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श्रेष्ठ बाल कहानियों का अनोखा गुलदस्ता / डॉ. नीरज दइया

चयन एवं संपादन : प्रकाश मनु
कृति : श्रेष्ठ बाल कहानियां (भाग- 1) पृष्ठ : 64 ; मूल्य : 90/-
कृति : श्रेष्ठ बाल कहानियां (भाग- 2) पृष्ठ : 68 ; मूल्य : 90/-
प्रकाशक : साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली
प्रथम संस्करण : 2023
समीक्षक : डॉ. नीरज दइया

बाल सहित्य लेखन, संपादन और आलोचना के क्षेत्र में प्रकाश मनु किसी परिचय के मोहताज नहीं है। आपको ‘एक था ठुनठुनिया’ (उपन्यास) पर साहित्य अकादेमी के प्रथम बाल साहित्यकार पुरस्कार-2010 बिजेता होने का गौरव प्राप्त हैं। हम जानते हैं कि बाल साहित्य के अंतर्गत विपुल मात्रा में बाल कहानियों का लेखन हुआ है और अनेक रचनाकारों के विभिन्न बाल कहानी संग्रह भी प्रकाशित हैं। वहीं सुखद है कि चयनित बाल कहानियां और प्रतिनिधि बाल कहानियों के साथ 101 बाल काहनियों का प्रकाशन-संपादन भी हिंदी में मिलता है। यह पहली बार है जब साहित्य अकादेमी द्वारा हिंदी बाल कहानियों के अंतर्गत ‘श्रेष्ठ बाल कहानियां’ शीर्षक से दो भागों में पुस्तकों का प्रकाशन हुआ है। इसी भांति बाल कविताओं का प्रकाशन भी साहित्य अकादेमी ने किया है, जो दिविक रमेश के संपादन में काफी बड़ा संकलन कहा जा सकता है। उसकी तुलना में यहां उस भांति संकलित करने का भाव नहीं है। इस चयन और संपादन की चर्चा करें तो प्रकाश मनु ने तीन पीढ़ियों की 16 महत्त्वपूर्ण कहानियों का चयन दो खंडों के लिए किया है। यहां यह भी उल्लेखनीय है इन संग्रहों के लिए 9 पृष्ठों विशद भूमिका संपादक ने लिखी है, जिसमें संकलित कहानियों पर विस्तार से पत्र के रूप में चर्चा हुई है। श्रेष्ठ बाल कहानियों के पहले भाग में आठ लेखकों की आठ कहानियां और दूसरे भाग में भी आठ लेखकों की आठ कहानियां है किंतु भूमिका पहले भाग वाली ही दूसरे संग्रह में शामिल है। दोनों भागों में दी गई भूमिका ही संकलित कहानियों की बेहतर समीक्षा और व्याख्या है। यह बेहद सुखद है कि हिंदी और भारतीय भाषाओं की अनूदित बाल सहित्य की पुस्तकों का गुणवत्तापूर्ण सुंदर प्रकाशन साहित्य अकादेमी कर रही है। इन दोनों संग्रहों पर समान आवरण है, जिसमें भाग एक में शामिल चार कहानियों की विषय-वस्तु पर आधारित चित्रों का एक कोलाज सुंदर बन पड़ा है।
    श्रेष्ठ बाल कहानियां के दोनों भागों में संकलित कहानियां एक से बढ़कर एक हैं और उनके द्वारा बाल पाठकों को शिक्षा और संदेश को देने के प्रयास हुए हैं, साथ ही इन कहानियों द्वारा बाल साहित्य में बाल कहानी के विकास और प्रयोग को भी रेखांकित किया जा सकता है। समकालीन विषयों को नई और बदलती भाषा-शैली में निर्वाहन करना यहां हम देख सकते हैं, वहीं बच्चों के कल्पनाशीलता की अनेक