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जीवन के ओर-छोर तक ले जाने वाली डॉ. वत्सला की कविताएं/ डॉ.नीरज दइया

‘यह दिखता है जो सागर’ (1999) डॉ. वत्सला पाण्डेय का पहला कविता संग्रह राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर के सहयोग से प्रकाशित हुआ था। आप निरंतर सृजन-पथ पर सक्रिय हैं और इस संग्रह के बाद तीन कविता संग्रह- ‘चाहा अनचाहा इसी खिड़की से’ (2012), ‘चाँद बैठा उजालता है शब्द’ (2013), ‘बांस के वनों के पार’ (2020) और दो लंबी कविताओं के संग्रह- ‘हम ही किसी बीज में’ (2012) और ‘बीज होते हुए’ (2021) प्रकाशित हुए हैं। डॉ. वत्सला का कहानी संग्रह ‘एक घने जंगल से गुजरते हुए’ (2021) प्रकाशित हुआ और आपने एक काव्य संग्रह- ‘कुछ शब्द हमारे भी’ (2000) का संपादन भी किया है। आपने ‘हिंदी में मिथकीय प्रबंध काव्यों का बोधमूलक अध्ययन’ विषय पर शोध तथा ‘निबंधकार अज्ञेय: एक मूल्यांकन’ विषय पर लघुशोध किया है। यहां उल्लेखनीय है कि डॉ. वत्सला की इस कविता-यात्रा का मैं आरंभ से साक्षी रहा हूं। आपका चिंतन-मनन और कविता के प्रति समर्पण वंदनीय है।
    कविता में लाघवता और संक्षिप्त शब्दों का महत्त्व निर्विवादित है, किंतु क्या इसे किसी कवि को अपने नाम के लिए भी लागू करना चाहिए। संभवतः इसी विचार के रहते कवयित्री ने अपने तीन संग्रहों पर अपना नाम केवल ‘वत्सला’ दिया है। एक कविता संग्रह में ‘डॉ. वत्सला’ और एक अन्य में ‘डॉ. वत्सला पांडेय’ है। यह नाम को लेकर अस्थिरता क्यों है? मैंने गूगल पर खोजा तो पाया ‘वत्सला पाण्डेय’ नाम की एक अन्य कवयित्री लखनऊ से भी है। यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि कवयित्री अपने नाम के माध्यम से इस असार संसार और जीवन की अस्थिरता को भी अभिव्यक्त कर रही है। नाम के विषय में अलग-अलग मत है- कुछ का मानना है कि संसार में केवल नाम ही रहता है। नाम स्मरण द्वारा ही हम भवलोक को  पार कर सकते हैं। गुलजार के शब्दों का सहारा लें तो- ‘नाम गुम जाएगा चेहरा यह बदल जाएगा, मेरी आवाज ही पहचान है गर याद रहे...।’ जाहिर है, हमारा विषय डॉ. वत्सला की काव्य-यात्रा से आती हुई आवाज की पहचान करना है।
  काव्य-संग्रहों की रचनाओं में इस आवाज को देखने-समझने-सुनने के कुछ जरूरी सूत्र अथवा कहें कि राह मिल सकती है। यह अकारण नहीं है कि कवयित्री ने अपना पहला कविता-संग्रह मातृत्रयी गायत्री, भगवती शिव कुमारी और श्रद्धेय गुरुवर श्री श्रीराम आचार्य को सादर समर्पित किया। यदि हम काव्य-रचनाओं के भीतर प्रवेश करें तो उससे पहले जरूरी है कि संग्रहों के बाहरी आभा-मंडल की भी पड़ताल करें। किसी संग्रह का नामकरण, कवि का नाम, भूमिका और समर्पण आदि कुछ विषय नितांत निजी होते हैं, जो कृति प्रकाशन के बाद सार्वजनिक होते हैं। बहुधा स्त्रियों के संग्रहों की भांति यहां भी जन्म दिनांक 6 मई बुद्ध पूर्णिमा लिख कर जन्म वर्ष नदारद कर दिया गया है, किंतु एक संग्रह जो वर्ष 2020 में प्रकाशित है उसमें साहित्यिक उम्र चौवीस साल लिखी है। अंत में बस इतना ही कि कहना है कि कवयित्री की काव्य-यात्रा वयस्क हो चुकी है और उनके विभिन्न संग्रहों की कविताओं के माध्यम से काव्य-विकास यात्रा और संभावनाओं की पड़ताल की जा सकती है।
