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नीलम पारीक का दूसरा कविता संग्रह मन चरखे पर / नीरज दइया

 

स्त्री कुछ नहीं भूलती... कुछ भी नहीं...

 आज के दौर में जहां अभिव्यक्ति के माध्यमों की सगुमता और सरलता से कविता के प्रति रुचि में सर्वाधिक वृद्धि हुई है, वहीं इसमें गंभीरता के साथ परंपरा-विकास को जान कर आगे बढ़ने वाले कवियों की संख्या तुलनात्मक रूप में कम है। कवियों में वर्ग भेद नहीं किया जाना चाहिए किंतु किसी व्यापक परिदृश्य को जानने-समझने के लिए यह जरूरी प्रतीत होता है। जैसे- किसी विराट के आकलन हेतु उसके लघु रूपों का आकलन सहज संभव होता है। छोटे-छोटे अनुभव ही व्यापक अनुभव को संभव बनाते हैं। समकालीन कविता परिदृश्य में स्त्रियों की कविताओं का आकलन करेंगे तो पाएंगे कि पहले की तुलना में विकास का ग्राफ संख्यात्मक और गुणात्मक दृष्टि से बेहतर हुआ है। इस ग्राफ को बेहतर बनाने वाली कवयित्रियों में राजस्थान से एक नाम नीलम पारीक का भी लिया जाना चाहिए।

            कवयित्री नीलम पारीक का यह दूसरा कविता संग्रह है, इसकी चर्चा से पूर्व मैं उनके पहले संग्रह ‘कहाँ है मेरा आकाश?’ का स्मरण करना चाहता हूं। अपने पहले ही संग्रह में उन्होंने प्रौढ़ होती स्त्री के मन को व्यापकता से चित्रित करते हुए अपनी पहचान कायम की है। बिना शीर्षक की कविताओं में उन्होंने स्त्री के अस्तित्व और अस्मिता के साथ स्वचेतना के अनेकानेक बेचैन करने वाले सवाल और जीवनानुभव अभिव्यक्त किए हैं। कवयित्री ने एक आकाश की तलाश में जो कुछ उन कविताओं में रचा, उसमें घर-परिवार के तमाम संबंधों के साथ-साथ प्रकृति के अनेक सुंदर बिंब संकेतों में प्रयुक्त किए गए हैं।

            यह यहां इसलिए भी उल्लेखित करना आवश्यक है कि कवयित्री नीलम पारीक ने अपने दूसरे काव्य संग्रह ‘मन चरखे पर’ में अपने उस आकाश को खोज लिया है, अथवा कहें कि अपना आकाश पा लिया है। यहां बिना किसी बहारी आडंबर और काव्य-कौशल के सहजता-सरलता से जो उन्होंने पाया है उसे हम देख सकते हैं। ‘क्या ताज्जुब है’ कविता में वे लिखती हैं- क्या ताज्जुब है/ छू ले जो आसमान कोई/ हमने तो उसी दिन/ छू लिया था/ जब पहली बार/ पिता के कंधे पर/ बैठ कर/ हाथ बढ़ाया था/ उस और...। यह एक ऐसी मासूम और भोली सी कविता है जहां सहजता में सर्वसंभव सुलभ हुआ है। यह संबंधों का अनुपम चित्रण है।

