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पाठकों के नाम खुला पत्र / डॉ. नीरज दइया

मेरे प्रिय किशोर पाठकों!
     कैसे हैं आप? आशा है कि सकुशल और आनंद से होंगे। कोरोना के बाद जीवन फिर से अपनी गति पकड़ रहा है। हम एक बहुत बड़ी त्रासदी से बाहर आएं हैं, किंतु अब भी हमें नियमों और निर्देशों का पालन करना है।
     आज मैं खुद को आनंदित अनुभव कर रहा हूं क्योंकि आपके हाथों में हमारे समय के सुपरिचित साहित्यकार नन्द भारद्वाज जी की नई किताब ‘रामलीला रा चरित’ है। इस कृति में राजस्थानी भाषा में रचित तीन लघु नाटक हैं। नाटकों के विषय में कुछ बात करेंगे किंतु उसके पहले नाटककार नन्द भारद्वाज जी के वारे में कुछ बातें करनी जरूरी लगती हैं।
     साहित्य की विविध विधाओं में आदरणीय नन्द भारद्वाज जी ने खूब लिखा है और आपकी अनेक पुस्तकें प्रकाशित हैं। पूरे भारत में वे कवि, कहानीकार, उपन्यासकार, अनुवादक, आलोचक के साथ-साथ मीडिया-विशेषज्ञ के रूप में जाने-पहचाने जाते हैं। आकाशवाणी और दूरदर्शन के उच्च पदों पर रहते हुए आपने अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य किए, जिनके लिए सम्मानित भी हुए हैं।
     साहित्य की बात करें तो नन्द भारद्वाज जी को प्रतिष्ठित साहित्य अकादेमी नई दिल्ली का मुख्य पुरस्कार वर्ष 2004 का उनके राजस्थानी उपन्यास ‘सांम्ही खुलतौ मारग’ के लिए अर्पित किया गया है। प्रतिष्ठित बिहारी पुरस्कार के अतिरिक्त अनेक मान-सम्मान और पुरस्कारों से वे अलंकृत हुए हैं, किंतु आज भी जब उनसे कोई मिलता है तो वे बड़ी सहजता-सरलता और सखा-भाव से मिलते हैं। बहुत बड़े लेखक होने का लेश मात्र भी दंभ उनमें नहीं है।  
     हमारे अनेक विद्वानों का कहना है कि बड़े लेखकों को बच्चों और किशोरों के लिए भी साहित्य लिखना चाहिए क्योंकि नई पीढ़ी ही देश का उज्ज्वल भविष्य है। स्वयं नन्द भारद्वाज जी भी इस बात से सहमत रहे हैं और उन्होंने बाल साहित्य लिखा भी है, किंतु पुस्तकार रूप में यह उनकी पहली किताब है।
     राजस्थानी बाल साहित्य में नाटकों की संख्या बहुत अधिक नहीं है और आधुनिक भाव बोध के स्तरीय लघु नाटक तो उससे भी कम मिलते हैं। इन नाटकों के लिए नन्द भारद्वाज जी ने किशोर मनोविज्ञान के साथ-साथ नाटकों के तकनीकी पक्षों को भी ध्यान में रखा है। नए युग के किशोरों की साहित्य से क्या अपेक्षाएं हैं, उनको दृष्टि में रखते हुए भाषा, शिल्प और कथ्य के स्तर पर उन्होंने समझौता नहीं किया है। निसंदेह इस संग्रह के तीनों लघु नाटकों में राजस्थानी भाषा के सहज प्रवाह के साथ जीवन की जटिलताओं को समझने-समझाने का प्रयास किया है। रेखांकित किए जाने योग्य यह भी है कि ये तीनों लघु नाटक बहुत कम संसाधनों और सीमित पात्रों द्वारा विद्यालयों में सरलता से मंचित किए जा सकते हैं।
     ‘रामलीला रा चरित’ में परंपरा और आधुनिकता का सुंदर समन्वय है तो बहुत ही रोचक ढंग से नाटककार ने हमारे सामाजिक ढांचे के ताने-वाने को उकेरने का सुंदर प्रयास किया है। व्यक्ति की कथनी और करनी के भेद को इंगित करते हुए हास्य और व्यंग्य से सधा यह लघु नाटक हमें हमारे आस-पास के चरित्रों पर फिर से सोचने-समझने का आह्वान करता है। संग्रह का दूसरा लघु नाटक ‘गळी गवाड़’ में राजस्थान के ग्रामीण जीवन के साथ आकाल और आर्थिक मार से त्रासदी भोगते एक परिवार का दुख-दर्द है। लोक में मान्यता रही है कि आदमी ही आदमी के काम आता है। इसी मान्यता को यह नाटक नाटकीय ढंग से प्रस्तुत करते हुए हमें विषय परिस्थितियों में आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है। यह हमारी उम्मीद और हौसले को सकारात्मक दिशा में बनाए रखने की बात करता है। संग्रह की अंतिम रचना ‘बैतियांण’ प्रसिद्ध चीनी कथाकार लू शुन की कहाणी का नाट्य रूपांतरण है। यह आधुनिक भाव बोध के साथ दर्शन-चिंतन का दामन हमें थामने को प्रेरित करता है। आगे क्या होगा? यह कोई नहीं जानता है किंतु यह निश्चित है कि भविष्य में जो भी होगा, वह हमारे आज के कार्यों का परिणाम होगा। आधुनिक भाव भूमि से जुड़ी ऐसी गंभीर रचनाएं आप किशोर पाठकों को विश्व-साहित्य से जुड़ने, उसे जानने की प्रेरणा के साथ-साथ कहानी और नाटक के संवंध, समानता-असमानता आदि को समझने की पृष्ठभूमि भी प्रदान करेंगी।
     यहां यह भी स्पष्ट करता चलूं कि मैं स्वयं जब किशोरावस्था में था तब से आदरणीय नन्द भारद्वाज जी की रचनाओं को पढ़ता रहा हूं। संभव है आपने भी इन्हें कहीं किसी पत्र-पत्रिका या किताब में पढ़ा हो। जो भी हो किंतु मेरा बस यहां यही कहना है कि यह किताब आप पूरी पढ़ लेंगे तो मेरी इस बात से सहमत हो जाएंगे कि नन्द भारद्वाज बहुत बड़े और प्रभावशाली लेखक हैं। मुझे वेहद खुशी है कि उन्होंने मुझे यहां आपको संबोधित करने का यह एक अनुपम अवसर दिया है।
    अंत में बस इतना ही कि आजकल ई-मेल का जमाना है, यह किताब आपको कैसी लगी यह ई-मेल पर उन्हें बता सकते हैं। श्री नन्द भारद्वाज की का ई-मेल nandbhardwaj@gmail.com है। आपके ई-मेल पाकर उन्हें वेहद खुशी होगी, क्योंकि जब वे किशोरावस्था में थे तब ई-मेल का जमाना नहीं था और अब पत्रों का जमाना लुप्त होता जा रहा है। अपना ध्यान रखें।

