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राजस्थानी कविता यात्रा : एक परिचय

 

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प्रकाश मनु के सात रोचक बाल उपन्यास/ डॉ. नीरज दइया

 

प्रकाश मनु के सात रोचक बाल उपन्यास

डॉ. नीरज दइया

 

            बाल साहित्य में प्रकाश मनु चर्चित नाम है। आपने साहित्य की विविध विधाओं में लेखन किया है किंतु विशेष ख्याति आपको बालसाहित्यकार के रूप में मिली है। इसके अनेक कारणों में पहला कारण बच्चों की लोकप्रिय पत्रिका ‘नंदन’ के संपादन से पच्चीस वर्षों तक जुड़े रहना और दूसरा कारण आपके नाम साहित्य अकादेमी नई दिल्ली का प्रथम बाल साहित्य पुरस्कार होना कहे जाते हैं। किंतु इनसे भी बड़ा कारण है आपका सतत लेखन और बाल साहित्य के प्रति समर्पण। आपने बाल साहित्य के विकास को ध्यान में रखते हुए बाल कहानियां, बाल उपन्यास, बाल नाटक और बाल कविताओं के साथ ही बाल साहित्य को केंद्र में रखते हुए महत्त्वपूर्ण आलोचनात्मक कार्य भी किया है। ‘हिंदी बाल साहित्य का इतिहास’ और ‘हिंदी बाल साहित्य नई चुनौतियां और संभावनाएं’ आपकी प्रमुख आलोचनात्मक पुस्तकें है। बाल साहित्य के विशद लेखन के बाद आपकी रचनाओं पर केंद्रित अनेक बड़े संकलन भी प्रकाशित हुए हैं। यथा- ‘चार बाल उपन्यास’, ‘बच्चों के तीन उपन्यास’, ‘मेरी संपूर्ण बाल कविताएं’, ‘बच्चों की एक सौ एक कविताएं’, ‘प्रकाश मनु की सौ श्रेष्ठ बाल कविताएं’, ‘चुनमुन के नन्हे-मुन्ने गीत’, ‘बच्चों की अनोखी हास्य कविताएं’, ‘प्रकाश मनु की लोकप्रिय कहानियां’, ‘बच्चों की सदाबाहर कहानियां’, ‘बच्चों को सीख देने वाली इक्यावन कहानियां’, ‘इक्कीसवीं सदी के बाल नाटक’, ‘इक्कीसवीं सदी की श्रेष्ठ बाल कहानियां’, ‘मेरी प्रिय बाल कहानियां’, ‘बच्चों की इक्यावन हास्य कथाएं’, और ‘बच्चों को सीख देते अनोखे नाटक’ आदि-आदि। आपने पौराणिक कहानियों और बाल साहित्य के लिए अनेक घटकों पर विशद कार्य किया है इसी क्रम में डायमंड बुक्स द्वारा प्रकाशित ‘बच्चों के सात रोचक उपन्यास’ वर्ष 2024 में प्रकाशित हुआ है। इस संकलन में आपके पूर्व प्रकाशित सात रोचक उपन्यास संकलित हैं- जिसमें साहित्य अकादेमी के बाल साहित्य पुरस्कार से सम्मानित उपन्यास ‘एक था ठुनठुनिया’ भी शामिल है। प्रकाशक ने पुस्तक के आवरण पर इसका उल्लेख भी किया है। इसमें शामिल अन्य उपन्यास हैं- ‘नन्हीं गोगो के अजीब कारनामे’, ‘सब्जियों का मेला’, ‘फागुन गांव की परी’, ‘सांताक्लाज का पिटारा’, ‘दुनिया का सबसे अनोखा चोर’ और ‘किरनापुर का शहीद मेला’। साथ ही इस संकलन में पंद्रह पृष्ठों की विशद भूमिका में प्रकाश मनु ने अपनी रचना यात्रा और संकलित उपन्यासों की पृष्ठभूमि के साथ कथानकों पर प्रकाश डाला है। यहां यह भी उल्लेख किया जाना चाहिए कि आपकी पूर्व प्रकाशित कृति ‘चार बाल उपन्यास’ में भी ‘सांताक्लाज का पिटारा’ बाल उपन्यास को शामिल किया गया था और वह इसमें भी है। यह कृति प्रकाश मनु ने ‘बाल साहित्य में अपने ढंग के निराले लेखक देवेंद्रकुमार जी को, जिन्होंने बड़ों के साथ-साथ बच्चों के लिए भी एक से एक लाजवाब कहानियां और उपन्यास लिखें, बड़े आदर के साथ’ समर्पित की है।    

            प्रकाश मनु बच्चों के सुविख्यात कथाकार हैं और बच्चे, किशोर, बड़े-बूढ़े भी आपकी रचनाओं को खूब रस ले-लेकर पढ़ने, सराहने के साथ ही जीवन के लिए बहुत कुछ सीखते हैं। निसंदेह बाल साहित्य लेखन में यह बड़ी चुनौती रहती है कि वह पठनीय हो और भाषा के स्तर पर विशेष ध्यान रखा जाए। ऐसा गद्य जिसे पढ़कर बच्चे रोमांचित हो, उनका मनोरंजन हो और सोचकता के साथ साथ वे पढ़ने के खेल में कुछ सीख भी सकें। उत्सुकता और कौतुकपूर्ण बाल रचनाएं बच्चों को आकर्षित करती हैं। स्वयं प्रकाश मनु का मानना है- ‘बच्चों और बचपन को पूरी निश्छलता के साथ प्यार किए बिना आप बच्चों के लिए कुछ भी लिख नहीं सकते।’ वे वर्षों से सक्रिय हैं और लेखन के आरंभिक काल से ही बाल मनोविज्ञान के गहरे अध्येता रहे हैं। वे जानते हैं कि बच्चों को कैसे लुभाना है। यही कारण है कि उनकी रचनाओं में प्रयोग के साथ भाषा की कलात्मकता देखी जा सकती है।