             ‘मां’ शीर्षक कविता की पंक्तियां देखें- ‘मां के पास कहां था वक्त.../ सिखाने का, समझाने का/ बैठाकर गोद में अपनी/ फिर भी सिखा दिया/ हर हाल में जीना/ अपने लिए/ अपनों के लिए...’ यह जो सहजता से जीवन में स्वत स्त्रियों को प्रकृति ने दिया है उसके आभार की कविताएं हैं। मां के बारे में भी इस संग्रह में अनेक कविताओं में वर्णन मिलता है। ये कविताएं स्त्रियों के संघर्ष और जीवन को सुंदर बनाने हुए उनके रचनात्मक हो जाने की कविताएं हैं। ‘धर्म युद्ध’ कविता की पंक्तियां देखें- ‘लेकिन तुम नहीं हारी ओ नारी/ ढल गए तुम्हारे शब्द/ कविता में, गीतों में, कहानियों में...’ इसी भांति ‘स्त्री’ शीर्षक कविता में- ‘शायद इसीलिए/ स्त्री झेल लेती है/ हर खिंचाव अपने पर/ भूल कर कड़वे बोल.../ हर अपमान.../ मुस्कुराहट के अमृत से/ धकेलती हुई हर जहर/ भरती रहती है मिठास हर रिश्ते में/ क्योंकि वो जानती है/ क्या याद रखना है याद रखकर.../ और क्या याद रखकर भी/ भूल जान है.../ जबकि सच तो ये है कि/ इतना सब होने के बाद ‘स्त्री कुछ नहीं भूलती... कुछ भी नहीं...’ इन और इन जैसी अनेक कविताओं से समाज में स्त्रियों के प्रति संवेदनशीलता में बदलाव अवश्य आएगा। ‘पचास साल की औरतें’ कविता भी इन्हीं और ऐसी ही संवेदनाओं का विस्तार है।

            इस कविता-संग्रह की कविताओं का यदि किसी को केंद्रीय बिंदु या धुरी कहें तो वह प्रेम है। संग्रह की अनेक कविताएं प्रेम की धुरी पर गतिशील होती हुई एक जानी पहचानी दुनिया को हमारे सामने होले-होले अपने अनुभवों से खोलती है। बेशक इन अनुभवों से हम पूर्व परिचित होते हुए भी उनके रंग-रूप से इतना अधिक परिचित नहीं हुए होते हैं, जितना और जिस रंग-रूप को यहां अभिव्यक्ति मिली है। यह कविताएं जीवन में छूटी अथवा छोड़ दी गई उन अनुभूतियों को देखने दिखाने की कविताएं हैं।

            कविता-संग्रह की शीर्षक कविता की बात करें- ‘मन चरखे पर/ भावनाओं के रंग में रंगी/ रूई की कोमलता से/ बना-बनाकर पूणी/ कतता रहता है निरंतर/ प्रीत का कच्चा धागा।’ निरंतरता के साथ इन कच्चे धागों को देखना-दिखाना संभव करना ही इन कविताओं का एक उद्देश्य है। ये कविताएं प्रेम के बहुरूपी-बहुरंगी धागों को बटोरती हुई उसे बनाए रखने का उपक्रम भी सीखाती है। संवंध जो है वे बने रहे तो समय के साथ उनके सुधरने की संभवानाएं रहती है। इसी बात को ‘डोरियां’ कविता में हम देख सकते हैं- ‘ये डोरियां/ रिश्तों की ये/ उलझी-उलझी डोरियां/ भले सुलझे नहीं/ यूं ही उलझी रहे/ बस टूटे नहीं/ ये डोरियां।’ यहां ‘रहीमन धागा प्रेम का’ और टूटने पर गांठ पड़ने की बात का सहज स्मरण स्वाभाविक है।

            इन कविताओं में प्रकृति से कवयित्री के संवाद को भी शब्द दिए गए हैं। जैसे- ‘ओ चांद’ शीर्षक की शृंखला कविताओं में चांद रात से कुछ कहता है और उसका असर रात भर भिन्न-भिन्न है। अनेक बिंबों में सुंदर चित्रों की अभिव्यक्ति के साथ प्रकृति में जो है और जो दिखाई देने के साथ प्रतीति में गोचर होता है, उसे शब्द देने के प्रयास इन कविताओं में हुए हैं। इन कविताओं में एक अन्य महत्त्वपूर्ण घटक विश्वास भी ऐसा प्रतीत होता है, जैसे धमनियों में दौड़ता हुआ रक्त। विश्वास ही है जो इन कविताओं को प्रेम में लौकिकता के छोर से अलौकिकता तक ले जाता है। यहां एक किस्म का धैर्य है जो इन कविताओं की पूंजी है। ‘इंतजार में भी/ एक रस होता है/ शुरु में कुछ फीका/ फिर थोड़ा मीठा’ जैसी सहज-सरल पंक्तियां बावरे मन को समझा सकती है कि हिरण कस्तूरी के लिए भटकता है किंतु कस्तूरी तो उसके भीतर है।