सस्नेह आपका

-      डॉ. नीरज दइया

drneerajdaiya@gmail.com

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रति सक्सेना की कृति ‘अटारी पर चांद’ एक उपलब्धि / डॉ. नीरज दइया

यात्रा-वृत्तांत की पुस्तक में जिस रचनात्मकता, जीवनानुभवों की विवेकपूर्ण दृष्टि और नवीनता की उम्मीद-अपेक्षा रहती है, वह कवयित्री रति सक्सेना की प्रस्तुत कृति ‘अटारी पर चांद’ में एक उपलब्धि के रूप में सहज प्राप्य है। जर्मन कलाकारों की संस्तुति पर प्रदत्त विश्व प्रसिद्ध वालब्रेता रेजीडेंसी में लेखिका को अनेक सुविधाओं के साथ स्कॉलरशिप मिली तो उन्होंने वर्ष 2016 में लगभग तीन महिनों के प्रवास में वहां ‘पोइट्री थेरोपी’ प्रोजेक्ट पर काम किया और यह पुस्तक साथ-साथ रूप लेती रही। यहां रेजीडेंसी के अनुभवों को व्यापक परिप्रेक्ष्य में एक गौरवमय उपलब्धि के रूप में बिना मुखर हुए बेहज सहजता-सरलता, प्रवाह और धैर्य के साथ प्रस्तुत किया गया है। वैश्विक परिदृश्य में लेखिका ने स्त्रियों की आजादी जैसे प्रश्न को मुखरित किया है वहीं यह कृति देश-काल समय की सीमाओं से बाहर निकाल कर एक ऐसी दुनिया में ले जाती है जहां देशों की सीमाएं धुंधलके में चली जाती हैं। यहां हमारा एक ऐसे गद्यकार से साक्षात्कार होता है जिसका पूर्वनिर्धारित अथवा तयशुदा मार्ग नहीं है, किंतु बिखरे-बिखरे, अस्पष्ट और इस नवीन राह में बहुत कुछ समेट लेने की आकांक्षा है। रति सक्सेना की निर्लिप्तता और स्पष्टवादिता प्रभावित करती है कि वे समाज, इतिहास, दर्शन और मनोविज्ञान के अनछुए पन्नों को होले-होले खोलती हैं। असल में यह यात्रा-वृत्तांत उनकी डायरी है जिसमें उनका अध्ययन-चिंतन-मनन और वैश्विक कविता से जुड़ाव पाठकों को प्रभावित करता है। उनके बाहरी-भीतरी रचना-लोक की अनुपम छटाओं में साहित्य से भी इतर अनेक रंगों का आकर्षण यहां है। यूरोप, रूस और जर्मनी के स्थानों के बहाने यह यादों की गहरी पड़ताल है। खूबी यह है कि कोई पाठक जब इस यात्रा में प्रवेश करता है तो उसकी इस गद्य से इतनी अंतरंगता स्थापित हो जाती है कि वह लौटना चाहे तो भी बीच में लौट नहीं सकता है, यात्रा में सहयात्री उत्सुकता के साथ खुद-ब-खुद यात्रा करता है तो कृति की सार्थकता-सफलता है।

-    डॉ. नीरज दइया

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अपनी बात स्वयं कहती लघुकथाएं / डॉ. नीरज दइया

