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दीठ साम्हीं सांस लेवती अेक अदीठ दुनिया/ डॉ. नीरज दइया

 राजस्थान सूं जिण हिंदी रचनाकारां नै आखै भारत मांय ओळखीजै बां मांय सूं चावो-ठावो अेक हरावळ नांव- पद्मजा शर्मा रो मानीजै। आपरा दस नैड़ा कविता-संग्रै साम्हीं आयोड़ा। कवितावां मांय सहजता-सरलता सूं मन नै परस करती, हियै ढूकती बातां अर जूण रा न्यारा-न्यारा लखावां नै नवी दीठ सूं राखणो पद्मजा जी री कवितावां री लूंठी खासियत कैय सकां। आपरो मूळ विसय लुगाई-जूण रैयो है अर ‘धरती पर औरतें’ कविता-संग्रै इणी खातर खास रूप सूं ओळखीजै। घणै हरख री बात कै इणी संग्रै रो राजस्थानी उल्थो आपां साम्हीं चावा-ठावा रचनाकार बसंती पंवार जी रै मारफत आयो है।
            राजस्थानी अर हिंदी दोनूं भासावां मांय न्यारी न्यारी विधावां मांय बसंती पंवार री केई पोथ्यां साम्हीं आयोड़ी अर निरा मान-सम्मान ई मिल्योड़ा। उल्थाकार खुद चावी-ठावी रचनाकार रूप आपरी सांवठी ओळख राखै। आज चेतै करूं तो लखावै कै लगैटगै पच्चीस बरसां पैली री बात हुवैला जद म्हैं बसंती पंवार रै पैलै उपन्यास ‘सोगन’ नै बांच्यो। उणी दिनां ठाह लाग्यो कै आप शिक्षक विभाग मांय काम करै अर आपरी जलमभोम बीकानेर है। ‘सोगन’ उपन्यास नै राजस्थानी भाषा, साहित्य अेवं संस्कृति अकादमी बीकानेर रो ‘सांवर दइया पैली पोथी पुरस्कार’ 1998 अरपण करीज्यो, तद बसंती जी सूं पैली दफै मिलणो ई हुयो। अठै आं सगळी बातां नै गिणावण रो मकसद ओ है कै बसंती जी लगोलग संजीदा रचनाकार रूप लिखता-पढता रैया है। राजस्थानी री बात करूं तो इण ढाळै रा महिला रचनाकार आंगळियां माथै गिण सकां जिका लगोलग राजस्थानी साहित्य नै विकसित करणै री हूंस दरसावता रैया है।
            अेक रचनाकार रूप बसंती पंवार मानै कै मिनखां करता लुगायां मांय संवेदनशीलता कीं बेसी हुवै अर इणी सारू बै सवाई हुवै। साहित्य रो मूळ आधार संवेदना ई हुवै अर न्यारी न्यारी विधावां मांय कोई रचनाकार संवेदना नै किण ढाळै परोटै इणी मांय उण री कला अर खासियत हुवै। उपन्यास अर कहाणी साथै साथै बसंती जी री कवि रूप रचनात्मकता राजस्थानी-हिंदी दोनूं भासावां मांय देख सकां। ‘जोवूं अेक विस्वास’ राजस्थानी कविता संग्रै अर ‘कब आया बसंत!’ हिंदी कविता-संग्रै छप्योड़ा। इण पोथी रै मारफत आपां बसंती पंवार जी नै सिरजण रै भेळै अनुसिरजण रै लेखै ई देखां-परखां।
           अनुवाद अर उल्थो सबद करता अनुसिरजण सबद म्हनै बेसी अरथावू इण रूप मांय लखावै कै इण सबद मांय मूळ सबद सिरजण बिराजै। अनुसिरजण री सगळा सूं लांठी खासियत उण रो मूळ सिरजण अर सिरजक रै सबदां री भावनावां नै सिरै मानणो समझणो-समझावणो मानीजै। जिण ढाळै कोई अभिनेता किणी किरदार नै निभावै उणी ढाळै अनुसिरजक मूळ सिरजक रै किरदार नै खुद री भासा मांय साकार करै। इण पोथी री कवितावां बांचता घणी दफै आपां नै इयां लागै कै जाणै आपां मूळ राजस्थानी री कवितावां ई बांच रैया हां, आ किणी पण अनुसिरजण री सखरी बात हुवै। आपां आ बातां ई जाणा कै अनुसिरजण बो ई सफल अर सारथक मानीजै जिको खुद सिरजण दांई गुणवान हुय जावै।