     ‘यह दिखता है जो सागर’ पहले संग्रह की कविताओं को ‘मन’, ‘स्त्री’, ‘मैं’ तथा ‘तुम’ इन चार उपशीर्षकों में प्रस्तुत किया गया है। यह पंक्तियां देखें- ‘कितना अच्छा हो/ न मैं झील बनूं/ और/ न तुम समंदर/ बस हो जाएं/ दो धाराओं की तरह/ सागर जब होगा भीतर/ फिर हम एकात्म प्रवाह।’ कवयित्री यहां यह अहसास कराती है कि देखना एक क्रिया है और केवल जो दिखता है वही सच नहीं होता है। बाहर और भीतर का सच भी अलग-अलग हो सकता है, होता है। इन कविताओं में ऐसी मार्मिक अनुभूतियां है कि जिसमें परस्पर एक संबंध और साम्य अभिव्यक्त होता है। संग्रह की शीर्षक कविता को देखें- ‘कन्या कुमारी के/ पद पखारता सागर/ अपनी बांहें/ फैलाए/ मुझ को बुलाता/ सागर/ और/ एक दिन/ अपनी बांहों में/ भर लिया तूने/ मैं-/ भीग उठी/ अंदर तक/ ऐ सागर!/ मैं ही नहीं डूबी थी/ तू भी तो/ उतर गया था/ मन में।’ (पृष्ठ- 30)
    अथाह मन की थाह लेती इन कविताओं में सागर स्थाई रूप से उपस्थित है। यह सागर ऊपर से भले शांत दिखता हो, किंतु शांत नहीं है। शांत और अशांत के साथ मन की स्थिरता और अस्थिरता का मायाजाल यहां निरंतर गतिशील है। संबंधों में, प्रेम की अभिव्यक्ति में, किसी मन का रिसना और रिसते चले जाना है, तो मन का लगातार रिक्त होना और फिर-फिर उस रिक्ति का भरना भी है। इस संग्रह की कविताओं का केंद्रीय विषय प्रेम और प्रकृति है। कविताओं में कवि-मन का अपनी भावनाओं से जूझते हुए जैसे किसी एक मन को नहीं, वरन संसार की समस्त स्त्रियों की क्षमताओं और सोच को अभिव्यक्त करने का प्रयास किया गया है।
    प्रथम संग्रह की कविताएं किसी नन्हीं चिड़िया की पहली उडान सरीखी हैं, जो अपने एक नियत आकाश में उडान भरती है। इस नन्हीं चिड़िया को यहां यह अहसास जल्द ही हो जाता है, कि यह आकाश असीम है। यहां कवयित्री विभिन्न विचार-सूत्रों द्वारा हमें जीवन के ओर-छोर तक ले जाने का प्रयास करती है। इन कविताओं में जीवन के विरोधाभास और द्वंद्व हैं। ‘पिंजरे में छटपटाता/ पाखी मन/ सलाखें पकड़े/ आसमान को तकता/ पाखी मन/ ये कैसी बेबसी और व्याकुलता/ ओ पाखी मन!’ (पृष्ठ- 18)
    इस संग्रह की कविताओं में पाखी, चिड़िया, मछली, मन, नदी, पोखर, तालब, सागर आदि जैसे सभी बिंब व्याकुल स्त्री-मन को प्रस्तुत करते हैं। ‘स्त्री में नदी सा समर्पण नहीं/ या/ पुरुष ही सागर सा नहीं/ आज भी खोज रही/ मैं इसका उत्तर/ इसका उत्तर।’ (पृष्ठ-39)
    ‘चाहा अनचाहा इसी खिड़की से’ संग्रह के शीर्षक का सर्वाधिक आकर्षण और जटिल प्रश्न एक खिड़की से जुड़ता है जिसमें चाहा और अनचाहा दोनों के लिए मार्ग है। शीर्षक की यह पंक्ति ‘एक खिड़की खुली रहती है’ कविता की अंतिम पंक्ति के रूप में संग्रह में प्रयुक्त है। ‘मैं हूं कि फेंकती रही हूं सदा/ चाहा-अनचाहा इसी खिड़की से।’ यहां विचार यह भी होना चाहिए कि खिड़की का मार्ग कहीं भीतर आने के लिए है, अथवा बाहर निकलने के लिए? क्या यह खिड़की एक देह है अथवा इसे देह के द्वार के प्रतीक  रूप में प्रयुक्त किया गया  है। संग्रह की एक कविता ‘घर’ में खिड़की और अनचाहे की अभिव्यक्ति कुछ इस प्रकार रूपाकार होती है- ‘अपनी अपनी कैद में/ बन गए हैं/ कमरे कारागार/ न सांसों की खिड़की/ न उम्मीदों का दरवाजा/ न ही किसी आगत की छत/ रहते हैं इसमें/ कि गिर पड़े हैं हम/ अनचाहे ही/ अंधा कुआं है या घर’ (पृष्ठ-88)
    संग्रह की एक अन्य छोटी सी कविता देखें- ‘क्या खोजती मैं’ को देखें, जिसमें पंक्ति के मध्य विराम का भी अपना अर्थ है। एक ठहराव में किसी अर्थ की खोज है- ‘तुम खोजते/ पाते रहे/ देह/ मैं/ उससे इतर/ तलाशती रही/ तुम्हें’ (पृष्ठ-28)। यहां बेशक एक स्त्री और पुरुष के मनोभाव अभिव्यक्त हुए हैं, किंतु इसमें कहीं व्यक्ति-व्यक्ति की भिन्नता भी लक्षित है। फिर यह तलाशना और पाना भी अंततः कुछ पाना और फिर फिर तलाशना है। पाकर भी नहीं पाना और फिर फिर उस पाने के लिए, वही तलाश के कुछ ऐसे प्रश्न है.. जो इस कविता के भीतर अंतर्निहित है। ‘आज भी/ हुलसता है मन/ आज भी/ अंतरंग मौन के साथ/ तुम संग/ निशाचर होने की/ इच्छा/  जाग उठती है।’ (मैं और तुम, पृष्ठ-32)
