स्त्री कुछ नहीं भूलती... कुछ भी नहीं...
आज के दौर में जहां अभिव्यक्ति के माध्यमों की सगुमता और सरलता से कविता के प्रति रुचि में सर्वाधिक वृद्धि हुई है, वहीं इसमें गंभीरता के साथ परंपरा-विकास को जान कर आगे बढ़ने वाले कवियों की संख्या तुलनात्मक रूप में कम है। कवियों में वर्ग भेद नहीं किया जाना चाहिए किंतु किसी व्यापक परिदृश्य को जानने-समझने के लिए यह जरूरी प्रतीत होता है। जैसे- किसी विराट के आकलन हेतु उसके लघु रूपों का आकलन सहज संभव होता है। छोटे-छोटे अनुभव ही व्यापक अनुभव को संभव बनाते हैं। समकालीन कविता परिदृश्य में स्त्रियों की कविताओं का आकलन करेंगे तो पाएंगे कि पहले की तुलना में विकास का ग्राफ संख्यात्मक और गुणात्मक दृष्टि से बेहतर हुआ है। इस ग्राफ को बेहतर बनाने वाली कवयित्रियों में राजस्थान से एक नाम नीलम पारीक का भी लिया जाना चाहिए।कवयित्री नीलम पारीक का यह दूसरा कविता संग्रह है, इसकी चर्चा से पूर्व मैं उनके पहले संग्रह ‘कहाँ है मेरा आकाश?’ का स्मरण करना चाहता हूं। अपने पहले ही संग्रह में उन्होंने प्रौढ़ होती स्त्री के मन को व्यापकता से चित्रित करते हुए अपनी पहचान कायम की है। बिना शीर्षक की कविताओं में उन्होंने स्त्री के अस्तित्व और अस्मिता के साथ स्वचेतना के अनेकानेक बेचैन करने वाले सवाल और जीवनानुभव अभिव्यक्त किए हैं। कवयित्री ने एक आकाश की तलाश में जो कुछ उन कविताओं में रचा, उसमें घर-परिवार के तमाम संबंधों के साथ-साथ प्रकृति के अनेक सुंदर बिंब संकेतों में प्रयुक्त किए गए हैं।
यह यहां इसलिए भी उल्लेखित करना आवश्यक है कि कवयित्री नीलम पारीक ने अपने दूसरे काव्य संग्रह ‘मन चरखे पर’ में अपने उस आकाश को खोज लिया है, अथवा कहें कि अपना आकाश पा लिया है। यहां बिना किसी बहारी आडंबर और काव्य-कौशल के सहजता-सरलता से जो उन्होंने पाया है उसे हम देख सकते हैं। ‘क्या ताज्जुब है’ कविता में वे लिखती हैं- क्या ताज्जुब है/ छू ले जो आसमान कोई/ हमने तो उसी दिन/ छू लिया था/ जब पहली बार/ पिता के कंधे पर/ बैठ कर/ हाथ बढ़ाया था/ उस और...। यह एक ऐसी मासूम और भोली सी कविता है जहां सहजता में सर्वसंभव सुलभ हुआ है। यह संबंधों का अनुपम चित्रण है।
‘मां’ शीर्षक कविता की पंक्तियां देखें- ‘मां के पास कहां था वक्त.../ सिखाने का, समझाने का/ बैठाकर गोद में अपनी/ फिर भी सिखा दिया/ हर हाल में जीना/ अपने लिए/ अपनों के लिए...’ यह जो सहजता से जीवन में स्वत स्त्रियों को प्रकृति ने दिया है उसके आभार की कविताएं हैं। मां के बारे में भी इस संग्रह में अनेक कविताओं में वर्णन मिलता है। ये कविताएं स्त्रियों के संघर्ष और जीवन को सुंदर बनाने हुए उनके रचनात्मक हो जाने की कविताएं हैं। ‘धर्म युद्ध’ कविता की पंक्तियां देखें- ‘लेकिन तुम नहीं हारी ओ नारी/ ढल गए तुम्हारे शब्द/ कविता में, गीतों में, कहानियों में...’ इसी भांति ‘स्त्री’ शीर्षक कविता में- ‘शायद इसीलिए/ स्त्री झेल लेती है/ हर खिंचाव अपने पर/ भूल कर कड़वे बोल.../ हर अपमान.../ मुस्कुराहट के अमृत से/ धकेलती हुई हर जहर/ भरती रहती है मिठास हर रिश्ते में/ क्योंकि वो जानती है/ क्या याद रखना है याद रखकर.../ और क्या याद रखकर भी/ भूल जान है.../ जबकि सच तो ये है कि/ इतना सब होने के बाद ‘स्त्री कुछ नहीं भूलती... कुछ भी नहीं...’ इन और इन जैसी अनेक कविताओं से समाज में स्त्रियों के प्रति संवेदनशीलता में बदलाव अवश्य आएगा। ‘पचास साल की औरतें’ कविता भी इन्हीं और ऐसी ही संवेदनाओं का विस्तार है।