            पोथी री कवितावां री बात करण सूं पैली भासा री बात करणी जरूरी लखावै। राजस्थानी भासा मानकीकरण अर अेकरूपता सूं बेसी जरूरी बात आज सबदां री समरूपता री मानणी चाइजै। औकारांत अर ओकारांत भासा रा दोय रूप आपां रै अठै मानीजै पण अरथ मांय जे कोई बदळाव नीं निगै आवै तो आं दोनूं रूपां नै लेखक आपरै विवेक सूं बरत सकै। अनुसिरजण रै मामलै मांय मूळ सिरजक री बात नै अनुसिरजक किण ढाळै समझी उणी माथै उण रै सबदां रो चुनाव हुया करै। किणी अेक सबद खातर अनुसिरजक किसो सबद बरतै आ उण री समझ अर खिमता री बात हुवै। ‘धरती’ खातर राजस्थानी मांय केई केई सबद मिलैला, जे बसंती पंवार जी ‘धरणी’ सबद बरतै तो ओ बां रो लखाव अर फैसलो है कै कवितावां री भावनावां सूं ओ सबद बेसी जुड़ैला। इणी खातर अेक अनुसिरजण हुया पछै उणी पोथी रो अनुसिरजण कोई दूजो रचनाकार भळै करै।
            पैली कविता ‘अपछरा’ री आज री लुगायां पेटै कैयोड़ी आं ओळ्यां नै देखां-
वै कोई चीजबस्त नीं है
मोलावौ बरतौ अर फेंक देवौ
लुगायां मांय ई जीव हुवै
            इण पूरी पोथी मांय ठौड़ ठौड़ इण ढाळै री ओळ्यां मिलैला जिण मांय आपां नै लुगायां मांयलै जीव री ओळख हुवैला। कवितवां मांयली लुगायां किणी दूजै लोक का परदेस री लुगायां कोनी। आपां रै आसै पासै री दुनिया मांय अठै तांई कै आपां रै घर-परिवार अर समाज मांय इण ढाळै री केई केई लुगायां न्यारै न्यारै रूपां अर संबंधां मांय आपां देखता रैया हां। पण खाली देखण अर ओळखण मांय आंतरो हुवै। अठै आ बात ई जोर देय’र कैवणी चाइजै कै कवयित्री री आंख सूं सागी दुनिया अर लुगाई जात नै ओळखणो कीं न्यारो हुया करै।
            राजस्थानी समाज मांय जिका बदळाव आया है उण मांय सगळा सूं मोटो बदळाव बगत साम्हीं सवाल करती लुगाई मान सकां अर ओ कविता संग्रै उण सवाल करती लुगाई जात री मनगत री पुड़ता नै होळै होळै खोलै। लुगाई नै दूजां करता घणो सुणणो-सैवणो पड़ै। बां कीं करै तो उण नै सुणणो पड़ै अर कीं नीं करै तो ई सुणण री बारी उण री ई हुवै। समाज किणी पण गत मांय लुगाई जात नै कीं न कीं कैवतो रैयो है अर इण कवितावां मांय ठीमर रूप लुगाई जात री अलेखू बातां होळै होळै साम्हीं आवै। ‘खुद री पांख्यां सूं उडूंला’ कविता री आं ओळ्यां नै देखो-
अैड़ौ ई हुवै जणैं थांरा फैसला कोई दूजा लेवै
म्हैं तै कर लियौ हूं
म्हैं दूजां री पांख्यां सूं नीं
खुद री पांख्यां सूं उड़ूला
खुद रै पगां सूं आगै पूगूंला
खुद री जुबान सूं खुद री बात आपौआप कैऊंला
कांई हुयग्यौ जे होळै-होळै ठैर-ठैर नै कैऊंला
            आं हूंस जसजोग हियै ढूकती कैय सकां। संग्रै मांय घणै सरल अर सीधै सबदां मांय जूण री अबखायां अर आंकी बांकी हुयोड़ी बातां समझ मांय आवै। लुगाई अर मिनख जूण-गाड़ी रा दोय पहिया मानीजै आं मांय समानता अर आपसी समझ घणी जरूरी हुवै। ‘म्हैं’ कविता नै अठै दाखलै रूप लेय सकां हां जिण मांय लुगाई जात रो मिनखां री दुनिया मांय छोटी हुय’र बरताव करणो बां नै लगोलग ओ भरम देय रैयो है कै बै उण सूं मोटा घणा मोटा हुयग्या है जद कै समझण री बात है कै असलियत दूजी हुया करै। आं कवितावां री मूळ संवेदना आ ई है कै आपां रै अठै लुगाई नै सगती रो रूप मानता रैया हां तो इण मानीजती बात बिचाळै झोळ कठै है कै समाज मांय उण री बेकदरी देखी जावै।
