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बालकों को कर्त्तव्य-बोध करता बाल साहित्य / डॉ. नीरज दइया

बालकों के कर्त्तव्य-बोध और बाल साहित्य  के विषय-प्रवेश पर कुछ जरूरी प्रस्थान-बिंदुओं पर विचार करेंगे। बच्चों को हमारे समाज में उनके जन्म से ही श्रेणियों में विभाजित किए जाने की परंपरा रही है। लड़का और लड़की किसी समान दुनिया में प्रवेश करने पर भी उनके स्वागत में भिन्नता रहती है। जैसे दोनों किसी एक दुनिया में नहीं दो दुनिया में प्रवेश कर रहे हों। बच्चों के संसार में आने से पहले ही उनकी पहचान को लेकर हुए तकनीकी विकास ने कितनी ही बेटियों का जीवन नष्ट कर दिया है। स्त्री-पुरुष जनसंख्या अनुपात के बिगड़ते जाने का दोष किसे दिया जाए। क्या कोई ऐसी शक्ति या सत्ता है जो इस अनुपात को वर्षों से नियंत्रण में किए हुए थी? यह सवाल किसी दूसरी बहस को जन्म दे सकता है, किंतु यह जानना भी जरूरी है कि स्त्री-पुरुष अनुपात को व्यवस्थित किए रखने में किसकी भूमिका है? और है भी या कि यह कोरा अंधविश्वास है। इससे इतर यह बात भी विचारणीय है कि किसी बालक या बालिका के परिवार में आने बाद हमारी क्या भूमिका होनी चाहिए और क्या हम हमारी भूमिका का निर्वाहन ठीक से कर रहे हैं? बालक और बालिका में अंतर समय के साथ विस्तारित होता गया है। सामज में बालकों अथवा बाल साहित्यकारों की भूमिका से इंकार नहीं कर सकते, किंतु नवसमाज की संरचना के लिए बालमन में कर्त्तव्य बोध की चर्चा करने से पूर्व स्वयं हमें हमारे कर्यत्वबोध का आकलन कर लेना चाहिए।
अक्षरों की दुनिया में किसी पाठ के लिए बालक और बालिका में विभेद नहीं किया जाता। कोई पाठ अपने हर पाठक के लिए किसी एक ही रूप में उपस्थित रहा करता है। किसी पाठ के भीतर प्रवेश का सिलसिला उतरोत्तर बाल-साहित्य द्वारा ही विकसित होता है। बाल्यकाल में त्वरित विकास को अपने भीतर समाहित करने वाले बच्चों के लिए उनकी वयानुसार ही बाल साहित्य उपलब्ध है। विभिन्न विद्वानों ने बाल साहित्य में अनेक विभेद किए हैं। बाल साहित्य के अंतर्गत शिशुओं के लिए जो साहित्य उपलब्ध है वह विशेष रूप से उनके विकास को ध्यान में रखते हुए लिखा गया है। भारतीय साहित्य परंपरा में तो गर्भावस्था में भी ज्ञान के विकल्प और आस्वाद के अनेक आख्यान मिलते हैं। अभिमन्यु इसका अनुपम उदाहरण है। कोई भी बालक अपने साथ कुछ संस्कार और शिक्षा लेकर ही इस संसार में आता है। उसकी यह पूरी यात्रा उसके अपने परिवार से जुड़ी होती है।
विद्यालय जाने से पूर्व शैशवस्था में बालक को उसके परिवार द्वारा जो कुछ काव्यात्मक अथवा कथात्मक रसानुभूतियां उपलब्ध होती है, वह उसके आगामी जीवन के लिए आधारभूत घटक का कार्य करती है। राजस्थान के बच्चे जिस झींतरियै की कहानी सुनते हैं वह अलग अलग रूपों में अन्य स्थानों पर भी मिलती है। गुजरात के गिजु भाई की कहानियां अथवा राजस्थान की बच्चों के लिए लोककथाएं अनेक समानताएं लिए हुए हैं। काव्य की बात करें तो अति लोकप्रिय कान्या मान्य कुर्र गीत में जो ध्वनियों का जादू बाल मन को प्रभावित करता है वह उन्हें संस्कारित भी करता है। चालां जोधपुर के संदर्भ में प्रतिप्रश्न किया जा सकता है कि जोधपुर ही क्यों चलें? क्या कबूतर अन्य स्थानों पर नहीं होते? लोक में रचे बसे गीतों में समय समय पर अनेक परिवर्तन भी हुए और कुछ रूढियां भी लंबे समय तक यात्रा करती रहीं। हंसी-मजाक के मनोरंजक लोक साहित्य में बालकों को कर्त्तव्य-बोध कराती अनेक रचनाएं देखी जा सकती है। आज आवश्यकता है कि हम हमारे लोक साहित्य की थाती को सहेजें संभालें।     
आज बड़ी समस्या यह भी है कि हम हमारे बच्चों को बाल साहित्य का पाठक बनाने हेतु आधाभूत संस्कार सौंपते ही नहीं। उनके लिए जो दुनिया हमारे द्वारा परोसी जा रही है वह मीडिया और शिक्षा द्वार रची ऐसी व्यवस्था है कि जैसे बच्चों से उनका बचपन छूटता जा रहा है। बच्चे उम्र से पहले ही बचपन को लांध रहे हैं। शहर और ग्रामीण जीवन की कुछ रूपरेखा भिन्न हो सकती है, किंतु आज शहर और ग्रामीण जगत भी गड़मड़ होकर अपने पहले वाले स्वरूप से अलग किसी नई संरचना में तबदील हो गया है। हमें यह जानना अच्छा नहीं लगेगा कि हम अभिभावकों के रूप में अपनी भूमिका पर तनिक भी विचार नहीं करते। शैशवास्था में कोई परिवार किसी बच्चे के लिए साहित्य और कला माध्यमों के साथ प्राकृतिक उपलब्धता के विषय में विचार क्यों नहीं करता?