            सद्य प्रकाशित संकलन की भूमिका को आपने शीर्षक दिया है- ‘मेरे बाल उपन्यासों में भोला और नटखट बचपन झांक रहा है....’ संभवतः प्रत्येक बाल रचना में बचपन को झांकना जरूरी होता है। इसी सूत्र से रचनाएं बाल पाठकों को प्रिय होती हैं। उन्हें लगाता है कि किताब में चित्रित दुनिया उनकी अपनी दुनिया है। इस संकलन में संकलित पहला बाल उपन्यास उनका चर्चित उपन्यास ‘एक था ठुनठुनिया’ है, जिसमें नायक का नाम ‘ठुनठुनिया’ प्रभावित करने वाला है। इस उपन्यास की विशेषता है कि इसे छोटे-छोटे छब्बीस अध्यायों के रूप में बुना गया है और प्रत्येक अध्याय की अपनी कहानी स्वतंत्र होते हुए भी व्यापक रूप में एक औपन्यासिक कोलाज निर्मित करती है। प्रकाश मनु अपनी रचनाओं में साहित्य की परंपरा से खुद को जोड़ने हुए आधुनिकता को अंगीकार करने वाले रचनाकार हैं। वे लोक-साहित्य से भी अपनी रचनाओं को समृद्ध करते रहे हैं। राजस्थानी में ‘झिंतरियो’ और ‘झिंडियो’ नाम को दो बाल पात्र लोक साहित्य में हैं जो नानी के घर जाते समय जंगली जानवरों से संवाद करते हैं। सभी से एक ही कौल ‘नानी रै घर जावण दे, मोटो-ताजो हुय’र आवण दे, पाछो घिरतै नै खा लियै।’ और बाद में नानी के घर से ढोलकी में बैठ कर वह सब को गच्चा देता प्रस्थान करता है- ‘चल मेरी ढोलकी ढमाक ढम’। यहां इसे उल्लेखित करने का कारण यह है कि ठुनठुनिया असल में उसी झिंडिये की पृष्ठभूमि से विकसित मुझे उसका आधुनिक रूप लगता है। वह और यह दोनों ही जीवन-संघर्षों में अपनी अदम्य शक्ति और बल से आगे बढ़ते हैं। इसी भांति इस बाल उपन्यास के दूसरे अध्याय ‘मेले में हाथी’ में हमें वह बालक स्मरण हो आता है जो राजा को नंगा बोलने का साहस दर्शाता है तो तीसरे अध्याय ‘आह रे मालपूए’ में भी उसकी स्मरण शक्ति और मालपुए के नाम बदलने की कथा में पुरानी लोक कथा झांकती नजर आती हैं। आगे की कथाओं में भी ऐसे अनेक घटक शामिल हैं जैसे बांसुरी बजाना अथवा भालू का मुखौटा पहन कर लोगों को डराना आदि कहीं-कहीं किसी अन्य घटना अथवा रचना से प्रेरित-प्रभावित हैं। ये शैल्पिक प्रयोग और लोक-साहित्य के प्रभाव उपन्यास की रोचकता में वृद्धि करने वाले हैं।  

            ठुनठुनिया के परिवार की आर्थिक दशा ठीक नहीं हैं। उसके पिता नहीं है और मां बहुत गरीबी में उसे पाल-पोस रही है। बच्चे को घर की परेशानियों के क्या मतलब। वह तो उम्मीद का दामन थामे मस्ती भरा जीवन जीना चाहता है और जीता है। लेखक ने ठुनठुनिये को बड़ा खुशमिजाज, हरफनमौला और हाजिरजवाब चित्रित किया है और उसकी बड़ी से बड़ी मुश्किलों के बीच ऐसे रास्ते निकाल आते हैं कि वह आगे बढ़ता चला जाता है। वह पढ़ाई लिखाई में कम और हाथ के हुनर सीखने में अधिक रुचि प्रदर्शित करता है। उसे किताबी पढ़ाई के स्थान पर जिंदगी को अपने ही ढंग से जीने में आनंद आता है। वह रग्घू चाचा के पास जाकर खिलौने बनाना सीखता है तो कभी कठपुतलियां बनाने का काम करता है और बाद में कठपुतलियों को नचाने का काम शुरू कर देता है। उसके शो के दौरान उसे मास्टर अयोध्या बाबू मिलते हैं जो बताते हैं कि मां बीमारी है और ठुनठुनिया सब कुछ छोड़-छाड़ कर घर की ओर दौड़ पड़ता है।

            पढ़ाई के साथ-साथ हाथ का हुनर सीखना और कोई काम छोटा बड़ा नहीं होता है इस बात को लेखक प्रकाश मनु ठुनठुनिया के माध्यम से बाल पाठकों में मध्य इस उपन्यास से प्रतिस्थापित करते हैं। इस उपन्यास में मां के पास धन का अभाव आरंभ में प्रदशित किया गया है किंतु बाद में ठुनठुनिया पर वह बड़ा खर्च करने में सक्षम दिखाई जाती है।

            ‘एक दिन ठुनठुनिया दौड़ा-दौड़ा घर गया। मां से बोला- मां-मां, एक इकन्नी तो देना। कंचे लेने हैं।

            गोमती दुखी होकर बोली- ‘बेटा, आज तो घर में बिल्कुल पैसे नहीं है। वैसे तो तेरे सारे शौक पूरे हों, इतने पैसे हमारे पास कहां हैं। बस, किसी तरह गुजारा चलता रहे, इतना-भर ही मेरे पास है। आगे तू बड़ा होकर कमाने लगेगा तो...। कहते-कहते मां की आंखें गीली हो गई।

            - नहीं मां, नहीं। एक इकन्नी तो आज मुझे दे दे, फिर नहीं मांगूगा। ठुनठुनिया के जिद करते हुए कहा।

            गोमती के पास उस समय मुश्किल से कुछ आने बचे थे। सोच रही है कि वह पैसा घर की जरूरतों के लिए बचाकर रखा जाए। उसी से निकालकर गोमती ने इकन्नी दी, तो ठुनठुनिया उसी समय भागा और इकन्नी के आठ नए-नकोर कंचे खरीद लाया।’ (पृष्ठ-40)

            यह वही ठुनठुनिया है जिसमें अध्याय दो में मेले में मां के साथ घूमते हुए दस रुपए की मलाई वाली कुल्फी खाई, दो बार चरखी वाला झूला झूला और फिर मां के साथ पीं-पीं बाजा और गुब्बारे लेकर लौटा था। साथ ही उसके साथ जो उसकी मां है वह अध्याय दस में ठुनठुनिया के लिए स्कूल में फीस के पूरे साढ़े पांच रुपये जमा करती है और उसे नई किताबें, कॉपियां, बस्ता खरीद कर देती है। सवाल बालकों के मन में भले उठे ना उठे किंतु लेखक के मन में क्यों नहीं उठा कि रुपयों-पैसों की इस दुनिया में ठुनठुनिया को एक इकन्नी के लिए अध्याय सात में तरसाया क्यों गया है? यहां उपन्यास के कालखंड को लेकर यह भी कहा जा सकता है कि यह कैसी दुनिया है जहां एक इकन्नी में आठ नए-नकोर कंचे मिलते हैं वहीं दस रुपये में मलाई वाली कुल्फी और पूरे साढ़े पांच रुपये में स्कूल में दाखिला मिलता है। अब तो निःशुक्ल शिक्षा देने का समय चल रहा है।

