-->

छूटे और बचे हुए रंगों के आस-पास / डॉ. नीरज दइया

मैंने एक कागज पर
          एक लाइन खींची
          और साथ में ही कुछ फूल
          कुछ पत्ते कुछ कांटे बना दिए
          उसने देखा और हंसा
          क्या यही कविता है
          मैंने कहा- हां यह एक खूबसूरत कविता है।
          (...खेतों में रची जाती कविता : ‘रंग जो छूट गया था’, पृष्ठ-87)
          कुँअर रवीन्द्र जाना-पहचाना एक नाम है। वे स्वयं को मूलतः चित्रकार मानते हैं किंतु रंगों-रेखाओं के साथ-साथ शब्दों की दुनिया में भी उनकी समान सक्रियता रही हैं। उनके चित्र समोहित करते हुए हमें कला-अनुरागी बनाते है। कला के प्रति गहन जानकारी के बिना भी हम उनके प्रति मुगधता के भाव से भर जाते हैं। उनकी कूची और कलम की सतत साधना का यह परिणाम है कि चित्र चित्ताकर्षक और कविताएं बेहद मर्मस्पर्शी हैं। सीधे सरल शब्दों में कहें तो उनका कोई शानी नहीं है। उनकी कविताओं में जीवनानुभवों के साथ अनेक रंगों से सज्जित चित्र देखे जा सकते हैं। हिंदी आलोचना में रेखाचित्र विधा के लिए विद्वानों ने ‘शब्दचित्र’ उपयुक्त शब्द माना, वहीं रवीन्द्र जी के यहां ऐसी सीमाएं ध्वस्त होती हैं। उनकी कविताएं पढ़ते हुए हम बारंबार अनुभूत करते हैं कि उनके यहां शब्दचित्रों और रेखाचित्रों की सीमाओं का समन्वय है, वे काफी उभयनिष्ठ होती हुई हमारा दायरा विस्तृत करती हैं। कहा जा सकता है कि वे अपने चित्रों में कविताएं रचते हैं और कविताओं में चित्र लिखते हैं। कलाओं के लोक में यह ऐसा आलोक है जहां रंगों, रेखाओं और शब्दों के समन्वय से जीवन के रंगों को बेहतर बनाने की एक मुहिम है। बदरंग और दागदार होती इस दुनिया के रंगों को बचाने के लिए वे समानांतर अपनी दुनिया सृजित करते हैं। जहां आशा-विश्वास और रंगों से भरी एक दुनिया नजर आती है। जो बेशक हमारे जैसी ही अथवा कहे बेहतर दुनिया  इस अर्थ में है कि वहां कुछ रंग और सपने के साथ जीवन है।
         कुँअर रवीन्द्र के दो कविता संग्रह ‘रंग जो छूट गया था’ (2016) और ‘बचे रहेंगे रंग’ (2017) प्रकाशित हुए हैं। कहना होगा कि इनकी कविताएं रंग से रंग की एक विराट यात्रा है जिसमें छूटे हुए रंगों के साथ रंगों के बचे रहने का विश्वास और उम्मीद है। देश और दुनिया के आवरण चित्र बनाने वाले कवि रवीन्द्र के दोनों संग्रहों पर उन्हीं के बनाएं अवारण है। दोनों को हम चाहे देर तक देखते रहे तो मन नहीं भरता है। क्या यह कवि अथवा उनकी कला के प्रति मेरा अतिरिक्त अनुराग है, ऐसा कहा भी जाए तो मुझे स्वीकार है। रचना और रचनाकार के प्रति स्नेह और सम्मान ही श्रेष्ठ मूल्यांकन का आधार होता है। इसे आलोचना का प्रवेश द्वारा कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। यहां यह अंतःप्रसंग भी जरूरी है कि मेरी और मेरे अनेक मित्रों की पुस्तकों के आवरण चित्र कुँअर रवीन्द्र द्वारा सहर्ष प्रदान किए गए हैं। मैं उनकी कविताओं से प्रभावित रहा और कुछ कविताओं का मैंने राजस्थानी में अनुवाद भी किया है।