    मैं के साथ यह तुम का होना या होने की इच्छा के साथ उसका कल्पना-लोक, इन कविताओं को व्यापक वितान देते हैं। ‘स्त्री और घोड़े’ कविता की आरंभिक पंक्तियां हैं- ‘स्त्री की हथेली से/ निकल रहे/ सुनहरे पंखों वाले/ घोड़े/ (यह बच्चों की कहानी नहीं है)’ (पृष्ठ-68) यहां विशेष रूप से इसे वच्चों की कहानी नहीं होना इंगित करना क्या है? सुनहरे पंखों वाले घोड़े स्त्री की हथेली से क्यों निकल रहे हैं? वे क्या करने वाले हैं या स्त्री स्वयं उनके साथ क्या करना चाहती है? ऐसे अनेक प्रश्न इस कविता से जुड़े हैं और अंततः कविता इन पंक्तियों के साथ पूरी होती है- ‘बचा लिए हैं/ समस्त नक्षत्र तारे/ छा गई है अंतरीक्ष में/ हर स्त्री ने/ थाम लिए हैं/ सुनहरे घोड़े/ अब वे सिर्फ/ गुलाम है उनके (यह एक हकीकत है)’ (पृष्ठ-68) स्त्री विमर्श के अंतर्गत इसे रखते हुए वर्तमान समय में उनकी समानता और एक साथ बराबर आगे बढ़ने, आत्मनिर्भर होने और सपनों के पूरे होने के अर्थ में देखा जा सकता है।
    स्त्री के घर-आंगन में तुम के अस्तित्व के साथ ही आस्था, धर्म और विश्वास के घटक भी जुड़े हुए हैं। वह स्वतंत्र और स्वछंद इकाई होकर भी किसी ‘तुम’ के साथ इस प्रकार एकाकार है कि उसके कहने पर वह देह, प्राण या कुछ अन्य हो सकती है। सब कुछ पा कर भी उसका धुंधलाई आंखों से खुद को तलाशना कोई नियति है अथवा त्रासदी? कवयित्री इसे दिल और दिमाग की उलझन के रूप में लेती है। वह लिखती है- ‘जहां दिल और दिमाग/ उलझना/ बंद कर दें/ वहां/ वक्त के निशान/ नहीं होते।’ जब कि ठीक इन पंक्तियों से पहले इसी कविता में वह लिखती है- ‘वक्त अपने निशान/ छोड़ जाता है/ हर कहीं/ देह पर/ मन पर/ दिमाग पर।’ (पृष्ठ- 81) यह विरोधाभास अनेक जगह देख सकते हैं। दिल और दिमाग की उलझन के बंद होने का अभिप्राय शायद दोनों का परस्पर सामंजस्य और मेलजोल है। क्या ऐसी स्थिति में कोई भ्रम होता है अथवा वास्तव में वक्त अपने निशान छोड़ने बंद कर देता है? सच तो यह है कि- ‘सब कुछ/ गढ़ने के बाद/ रह जाता है/ कुछ अनगढ़/  / कहां थी पूर्णता/ है सभी कुछ अपूर्ण/  / यही सच है/ या तुमसे/ विलग होने की/  / सजा।’ (सच या सजा, पृष्ठ-83)
    जीवन और मृत्यु के साथ इस यात्रा को स्त्री हृदय की अनुभूतियों के साथ अभिव्यक्त करती इस संग्रह की कविताओं में पीलेपन के भीतर छिपे हरे को बचाए रखने की अदम्य लालसा है। इस यात्रा में अंत और आरंभ की खोज के अनेक घटक हैं तो भवसागर में बिना नाव के मझधार में रह जाने की पीड़ा भी है।
    ‘चाँद बैठा उजालता है शब्द’ शीर्षक में एक रहस्य की प्रतिध्वनि है। ’शब्द मैले हो गए हैं’ के स्वर को कहीं भीतर सहेजती इन कविताओं में प्रकृति एक स्थायी घटक के रूप में विद्यमान है। इस संग्रह को तीन खंडों- ‘देह पार का मन’, ‘पाखी-पाखी मन’ और ‘हर चांद रात में’ व्यवस्थित किया गया है। समय के साथ जीवन में किसी व्यक्ति अथवा सत्ता से बनते-बिगड़ते संबंधों की अनुगूंजें इन कविताओं में अपने कोमलतम रूप में अभिव्यक्त होती है। देह की बात करती हुई इन कविताओं में देह से परे जाने की अभिलाषा है, इसलिए यहां अनुभूतियों की एक यात्रा भी है। ईश्वर, प्रकृति और प्रेम के संबंधों को इन कविताओं में विभिन्न बिंबों के माध्यम से प्रस्तुत करते हुए बहुत धीमी आवाजों को यहां सुना जा सकता है। अपने आराध्य से संबोधित कवयित्री जिस प्रेम को प्रकट कर रही है वह अलौकिक है। वहां उसके अतिरिक्त कोई दूसरा नहीं है। ‘तुझसे जुड़कर/ किसी रिश्ते में/ नहीं रही/  / तुम्हारे साथ हूं जहां/ वहां अब कोई नहीं/ तेरा होना/ एक पल भी/ भूलती नहीं/  / एक तह बनी है मुझ पर/ दुनिया खत्म वहां पर/ वहां से अनंत तक/ बस तू ही है/ कोई और नहीं।’ (तेरे सिवा कुछ नहीं, पृष्ठ-34) 
