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यांत्रिक होती दुनिया में एक आत्मीय आलाप / डॉ. नीरज दइया

 नाटककार, निर्देशक, आलोचक और कवि के रूप ख्याति प्राप्त डॉ. अर्जुन देव चारण का नवीन कविता संग्रह ‘कबाड़ होवती जूंण’ इस यांत्रिक होती दुनिया में एक आत्मीय आलाप है। यह संग्रह उनके पूर्ववर्ती संग्रहों से अनेक अर्थों में भिन्न और बहुत आगे का कहा जा सकता है। यहां कवि ने मनुष्य, भाषा और शब्द के रागात्मक संबंधों को स्वर दिया है। कवि व्यक्ति की अंतस-चेतना को जाग्रत कर मातृभाषा को दैनिक व्यवहार में प्रयुक्त करने का आह्वान करते हुए कहता है- ‘इणी सारूं कैवूं/ करौ/ आपरी भासा रौ मांन।/ मती बणौ/ नुगरा कै गुणचोर,/ इण भासा रै पांण ई/ अपांरी जीया जूंण में/ सगळी हळगळ है।’ (पृष्ठ-10) मातृभाषा को दैनिक बोलचाल में प्रयुक्त नहीं करने को बड़ा पाप बातते हुए कवि हमें इसे फर्ज की संज्ञा देते हुए कहता है कि संपूर्ण सृष्टि की पहचान भाषा से ही संभव है। संग्रह की लंबी कविता ‘माफीनामौ’ में कवि ‘जलम भायली’ राजस्थानी से माफी मांगते हुए जैसे हमारे सुप्त-तंत्र की जाग्रति के लिए एक मुहिम है।
    कविताओं में इक्कीसवीं शताब्दी के उत्थान के साथ-साथ लुप्त होती मनुष्यता और जीवन में दिन-प्रतिदिन तेजी से व्याप्त होती यांत्रिकता को गहरे व्यंग्य-बोध के साथ उजागर करता है। ‘नुंवौ मिनख’ कविता में नए युग के मनुष्य को कवि विभिन्न बिंबों के माध्यम से व्यंजित करते हुए कह रहा है- ‘भगवान नै बारै काढौ/ बो ई तौ/ डरावै मिनख नै/ देवै हेत/ प्रीत, दया, करुणा/ गरिमा, निबळाई, मरजाद।/ मरजाद है/ इणी सांरू कार है/ नुंवौ मिनख/ नीं मानैला कोई सींव/ बस उणनै आगै बधणौ है/ दूजा सगाळां नै/ चींथता।’ (पृष्ठ-28) मनुष्य की घटती गरिमा का मूल कारण शब्द और भाषा का क्षरण है। अक्षरों में अब पहले जैसी गरिमा चमक-दमक नहीं रही। ‘आखर सूं बणै/ सबद/ अर सबद सूं वाक्य,/ पण कित्ती अचरज री बात है/ कै सबदां तांई पूगता/ आखर/ गमाय देवै आपरी आब,/ अर/ सबदां रौ उणियारौ/ वाक्यां मांय बांधतां ई/ असैंधौ होय जावै।’ (पृष्ठ-80)
    कवि अर्जुन देव चारण जिन शब्दों की गरिमा और उत्कर्ष की बात यहां करते हैं उसका अहसास कविता ‘आजादी’ की इन पंक्तियों के माध्यम से किया जा सकता है- ‘फगत तीन आखर इज नीं है/ आजादी,/ तीन लोक रै पसराव री/ घोषणा है/ जकी हमेसा गूंजती रैवै/ धरती सूं आभै रै बिच्चै।’ (पृष्ठ-58) मनुष्य का जीवन  बिना भाषा के निष्प्राण है। भाषा के बिना कुछ भी संभव नहीं है। मातृभाषा से ही हमारी अस्मिता है। इसके बिना जो जीवन जी रहे है उसके लिए कवि कह रहा है- ‘मुआं जो दड़ौ/ कोई जुगां जूनौ/ दड़ौ नीं है/ अपां सगळा/ उंचाया हालां हां/ आप आप रौ/ मुआं जो दड़ौ।’ (पृष्ठ-39)
    सहज, सरल और प्रवाहयुक्त आत्मीय भाषा में रचित इस संग्रह की कविताएं हमारे अंतर्मन को स्पर्श करने वाली हैं। ये कविताएं वर्तमान समय में आत्मीय आलाप के साथ एक जरूरी हस्तक्षेप है। ‘कबाड़ होवती जूंण’ का पाठ असंवेदनशील समय में मनुष्य की संवेदनाओं और मनुष्यता को बचाने के लिए बेहद जरूरी है।  
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पुस्तक का नाम – कबाड़ होवती जूंण (कविता संग्रह)
कवि – अर्जुन देव चारण
प्रकाशक – बोधि प्रकाशन, जयपुर
पृष्ठ- 80
संस्करण - 2021
मूल्य- 120/-

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 - डॉ. नीरज दइया

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छुई-मुई सी कविताओं में जीवन का विराट / डॉ. नीरज दइया

ज्योतिकृष्ण वर्मा का दूसरा कविता संग्रह ‘मीठे पानी की मटकियां’ अपने शीर्षक में एक रहस्य लिए हुए है। नाम से ऐसा प्रतीत होता है कि इसमें ग्रामीण और पुराने दिनों की याद की कुछ कविताएं हो सकती है, किंतु सच इसके विपरीत है। यह ऐसा सच है कि जिसे कोई एक बार हम जान लेता है तो वह विस्मृत नहीं होता। ऐसा किसी बिंब के साथ होना निसंदेह संग्रह और कवि की विशेषता है। शीर्षक कविता में नारियल के वृक्ष को देखते हुए कवि सोचता है कि ‘पसीने में भीगे/ प्यासे राहगीरों के लिए/ पृथ्वी ने शायद/ सहेज कर रखी हैं/ मीठे पानी की/ छोटी-छोटी मटकियां’ नारियल को कवि का मीठे पानी की छोटी मटकी के रूप में देखना अभिनव है। इसके साथ ही यहां कवि ने इस कविता के समापन में- ‘मटकियों में रखे/ मीठे पानी के अक्स में/ दिखती है/ मां।’ (पृष्ठ- 23) कहते हुए पृथ्वी और मां के विराट रूप को एक साथ प्रस्तुत करने का सफल प्रयास किया है।
    अपने पहले कविता-संग्रह ‘खुले आकाश में’ भी कवि वर्मा ने स्पष्ट कहा है कि उनको कोई सेलिब्रिटी नहीं बनना है। वह अपनी मिट्टी से जुड़े रहना पसंद करते हैं। यह अकारण नहीं है कि वहां भी वे शीर्षक कविता में अपनी धरती के साथ मां का स्मरण करते हैं। आजादी के मायने समझते हुए उसका आम आदमी के रूप में रहना और देश-दुनिया के साथ अपने परिवेश को समझना यहां इस संग्रह में भी जारी है। समकालीन हिंदी कविता के विशाल प्रांगण में ज्योतिकृष्ण वर्मा ने अपना निजी मुहावरा विकसित करते हुए अपनी अलाहदा पहचान प्रस्तुत की है। बहुत कम शब्दों में वे मुख्य रूप से जीवन के आस पास की स्थितियों और घटनाओं में विरोधाभासों को काव्यानुभव के रूप में अभिव्यक्त करते हैं। उदाहरण के लिए ‘बैसाखियां’ शीर्षक से तीन छोटी-छोटी कविताएं हैं जिसकी कुछ पंक्तियां देखें- ‘कंधों से मजबूत/ साबित होती हैं/ कभी कभी/ बैसाखियां।’ अथवा ‘वो अंधेरा बंद कमरा/ जहां रखी है/ बहुत-सी बैसाखियां/ वहीं का वहीं है/ बरसों से।’ (पृष्ठ- 26)  
    छुई-मुई सी कविताओं में जीवन का विराट रूप देख सकते हैं। बहुत कम शब्दों में जिस प्रकार कवि बहुत कुछ प्रस्तुत करने की असाधारण प्रतिभा रखता है वैसा बहुत कम कवियों के यहां संभव होता है। ‘समंदर/ कभी किसी के/ घावों के बारे में/ नहीं पूछता/ उसके पास/ नमक के सिवा/ कुछ नहीं!’ (पृष्ठ- 32) बहुत कम शब्दों में यहां जिस विराट से साक्षात्कार होता है उससे हम निशब्द हो जाते हैं। संग्रह की कविताओं में हम प्रकृति के विविध घटकों को उनके नए रूप में देखकर आश्चर्य चकित होते हैं। जिस भांति छुई-मुई स्पर्श मात्र से तुरंत अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करता है ठीक वैसे ही इन कविताओं का पाठ बहुत कम शब्दों से हमें अपनी हलचल से झंकृत करता है। संग्रह की एक अन्य छोटी सी कविता ‘दुख’ को उदाहरण के रूप में देखें- ‘पानी का/ सबसे बड़ा दुख/ ये है/ कि उसके आंसू/ दिखाई/ नहीं देते।’ (पृष्ठ- 41) कविताओं में प्रस्तुत प्रतीकों को हम जीवन के विविध पक्षों से जोड़ते हुए उनमें निहित व्यंजनाओं को जान सकते हैं। यह इन कविताओं की सफलता है कि वे हमें अर्थ का नया आकाश देती हैं।
    कवि ज्योतिकृष्ण की एक छोटी सी कविता में पाषण-युग की नवीन व्याख्या को देखा जा सकता है। कवि एकदम अभिधा में और गद्य की भांति अपनी बात रखते हुए अंत में जैसे बड़ी छलांग से अर्थ का विस्फोट कर देता है- ‘यह/ तब की बात है/ जब मनुष्य/ लिखना नहीं था/ कविता/ इतिहासकारों ने/ इसीलिए शायद/ नाम दिया/ उसे/ पाषण-युग।’ कवि जीवन संघर्षों के बीच तिनकों की ताकत अजमाने की प्रेरणा देता है तो इसके साथ ही कवि का कविता रचने का उद्देश्य भी उसके सामने स्पष्ट है। कविता ‘कवि से’ में वर्मा ने पेड़ का कागज बनकर आना और कवि से उन शिकारियों के बारे में जानने की अभिलाषा जिसने पक्षियों को मारा है स्पष्ट रूप से रचना के उत्तरदायित्व बोध का संकेत है।  कवि का मानना है कि इस संसार में कविता ही बचेगी और संवेदनाओं के लिए कविता को बचाया जाना बेहद जरूरी है। संभवतः इसी कारण कवि कविता ‘मंथन के बाद’ में समुद्र की थाह में बैठी छुई-मुई सी एक कविता को मंथन से अमृत जैसे प्राप्त करने की अभिलाषा व्यक्त करता है। कविता ही जीवन का अमृत है तो उसे विराट से प्राप्त करना इन कविताओं में प्रस्तुत हुआ है। ‘मेरे गम की/ इंतहा/ अभी बाकी है शायद/ मैंने/ समंदर को भी/ देखा है/ बेबसी में/ चट्टानों पर/ सिर पटकते हुए।’ (पृष्ठ- 92)
    भूमिका में प्रख्यात कवि अरुण कमल जी की इस बात से सहमत हो सकते हैं, उन्होंने लिखा है- ‘ज्योति जी ने बड़े धैर्य और अपनापे से मानव जीवन और प्रकृति के तत्वों का संधान किया है और जीवन की विडंबनाओं को सटीक भाषा में प्रस्तुत किया है।’ ज्योतिकृष्ण वर्मा के पास ऐसी दृष्टि और कला है कि वे बहुत छोटी सी कविता में केवल एक शब्द के परिवर्तन से अर्थ का विस्फोट करने में समर्थ हैं। ‘मजदूर खुली आंखों से/ तुम्हारे लिए/ बंद आंखों से/ अपने लिए/ बनाते हैं घर। (पृष्ठ- 56) कवि के साथ इस सुंदर प्रकाशन की सुरुचिपूर्ण प्रस्तुति के लिए बोधि प्रकाशन को बहुत बधाई।  
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पुस्तक का नाम – मीठे पानी की मटकियाँ (कविता संग्रह)
कवि – ज्योतिकृष्ण वर्मा
प्रकाशक – बोधि प्रकाशन, जयपुर
पृष्ठ- 96
संस्करण - 2021
मूल्य- 150/-