सीधे सवाल के रूप में लिखा जाए तो हमें स्व-मूल्यांकन करना होगा कि कितनी पत्र-पत्रिकाएं और पुस्तकें पढ़ाई की पुस्तकों के अतिरिक्त बाल साहित्य की पुस्तकें हम हमारे बच्चों को उपलब्ध करवा रहे हैं। समाज में बच्चे ही नींव होते हैं, और नींव जितनी अधिक गहरी-परिपक्व होगी, तो उम्मीद की जाएगी कि समाज रूपी भवन भी उतना ही विकसित, सुदृढ़ और चिरजीवी होगा। हमारे कल के राष्ट्र का भविष्य आज के हमारे बच्चे ही हैं। बच्चों को अपनी भूमिका की इस तैयारी में हमें सहयोग को हर संभव सुलभ बनाना होगा। बाल साहित्य ही ऐसा आयुध है जिसके बल पर अंकुरित और पल्लवित होती यह नई पौध समय पर संसाधनों का सकारात्मक उपयोग कर देश के उज्ज्वल भविष्य का स्वप्न साकार करेंगे।
बंद कमरों में और केवल हमारी सीमित छोटी-सी दुनिया में किसी बच्चे का नैसर्गिक विकास कैसे संभव है? आवश्यकता इस बात की है कि हम जानें हर बच्चा एक इकाई है, और उसके व्यक्तिगत विकास के लिए उसके भीतर समाहित शक्तियों से उसका परिचय जितना जल्दी हो जाए अच्छा है। इस कार्य में जिन घटकों को सहयोगी बनना चाहिए, वे प्रतिरोध के रूप में नजर आते हैं। हम अपने संकुचित दायरों से बाहर निकलें और बच्चों के सीखने में परोक्ष-अपरोक्ष रूप में सहयोगी बनें। बाल साहित्य भी एक ऐसा माध्यम है जो बच्चों की दुनिया को विस्तारित करने में सक्षम है। आज जब संयुक्त परिवार के स्थान पर एकल परिवारों की अधिकता हैं, ऐसे में किसी बच्चे की संकुचित दुनिया को विस्तारित रूप देना भी एक चुनौती है। बाल साहित्य के समक्ष आज अनेक चुनौतियां है कि वह उन बच्चों को जिनका बचपन विभिन्न चैनलों के गीत-संगीत में डूबा हुआ है को अपने कर्त्तव्य-बोध का अहसास समय रहते कैसे कराए? चैनलों की दुनिया में एक बड़े दर्शक-वर्ग को दिखाने वाले कार्यक्रम बच्चों के समक्ष परोसे जाते हैं। बच्चों के भविषय को लेकर चिंतित होने वाले सभी अभिभावकों की जिम्मेदारी है कि इन सब के समानांतर बाल साहित्य की दुनिया से बच्चों को जोड़ा जाए। अपनी जिम्मेदारियों और जबाबदेही से दूर भागती सामाजिक इकाई के रूप में अभिभावक यह कहते पाए जाते हैं कि शिक्षक अपने दायित्व का निर्वाहन ठीक से नहीं कर रहे।
यह मुद्दा बड़ा नाजुक है और हमारे बच्चों से जुड़ा है। किसी गेंद को एक पाले से दूसरे पाले में डालते रहने का खेल हमें नहीं खेलना चाहिए। आज आवश्यकता है कि हम बदलाव की पहली सीढी बनें। बदलाव का पहला कदम हमारा हो। किसी भी बदलाव के लिए जरूरी है कि हम व्यक्तिगत रूप से स्वयं की जबाबदेही और जिम्मेदारी को समझ कर उसके लिए निरंतर कार्य करें। माता-पिता, अभिभावक और शिक्षक के रूप में यदि हम स्वयं पढ़ने का महत्त्व अंगीकार नहीं करते, तो हमारे बच्चे हम से क्या शिक्षा और प्रेरणा ग्रहण करेंगे? बच्चों के सामने प्रेरक घटक के रूप में हम स्वयं खुद को किसी आदर्श के रूप में प्रस्तुत करें।