     ‘आज सुबह की प्रार्थना सभा में आप ही ने तो बताया था कि पर्यावरण को बचाना है तो हर संभव प्रयास से पेड़ों को बचाना होगा। और सर! कागज भी तो पेड़ों से ही बनता है ना?’
    लघुकथाकार राम निवास बांयला की लघुकथा में एक बालक का अपने प्राचार्य से यह संवाद अपने आप में बहुत कुछ कहता है। जब यह छोटा सा संवाद संग्रह की लघुकथा ‘पर्यावरण दिवस’ में हम देखते हैं तो पूरा प्रसंग हमारे भीतर कहीं अटक सा जाता है। माना बहुत नई बात नहीं है और कथनी-करनी भेद पर अनेक रचनाएं लिखीं जा चुकी हैं, आगे भी लिखी जाएंगी। कुछ विषय जैसे पर्यावरण-चेतना की आवश्यकता कल भी थी, आज भी हैं और कल भी हमें इस विषय पर बात करनी होगी। समय के प्रवाह में अपनी प्रासंगिता और उपयोगिता को बचाए रखने से भी जरूरी बात है यह देखना होता है कि किसी रचना में विषय को किस प्रकार प्रस्तुत किया है। रचना में रचनाकार का अवदान ही समग्र रूप से उसकी साहित्य में उपस्थिति को तय करने का प्रमुख घटक होता है।  
    प्रस्तुत लघुकथा संग्रह ‘उजास’ में अनेक लघुकथाएं ऐसी हैं जिनमें लेखक राम निवास बांयला की संवेदनाएं हमारे अनुभव का हिस्सा बनने में सफल रही हैं। वर्तमान समय में साहित्य और समाज की स्थितियों में बड़ा बदलाब हुआ है, पाठकों में लघुकथाओं की प्रासंगकिता बढ़ती जा रही है। इसका कारण है कि किसी बात को बहुत कम शब्दों में कहना हो तो हमारे पास एक सशक्त माध्यम लघुकथा है।  
    आज राम निवास बांयला का नाम इक्कीसवी शताब्दी के प्रमुख लघुकथाकारों में राजस्थान से उभर कर बड़े पटल पर छाया हुआ है। वैसे तो बांयला जी ने गद्य-पद्य की अनेक विधाओं में लिखा है और वे वर्षों से लिख-पढ़ रहे हैं। उनके दो कविता-संग्रह- ‘बोनसाई’ और ‘बिसात’ प्रकाशित हैं। लघुकथा की बात करें तो लघुकथा संग्रह- ‘हिमायत’ (2011) के बाद यह दूसरा संग्रह ‘उजास’ लगभग दस वर्षों के अंतराल से आ रहा है। मेरा मानना है कि इस अंतराल में उन्होंने हिंदी लघुकथा को अनेक महत्त्वपूर्ण लघुकथाएं दी हैं, जो इस संकलन में शामिल हुई है।
    एक रचनाकार के रूप में राम निवास बांयला ने विगत बीस-पच्चीस वर्षों में अपने आस-पास के परिवेश को जिस ढंग से परिवर्तित होते देखा-परखा और अनुभूत किया है, वह उनकी रचनाओं में मुखरता से बोलता है। यह बोलना वाचाल किस्म का नहीं है। यहां बोलने और कहने में एक संयम और प्रतिकार सहज रूप से शामिल है। बांयला जी की इन रचनाओं में प्रमुखता से हम हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक बदलाव को देखते हैं। यहां यह बहुत बड़ा खतरा था कि वे शिक्षण से जुड़े होने के करण सीधे सीधे उपदेशक की भूमिका में हमारे समाने आ जाते किंतु उन्होंने इस स्थिति से बचते हुए अपनी भूमिका में एक शिक्षक की तुलना में एक रचनाकार की भूमिका को स्वीकार किया है। रचनाकार और शिक्षक के कामों में काफी समानताएं है किंतु विभेद भी है।
    आदर्श, नैतिकता, शिक्षा और संस्कारों की अनेक बातें ‘उजास’ संग्रह की अनेक लघुकथाओं में किसी उपदेश अथवा सीख के रूप में नहीं, वरन इस प्रकार प्रस्तुत है कि लघुकथाकार अपने पाठकों में स्वविवेक जाग्रत करना चाहता है। भाषा की गरिमा में यह समाहित है कि रचनात्मक अनुभवों से पाठक स्वयं अपनी दिशा तय करते हुए फैसले लेने में सक्षम बनें। लघुकथा शब्द में ‘कथा’ संलग्न है और कथा शब्द से रचनाएं व्यापक-विशद घरातल को स्पर्श करती हैं। संभवतः इसी कारण विद्वानों में लघुकथा विधा के लिए ‘गागर में सागर’ की बात कही है।
    किसी असंभव कार्य को शब्द ही संभव बनाने में सक्षम हो सकते हैं। सवाल यह है कि लघुकथा में शब्दों का प्रयोग बहुत सावधानीपूर्वक किस प्रकार किया जाए जिससे बड़ी से बड़ी बड़ी बात को कहना भी सहज संभव हो जाए। यह सहज संभव कैसे होता है, इसके लिए संग्रह की लघुकथा ‘भेजे में घुसी लकड़ी’ को देखें-