कहानियां भी लुभाने वाली है। किंतु यह भी सच है कि श्रेष्ठता के लिए किसी का कोई दावा नहीं हो सकता है और प्रत्येक संपादक का अपना-अपना नजरिया होता है। जाहिर है कि यहां कहानियों के चयन की भी अपनी सीमा रही होगी। पहले संग्रह ‘श्रेष्ठ बाल कहानियां’ (भाग- 1) में देवेंद्र सत्यार्थी, आनंदप्रकाश जैन, मनोहर वर्मा, स्वयं प्रकाश, देवेंद्र कुमार, विनायक, उषा यादव और दिविक रमेश की कहानियों को स्थान मिला है, वहीं ‘श्रेष्ठ बाल कहानियां’ (भाग- 2) में क्षमा शर्मा, सुनीता, जाकिर अली ‘रजनीश’, सूर्यनाथ सिंह, साजिद खान, पंकज चतुर्वेदी, अरशद खान और स्वयं संपादक प्रकाश मनु शामिल हैं।
    पहली बात तो इन संकलकों के विषय में यह कि अनुक्रम लेखकों अथवा कहानियों के शीर्षकों के अकादि क्रम अथवा लेखकों की आयु क्रम से प्रतीत नहीं होता, दूसरी अनेक महत्त्वपूर्ण लेखक इसमें नहीं हैं। यह संपादक और चयनकर्त्ता का अधिकार है कि वह किसे शामिल करे अथवा किसे नहीं, किंतु यहां यह भी देखा जाना जरूरी है कि संकलन साहित्य अकादेमी द्वारा प्रकाशित हो रहा है। उदाहरण के लिए हरिकृष्ण देवसरे और जयप्रकाश भारती जैसे बड़े रचनाकारों का नहीं होना अथवा राजस्थान की ही बात करें तो यादवेंद्र शर्मा ‘चंद्र’, डॉ. भैरूंलाल गर्ग और गोविंद शर्मा जैसे दिग्गज बाल साहित्य के लेखकों का शामिल नहीं होना अखरने वाला हैं। कहा जा सकता है कि इस शृंखला के आगे के भागों में उनको शामिल किया जाएगा तो इन पुस्तकों अथवा भूमिका में इसका कोई संकेत नहीं मिलता है।   
    बाल साहित्य की पुस्तकें के विषय में यह सत्य नहीं है कि वे केवल बच्चों के लिए ही होती है। बाल सहित्य की पुस्तकें जितने चाव से बच्चे पढ़ते हैं उतने ही चाव से बड़े और बूढ़े भी पढ़ते हैं। अभिभावकों को भी बाल सहित्य की पुस्तकों से बहुत कुछ सीखने-समझने को मिलता है। फिर बालकों में भी आयु के हिसाब से कुछ वर्गों को हम अलग अलग रखते हुए छोटे बच्चों और किशोरों के लिए साहित्य को विशेष रूप से रेखांकित करते रहे हैं। ऐसे में बाल साहित्य लेखन, चयन और संपादन में जिम्मेदारी बढ़ जाती है। बच्चों को लेखकों-संपादक द्वारा पढ़ने को क्या देना चाहिए और क्या नहीं देना चाहिए? इस विषय पर भी संवाद किया जा सकता है किंतु फिलहाल विषय यह है कि श्रेष्ठता का पैमाना कैसे निर्धारित किया जाता है? संपादक का कहना- ‘उम्मीद है, हिंदी के विशालकथा समंदर में से चुनी गई तीन पीढ़ियों के लेखकों की एक से एक सुंदर और भावपूर्ण कहानियों का यह सुंदर गुलदस्ता अपनी खुशबू और रंग-बिरंगी झांकी से नन्हे पाठकों को मोह लेगा।’ निसंदेह यह झांकी अनुपम और मनमोहक बन पड़ी है। बाल कहानियां नन्हे पाठकों के लिए हैं, संभवतः इसी कारण संकलित बाल कहानीकारों और संपादक का परिचय इन पुस्तकों में नहीं दिया है। यदि ऐसा है तो हमें विचार करना होगा कि संपादक की विशद भूमिका अथवा उसकी पुनरावर्ती का भी क्या औचित्य है! यह भी खेद का विषय है कि विद्वान संपादक ने भूमिका में जो उन्होंने पत्र के रूप में अपने नन्हे मित्रों को संबोधित की है में प्रस्तुत कहानियों की विशेषताएं और सार तो प्रस्तुत किया है किंतु संकलित लेखकों के इतर तीन पीढ़ियों के अन्य लेखकों का कहीं नामोल्लेख अथवा बाल कहानी के उत्तरोत्तर विकास को रेखांकित नहीं किया गया है। जाहिर है कि तीन पीढ़ियों में वे कहां कहां किन-किन बाल साहित्यकारों को शामिल करते हैं जानना सुखद होगा क्योंकि पहले भाग में देवेंद्र सत्यार्थी (1908-2003) शामिल है तो बीसवीं-इक्कीसवीं शताब्दी में हुए बाल साहित्य के रचनाकारों को संपादक ने तीन पीढ़ी में किस आधार से देखा-परखा है और स्वयं को किस पीढ़ी में कहां रखते हैं। साहित्य अकादेमी ने बाल साहित्य की दिशा में अभी कार्य आरंभ किया है और आशा की जाती है कि जल्द ही वह अपने अन्य प्रकाशनों के मानकों के अनुरूप भी बाल सहित्य के प्रकाशनों के मानक, दिशानिर्देश और प्रारूप निर्धारित कर लेगी। 
 

समीक्षक : डॉ. नीरज दइया


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कवि कबीर का जीवन और काव्य/ डॉ. नीरज दइया

       यदि हम एक ऐसे कवि को पाना चाहे जिसकी प्रतिभा, बुद्धि और काव्य-शक्ति में अनेकानेक विरोधी तत्वों का आश्चर्यजनक समन्वय हो जिसने समाज के निम्न कहे जाने वाले वर्ग में जन्म लेकर अपनी विचारधारा से सभी वर्गों को प्रतिभा के बल से परास्त कर दिया हो, जिसने सर्वथा उपेक्षित हेते हुए कागद और मसि को बिना छू कर ही कालजयी काव्य रचनाएं देकर कोटि-कोटि जन विद्वानों, आलोचकों, चिंतकों विचरकों को अपनी भावधरा का लोहा मनवा दिया तो हमारा साक्षात्कार महाकवि, महासुधारक, महान क्रान्तिकारी विचारक, संत, नेता महात्मा कबीर से होगा।
    हिंदी के वरिष्ठ आलोचक डॉ. नामवर सिंह ने अपने एक साक्षात्कार में कहा- इक्कीसवी सदी में कबीर फिर पैदा होगा। वर्तमान हिंदी साहित्य में डॉ. सिंह की कही उक्ति सामन्य नहीं समझी जाती। कबीर के पुनः आगमन की आकांक्ष व्यक्त करना निश्चय ही यह सिद्ध करता है कि कवि कबीर एक उच्च कोटि के रचनाकार हैं।
    संत कबीर की समस्त रचनाओं के संग्रह और टीका का सिलसिला वैसे तो काफी पुराना है किंतु बीसवीं शती के अंत में 1994 में प्रचारक ग्रंथवाली परियोजना हिंदी प्रचारक संस्थान वाराणसी द्वारा लगभग हजार पृष्ठों की ‘कबीर ग्रंथाव’ली पुस्तक प्रो. युगेश्वर के संपादन में मिलना छपना भी महत्वपूर्ण भूमिका चिंतन विचार शोध संदर्भ के नए आयाम प्रस्तुत करती हैं। हिंदी साहित्य में जितनी भी साहित्यिक निबंधों की पुस्तकें छपी अथवा भविष्य में छपेंगी उनमें कबीर को अवश्य स्थान मिला है और आगे भी निरंतर