इस कविता-संग्रह की कविताओं का यदि किसी को केंद्रीय बिंदु या धुरी कहें तो वह प्रेम है। संग्रह की अनेक कविताएं प्रेम की धुरी पर गतिशील होती हुई एक जानी पहचानी दुनिया को हमारे सामने होले-होले अपने अनुभवों से खोलती है। बेशक इन अनुभवों से हम पूर्व परिचित होते हुए भी उनके रंग-रूप से इतना अधिक परिचित नहीं हुए होते हैं, जितना और जिस रंग-रूप को यहां अभिव्यक्ति मिली है। यह कविताएं जीवन में छूटी अथवा छोड़ दी गई उन अनुभूतियों को देखने दिखाने की कविताएं हैं।
कविता-संग्रह की शीर्षक कविता की बात करें- ‘मन चरखे पर/ भावनाओं के रंग में रंगी/ रूई की कोमलता से/ बना-बनाकर पूणी/ कतता रहता है निरंतर/ प्रीत का कच्चा धागा।’ निरंतरता के साथ इन कच्चे धागों को देखना-दिखाना संभव करना ही इन कविताओं का एक उद्देश्य है। ये कविताएं प्रेम के बहुरूपी-बहुरंगी धागों को बटोरती हुई उसे बनाए रखने का उपक्रम भी सीखाती है। संवंध जो है वे बने रहे तो समय के साथ उनके सुधरने की संभवानाएं रहती है। इसी बात को ‘डोरियां’ कविता में हम देख सकते हैं- ‘ये डोरियां/ रिश्तों की ये/ उलझी-उलझी डोरियां/ भले सुलझे नहीं/ यूं ही उलझी रहे/ बस टूटे नहीं/ ये डोरियां।’ यहां ‘रहीमन धागा प्रेम का’ और टूटने पर गांठ पड़ने की बात का सहज स्मरण स्वाभाविक है।
इन कविताओं में प्रकृति से कवयित्री के संवाद को भी शब्द दिए गए हैं। जैसे- ‘ओ चांद’ शीर्षक की शृंखला कविताओं में चांद रात से कुछ कहता है और उसका असर रात भर भिन्न-भिन्न है। अनेक बिंबों में सुंदर चित्रों की अभिव्यक्ति के साथ प्रकृति में जो है और जो दिखाई देने के साथ प्रतीति में गोचर होता है, उसे शब्द देने के प्रयास इन कविताओं में हुए हैं। इन कविताओं में एक अन्य महत्त्वपूर्ण घटक विश्वास भी ऐसा प्रतीत होता है, जैसे धमनियों में दौड़ता हुआ रक्त। विश्वास ही है जो इन कविताओं को प्रेम में लौकिकता के छोर से अलौकिकता तक ले जाता है। यहां एक किस्म का धैर्य है जो इन कविताओं की पूंजी है। ‘इंतजार में भी/ एक रस होता है/ शुरु में कुछ फीका/ फिर थोड़ा मीठा’ जैसी सहज-सरल पंक्तियां बावरे मन को समझा सकती है कि हिरण कस्तूरी के लिए भटकता है किंतु कस्तूरी तो उसके भीतर है।
आज हमारे चारों तरफ जहां कोलाहल और भागदौड़ के जीवन में हताशा, निराशा और तनाव भरा वातावरण है, वहीं इन कविताओं में एक सकून भरी निश्छल शांति और मौन का अहसास हमें संयत करने वाला लगेगा। संभवतः इसीलिए कहना होगा कि नीलम पारीक की ये कविताएं किसी काव्य-कौशल से बनाई नहीं गई है वरन मन चरखे पर समय के साथ बनती चली गई है, और कहें बनती जा रही है। इसका एक कारण यह भी है कि कवयित्री ने बिना किसी अवरोध के इन कविताओं में जिस सरलता-सहजता से खुद को अभिव्यक्त किया वह उनका अपना कहन का एक रूप है। वे एक कविता ‘हां मैंने लिखा’ में लिखती भी हैं- ‘हां मैंने लिखा खुद को/ लिखा भले ही कतरा-करता/ और उसी कतरे में/ तलाश करने लगे तुम मुझे/ इतने नादान तो नहीं थे/ लेकिन नहीं पढ़ पाए मुझे/ मैं तो लिखी थी अक्षर-अक्षर/ समूची कायनात के कोरे कागज पर/ सच्चे, सतरंगे मोतियों सी।’ समकालीन कविताओं में नीलम पारीक की इन अनगढ़, सच्ची-सरल और सहज बानगी को पृथक से पहचाने जाने का आह्वान इन कविताओं में है। इस कृति का मैं स्वागत करते हुए अपनी शुभकामनाएं अर्पित करता हूं।
- नीरज दइया
कृति- मन चरखे पर (कविता संग्रह)
कवयित्री- नीलम पारीक
प्रकाशक- पुस्तक मंदिर, बीकानेर
संस्करण- 2023, पृष्ठ-96, मूल्य- 200/-