            आज हमारे चारों तरफ जहां कोलाहल और भागदौड़ के जीवन में हताशा, निराशा और तनाव भरा वातावरण है, वहीं इन कविताओं में एक सकून भरी निश्छल शांति और मौन का अहसास हमें संयत करने वाला लगेगा। संभवतः इसीलिए कहना होगा कि नीलम पारीक की ये कविताएं किसी काव्य-कौशल से बनाई नहीं गई है वरन मन चरखे पर समय के साथ बनती चली गई है, और कहें बनती जा रही है। इसका एक कारण यह भी है कि कवयित्री ने बिना किसी अवरोध के इन कविताओं में जिस सरलता-सहजता से खुद को अभिव्यक्त किया वह उनका अपना कहन का एक रूप है। वे एक कविता ‘हां मैंने लिखा’ में लिखती भी हैं- ‘हां मैंने लिखा खुद को/ लिखा भले ही कतरा-करता/ और उसी कतरे में/ तलाश करने लगे तुम मुझे/ इतने नादान तो नहीं थे/ लेकिन नहीं पढ़ पाए मुझे/ मैं तो लिखी थी अक्षर-अक्षर/ समूची कायनात के कोरे कागज पर/ सच्चे, सतरंगे मोतियों सी।’    समकालीन कविताओं में नीलम पारीक की इन अनगढ़, सच्ची-सरल और सहज बानगी को पृथक से पहचाने जाने का आह्वान इन कविताओं में है। इस कृति का मैं स्वागत करते हुए अपनी शुभकामनाएं अर्पित करता हूं।

 - नीरज दइया

कृति- मन चरखे पर (कविता संग्रह)
कवयित्री- नीलम पारीक
प्रकाशक- पुस्तक मंदिर, बीकानेर
संस्करण- 2023, पृष्ठ-96, मूल्य- 200/-

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बाल कहाणी-संग्रै ‘कमाल रौनक रौ’ बसंती पंवार/ डॉ. नीरज दइया

 राजस्थानी री चावा-ठावी लेखिका रूप बसंती पंवार जी रो घणो नांव मानीजै। बां रै इण बाल कहाणी-संग्रै ‘कमाल रौनक रौ’ मांय भांत-भांत री तेरै कहाणियां भेळी बांच सकां। संग्रै री पैली कहाणी जिण माथै पोथी रो नांव राखीज्यो है मांय रौनक रो ग्यान अड़ी बगत मांय आडो आवै। जे रौनक कंप्यूटर अर ई-मेल करण रो ग्यान नीं राखतो तो ना अपहरण करणियां सूं बो बचतो अर ना उण री लाडली बैन खुशी। जीवण मांय कद कांई हुय जावै, किणी नै आगूंच कीं ठाह नीं हुवै। हरेक टाबर नै स्कूल सूं आवती-जावती बगत सावचेती राखणी चाइजै। बियां सावचेती तो ऊमर परवाण जियां-जियां आपां नवी-नवी बातां सीखां बधती जावै। जियां ‘मनकू रा जूता’ बाल काहणी मांय उपभोक्ता रै अधिकारां री बात सवाळ परोटता थकां लेखिका हेत-अपणायत री बात भेळै नवी जाणकारी ई देवै। भणाई री पोथ्यां भेळै बीजी पोथ्यां बांच्यां री बाण हुयां सूं फायदो ई फायदो है। नवी-नवी जाणकारियां मिलै। आपनै लखदाद कै अबार आ पोथी आप बांच रैया हो।

            बसंती पंवार जी री आ पोथी बांचतां म्हनै घणो हरख हुयो कै इण पोथी मांय कोराना काल री केई कहाणियां ई सामल करीजी है। जियां ‘मिनकी अर ऊंदरौ’ अर ‘भालू री समझदारी’ कहाणी री बात करां तो जीव-जिनावरां री कहाणियां नै नवै जुग मुजब परोटणो अबखो मानीजै पण बाल साहित्यकार बसंती जी घणी सावचेती सूं किणी घटना नै कहाणी रै रूप सिरजै कै बा एक यादगार कहाणी बण जावै। कम सबदां मांय जीवण सूं जुड़ी नवी- नवी बातां नै टाबरां मुजब कहाणी मांय ढाळण रो जोरदार काम अठै मिलै।