    मैंने कुल्हाड़ी को उलाहना दिया : हे कुल्हाड़ी! तू कितनी दुष्ट है? जो फल, फूल, छाया व प्राण वायु प्रदाता है, तू उन्हीं पेड़ों को काटती है।
    कुल्हाड़ी ने सहजता से उत्तर दिया : जो भेजे में घुस कर दिमाग खराब करेगा तो भुगतेगा भी वही।
    यहां महज एक सवाल है और उसका छोटा सा जवाब है। यह संवाद प्रस्तुत करते हुए लघुकथार ने बहुत कम शब्दों में बिना मुखर हुए बहुत बड़ी बात कह दी है। किस बात को कहने के लिए कैसा फार्मेट रहेगा, यह रचनाकार ही तय करता है अथवा कहें कि यह एक लेखन-प्रक्रिया है। कहा जाता है कि सर्वाधिक कला वहां होती है जहां वह दिखाई नहीं देती है। आज ज्ञान विज्ञान के क्षेत्रों में अत्यधिक विकास हुआ है कि हम हमारी परंपरा और संस्कृति-संस्कारों से किसी न किसी रूप में कटते जा रहे हैं। यह एक डोर है जो मानव को मानव से बांधती है वह कमजोर हो रही है ऐसे में अनेक जीवनानुभव हैं। हमारी गतिविधियों और संबंधों का निर्धारण कैस होता है यह एक बहुत जटिल प्रक्रिया नहीं है फिर भी भारतीय परंपरा में कुछ ऐसा है जिसे हमें बचना-सहेजना और संवारना है। वह है मानव मूल्य।
    हमारे आस-पास के जीवन में अनेक रचनाएं फैली-बिखरी हुई है। कुछ को सीधे-सीधे और कुछ को प्रतीक के रूप में यहां इस संग्रह में प्रस्तुत किया गया है। लघुकथाकार राम निवास बांयला के इस लघुकथा संग्रह में अनुभव है तो चिंतन और मनन भी है। इसे ऐसा भी कह कहते हैं कि इनमें ज्ञान के कुछ सूत्र भी हैं जो हमें जीवन में सीखने-समझने और निरंतर आगे बढ़ने की प्रेरणा देने वाले हो सकते हैं। सूक्ष्म-सूत्रों की बात को समझने के लिए लघुकथा- ‘मीठापन’ देखें-
    : हे ईख! तुम कितनी मीठी हो?
    : हां सो तो हूं।
    : इस मीठेपन का ईनाम?
    : आखिरी बूंद तक निचुड़ते रहना।
    यह संवाद किसी कविता की भांति हमें चिंतन के व्यापक वितान में ले जाता है, जैसे किसी ब्योम में यह हमें छोड़ कर चल देता है। यहां जीवन और अनुभव के विभिन्न क्षेत्रों से जुड़ी सच्चाइयां नजर आने लगती है। ऐसा बार बार कहा-सुना गया है कि जो काम करेगा वही मरेगा... या फिर उसी पेड़ पर पत्थर फेंके जाते हैं, जो फलदार होता है। लघुकथाओं की महज कुछ पंक्तियों से गुजरते हुए अनेक ऐसी कुछ उक्तियां और संदर्भ हमारे दिलो-दिमाग में एक साथ सक्रिय हो उठते हैं।
    लघुकथा विधा में कविता, कहानी, नाटक जैसी अनेक विधाओं का समावेश यहां प्रयोग के रूप में भी हम देख सकते हैं। एक रचनाकार यही चाहता है कि किसी भी प्रकार से अच्छे समाज के लिए ऐसी ईखें समाज घर-परिवार में सदा उपस्थित रहें और इस जीवन को वे अंत तक मीठा करती रहें। जीवन में जहर और अमृत दोनों है, यह फैसला हमारा है कि हम अपने भीतर क्या भरना रखना चाहते हैं।
    यहां संसार को मीठा और सरस बनाने में स्वयं लघुकथाकार राम निवास बांयला रचनाकार के रूप में सतत सक्रिय हैं। वे केंद्रीय विद्यालय संगठन में हिंदी शिक्षक के रूप में सेवाएं देते हुए नई पीढ़ी के उज्जवल भविष्य हेतु प्रत्यनशील हैं। उनकी संवेदनाओं-अनुभूतियों-चिंतनधारों में विचारों की बहुआयामी छटा के अनेक क्षितिज इस संग्रह में हम यत्र-तत्र कहें सर्वत्र देख सकते हैं। कहने को बहुत कुछ है, किंतु यहां यह कहना पर्याप्त होगा कि प्रत्येक लघुकथा अपनी बात स्वयं कह रही है। मैं ‘उजास’ संग्रह का स्वागत करते हुए अपनी शुभकानाएं देता हूं।
⦁    डॉ. नीरज दइया
उजास (लघुकथा संग्रह) लेखक – रामनिवास बांयला प्रकाशक- अभिलाषा प्रकाशन, पिलानी (राजस्थान) प्रथम संस्करण- 2022; पृष्ठ-112; मूल्य- 350/-