          कुँअर रवीन्द्र की कविताओं का केंद्रीय विषय रंग के अतिरिक्त अन्य कुछ कहा नहीं जाना चाहिए। उनके दोनों कविता संग्रहों के शीर्षक में रंग शब्द समाहित है। ‘रंग जो छूट गया था’ अर्थात जिस रंग को उनके रंगों में स्थान नहीं मिला उसे उन्होंने शब्दों में कविताओं के माध्यम से अभिव्यक्त किया है। रंग ही जीवन है। यह पूरा जगत ही अनेक रंगों का संकाय है। ‘रंग’ अपने आप में बहुत बड़ा विषय है और वे चित्रकार-कवि के रूप में सदैव रंगों के निकट रहे हैं अथवा रहना चाहते हैं और उनकी ही नहीं हम सब की यही अभिलाषा है कि ‘बचे रहेंगे रंग’। इन रंगों के बचे रहने से हम भी बचे रहेंगे, इसलिए भी रंगों को बचाया जाना बेहद जरूरी है। रंग ही हमारी अभिलाषा, आकांक्षा और इच्छाओं को गतिशील बनाते हैं।
           ‘रंग जो छूट गया था’ संग्रह में प्रत्येक कविता को शीर्षक दिया गया है, जबकि ‘बचे रहेंगे रंग’ में कविताएं बिना शीर्षक से है। यह कवि का व्यक्तिगत फैसला है कि किसी कविता को वह शीर्षक दे अथवा नहीं दे। किसी अन्य कवि के विषय में तो मैं नहीं कहता पर कुँअर रवीन्द्र की कविताओं के विषय में कह सकता हूं कि इनकी सभी कविताओं के शीर्षक भले हो अथवा नहीं किंतु सभी कविताएं खंड खंड जीवन के विविध रंगों को प्रस्तुत करती हैं अस्तु सभी कविताएं रंग शीर्षक की शृंखलाबद्ध कविताएं हैं। दोनों संग्रहों की कविताएं प्रकाशन के लिए एक क्रम में रखी गई है किंतु यह रंगों की ऐसी माला है कि इसको जहां चाहे वहीं से आरंभ किया जा सकता है और इसकी इति कहीं नहीं है। यह कविताएं रंगों का जीवन में सतत प्रवाह है। जहां रंग नहीं है अथवा कम हैं वहां भी कवि की दृष्टि से हम रंगों को देख सकते हैं। कवि जीवन में रंग भरने का आह्वान भी करता है- ‘आओ रचें/ एक नया दृश्य/ एक नया आयाम/ एक नई सृष्टि/ एक बिंब तुम्हारा/ और हो एक बिंब मेरा/ हां/ इन बिंबों में/ रंग भी भरना होगा’ (...सार्वभौम बिंब : ‘रंग जो छूट गया था’ पृष्ठ- 72)
         ‘रंग जो छूट गया था’ संग्रह की कविताओं के शीर्षकों के साथ एक अन्य कलाकारी भी देखी जानी अनिवार्य है कि प्रत्येक कविता के शीर्षक से पहले तीन बिंदु खूंटियों जैसे टांगने के लिए बनाएं गए हैं जहां शीर्षक को अटकाया गया है। जैसा कि पहले कहा गया है कि दूसरे संग्रह में यह सब नहीं होकर कविताएं केवल गणितय अंकों के क्रम में व्यवस्थित की गई है और उसमें भी उनका होना बस उनके आरंभ भर की सूचना है। दोनों संग्रहों की कविताओं के अंत में कविताओं को जैसा कि बंद करने अथवा उनके पूर्ण होने पर कोई संकेत होता है वह यहां नहीं है। यह उनके अनंत होने का संकेत हैं और आरंभ भी कहीं से भी हो सकता है इस सूचना के साथ है जो अंकित नहीं है। यह आवश्यक अथवा अनावश्यक सभी बातें यहां इसलिए भी होनी थी कि कवि केवल कवि नहीं है वरन एक चित्रकार है और वह दोनों माध्यमों के समन्वय हेतु सक्रिय है। वह नए दृश्य रचकर रंग भरना चाहता है।