            टाबरां नै कहाणियां घणी दाय आवै इणी बात नै ध्यान मांय रखता थका बाल कहाणी ‘पढाई’ मांय मैडम कहाणी मांय कहाणी कैवै। कहाणी सूं टाबरां माथै घणो असर हुवै अर बां मांय पढण अर आगै बधण री हूंस हबोळा खावण लागै। सीखवणो जरूरी है पण उण रो ई आपरो एक तरीको हुवै, जियां ‘योग भगावै रोग’ बाल कहाणी रै सिरै नांव सूं ई आ बात खुलती हुय जावै कै इण मांय योग करण री सीख अवस हुवैला। अबै बो बगत है जद कहाणी मांय सीख देवणो कहाणी री कमी मानीजै। सीख नै सीधो उपदेस दांई बाळकां माथै ढोळ देवणो चोखी बात कोनी। कहाणीकार री बुणगट मांय भासा तो जरूरी हुवै ई पण उण सूं बेसी उण नै किण ढाळै बंतळ करता-करता परोटां आ देखण-समझण री बात अठै देख सकां। ‘रंग में भंग’ बाल कहाणी मांय जळ बचावण रै साथै साथै होळी रै मोकै पुसप होळी री बात नै आगै बधावणी जरूरी लखावै। बसंती बरसां टाबरां नै भणावता रैया अर घर मांय ई दादी नानी रै रूप आपरो रुतबो राखै तो बै सावळ जाणै कै टाबरां नै किण बात नै कियां कैवणी चाइजै।

            हंसी-मजाक ई टाबरां नै घणी रुचै, तो इणी ढाळै री कहाणियां- ‘कीं तो गड़बड़ है’ अर ‘यस मेम’ राजस्थानी बाल कहाणियां मांय आवतै मोटै बदळाव नै ई बतावै। इण ढाळै री कहाणियां आ बात मांड’र ठीमर ढंग सूं कैवै कै खुद री भासा अर खुद री जाग्या टाबरां खातर घणी मेहतावू हुया करै। पढाई-लिखाई घणी जरूरी हुवै, पण दूजां री खोड़ खोडावणो का अंग्रेजी रै लारै भाजणो माडी बात है। आधो अधूरो ग्यान फोड़ा घालै इण सारू कोई पण काम खुद री सरधा सारू ई करणो करावणो चाइजै।

            किणनै ई ठा है?’ बाल कहाणी एकदम आधुनिक ई नीं, राजस्थानी मांय उत्तर आधुनिकता रै ऐनाण री बाल कहाणी कैयी जाय सकै। किण पण रचनाकार नै प्रयोग करणा चाइजै अर न्यूटन री बात करता-करता साव मसखरी रै मूड मांय बाळक री चिंतन दसा नै कहाणी मांय राखणो साव नवी बात मानी जावैला। ‘मा’ बाल कहाणी मांय टाबर री जंतराई पछै मा आंसुड़ा क्यूं ढळकावै? इण बात नै टाबर नै समझणो चाइजै। संवेदना अर परोपकार री बात ‘देवण रो सुख’ बाल कहाणी करै। अठै ओ उल्लेखजोग है कै घर मांय दादी-नानी रै हुयां टाबरां मांय संस्कार कीं सावळ अर बेसी ढंग सूं आवै। आज जद घर-परिवारां सगळा न्यारा-न्यारा रैवण लाग्या तो टाबरां नै बाल साहित्य सूं जोड़ण रो काम घणो जरूरी समझ्यो जावणो चाइजै।

            संवेदनावां सूं भरी बसंती पंवार जी री आं कहाणियां रो म्हैं घणै मान स्वागत करूं।

डॉ. नीरज दइया

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बाल कहानियों में कमाल के प्रयोग/ डॉ. नीरज दइया