 

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अस्सी बरस की आंखें और कहानी की पांखें ० डॉ. नीरज दइया

डॉ. विद्या पालीवाल का पहला कहानी संग्रह ‘दरकते रिश्ते’ कई कारणों से महत्त्वपूर्ण कहा जा सकता है। पहला यह कि लेखिका ने जीवन के अस्सी बसंत देखें हैं, वे कहानी के विकास की साक्षी रही हैं। यहां प्रथम दृष्टि में प्रामाणिक तौर पर यह भी माना जा सकता है कि इन कहानियों का यथार्थ अस्सी बरस बूढ़ी आंखें उजागर कर रही हैं, अस्तु दरकते रिश्तों का सच आधिकारिक रूप से प्रगट होने की संभवानाएं लिए है। डॉ. पालीवाल साहित्य और शिक्षा से जीवन पर्यंत जुड़ी हुई हैं और उन्हें बदलते साहित्य और समाज का बेहतर अनुभव है। संभवत यही कारण है कि वे जीवन की स्थितियों से कहानियों को पहचाने में सक्षम हैं। यह भी उल्लेखनीय है कि संग्रह की कहानियों के विषय में लेखिका ने कोई दावा नहीं किया है, उन्होंने पुस्तक के प्रारंभ में विनम्रता पूर्वक ‘आत्मकथ्य’ में लिखा है- ‘आज मन-पथिक जीवन के चौराहे पर खड़ा दिग्भ्रमित है.... प्रश्नों का अंबार है.... अपेक्षा है सांस्कृतिक जीवन संतुलन की। इन्हीं प्रश्नों में गुम्फित यत्र-तत्र बिखरे, मुड़े-तुड़े, भूले-बिसरे कथा सूत्रों को भाषा की रूप विधा में प्रस्तुत करने का प्रयास भर किया है...।’ 
    लेखिका के इस प्रयास की बानगी    संग्रह ‘दरकते रिश्ते’ की इक्कीस कहानियां में विभिन्न स्तर पर देखी जा सकती है। कहानी-कला के हिसाब से देखा जाए तो ये कहानियां अपनी विधा से दायरे तक सीमित नहीं रहती। प्रथम तो यही कि लेखिका जिस अवस्था में है उसमें अध्यात्म की झलक इन कहानियों में प्रयुक्त भक्ति और दर्शन की काव्य-पंक्तियों में देखी जा सकती है। संग्रह की प्रथम कहानी ‘उठ चले अवधूत’ में लेखिका ने वृद्धावस्था के उस अंतिम छोर को छूने का प्रयास किया है जिसमें केवल और केवल भक्ति और भगवान का आलंबन होता है। नरेटर के रूप में कहानी में जीया की जीवन-यात्रा को सहेजना उनके उदात्त चरित्र को व्यंजित करती है किंतु कहानी की पांखें संस्मरण और रेखाचित्र विधाओं तक फैली प्रतीत होती है। 
    कुछ कहानियों के नाम कहानी के मुख्य चरित्रों पर आधारित है, जैसे- भागवन्ती, झिलमिल, भाभा, गोली वाले बाबा, मां, अम्मा, बिंधेश्वर। ऐसी कहानियां में कहानी कम, शब्द-चित्र और संस्मरण की झलक अधिक नजर आती है। चरित्रों की मार्मिकता और लेखिका के सकारात्मक दृष्टिकोण के चलते कहानियों में जीवन मूल्यों और आदर्शों की बातें अनुभव और विचार के रूप में प्रस्तुत हुई है। आकार में ये कहानियां छोटी-छोटी हैं और जहां कहानी का विस्तार देखने को मिलता है, वहां भी केंद्रीय संवेदना उसके विशेष अंश तक सीमित रहती है। ‘सांप-सीढ़ी’ जैसी कहानी में बस एक खेल के प्रसंग से अपने अंतर्मन में झाकने और थोड़े से संवादों के बल पर कहानी की रचना करना लेखिका की सफलता है। ऐसा भी कहा जा सकता है कि बोध कथाओं और नीति कथाओं की भांति इन कहानियों का भी अपना एक उद्देश्य है, जिसे लेकर इन कहानियों की रचना की गई है।
    प्रख्यात लेखक डॉ. राजेन्द्र मोहन भटनागर ने कहानी संग्रह की भूमिका में लिखा है- ‘ये कहानियां आज के वास्तविक जीवन की ऐसी सच्चाई है जो मानव-मन को कचोट रही है। बदलते परिवेश में, भाग-दौड़ भरे जीवन को परोस कर मानव-समाज में जहां-जहां अंधेरा, विषाद और कंटकों को बोया है उस सबका अन्तर्विश्लेषण ये कहानियां सशक्त रूप से कर रही हैं। निसंदेह कहानीकार ने प्रायः प्रत्येक कहानी में, जहां उसे अवसर मिला है, बहुत कुशलता से उसके अंतर्मन की अकही पीड़ा को सामने लाने में तनिक भी संकोच नहीं किया है।’
    ‘भाभा’ कहानी अन्य कहानियों की तुलना में अपेक्षाकृत आकार में बड़ी है किंतु कहानी के अंतिम दृश्य में भाभा द्वारा बड़े संकोच से अपनी कमर में दबाये हुए टमाटर रंग के ब्लाउज पीस को निकाल कर उस पर ग्यारह रुपये तिलक लगाकर देते हुए यह कहना- बेटा! या साधारण सीख है पर याद राखजो, भूल जो मति... म्हारा नानीजी रो पूरो ध्यान राख जो। पढ़ते हुए राजस्थानी के प्रख्यात कहानीकार रामेश्वर दयाल श्रीमाली की कहानी ‘कांचळी’ का स्मरण कराती है। भाभा और कांचळी कहानी के उद्देश्यों में अंतर अवश्य है। जहां भाभा में दो वृद्धाओं के माध्यम से पारिवारिक विभेद और संबंधों का सच उजागर होता है वहीं कांचळी में रीति-रिवाज और संस्कारों में धन के कारण बदलती मानसिकता की मार्मिक व्यंजना मिलती है।
    डॉ. विद्या पालीवाल की कहानियों से गुजरते हुए हम हमारे बदलते समय और आधुनिकता के चलते दरकते संबंधों का सच गहराई से देख-परख सकते हैं। यहां संबंधों के बीच खोती जा रही संवेदनशीलता के अनेक दृश्य हैं तो कोमल बाल मन से उद्घाटित हृदयस्पर्शी यादगार संवाद भी। अंत में बस इतना ही कि इन कहानियों के विषय में प्रसिद्ध कवि ज्योतिपुंज की फ्लैप पर लिखे इस कथन सहमत हो सकते हैं- ‘ये कहानियां हर पाठक के मन को झकझोरती रहेंगी और उन्हें संकल्पबद्ध होकर अपने कर्त्तव्य-पथ पर अग्रसर होने को प्रेरित करेंगी। जीवन मूल्यों के प्रति सकारात्मक सोच को दृढ़ करने में सहायक होंगी।’
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० दरकते रिश्ते (कहानी संग्रह) डॉ. विद्या पालीवाल ; प्रकाशक- हिमांशु पब्लिकेशन्स, 464, हिरण मगरी, सेक्टर-11, उदयपुर ;  संस्करण- 2014 ; मूल्य- 175/- ; पृष्ठ- 120
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 समकालीन कहानी और स्वांत-सुखाय लेखन की जुगलबंदी ० डॉ. नीरज दइया