            बाल साहित्य की रचनाओं में कल्पना और संयोग का बड़ा महत्त्व होता है इसलिए यह भी कहा जा सकता है कि सपनों की दुनिया में लेखक कुछ भी दिखा सकता है। यह भी सत्य है कि बच्चों के सामने जीवन के जटिल यथार्थ को प्रस्तुत करते हुए उनके विकास और कल्पनाओं को बाधित नहीं किया जाना चाहिए। इस खूबसूरत दुनिया में कुछ भी हो सकता है अथवा कहें कि लेखक कुछ भी घटित होता हुआ दिखा सकता है। बच्चे भोले हैं नासमझ और नादान है। किंतु क्या हमारे समय और समाज में बच्चे वे पुराने वाले भोले बच्चे अब भी बचे हुए हैं क्या? बच्चे बहुत कुछ जानते हैं और वे इतना जानते हैं कि बड़े भी नहीं जानते हैं। वे अपने आधुनिक समय में तकनीक के द्वारा इतने आगे बढ़ चुके हैं कि उनके पास बहुत सारे रास्ते हैं। दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुनने वाले बच्चे अब नहीं रहे हैं, और तो और अब ऐसे दादा-दादी और नाना-नानी भी नहीं रहे हैं। अब बच्चे कार्टून और एनिमेशन वीडियो की दुनिया में प्रवेश के बाद ज्ञान-विज्ञान के अनेक साधनों से जुड़ गए हैं। उनमें बड़ा बदलाव आ चुका है ऐसे में बाल साहित्य के सामने अनेक नई चुनौतियां भी निसंदेह सामने है।

            इस कृति के दूसरे बाल उपन्यास ‘नन्ही गोगो के अजीब कारनामें’ में एक छोटी, बहुत छोटी-सी बच्ची गोगो और उसकी दुनिया है। इस बालिका का देश और दुनिया को देखने का अपना नजरिया है। यहां इस दुनिया के यथार्थ के साथ-साथ गोगो की एक काल्पनिक दुनिया भी चलती है। वह दोनों जगहों पर अपने कारनामों से हिम्मत और हौसला दर्शाती हुई नई-नई बातें और जानकारियां देती हैं। प्रकाश मनु की भाषा शैली में प्रवाह है जिससे इस बाल उपन्यास में एक के बाद दूसरे घटना क्रम को जोड़ते हुए पहले बाल उपन्यास की भांति कोलाज निर्मित होता है। इन सभी बाल उपन्यासों में एक उल्लेखनीय घटक छोटी-छोटी काव्यात्मक बाननियां भी हैं। समग्रता से विचार करें तो बाल उपन्यास के बीच इस प्रकार की काव्य-रचनाओं में पाठक अधिक रस नहीं लेता है। इनका ध्वन्यात्मक प्रभाव अथवा गेयता में संदेह नहीं है किंतु गद्य का पाठक किसी भी कथा में आगे क्या हुआ जानने को उत्सुक रहता है इसलिए इनको पढ़ने में छोड़ता भी चले तो मूल कथा में कोई अंतर नहीं आता है। गद्य और पद्य के समानांतर पहले चंपू भी विधा के रूप में प्रचलित रहा है। किसी गद्य रचना में पद्य रचनाओं की अधिकता से वह गद्य गद्य नहीं चंपू कहलाता है और वर्तमान में चंपू का प्रचलन नहीं है। अब ठुनठुनिया के विषय में इन पंक्तियों पर विचार करें-

भालू रे भालू!

अम्मां, मैं तेरा भालू!

अभी-अभी चलकर जंगल से आया भालू,

ला खिला दे, ला खिला दे, दो-चार आलू!

अम्मां, मैं नहीं टालू,

अम्मां, मैं नहीं कालू,

अम्मां, मैं तेरा भालू...!

अथवा

ठुनठुनिया जी, ठुनठुनिया,

हां जी, हां जी... ठुनठुनिया,

ठुन-ठुन, ठुन-ठुन ठुनठुनिया,

ठिन-ठिन, ठिन-ठिन ठुनठुनिया,

देखो, मैं हूं ठुनठुनिया!

हां जी, हां जी... ठुनठुनिया!

            मेरा मानना है कि प्रिय ठुनठुनिया को प्रकाश मनु जी केवल बड़े मजे से कलामुंडियां खाने देते तो बेहतर था किंतु वे उसे खाते हुए जोर जोर से गाने का कार्य देते हुए मूल कथा को आगे या पीछे नहीं ले जा रहे हैं। सांताक्लॉज का पिटारा और अन्य बाल उपन्यासों में प्रयुक्त काव्यात्मक गीति अंशों के विषय में भी मेरा विनम्र मानना है कि यह फिल्मी अंदाज बच्चों को गद्य के बीच काव्य के कारण पाठ में कूदने फांदने को ही बाध्य करता है। हां यदि इनका नाट्य रूपांतरण किया गया और मंचन में ऐसे काव्यात्मक अंश हो तो अवश्य वे संगीत और वादन-यंत्रों के सहयोग से बेहद प्रभावशाली हो सकते हैं।

            इसके साथ ही बालसाहित्यकार के सामने यह भी चुनौती है कि वह किस आयु वर्ग के लिए लिख रहा है। ऐसा कुछ इन सात बाल उपन्यासों के संदर्भ में कहीं निर्धारित नहीं है। बाल उपन्यास में शब्द-सीमा अन्य रचनाओं की तुलना में अधिक होती है तो उसे पढ़ने वाले पाठक भी बहुत छोटे-छोटे नर्सरी राइम वाले तो होगे नहीं। मैं मानता हूं कि अब भी ‘बा-बा ब्लेक शीप’ वाला दौर गया नहीं है किंतु यह सब छोटे बच्चों के लिए है। उनके लिए जो पढ़ने के रास्ते से अभी-अभी जुड़े हैं, ऐसे बच्चों को इन बाल उपन्यास का पाठक नहीं कहा जा सकता है।

            हास्य-विनोद और कौतुक से भरपूर ‘सब्जियों का मेला’ बाल उपन्यास अजीब और निराला लगेगा है। सब्जियों का मानवीकरण करना निसंदेह बच्चों को नवीन कल्पनाशीलता सौंपना है। सब्जियां भी हमारी दुनिया की भांति समानांतर अपनी दुनिया रखती है। वे भी बिल्कुल मनुष्यों की तरह ही बोलती-बतियाती हैं और उनका पूरा जीता-जागता संसार इस उपन्यास के माध्यम से सामने आता है। नाम बड़े रोचक बन पड़े हैं और इन नामों के माध्यम से लिंग भेद की अच्छी जानकारी अप्रत्यक्ष रूप से बच्चों को होती है।  