यह संभावना बनी रहेगी। कबीर आज भी प्रासंगिक हैं, आकलन करें तो पाएंगे बीसवी सदी में कबीर पर अधिक कार्य हुआ। आजादी के बाद कबीर के व्यक्तित्व का विश्लेषण करते हुए एक स्थान पर समालोचक डॉ. इन्द्रनाथ मदान ने उनकी तुलना महात्मा गांधी से की है। कबीर और गांधी दोना ही अपने अपने युग के सर्वाधिक प्रभावशाली व्यक्ति सिद्ध हुए हैं। दोनों ही महापुरूषों ने प्राचीन घर्म और दर्शन को अपने अपने स्वंतत्र दृष्टिकोण से ग्रहण किया। डॉ. गणपति चन्द्र गुप्त लिखते है- महात्मा कबीर और महात्मा गांधी के व्यक्तित्व के अंतर को स्पष्ट करने वाला सबसे बडा तथ्य कबीर का कवि रूप हैं। अस्तु कहा जा सकता है कि कबीर समकालीन समय-संदर्भ और युग चेतना में अपनी एक अलग पहचान रखते हैं तथा साहित्य प्रेमियों की उत्सुकता का केंद्र बने हुए हैं इस युग में कबीर ही ऐसे कवि कहे जा सकते हैं जिन्हें सर्वाधिक ख्याति प्रशंसा प्रासंगिकता मिली है। कबीर के समयकालीन रचनाकारों में कबीर का स्कान युग की सीमाओं को तोडकर वर्तमान तक आ गया है।
    कबीर साहब के विषय में हम प्रमाणिक तथ्य जानकारी का दावा नहीं कर सकते हैं। अनुमान के कच्चे धागे के साहरे कुछ तथ्य तय भी किए जा सकते है अथवा बहुमत को सही मान सकते हैं। तर्क के द्वारा अनुमान की जांच की जा सकती है किंतु यहां एक बात स्पष्ट कर देना जरूरी है कि विभिन्न विद्वानों के अलग-अलग दृष्टिकोण, विचारधारा और मान्यता के रहते साहित्य का आम पाठक जिज्ञासु विद्यार्थी शिक्षार्थी निश्चय कर सकते में असमर्थ होता है। किसी सर्व सुलभ और बहुतमत को ही वह अपना सत्य मान लेना है, जो आगे निश्चय ही परिवर्तित भी हो सकता हैं और परिवर्द्धित भी।
    भक्तमाल की टीका लिखी प्रियादास ने उसमें भी कबीर के बारे में ऐतिहासिक संकेत मिलते हैं। प्रियादास ने कबीर साहब को सिकंदर लोदी के समकालीन माना है, कबीर को रामानंद का शिष्य कहा गया है तथा कुछ अलौकिक प्रसंग घटनाओं का भी उल्लेख हमें इस टीका में मिलता है। अनुमान किया जाता है कि कवि कबीर का जन्म 1585 से पूर्व हुआ था।
    सिखों के धर्मग्रंथ गुरुग्रंथ साहिब में कबीर वाणी के बहुत से अंश मिलते है। संत तुकराम, पीपा ने भी कबीर का उल्लेख किया है। कबीर पंथ के ग्रंथों में कबीर साहब का उल्लेख पूरे विस्तार के साथ किया गया है। कबीर के बारे में लोक में किवदंतियां अतिश्योक्तिपूर्ण कथन घटनाएं कबीर पंथ के प्रचार प्रसार के करण प्रचलित हो चुकी हैं, इनमें कबीर साहब के उद्भुत अवतार और उद्धारक माना गया हैं ।