            संग्रै मांय घणी कवितावां है जिकी बांचता आपनै लागैला इण कविता रो जिकर म्हैं म्हारी बात लिखती वेळा क्यूं नीं करियो, अठै म्हारै लिखण री सींव रै कारण बै कवितावां छोड़णी पड़ी। सेवट मांय संग्रै री कविता ‘इणरौ मरणौ तै है’ री अै ओळ्यां आपरी निजर करता म्हैं म्हारी बात पूरी करूंला-
अै छोरियां जितरी हंसैला
उतरी ई हित्यारां री निजरां मांय आवैला
क्यूंकै हंसण रौ कानून संविधान मांय नीं है
अर संविधान री रक्सा रौ ठेकौ
इण दिनां में ले राख्यौ है ‘वै’
            ओ संग्रै जे आप अेकर बांच लेवो तो दीठ साम्हीं सांस लेवती अेक अदीठ दुनिया उजागर हुवैला। ओ आं कवितावां रो असर कैयो जावैला कै अेकर हाथ मांय लिया पछै आं सूं छूटणो का बचर निकळ जावणो आपां रै हाथ री बात नीं रैवै। मानीता बसंती पंवार जी नै मोकळा मोकळा रंग कै बां ओ जसजोग काम करियो।
            डॉ. नीरज दइया

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एक आंसु को भी देखने की क्षमता और तलाश की कविताएं/ डॉ. नीरज दइया

     स्त्रियों की कविता में ऐसा क्या होता है जो केवल उनकी ही कविताओं में होता है, इसके साथ समानांतर यह विचार किया जाना भी जरूरी प्रतीत होता है कि क्या स्त्री-पुरुष जैसा कोई भेद कविता में होना भी चाहिए? कविता को केवल कविता के रूप में देखने जाने का पक्षधर होते हुए भी मैं बहुधा पाता हूं कि कुछ कविताओं और संग्रहों में बारंबार जो दुनिया दिखाई देती है वह अहसास कराती है कि यह आंख किसी स्त्री-मन की कोमलता और दुख-दर्द को समाहित किए हुए है। अनेक रचनाओं में तो अनुभूति-पक्ष की भाषा से भी यह इंगित हो जाता है कि रचनाकार कवि है अथवा कवयित्री।
    दूसरा पक्ष यह भी है कि यदि कविता को स्त्री-पुरुष के दो समूहों में विभाजित कर देखा जाए तो गलत क्या है? वैसे कविता का इतिहास इस बात का गवाह है कि संख्यात्मक और गुणात्मक दोनों रूपों में देखेंगे तो दोनों पलड़ों में कभी समानता नहीं रही है। घर-परिवार की जिम्मेदारियों और अपने बंधनों में स्त्रियां पहले भी बंधी हुई थीं और अब जो सच्चाई है उससे हम मुंह कैसे मोड़ सकते हैं। यह अकारण नहीं है कि वर्ष 2022 में प्रकाशित कवयित्री ऋतु त्यागी के कविता संग्रह का नाम है- ‘मुझे पतंग हो जाना है’। वैसे ‘पंतग’ संज्ञा से आलोक धन्वा का स्मरण होना स्वाभाविक है क्योंकि उन्होंने इस बिंब और शीर्षक को अनेक कविताओं में प्रयुक्त किया है। अन्य कवियों ने भी पंतग को केंद्र बनाकर कविताएं लिखी हैं किंतु ऋतु त्यागी की इस शीर्षक कविता की आरंभिक पंक्तियां हैं-
    ‘स’ (स्त्री) ने कहा-
    ‘मुझे पतंग हो जाना है’
    ‘प’ (पुरुष) ने ‘स’ के
    होंठों का एक दीर्घ चुंबन लकर कहा-
    ‘डोर मेरी होगी प्रिय’
    ‘स’ की शर्त के काले बादलों में
    प्रेम की गहरी कौंध दिखी
    अब शुरू हुई उड़ान
    ‘स’ उड़ने लगी
    ऊंचे... और ऊंचे...