निशात आलम ‘दख़ल’ का पहला कहानी संग्रह है- ‘रसवाला’। संग्रह में दस कहानियां और एक लघुकथा संकलित है। यहां उल्लेखनीय है कि कवि दख़ल की पांच काव्य-कृतियां प्रकाशित हुई हैं, तथा शीघ्र प्रकाश्य 23 किताबों के नाम अंतिम फ्लैल पर दिए गए हैं। पुस्तक में ‘दो शब्द’ के अंतर्गत कहानीकार निशात आलम ‘दख़ल’ लिखते हैं- “मेरे जीवन में कहानी का उदय मात्र एक वर्ष की अवधि में हुआ। चार कहानियां लिख कर छोड़ दीं। जिसमें से दो प्रकाशित हुई जिन्हें लेकर प्रशंसा के कई मोबाइल आए एसएमएस आए, तब मैंने अनुभव किया कि जो लिखा गया है वह सफल रहा शंका समाधान हुई। मित्रों ने कहा दस कहानियां लिख लो एक प्य्स्ताक के रूप में कहानी संग्रह तैयार हो जायेगा। मुझे कठिन लग रहा था चुप होकर बैठा था, मैं जीवन में कभी हताश नहीं हुआ समय-समय पर आत्मप्रेरणा मिलती गई।”
    कहा जा सकता है कि किसी भी रचना के लिए प्रेरणा-प्रोत्साह के साथ आत्मप्रेरणा ही वह घटक है जिससे सृजन होता है। सृजन को निरंतरता मिलती है। यह स्वांत-सुखाय लेखन का ही प्रमाण है कि कवि दख़ल की इतनी कृतियां अब तक अप्रकाशित है और उन में ‘लावारिस’ नामक कहानी संग्रह भी शामिल है। इस संग्रह में इसी नाम से एक कहानी भी संकलित है। पाठकों और मित्रों के विचार निसंदेह किसी भी लेखक के लिए महत्त्वपूर्ण होते हैं किंतु उससे भी महत्त्वपूर्ण होता है जिस विधा में सृजन किया जाए उस विधा को जानाना। कहानी, आत्मकथा, संस्मरण आदि अनेक विधाएं अपने अनुशासन की मांग तो करती हैं। कवि दख़ल जब कहानी लिखते हैं तो उन्हें अपने कवि को भीतर से कम से कम इतना तो बाहर निकला ही देना चाहिए कि वह कहानी में अपना शेर ना सुनाने लगे। कहानी में जो कुछ कहना है वह महज सृजित पात्रों और परिवेश आदि के द्वारा ही कहना है। उपदेश और आदर्श में कहानी में अनावश्यक कहानीकार की चपलता से कहानी का शिल्प बाधित होता है।
    निशात आलम ‘दख़ल’ की इन कहानियों में तकनीकी खामियों के रहते भी जो बात बेहद प्रभावित करती है वह इन कहानियों की पठनीयता है। कहानी का वितान किसी उपन्यास की भांति फैला हुआ अनेक घटना प्रसंगों को लिए हुए है। साथ ही कहानी में कहानी सुनने-सुनाने की प्रविधि अंतर्निहित है। ‘वचन’ कहानी में ठाकुर-ठकुरानी के दौर की एक मार्मस्पर्शी ऐतिहासिक कथा जैसी प्रतीत होती है, जहां वचन को धर्म के रूप में सक़फ़ द्वारा निभाना प्रभावित करता है। कहानी ‘मेरा कन्हैया’ की आधार भूमि कहानीकर ‘दख़ल’ की देखी-भोगी प्रतीत होती है। लगता है कि उन्होंने जैसे अपने जीवन के किसी घटना-प्रसंग को ही सिलसिलेवार प्रस्तुत कर दिया है। ‘मणिधर नागिन’ कहानी हमें दूसरे लोक में ले जाती है। यह कहानी रोमांच और रहस्य से भरी हुई है। ‘स्वार्थ’ कहानी को एक परिपूर्ण लघुकथा कहा जा सकता है।   
    कहानी संग्रह का शीर्षक ‘रसवाला’ असल में कहानी ‘कवि रसवाला’ से प्रेरित है, जो कहानी कम कवि रसवाला का साक्षात्कार अधिक प्रतीत होती है। ऐसा नहीं है कि कहानी में इस अथवा अन्य विधाओं का प्रयोग संभव नहीं, किंतु यहां स्वयं के शेरों-शायरी से कहानी का मूल उद्देश्य विचलित होता है और कहानी विधा की सीमाओं का अतिक्रमण करती है। कहानी में शिल्प और भाषा का महत्त्व होता है। भाषा की बानगी के लिए इसी कहानी का अंतिम अंश देखा जा सकता है- “किसी को कष्ट देना, अधिकार छीनना, बेईमानी, विश्वासघात, आदि पाप कर्म हैं। किसी की सेवा करना, सन्तुष्ट कर देना, तृष्णा मिटा देना, प्रसन्न चित कर देना आत्म तृप्ति कर देना कर्म है। जिनको पुनः समझाता हूं कहते हुए चल दिए। मस्ती के साथ लम्बे-लम्बे डग भरते हुए जैसे उनको कोई आकर्षण खींच रहा है पता नहीं महाकवि उपन्यासकार, कहानीकार, शायर, शहंशाह यानी कवि रसवाला कहां गए। अब कब मिलेंगे या नहीं मिलेंगे? कुछ पता नहीं परंतु जाते-जाते कटु अनुभव करा गए। चरित्र का, सौंदर्य का, मधुशाला का, मधुबाला का, दामने दाग़ का, संसार का, कवियों का, जीवन का, डुपलीकेट का, समय हाथ मार जाता है, रैगज़ीन का, कवि रसवाले को बहुत-बहुत धन्यवाद।”
     कहानीकार के पास कहने को बहुत कुछ है और वह बहुत कुछ कहता है किंतु संग्रह की कहानियों में डायरी, संस्मरण और आत्मकथा के अंश कहानी में परिवर्तित नहीं हुए हैं। जैसे ‘पवित्रता’ कहानी की पंक्तियां देखें- ‘1975 में मेरा व्यापार जोधपुर से हटकर झूंझनूं एवं हिसास की तरफ हो गया।’ (पृष्ठ-16); ‘सन्‍  1977 की बात होगी मैं घूमता हुआ चिड़ावा की सड़क पर जा रहा था’ (पृष्ठ-17); ‘उसने कहा- पूरे 35 वर्ष व्यतीत हो चुके हैं, मैं एक दिन भी तुमको नहीं भूली, तुम भूल गए।’ (पृष्ठ-20); ‘रात्रि के 11 बज चुके थे। मैंने कहा- सो जाओ। मैं अपने मंत्रों के उच्चारण में लग गया। रात्रि के 3 बजे सोया। लगभग सुबह के 5 बजे होंगे, कुछ-कुछ अंधेरा था। ऐसा लगा मेरे पैर कोई छू रहा है। (पृष्ठ-21) कहनी में स्वीटी और कथानायक के पवित्र प्रेम का विमर्श लंबा चलता है और कहानी के अंत में आदर्श स्थिति के साथ कवि की कुछ पंक्तियां दर्ज हैं जो उनके हृदय पर बन आती है! कहानी ‘धर्म पुत्रियां’ में भी ऐसा ही एक प्रसंग है जिसमें आधुनिकता के साथ बदलती मानसिकता के साथ नायक की आदर्श छवि प्रस्तुत की गई है। कहानी ‘पानी-पतासा’ भी प्रेम केंद्रित कहनी है जिसमें ट्रीटमेंट के स्तर पर अंत में किसी फिल्म की भांति नायक नायिका का मरणोपरांत नई दुनिया में मिलन दिखाया गया है।
    संग्रह की भूमिका में साहित्यकार शिवचरण सेन ‘शिवा’ ने इस प्रथम कहानी पर कहानीकार का उत्साहवर्द्धन करते हुए भाषा-पक्ष के विषय में संकेत किया है- ‘निशात आलम दख़ल ने अपनी संपूर्ण कहानियों में कथ्य, भाव, संवाद के धरातल पर प्रतिष्ठित कर भाषा-शैली में हिंदी-उर्दू के समन्वय का रंग भी अजब ही भरा है। सरलता, सुबोधता, हृदयगम्यता की दृष्टि से दख़ल जी की कहानियां बेहद सफल बन पड़ी है। कमी है तो बस इतनी कि वाक्यों में कहीं-कहीं तारतम्य का आभाव है।’ उम्मीद है कि आगामी संग्रह में समकालीन कहानी और स्वांत-सुखाय लेखन की जुगलबंदी बेहतर होगी।
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० रसवाला (कहानी संग्रह) निशात आलम ‘दख़ल’ ; प्रकाशक- बोधि प्रकाशन, एफ-77, सेक्टर-9, रोड नं.- 11. करतारपुरा, इंडस्ट्रियल एरिया, बाईस गोदाम, जयपुर ;  संस्करण- 2016 ; मूल्य- 200/- ; पृष्ठ- 120
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डॉ. हरीश नवल के चश्मे से व्यंग्य को देखना / डॉ. नीरज दइया