            ‘फागुन गांव में आई परी’ को यहां बाल उपन्यास के रूप में शामिल किया गया है और इसी नाम से एक रचना स्वयं प्रकाश मनु ने संपादक के रूप में ‘श्रेष्ठ बाल कहानियां’ (भाग-2) प्रकाशन वर्ष 2023 में शामिल की है। यह एक रोचक फंतासी विधा के स्तर पर उपन्यास है अथवा कहानी है। क्या किसी कहानी को रचना का विकास करते हुए उपन्यास का रूप दिया जा सकता है? अथवा किसी उपन्यास को काट छांट कर कहानी का रूप दे सकते हैं क्या? यह किसी रचना के प्रति लेखकीय ईमानदारी भी है कि उसके विधा रूप को स्पष्ट किया गया। प्रकाश मनु ने लेखकीय ईमानदारी का परिचय देते हुए इस पुस्तक की भूमिका में इस संबंध में लिखा भी है- ‘मेरा यह बाल उपन्यास थोड़े संक्षिप्त रूप में बाल साहित्य की बहुचर्चित पत्रिका बालवाटिका में छपा था, तो इस पर पाठकों के फोन और चिट्ठियों की जैसे बारिश आ गई।’

            किसी बाल उपन्यास को लेखक अपनी इच्छा से संक्षिप्त कर सकता है उसे श्रेष्ठ बाल कहानी के रूप में भी प्रकाशित कर सकता है और तो और अपनी भूमिका में उसका सार भी बच्चों बड़ों को बता सकता है। क्या यह सभी बातें सही है? मुझे लगता है कि रचना को बड़े धैर्य और धीरज से लिखा जाना चाहिए और यदि वह कहानी है तो कहानी है और बाल उपन्यास है तो वह बाल उपन्यास है। इस प्रकार विधाओं में आवाजाही आलोचना और मूल्यांकन को प्रभावित करती है। रचना में वे कौनसे घटक है जिनको जोड़कर हम किसी कहानी को उपन्यास का रूप दे सकते हैं। कथा-तत्वों की बात करें तो काफी समानता के बाद भी कोई रचना और उसका आवेग स्वयं निर्धारित करता है कि वह कहानी के रूप में जन्म लेती है अथवा उपन्यास के रूप में। विभिन्न कहानियों का कोई कोलाज जोड़ते हुए उसे बाल उपन्यास का रूप दिया जा सकता है और ऐसा प्रकाश मनु ने किया भी है। किसी पात्र और घटनाओं के शृंखलाबद्ध लेखन का भी प्रचलन रहा है और अनेक रचनाओं को अनेक भागों में लिखा भी गया है। एक कहानी से दूसरी और दूसरी से तीसरी का निकलना आगे से आगे चलना हमारी भारतीय कथा-परंपरा में है भी। यहां भी यह शोध खोज का विषय है कि वरिष्ठ बाल साहित्यकार प्रकाश मनु ‘फागुन गांव में आई परी’ के बाल कहानी और बाल उपन्यास में क्या-क्या, कहां-कहां और कितना-कितना परिवर्तन परिवर्द्धन कैसे-कैसे करते हैं।

            इस उपन्यास में परी जो विशुद्ध काल्पनिक है को वास्तविक दुनिया में उतरने का अभिप्राय दो दुनिया को जोड़ना है। स्वयं लेखक ने इस संबंध में लिखा भी  है- ‘मैं अपनी इस कथाकृति के जरिए बताना चाहता हूं कि देखो भाई, बदले हुए जमाने की परियां भी कितनी बदल गई है, और परीकथाएं भी। पर उन्हें देखने का हमारा नजरिया आज भी पिछड़ा हुआ है। मेरा मानना है कि हम नए जमाने की नई परीकथाएं लिखें, तो उसमें बहुत कुछ नया होगा, और वे बच्चों के दिल पर कहीं ज्यादा असर छोड़ेंगी।’ इस बाल उपन्यास में ग्रामीण जीवन के यथार्थ से परी को जोड़ते हुए यहां गांव के सीधे-सरल लोग, उनका निश्छल प्रेम और मेहनत-सच्चाई का आदर्श प्रस्तुत किया गया है। यह ऐसा आदर्श है जो परियों को भी लुभाता है।

            ‘सांताक्लाज का पिटारा’ बेहद रोमांचक और कौतुक पूर्ण बाल उपन्यास है। इसमें बच्चों से खुद उनका प्यारा दोस्त बनकर सांता मिलता है। उनकी समस्याओं और जरूरतों को जानने समझने के साथ ही उनके निदान के लिए भी वह जुट जाता है। हर साल क्रिसमस पर लाखों बच्चों को वह चुपके से सुंदर, रंग-बिरंगे उपहार दे जाता है। इस बाल उपन्यास में आरंभ से लेकर अंत तक, कठोर जीवन के सत्यों को बातों बातों में किस्से-कहानियों की शक्ल में बुना गया है। सांता दुनिया में खुशियां बांटते हुए बच्चों में एक दूसरे से तुलना का भाव जगाता हुआ हमें जीवन संघर्ष के लिए प्रेरित करता है। अनेक बच्चों को यह महसूस करता है कि उनकी मुश्किलें तो कुछ नहीं है।

            बकौल लेखक इस पुस्तक में दो एकदम नए बाल उपन्यास शामिल हैं- ‘दुनिया का सबसे अनोखा चोर’ और ‘हिरनापुर का शहीद मेला’। इनमें ‘दुनिया का सबसे अनोखा चोर’ में एक जीनियस चोर के अजीबोगरीब चरित्र को उजागर करने के प्रयासों के साथ ही उसके विचित्र कारनामों की किस्से हैं वहीं उसके लिए एक छोटा जीनियस बाल पात्र के रूप में प्रस्तुत किया है। चोर ने एक ऐसा सुपर कंप्यूटर बना लिया है, जिसके जरिए वह किसी भी आदमी के मन को काबू करके, अपने ढंग से चला सकता है। वह चोर लोगों को वश में कर उनके दिमाग पढ़कर बड़े आराम से बड़ी चोरियों के कारनामे करता और अंत में सहासी बाल कहानियों की भांति नायक उसे उसके घर में घुसकर अपने तरीके से पकड़ लेता है। वहीं छोटे से बाल उपन्यास ‘हिरनापुर का शहीद मेला’ में देश प्रेम की भावना से ओतप्रोत कथा है। देश के लिए कुछ कर गुजरने की भावनाओं के लिए ऐसी प्रेरणास्पद रचनाओं का अपना महत्त्व होता है।  