    आह...
    वह अब तक कहां थी? (पृष्ठ-15)
    संवाद और कथात्मकता से आरंभ हुई यह कविता बहुत कुछ कहती है। यदि कवयित्री ने स्त्री और पुरुष को कोष्ठक में लिखा नहीं होता तो भी यह आभास यहां मौजूद है। डोर से बंधी रहना क्या स्त्रियों की नियति है अथवा विवशता.... यहां हम कटी पतंग फिल्म का लता मंगेशकर द्वारा गाया प्रसिद्ध गीत याद कर सकते हैं- ना कोई उमंग है, ना कोई तरंग है, मेरी जिंदगी है क्या एक कटी पतंग है... निसंदेह यह प्रसंग और कहानी बहुत पुराने समय से चली आ रही है किंतु क्या इसका कोई हल अब तक निकल सका है? स्त्रियों की आजादी के संदर्भ में यह कविता पुनः पुनः एक बड़ा हस्तक्षेप करती है कि पुरुष डोर को छोड़ रहा था... छोड़ता जा रहा था... फिर सत्ता पक्ष द्वारा कसकर डोर का खींचे जाने से ‘स’ का फड़फड़ाना क्या है? क्या ‘स’ की नियति अब भी यह सब देखने रहने की है...? कविता की अंतिम पंक्तियां हैं- ‘अब वह डोर से कटकर हवा की नमी में/ घुल रही थी।’ यहां कवयित्री ऋतु त्यागी बेहद सरलता और सहजता के साथ बिना मुखर हुए जिस गंभीरता से इस प्रसंग में बहा ले जाती है वह इस विचार को जन्म देने के लिए पर्याप्त है कि हमारी इक्कीसवीं शताब्दी और बाराबरी की बातों का परिणाम अब तक भी किसी पुराने राग की भांति केवल बज रहा है।
      डॉ. ऋतु त्यागी का ‘मुझे पतंग हो जाना है’ तीसरा कविता संग्रह है, जो उनके- ‘कुछ लापता ख़्वाबों की वापसी’ (2018) और ‘समय की धुन पर’ (2019) कविता संग्रहों का विस्तार है। वर्तमान समय के जटिल दौर में जब व्यक्ति संवेदनहीन होता जा रहा है, भाषा से उसके अर्थ कूच करते चले जा रहे हैं, स्वार्थ, संशय और संदेह के बीच यदि यथार्थ के कठोर घरातल पर हमें हमारे लापता ख़्वाबों का पता मिल जाए या उनकी ख़्वाबों की वापसी का अहसास भी हो जाए तो कह सकते हैं कि संवेदनाओं की नदियों में प्रवाह की भरपूर संभावनाएं हैं। सूखती संवेदनाओं के बीच कविता के पास उसकी भाषा ही होती है जिसके द्वारा कोई रचनाकार लुप्त अथवा सुप्त होती संवेदनाओं को जगाता है। यह जागना-जगाना तब घनीभूत होता है जब कलम किसी स्त्री-मन का स्पर्श पाती है। मन तो मन होता है, मन के स्त्री-पुरुष आदि विभेद की कुछ सीमाएं हैं। यहां कहां जाना चाहिए कि इनको आलोचना ने अपनी सुविधा से निर्मित किया है।     
    अपने पहले ही संग्रह में कवयित्री डॉ. ऋतु त्यागी अपने कुछ लापता ‘ख़्वाबों’ की वापसी करती है वरन सच यह भी है कि यह कृति स्वयं उनकी साहित्य में वापसी का एक अध्याय है। करीब डेढ़ दशक से अधिक समय हुआ जब वे साहित्य में सक्रिय थीं और कहना होगा उनका युवा रचनाकार के रूप में सार्थक हस्तक्षेप रहा है। इस यात्रा के सतत न रहने अथवा होने के कुछ कारण इनकी कविताओं में भी देखे-समझे और सुने जा सकते हैं। तीनों ही संग्रह की कविताओं को देखेंगे तो कविताओं के साथ उनका रचनाकाल कहीं नहीं दिया गया है। ऐसे में इन कविताओं को कृतियों के प्रकाशन काल के पूर्व के किसी भी खंड से जोड़ते हुए देखा-परखा जाना चाहिए।