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डॉ. नीरज दइया




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कविता में धड़कता जीवन व प्रेम / डॉ. नीरज दइया

 "साठ पार" कवि कथाकार सत्यनारायण का सद्य प्रकाशित तीसरा कविता संग्रह है। इससे पूर्व "अभी यह धरती", "जैसे बचा है जीवन" संग्रहों की कविताएं समकालीन कविता में पर्याप्त चर्चा का विषय रही हैं। तुलनात्मक रूप से डॉ. सत्यनारायण कविता की तुलना में अपने बेजोड़ गद्य लेखन से अधिक जाने जाते हैं, किंतु उनकी कविताएं भी अपनी व्यंजना और शिल्प-शैली के कारण विशिष्ट हैं। असल में कवि का यह संग्रह 60 पार अभिधा में उनकी उम्र को व्यंजित करता है पर असल में व्यंजना में इसके अनेक अर्थ घटक समाहित है जो संग्रह की कविताओं में देखें जा सकते हैं।
प्रेम कभी पुराना नहीं होता और डॉ सत्यनारायण के यहां प्रेम भी एक कविता अथवा किसी गीत की तरह है जिसे बार-बार गाया जाना जरूरी है क्योंकि इसी में जीवन का सार है। सात खंडों में विभक्त इस कविता संग्रह के पहले खंड को साठ नहीं आठ पार की आवाज नाम दिया गया है, जिसमें कवि अपनी छोटी-छोटी कविताओं के माध्यम से अपने छोटे से किंतु बहुत बड़े प्रेम की स्मृति को उजागर करता है। यहां कभी का आत्म संवाद और विभिन्न मन: स्थितियों में जैसे एक पुराना राग फिर फिर साधता चला जाता है -
दुख यह नहीं कि/ तुम नहीं मिली/ अफसोस यह कि/ शब्द जुटा नहीं पा रहा हूं/ साठ के पार भी/ यदि मिल जाती तो/ क्या कहता। (कविता - अफसोस यही की)
असल में जीवन अथवा प्रेम अपनी उम्र अथवा समय अवधि में नहीं वरन वह किसी अल्प अवधि अथवा क्षण विशेष में धड़कता रह सकता है इसका प्रमाण है संग्रह की कविताएं। जीवन में स्मृतियों का विशेष महत्व होता है और यह संग्रह विशिष्ट स्मृतियों का विशिष्ट कोलॉज है। अभी बची है/ एक याद/ बचे हैं/ कुछ सपने/ क्या इतना बहुत नहीं है/ जीने के लिए/साठ पार भी। (कविता - जीने के लिए)
बेशक कभी अपनी प्रेयसी उर्मि के लिए जितना मुखर होकर यहां प्रस्तुत हुआ है उस मुखरता में कहीं ना कहीं पाठक हृदय भी न केवल झंकृत होता है वरन वह भी इस एकालाप में अपना सुर मिलाकर साथ गाने लगता है यही इन कविताओं की सार्थकता है।
कहां हो प्रिय खंड मैं मृत्यु विषयक पंद्रह कविताओं को संकलित किया गया है। यहां भी कवि का जीवन से प्रेम और स्पंदित उपस्थिति प्रस्तुत होती है, वह जीवन के सुर में बजाता हुआ जीना चाहता है उसकी कामना है कि कहीं यदि वह रड़के तो मृत्यु उसे अजाने नींद में स्वीकार कर ले।
इच्छा थी तुम्हारी अथवा दुख कहां सीती होंगी अब मांएं खंडों में भी धड़कती हुई स्मृतियां और जीवन की आशा निराशा के बीच खोए अथवा खोते जा रहे प्रेम और जीवन की उपस्थिति दिखाई देती है। बहुत कम शब्दों में बहुत गहरी बात कह देना कभी का विशेष हुनर है। इच्छा कविता को उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है - "इच्छा थी तुम्हारी/ तुम/ इच्छा ही रह गयी।" अथवा हर सांस में याद - "हर सांस में/ घुली है याद/ नहीं तो/ मैं कैसे ले पाता सांस/ बिना याद के/ तुम्हारी।"
इन कविताओं में जहां एक और जीवन, प्रेम और संबंध धड़कते हैं वहीं दूसरी ओर राजस्थान की मिट्टी, यहां का परिवेश और जन जीवन अभिव्यक्त हुआ है। संग्रह के अंतिम खंड में कवि अपने मित्र रचनाकार रघुनंदन त्रिवेदी और रामानंद राठी का काव्यात्मक स्मरण भी करते हैं। संग्रह के अंत में दो गद्य कविताएं भी संकलित है। समग्र रूप से इन छोटी छोटी कविताओं में जिस सहजता सरलता के साथ हम जीवन की सूक्ष्म अनुभूतियों का अवलोकन करते हैं वह काल्पनिक और यांत्रिक होती जा रही हिंदी कविता का एक दुर्लभ क्षेत्र है। कहा जाना चाहिए कि साठ पार संग्रह का कवि सत्यनारायण मलिक मोहम्मद जायसी से चली आ रही प्रेमाश्रयी अथवा सूफी काव्य धारा का विस्तार अथवा आधुनिक संस्करण है।
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पुस्तक का नाम : साठ पार (कविता संग्रह)
कवि : सत्यनारायण
प्रकाशक : बोधि प्रकाशन जयपुर
संस्करण : 2019
मूल्य : 150/-
पृष्ठ  : 120

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स्त्री की आंख से देखी गई दुनिया / डॉ. नीरज दइया

हिंदी की प्रतिष्ठित कवयित्री सुमन केशरी के बहुचर्चित कविता संग्रह को राजस्थानी में "मोनालिसा री आंख्यां" नाम से ललिता चतुर्वेदी ने अनूदित किया है। यह इसलिए भी स्वागत योग्य है कि राजस्थानी में महिला लेखन कम हुआ है और जो हुआ है उसमें सुमन केशरी की यह कविताएं एक प्रेरणा और दिशा का काम कर सकती हैं। किसी भी भाषा में एक स्त्री की आंख से देखी-समझी और परखी गई दुनिया का अपना महत्व होता है। क्योंकि उसके घर बनाने और घर को बचाने का सपना जीवन पर्यंत चलता रहता है। इस संसार में बसे हुए या कहें बने हुए किसी भी घर से बहुत सुंदर एक ऐसा घर है जिस का चित्रण कवयित्री ने किया है -
मरुधर री तपती रेत माथै
आपरी चूनड़ी बिछा'र
बीं माथै एक लोटो पाणी
अर बीं माथै ई रोटियां राख'र
हथाळी सूं आंख्यां आडी छियां करती
लुगाई
ऐन सूरज री नाक रै नीचै
एक घर बणाय लियो।
घर परिवार और जीवन का इससे सुंदर चित्रण अन्यत्र दुर्लभ है।
मोनालिसा एक ऐसी नायिका है जो सर्वकालिक और सर्वदेशीय है। वैसे इस संग्रह में मोनालिसा नाम से तीन कविताएं हैं और साथ ही एक शीर्षक कविता भी। इनके माध्यम से संग्रह केंद्रीय संवेदना को दिशा मिली है। इसमें जीवन का व्यापक यथार्थ, मौलिकता और अंतर्निहित एक व्यंग दृष्टि भी देखी जा सकती है। यहां बिना किसी आवेग अथवा नारों के इन कविताओं में एक स्त्री का संघर्ष विभिन्न बिंबों और प्रतीकों के माध्यम से मुखरित होता है। राजस्थानी के इस शब्दानुवाद के माध्यम से ललिता चतुर्वेदी ने कवयित्री सुमन केशरी की कविताओं के मर्म को छूने का पहला पहला प्रयास किया है। यह अनुवाद इसलिए एक सफल अनुवाद कहा जा सकता है कि इससे गुजरने के बाद पाठक के मन में कवयित्री सुमन केशरी की अन्य रचनाओं को पढ़ने जानने की उत्सुकता जाग्रत होती है। संग्रह बोधि प्रकाशन जयपुर से प्रकाशित हुआ है।

(आभार : उमा जी और संपादकीय टीम डेली न्यूज)

डॉ. नीरज दइया


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अद्वितीय कवि से रू-ब-रू कराता विनिबंध / डॉ. नीरज दइया

  साहित्य अकादेमी द्वारा राजस्थानी कवि ऊमरदान लालस (1854-1903) के जीवन और साहित्य-यात्रा को लेकर मूल राजस्थानी भाषा में लिखित कवि-आलोचक डॉ. गजेसिंह राजपुरोहित का विनिबंध प्रकाशित हुआ है। साहित्य अकादेमी की सराहना इसलिए भी की जानी चाहिए कि एक तो वह बहुत कम कीमत में ऐसे प्रकाशनों को उपलब्ध कराती रही है और दूसरे भारतीय साहित्य निर्माता सीरीज में प्रकाशित विनिबंधों का वह भारतीय भाषाओं में अनुवाद भी प्रकाशित करती है। प्रस्तुत विनिबंध में विद्वान लेखक डॉ. गजेसिंह राजपुरोहित ने कवि ऊमरदान लालस से संबंधित ‘ऊमर काव्य’ (संपादक- जगदीशसिंह गहलोत) और ‘ऊमरादान ग्रंथावली’ (संपादक- डॉ. शक्तिदान कविया) को आधार ग्रंथ बनाते हुए अनेक नई अवधारणाओं और शोध निकषों की सम्यक विवेचना की है।
 कृति में राजस्थानी कविता के अध्येयता और आलोचकों की टिप्पणियों के साथ आधुनिक कविता के विविध आयामों के साथ उसके आरंभ को स्पष्ट करते हुए कवि ऊमरदान जी का कविता परंपरा-विकास में स्थान निर्धारित करने का महत्त्वपूर्व कार्य भी किया गया है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि 1857 से पहले और बाद में सक्रिय विभिन्न कवियों को क्षेत्रवार विवेचना के साथ उनकी मूल काव्य-प्रवृतियों को भी रेखांकित किया गया है। कवि ऊमरदान लालस के जीवन परिचय को उपलब्ध साक्ष्यों के साथ प्रस्तुत करते हुए विद्वान लेखक राजपुरोहित ने कवि की संपूर्ण साहित्यिक यात्रा की रचनात्मकता के मुख्य बिंदुओं को विभिन्न काव्यांशों को प्रस्तुत करते हुए विशद ढंग से प्रस्तुत किया है। प्रस्तुत विवेचना में कवि के भाव पक्ष और केंद्रीय धारा की तलाश करते हुए कला पक्ष का भी एक अध्यय पृथक प्रस्तुत किया है। प्रस्तुत विनिबंध की एक अन्य रेखांकित किए जाने योग्य विशेषता कवि ऊमरदान लालल के जीवन प्रसंगों के विभिन्न संस्मरणों का एक अलग से अध्याय है। इसमें अनेक रोचक प्रसंगों के हवाले पाठक कवि ऊमरदान जी की अनेक विशेषताओं से रू-ब-रू होते हैं।
 आज जब हम हमारे समकालीन रचनाकारों के विषय में भी पर्याप्त और पूरी जानकारी के अभाव में उनका मूल्यांकन नहीं कर पाते हैं, ऐसे समय में आधुनिक काल के आरंभिक कवियों अथवा कहें कि मध्यकाल और आधुनिक काल के संधिकाल के कवियों पर अकादेमी द्वारा ऐसे प्रयास निसंदेह उल्लेखनीय हैं। भाई डॉ. गजेसिंह राजपुरोहित को बहुत बहुत बधाई
 और शुभकामनाएं।
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डॉ. नीरज दइया