    यह राह निसंदेह कठिन है और किसी एक ही विषय को फिर फिर अपनी कविताओं में निभाने की जिद भी यहां हम देख सकते हैं। डॉ. वत्सला देह से इतर, देह से दूर उस विरल अनुभूति को हर बार अपनी नई भाषा में पाने का प्रयास करती हैं। यह एक प्रकार से दोहरी दुनिया में रहना है। एक दुनिया जो हमारे सामने है और दूसरी दुनिया जो हमने खुद निर्मित की है। अपनी निर्मित दुनिया में जाना और बार बार जाकर लौट आना, फिर फिर जाना, जैसे एक नियति है। ‘बच्चे की/ पतंग उड़ाने की/ कोशिशों में/ ढलने लगी मैं/  एक पतंग होकर/  सुदूर/ तुझ तक/ पहुंचने के लिए।’ (पतंग होता मन, पृष्ठ-67)
    इस संग्रह की ‘महकते हुए मौन में’ कविता शीर्षक से संबधित है- ‘मौन मेरा/ महक उठता है/ तेरे साथ/ रातरानी के/ सर्पों सा लिपटा हुआ/  / तब चांद बैठा उजालता है/ शब्द मेरे/  / वे ढल जाते हैं/ बार-बार नए चांद में। ....’ (पृष्ठ-95) वरिष्ठ कवि नंद भारद्वाज ने इस कविता-संग्रह के विषय में लिखा हैं- ‘प्रेम और रागात्मकता के ताने-बाने से बुनी इन कविताओं में कवि के अन्तर्मन और बाह्य संबंधों की अन्तर्छवियां आकर्षित तो करती ही हैं, अपनी संश्लिष्ट अन्तर्वस्तु में राग-विराग के एक बहुआयामी भावलोक से भी
रू-ब-रू कराती हैं। इस राग-विराग से उपजे बहुआयामी रचना संसार में समूची प्रकृति अपने उपादानों के साथ एक गहरा आत्मिक रिश्ता निर्मित करती है। यहां पृथ्वी, आकाश, चांद, तारे, सागर, नदियां, अंधेरा, उजाला, जल, हवा, आग, बरफ जैसे प्राकृतिक उपादान इस मानवीय संरचना में अनूठा असर पैदा करते हैं। वत्सला के इस काव्य संसार में प्रकृति के ऐसे विराट बिंबों से हमारा साक्षात्कार होता है, जो इधर की हिंदी कविताओं में विरल है।’ (पृष्ठ-8)
    ‘बांस के वनों के पार’ संग्रह की कविताओं की विषय वस्तु को जानने के लिए इस संग्रह में किए गए तीन खंड़ों के नामकरण कुछ संकेत देते हैं। ‘ईश्वर के गर्भनाल से विलग होकर’, ‘ओ री बावरी’ और ‘वे नीले द्वार’ तीनों खंड़ों में विशेष उल्लेखनीय अंतिम खंड है, जिसमें बिना शीर्षक की कविताएं पुनः तीन खंड़ों- ‘बुद्ध के विग्रह को निहारते हुए’, ‘फिसल जाते हैं कैसे’ तथा ‘एक उदास शहर पेरिस’ में संकलित है। वत्सला पांडेय की कविताओं का उत्स बिंदु यह संसार और इस संसार के साथ चल रहा एक अदृश्य संसार है, जिसमें ईश्वर की उपस्थिति है और जिसे इस संसार में केवल अनुभूत किया जा सकता है। क्या हर समय दो दुनिया के द्वंद्व को झेलना व्यक्ति की नियति है अथवा केवल एक भ्रम की स्थिति है? ‘एक हाथ उसने/ दूसरा थाम लिया तूने’ में दो हाथों की नियति है अथवा किसी भ्रम की स्थिति से जूझते अनुभव हैं। यहां यह भी सवाल किया जा सकता है कि जो हाथ जिसने थामा है या जिसे थमाया है, क्या वह ठीक हाथ है या कहीं कोई क्रम ही गलत हो गया है? क्या दोनों हाथ किसी ने वास्तव में थाम रखे हैं या यहां भी हम किसी घोखे में हैं? इसी कविता ‘कैसे तय करूं’ में कवयित्री ने आगे लिखा है- ‘तय नहीं कर पा रहा/ ये मन/ अपनी हदों में कि/ किस हाथ की सुने/ किस साथ को चुने।’ (पृष्ठ-21) यह भ्रम क्यों है? लौकिक और अलौकिक सत्ता के बीच के इस संसार में ना जाने कितने ही कवियों ने इस माया से भ्रमित इस संसार में, दिव्य अनुभव को अनुभूत किया है।