    ऋतु त्यागी के तीनों संग्रहों की कविताओं से गुजरते हुए हमें अनेक स्थल ऐसे मिलते हैं जहां हम थम से जाते हैं। इसे ऐसा भी कह सकते हैं कि उनकी अनुभूतियों के वितान में फिर फिर जाने का मन करता है। जो जीवन अथवा घटना-प्रसंग कविताओं में घटित होता हमें मिलता है वह जीवन हमें फिर फिर मोहित करने वाला है। यह त्यागी की कविताओं की विशेषता और विशिष्ठता भी है।
    पहले संग्रह की पहली और शीर्षक कविता ‘कुछ लापता ख़्वाबों की वापसी’ की इन पंक्तियों को देखें-
यदि बचपन सरपट रेलगाड़ी की तरह ना दौड़ता
तो हो सकता था
कि मेरे ख़्वाब लापता होने से बच जाते
पर बचपन में तो बचपना था
दौड़ पड़ा और हमें पटक दिया दुनियादारी की उम्र में
सो हम भूल गए कि हमने अपने ख़्वाबों से कुछ वायदे किए थे
पर वायदे तो जैसे काँच के थे
समय के साथ टूटकर गिरने लगे। (पृष्ठ-11)
    समय की गतिशीलता के साथ अनेकानेक परिवर्तनों का रेखांकन ऋतु त्यागी की कविताओं में मिलता है। इन कविताओं में बचपन से घर-गृहस्ती के बीच की विभिन्न स्मृतियों के गलियारों में उड़ान भराता एक निर्दोष मन है सर्वत्र व्यप्त है। कविताओं का विषय जीवन की सुकोमल भावनाओं, संवेदनाओं और आत्म को बचाने की यथार्थपरक चेतना का चित्रण करना प्रमुख रहा है। विभिन्न जीवनानुभूतियों-स्थितियों को उनके घरातल से उठाते हुए कवयित्री ने उन्हें नवीन बिंबों से शब्दबद्ध किया है। इन कविताओं के भाव से कहीं हमारे भीतर हलचल होती है। कहना होगा कि पहले संग्रह की कविताओं के माध्यम से ना केवल कवयित्री के कुछ लापता ख़्वाबों की ही वापसी होती है, वरन पाठकों के ख़्वाबों की भी वापसी के अनेक मार्ग नजर आते हैं।
    'फ़ुर्सत के लम्हों की रेसिपी' जैसी अनेक कविताओं में जिस अमूर्त को मूर्त में ढालते हुए कल्पनालोक में ले जाने का प्रयास है वह अपनी नवीनता के कारण तो प्रभावित करता है साथ ही पाठकों को एक अनजाने अनदेखे लोक में यात्रा का विकल्प भी देता है।
    घर-परिवार के अनेक संबंधों के बीच कवयित्री का मन एक लड़की से स्त्री की जीवन-संघर्षों उसकी यात्रा के भीतर की यात्रा के विविध अनुभवों-पड़ावों का निरूपण है। संग्रह की अनेक कविताओं में कथा के रास्ते से गुजरते हुए भी कवयित्री कविता को उसकी अपनी शर्तों पर संभव बनाती है। उदाहरण के लिए ‘मेरी उलझनों’ कविता देखें-
मेरी उलझनों
रूई के गोले सी हो जाओ
कोई हवा आए
तो तुम्हें उड़ा कर दूर ले जाए
या तुम मेरी आँखों की नींद बन जाओ
कोई रात आए