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स्त्री के गौरव की अद्वितीय गाथा : गली हसनपुरा / डॉ. नीरज दइया

  सुपरिचित कहानीकार रजनी मोरवाल अपने पहले उपन्यास "गली हसनपुरा" में हमें अमर प्रेम की एक दर्द भरी दास्तान से रू-ब-रू कराती है । उपन्यास की नायिका मीरकी और उन जैसी अनेक नायिकाओं के सच्चे किंतु त्रासद प्रेम और संघर्ष को किसी इतिहास में दर्ज नहीं किया है । यह उपन्यास एक ऐसी गली का दृश्यावलोकन और दस्तावेज है जो अनेक मार्गों और पड़ावों से होते हुए हमें एक हसनपुरा को समग्रता में देखने की दृष्टि देता है । उपन्यास का मूल सूत्र है- जीवन कितना भी बेढ़ब, विषम  और विद्रूप क्यों ना हो, किंतु वह अपनी असीम संभावनाओं और संरचना में सौंदर्य, प्रेम और संघर्ष का सदैव वाहक होता है।
    उपन्यासकार रजनी मोरवाल ने ‘अपनी बात’ में स्पष्ट किया है कि यह उपन्यास मीरकी के वास्तविक जीवन पर आधारित है । लेखिका ने मीरकी के माध्यम से एक ऐसे पूरे जीवन को सत्रह अध्यायों में बटोरते हुए स्त्री आत्मसंघर्ष, प्रेम और सपनों को अनेक सूत्रों के साथ कलात्मक रूप में संजोया है । भाषा-शिल्प द्वारा यहां कल्पनाएं भी वास्तविकताओं के रूप में प्रस्तुत हुई है । कहना होगा, यह उपन्यास स्त्री गौरव की एक अद्वितीय गाथा है । हमारे आस-पास हसनपुरा जैसे अनेक हसनपुरा हैं, जो सत्ता और उसके पक्षकारों से सवाल पूछ रहे हैं कि आजादी के बाद विकासित होते समाज में ऐसे वर्ग दबे-कुचले और अधिकारों से वंचित लोग क्यों है? यह एक प्रतीकात्मक कथा है, जो स्थितियों के लिए जिम्मेदार पक्ष को तलाशती है।
    आजादी के बाद बदलते समय और समाज की पृष्ठभूमि से जुड़े इस उपन्यास में मीरकी के पिता का परिवार पाकिस्तान से भारत आया था । जिसमें कुल जमा दो सदस्य थे- उसके पिता और उसकी दादी । जिसने दंगों में अपनी और अपने बेटे यानी मीरकी के पिता की जैसे-तैसे जान बचाई और यहां आकर शहर के बाहर आज के गली हसनपुरा की नींव रखी । ऐसे गंदे इलाके में इस बस्ती का यह सिलसिला आरंभ हुआ कि फिर थमा ही नहीं, और वहां ऐसे ही दबे-कुचले अपना घर छोड़ आए लोगों ने आसरा लिया । शहर का विकास होता गया लेकिन गली हसनपुरा का विकास नहीं हुआ और फिर भी यह इलाका शहर के बीच आ गया ।
    उपन्यास में मुख्य कथा के समानांतर अनेक उपकथाएं हैं, जिनमें विविध व्यंजनाओं के साथ मुख्य कथा पोषित होती है । एक पीढ़ी के बाद दूसरी पीढ़ी और उसके बाद अगली पीढ़ी को जोड़ते हुए उपन्यास के फलक को विस्तार दिया गया है । जीवन-संघर्ष मूलतः रोटी का है । पेट भरने की और जीवन जीने की ऐसी कोई गली भले वह हसनपुरा हो अथवा कोई दूसरी, लेखिका का मानना है कि कोठरता के बीच जीवन की कोमल और सूक्ष्म भावनाएं नष्ट नहीं होती हैं । इस समाज में जहां झाला चौधरी जैसे दानव हैं तो वहीं बनवारी जैसे देवता मनुष्य भी । ऐसा तो समाज में होता ही रहा है फिर यह प्रतिप्रश्न किया जा सकता है कि इस उपन्यास में नया क्या है? नया है इस हसनपुरा का भाषा-सौंदर्य और ऐसे शिल्प से प्रेम का विस्तारित रूप हमारे समक्ष प्रस्तुत करने का कौशल जो हमारे भीतर नई स्थापनाएं करते हुए प्रेम के उद्दात रूप को प्रतिस्थापित करता है। उपन्यास अपनी आंचलिक भाषा-शैली और संवादों से पठनीय बन पड़ा है । मीरकी-बनवारी का प्रेम राजस्थान की प्रसिद्ध प्रेमकथा महेंद्र-मूमल के प्रसंग से पोषित और उसी के समानांतर अधूरा और अविस्मरणीय चित्रित हुआ है।
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उपन्यास : ‘गली हसनपुरा’  
उपन्यासकार : रजनी मोरवाल
प्रकाशक : आधार प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, एस.सी.एफ. 267, सेक्टर-16, पंचकूला (हरियाणा)
पृष्ठ : 128 ;
मूल्य : 120/- (पेपर बैक)
संस्करण : 2020

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बुलाकी शर्मा की हिंदी और राजस्थानी में दो व्यंग्य कृतियां / डॉ. नीरज दइया

(1.) महानता के मुखौटों को उजागर करते धारदार व्यंग्य

हिंदी और राजस्थानी भाषा में विगत चालीस से भी अधिक वर्षों से समान रूप से लिखने वाले ख्यातिप्राप्त व्यंग्यकार बुलाकी शर्मा का तीसरा राजस्थानी व्यंग्य संग्रह ‘आपां महान’ अपने शैल्पिक और भाषिक प्रयोगों के कारण से उल्लेखनीय कहा जाएगा। भारतीय जनमानस में अपनी परंपरा की महानता को थामे रहने और वर्तमान समय में भी मूलभूत समस्याओं का जस के तस बने रहने पर शीर्षक रचना में करारा व्यंग्य किया गया है। संग्रह में व्यंग्य विधा के अंतर्गत विविध शैलियों को अजमाने का सुंदर सफल प्रयास किया गया है, जैसे- डायरी शैली में ‘म्हारी डायरी रा कीं टाळवां पानां’, प्रश्नोत्तर शैली में ‘खुद सूं मुठभेड़’, पत्र शैली में ‘मूड सूं लिखणियो लेखक’ तथा फंटेसी ‘सुरग में साहित्यिक सभा’ आदि रचनाएं साक्ष्य हैं। बुलाकी शर्मा के पात्रों की भाषा में जहां बीकानेर शहर की स्थानीयता है वहीं वे समग्र रूप से धाराप्रवाह कथारस से भरपूर भाषा द्वारा अपने पाठकों को बांधे रखने का हुनर रखते हैं।
संग्रह में कोरोनाकाल में लिखी रचनाओं में वर्तमान समय की त्रासदी और विद्रूपताओं को चिह्नित किया गया है तो अपने साहित्यिक अनुभवों से लक्ष्य वेधन करते समय स्वयं को भी नहीं छोड़ा है। किसी भी व्यंग्य की सफलता उसके लक्ष्यबद्ध होने में निहित होती है और बुलाकी शर्मा अपने लक्ष्य हेतु लक्षणा और व्यंजना का बखूबी प्रयोग करते हैं। ‘मदर्स-डे’ में आधुनिक जीवन शैली, ‘मींगणां री माळा’ में साहित्यकारों के दोहरे चरित्र को देखते हैं वहीं ‘कविता रो दफ्तर-टैम’ में लापरवाही के साथ व्यक्ति का मिथ्या अहंकार उभारा गया है। भाषा में सहजता के साथ वक्रता का निर्वहन करना हल्की हल्की चोट से व्यक्ति मन की व्याधियों का उपचार करने जैसा है।
संग्रह की सभी व्यंग्य रचनाओं में मूलतः मानव मन के विचित्र व्यवहार को केंद्र में रखते हुए वर्तमान समय की विसंगतियों के साथ हमारी कथनी-करनी के भेद के साथ पाखंड को प्रमुखता से उजागर किया गया है। अपनी मातृभाषा राजस्थानी की पैरवी करने वालों का रूप ‘मायड़ भासा रा साचा सपूत’ व्यंग्य में तथा पदलोलुपता को ‘करो लंका लूटण री त्यारी’ जैसी रचनाओं में प्रमुखता से रेखांकित किया गया है। बुलाकी शर्मा के पास बात बात में बहुत संजीदा ढंग से गहरी से गहरी बात को सामान्य ढंग से कह देने का हुनर है जो सतही तौर पर देखने में सरल प्रतीत होता है किंतु उसे साधना और बनाए रखना बहुत कठिन है। संग्रह के आरंभ में आलोचक कुंदन माली लिखते हैं- ‘समकालीन व्यंग्य परिवेश में बहुत लंबे समय के बाद बुलाकी शर्मा के व्यंग्य संग्रह का आना ताजा हवा का झोंका है, और इस सौरम का स्वागत है।’ संग्रह किताबगंज प्रकाशन गंगापुर सिटी से प्रकाशित हुआ है।