            प्रकाश मनु का मानना है कि बच्चों या बड़ों के लिए लिखने में उन्हें कोई फर्क नजर नहीं आता। ऐसा वे अपनी निजी रचनात्मकता के सिलसिले में कहते हैं कि दोनों ही अवस्थाओं में लेखक के भीतर दबाव या तनाव में कोई अंतर नहीं होता। यह बाल साहित्य के प्रति रागात्मकता से जुड़ने की अवस्था है। बच्चों के लिए लिखना बड़ों के लिए लिखने से भी अधिक चुनौतीपूर्ण है ऐसा नहीं है कि बच्चों के लिए लिखना है तो जो मर्जी आए लिख दिया जाए। प्रकाश मनु अपने रचनात्मक अनुभव को साझा करते यह भी लिखते हैं कि उन्हें बाल साहित्य लिखते हुए पचास बरस से अधिक समय हो गया है किंतु अब भी जब वे किसी नई रचना को शुरू करते हैं तो उन्हें प्रतीत होता है कि जैसे वे पहली बार हाथ में कलम पकड़ रहे हैं और जब तक रचना पूरी हो कर आनंद के क्षणों तक नहीं पहुँचती, वे निरंतर उसके प्रति श्रम से निष्ठावान रहते हुए उत्साहित रहते हैं। आत्ममूल्यांनक के बाद ही वे रचना को प्रकाशित कराते हैं। यह उनका बाल साहित्य के प्रति अतिरिक्त लगाव है कि वे इस अवस्था में भी रत्ती भर दंभ नहीं करते हैं और सतत रूप से सक्रिय रहते हैं। वे बच्चों के लिए लिखने की अपार ऊर्जा और आनंद को बच्चों और बचपन को पूरी निश्छलता के साथ प्यार करते हुए पाते हैं। कामना है कि वे सतत सक्रिय रहते हुए बाल साहित्य की श्रीवृद्धि करते रहेंगे।  

    

डॉ. नीरज दइया,

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कृति :  बच्चों के सात रोचक उपन्यास  (बाल उपन्यास संग्रह) 

लेखक : प्रकाश मनु

प्रकाशक : डायमंड बुक्स, नई दिल्ली 

 पृष्ठ : 316 ; मूल्य : 300/- ; पहला संस्करण : 2024

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‘साँप’ प्रेम की एक अबूझ पहेली/ डॉ. नीरज दइया

        आज दौड़-भाग की जिंदगी में जहाँ साहित्य पर समय का संकट मंडरा रहा है, वहीं अभिव्यक्ति के माध्यमों में वृद्धि हुई है। ऐसे में किसी भी रचना के लिए सबसे बड़ी चुनौती पठनीयता है। पाठ की संरचना में रचनाकार ऐसा क्या कर सकता है कि पाठक व्यापक फलक की रचनाओं में प्रवेश कर उसे पूरा पढ़ जाए। साहित्य में ऐसी अनेक रचनाएँ और रचनाकार हैं, जिनके लिए कहा जाता है कि उनके पास जादुई भाषा-शैली है। ऐसी ही जादुई भाषा-शैली के उपन्यासकार रत्नकुमार सांभरिया हैं, जिनका 424 पृष्ठों का वृहद उपन्यास साँपबेहद लोकप्रिय रहा है। हरियाणा और राजस्थान के अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कारों से इसे सम्मानित किया गया है। हमारे समाज में पुरस्कार-सम्मान किसी रचना को आकर्षण के केंद्र में लाते हैं, वहीं स्वयं रचना में भी ऐसे अनेक घटक होते हैं जिससे वह अपने पाठकों का विश्वास अर्जित करती है। हमें विचार करना चाहिए कि साँपएक ऐसा उपन्यास क्यों और कैसे बना है ? वह अपने पाठकों की चेतना में स्थाई निधि के रूप में संचित हो सकने का सामर्थ्य रखता है। क्‍यों ?

            इसका उत्तर लेखक रत्नकुमार सांभरिया का दलित वंचित वर्ग का रचनाकार होना नहीं है। दलित वर्ग की अपनी एक धारा भारतीय साहित्य में है, किंतु उनमें कुछ ऐसे हैं, जो अपनी वर्गीय सीमाओं से बाहर आकर खड़े हुए हैं। सांभरिया ऐसे ही एक रचनाकार हैं और उनकी पूर्व की अनेक रचनाओं में भी समाज के कुछ वर्गों की पीड़ा, संत्रास और घुमंतू जीवन की मुखर अभिव्यक्ति हम देख सकते हैं। रत्नकुमार सांभरिया की रचनाओं में हमारे समय और समाज का यथार्थ प्रस्तुत हुआ है। वे मार्मिक सच्चाई को केंद्र में रखते हुए बड़े प्रश्न किसी हस्तक्षेप के रूप में प्रस्तुत करते हैं। क्यों आज़ादी के इतने सालों बाद भी कुछ वर्ग फटेहाल-बदहाल और ऐसा जीवन जीने के लिए विवश हैं ? सपेरा- कालबेलिया, कंजर, मदारी, कलंदर, कुचबंद, नट, बाजीगर, भांड-बहुरूपिया जैसे वर्गों के सामने जीवन जीने की चुनौतियाँ अधिक क्यों हैं ? इन घुमंतुओं के लिए मूलभूत आवश्यकता रोटी-कपड़ा और मकान के लिए संकट और संघर्ष क्यों है ? क्या कारण है कि अब तक उनके लिए स्थाई आवास और रोजगार की समस्या के विषय में पुखता निदान नहीं हुआ है ?

हाशिए का जीवन जीने वाले खानाबदोश समाज पर केंदित उपन्यास साँपअपने समय को रेखांकित करता एक उल्लेखनीय उपन्यास है। इससे पहले भी अनेक घुमंतू जातियों और समाजों को केंद्र में रखते हुए ऐसी अनेक रचनाएँ लिखी गई हैं। किंतु यहां विशेषतः कालबेलिया, करनट, मदारी आदि वंचित समाज के लिए सहानुभूति के साथ-साथ लेखकीय स्वानुभूतियों का अहसास पाठकों को होता है। कुछ कौतूहल या कहें औत्सुक्य द्वारा इसमें अपने पाठकों को कथानक से जोड़े रखने का हुनर है। भाषा में एक ऐसा जादू है कि निरंतर प्रवाह को बनाए रखने में उपन्यास सक्षम है।

            लखीनाथ सपेरा और मिलनदेवी के जज्‍़बात कोसमर्पित यह उपन्यास अपने आवरण और शीर्षक साँपसे एक संकेत करता है। आदम और हव्वा के बीच जो साँप उपस्थित हुआ था, वह वर्षों बाद इस उपन्यास के नायक-नायिका लखीनाथ सपेरा और मिलनदेवी के सामने बार-बार आता है। फल खाने की बात कहता है किंतु लखीनाथ का संयम प्रभावित करने वाला है और वह एक आदर्श स्थिति भी प्रतीत होती है। जब समाज में इतना पतन हो रहा है तो पर्दे के पीछे चोरी छुपे कुछ हो तो भला कौन देखने वाला है। लखीनाथ को दुनिया की परवाह नहीं, किंतु प्रेम के मामले में वह अद्वितीय है। कुछ ऐसा है उसमें जो उसे एक नज़र देखने से ही दिखाई देता है। शायद इसलिए ही मिलनदेवी प्रभावित हुई और जब प्रभाव इतना गहरा हुआ तो उससे जुड़ती चली गई। उसकी पूरी दुनिया और कार्य-व्यवहार सब कुछ उसी के लिए समर्पित हो गए। अस्तु यहाँ यह कहना उचित होगा कि उपन्यास में जहाँ मूल रूप से वंचित वर्गों की व्यथा-कथा है पर उसके साथ-साथ प्रमुख प्राणतत्‍त्‍व प्रेम-संबंध है।