डॉ.कमल चोपड़ा का नाम लघुकथाओं के लिए विशेष रूप से जाना जाता है। आपने अपनी सुदीर्ध साहित्यिक यात्रा में कहानी और संपादन के क्षेत्र में बहुत काम किया है, वहीं बाल साहित्य में भी ‘मास्टर जी ने कहा था’ बाल उपन्यास के अतिरिक्त दो बाल कहानी संग्रह- ‘चालाकी नहीं चलेगी’ और ‘गजराज की वापसी’ प्रकाशित हुए हैं। यहां हम उनकी बाल कहानियों के इन दोनों संग्रह पर चर्चा करेंगे। इनमें सर्वाधिक उल्लेखनीय बात यह है कि डॉ. कमल चोपड़ा ने बाल कहानियों में कमाल के प्रयोग किए हैं, जिनके लिए वे बाल साहित्य के इतिहास में पृथक से पहचाने जाएंगे।
    संग्रह ‘चालाकी नहीं चलेगी’ में 14 बाल कहानियां है और सभी कहानियों में मुख्य पात्र ईमानदार सत्तू कुम्हार और बेईमान चंदू कुम्हार को बनाया गया है। दो मुख्यों पात्रों के आधार पर हर बार नई कहानी को बुनना और कहानी के अंत में सीख के रूप में दो-चार पंक्तियों को काव्यात्मक रूप से जोड़ना, उनका एक सफल शैल्पिक प्रयोग है। दूसरे शब्दों में कहें तो यह कृति एक ऐसे जीवन की बड़ी कथा को खंड-दर-खंड प्रस्तुत करती है जिसमें धर्म-अधर्म, सत्य-असत्य, ईमानदारी-बेईमानी जैसे दो ध्रुव है और जाहिर है बच्चों को यदि इनमें अंतर समझ आ जाए तो वे देश के लिए मूल्यों का निर्माण कर सुयोग्य नागरिक बनेंगे। वहीं दूसरे संग्रह ‘गजराज की वापसी’ में 9 बाल कहानियां है और सभी कहानियों में अलग-अलग जीव-जंतुओं को केंद्रीय चरित्र के रूप में उपस्थित करते हुए बच्चों को उनके प्रति ऋणी होने की प्रेरणा दी गई है। गाय, बंदर, हाथी, बैल, कछुआ, मोर, घोड़ा, गधा और बकरी को लेखन में केंद्रित करते हुए हमारी संवेदनाओं की बात की गई है, वहीं वन्य जीव संरक्षण आदि कानून का उल्लेख करते हुए प्रत्येक मनुष्य को जीवों के प्रति सद्भवाना रखने का उद्देश्य भी इन कहानियों में प्रमुखता से रखा गया है। लेखक ने इस कृति की भूमिका में लिखा भी है- ‘मनुष्य को इन बेजुबान निरीह और मासूम जानवरों के साथ प्यार से पेश आना चाहिए, क्योंकि ये पशु-पक्षी भी मनुष्य की तरह ही प्रकृति-चक्र का एक हिस्सा हैं। इसलिए पृथ्वी, पर्यावरण और प्रकृति की रक्षा के लिए इन पशु-पक्षियों की रक्षा भी उतनी ही आवश्यक है।’
    दूसरे संग्रह में मुख्य पात्र सत्तू और चंदू के बीच कमाल की केमेस्ट्री है। वे संग्रह की सभी कहानियों में बार बार मूल्यों का पाठ पढ़ाने के लिए जूझते हैं। पहली कहानी जिस पर संग्रह का शीर्षक रखा गया है- ‘चालाकी नहीं चलेगी’ जो इसी सूत्र वाक्य के रूप में अन्य कहानियों में भी प्रयुक्त होती है। शीर्षक कहानी में चंदू मरी हुई बिल्ली को सत्तू के घर जाकर उसके मिट्टी के बर्तन पकाने वाली जलती हुई भट्टी में डाल देता है। कहानी में पंडित वृंदावन जी को सत्तू सोने की बिल्ली पाप मुक्ति के लिए कैसे भेंट करेगा यह कौतूहल सुंदर ढंग से रचा गया है। वहीं कहानी में इस समस्या का समाधान भी बहुत तरीके से प्रस्तुत हुआ है। सत्तू की समझदारी और तार्किता से रहस्य खुल जाता है और चंदू की फजीहत होती है।