(2.) साहित्य और समाज के दोहरे चरित्रों को खोलते व्यंग्य

व्यंग्य विधा में देशव्यापी पहचान बनाने वाले व्यंग्यकारों में राजस्थान से बुलाकी शर्मा का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। उनका सद्य प्रकाशित दसवां व्यंग्य संग्रह ‘पांचवां कबीर’ साहित्य और समाज के दोहरे चरित्रों को खोलते हुए व्यंग्य-बाणों से भरपूर प्रहार करने में समर्थ है। साहित्य और साहित्यकारों पर केंद्रित शीर्षक व्यंग्य में साहित्यिक नामों की फतवेबाजी से हो रही पतनशीलता के साथ दोहरे चरित्रों को केंद्र में रखते हुए निशाना साधा गया है। व्यंग्य का अंश है- ‘अगले सप्ताह ही तुम्हारी पुस्तक पर मैं स्वयं चर्चा रखवाता हूं। अपने खर्चे पर। कबीर तो बिचारे राष्ट्रीय कवि हैं। तुम्हारी प्रतिभा अंतरराष्ट्रीय है। इसलिए मैं तुम्हें शहर का इकलौता कवि कीट्स अवतरित करके अंतरराष्ट्रीय कवि स्थापित कर दूंगा। अब तो गुस्सा छोड़ो।’ व्यंग्यकार बुलाकी शर्मा स्थितियों का चित्रण करते हुए बहुत कुछ अनकहा भी अपने पाठकों तक पहुंचाने में जैसे सिद्धहस्त है।
    बुलाकी शर्मा के व्यंग्यों में सर्वाधिक उल्लेखनीय भाषा-शैली है। वे किसी भी तथ्य, बिंदु, छोटे से समाचार अथवा घटना को कहानी के रूप में बतरस के साथ कहन-कौशल रखते हैं। साधारण से असाधारण और असाधारण से साधारण स्थितियों में व्यंग्य खोजना और उनमें अपने पाठकों को ऐसे प्रवेश कराते हैं कि आश्चर्यचकित करते हैं। ‘पिता की फ्रेंड रिक्वेट’ में आधुनिक समय की त्रासदी को जिस ढंग से फेसबुक मित्रता आग्रह के एक छोटे से प्रसंग से कथात्मक रूप से संजोया है वह अपने आप में असाधारण व्यंग्य इस लिहाज से बनता है कि आज उत्तर आधुनिकता के समय पीढ़ियों का अंतराल, सभ्यता और संस्कार सभी कुछ उनके व्यंग्य से पाठक के सामने केंद्र में आकर खड़े हो जाते हैं। व्यंग्यकार का सबसे बड़ा कौशल यही होता है कि वह अपना निशाना साधते हुए ऐसे पर्खचे उड़ाए कि जब तक पाठक उस अहसास और अनुभूति तक पहुंचे तो उसे भान हो जाए कि बड़ा धमाका हो चुका है। उसे कुछ करना है, यह कुछ करने का अहसास करना ही व्यंग्य की सफलता है। व्यंग्यकार शर्मा के लिए व्यंग्य हमारे समय की विद्रूपताओं को रेखांकित करते हुआ मानव मन में बदलावों के बीजों को अंकुरित करने का एक माध्यम है।
    संग्रह ‘पांचवां कबीर’ में आकार की दृष्टि से छोटे, बड़े और मध्यम सभी प्रकार की व्यंग्य रचनाएं संकलित हुई हैं, वहीं अंतिम व्यंग्य ‘मेरी डायरी के कुछ चुनिंदा पृष्ठ’ स्वयं लेखक द्वारा राजस्थानी भाषा से अनूदित रचना है। बुलाकी शर्मा की प्रस्तुत कृति में कोरोना काल से जुड़े कुछ व्यंग्य हैं, तो समकालीन राजनीति-साहित्य समाज को भी इसमें सीधा-सीधा निशाने पर लिया गया है। अखबारों में कॉलम के रूप में लिखे जाने व्यंग्य अपनी तात्कालिकता और समसामियता के कारण समयोपरांत वह असर नहीं छोड़ते हैं जो उसके लिखे जाने के वक्त रहा होता है। जाहिर है बुलाकी शर्मा के इस व्यंग्य संग्रह में कुछ ऐसे व्यंग्य भी हैं जिनमें स्थानीयता और तात्कालिक स्थितियां हावी हैं। यह सुरुचिपूर्ण बेहद पठनीय संग्रह को इंडिया नेटबुक्स नौएडा ने प्रकाशित किया है।
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डॉ. नीरज दइया


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प्यास के मरुथल का इतिहास / डॉ. नीरज दइया

  मनुष्य-जीवन किसी तिलस्मी पहेली की भांति अनादिकाल से चुनौतीपूर्ण विषय रहा है। जीवन की महायात्रा कब से चल रही है? जीवन का गूढ़ रहस्य क्या है? इसके अनेक उतार-चढ़ाव और झंझावात हैं तो यह कितने यथार्थ और काल्पनिकता का मिश्रण है। सच-झूठ और सुख-दुख का लंबा इतिहास है फिर से यह मन किससे पूछे और यह पूछना भी कितना सार्थक है। निर्थकता के बीच असार जीवन में सार की दिशा हमें ज्ञात भी है अथवा हम अज्ञात दिशाओं में जीवन भर भ्रमित होते रहते हैं। ऐसी ही कुछ पृष्ठभूमि लिए और अपने पूरे विषय को गहना से समेटती हुई डॉ. मंगत बादल की यह काव्य-कृति- ‘साक्षी रहे हो तुम’ अनुपम रचना है। इस में कवि ने अनंत जीवन के गूढ़ रहस्य को बहुत सधी हुई भाषा में जानने-समझने का पुनः पुनः काव्यात्मक उपक्रम किया है। इसे एक काव्य-प्रयोग कहना अधिक उचित होगा। आरंभिक पंक्तियां देखें-
            हे अनंत! हे काल!
            महाकाल हे!
            हे विराट!
            यह महायात्रा चल रही कब से
            नहीं है जिसका प्रारंभ
            मध्य और अंत
            केवल प्रवाह...
            प्रवाह!
             यह रचना इसी प्रवाह और निरंतर प्रवाह में स्वयं कवि के साथ अपने पाठकों को भी प्रवाहित और प्रभावित करते हुए चलती है। इसे एक संबोधन काव्य कहना उचित होगा। यह निसंदेह अनंत, काल, महाकाल और विराट को संबोधित है किंतु इन सभी के अंशी आत्म रूपा हमारी आत्मा को भी प्रकारांतर से संबोधित काव्य है। कवि ने ज्ञान, विज्ञान और इतिहास की विभिन्न अवधारणाओं का न केवल स्पर्श किया है वरन उन विराट अवधारणाओं को विराट रूप में ग्रहण करते हुए हमें इस संबंध में अनेक विकल्पों के साथ अपने उत्स के प्रश्न से जूझने और जानने की अकुलाहट-बेचैनी और गहन त्रासदी के भंवर में खड़े होने और खड़े रहने का आह्वान किया है। यह एक भांति से हमारा आत्म-साक्षात्कार है। इसमें प्रकृति के विविध अंगों-उपांगों में कवि के साथ पाठक भी अपने परिचय और पहचान को ढूंढ़ते हुए अपनी महायात्रा में उमड़ते हुए जैसे बरसने लगता है। इस महायात्रा के विषय में यह पंक्ति इसके विस्तार को जैसे शब्दबद्ध करतीं हुई भले हमारी गति के विषय में संदेह देती है किंतु विचार को एक दिशा देती है। यह रचना एक प्यास है और जो प्यास के मरुस्थल का इतिहास अपनी समग्रता-सहजता में अभिव्यक्त करती है।  
गगन, पावक, क्षिति, जल
और फिर
चलने लगे पवन उनचास
निःशब्द से शब्द
आत्म से अनात्म
सूक्ष्म से स्थूल
अदृश्य से दृश्य
भावन से विचार की ओर।
            निशब्द से शब्द, आत्म से अनात्म, सूक्ष्म से स्थूल, दृश्य से अदृश्य अथवा भावना से विचार का यह एक लंबा गीत है। पाठक प्रश्नाकुल होकर इस दिशा में विचार करने लगता है कि वास्तव में जीवन का रहस्य क्या है? आत्मीय स्पर्श से भरपूर यह एक कवि का आत्मा-संवाद है और इसमें कवि की स्थिति में पाठक का पहुंचना इसकी सार्थकता है। यह छोटे मुंह से बहुत बड़ा सवाल है कि पृथ्वी को गति कौन देता है? हमारी गति और पृथ्वी की गति के मध्य सापेक्षता के विषय में विचार होना चाहिए। असीम के बीच हमारी मानव जाति की सीमाओं के संबंध में यह भले नया विचार ना हो किंतु इस कठिन डगर पर चलना भी बेहद कठिन है। एक आदिम प्रश्न को लेकर उसको नई कविता के शिल्प में पाठकों को बांधते हुए निरंतर किसी दिशा में प्रवाहित होना अथवा प्रवाहित किए रखना एक कौशल है जिसे कवि डॉ. मंगत बादल की निजी उपलब्धि कहना होगा। कवि कहता है-
साक्षी रहे हो तुम
इन सब के होने के
पुनः लौट कर
बिंदु में सिंधु के
तुम ही तो हो
ब्रह्मा, स्रष्टा, प्रजापति, रचयिता
पालन कर्त्ता विष्णु
तुम ही आदिदेव
देवाधिदेव! शिव!
त्रिदेव! हे प्रणवाक्षर!
            यह एक प्रार्थना गीत भी है जो स्वयं की तलाश में जैसे भटकते भटकते कहीं पहुंचने को व्याकुल और आतुर है। हमारे धार्मिक मिथकों और विश्वासों के बीच अपने होने और न होने के विषय पर चिंतन करते हुए यहां कवि की निरंतर अभिलाषा अभिव्यक्त हुई है कि वह किसी बिंदु पर स्थिर हो जाए। अनेक बिंदुओं और अनेक धाराओं के बीच किसी एक दिशा में कोई कैसे प्रवाहित रह सकता है। प्रकृति के एक अंश के रूप में यह किसी अनाम और नाम के जाल में उलझे एक वनफूल का अपने पूरे रहस्यमयी पर्यावरण से प्रश्न है।
कौन है मेरे होने
या नहीं हूंगा तब
कारण दोनों का
साक्षी हो तुम, बोलो!
रहस्य पर पड़े आवरण खोलो!       
            यहां कर्म और भाग्य फल के साथ मनुष्य जीवन के अनेक स्मरण है जिसमें आत्मा और अनात्मा के बीच अस्थित्ववाद और चेतन-अचेतन के द्वारों को खटकाते हुए अनेक रंग बिखरे हुए हैं। यह अपने अर्थ को अर्थ की दीवारों की परिधि से बाहर झांकने का सबल प्रयास है।
आत्मा भी क्या
आकार कर धारण
शब्द का कहीं
बैठी है
अर्थ की दीवारों के पार?
            इस कृति की आत्मीयता और विशिष्टता का प्रमाण यह भी है कि कवि ने अध्ययन-मनन-चिंतन द्वारा विभिन्न अवधारणाओं से ना केवल परिचित करते हुए अपने द्वंद्व व्यंजित किए है वरन उन सब में हमारे भी प्रश्नाकुलित मन को शामिल किया है। यहां परंपरा और मिथकों की साक्षी में कर्म और भाग्य के अनेक प्रश्न बहुत सुंदर ढंग से प्रस्तुत हुए हैं। आत्मा-परमात्मा, विनाश-महाविनाश के बाद फिर-फिर जीवन की अवधारणा के विभिन्न स्तर यहां प्रभावित करने वाले हैं। आत्मा और शरीर के मध्य क्या और कैसा संबंध है इसकी झलक देखना जैसे कवि का एक उद्देश्य रहा है। यह पग-पग पर संदेह और भटकाव का अहसास भी है तो कुछ पाने की छटपटाहट भी, इसलिए कवि ने कहा है-
मृत्यु-भीत मानव का
बैद्धिक-विलास
कोरा वाग्जाल मृगजल...
या प्रयास यह उसे जानने का
समा गया जो
गर्भ में तुम्हारे
छटपटा रहा किंतु
मनुष्य के
ज्ञान के घेरों में आने को।
            जीवन और मृत्यु के दो छोरों के बीच यह गति अथवा किसी ठहराव, भटकन को उल्लेखित करती पूरी कविता जैसे नियति और जीवन को बारंबार परिभाषित करती है। यहां कवि की कामना है कि प्रत्येक जीवन अपने आप में परिपूर्ण और उद्देश्यपूर्ण हो।
            अस्तु यह कृति जाग और नींद के मध्य एक पुल निर्मित कर जड़ और चेतना के बीच बिलखती काव्य-आत्मा का ही प्रलाप और हाहाकार है। यह अपनी हद में अनहद की यात्रा है। यह प्रकाश और अंधकार के बीच अपनी नियति की तलाश है- ‘अंधकार का अंश होना ही / क्या अंतिम नियति है मेरी?’ अथवा ‘बदल जाएंगी भूमिकाएं / हम सब की / बदल जाएगा यह रंगमंच / नहीं बदलोगे केवल तुम!’
            यह जीवन हमारा जागरण है अथवा पूरा जीवन ही एक निद्रा है। यह रहस्य वह सर्वज्ञ ही जानता है जिसने इस जटिल मार्ग पर चलने की कवि को प्रेरणा दी है। अकूत संभावनाओं से भरे इस पूरे इतिवृत्त को ‘काल महाकाव्य’ के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। हमारे रचयिता के संबंध में यह एकालाप अथवा प्रलाप ‘मनुष्य’ को जानने-समझने का अनूठा उपक्रम है। किसी तयशुदा निकस पर कवि हमें नहीं ले कर जाता वरन वह जीवन के रहस्य को पहचानने का अलग अलग बिंदुओं दृष्टिकोणों से आह्वान करता है। इस रूप में यह काव्य-रचना एक आह्वान-गीत भी है कि हम स्वयं को जाने, हम क्या हैं? इसका पाठ अपने आत्म और उत्स के अनेक आयामों को खोजना और सांसारिक सत्यों के साथ आत्म-साक्षात्कार करना तो है ही, साथ ही साथ जन्म-मरण और पुनर्जन्म की अबूझ पहेली में उतराना-डूबना, फिर-फिर उतराना-डूबना भी है। निसंदेह यह रचना दीर्घ कविता के क्षेत्र में अपनी विषय-वस्तु, शिल्प-संरचना और भाषा-पक्ष के लिए लंबे समय तक एक उपलब्धि के रूप में स्मरण की जाएगी।
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साक्षी रहे हो तुम (काव्य-कृति) डॉ. मंगत बादल
संस्करण :2020 ;  पृष्ठ : 80 ; मूल्य : 150/-
प्रकाशक : बोधि प्रकाशन, जयपुर