            उपन्यास के आरंभ में मकान बनाने के लिए जमीन पूजन का मोहक परिदृश्य पाठकों को बाँध लेता है। नींव में रखने के लिए चाँदी के नाग-नागिन का जोड़ा असल में उपन्यास की एक तरह से नींव है, जिस पर पूरा उपन्यास टिका हुआ है। यहाँ यह सब कुछ इतना वास्तविकता में उजागर होता भाषा के माध्यम से दिखाई देता है कि लखीनाथ द्वारा असली साँप को पकड़ते समय उसके हाथों में जैसे पाठक और उपन्यास की नायिका मिलनदेवी दोनों ही पकड़ा दिए जाते हैं। यह सत्य है कि उपन्यासकार ने उपन्यास में ऐसे अनेक अवसर प्रस्तुत किए हैं, जहाँ मिलनदेवी और लखीनाथ का मिलन हो सकता था, किंतु रचनाकार यहाँ एक आदर्श-पाठ पढ़ाने की ठाने हुए है कि नैतिकताको बनाएँ और बचाए रखने के लिए आदमी का छोटा-बड़ा अथवा अमीर-गरीब होना ज़रूरी नहीं है। असल में साँपप्रेम की एक अबूझ पहेली है जिसमें मिलनदेवी का बांझ होना और संतान-लालसा में उसके प्रयास क्रिया-कलाप बेहद रोमांचकारी है। उपन्यास में प्रतीकों और भाषा के द्वारा होने वाले मानसिक विचलन और असंयम को बहुत सुंदर ढंग से चित्रित किया गया है। यह लेखक की सफलता है कि वह सब कुछ कहते हुए भी बहुत कुछ अपने पाठकों पर छोड़ देता है।

            मुख्य नायक लखीनाथ अपनी शर्तों पर जीवन बसर करने वाला व्यक्ति है, जिसने अपने जीवन में बड़े भाई के गुजर जाने पर भाभी को पत्नी के रूप में अंगीकार किया है। वह अपने चरित्र से इतना सबल पात्र चित्रित किया गया है कि अनेक स्थलों पर डगमगाते हुए दिखता जरूर है, किंतु वह गिरता नहीं है। साँपमें ऐसे अनेक पात्र भी प्रस्तुत किए गए हैं जो नायिका के रूप-लावण्य पर मुग्ध हैं। वे सब कुछ कर गुजरने को तैयार भी है, किंतु नायिका बचते-बचाते हुए पूरे परिदृश्य में अपनी छाप छोड़ती है। उपन्यास में अंत तक यह जिज्ञासा बनी रहती है कि नायक-नायिका का मिलन होगा या नहीं। उपन्यास में यह प्रेम-प्रसंग अनेक स्तरों पर हमें प्रभावित करता है।

लखीनाथ का अपनी पत्नी के प्रति प्रेम और विश्वास ही है कि वह उपन्यास के अंत में अपने बच्चे को नायिका मिलनदेवी को सौंपने की स्थितियों को सहजता से निर्मित कर देता है। उपन्यास में गोद लिए गए बच्चे को स्वयं का बच्चा सिद्ध करने के लिए जो प्रयास अथवा कहें प्रपंच किए गए हैं वह भी हमारे सभ्य समाज के अनेक तथ्यों को उजागर करने वाले हैं। यह उपन्यास कहता है कि प्रेम और विश्वास के संबंध कितने स्थाई और सुदीर्घ होते हैं।

            उपन्यास का नायक लखीनाथ सपेरा मुख्‍यमंत्री के सामने कहता है- साब हम, धरती बिछावां, आकास ओढ़ां, अपना पसीना से नहा लेवां अर भूख खाकै सो जावां।एक ऐसी सच्चाई है जिससे पाठक जुड़ता है तो जुड़ता चला जाता है और उपन्यास के अंत में यह सामूहिक वर्ग-संघर्ष के प्रतिफलन के रूप में कुछ उपलब्धियाँ के रूप में हमें दिखाई देता है। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि वंचित मानव समुदाय के संघर्ष में उनके जीव-जंतुओं और जानवरों को भी सहभागी होते प्रस्तुत करना रोमांचकारी है। ये ''साँप'' जैसे हमारा मार्गदर्शन करता है कि कुछ ऐसा भी हो सकता है अथवा स्थितियों और हालत को बदलने के लिए ऐसा किया जा सकता है।

            उपन्यास का एक प्रमुख घटक हमारे समाज के विभिन्न वर्गों में स्त्रियों की बदलती छवियों को उनके चरित्रों के माध्यम से उजागर करना भी रहा है। उपन्यास साँपमें अनेक पात्रों-चरित्रों और घटनाओं पर विस्तार से चर्चा की जा सकती है, किंतु कुछ स्त्री पात्रों जैसे रमतीबाई, रोशनीबाई और सरकीबाई की चारित्रिक क्षमता उन्हें अद्वितीय और अविस्मरणीय बनाती है। उपन्यास के नायक लखीनाथ की पत्नी का नाम है- रमतीबाई, जो उससे चार बरस बड़ी है। उसके पीछे भी कहानी है कि वह उसके बड़े भाई की पत्नी थी। लखीनाथ का भाई सरूपानाथ असमय इस संसार को छोड़ कर चला गया। भाग्य की विडंबना दो माह की गर्भवती रमतीबाई को सर्प-दंश से दिवंगत हुए पति के तेरहवें पर ही देवर लखीनाथ की चूड़ियाँ पहना दी जाती हैं। उनकी जाति में विधवा रखने का रिवाज नहीं है। रमती के जीवन में आरंभ से ही एक खल पात्र सपरा रहा, किंतु उसने अपने चरित्र पर दाग लगाने नहीं दिया। रमतीबाई ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि उसे अपने बच्चे को लखीनाथ की बात पर आदर्श पत्नी की भूमिका में मिलनदेवी को सौंपना पड़ेगा। मिलनदेवी को अपने बच्चे को सौंपते हुए वह कहती है- सेठाणी, सपेरा की मूँछ को बाल अर सपेरन की जुबान से बड़ी ना होवै, कोट कचेड़ी।इस प्रकार का त्याग-बलिदान और विश्वास का चित्रण दुर्लभ है।