    इस संसार और ईश्वर के बीच का एक मार्ग जंगलों और वनों से कहीं जाता है। क्या संसार को त्याग कर उस ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है या वह इसी संसार में रहते हुए प्राप्त किया जा सकता है? बार-बार इस संसार में हमारे जन्म और मरण के चक्र को ये कविताएं, एक यात्रा के रूप चिह्नित करती हुई इस यात्रा में मन की प्रश्नाकुलता को अभिव्यक्त करती हैं। ‘तेरी पुकार की नाव में/ हर रात का सफर/ करते हुए/ तुझ तक/ पहुंची नहीं अब तक/  तो क्या हुआ/ पीछे मुड़कर देख/ जरा एक बार।’ (भंवर अब मेरे हुए ; पृष्ठ-35) जीवात्मा की उसके एक बार झलक भर देख लेने की चाहत नई नहीं है। ‘तेरी पुकार की नाव में’ में जो कल्पनाशीलता या कहें अनुभूति है वह अभिनव है। इन कविताओं की यही मौलिकता है कि इसमें कवयित्री की अपनी अनुभूतियां अभिव्यक्त हुई है। वह सफर में है और इन कविताओं में इस सफर की डायरी को अंश दर अंश अपने ढंग से कहने का हुनर है। एक ही विषय पर फिर फिर लिखना कुछ रचना बेहद कठिन होता है क्योंकि यहां अनुभूतियों में समानता का खतरा रहता है।
    देह से स्वयं को विलग कर देखना और ‘ओ री बावरी’ कहते हुए निरंतर संवाद दूसरे खंड की विषय वस्तु है। प्रकृति और उसके विभिन्न घटकों का सुंदर उपादान इन कविताओं में हम देख सकते हैं। इन कविताओं को भले किसी शीर्षक में बांधा गया है किंतु कवयित्री वत्सला पांडेय की मूल चेतना कविता में हर प्रकार के बंधन से मुक्त होकर निर्बंध चिंतन की रही हैं। उनकी कवितायें आपस में जैसे जुड़ी हुई हैं। यह ऐसे किसी संगीत सी मोहने वाली है जिसे बार बार सुनने और गुनने का मन करता है। मुझे लगता है कि ‘हरि अनंत हरिकथा अनंता’ की भांति इन कविताओं के द्वारा हम कहीं दूर जाने को विवश होते हैं। इस यात्रा में जो हाथ लगता है, वह हमें स्वयं को कुछ खोजने और खोजते रहने का निमंत्रण भी देता रहता है।     
    वत्सला पांडेय के कवि मन को जानने समझने के लिए उनकी लंबी कविताओं के संग्रह- ‘हम ही किसी बीज में’ (2012) और ‘बीज होते हुए’ (2021) को अवश्य देखा-पढ़ा जाना चाहिए। जैसा कि मैंने कहा आपकी विभिन्न कविताएं भी परस्पर एक दूसरे से बहुत हद तक जुड़ी हुई है। उनमें एक अनुभूति को सघन दर सघन होने के अनेक अवसर मिलते हैं। यह कहना भी ठीक रहेगा कि जहां कविताओं में अधिकांश पाठ जीवन और जगत के कार्य-व्यवहार के बनते जा रहे हैं, वहीं इसी समय में इन कविताओं के पाठ में उस अनुपस्थित को लगार उपस्थित करने के उपक्रम या कि  किसी अदृश्य को दृश्य में लाने की मुहिम है। बीज शब्द अपने आप में विराट है और इस शब्द की विराटता का अनुभव वत्सला पांडेय की इन दोनों लंबी कविताओं से भी होता है। रोशनी और अंधकार की इस यात्रा में हम कहां हैं? हमारी तलाश क्या किसी रोशनी की तलाश है, अथवा बस एक अंधकार से बाहर निकल जाने की महज यात्रा है? किसी क्रमबद्ध कथा से रहित जैसे एक नई कथा का रचाव इन लंबी कविताओं में होता प्रतीत होता है। इन कविताओं में जैसे छोटे-छोटे अंतरालों के बीच हम उसके पूर्व कथनों के आलोक में नए शब्दों को लिए किसी अर्थ में व्यवस्थित करते हैं, तभी कोई नया विचार देती हुई कवयित्री उत्सुकता जागाती हुई निरंतर अपने पाठ से जोड़े रखने का अद्भुत सामर्थ्य रखती हैं। कुछ चयनित काव्यांशों के आलोक में विविध अनुभवों से युक्त इस काव्य-यात्रा को प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है। यह अनुभव स्वयं इस यात्रा में कदम दर कदम साथ चलकर ही प्राप्त किया जा सकता है कि हम ही किसी बीज में है अथवा यह बीज होने का एक विरल अनुभव है। अंत में इन लंबी कविताओं के विषय में यहां यह भी उल्लेख किया जाना जरूरी है कि इन कविताओं में पृष्ठ-दर-पृष्ठ अनेक कविताएं जो किसी एक कविता को बनाते हुए अपनी सत्ता भी रखती है। ये कविताएं परस्पर एक दूसरे से इस प्रकार गुंफित होती हैं कि हम किसी बहाव में बहते रहते हैं और अंतिम बिंदु तक पहुंच कर भी फिर से किसी चक्र में गतिशील होने को लालायित हो उठते हैं। आधुनिक हिंदी की कविता-यात्रा में अनेक स्वर है किंतु वत्सला पांडेय ने अपना स्वयं का एक नितांत निजी स्वर निर्मित किया है। मुझे विश्वास है कि उनके इस स्वर की अनुगूंज दूर तक सुनाई देगी और वे अपने अलहदा अंदाज के लिए स्मरण की जाएंगी।