जो तुम्हें सुला कर दूर... निकल जाए।
हाँ! ऐसा भी हो सकता है
कि तुम मेरी हथेली पर
रेखा बनकर चिपक जाओ
जिसे मैं मिटाने की
ता-उम्र कोशिश करती रहूँ। (पृष्ठ-32)
    कोई रचना जब अनुभूति और विचार से जन्म लेती है तब वह आत्मा का गीत बन जाती है। इसमें सतत संघर्ष और जिस जीजीविषा के दर्शन होते हैं वे जनमानस को प्रेरित करते हैं।
मैं हमेशा जीना चाहती हूँ
या इस कोशिश में मरना
कि जिंदा रहने के मायने
किसी भी हर उस चीज से बड़े हैं
जो हर एक आदमी के सामने
एक शुत्र की तरह आकर खड़े हो जाते हैं। (पृष्ठ-106)
    जीवन अपने आप में एक ऐसा गणित है जिसे हर कोई समझने-समझाने का प्रयास कर रहा है या कहें कि करता रहा है और ऐसे प्रयास होते रहेंगे। ऋतु त्यागी की कविताएं जीवन की नितांत निजी अनुभूतियों के होते हुए भी अपने बिंबों-प्रतीकों के साहरे जीवन को पर्यावरण, परिवेश और देस-दुनिया की समग्रता से जोड़ती हुई जीवन की व्यापकता और विशालता का यशोगान करती हैं। कविता जीवन में हमारे संवादों, विचारों और गुप्त मंत्रणाओं में संभव होती हैं। बहुत सारी कविताओं को किसी व्यवस्था अथवा क्रम में बांधना उनकी क्षमताओं-सीमाओं को कम करना होता है। यहां एक नई काव्य-भाषा का निर्माण सुखद और सराहनीय कहा जा सकता है। उदाहरण के लिए कविता ‘सिसकती रातें’ देखें-
सिसकती रातों के सफर पर
निकलने से बचना
आँखें सूजकर गोलगप्पा हो जातीं हैं
और छाती धड़धडाती रेलगाड़ी
पलकों से बे-सब्र आशिक से
रिसते हैं आँसू
और कम-बख्त नींद
गिलहरी-सी
भाग जाती है सरपट। (पृष्ठ-12)
    यहां स्थितियों और अनुभूतियों का बिना किसी निष्कर्ष के कविता में प्रस्तुत करना और वह भी अपनी भाषा के प्रति सजगता-सावचेती के भाव से कि टटकापन निखर निखर जाता है। इसके बाद के कविता संग्रह- ‘समय की धुन पर’ (2019) नवीनता का अग्रह प्रभावित करने वाला है। विशेष यह कि कवयित्री ने कविताओं में जैसे काव्यमय गद्य संरचना को सिद्ध किया है। अंतिम अवरण पृष्ठ पर आत्मकथ्य की पंक्तियां देखें- ‘समय अपनी ही धुन पर नृत्यरत था जब मैंने थोड़ा ठिठककर अपने आसपास देखा। भीड़ का एक लंबा रेला, जिसमें कुछ परिचित तथा कुछ अपरिचित चेहरे नजर आए। अतीत के कुछ हिस्से भी मेरा साथ देने यहां तक चले आए थे। मैं समंदर सी भीड़ में खड़े होकर भी उसके हाहाकार से दूर एक ऐसी अंदरूनी यात्रा पर थी जहां मेरे साथ मेरा समय एक मीठी सी गंध और लहक के साथ मेरी हथेलियों में अपनी हथेलियां फंसाकर चल रहा था और मुझसे सटकर दुनिया की कुछ अनाम उदासी, नीला जादू, कांच की तरह टूटता-बिखरता मन और कुछ अनचीन्ही गंध भी साथ चल रही थी। इसी अंदरूनी यात्रा में डूबते उतरते जो नमी मैंने अपनी हथेलियों पर महसूस की उसी की बानगी मेरी रचनाओं में दर्ज है।’