आज हिंदी व्यंग्य को जिन गिने-चुने नामों ने पहचान दी है, उनमें एक प्रमुख नाम हरीश नवल का है। पहली पुस्तक पर आपको युवा ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलना ध्यानाकर्षकण का विषय रहा है। किंतु बाद में आपकी सतत साहित्य-साधना में भाषा का सयंमित व्यवहार विशेष उल्लेखनीय उपलब्धि है। सद्य प्रकाशित व्यंग्य कृति ‘गांधी जी का चश्मा’ के माध्यम से व्यंग्यकार हरीश नवल यह प्रमाणित करते हैं कि व्यंग्य में बहुत कम शब्दों में बहुत गहरी-गंभीर बात कही जा सकती है।
    शीर्षक व्यंग्य ‘गांधी जा चश्मा’ की बात करें तो आरंभ में लगता है कि गांधी का चश्मा जो 2.55 करोड़ रुपये में हुआ नीलाम और अमरीका के एक व्यक्ति ने खरीदा उसका कहीं कोई संदर्भ होगा। किंतु नहीं यह व्यंग्य विगत सात दशकों से दो अक्टूबर को गांधी जंयती पर होने वाले मेलों पर सधा हुआ व्यंग्य है। इसके शीर्षक और आरंभ को पढ़ते हुए कहानीकार संजीव की कहानी ‘नेता जी का चश्मा’ का स्मरण होता है, जिसमें एक बालक की देशभक्ति को बहुत सकारात्मक ढंग से प्रस्तुत किया है। यहां इस व्यंग्य रचना में अहिंसा नगर में जंयती समारोह आयोजन से पूर्व गांधी जी की मूर्ति जो एक बहुत बड़े शिल्पकार ने बनाई है का चश्मा गायब होने का प्रकरण है। बिना चश्मे के गांधी जी आंखें जैसे उनमें अश्रु भरे हैं, होंठ बहुत सूखे हुए हैं... तिस पर व्यंग्कार का कहना कि ‘गांधी जी के चेहरे पर चश्मे के कारण गांधी जी का पूरा चेहरा कहां दिखता था’ हमारे सारे चश्में उतार देने को पर्याप्त है। आखिर चश्मा गया कहां का रहस्य अंत में स्वयं गांधी जी के श्रीमुख से किया गया है। गांधी जी के पूरा कथन स्वयं में परिपूर्ण व्यंग्य है- ‘सुनो तुमसे ही कह सकता हूं, तुम जैसे मेरे आचरण का अनुकरण करने वाले अब मुट्ठी भर ही रह गए हैं, विगत सात दशकों से देखता आ रहा हूं कि मेरे विचारों की रोज हत्या हो रही है, जबकि मेरी हत्या केवल एक बार ही हुई, सोचता रहा, देखता रहा कि बदलती हुई सफेद, लाल, केसरी आदि टोपियों वालों में कोई तो मेरे सपनों को आरंभ करेगा लेकिन सभी एक से ही आचारण को अपनाते रहे। मेरी सोच धीरे-धीरे मरती रही। अब मुझसे देखा नहीं जाता इसलिए मैंने खुद ही अपना चश्मा उतार कर नष्ट कर दिया।’
    हरीश नवल का मानना है कि व्यंग्य की चोट दुशाले में लपेट कर मारे गए जूते जैसी होनी चाहिए। वह सीधा सपाट व्यंग्य प्रस्तुत नहीं करते, वरन कुछ पेच और घुमाव उनकी प्रवृत्ति है। स्वयं को बिना मुखर किए जब व्यंग्यकार कभी बहुत गहन-गंभीर बात प्रस्तुत करता है तो जाहिर है वह पाठकों से एक ज्ञान-स्तर की भी मांग और उम्मीद करता है। ऐसी अपेक्षा के पूरित नहीं होने पर पाठक थम जाता है और सोचने लगता है कि क्या कह दिया गया है... यह सोचने अथवा अवकाश देना हिंदी व्यंग्य में विरल है। हरीश नवल ने वर्षों अध्यापन का कार्य किया और वे साहित्य के विधिवत अध्येयता रहे हैं, अतः उनकी अनेक रचनाओं में साहित्य-इतिहास और परंपरा को बहुत सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया गया है।
    ‘बिल्लो रानी और ईश वंदना’ में फिल्मी गीतों के माध्यम से भावक के भावों के बदले जाने का और जहां चाह वहां राहा कि उक्ति का विस्तार है। जहां जो नहीं है वहां वह जो मनवांछित है को ढूंढ़ लेने की प्रवृति को यहां अतिरेक के साथ प्रस्तुत करते हुए हरीश नवल पाठकों को हास्य के द्वार तक ले जाते हैं, किंतु कोई खुल कर या खिलखिला कर हंसे उससे पहले ही व्यंग्य की मार से वह तिलमिलाहट से भर देते हैं। कहना होगा कि हरीश नवल के व्यंग्यकार में उनका कहानीकार अधिक मुखर होता है, तब वे अपेक्षाकृत अधिक प्रभावशाली व्यंग्य देते हैं। ‘उफ़ भईया जी चोट’, ‘जन विकास यात्रा’, ‘देश की मिट्टी और नाराद जी’ अथवा ‘प्रिय राजेन्द्र जी’ जैसे व्यंग्य इसके उदाहरण है। देश में नेताओं की मोनोपोली, धन का अपव्यय, व्यवस्था की खामिया और आधुनिक समय-समाज में घर करती संवेदनहीनता को प्रस्तुत करते हुए हरीश नवल के व्यंग्य यदि अपने पाठक में संवेदना जाग्रत करते हैं तो यह बड़ी सफलता है। आधुनिक युग में वैसे तो पाठक सर्वज्ञान है और सब कुछ जानता है, जो जानता हो उसको कुछ बताना बेहद मुश्किल काम है फिर भी व्यंग्यकार उसके जानने को बढ़ाते हुए जैसे द्विगुणित करने का मुश्किल काम बड़ी सरलता से करने का हुनर रखते हैं।
    ‘निदान नींद का’ की बात करें जो मूलतः लघुकथा के रूप में है और बड़ा मारक व्यंग्य यहां सांकेतिक है। राजा आदंदारित्य का नियम था कि वह प्रातः महामंत्री के साथ नगर का विहंगम दृश्य देखते और जहां से धुआं उठता दिखाई नहीं देता तो महामंत्री को पता करने का आदेश देता कि उस घर में अंगीठी क्यों नहीं जली। वह उसकी व्यवस्था करने का आदेश भी देते और महामंत्री इस नियम से दुखी क्योंकि वे प्रातः की नींद में कोई बाधा नहीं चाहते थे। महामंत्री ने अपने मित्र राज-वैज्ञानिक तारादत्त से निदान के रूप में धुएं रहित अंगीठी का अविष्कार करवा पर्यावरण की शुद्धता की दुहाई देते हुए राजाज्ञा प्राप्त कर वैसी अंगीठी हर घर में पहुंचा दी और अब राजा को कहां भोजन बना और कहां नहीं इसका भेद नहीं मिल पाता था। प्रतीक के माध्यम से व्यवस्था पर सुंदर कटाक्ष किया गया है, किंतु अब ऐसे राजा नहीं रहे और महामंत्री ही राजा बन गए हैं- जो जागते हुए भी गहरी नींद में ही रहते हैं। ऐसी अनेक छोटी और मध्यम आकार की रचनाओं को पढ़ते हुए अभिभूत हुआ जा सकता है, यह प्रभाव कृति और कृतिकार की विशेषता है।
    शब्दों के श्लेष और वक्रोकी के अतिरिक्त भाषा-व्यंजना के माध्यम से हरीश नवल हमारे समक्ष ऐसे व्यंग्य को प्रस्तुत करते हैं जो दूसरों से अलग और अपने अंदाज के कारण प्रभावशाली है। वैसे इस पुस्तक की यह विशेषता है कि व्यंग्य भले आकार में छोटा अथवा बड़ा हो, वह निबंध, कथा अथवा लघुकथा के रूप में हो किंतु वह सदैव अपने शिल्प, भाषा के साधा हुआ है, यहां नए विषयों की तलाश के कारण व्यंग्य प्रभावशाली है। पुस्तक के अंत में हरीश नवल के व्यंग्य अवदान को रेखांकित करता पंद्रह पृष्ठों का एक आलेख ‘व्यंग्य कमल : हरीश नवल’ बिना लेखक के नाम के दिया गया है। लेखक प्रकाशक किसी की भी भूल रही हो पर गूगल बाबा नहीं भूलते और उनके द्वारा पता चल सकता है कि यह आलेख डॉ. आरती स्मित द्वारा लिखा गया, जो ‘सेतु’ में वर्ष 2017 में प्रकाशित हुआ है। इस आलेख के अंतिम अनुच्छेदों को हटा कर पुस्तक के अंत में गांधी बाबा को चित्र में मुस्कुराते हुए दिखाया गया है। इस कृति के माध्यम से डॉ. हरीश नवल के चश्मे से समकालीन व्यंग्य को देखना बेहद सुखद है।
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पुस्तक का नाम : गांधी जी का चश्मा ; लेखक : हरीश नवल
विधा – व्यंग्य ; संस्करण – 2021 ; पृष्ठ संख्या – 132 ; मूल्य – 200/- रुपए
प्रकाशक – किताबगंज प्रकाशन, सवाई माधोपुर