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डॉ. नीरज दइया 






 


 

 





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सलाम कवि सुधीर सक्सेना / डॉ. नीरज दइया

     हिंदी कविता के वर्तमान परिदृश्य में कवि सुधीर सक्सेना अपने काव्य-प्रयोगों के लिए विशेष रूप से उल्लेखित किए जाएंगे। उनका नवीन कविता संग्रह ‘सलाम लुई पाश्चर’ इस बात को पुखता और प्रमाणित करता है। इस संग्रह के केंद्र में विभिन्न वैज्ञानिक, उनके कार्य, व्यवहार और घटनाएं हैं। इसे हिंदी कविता के क्षेत्र में विज्ञान कविताओं का विधिवत आरंभ कहना उचित होगा।
    सुधीर सक्सेना अपने आरंभिक काल से ही प्रयोगवादी कवि रहे हैं। उन्होंने ‘समरकंद में बाबर’ जैसे कविता-संग्रह से कविता में इतिहास-बोध के कारण अपना अलग स्थान बनाया तो बाद में प्रकाशित ‘रात जब चंद्रमा बजाता है बांसुरी’ में प्रेम कविताओं और ‘ईश्वर हां, नहीं तो...’ में ईश्वर पर केंद्रित कविताओं के कारण बेहद चर्चित रहे हैं। उनकी विभिन्न शहरों-स्थानों और अपने मित्रों को लेकर लिखी गई कविताएं भी उल्लेखनीय हैं। विज्ञान कविताओं की धमक उनके पूर्ववर्ती संग्रहों में देखी-सुनी जा सकती है। उनकी कविता ‘यूरेका’ जो इस संग्रह में संकलित है, इसे उन्होंने बहुत पहले लिखा था जो उनके पूर्व संग्रहों में प्रकाशित भी है। इस कविता की आरंभिक पंक्तियां हैं- ‘अगर पानी में छपाक से/ कूदता नहीं आर्किमिडीज/ तो भला कहां/ होता एथेंस की सड़कों पर/ यूरेका-यूरेका का शोर’ (पृष्ठ-141)
    इस कविता संग्रह में एक सर्वाधिक उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि कवि ने बाइस पृष्ठों की भूमिका लिखी है, जिसमें इन विज्ञान कविताओं की जमीन के विषय में बेबाकी से खुलासा किया गया है। साथ ही इन कविताओं के विभिन्न आयामों को उद्घटित करती अनेक बातें पढ़ते हुए कवि की मेधा का पता चलता है। इससे पूर्व के कविता-संग्रहों और उनकी गद्य रचनाएं से मुझे लगता रहा है कि वे इतिहास के विद्यार्थी रहे होंगे, किंतु इस संग्रह से खुलासा होता है वे विज्ञान के विद्यार्थी रहे हैं। यहां यह भी जानना बेहद रोचक है कि उनके आरंभिक आध्ययन-काल में उनको विज्ञान किस प्रकार आकर्षित करता रहा था। यहां कवि के ज्ञान और गहन चिंतन का लोहा मानना होगा कि किस प्रकार एक विद्यार्थी की वैज्ञानिक दृष्टि विकसित और परिमार्जित होती है। इसी के बल पर कवि आगे चलकर आविष्कारों को कविता में रूपांतरित करना संभव बनाते हैं। इतिहास और विज्ञान जैसे नीरस और तथ्यात्मक विषय से कविता खोजना कोई सुगम और सहज कार्य नहीं है। सुधीर सक्सेना ने आंकड़ों पर आधारित प्रयोगों के विषय पर कविताओं की सरस और मार्मिक अभिव्यक्ति संभव कर हिंदी कविता को अद्वितीय योगदान दिया है। मैं स्वयं विज्ञान विषय का विद्यार्थी रहा किंतु जिस प्रकार से इस कविता संग्रह में विज्ञान के विविध विषयों को व्यापकता के साथ प्रस्तुत किया गया है, वह हैरतअंगेज करने वाला है। क्या रामानुज, होमी जहांगीर, जे. सी. बोस, आर्यभट्ट, सी. वी. रमन, विश्वेश्वरैया आदि पर कविताएं करना संभव है? इस प्रश्न और ऐसे ही अन्य अनेक प्रश्नों के उत्तर केवल और केवल सुधीर सक्सेना जी ‘हां’ में दे सकते हैं। इन कविताओं में बड़े पैमाने पर विज्ञान का जादू, रहस्य, रोमांच जैसे किसी संगीत के साथ अभिव्यक्त हुआ है। डॉ. अनामिका अनु की इस बात से सहमत हुआ जा सकता है- ‘इन कविताओं को पढ़ना खेती, उद्योग, स्वास्थ्य, परिवहन और जीवन के सभी क्षेत्रों में वैज्ञानिक हस्तक्षेपों को काव्यात्मकत समीक्षा से गुजरना भी है।’  