    कबीर जुलाहे मुसलमान थे। कपडा बुनना उनका व्यवसाय और वंश परंपरा थी। कबीर वाणी के आधार पर हम कह सकते है कि कबीर विवाहित थे तथा पुत्र-पुत्री सहित एक समाजिक के रूप में रहे। कबीर को नीमा नीम ने पाला-पोला, अतः कबीर जुलाहे और मुसलमान कहे जा सकते है। उनका विवाह जिस स्त्री के साथ हुआ उसका नाम लोई था। लोई भी मुसलमान परिवाल द्वारा पालित थी। कुछ विद्वान कबीर को अविविाहित मानते हैं और लोई को कबीर की शिष्या मानते हैं। जो भक्ति भाव से कबीर की सेवा किया करती थी।  कुछ विद्वान कबीर के दो पत्निया मानते हैं- लोई और धनिय। पहली पत्नी लोई कुरूप और धनिया सुन्दर थी। कल्पनाओं और कुछ तथ्यों-विचारों के आधार पर इन कथा विस्तारों का कोई अंत नहीं है। कोई स्पष्ट प्रमाण साक्ष्य नहीं मिलता है।
    विद्यागुरु और दीक्षा गुरु वैसे तो कबीर का कोई नहीं है क्योंकि कबीर कभी विद्यालय में ज्ञानार्जन के लिए नहीं गए और ना उन्होंने विधिवत दी़क्षा ली। डॉ. मोहन सिंह कहते हैं- कबीर का कोई लौकिक गुरू नहीं था। कुछ विद्वानों ने स्वामी रामानंद को कबीर का गुरु माना है। वहीं कबीर पंथी लोग कबीर के लिए विद्या अथवा दीक्षा गुरू की आवश्यकता ही नहीं समझते। कबीर स्वयं तत्व ज्ञानी थे वे ऐसा मानते हैं।
    कबीर ने अपनी वाणी में गुरु का महत्त्व बताया है, अतः कबीर स्वयं बिना गुरु के नहीं हो सकते । कबीर ने रामानंद को अपना गुरु बनाना चाहा तथा कई किवदंतियों भी इस संबंध में प्रचलित है कबीर ने समर्पण की कई पद्वतियां अपनाई तो गुरू रामानंद ने एक दिन प्रसन्न होकर कबीर को रामनाम की दीक्षा देकर अपना शिष्य बना लिया। जनश्रुति में प्रसिद्व है कि रामनंद जी पंच गंगा घाट पर प्रतिदिन ब्रह्म मुहूर्त में स्नान करने जाया करते थे। घाट की सीढियों पर पहले जाकर कबीर लेट गए तथा उन पर जब रामानंद जी का पैर अनजान में पड़ गया तो रामानंद जी के मुख से राम-राम निकला। कबीर उठ खडे हुए और इस गुरू रामनंद के पैर पकड कर बोले- आज आप ने मुझे ‘राम’ नाम का गुरु-मंत्र दिया है, आज से आप मेरे दीक्षा गुरू हैं।
    काल विभेद के कारण कुछ विद्वानों को कबीर और रामनंद के इस संबंध में सत्यता नजर नहीं आती। एक सुप्रसिद्ध सूफी संत हुए हैं- शेख तकी और शेख तकी का नाम भी गुरु के रूप में प्रचलित है। किंतु डॉ. भंडाकर, डॉ. श्याम सुन्दर दास, डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी आदि ने तो स्वामी रामानंद को ही कबीर का गुरु माना है।
    जीविका के लिए कबीर ने कपड़ा बुनने का व्यवसाय अपनाया। वे जुलाहा थे। जुलाहा का कार्य कोई उच्च व्यवसाय में नहीं माना जाता फिर भी कबीर ने वंशीय परंपरा का व्यवसाय छोड़ा नहीं। उसे अपनी जीविका के लिए जारी रखा। रचनाओं ने भी कबीर ने इस कर्म से संबंधित कई शब्दों का प्रयोग ताना-बाना, सूत-कपास कतना बुनना आदि आध्यात्मिक रहस्यवाद दार्शनिक बातों को सुलझाने में करते हैं। ‘झीनी-झीनी बिनी रे चदरिया’ जैसे अतिमहत्वपूर्ण पद ऐसा कुछ संदेश करते हैं।