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- डॉ. नीरज दइया


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श्रीलाल शुक्ल के लेखक मन की पड़ताल / डॉ. नीरज दइया

साहित्यकार श्रीलाल शुक्ल की प्रसिद्धि विशेष रूप से उनके उपन्यास “राग दरबारी” के कारण मानी जाती है, किंतु इस सत्य के मूल्यांकन का एक विकल्प प्रेम जनमेजय द्वारा साहित्य अकादमी के लिए लिखित विनिबंध “श्रीलाल शुक्ल” है। साहित्य अकादेमी और भारतीय ज्ञानपीठ से सम्मानित श्रीलाल शुक्ल (1925-2011) ने विपुल साहित्य सृजन किया और उनके कार्यों का व्यापक मूल्यांकन भी हुआ। अनेक साक्षात्कारों में उन्होंने अपने साहित्य से जुड़े और इतर प्रसंगों पर बेबाकी से अपनी बात भी रखी है। प्रेम जनमेजय अपने आरंभिक लेखन काल से ही शुक्ल जी से जुड़े और आखरी समय तक जुड़े रहे हैं। जनमेजय जी के उनसे अंतरंग लंबे संपर्क का ही प्रतिफल है कि प्रस्तुत विनिबंध में हम बहुत व्यवस्थित रूप से शुक्ल जी के व्यक्तित्व और कृतित्व को न केवल व्यापकता के साथ जान पाते हैं वरन महसूस भी कर पाते हैं कि कैसे वे उच्च कोटि के  लेखक होने के साथ-साथ उन्मुक्त भाव से अपनी बात रखने वाले स्नेहिल व्यक्ति भी थे।
            श्रीलाल शुक्ल जी को भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने के समाचार का शीर्षक
“उम्र के इस पड़ाव पर खास रोमांचित नहीं करता पुरस्कार- श्रीलाल” पढ़कर प्रेम जनमेजय जी का मन तत्काल फोन करने का हुआ किंतु वे यह सोचकर रुक गए कि उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं है। किंतु वे अधिकर देर नहीं रुक सके और उनसे उनका संवाद हुआ, परिणाम श्रीलाल शुक्ल जी ने रोमांच नहीं होने के विषय में कहा- “ऐसा नहीं प्रेम जी, ऐसे पुरस्कारों से संतोष अवश्य होता है। इस उम्र में अक्सर साहित्यकारों को उपेक्षित कर दिया जाता है। यह पुरस्कार संतोष देता है कि मैं उपेक्षित नहीं हूं।’ यह उनका प्रेमजी से अंतिम संवाद था। यहां यह स्पष्ट करना जरूरी है कि प्रेम जनमेजय जी ने पूरी ईमानदारी से प्रस्तुत विनिबंध में अनेक स्थलों पर सप्रमाण अपनी बात कहने का प्रयास किया है। पुस्तक का आरंभ ‘आरंभ’ शीर्षक के आलेख से होता है जिसमें एक युवा लेखक का अपने वरिष्ठ रचनाकार के प्रति सम्मान है वहीं विभिन्न कथनों के आलोक में श्रीलाल शुक्ल के लेखक मन की पड़ताल भी है। ‘जीवन यात्र के पदचिह्न’ में जन्म से लेकर निधन तक के पूरे घटनाक्रम में श्रीलाल शुल्क के लेखक के साथ घर-परिवार-समाज के जीवन में उनके दृष्टिकोण के साथ आत्मीयता को भी रेखांकित किया गया है। इस कृति के माध्यम से हम हमारे समय के वरिष्ठ लेखक की जीवन शैली और दिनचर्या के साथ विचारधार और प्रतिबद्धता का भी अंदाजा लगा सकते हैं। इसी अध्याय को अधिक गंभीरता से ‘दृष्टिकोण’ में स्पष्ट किया गया है कि एक लेखक किस प्रकार से अपने साहित्य समाज में किन-किन और कैसे-कैसे संघर्षों के साथ आगे बढ़ता चला जाता है।

            श्रीलाल शुक्ल के प्रसिद्ध उपन्यास ‘राग दरवारी’ के पहले उनके रचनाक्रम और संघर्ष को ‘आरंभिक रचना-यात्रा’ आध्याय में रेखांकित किया गया है वहीं ‘राग दरबारी युग का रचना-समय’ में यह सिद्ध करने का उपक्रम है कि किस प्रकार एक रचना अपने पुरस्कार के बाद विचारधाराओं को परिवर्तित कर केंद्र में स्थापित हो जाती है। राग दरबारी का अपना एक युग रहा है और रहेगा, उसका भी विस्तार से विवरण और व्यंग्य-यात्रा के अंक का उल्लेख द्वारा प्रेम जनमेजय जी के हवाले उपन्यास विषयक अनेक नवीन तथ्य और जानकारियां यहां है। विनिबंध में न केवल राग दरबारी वरन श्रीलाल शुक्ल जी के समग्र उपन्यास साहित्य का आंशिक परिचय और रचनाओं की केंद्रीय भावभूमि को स्पष्ट किया गया है। श्रीलाल शुक्ल के कहानी-संग्रहों, व्यंग्य-संग्रहों और अन्य विधाओं में उनके अवदान को विनिबंधकार ने बिंदुवार रेखांकित किया है। ‘उपसंहार’ में पूरी चर्चा को समेकित करते हुए श्रीलाल शुक्ल के भारतीय साहित्य में योगदान के विभिन्न स्तरों को उल्लेखित किया गया है। यहां विशेष बात यह भी कि हम इस कृति के माध्यम से प्रेम जनमेजय जी अपने प्रिय लेखक श्रीलाल शुक्ल के समग्र साहित्य के विशद अध्ययन का आस्वाद कराते हैं। यहां उनके व्यक्तिगत चिंतन, मनन के आलोक में तथ्यों को लेकर स्पष्टता भी प्रभावित करती है। अनेक वरिष्ठ और समकालीन लेखकों के विभिन्न कृतियों और प्रसंगों पर कथनों के माध्यम से हम जिस श्रीलाल शुक्ल लेखक की पहचान करने में सक्षम होते हैं निसंदेह वह पहचान हमारी पूर्ववर्ती पहचान को दृढ़, समृद्ध और परिपक्क्व बनाती है। किसी विनिबंध की सफलता यही होती है कि हम हमारे परिचित रचनाकार को समग्रता में जानने का अवसर प्रदान करे

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भारतीय साहित्य के निर्माता : श्रीलाल शुक्ल / प्रेम जनमेजय

साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली

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-    डॉ. नीरज दइया


 

 

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पाण्डेय जी का पीछा करते हुए लालित्य ललित / डॉ. नीरज दइया