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सलाम लुई पाश्चर (कविता संग्रह) सुधीर सक्सेना
प्रकाशक : आईसेक्ट पब्लिकेशन, ई-7/22, एस.बी.आई. आरेरा कॉलोनी,  भोपाल
संस्करण : 2022 ; पृष्ठ : 184 ; मूल्य : 250/-

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डॉ. नीरज दइया

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चार बाल उपन्यास : चार रंग / डॉ. नीरज दइया


 कोरोना काल हमारे इतिहास का एक दर्दनाक पृष्ठ है किंतु त्रासदी और दर्द को झेलते हुए इस काल में कुछ सुखद बातें भी हुई हैं। आदमी को खुद के भीतर झांकने का अवकाश मिला और एकांतवास में अनेक साहित्यकारों ने अपनी नई कृतियों का सृजन किया। मृत्यु से मुठभेड़ के बीच साहित्य का संगीत ही उन्हें फिर से इस नए संसार में अधिक उत्साह के साथ लाया है। डॉ. मोहम्मद अरशद खान बाल साहिय के सुपरिचित हस्ताक्षर हैं और आपने विविध विधाओं में विपुल साहित्य दिया है। आपके चार लघु बाल उपन्यासों का संकलन है- ‘अनोखी यात्रा’। जिसमें ‘अनोखी यात्रा’ शीर्षक-रचना के अलावा ‘अंतरिक्ष में हाहाकार’, ‘कांगो के जंगलों में’ और ‘परियों के देश में’ चार उपन्यासों को एक ही जिल्द में प्रकाशित किया गया है।
    डॉ. खान ने अपने ‘लेखकीय’ में लिखा है- ‘इस पुस्तक में मेरे चार लघु बाल-उपन्यास संकलित है, जिन्हें मैंने कोरोना के प्रकोप से जूझते हुए अपने एकांतवास को अवसाद से बचाने के लिए रचा था। भयावह एकांत और आशंका भरे क्षणों को जीतने का इससे बेहतर उपाय मेरे पास नहीं था।’ निसंदेह जीवन का वह एक अविस्मरणीय दौर रहा है। साथ ही यहां यकीन के साथ कहा जा सकता है कि आपने उस दौर में रचित इन चारों उपन्यासों को भी अविस्मरणीय बना दिया है।
    डॉ. मोहम्मद अरशद खान के इन बाल लघु उपन्यासों की एक अतिरिक्त विशेषता यह भी है कि आपने सुनियोजित चिंतन, जिद और जुनून के साथ इनको रचा है। यह सर्वविदित सत्य है कि अगर रचनाकार साहित्य की अपनी विधा के बारे में चिंतन करते हुए परंपरा-विकास को समझने का प्रयास करता है तो वह उस विधा में कुछ बेहतर अवदान कर सकता है। हिंदी उपन्यास में लघु उपन्यास की धारा है तो बाल उपन्यासों में होनी चाहिए। साहित्य खूब लिखा जा रहा है किंतु चिंतन इस विषय पर होना चाहिए कि बदलते दौर और परिदृश्य में जहां किताबें हाथों से छूटती जा रही है, वहीं रचनाओं की शब्द-सीमा को निरंतर संकुचित किया जा रहा है। ऐसे समय में अखबारों और पत्रिकाओं से गागर में सागर भरने के सूत्र जारी हो रहे हैं। तब किसी रचनाकार को सीमाओं में रहते हुए व्यापकता और विधा के विस्तार हेतु स्वयं की रचना में कैसे क्या संभव बनाया जा सकता है कि रचना पठनीय होने के साथ साहित्यिक महत्त्व को भी समय के साथ उजागर करे। डॉ. खान ने ‘चंद्रक्रांता संतति’ उपन्यास के हवाले से रोचकता और जिज्ञासा को आधुनिक समय में तकनीकी विकास के दौर में संभव बनाने का महती प्रयास लक्षित किया है और वे सफल भी रहे हैं। आप लिखते हैं- ‘इन लघु उपन्यासों में भी यह कोशिश यही रही है कि रोचकता और जिज्ञासा बराबर बनी रहे। बच्चा एक बार पढ़ना शुरू करे तो अंत तक पढ़कर ही रुके।’ यह कोशिश कथ्य, भाषा और शिल्प तीनों स्तरों पर एक साथ साधना इन बाल लघु उपन्यासों की विशेषता कही जा सकती है।