            यह इसलिए भी संभव हो सका क्योंकि लखीनाथ की पत्नी रमतीबाई जानती है कि उसके पति और मिलनदेवी के बीच बहुत कुछ चल रहा है, किंतु वह अपने पति पर पूरा यकीन करती है। जब सभी को घरों के पट्टे मिल जाते हैं और लखीनाथ को जानबूझ कर वंचित कर दिया जाता है तो एक दृश्य में उपन्यसकार सांभरिया ने इसी तथ्य को इस प्रकार रेखांकित किया है- लखीनाथ की पत्नी रमतीबाई की एक आँख में डाह था, दूसरी आँख में पट्टा न मिलने का दाह था। दाह की दग्घता ने डाह को फूँक दिया था। वह आस बाँधे मिलनदेवी की ओर टुकुर-टुकुर देखती रही, बस। धीरे से बोली- 'थमी जुगत बिठाओ।’ (पृष्ठ-271)

            इसी प्रकार उपन्यास में सद्चरित्र महिला सरकीबाई मदारन एक उदाहरण है जिसने कमजोर होते हुए भी अपने चरित्र को सहेजे रखा है। कामांध थानेदार को उसने अपने वफादर कुत्ते के बल पर पूरी रात अर्द्धनग्न खड़ा रखने का साहस दिखाया। ऐसी संघर्षशील और जूझारू महिला चरित्र को उपन्यास में जिस प्रकार चित्रित किया गया है वह अपने आप में एक अनुपम उदाहरण है। एक अन्य स्त्री चरित्र के रूप में रोशनीबाई है, जो बोलाराम की पत्नी है। वह बेबाक है और अपने समाज के बड़े-बूढ़ों के सामने खुलकर अपनी बात कहती है- वाह! वाह! बियाह मेरा से करयो। रहवै दूसरी के लार। रात-बिरात चोर सो आवै। मारे, पीटे। मेरी मजूरी खोस ले जावै। बसती माता नियाव करै।’ (पृष्ठ-329)

सार रूप में कहें तो उपन्यास ऐसे अनेक चरित्रों के रंगों से सजा घर के भीतर-बाहर स्त्रियों के जीवन के विविध पक्षों को प्रस्तुत करता है। यहाँ उनका संघर्ष भी है और संत्रास भी। उनके जीवन की वास्तविकताएँ और छद्म आवरण भी हैं। यहाँ असली-नकली चेहरों पर चढ़ते-उतारे भावों की अभिव्यक्ति है तो समय के साथ परिवर्तित होती जीवन-स्थितियाँ और समझौते भी हैं। देश-समाज के विकास के लिए राजनीति में राजनीति करने वाले चरित्र यहाँ है, तो कुछ सच्चाई का दामन पकड़े निष्कलंक लोग भी हैं, जिनके होने से कुछ आशाएँ और उम्मीदें जिंदा हैं। पुलिस और प्रशासन की लापरवाही के साथ अनेक अंतर्कथाएँ हैं, जो राज्य के बड़े से बड़े मंत्री-मुख्यमंत्री आदि की उपस्थिति इस उपन्यास को एक महाकाव्यात्मक रूप देती हैं। उपन्यास अपने भीतर एक पूरे समय, समाज और विकास की विविध धाराओं को समेटे हुए है। 

            राजस्थानी और हरियाणवी भाषा के अनेक शब्दों को अपनी भाषा-शैली में सहजता से प्रयुक्त करते हुए रत्नकुमार सांभरिया ने इसमें अपने प्रतीक गढ़े हैं। 'साँप' उपन्यास अपने लोकरंग में सहज अभिव्यक्ति के लिए प्रयुक्त लोकोक्तियों, मुहावरों और देशज शब्दों के बेजोड़ प्रयोग के लिए याद किया जाता रहेगा। इसमें प्रस्तुत लोक-जीवन और परंपरागत तथ्यों-जानकारियों को उजागर करना निसंदेह सहज सरल नहीं रहा है, जिसके लिए लेखक ने बहुत परिश्रम किया है। उपन्यास के अंत में अध्यायवार अनेक शब्दों, पदों के अभिप्राय देना इसमें छुपी दुनिया को जानने-समझने में मददगार साबित होते हैं। उपन्यास को हम आदर्श प्रेम के साथ ही वंचित वर्गीय पात्रों के जीवन, संस्कृति, परिवेश, स्थितियों-परिस्थितियों का एक वृहद कोलाज कह सकते हैं। इससे गुजना स्वयं को समृद्ध करना है।

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साँप (उपन्यास) रत्नकुमार सांभरिया ; प्रकाशक- सेतु प्रकाशन, नोएडा ; संस्करण- 2022 ; पृष्ठ- 424 ; मूल्य- 375/-
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डॉ. नीरज दइया


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‘पर्दा न उठाओ’ संग्रह में पर्दा उठाने का महारस/ डॉ. नीरज दइया

 

            खेल लेखक के रूप में विख्यात और व्यंग्यकार के रूप में चर्चित आत्माराम भाटी के सद्य प्रकाशित व्यंग्य संग्रह ‘पर्दा न उठाओ’ में मूलतः भारतीय समाज में निषेध के प्रति जो आकर्पण है, उसे व्यंजित करने के प्रयास लिए हुए हैं। व्यंग्य अथवा किसी भी विधा में रचनाकार का एक अनिवार्य लक्षित घटक सारे पर्दों को उठाने के साथ ही सामाजिक यथार्थ और बदलते मूल्यों पर प्रकाश डालना होता है। समय के साथ आधुनिक होते समाज की विसंगतियों को व्यंग्य में बखूबी से व्यंजित किया जाता है और आत्माराम भाटी ने अपने पहले व्यंग्य संग्रह ‘परनिंदा सम रस कहुं नाहिं’ (2018) में यही कार्य किया था। सद्य प्रकाशित व्यंग्य-संग्रह में उसके बाद लिखी चयनित पच्चीस व्यंग्य रचनाएं संकलित है।

            प्रख्यात व्यंग्यकार ज्ञान चतुर्वेदी ने इस संग्रह की भूमिका लिखते हुए वर्तमान व्यंग्य परिदृश्य और लेखन पर प्रकाश डालते हुए व्यंग्य विधा की बारीकियों के विषय में भी अनेक संकेत देते हुए वे लिखते हैं- ‘आत्मारम भाटी का व्यंग्य लेखन अपनी तरह से बड़ी ईमानदार कोशिश है।’

            मेरा मानना है कि रचना-दर-रचना में ऐसी ही कोशिश रचनाकार को अंततः किसी बड़े मुकाम तक ले जाती है। लेखन में सतत सक्रिय होना और अपने समकालीन साहित्य से जुड़े रहना एक बड़ा सूत्र है जिससे रचनाओं में उत्तरोतर विकास किया जा सकता है। हम विचार करें कि साहित्य में व्यंग्य बहुत लिखे गए हैं और लिखें जाएंगे किंतु किसी रचनाकार के पास ऐसा निजी क्या होता है जिससे उसके लेखन को पाठक बिना उसके नाम के भी पहचान सके। यदि ऐसा होता है कि रचना स्वयं रचनाकार का पता देने लगे तो समझा जाना चाहिए कि यात्रा का मार्ग सही है। आत्माराम भाटी भी इस मार्ग के पथिक हैं और वे निरंतर प्रयासरत दिखाई देते हैं कि उनकी रचनाएं खुद उनका पता दे।