          कविताओं में रंगों की उपस्थिति स्थूल और सूक्ष्म दोनों स्तरों और रूपों में अभिव्यंजित हुई है। कवि के कविता समय में कवि का पूरा पर्यावरण समाहित है। वे घर-परिवार, गांव-देस, मौहल्ले-बाजार से दिल्ली पुस्तक मेले तक के प्रसंगों को कविता की दुनिया में प्रस्तुत करते हैं कि उनका समय और दुनिया से हमारा साक्षात्कार होता है। अनेक विषयों को जीवन के विरोधाभासों के साथ कविताओं में पिरोया गया गया है या कहें कि कुछ ऐसा हुआ और वे इस रूप में ढल गई। यहां कवि अच्छाई-बुराई, सच-झूठ, सुख-दुख, प्रेम-घृणा जैसे अनेक युग्म शब्दों को प्रचलित अर्थों से इतर नए अर्थों-रंगों में सज्जित करता है- ‘तुमने पूछा है मुझसे/ रोटी का स्वाद?/ नहीं/ तुमने किया है/ मेरी निजता पर/ मेरी अस्मिता पर प्रहार/ क्या तुम जानते हो/ भूख की परिभाषा...।’ (...तुमने पूछा है मुझसे : ‘रंग जो छूट गया था’ पृष्ठ- 73) अथवा ‘जब अच्छे दिनों में/ कुछ भी अच्छा न हो/ सिवाय अच्छा शब्द के/ तब/ बुरे दिनों की यादें/ सुख देती हैं।’ (...बुरे दिनों की याद : ‘रंग जो छूट गया था’ पृष्ठ- 78)
          समाज में स्त्रियों की भूमिका पर कवि चिंतित हैं वहीं पुरुष मानसिकता से त्रस्त। वह दुनिया के रंगों को बनाएं रखने की पैरवी इस अर्थ में अभिव्यक्त करता है कि विचारों का आदान-प्रदान और विमर्श कभी एक तरफा नहीं होना चाहिए। हरेक स्थिति में खुलापन और आजादी अनिवार्य है। दुनिया को सहकारिता और सहभागिदारी से चलया जा सकता है। तभी उसकी सुंदरता रहेगी। कवि सरहदें मिटाने की बात करता है और एक ऐसी दुनिया की कल्पना करता है जहां किसी भी प्रकार की दीवारें नहीं हो। वह इस विरोधाभास को भी जानता है कि दीवारों के बिना घर नहीं होता और घर होता है तो दीवारें भी होती हैं। वह लिखता है- ‘दरअसल/ मैं अब सरहदों के पार जाना चाहता हूं/ जिस तरह दीवारें गिरायी/ सरहदें भी तो/ मिटाई जा सकती है।’ (...सरहदें भी तो मिटाई जा सकती हैं : ‘रंग जो छूट गया था’ पृष्ठ- 82) इतनी बड़ी अभिलाषा का आरंभ घर से होना चाहिए- ‘औरतें!/ बहुत भली होती है/ जब तक वे/ आपकी हां में हां मिलाती है/ औरतें!/ बहुत बुरी होती है/ जब वे सोचने-समझने/ और/ खड़ी होकर बोलने लगती हैं।’ (...औरतें : ‘रंग जो छूट गया था’ पृष्ठ- 101) औरतों का बोलना जरूरी है। उनके बोलने से ही जीवन और रंग बोलते हैं। वे ही प्रत्येक सृजन का आधार और प्रेरणा है।         
 रंगों की आब कवि के दूसरे संग्रह में सघन से सघनतर होती देखी जा सकती है। कवि का विश्वास है कि वह उजाले को देश और दुनिया के लिए बचाएगा इसलिए वह उजाले को अपने हाथ में लेकर चलता है। वह उजाले की बाड बानकर अंधेरे को घुसने नहीं देगा ठीक वैसे ही जैसे एक किसान अपने गन्ने के खेत को जंगली सूअरों से बचता है वह भी हमारे पास अंधेरे को फटकने नहीं देगा क्यों कि उसमे उजाले को पहचान लिया है और उसी उजाले की हमारी पहचान कविताओं के माध्यम से वह कराता है। कवि का मानना है कि हम हमारी स्थिति से अपनी नियति की तरफ अग्रसर होते हैं। नियति के लिए फैसला जरूरी है कि हम क्या तय करते हैं। कवि के शब्दों में देखें- ‘जहां पर तुम खड़े हो/ हां वहीं पर क्षितिज है/ उदय भी/ और अस्त भी वहीं होता है/ बस एक कदम आगे अंधेरा/ या फिर उजाला/ और यह तय तुम्हें ही करना है/ कि/ जाना किधर है।’ (बचे रहेंगे रंग : पृष्ठ- 74) कविताओं में सभ्यता के संकटों को भी समाहित किया गया है। कवि शहर और गांव में फैलते बाजारीकरण से चिंतत है और वह आदमी की तलाश में है जो स्थितियों से जूझ सके जो स्थितियों को बदलने के लिए हरावल बन सके। इस लड़ाई में इंसानों के मारे जाने पर कवि को दुख भी होता है किंतु वह धर्म जाति और बंधनों से परे हमारे समक्ष ऐसी जमीन तैयार करता है जहां बिना संघर्ष से कुछ हासिल नहीं होता। और वह हमें संघर्ष के लिए प्रेरित भी करता है- ‘लड़ना है/ लड़ना ही पड़ेगा/ अपने लिए/ अपने खेतों के लिए/ अपने जंगलों के लिए/ लड़ना है/ अपने आकाश, अपनी नदियों के लिए/ अपने विचारों के लिए/ अपने आपको जीवित रखने के लिए।’ (बचे रहेंगे रंग : पृष्ठ- 46) इस लड़ाई में ‘समय के साथ सब कुछ बदलता है’ और अंततः निर्णायक स्थितियों में कवि को कविता का सहारा है- ‘बेशक! यदि तुम तब भी नहीं मरे/ और गुनगुनाते रहे/ कविता की कोई पंक्ति/ तो वे हत्यारे हथियार डाल तुम्हारे पैरों पर लौटेंगे/ हत्यारे सिर्फ कविता से डरते हैं।’ (बचे रहेंगे रंग : पृष्ठ- 80) यह कवि का विश्वास-सहारा ही इन कविताओं की पूंजी है।   
          वरिष्ठ कवि सुधीर सक्सेना का मानना है- ‘कुँवर रवीन्द्र की कविता को लेकर अवधारणा ठोस और सुचिंत्य है। वह ऐसी कविता के हिमायती नहीं है, जो प्रारब्ध में लिपटी हो या उसे दरख्तों के साये में धूप लगे या जो ऐसी छुईमुई हो कि उसे हौले से छूना पड़े या इत्ती गेय हो कि कोई भी गा सके या इतनी अतुकांत हो कि किसी के जेहन में भी न बैठे।’ (बचे रहेंगे रंग : पृष्ठ- 6)
          मूर्त-अमूर्त और कल्पना-यथार्थ के अनेक रेशों से निर्मित कविताओं का संग्रह है- ‘बचे रहेंगे रंग’ इसकी पहली कविता है- ‘बचे हुए रंगों में से/ किसी एक रंग पर/ उंगली रखने से डरता हूं/ मैं लाल, नीला, केसरिया या हरा/ नहीं होना चाहता/ मैं इंद्रधनुष होना चाहता हूं/ धरती के इस छोर से/ उस छोर तक फैला हुआ। (पृष्ठ- 9) यह कविता स्वयं में प्रमाण है कि कवि किसी एक रंग अथवा जीवन की स्थिति में ठहर नहीं सकता, वह विविध वर्णों और रंगों के इंद्रधनुषी कवि हैं। ऐसा प्रेम संभव करता है और करता है कवि का जमीन पर रहकर ऊंचाई छूने का सपना- ‘मैं सीढ़ियां नहीं चढ़ता/ कि उतरना पड़े/ जमीन पर आने के लिए/ मैं जमीन पर ही अपना कद/ ऊंचा कर लेना चाहता हूं/ ऊंचाई छूने के लिए।’ (बचे रहेंगे रंग : पृष्ठ- 65) कुँवर रवीन्द्र ने बेशक अपनी कविताओं को भूमिका में अनगढ़ कहा हो किंतु इनकी अनगढ़ता में जो गढ़ने का शिल्प और कौशल प्रौढ़ होता प्रतीत होता है वह उनकी सहजता-सरलता और तटस्थता से संभव हुआ है। कवि का रंगों और शब्दों की दुनिया में निरंतर जुड़ाव बना रहेगा।