    संकलन के पहले बाल लघु उपन्यास ‘अनोखी यात्रा’ में एक पंतासी द्वारा सलीम को लाइब्रेरी के रहस्यमयी कमरे से अथाह समुद्र की यात्रा का रोमांचकारी वर्णन मिलता है। सर्वाधिक उल्लेखनीय तथ्य यह कि बाल लघु उपन्यास में क्रिस्टोफर कोलंबस की यात्रा के इतिहास को केंद्र में रखा गया है। इस यात्रा का एक प्रमुख अंश यहां बेहद सरलता और सहजता से जींवत बनाकर प्रस्तुत किया गया है। समुद्री यात्रा के रहस्य और सजीव वर्णनों, संवादों से यह रचना बाल पाठकों को सम्मोहित करने में सक्षम है। इसी प्रकार संकलन के दूसरे बाल लघु उपन्यास ‘अंतरिक्ष में हाहाकार’ में चार दोस्तों की कहानी है। उन्हें रहस्यमयी ढंग से अगवा कर लिया जाता है और वे अंतरिक्ष में होने वाले एक बड़े मिशन को पूरा करते हैं। हर उपन्यास पढ़ते समय ‘आगे क्या होगा?’ के कौतूहल में खोया पाठक जैसे-जैसे इस यात्रा में साथ-साथ चलता रहता है वैसे-वैसे वह अनेक तथ्यों और जानकारियों से अवगत होता है। ऐलियन के विरुद्ध स्पेस में हुए इस रोमांचकारी और निराले अभियान से पाठकों में देश-भक्ति और शौर्य-भावना प्रबल हो उठती है। पात्रानुकूल भाषा और तकनीकी विकास के आयाम इस रचना को यादगार बनाने के लिए पर्याप्त हैं।
    संकलन का तीसरा बाल लघु उपन्यास ‘कांगों के जंगलों में’ धरती के अनोखे सौंदर्य की छटाओं को दिखाने के साथ ही अजूबों की एक नई दुनिया से रू-ब-रू करता है। रोहन के माध्यम से हम स्वयं एक ऐसी यात्रा पर निकल पड़ते हैं कि कड़े संघर्ष के बाद सफलता मिली है और साथ ही यह शिक्षा भी कि जीवन में कभी हिम्मत नहीं हारनी चाहिए, भले परिस्थियां कैसी भी हो। मनुष्य के पास यदि हिम्मत और कठिन परिस्थितियों में धैर्य के साथ सोचने-विचारने की शक्ति है तो वह कुछ भी कर सकता है। प्रकारांतर से यह रचना बालकों के मन में इस विश्वास को बनाने में सक्षम है कि असंभव को संभव बनाना हमारे बाएं हाथ का खेल है। इसी भांति संकलन का चौथा बाल लघु उपन्यास ‘परियों के देश में’ जादूगर के बहाने बाल पाठकों को एक ऐसे कल्पना-लोक में ले जाता है जहां परियां हैं और जादू की एक अद्भुत कथा है।
    दुनिया वहीं है जहां हम हैं। हम हमारे विचारों और कल्पनाओं की दुनिया में गतिशील होते हुए एक नए और अनोखे संसार में प्रवेश कर अनेक नजारों को देख सकते हैं। मनुष्य के चारों तरफ बिखरे बाहरी और भीतरी जादू में साम्य को साधना लेखक की विशेषता है। इन सब से अतिरिक्त एक विशेष उल्लेखनीय तथ्य चारों रचनाओं का विश्लेषण करते हुए प्राप्त किया जा सकता है- इस संकलन के चार उपन्यास जैसे अलग-अलग चार अध्याय होते हुए जैसे चार परस्पर जुड़े लोक को हमारे सामने साकार करते हैं। कह सकते हैं कि यह चार आयामों की एक निराली कथा का कोश हैं। जिसमें जल-लोक को ‘अनोखी यात्रा’, थल-लोक को ‘कांगो के जंगलों में’, नभ-लोक को ‘अंतरिक्ष में हाहाकार’ को और कल्पना-लोक को ‘परियों के देश में’ केंद्र में रखते हुए लेखक ने कोरोना काल में न केवल स्वयं को वरन अपने पाठकों को ऊर्जा और स्फूति से भर देने का लक्ष्य साधा और सफल इसलिए कहें जाएंगे कि इन विशेष यात्राओं में सफलतापूर्वक जीवन का संगीत छिपा हुआ है। अनोखी यात्रा का यह अभियान बेहद सफल रहा है। संभवतः इसी के चलते संकलन का ‘अनोखी यात्रा’ नामकरण किया गया है। यह नाम चारों बाल लघु उपन्यासों द्वारा सार्थक सिद्ध होता है। ऐसे सफल, सुंदर और उपयोगी प्रकाशन के लिए उपन्यासकार के साथ-साथ प्रकाशक न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन, नई दिल्ली को भी साधुवाद।

      समीक्षक : डॉ. नीरज दइया
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कृति : अनोखी यात्रा (चार बाल उपन्यास संग्रह)
रचनाकार : डॉ. मोहम्मद अरशद खान
प्रकाशक : न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन, नई दिल्ली
पृष्ठ : 108 ; मूल्य : 175/-
प्रथम संस्करण : 2022
समीक्षक : डॉ. नीरज दइया

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