    कबीर प्रखर तेजस्वी स्पष्ट वक्ता सहासी निर्भीक निरभिमानी समाज सुधारक व्यक्तित्व वाले जीवट इंसान थे, जो कभी डरे नहीं और अपनी बात पर सदा डटे रहे। एक योद्वा की भांति उन्होंने समाज सुधारक का जैसे ठेका ही ले रखा हो। उनकी वाणी में हिंदू-मुसलमान दोनों ही धर्मों के बारे में जिस ढंग से बात कहीं गई है- वहां कुरीतियों पर जमकर एक नहीं अनेकानेक प्रहार मिलते है फिर भी साधु संत के चरित्र में जो मर्यादा होती है वह भी उन्होने नहीं छोड़ी। कहा जा सकता है कि कबीर अपने समय में नहीं वरन आज तक कहें तो अद्वितीय कवि हैं।
    कबीर ने अपने युग में प्रचलित अंधविश्वासों पाखंड़ों छल-कपट दुराचार रूढियों का तीव्र विरोध किया, वैसा न ता उनके समकालीन कवियों के स्वरों में मिलता है और ना ही परवर्ती हिंदी साहित्य में उसी रूप और मात्रा में वह मिलता है। कबीर ने कहा था- जो तोकु कांटा बुवे, ताहि बोय तू फूल। तोकू फूल के फूल है, बाकू है त्रिशूल। क्या गांधी जी चिंतन में हमें कबीर-दर्शन की झलक नहीं दिखाई देती है।
    कवि कबीर के जन्म स्थान के विषय में भी मतभेद है। अधिकांश विद्वान कबीर का जन्म काशी मानते हैं। कबीर पंथियों की भी यही धारणा हैं कुछ विद्वन कबीर का जन्म स्थान मगहर मानते हैं। कबीर वाणी मे काशी और मगहर दोनों स्थानों का उल्लेख मिलता है। मगहर के बारे में लोक प्रचलित धारण थी कि मगहर शापग्रस्त है। वहां जनश्रुति के अनुसार मरने वाला व्यक्ति सीधा नर्क में जाता है। उसे नर्क में स्थान मिलता है। अतः कबीर ने इस धारणा को मिथ्या सिद्व करने कलए अपना निर्वाण स्थाल मगहर को चुना। विभिन्न विभिन्न मत मृत्यु के बारे में प्रचलित है- घटनाओं और अन्तः साक्ष्यों के आधार पर परिस्थितियों को देखते हुए अधिकांश विद्वान अब कबीर की जीवन यात्रा 120 वर्ष मानते हैं। उनकी मृत्यु सन 1518 ई. स्वीकार करते हैं।
    कबीर मध्यकाल के कवि समाज सुधारक चिंतक थे। अतः उन्हें समझने के लिए जरूरी है कि मध्यकालीन परिस्थितियों पर भी विचार विमर्श किया  जाए। काव्य कला को साहित्य की कसौटी पर कसते समय यह आवश्यक हेा जाता है कि उसकी तत्कालीक परिस्थितियों का ज्ञान प्राप्त किया जाए। किसी युग की परिस्थितियों को जानने के लिए उस युग के राजनीतिक घार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, साहित्यिक परिस्थितियां ही वातावरण के रूप में कवि की रचनात्मकता को कभी प्रत्यक्ष कभी अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती है। इन सभी स्थितियों का प्रभाव उनके समकालीन कवियों पर भी रहा। कबीर काव्य में भाव पक्ष और कला पक्ष देखें तो भाव और विचार तथ्य कल्पना, भाषा और अलंकारों का आश्यर्चजनक रूप में समन्वय दिखाई देता है।

  • तुलसी दास महान कहें जाते हैं किंतु उनके पास शिक्षा ज्ञान और संस्कारों की ऐसी थाती थी जिसके बल पर आगे बढ़ना कठिन नहीं था किंतु कबीर निम्न श्रेणी में जन्म लेकर बिना अक्षर ज्ञान के भी भाव विचार और साधना के जिस उच्च शिखर तक पहुंचे वह अद्भुत हैं।