बालकों में कर्त्तव्य बोध के लिए जिस बाल साहित्य की अपेक्षा हम करते हैं वह तो उपलब्ध है। उस तक बच्चों को पहुंचाने का मार्ग हमें सुगम-सहज करना होगा। बाल्यावस्था और किशोरावस्था में बच्चों के बाल साहित्य में विभेद है। पाठ और उसके प्रस्तुतिकरण के स्तर पर इन दोनों प्रकारों में काफी अंतर पाया जाता है। बच्चों की दुनियां में इस प्रसंग पर हनुमानगढ़ जिले में जिलाधीश द्वारा अनेक पुस्तकालय खोले जाने को सकारात्मक पहल कहा जा सकता है। ऐसे प्रयास अन्य जिलों और तहसील स्तर पर भी किए जाने चाहिए।
पुराने समय को याद करेंगे तो सचित्रबाल कथाएं बच्चों के लिए खूब हुआ करती थी। जादू-तिलस्म की दुनिया और परीलोक के साथ लोककथाओं की दुनिया में बच्चों को जिस कल्पनाशीलता का सुखद अहसास होता था, वही अहसास अब रूपहले पर्द पर आज हैरी पोटर और स्पाइडर मैन द्वारा हो रहा है। क्या फिल्म जगत के विकास के साथ बच्चों के संसार में विश्व साहित्य की कृतियां नहीं आ गई है। जंगल बुक के मोगली से पहचान पा कर बच्चा दृश्य-श्रव्य माध्यम की इस दुनिया में सम्मोहित होकर उसी दुनिया में बार बार विचरण करता है। टोम एंड जैरी आदि के साथ अनेक मूक दृश्य और संगीत का जादू बच्चों के मानस-पटल में जिस दुनिया की छवि प्रस्तुत कर रहे हैं वह रूपहली दुनिया अब इस दुनिया में कितनी शेष है? चिड़ियाघर और अजायबघर की सैर सपाटे से दूर अब तो गूगल ने बच्चों को बंद कमरों में पूरी दुनिया ही उपलब्ध करवा दी है।
समय के साथ आज का बाल साहित्य प्रगति-पथ पर तेजी से भागता हुआ नजर आता है। विश्व की अनेक कहानियां और लोककथाओं के अनेकानेक संकलन मौजूद हैं। चीन और जापान के लेखकों का बाल साहित्य  बच्चों के लिए उपलब्ध है, तो रामायण-महाभारत से जुड़ी अनेकानेक रचनाएं भी। विभिन्न भारतीय भाषाओं के अनेकानेक लेखकों की रचनाएं बालकों के लिए प्रकाशकों ने मनमोहक रूप में प्रकाशित की हैं। कविता, कहानी, नाटक के साथ अन्य अनेक विधाएं और प्रयोगशील रचनाएं बाल साहित्य की निधि के रूप में हिंदी के पास है। बाल साहित्य और बालकों के लिए देश में अनेक संस्थाएं और संगठन भी सक्रिय हैं। अंतरजाल के पृष्ठों पर ई-पुस्तकें उपलब्ध है। इतना सब कुछ होने के साथ ही साक्षरता आंदोलन और नवसाक्षरों का साहित्य भी कर्त्तव्य बोध की इस परंपरा को विकसित करने में सहयोगी बना है।
असल में कर्त्तव्य है क्या? जिसके पोषण के लिए बाल साहित्य को सक्रिय होना और लगातार सक्रिय रहना है। बच्चों में समझ का सिलसिला, सही-गलत का फैसला करने की शक्ति के साथ ही उनका किसी समय विशेष में किसी कार्य के दायित्व को संभालने का बोध ही बाल साहित्य में कर्त्तव्य बोध के रूप में उपलब्ध है। पहले बाल साहित्य में जो शिक्षाप्रद होने की अवधारण थी, वह आज बिना किसी उपदेशक की भूमिका ग्रहण किए बदल कर कर्त्तव्य-बोध के रूप में ग्रहण की जा चुकी है। बालकों को बिना यह बोध कराए कि उनकों कुछ दिया जा रहा है, देने की यह चुनौती बाल साहित्यकारों ने अंगीकार की है। आज के बाल साहित्य में सरलता-सहजता और सरसता के साथ नई और हर दिन बदलती दुनिया से मुकाबला करने वाली रचनाओं का सामर्थय है, वहीं बालकों के वयानुसार उनके कर्त्तव्य-बोध को जाग्रत कराने वाली अनेक रचनाएं भी हैं।

डॉ. नीरज दइया



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