आपके हाथों में जो किताब है उसके लेखक श्री लालित्य ललित मेरे मित्र हैं। हमारी मित्रता की प्रगाढ़ता का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि मुझे उन्होंने अपनी रचनाएं भेजते हुए संग्रह की भूमिका के साथ इसके नामकरण का भी अनुरोध किया है। मैं लेखन के मामले में बचपन से ही पूरी तरह से स्वत्रंत रहा हूं। अब जब लेखन में कुछ नाम और बदनाम हो जाने के बाद पाता हूं कि लिखता तो मैं भी हूं पर लालित जी तो खूब लिखते हैं। क्या आप प्रतिदिन व्यंग्य लिखने को सरल काम समझते हैं? मैं तो नहीं लिख सकता और इसे बहुत कठिन काम मानता हूं। इस लिहाज से और वैसे भी मैं खुद को लालित्य ललित से छोटा व्यंग्यकार मानता हूं। मैं इस संसार में लालित्य से पहले आया और वे भी बिना देरी किए मुझसे सवा साल बाद आ गए। इसलिए मैंने भी उनसे सवा साल बाद हिंदी व्यंग्य के क्षेत्र में पदार्पण किया था।
दुनिया में बहुत सी बातें समझ नहीं आती। वैसे साहित्य में छोटा-बड़ा क्या होता है? व्यंग्यकार तो कुछ अलग दृष्टि रखता है इसलिए उसे सब कुछ या तो बड़ा-बड़ा दिखाई देता है या फिर छोटा-छोटा। उसे जो जैसा है उसे देखने में जरा संकोच होता है। जैसे निंदक का स्वभाव निंदा करना होता है वैसे ही व्यंग्यकार के स्वभाव में मेन-मेख का भाव समाहित हो जाता है। प्रत्यक्ष में इसे मैं संयोग ही कहूंगा पर सोचता हूं कि उन्होंने इतने मित्रों में मेरा चयन क्यों किया? यह मीन-मेख का स्वभाव ही है। मित्र पर शक-संका करना भला मित्र धर्म है क्या? पर मित्रों में झूठ भी अपराध है। इसलिए सब कुछ बताना ठीक है। मैं चिंता में हूं। मेरे पास इस चिंता के अलावा भी अनेक चिंताएं हैं। कुछ चिंताएं आपसे साझा करना चाहता हूं। मेरी चिंता है कि पहले व्यंग्य लेखन बहुत कठिन काम समझा जाता था, हर कोई लेखक व्यंग्य लिखने की हिम्मत नहीं करता था। अब जब से हमारी पीढ़ी यानी लालित्य ललित और मेरे जैसे लेखकों ने इस विधा में सक्रिया दिखाई है तभी से इसे बहुत सरल समझा कर बहुत से लेखक व्यंग्यकार बनने का प्रयास करने लगे हैं।
वैसे अपनी जमात के लिए यह कहना ठीक नहीं है कि व्यंग्यकार टांग खींचने के मामले में बदनाम हैं। वे अनेक ऐसी युक्तियां जानते हैं कि छोटों को बड़ा और बड़ों को छोटा बनाते में लगे रहते हैं। मैं कोई ठीक बात लिखूंगा तब भी उसे किसी भी रूप में लेने और समझने के लिए सब स्वयं को स्वतंत्र समझते हैं। मैं कह देता हूं कि आपकी स्वतंत्रता का यह अर्थ कदापि नहीं है कि मेरी सीधी और सरल बात को आप गंभीर और कुछ ऐसी-वैसी समझने की भूल करें। देखिए लोग कीचड़ को देखकर बच कर निकलने का प्रयास करते हैं। स्वच्छता अभियान के इस दौर में भला कीचड़ और गंदगी को गले लगना कहां की समझदारी है। व्यंग्यकार तो जैसे बिना नियुक्ति के स्वच्छता अभियान के कार्यकर्ता हैं, जो जरा गंदगी या फिर कीचड़ दिखते ही झाड़ते हैं। वे कलम हाथ उठाए ही रखते हैं। आज लिखा, कल छपा, के इस दौर में रचना को अधिक पकाने का काम हम नहीं करते हैं। इतना समय ही हमें कहां मिलता हैं और वैसे भी हमारा एक हाथ तो सदा पत्थरों से भरा रहता है। जहां कीचड़ दिखाता है, वहीं पत्थर फेंक निशाना साधते हैं। कभी तो कुछ छींटे हमारे पर आ गिरते हैं और नहीं गिरते तो हम खुद ही थोड़े कीचड़ से सना हुआ दिखते हैं, जिससे लगे कि हम यर्थाथ के धरातल पर हैं। अगले दिन हमारा वह अचूक निशाना अखबारों की शोभा बनता है। हमें निरंतर प्रकाशित होना बहुत अच्छा लगता है।  
अन्य विधाओं की तुलना में भाषा का सर्वाधिक प्रखर और प्रांजल प्रयोग व्यंग्य विधा में संभव है। मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि पूरी दुनिया की विसंगतियां, फोड़े, फुंसिया, घाव, मवाद, गंदगी, कीचड़ आदि जो कुछ भी है, उन के पीछे व्यंग्यकार नश्तर लिए पड़े हुए हैं। हम दुनिया को सुंदर बनाने का स्वप्न लिए हुए, जगह-जगह घाव कर रहे हैं और कहीं-कहीं गहरे तक चीर-फाड़ करते हुए सब कुछ ठीक करने में लगे हुए हैं, किंतु इतना काम करने के बाद भी ढाक के वही तीन पात।
भूमिका का मतलब भूमिका होता है और इसलिए मैंने इतनी लंबी-चौड़ी भूमिका बनाई है। अब असली मुद्दे पर आना चाहिए। बहुत सी भूमिकाएं और प्रवचन मैंने और अपने ऐसे देखें है, जिनमें बहुत बड़ी-बड़ी बातें होती है, पर मुख्य बात किताब और किताब के लेखक को बहुत कम महत्त्व देते हैं। मैं ऐसा करने की भूल नहीं कर सकता हूं। इसलिए मैंने अब तक बिल्कुल छोटी-छोटी मामूली बातें की है और अब गंभीर बात करने जा रहा हूं।
इक्कीसवीं सदी के व्यंग्यकारों में लालित्य ललित बेशक शरीर से भारी-भरकम दिखाई देते हो, किंतु उनकी रचनात्मक तीव्रता किसी तेज धावक सरीखी है। वे उम्र के अर्द्ध शतक के पास हैं और लिखने वाले हाथ में इतनी तेजी है कि ‘की-पेड’ भी उन्हें बहुत बार कहता होगा- ‘भाई साहब जरा धीरे, मैं तो मशीन हूं।’ यह बहुत हर्ष और गर्व का विषय है कि लालित्य आधुनिक तकनीक के मामले में बहुत आगे और तेज है। वे बहुत जल्दी किसी भी घटनाक्रम को रचना को शब्दों से साधते हुए द्रुत गति से दुनिया के सुदूर इलाकों में इंटरनेट के माध्यम से पहुंचने की क्षमता रखते हैं।  
जैसा कि मैंने पहले स्पष्ट कर दिया कि मैं कहने-सुनने के मामले में बिल्कुल साफ हूं और साफ मन से आपको स्वतंत्रता देना पसंद नहीं करता। मैं दुआ करता हूं कि मशीनों के बीच हमारे व्यंग्यकार भाई लालित्य ललित की अंगुलियां ‘की-पेड’ जैसी किसी मशीन में ना तब्दील हो जाए। यहां एक खतरे का अहसास है कि हिंदी में सर्वाधिक तेजी से अधिक व्यंग्य लिखने वाले लेखकों में शामिल होना बहुत अपने आप में चुनौति भरा है। इसमें बहुत हुनर और होशियारी चाहिए। इन और ऐसी अनेक विशेषाओं के बारे में आप कुछ भी कहें पर मैं तो ललित-मित्र-धर्म में बंधा, उन्हें अव्वल कहता हूं। दीवानगी की हद तक लालित्य ललित को पाण्डेय जी का पीछा करते हुए मैंने देखा है। उन्होंने पाण्डेय जी को इतना फेमस कर दिया है कि पाण्डेय जी पर उनका कॉपीराइट हो चुका है। अब सबको पाण्डेय जी को बिल्कुल छोड़ देना चाहिए। मैं या अन्य कोई व्यंग्यकार अपने व्यंग्य में किसी दूसरे पाण्डेय जी को भी लाएंगे तो पाठक यही सोचेंगे कि लालित्य ललित वाले पाण्डेय जी को चुरा कर लाए हैं। पाण्डेय जी इस असंवेदनशील होती दुनिया में संवेदनशीलता की एक मिशाल है। मेरे कहने का अभिप्राय यह है कि व्यंग्यकार में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण संवेदनाशीलता ही होती है, जिसे देखा-समझा जाना चाहिए।
किसी पर ऐसे मजाक कर जाना, जो किसी को चुभे भी नहीं और अपना काम भी कर जाए,  यह आत्मकथन हमें लालित्य ललित के उनके पहले व्यंग्य संग्रह के लिए लिखे आरंभिक बयान ‘मेरी व्यंग्य-यात्रा’ में मिलता है। उनके तीनों व्यंग्य-संग्रह ‘जिंदगी तेरे नाम डार्लिंग’ (2015), ‘विलायतीराम पाण्डेय’ (2017) और ‘साहित्य के लपकूराम’ (2020) इस आत्मकथन पर एकदम खरे उतरते हैं। यह कथन उनकी इस यात्रा की संभवानाओं और सीमाओं का भी निर्धारण करने वाला कथन है। यहां यह भी उल्लेख आवश्यक है कि उनके पहले दोनों व्यंग्य संग्रहों की भूमिका प्रख्यात व्यंग्यकार प्रेम जनमेजय ने लिखी हैं और तीसरे व्यंग्य संग्रह की भूमिका प्रेम से मैंने लिखी है। जनमेजय जी ने प्रशंसात्मक लिखते हुए अंत में एक रहस्य उजागर कर दिया कि वे नए व्यंग्यकार लालित्य ललित के प्रथम व्यंग्य संग्रह का नई दुल्हन जैसा स्वागत कर रहे हैं। उसकी मुंह-दिखाई की, चाहे कितनी भी काली हो, प्रशंसा के रूप में शगुन दिया और मुठभेड़ भविष्य के लिए छोड़ दी। ललित यदि इस प्रशंसा से कुछ अधिक फूल गए तो यह उनके साहित्यिक स्वास्थ्य के लिए खतरनाक होगा।
जाहिर है कि अब मुठभेड़ होनी है और यह भी देखा जाना है कि उनका साहित्यिक स्वास्थ्य फिलहाल कैसा है, क्यों कि उनका दूसरा और तीसरा व्यंग्य संग्रह भी आ गया है। विलायतीराम पाण्डेय, लालित्य ललित का प्रिय और पेटेंट पात्र है। इन पाण्डेय जी की भूमिका में कभी उनमें लालित्य ललित स्वयं दिखाई देते हैं| और कभी वे अनेकानेक पात्रों-चरित्रों को पाण्डेय जी में आरोपित कर देते हैं। यहां यह कहना उचित होगा कि पूर्व की भांति इस व्यंग्य संग्रह में भी लालित्य ललित ने व्यंग्य के नाम पर कुछ जलेबियां पेश की है। व्यक्तिगत जीवन में वे स्वाद के दीवाने हैं और संग्रह के अनेक व्यंग्य पाण्डेय जी के इसी स्वाद के रहते स्वादिष्ठ हो गए हैं। आपके निजी भाषिक अंदाज और चीजों के साथ परिवेश के स्वाद की रंगत और कलाकारी अन्य व्यंग्यकारों से अलग है।
लालित्य ललित कवि के रूप में भी जाने जाते हैं और संख्यात्मक रूप से भी आपकी कविताओं की किताबों का आंकड़ा मेरे जैसे कवि को डराने वाला है। उनके कवि-मन के दर्शन पाण्डेय जी में हम कर सकते हैं। लालित्य ललित कवि हैं और गद्य को कवियों का निकष कह गया है। निबंध गद्य का निकष कहा जाता है, इसमें व्यंग्य को भी समाहित कर विशेष माना जाना चाहिए।
लालित्य ललित के व्यंग्य की तुलना किसी अन्य व्यंग्यकार ने इसलिए नहीं की जा सकती कि उन्होंने निरंतर एक शैली विकसित करने का प्रयास किया है। उनके व्यंग्य मुख्य धारा से अलग अपने ही तरह के व्यंग्य कहे जाते हैं। पाण्डेय जी की अनेक रूढ़ताओं में मौलिकता और निजताएं भी हैं। प्रस्तुत व्यंग्य संग्रह में भी उनके व्यंग्यकार का स्वभाव पुष्ट होते हुए स्थितियों को एक दूसरे से जोड़ते हुए बीच-बीच में हल्की-फुलकी चुहलबाजी का रहा है। कहीं पे निगाहें और कहीं पर निशाना का भाव उनके व्यंग्य पोषित करते हैं। जैसा कि वे कवि हैं और सौंदर्य पर मुग्ध होने का उनका स्वभाविक अंदाज जैसा कि वे चाहते हैं कि कोई बात किसी को चुभे नहीं, की अभिलाषा पूरित करता है। उनके पाण्डेय जी के सभी अंदाज चुभने और अखरने वाले नहीं है। उनका हल्के-हल्के और प्यारे अंदाज से चुभना अखराता नहीं है।
विलायतीराम पाण्डेय सर्वगुण सम्पन्न है कि वे किसी फिल्म के हीरो की भांति कुछ भी कर सकते हैं। वे जब कुछ भी करते हैं, तब उनकी सहजता नजर आती है, किंतु उसमें व्यंग्यकार का हस्तक्षेप अखरने वाला भी रहता है। लालित्य ललित की यह विशेषता है कि वे विभिन्न रसों से युक्त परिपूर्ण जीवन को व्यंग्य रचनाओं में अभिव्यक्त करते हैं। अनेक वर्तमान संदर्भों-स्थितियों को उकेरते हुए वे बहु-पठित, शब्दों के साधक, कुशल वक्ता, कुशाग्र बुद्धि होने का अहसास कराते हैं।
इस संग्रह का उनका मुख्य पात्र विलायतीराम पाण्डेय उनके पहले दोनों संग्रहों में सक्रिय रहा है और यहां तो उनकी हाय-तौबा देखी जा सकती है। नाम- विलायतीराम पाण्डेय, पिता का नाम- बटेशरनाथ पाण्डेय, माता का नाम- चमेली देवी, पत्नी- राम प्यारी यानी दुलारी और दोस्त- अशर्फीलाल जैसे कुछ स्थाई संदर्भों यानी आम आदमी से व्यंग्यकार देश-दुनिया और समाज का इतिहास लिपिबद्ध करता है। यहां आधुनिकता की चकाचौंध में बदलते जीवन की रंग-बिरंगी झांकियां और झलकियां हैं। हमारे ही अपने सुख-दुख और त्रासदियों का वर्णन भी पाण्डेय जी के माध्यम से हुआ है। कहना होगा कि लालित्य ललित मजाक मजाक में अपना काम भी कर जाते हैं। यह उनकी सीमा है कि उनके व्यंग्य का मूल केवल कुछ पंक्तियों में समाहित नहीं होता है, किंतु यह उनकी खूबी है कि उनके व्यंग्य का वितान जीवन के इर्द-गिर्द व्यापकता के साथ दिखाई देता है। स्वार्थी और मोल-भाव करने वाले प्राणियों के बीच नायक विलायतीराम पाण्डेय इस दुनिया को देख-समझ रहे हैं अथवा दिखा-समझा रहे हैं। यहां एक चेहरे में अनेक चेहरों की रंगत है। सार रूप में कहा जाए तो एक बेहतर देश और समाज का सपना इन रचनाओं में निहित है।
संग्रह में विषय-विविधता के साथ समसामयिक स्थितियों से गहरी मुठभेड है। साहित्य और समाज के पतन पर पाण्डेय जी चिंतित हैं। जनमानस की बदलती प्रवृतियों और लोक व्यवहार को रेखांकित करते हुए वे कुछ ऐसे संकेत छोड़ते हैं जिन्हें पाठकों को पकड़ना है। उनका हर मजाक अहिंसक है। लालित्य ललित अपने गद्य-कौशल से किसी उद्घोषक की भांति किसी भी विषय पर आस-पास के बिम्ब-विधानों से नए रूपकों को निर्धारित करने का प्रयास करते हैं। पाण्डेय जी उनके और हमारे लिए सम्मानित नागरिक है और होने भी चाहिए। वे यत्र-तत्र ‘नत्थू’ बनने की प्रविधियों से बचाते हुए सम्मानित जीवन जीना चाहते हैं। वे परंपरागत उपमानों के स्थान पर नए और ताजे उपमान प्रयुक्त करते हैं। बाजार की बदलती भाषा और रुचियों से उनके व्यंग्य पोषित हैं।
लालित्य ललित के व्यंग्य अपनी समग्रता और एकाग्रता में जो प्रभाव रचते हैं, वह प्रभावशाली है। ऐसा भी कहा जा सकता है कि वे पृथक-पृथक अपनी व्यंजनाओं से हमें उतना प्रभावित न भी करते हो, किंतु समग्र पाठ और सामूहिकता में निःसंदेह पाण्डेय जी एक यादगार बनकर स्थाई प्रभाव पैदा करते हैं। विविध जीवन-स्थितियों से हंसते-हंसाते मुठभेड करने वाले एक स्थाई और यादगार पात्र पाण्डेय जी हर मौसम हर रंग में सक्रिय है और उनको हम नहीं भूल सकेंगे। अंत में बधाई और शुभकामनाएं।