            आत्माराम भाटी की इन व्यंग्य रचनाओं को उनके पहले व्यंग्य संग्रह की विकास यात्रा के रूप में देखा जाना चाहिए। यहां भी उनके पहले संग्रह की भांति स्थानियता के साथ-साथ कुछ ऐसे घटक हैं, जो उनके निजी प्रतीत होते हैं। उदाहरण के लिए वे अपनी व्यंग्य रचनाओं में कुछ पात्रों के नामों को लेकर अपनी निजता बनाने का प्रयास कर रहे हैं। कुछ पात्र उनके अपने हैं जैसे- घोटू काका, निगेटिव काका, रसिया महाराज, डंकोली महाराज आदि। अपने प्रिय पात्रों के नामकरण के साथ ही बीकानेर शहर की अपनी भाषा-शैली और शब्दावली में राजस्थानी का मिठास भी उन्हें अपनी मिट्टी से जोड़ता है। स्वयं आत्माराम भाटी भी अपनी रचनाओं में ‘लेखक’ जी के नाम से बार-बार उपस्थित हो कर ध्यानाकर्षण का विषय बनते हैं।

            शहर बीकानेर की अलमस्त जीवन-शैली को सहजता से चित्रित करते हुए व्यंग्यकार आत्माराम भाटी बिना किसी बड़ी योजनाओं और भाषिक लालित्य का प्रदर्शन किए बहुधा केवल अभिधा शक्ति के बल पर दाव खेलते हैं। जीवन की सहजता, सरलता और सुगमता में जो आत्मीय अथवा कहीं कहीं नाटकीय भी है जो पात्रों के परस्पर संवाद से प्रगट होती हुई उनकी रचनाओं में ऐसी विसंगतियों को उजागर करती हैं जो ना केवल उनके शहर अथवा राज्य की होकर सर्वदेशीय है।

            ‘यातायात नियम और घमंडीलाल’ व्यंग्य रचना में वे एक दैनिक घटनाक्रम के द्वारा जैसे नियमों को पालन करने का पाठ पढ़ाते हैं तो ‘कला मंचों की व्यथा’ में बदलते समय के साथ आधुनिकता के साथ रंगमंच के खोते जाने की व्यथा-कथा निर्माणाधीन रंगमंच और शहर के सिनेमा थियेटर के संवादों से प्रस्तुत करते हैं। शहर के मस्ती भरे जीवन को मुहल्ले के चौक में पनवाड़ी की दुकान पर होने वाले संवाद में देख सकते हैं जिसमें ‘ओलिंपिक में ज्यादा पदक के लिए सुझाव’ देते हुए मनचले बिना कुछ सोचे-समझे और जाने आत्मविश्वास के साथ बेतुके सुझाव देते हैं। मूर्खता और अज्ञानता का अपना आनंद है। एक उदाहरण देखिए-

            “मैंने कहा- आप सही कह रहे हो। हम देखते हैं कि सड़क पर कोई विदेशी लोग दिखे नहीं कि सारा जरूरी काम छोड़कर उसकी ओर सभी ऐसे देखने लग जाएंगे जैसे कोई आदमी न होकर अंतरीक्ष से आए हुए एलियंस हों।  

            हमारे निगेटिव काका का पोता डफोलिया चाहे अंग्रेजी न भी आए तो भी उनके पास जाकर हाय हैलो करने लग जाता है। टूटी-फूटी अंग्रेजी में नाम, देश व सब कुछ पूछ लेगा। मजे की बात यह भी है कि जब डफोलिया अंग्रेजों से बात कर रहा होता है तो मुहल्ले के दस और लड़के उसके पास जाकर ऐसे खड़े हो जाते हैं जैसे डफोलिया किसी बड़ी हस्ती का सक्षात्कार कर रहा हो।'' (विदेशी का चस्का ; पृष्ठ-86-87)

            ‘डफोलिया’ शब्द का अभिप्राय जो कुछ नहीं जानता हो, मूर्ख को कहते हैं ‘डफोल’ और उसी से यह शब्द बना है। यह उनका अपना पात्र है और लेखक ने इसका संबंध अपने पेटेंट पात्र निगेटिव काका से जोड़कर उसे इनका पोता बताया है। शहर की संस्कृति में यह रंग जाने कब से छाया हुआ है और यहां ऐसे होने पर विरोध का जो धीमा स्वर है वही व्यंग्य का प्रमुख लक्ष्य है। आत्माराम भाटी की व्यंग्य रचनाओं में जहां ऐसी अनेक समस्याएं है तो उनके विषय में अपने मत को व्यक्त करने वाले पात्र और संवाद भी हैं। यहां केवल मूर्खों की मूर्खताएं ही नहीं वरन उनके विषय में सही बयान भी इन कथात्मक रंग में रंगी रचनाओं में हमें मिलते हैं।

            ‘योग्यता पर भारी सिफारिश’, ‘नया साल नए संकल्प’, ‘कोरोना काल में पत्नी की दादागिरी’, ‘पुस्तक लिखने की धमकी’, ‘सरकारी नौकरी के पायदे’ जैसी अनेक रचनाओं के शीर्षक अपने विषय का खुलासा करते हुए अपनी व्यथा-कथा कहने में सक्षम है। कुछ व्यंग्य रचनाओं में उनका प्रिय विषय खेल और खिलाड़ी भी केंद्र में रखा गया है। किताब का नाम ‘पर्दा न उठाओ’ रखा गया है पर पर्दा तो उठाना ही होता है। समीक्षा और आलोचना में बिना पर्दा उठाए रचनाओं के विषय और रूप-रंग का पाठकों को कैसे अंदाजा होगा। किंतु सत्य यह भी है कि कोई व्यंग्यकार अथवा रचनाकार देश-समाज, घर-परिवार और व्यस्था के भारी भरकम पर्दों को कितना और कब तक उठाएगा। किसी व्यंग्य रचना में व्यंग्यकार बस कुछ संकेत करता है। वह कुछ दिखाता और कुछ छिपा छोड़ देता है। उसका उद्देश्य तो असल में किसी भी दृश्य को देखते समय जो पर्दा तो हर देखने वाले की आंखों पर होता है उसे उठाना होता है। सत्य यह है कि किसी भी कृति से रू-ब-रू होने के लिए पर्दा तो स्वयं पाठक को ही उठाना होता है यहां बस उसका आह्वान किया गया है।

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पर्दा न उठाओ (व्यंग्य-संग्रह) आत्माराम भाटी, प्रकाशक- इंडिया नेटबुक्स प्राइवेट लिमिटेड नोएडा, संस्करण : 2023, पृष्ठ : 96, मूल्य : 200/-

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 डॉ. नीरज दइया

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