  • सूरदास ने कृष्ण का परंपरागत रूप श्रीमद्भगवत से ग्रहण कर सूरसागर की रचना की किंतु उनमें कबीर जैसी तेजस्विता नहीं मिलती है।
  • जायसी प्रेम मार्ग के पथिक दूसरों को ही दूसरों की राम-कहानी सुनाने लगे। वहां स्वानुभूतियों की कबीर जैसी मार्मिकता नहीं है। डॉ. नामवर सिंह ने कहा था- कबीर हर दशक हर शताब्दी में पैदा नहीं होता लेकिन कबीर की परंपरा में निराला जैसा कवि 20 वीं शताब्दी में हुआ और फिर मुक्तिबोध, नागार्जुन भी। जरूरत इस परंपरा को हर कीमत पर जिंदा रखने की है और यह परंपरा यदि जीवित रहीं तो उम्मीद की जानी चाहिए कि इक्कीसवी सदी में कबीर पैदा होकर रहेगा और इसके लिए हमें किसी ज्योतिषी का मोहताज नही होना है।

पूरे भक्ति काल की विभिन्न धाराओं और कवियों के बीच कवि कबीर की शैली की बात करें तो कबीर का समस्त काव्य मुक्तक के विविध रूपों में फैला है सबद, राखी, रैमणी अथवा पदों में अनेकानेक विशेषताएं हैं और उनके यहां भावों के अनुसार शैली बदल जाती है।

  • खंडनात्मक शैली में तीखा व्यंग्य भाव लिए कबीर ने जहां कही भी थोथ देखी जमकर प्रहार किया। धर्म के छल-छंदों पाखंडों पर और बनी हुई रूढ़ियों पर कबीर मर्म पर सीधी और करारी चोट करते हैं।
  • उपदेशात्क शैली में अति सहज सरल सुग्राहय शैली जैसे श्रोता के लिए संप्रेषणिक कथन है, जो वह हदयगम कर सके। हिंदुओ को उपदेश देते समय शुद्ध हिंदी भाषा का प्रयोग करते थे तथा हिंदुओं में प्रचलित प्रतीको का उपयोग करते थे, वही मुसलमानों को उपदेश देते समय वह फारसी-अरबी शब्दों का तथा इस्लामी प्रतीकों का प्रयोग करते हुए दिखाई देते हैं।
  • अनुभूति व्यंजन शैली में कबीर के साहित्यिक स्वरूप का प्रतिनिधित्व देख सकते हैं। पदों में गीति काव्य के समस्त लक्षण, मार्मिकता, अनुभूति की गहराई, संक्षिप्तता, संगीतात्मकता आदि दिखाई देते हैं। पदों की भाषा अपेक्षाकृत सुघड़ है।

    कबीर के काव्य के अनेक पक्ष है किंतु रहस्यवाद पर बात की जानी जरूरी है। मनुष्य चिरकाल से ही उस अव्यक्त अज्ञात और असीम सता की खोज करता चला आ रहा है। मनुष्य को अज्ञात सता का आभास मात्र ही हुआ किंतु वह उसको स्पष्टतः नहीं जान सका और उसके प्रश्न अनुतरित ही हैं- वह कौन है?, कहां रहता है? और उसका स्वरूप कैसा है, क्या है? आदि प्रश्न मन में उमडते रहे हैं। इस अप्राप्त सता ब्रह्म को प्राप्त करने के लिए मानव हदय और मानव मन ने जो प्रयत्न किए है वह रहस्यवाद के अन्तर्गत आ जाते हैं। उस अनंत अपार अगम अगोचर को इन्द्रिय-गम्य बनाने के लिए मनुष्य की चेस्टा आज भी बनी हुई है। मनुष्य उस सता के आयामों के रहस्य आवरणों को खोजने के लिए ना जाने कब से छटपटा रहा हैं। रहस्यवाद के विषय में  हिंदी साहित्य कोष में लिखा है- ‘अपनी अन्तः स्फुरित अपरोक्ष अनुभूति द्वारा सत्य परम तत्व अथावा ईश्वर का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने की प्रवृति रहस्यवाद है।’ आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ज्ञान के क्षेत्र में जिसे अद्वैतवाद कहते हैं भावना के क्षेत्र में वही रहस्यवाद कहलाता है। रहस्यवाद के मूल में वस्तुतः अज्ञात शक्ति को जिज्ञासा काम करती हैं, उस अज्ञात शक्ति को अनुभूति से प्राप्त करके सका निरूपण करते समय वाणी एवं उक्तियों में उस्पष्टता का समावेश सहज स्वाभाविक है, इस आलौकिक अनुभूति की स्थिति में साधक अनन्त शक्ति के उनंत वैभव और प्रभुत्व द्वारा ओत-प्रोत हो जाता है। संसार के कण-कण में उसी परम सता का अनुभव करना ही रहस्यानुभूति है।
    कबीर में कई प्रकार के रहस्यवाद मिलते हैं। शास्त्रीय विवेचन से अधिक अच्छा होगा कबीर की काव्य रचनाओं में रहस्यवाद की जो प्रवृतियां अनुभूतियां अथवा प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष बातें मिलती है उनकी विवेचना की जाए। भाव मूलक रहस्यवाद- कबीर मूलतः ज्ञानी भक्त थे। कबीर की अनुभूति तो अद्वैत वैदांती है किंतु उन्होंने इसे प्रेम के स्वाद के लिए रहस्यमयी आवरण दे दिया। उसी के कारण उन्हे रहस्यवादी बनाना पडा। यदि कबीर सगुण ब्रह्म को स्वीकार कर लेते तो उनका यह रहस्यवादी स्वरूप नहीं बन पाता। दूसरा कबीर के यहां सूफियों की भंति कथा रूपक नहीं मिलते हैं। कबीर जीवात्मा-परमात्मा के प्रेम संबंध का सीधा चित्रण करते हैं। कबीर में भावात्मक और साधनात्मक दोनों ही प्रकार के रहस्यवाद मिलते हैं। भावनात्मक रहस्यवाद की तीनों अवस्थाओं-जिज्ञासा, परिचय और मिलन की गहरी अनुभूति के दर्शन कबीर में मिलते हैं। ‘कबीर बादल प्रेम का हम पर बरसा आय।/ अन्तर भीगी आत्मा हरी भई बनराय।।’ अथवा ‘कबीर चित किया चहुदिसि लागी आग।/ हरि सुमिरन हाथू घडा बेगे लेहु बुझाया।।’ जैसी अनेक उक्तियां इस संदर्भ में देखी जा सकती है।
    प्रेम के विषय में कवि कबीर की पंक्तियां हैं- ‘प्रेम न बाडी नीपजै प्रेम न हाठ विकाइ।/ राजा प्ररजा जिहिं रूचै सीस देइ ले जाइ।। अपनी उलट बांसियों में भी कबीर हमें आश्चर्य लोक में ले जाते हैं। उन्हें सुलझाने के प्रयास निरंतर जारी है। कवि कबीर पर अनेक शोध और अनेक पुस्तकों के प्रकाशित हो जाने के उपरांत भी अभी भी कवि कबीर के काव्य के अनेक पक्ष हमारे समक्ष आते जा रहे हैं। निर्विवादित रूप से कहा जा सकता है कि कबीर जैसी बहुमुखी प्रतिभा का कवि आज भी प्रासंगिक है और कबीर की प्रासंगिता बनी रहेगी।
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(आकाशवाणी, बीकानेर से प्रसारित : दिसंबर, 2023)

डॉ. नीरज दइया




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