डॉ. नीरज दइया

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लालित्य ललित की व्यंग्य-यात्रा / डॉ. नीरज दइया

 किसी पर ऐसे मजाक कर जाना, जो किसी को चुभे भी नहीं और अपना काम भी कर जाए।यह आत्मकथन हमें लालित्य ललित के पहले व्यंग्य संग्रह के लिए लिखे उनके आरंभिक बयान मेरी व्यंग्य-यात्रामें मिलता है। उनके दोनों व्यंग्य संग्रह जिंदगी तेरे नाम डार्लिंग’ (2015) और विलायतीराम पांडेय’ (2017) इस आत्मकथन पर एकदम खरे उतरते हैं। यह कथन उनकी इस यात्रा की संभवानाओं और सीमाओं का भी निर्धारण करने वाला है। यहां यह भी उल्लेख आवश्यक है कि दोनों व्यंग्य संग्रह की भूमिका प्रख्यात व्यंग्यकार प्रेम जनमेजय ने लिखी है। जनमेजय ने प्रशंसात्मक लिखते हुए अंत में रहस्य उजागर कर दिया कि वे नए व्यंग्यकार लालित्य ललित के प्रथम व्यंग्य संग्रह का नई दुल्हन जैसा स्वागत कर रहे हैं। उसकी मुंह-दिखाई की, चाहे कितनी भी काली हो, प्रशंसा के रूप में शगुन दिया और मुठभेड़ भविष्य के लिए छोड़ दी। ललित यदि इस प्रशंसा से कुछ अधिक फूल गए तो यह उनके साहित्यिक स्वास्थ्य के लिए खतरनाक होगा।जाहिर है कि अब मुठभेड़ होनी है और यह भी देखा जाना है कि उनका साहित्यिक स्वास्थ्य फिलहाल कैसा है क्यों कि उनका दूसरा व्यंग्य संग्रह भी आ चुका। दूसरे संग्रह
विलायतीराम पांडेयमें भूमिका लिखते हुए प्रेम जनमेजय ने दिवाली का सन्नाटाव्यंग्य रचना को लालित्य ललित की अब तक की रचनाओं में सर्वश्रेष्ठ कहा है। पहले व्यंग्य संग्रह को अनेक आरक्षण दिए जाने के उपरांत दूसरा संकलन जिस कठोरता और किंतु-परंतु के साथ परखे जाने की कसौटी के साथ ही आलोचना के विषय में भी अनेक संभावनाएं और सीमाओं का उल्लेख करते हुए मेरा काम आसान कर दिया है। साथ ही व्यंग्यकार लालित्य ललित ने अपने बयान में अपने व्यंग्यकार के विकसित होने में अनेक व्यंग्य लेखकों का स्मरण और आभार ज्ञाप्ति करते हुए पूरी प्रक्रिया को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। वहीं पहले संग्रज के फ्लैप पर ज्ञान चतुर्वेदी, यज्ञ शर्मा, डॉ. गिरिजाशरण अग्रवाल, सुभाष चंदर, हरीश नवल और गौतम सान्याल की टिप्पणियों को देख कर बिना व्यंग्य रचनाएं पढ़े ही लालित्य ललित को महान व्यंग्यकार कहने का मन करता है।

                मन को नियंत्रण में लेते हुए दोनों पुस्तकों में संग्रहित 66 व्यंग्य रचनाओं का गंभीरता से पाठ आवश्यक लगता है। यह गणित का आंकड़ा इसलिए भी जरूरी है कि दोनों व्यंग्य संग्रह में रचनाएं का जोड़ 67 हैं पर एक व्यंग्य पांडेजी की जलेबियांदोनों व्यंग्य संग्रहों में शामिल है। यहां यह कहना भी उचित होगा कि इन दोनों व्यंग्य संग्रह में लालित्य ललित ने व्यंग्य के नाम पर कुछ जलेबियां पेश की है। वैसे भी व्यक्तिगत जीवन में आप स्वाद के दीवाने हैं और संग्रह के अनेक व्यंग्य आपके इसी स्वाद के रहते जरा स्वादिष्ठ हो गए हैं। जाहिर है कि आपकी इन जलेबियों में आपके अपने निजी स्वाद की रंगत और कलाकारी है जो आपको अन्य व्यंग्यकारों से अलग सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है। कलाकारी इस अर्थ में कि लालित्य ललित कवि के रूप में जाने जाते हैं और संख्यात्मक रूप से भी आपकी कविताओं की किताबों का कुल जमा आंकड़ा डराने वाला है। अपनी धुन के धनी ललित का 32 वां कविता संग्रह "कभी सोचता हूं कि" आ रहा है। ऐसे में बिना पढ़े-सुने उन्हें कवि-व्यंग्यकार मानने वाले बहुत है तो जाहिर है उनके व्यंग्यकार की पड़ताल होनी चाहिए जिससे वास्तविक सत्य उजागर हो सके। उनके कवि की बात फिर कभी फिलहाल व्यंग्यकार की बात करे तो गद्य को कवियों का निकष कह गया है। निबंध गद्य का निकष कहा जाता है, इसमें व्यंग्य को भी समाहित ही नहीं विशेष माना जाना चाहिए। अस्तु कवि-कर्म को कसौटी व्यंग्य भी है।

                लालित्य ललित के व्यंग्य की तुलना किसी अन्य व्यंग्यकार ने इसलिए नहीं की जा सकती कि उन्होंने स्वयं की एक शैली विकसित करने का प्रयास किया है। उनके व्यंग्य किसी अन्य व्यंग्यकार या हिंदी व्यंग्य की मुख्य धारा से अलग अपने ही तरह के व्यंग्य लेखन का परिणाम है। उनकी यह मौलिकता उनकी निजता भी है जो उन्हीं के आत्मकथन मजाक करने में उनकी अपनी सावधानी कि किसी को चुभे नहीं और अपना काम कर जाए की कसौटी के परिवृत में समाहित है। उनकी रचनाओं का औसत आकार लघु है और कहना चाहिए कि आम तौर पर दैनिक समाचार पत्रों को संतुष्ट करने वाला है। जहां उन्होंने इस लघुता का परित्याग किया है वे अपने पूरे सामर्थ्य के साथ उजागर हुए हैं। साथ ही यह भी कि वे व्यंग्यकार के रूप में भी अनेक स्थलों पर अपने कवि रूप को त्याग नहीं पाए हैं। सौंदर्य पर मुग्ध होने के भाव में उनकी चुटकी या पंच जिसे उन्होंने मजाक संज्ञा के रूप चिह्नित किया है चुभे नहीं की अभिलाषा पूरित करता है।

                व्यंग्य का मूल भाव दिवाली का सन्नाटामें इसलिए प्रखरता पर है कि उन्होंने करुणा और त्रासदी को वहां चिह्नित किया है। इस व्यंग्य के आरंभ में पैर और चादर का खेल भाषा में खेलते हुए वे चुभते भी है और अपना काम भी करते हैं। मूल बात यह है कि उनका यह चुभना अखरने वाला नहीं है। उनकी व्यंग्य-यात्रा में कुछ ऐसे भी व्यंग्य हैं जहां उनका नहीं चुभना ध्यनाकर्षक का विषय नहीं बनता है। यहां यह भी कहना आवश्यक है कि इसी व्यंग्य का बहुत मिलता जुलता प्रारूप इसी संग्रह में संकलित अन्य व्यंग्य महंगाई की दौड़ में पांडेयजीमें देखा जा सकता है। जाहिर है मेरी यह बात चुभने वाली हो सकती है पर अगर इसने अपना काम किया तो आगामी संग्रहों में ऐसा कहने का अवसर किसी को नहीं मिलेगा। सवाल यहां यह भी उभरता है कि विलायतीराम पांडेय ने क्या सच में अपने परिवार की खुशी के लिए किडनी का सौदा कर लिया है। यह हो सकता है कहीं हुआ भी हो किंतु यहां मूल भाव ऐसा किया जाने में जो करुणा है वह रेखांकित किए जाने योग्य है। आधुनिक जीवन में घर-परिवार और बच्चों की फरमाइशों के बीच पति और पिता का किरदार निभाने वाला जीव किस कदर उलझा हुआ है। लालित्य ललित की विशेषता यह है कि वे इस पिता और खासकर पति नामक जीव की पूरी ज्यामिति वर्तमान संदर्भों-स्थितियों में उकेरने की कोशिश करते हैं।