    समय किसी को नहीं छोड़ता, सभी को नाच नचाता है और उसके-हमारे यानी सबके नाच में ही जीवन और जीवन की सार्थकता है। इनकी कविताओं में इसी जीवन दृष्टि का विस्तार है। कवयित्री जीवन के इस रहस्य को अपने अनुभवों से हासिल कर स्मित, आह्लाद, हर्ष, हंसी-खुशी को पाया है, जिसे वे अपने पाठकों से साझा करती हैं। संग्रह की कविताएं हमारी तय सुदा धारणाओं को ध्वस्त करती हुई एक स्त्री-मन की कविताओं को कविता के पूरे परिदृश्य में देखे-परखे जाने की मांग करती हैं।
    पूर्व की भांति यहां भी कविताओं में नवीन बिंबों की छटाएं सम्मोहित करती हैं, वहीं वे भाषा में एक नया मुहावरे को बुनती हुई जिस भांति एक अर्थ का वितान रचती हैं जिसमें बहु आयाम और अर्थ की छटाएं भी हैं। दूसरे संग्रह की पहली कविता- ‘बहुत वक्त घिसा है तुम पर’ की आरंभिक पंक्तियां देखें-
मैंने
बहुत वक्त घिसा है तुम पर
ठीक वैसे ही
जैसे कि एक गरीब घिसता है
धरती पर अपना तलुवा
चांद आकाश पर अपनी चांदनी
और नदी
समंदर में अपना समूचा अस्तित्व। (पृष्ठ-13)
    कविताओं में कवयित्री की निजता और अनुभवों की अभिव्यक्ति की भाषा पाठकों से एक रिश्ता बनाती है। दूसरे संग्रह की कविताओं में स्थितियों को लेकर व्यंग्य का स्वर भी प्रमुखता से देखा जा सकता है। ‘उंगुली का इशारा’ कविता की पंक्तियां देखें-
कभी कभी किसी की
एक उंगुली का इशारा भी
खोल देता है जेहन का ताला

पर दुनिया की बहुत-सी
इशारा करने में पारंगत
उंगुलियों को
इसलिए तोड़ दिया जाता है

क्योंकि हर ताकतवर उंगली
अपने इशारों पर
दुनिया को चलाने की
बे-वजह-सी हसरत पाले है। (पृष्ठ-21)
    इन कविताओं में कहन की सादगी-सरलता और मार्मिकता उन्हें अपने समकालीन कवियों से अलग और विशिष्ट बनाती हैं। जैसे- ‘तारीफ का अखबार’ में वे लिखती हैं-
उसके
कान की खिड़की पर
तारीफ का अखबार फेंककर
वह मुस्कुरा दिया।

मुमकिन है अब
टूटी हुई बात का बनना। (पृष्ठ-28)
    ऋतु त्यागी की इन कविताओं में उनका मन, घर-परिवार, स्कूल, बच्चे, समाज, देश-दुनिया और बदलते घटनाक्रम के साथ कल्पनाओं का एक ऐसा संसार है जिसमें वे इस पूरी दुनिया को अपनी नजर से देखना-दिखाना चाहती हैं। उनकी मानवीय संवेदनाओं में प्रेम एक स्थाई घटक है जो मोह और निर्मोह रूपी दो छोर बिंदुओं के मध्य जैसे नृत्य करता है। यहां उनकी मौलिकता स्वयं को समय के भीतर रखते हुए देखे गए दृश्यों को नए ढंग से देखने में भी सिद्ध होती है। जैसे उदाहरण के लिए ‘सुबह’ शीर्षक से इस छोटी-सी कविता को देखिए-
आकाश के सीने पर
सूरज ने लिखा

‘सुबह’
तभी रात
अचानक फिसलकर
नदी में गिर गई। (पृष्ठ-70)
