः निर्णायक स्थितियों में कवि को कविता का सहारा है- ‘बेशक! यदि तुम तब भी नहीं मरे/ और गुनगुनाते रहे/ कविता की कोई पंक्ति/ तो वे हत्यारे हथियार डाल तुम्हारे पैरों पर लौटेंगे/ हत्यारे सिर्फ कविता से डरते हैं।’ (बचे रहेंगे रंग : पृष्ठ- 80) यह कवि का विश्वास-सहारा ही इन कविताओं की पूंजी है।   
          वरिष्ठ कवि सुधीर सक्सेना का मानना है- ‘कुँवर रवीन्द्र की कविता को लेकर अवधारणा ठोस और सुचिंत्य है। वह ऐसी कविता के हिमायती नहीं है, जो प्रारब्ध में लिपटी हो या उसे दरख्तों के साये में धूप लगे या जो ऐसी छुईमुई हो कि उसे हौले से छूना पड़े या इत्ती गेय हो कि कोई भी गा सके या इतनी अतुकांत हो कि किसी के जेहन में भी न बैठे।’ (बचे रहेंगे रंग : पृष्ठ- 6)
          मूर्त-अमूर्त और कल्पना-यथार्थ के अनेक रेशों से निर्मित कविताओं का संग्रह है- ‘बचे रहेंगे रंग’ इसकी पहली कविता है- ‘बचे हुए रंगों में से/ किसी एक रंग पर/ उंगली रखने से डरता हूं/ मैं लाल, नीला, केसरिया या हरा/ नहीं होना चाहता/ मैं इंद्रधनुष होना चाहता हूं/ धरती के इस छोर से/ उस छोर तक फैला हुआ। (पृष्ठ- 9) यह कविता स्वयं में प्रमाण है कि कवि किसी एक रंग अथवा जीवन की स्थिति में ठहर नहीं सकता, वह विविध वर्णों और रंगों के इंद्रधनुषी कवि हैं। ऐसा प्रेम संभव करता है और करता है कवि का जमीन पर रहकर ऊंचाई छूने का सपना- ‘मैं सीढ़ियां नहीं चढ़ता/ कि उतरना पड़े/ जमीन पर आने के लिए/ मैं जमीन पर ही अपना कद/ ऊंचा कर लेना चाहता हूं/ ऊंचाई छूने के लिए।’ (बचे रहेंगे रंग : पृष्ठ- 65) कुँवर रवीन्द्र ने बेशक अपनी कविताओं को भूमिका में अनगढ़ कहा हो किंतु इनकी अनगढ़ता में जो गढ़ने का शिल्प और कौशल प्रौढ़ होता प्रतीत होता है वह उनकी सहजता-सरलता और तटस्थता से संभव हुआ है। कवि का रंगों और शब्दों की दुनिया में निरंतर जुड़ाव बना रहेगा।

डॉ. नीरज दइया


 


Share:

Search This Blog

शामिल पुस्तकों के रचनाकार

अजय जोशी (1) अन्नाराम सुदामा (1) अरविंद तिवारी (1) अर्जुनदेव चारण (1) अलका अग्रवाल सिग्तिया (1) अे.वी. कमल (1) आईदान सिंह भाटी (2) आत्माराम भाटी (2) आलेख (11) उमा (1) ऋतु त्यागी (3) ओमप्रकाश भाटिया (2) कबीर (1) कमल चोपड़ा (1) कविता मुकेश (1) कुमार अजय (1) कुंवर रवींद्र (1) कुसुम अग्रवाल (1) गजेसिंह राजपुरोहित (1) गोविंद शर्मा (1) ज्योतिकृष्ण वर्मा (1) तरुण कुमार दाधीच (1) दीनदयाल शर्मा (1) देवकिशन राजपुरोहित (1) देवेंद्र सत्यार्थी (1) देवेन्द्र कुमार (1) नन्द भारद्वाज (2) नवज्योत भनोत (2) नवनीत पांडे (1) नवनीत पाण्डे (1) नीलम पारीक (2) पद्मजा शर्मा (1) पवन पहाड़िया (1) पुस्तक समीक्षा (85) पूरन सरमा (1) प्रकाश मनु (2) प्रेम जनमेजय (2) फकीर चंद शुक्ला (1) फारूक आफरीदी (2) बबीता काजल (1) बसंती पंवार (1) बाल वाटिका (22) बुलाकी शर्मा (3) भंवरलाल ‘भ्रमर’ (1) भवानीशंकर व्यास ‘विनोद’ (1) भैंरूलाल गर्ग (1) मंगत बादल (1) मदन गोपाल लढ़ा (3) मधु आचार्य (2) मुकेश पोपली (1) मोहम्मद अरशद खान (3) मोहम्मद सदीक (1) रजनी छाबड़ा (2) रजनी मोरवाल (3) रति सक्सेना (4) रत्नकुमार सांभरिया (1) रवींद्र कुमार यादव (1) राजगोपालाचारी (1) राजस्थानी (15) राजेंद्र जोशी (1) लक्ष्मी खन्ना सुमन (1) ललिता चतुर्वेदी (1) लालित्य ललित (3) वत्सला पाण्डेय (1) विद्या पालीवाल (1) व्यंग्य (1) शील कौशिक (2) शीला पांडे (1) संजीव कुमार (2) संजीव जायसवाल (1) संजू श्रीमाली (1) संतोष एलेक्स (1) सत्यनारायण (1) सुकीर्ति भटनागर (1) सुधीर सक्सेना (6) सुमन केसरी (1) सुमन बिस्सा (1) हरदर्शन सहगल (2) हरीश नवल (1) हिंदी (90)

Labels

Powered by Blogger.

Recent Posts

Contact Form

Name

Email *

Message *

NAND JI SE HATHAI (साक्षात्कार)

NAND JI SE HATHAI (साक्षात्कार)
संपादक : डॉ. नीरज दइया