                उनका मुख्य पात्र विलायतीराम पांडेय दोनों संग्रहों में सक्रिय है और दूसरे में तो वह पूरी तरह छाया हुआ है। धीरे धीरे उसकी पूरी जन्म कुंडली हमारे सामने आ जाती है। नाम- विलायतीराम पांडेय, पिता का नाम- बटेशरनाथ पांडेय, माता का नाम- चमेली देवी, पत्नी- राम प्यारी यानी दुलारी और दोस्त- अशर्फीलाल जैसे कुछ स्थाई संदर्भ व्यंग्यकार ने अपने नाम करते हुए विगत चार-पांच वर्षों का देश और दुनिया का एक इतिहास इनके द्वारा हमारे समाने रखने का प्रयास किया है। यहां दिल्ली और महानगरों में परिवर्तित जीवन की रंग-बिरंगी अनेक झांकियां है तो उनके सुख-दुख के साथ त्रासदियों का वर्णन भी है। पति-पत्नी की नोक-झोंक और प्रेम के किस्सों के साथ एक संदेश और शिक्षा का अनकहा भाव भी समाहित है। कहना होगा कि लालित्य ललित मजाक मजाक में अपना काम भी कर जाते हैं। यहां व्यंग्य का मूल केवल कुछ पंक्तियों में निहित नहीं है, वरन व्यंग्य का वितान जीवन के इर्द-गिर्द दिखाई देता है। स्वार्थी और मोल-भाव करने वाले प्राणियों के बीच इन रचनाओं का नायक विलायतीराम पांडेय कहीं-कहीं खुद व्यंग्यकार लालित्य ललित नजर आता है तो कहीं-कहीं उनके रंग रूप में पाठक भी स्वयं को अपने चेहरों को समाहित देख सकते हैं। आज का युवा वर्ग इन रचनाओं में विद्यमान है। उसके सोच और समझ को व्याख्यायित करते हुए एक बेहतर देश और समाज का सपना इनमें निहित है।

                यहां लालित्य ललित की अब तक की व्यंग्य-यात्रा के सभी व्यंग्यों की चर्चा संभव नहीं है फिर भी उनके दोनों संग्रहों से कुछ पंक्तियां इस आश्य के साथ प्रस्तुत होनी चाहिए कि जिनसे उनके व्यंग्यकार का मूल भाव प्रगट हो सके। पहले व्यंग्य संग्रह से कुछ उदाहरण देखें- ‘आप भारतीय हैं यदि सही मायनों में, तो पड़ोसी से जलन करना, खुन्नस निकालना आपका जन्मसिद्ध अधिकार है।’ (पृष्ठ-15); जमाना चतुर सुजानों का है। मक्खन-मलाई का है, हां-जी, हां-जी का है, अगर आप यह टेक्नीक नहीं सीखोगे तो मात खा जाओगे, दुनियादारी से पिछड़ जाओगे।’ (पृष्ठ-20); मगर यह बॉस किसिम के जीव जरा घाघ प्रजाति के होते हैं, जो न आपके सगे होते हैं और संबंधी तो बिल्कुल नहीं।’ (पृष्ठ-29); सांसारिक लोगों का हाजमा होता ही कमजोर है।’ (पृष्ठ-37); इन दिनों बड़ा लेखक छोटे को कुछ नहीं समझता तो छोटा लेखक बड़े को बड़ा नहीं समझता, हिसाब-किताब बराबर।’ (पृष्ठ-52); जो लेते हैं मौका, वही माते हैं चौका।’ (पृष्ठ-58); यह हिंदुस्तान है, यहां कुछ भी हो सकता है। अंधे का ड्राइविंग लाइसेंस बन सकता है। मृत को जीवित बनाया जा सकता है।’ (पृष्ठ-65);  यही तो भारतीय परंपरा है- हम एक बार किसी से कुछ उधार लेते हैं तो देते नहीं।’ (पृष्ठ-92) आदि

                कुछ उदाहरण दूसरे व्यंग्य संग्रह से- ‘विलायतीराम पांडेय ने सोचा पल्ले पैसा हो तो साहित्यकार क्या, मंच क्या, अखबार क्या कुछ भी मैनेज किया जा सकता है।’ (पृष्ठ-21); ‘घूस देना आज राष्ट्रीय पर्व बन चुका है। अपने दी, आपकी फाइल चल पड़ी और नहीं दी तो आपका काम अटक गया, भले ही आप कितने बड़े तोपची हों।’ (पृष्ठ-24); ‘एक वो जमान था, एक अब जमाना है। बच्चे पहले तो सुन लेते थे, पर अब लगता है जैसे हम भैंक रहे हैं और वह अनसुना करने में यकीन करते हैं।’ (पृष्ठ-28); ‘कामवाली बाई भी वाट्सअप पर बता देती है, आज माथा गर्म है, मेमसाब, नहीं आ पाऊंगी, वेशक पगार काट लेना। (पृष्ठ-30); ‘बाजार में नोटबंदी के चलते कर्फ्यू-सा माहौल था।’ (पृष्ठ-38); ‘अब देश के नेता बाढ़ में जाने के बजाय अपना दुःख ट्विटर पर व्यक्त कर देते हैं।  (पृष्ठ-66); ‘मंदी ने बजाया आज सभी का बाजा, लेकिन राजनेताओं का कभी नहीं बजता बाजा, पता नहीं वो दिन कब आएगा।’ (पृष्ठ-80); ‘नंगापन क्या समाज के लिए अनिवार्य योग्यताओं में शामिल एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है। कितने पोर्न पसंदीदा हो गए हम।’ (पृष्ठ-92); आदि उदाहरणो से जाहिर है कि उनके यहां विषय की विविधा के साथ समसामयिक स्थितियों से गहरी मुठभेड भी है। वे साहित्य और समाज के पतन पर चिंतित दिखाई देते हैं और साथ ही जनमानस की बदलती प्रवृतियों और लोक व्यवहार को रेखांकित करते हुए कुछ ऐसे संकेत छोड़ते हैं जिन्हें पाठकों को पकड़ना है। वे अपनी बात पर कायम है कि उनका कोई भी मजाक हिंसक नहीं है वरन वे अहिंसा के साथ उस रोग और प्रवृत्ति को स्वचिंतन से बदलने का मार्ग दिखलाते हैं।

                लालित्य ललित के पास गद्य का एक कौशल है जिसके रहते वे किसी उद्घोषक की भांति अपनी बात कहते हुए आधुनिक शव्दावली में अपने आस-पास के बिम्ब-विधान के साथ नए रूपकों को निर्धारित करने का प्रयास करते हैं। काफी जगहों पर हम व्यंग्य में कवि के रूप में यमकऔर श्लेषअलंकारों पर उनका मोह भी देख सकते हैं। एक उदाहरण देखें- ‘बॉस यदि शक्की है तो आपको ऐशहो सकती है, बच्चन वाली ऐशनहीं। नहीं तो अभिषेक की ठुकाई के पात्र बन सकते हैं।’ (‘जिंदगी तेरे नाम डार्लिंग’, पृष्ठ-35) वे व्यक्तिगत जीवन में खाने और जायकों के शौकीन हैं तो उनके व्यंग्य में ऐसे अनेक स्थल हैं जहां उनकी इस रुचि के रहते हमें मजेदार परांठों और पकौड़ों के बहुत स्वादिष्ट अनुभव ज्ञात होते हैं। नमकीन और मिठाई पर उनकी मेहरबानी कुछ अधिक मात्रा में है कि वे अपनी पूरी बिरादरी का आकलन भी प्रस्तुत करते हैं- ‘शुगर के मरीज लेखक लगभग अस्सी पर्सेंट हैं पर मुफ्त की मिठाई खाने में परहेज कैसा!’ (‘विलायतीराम पांडेय’, पृष्ठ-16)

                विलायतीराम पांडेय उनके लिए सम्मानित पार है और वे उसे यत्र-तत्र नत्थूबनने की प्रविधियों में बचाते भी हैं। भारतीय पतियों और पत्नियों के संबंधों में मधुता होनी चाहिए इस तथ्य की पूर्ण पैरवी करते हुए भी पतियों और पत्नियों की कुछ कमजोरियों को भी वे बेबाकी के साथ उजागर भी करते हैं। जैसे संग्रह जिंदगी तेरे नाम डार्लिंगके दो उदाहरण देखिए- ‘अधिकतर मर्द जिनकी प्रायः बोलती घरों में बंद रहती है, यहां नाई की दुकान पर उनकी जबान कैंची की तरह चलती है।’ (पृष्ठ-78); शादी-शुदा है यानी तमान बोझों से लदा-फदा एक ऐसा आदमी, जिसकी न घर में जरूरत है और न समाज में।’ (पृष्ठ-24) दूसरे संग्रह विलायतीराम पांडेयसे- ‘जिंदगी में क्या और किस तरह एक पति को पापड़ बेलने पड़ते हैं यह पति ही जानता है, जो दिन रात खटता है।’ (पृष्ठ-59); ‘हे भारतीय पुरुष ! तू केवल खर्चा करने को पैदा हुआ है। खूब कमा, पत्नियों पर खर्चा कर। बच्चों के लिए ए.टी.एम. बन।’ (पृष्ठ-74); ‘हद है यार, महिला दिखी नहीं कि छिपी हुई सेवा-भावना हर पुरुष की उजागर हो जाती है।’ (पृष्ठ-101)

                लालित्य ललित के व्यंग्यों में प्रतुक्त अनेक उपमाएं रेखांकित किए जाने योग्य है। वे परंपरागत उपमानों के स्थान पर नए और ताजे उपमान प्रयुक्त करते देखे जा सकते हैं। यह नवीनता बाजार की बदलती भाषा और रुचियों से पोषित है। वे एक ऐसे युवा चितेरे हैं जिन्हें अपनी परंपरा से गुरेज नहीं है तो साथ ही अतिआधुनिक समाज की बदलती रुचियों और लोक व्यवहार से अरुचि भी नहीं है। हलांकी वे कुछ ऐसे शब्दों को भी व्यंग्य में ले आते हैं जिनसे आमतौर पर अन्य व्यंग्यकार परहेज किया करते हैं अथवा कहें बचा करते हैं। मेरा भारत महान, जहां मन हो थकने का और जहां मन हो मूतने का,कही कोई रूकावट नहीं है।’ (‘जिंदगी तेरे नाम डार्लिंग’, पृष्ठ-55) ये अति आवश्यक और सहज मानवीय क्रियाएं हैं। सभी का सरोकार भी रहता है फिर भी उनके यहां शब्दों की मर्यादा है और वे संकेतों में बात कहने में भी सक्षम है- ‘हम भारतीय इतने प्यारे हैं कि अपने शाब्दिक उच्चारण से किसी का भी बी.पी. यानी रक्तचाप तीव्र कर सकते हैं या आपकी चीनी घटा सकते हैं।’ (‘जिंदगी तेरे नाम डार्लिंग’, पृष्ठ-17);

                अंत में यह उल्लेखनीय है कि लालित्य ललित के व्यंग्य अपनी समग्रता और एकाग्रता में जो प्रभाव रचते हैं, वह प्रभावशाली है। ऐसा भी कहा जा सकता है कि वे संभवतः पृथक-पृथक अपनी व्यंजनाओं से हमें बेशक उतना प्रभावित नहीं करते भी हो किंतु धैर्यपूर्वक पाठ और उनकी सामूहिक उपस्थिति निसंदेह एक यादगार बनकर दूर तक हमारे साथ चलने वाली है। विविध जीवन स्थितियों से हसंते-हसंते मुठभेड करने वाला उन्होंने अपना एक स्थाई और यादगार पात्र रचा है। अब आप ही बताएं कि हिंदी व्यंग्य साहित्य की बात हो तो कोई भला विलायतीराम पांडेय को कैसे भूल सकता है।

डॉ. नीरज दइया

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