    दूसरे संग्रह की कविताएं दो खंड़ों- ‘मैं समय के भीतर’ और ‘हम स्त्रियां’ में विभक्त हैं। यहां स्त्री किसी रूढ़ या परंपरावादी स्वरूप में नहीं वरन वह आज के समय-संदर्भों के साथ-साथ चलने वाली है। और कहें तो मन में समय को भी पीछे छोड़ने का हौसला-हिम्मत लिए हुए स्त्री का वजूद यहां है। समाजिक रीति-रिवाज, मर्यादाओं का अपना महत्त्व है किंतु यहां उन्हें किसी बंधन या रूढ़ी की बजाय आधुनिकता के साथ विकसित और परिष्कृत रूप में सम्मान दिया गया है। ‘दुखी लड़का’ कविता देखिए-
लड़का दुखी था
प्रेम की गहरी खाई में कूदने वाली लड़कियां
अब नहीं मिलती।

प्रेम की कसमों को अपने संदूक में छिपा कर
रखने वाली लड़कियां भी अब नहीं मिलती।

लड़का शायद नहीं जानता
कि लड़कियां समझ गईं है रिश्तों का गणित
बाजार के गणित से अलग नहीं होता। (पृष्ठ-86)
    इसी भांति ‘समय’ कविता में वे बाजार और समय के गणित को समझती-समझाती बहुत कुछ कहती हैं-
समय उसके सामने
महीन तार पर झूल रहा था।

वह उसे रोज देखती
और सोचती कहां जाएगा ये?
मेरा ही तो है
उतार लूंगी एक दिन

पर आज
महीन तार टूट गया

नीचे उसका समय घायल पड़ा था। (पृष्ठ-101)
    इन कविताओं में एक नया स्वर है जो निश्चय ही समकालीन स्त्री कविता की उपलब्धि कहा जाएगा। ऋतु की कविताएं जीवन के सुखों के साथ दुख के एक एक आंसु को भी देखने की क्षमता और तलाश की कविताएं हैं। अपने समय के अनेक संदर्भों को समेटती और हमें समय के महत्त्व में परिवृत्त को दिखाती इन कविताओं में उन स्त्रियों के जीवन को गहराई से रेखांकित किया है जो परस्पर कपड़ों, रिश्तों, शारीरिक बुनावट आदि अनेक विषयों पर बेखोफ चर्चाएं करती हैं और वे इन चर्चाओं में भूल जाती है कि उन सबके गाल पर तिल-सा चिपका है एक आंसु। ऋतु त्यागी की इन कविताओं में जीवन की तमाम ताम-झाम के बीच एक आंसु को भी देखने की क्षमता और तलाश कर उसे रेखांकित किए जाने की योग्यता है। दूसरे संग्रह की कविताओं के विषय में कवि मायामृग अपनी टिप्पणी में लिखते हैं- ‘समय की पहचान है इसमें, पढ़ लीजिए, ये कविताएं समय की धुन पर हैं और समय के साथ चलते हुए सामने देखने की नजर देती हैं।’ ऋतु त्यागी की कविताओं में शीर्षकों को देखेंगे अथवा कविताओं की भाषा में छुपी किसी भी कहानी को तो लगेगा कि यहां किसी प्रकार का समझौता अथवा बन बनाए मानदंडों को निभाने का रिवाज नहीं के बराबर है। वे जिस सहजता और सरलता से जिस नवीनता को प्रस्तुत करती है वह नया है, अन्यों से भिन्न है। यही कारण है कि तीसरे संग्रह में कवि अरुण शीतांश ने लिखा है- ‘यहां बावजूद इतने कविता संग्रहों की बाढ़ में ऋतु की कविताएं तमाम कविताओं से बिल्कुल अलग तरीके से आईडेंटिफाई की जाएगी जो समाज की बेहतरी की शनाख्त करेंगे। ऐसे में दूसरे कवि भी अपने में एक फितरत पैदा करेंगे कि इनके बनिस्बत लिखें।’                
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