    दूसरी कहानी ‘झूठ कभी नहीं छुपता’ में गांव में आतंक शेर का है और सत्तू गांव को शेर से मुक्त करने के लिए साहस दिखाता है। वन विभाग की मदद से वह शेर को पिंजरे में कैद करवा देता है, वहीं चंदू इस का लाभ गांव के प्रधान जी से पाने के लिए झूठा श्रेय लेता है। कहानी प्रेरणा देती है कि झूठ कभी नहीं छुपता है, वह किसी न किसी रूप से सामने आ जाता है और सदा सत्य की जीत होती है। इन कहानियों में मानव मूल्यों की सीख को मनोवैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुत किया गया है।
    ‘इंसानियत के नाते’ कहानी में फिर एक नई समस्या के साथ सत्तू और चंदू जूझते हैं और चंदू फिर मात खाता है। एक घायल आदमी जो अंत में चंदू का भाई निकलता है, उसे नहीं बचाकर चंदू का लालची होना और सत्तू का अपना नुकसान कर के भी जीवन को बड़ा और जरूरी समझते हुए किसी घायल को बचाना जैसे घटना क्रम इन कहनियों में कहीं आरोपित या काल्पनिक नहीं वरन सहजता से चित्रित हुए हैं। किसी कहानीकार की सफलता यही होती है कि वह घटनाओं को इस प्रकार समायोजित करे कि सब कुछ कहानी में सत्य जैसा प्रतीत हो। संग्रह की अन्य कहानियों पर भी चर्चा की जा सकती है किंतु यहां प्रत्येक कहानी पर चर्चा करना संभव नहीं है। यह बस यही उल्लेख करना उचित होगा कि अन्य कहानियों में भी इसी भांति चरित्रों के उज्ज्वल पक्ष को उभारते हुए जीवन-मूल्यों के लिए कहानीकार ने विभिन्न स्थितियां और घटनाक्रम रचे हैं, जिनमें कहीं हास्य है तो कहीं रहस्य-रोमांच और प्रतियोगिताओं के साथ शिक्षाप्रद अनुभव। निसंदेह इस संग्रह की सभी कहानियां टेलीविजन के किसी धारावाहिक की भांति हर बार मनोरंजन से भरपूर और क्रमशः आगे बढ़ती है।    
    ‘गजराज की वापसी’ संग्रह की पहली कहानी ‘सचमुच मां’ में दीपू और ज्योति की मां गुजर जाती है। उनके पिता तो पहले ही गुजर गए थे इसलिए वे अनाथ हो गए हैं। भाई-बहन दोनों के साथ गायत्री नाम की गाय भी एक सदस्य के रूप में इस घर में रहती आईं थी, जिसे मां ने मरते वक्त बच्चों का खयाल रखने की बात कही। गायत्री नामक गाय को चौधरी रघुनाथ अपने कर्ज वसूली के रूप में ले जाना चाहता है किंतु गांव वालों के कारण परिस्थिति वश वह नहीं ले जा पाता तो युक्ति पूर्वक गाय को कैद कर लेता है। गाय उसे जीवन-दान देती है और उसे चोरों से बचाती है तो उसका हृदय-परिवर्तन हो जाता है। गाय का महत्त्व हमारे समाज में आदिकाल से रहा है और यह कहानी गाय और मानव संबंधों की एक बेजोड़ कहानी है।  
    अब शीर्षक कहानी पर बात करें तो गजराज नाम से ही स्पष्ट है कि यह किसी हाथी से संबंधित कहानी है। गजराज की वापसी कहां होगी- जंगल में। सवाल यह है कि गजराज जंगल से आया कैसे और गया कैसे? इस बाल कहानी में मंदिर का पुजारी एक प्रपंच रचता है और सेठ धनपत मल द्वारा गणेश मंदिर में गजराज हाथी का दान लेता है। भगवान गणेश की मूर्ति से तीन-चार दिन से लगातार आंसू बनने की बात कह कर एक कहानी पुजारी बनाता है जिस पर कथानायक प्रखर को यकीन नहीं होता, किंतु वह उस समय कुछ नहीं कर पाता। कहानी में गजराज जैसे हाथी को पकड़ने की प्रक्रिया पर बाल संवेदनाएं जाग्रत होती है कि कितना दुखदाई होता है किसी जानवर को काबू में करना और अपने नियमों में ढालना। कहानी बड़े रोचक ढंग से पुजारी की स्वर्थ भरी करतूतों का पर्दाफाश करती संदेश देती है कि वेजुबान जीवों पर दया रखनी चाहिए।