डॉ. नीरज दइया


 


Share:

1 comment:

Search This Blog

शामिल पुस्तकों के रचनाकार

अजय जोशी (1) अन्नाराम सुदामा (1) अरविंद तिवारी (1) अर्जुनदेव चारण (1) अलका अग्रवाल सिग्तिया (1) अे.वी. कमल (1) आईदान सिंह भाटी (2) आत्माराम भाटी (2) आलेख (11) उमा (1) ऋतु त्यागी (3) ओमप्रकाश भाटिया (2) कबीर (1) कमल चोपड़ा (1) कविता मुकेश (1) कुमार अजय (1) कुंवर रवींद्र (1) कुसुम अग्रवाल (1) गजेसिंह राजपुरोहित (1) गोविंद शर्मा (1) ज्योतिकृष्ण वर्मा (1) तरुण कुमार दाधीच (1) दीनदयाल शर्मा (1) देवकिशन राजपुरोहित (1) देवेंद्र सत्यार्थी (1) देवेन्द्र कुमार (1) नन्द भारद्वाज (2) नवज्योत भनोत (2) नवनीत पांडे (1) नवनीत पाण्डे (1) नीलम पारीक (2) पद्मजा शर्मा (1) पवन पहाड़िया (1) पुस्तक समीक्षा (85) पूरन सरमा (1) प्रकाश मनु (2) प्रेम जनमेजय (2) फकीर चंद शुक्ला (1) फारूक आफरीदी (2) बबीता काजल (1) बसंती पंवार (1) बाल वाटिका (22) बुलाकी शर्मा (3) भंवरलाल ‘भ्रमर’ (1) भवानीशंकर व्यास ‘विनोद’ (1) भैंरूलाल गर्ग (1) मंगत बादल (1) मदन गोपाल लढ़ा (3) मधु आचार्य (2) मुकेश पोपली (1) मोहम्मद अरशद खान (3) मोहम्मद सदीक (1) रजनी छाबड़ा (2) रजनी मोरवाल (3) रति सक्सेना (4) रत्नकुमार सांभरिया (1) रवींद्र कुमार यादव (1) राजगोपालाचारी (1) राजस्थानी (15) राजेंद्र जोशी (1) लक्ष्मी खन्ना सुमन (1) ललिता चतुर्वेदी (1) लालित्य ललित (3) वत्सला पाण्डेय (1) विद्या पालीवाल (1) व्यंग्य (1) शील कौशिक (2) शीला पांडे (1) संजीव कुमार (2) संजीव जायसवाल (1) संजू श्रीमाली (1) संतोष एलेक्स (1) सत्यनारायण (1) सुकीर्ति भटनागर (1) सुधीर सक्सेना (6) सुमन केसरी (1) सुमन बिस्सा (1) हरदर्शन सहगल (2) हरीश नवल (1) हिंदी (90)

Labels

Powered by Blogger.

Recent Posts

Contact Form

Name

Email *

Message *

NAND JI SE HATHAI (साक्षात्कार)

NAND JI SE HATHAI (साक्षात्कार)
संपादक : डॉ. नीरज दइया