    बाल साहित्य की पुस्तकों में एक सर्वाधिक रेखांकित किए जाने योग्य बात भाषा की शुद्धता की होनी चाहिए। पुस्तक ‘गजराज की वापसी’ में कहीं-कहीं प्रूफ की अशुद्धियां हैं। जैसे- एक ही कहानी में ‘झुन्ड’ और ‘झुण्ड’ शब्द का प्रयोग। बेहतर होता यदि शब्द ‘झुंड’ प्रयुक्त किया जाता। बाल साहित्य की पुस्तकें मानक हिंदी वर्तनी को बेहतर ढंग से संप्रेषित कर सकती हैं। हाथी की कीमत इक्कीस लाख के सौदे में पांच लाख रुपये एडवांस दिए किंतु बाद में बाकी के पैसे लिखने की अपेक्षा रुपये लिखना अधिक उचित होता। दैनिक व्यवहार में हम ‘पैसे’ का उपयोग करते हैं किंतु बड़ी रकम के लिए ‘रुपये’ प्रयुक्त होना चाहिए। इसी प्रकार इस शीर्षक कहानी की दूसरी पंक्ति में- ‘संयोग से कल ही परिणाम आया था’ एक अतिरिक्त छपी पंक्ति प्रतीत होती है। साथ ही यह भी कि कहानी का नायक प्रखर चौहद वर्ष का है और वह गजराज सरीखे विशालकाय हाथी के जख्मों को प्यार से कैसे सहलता सकता है? बाल कहानी में कल्पना भी शामिल होती है। यहां जानवर भी हमारी भाषा में बोलते-समझते हैं, यह सब तो ठीक है किंतु इस परस्पर समझ में कहानियों की भाषा को लेकर वैज्ञानिक दृष्टिकोण व्यवहारिक स्तर पर होना जरूरी है। यह दो-चार बातें इन कहानियों की श्रेष्ठता की तुलना में नगण्य है, किंतु यदि इन पर भी भविष्य में ध्यान दिया जाए तो सोने में सुहागा उक्ति चरितार्थ होगी। सार रूप में कहें तो डॉ. कमल चोपड़ा बाल साहित्य में एक ऐसा नाम है जिनमें लेखन को लेकर बेहद गंभीरता, सजगता और प्रयोग करने की क्षमता अद्बितीय है। कहना होगा कि डॉ. चोपड़ा की इन कहानियों में भाषा की सरलता, सहजता और प्रवाह के साथ अपने कथ्य को आगे बढ़ाने की योग्यता पाठक को बांधे रखती है। सभी कहानियों के शीर्षक भी अपने ढंग के निराले और प्रेरणास्पद रखे गए हैं। शिक्षा देने वाली ये पठनीय बाल कहानियां बच्चों के यादगार अनुभव में शामिल होने की क्षमता रखती हैं। प्रकाशक ने दोनों पुस्तकों को बड़े सुंदर और मनमोहक ढंग से प्रकाशित किया है। बाल साहित्य  की पुस्तकों में साज-सज्जा के साथ यथा आवश्यक चित्रों को भी प्रयुक्त किया जाते तो पठनीयता और बच्चों का पुस्तक के प्रति आकर्षण बढ़ता है। 

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रचनाकार : डॉ. कमल चोपड़ा
कृति : चालाकी नहीं चलेगी (कहानी संग्रह)
प्रकाशक : ग्लोबल एक्सचेंज पब्लिशर्स, दिल्ली
पृष्ठ : 72 ; मूल्य : 295/-
प्रथम संस्करण : 2021
कृति : गजराज की वापसी (कहानी संग्रह)
प्रकाशक :आत्माराम एण्ड संस, दिल्ली
पृष्ठ : 64 ; मूल्य : 295/-
प्रथम संस्करण : 2021
समीक्षक : डॉ. नीरज दइया

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