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डॉ. नीरज दइया


 

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पर्यावरण चेतना की सुंदर-सरस बाल कहानियां / डॉ. नीरज दइया

 ‘पेड़ और बादल’ गोविन्द शर्मा का सद्य प्रकाशित बाल कहानियों का संकलन है। बालसाहित्यकार, व्यंग्यकार और लघुकथाकार के रूप में पर्याप्त ख्यातिप्राप्त रचनाकार शर्मा को उनके बाल कहानी संग्रह ‘काचू की टोपी’ के लिए साहित्य अकादेमी नई दिल्ली का बाल साहित्य पुरस्कार 2019 अर्पित किया जा चुका है। राजस्थान में अनेक राजस्थानी लेखकों को बाल साहित्य के लिए साहित्य अकादेमी द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार प्राप्त है, किंतु राजस्थान से हिंदी लेखक के रूप में इसे अर्जित करने वाले गोविन्द शर्मा अकेल और पहले लेखक हैं। प्रस्तुत संकलन पर्यावरण चेतना की सुंदर-सरस दस बाल कहानियां का उनका संग्रह हैं।
    वर्तमान समय में सबसे महत्त्वपूर्ण और ज्वलंत विषय पर्यावरण है। गोविन्द शर्मा के संग्रह ‘पेड़ और बादल’ की सभी कहानियां बेहद अपनी बात कहने में सक्षम-समर्थ है। यहां रेखांकित किया जाना चाहिए कि कहानीकार बिना किसी उपदेशक की भूमिका ग्रहण करते हुए बाल मन को सुंदर संदेश देने में सफल हुआ है। संग्रह की शीर्षक कहानी ‘पेड़ और बादल’ में एक छोटी लड़की गुड़िया के माध्यम से पेड़ों के महत्त्व को बहुत सुंदर कथा में स्थापित किया गया है। बादलों के बरसने का रहस्य पेड़ ही है, इस बात को गुड़िया और बादल के संवाद से सहज संभव करना यहां देखते बनता है। आज आधुनिकता और अद्यौगिक विकास के नाम पर पेड़ों को बचाना क्यों जरूरी है? खेती के अनेक संसाधनों के बाद भी वर्षा का जल क्यों जरूरी है? इन मुद्दों को कहानी स्पर्श करती है।
    विकास की आंधी में पेड़ों को जिस अंधाधुन गति से काटा जा रहा है, क्या उसी तेजी से बहुत जल्दी पेड़ हम उगा सकने में समर्थ हैं? यह सवाल को कहानी ‘नीम का बीज’ के माध्यम से प्रस्तुत करते हुए कहानीकार गोविन्द शर्मा जहां विज्ञान की सीमाओं और संभवनाओं पर प्रकाश डालते हैं, वहीं पेड़ों को बचाने का संदेश भी देते हैं। वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ कहानी को बाल मनोविज्ञान का निर्वाहन करते हुए प्रस्तुत किया गया है। सरकारी स्तर पर ‘पानी बचाओ, बिजली बचाओ और सबको पढ़ाओ’ की बात क्यों जोर-शोर के साथ की जा रही है? इस बात को बच्चों को समझाने का दायित्व शिक्षकों और हमारे समाज का है। संग्रह में ‘जल कंजूस’ एक ऐसी ही बाल कहानी है जिसमें एक शिक्षक का अपने विद्यार्थियों से सीधा संवाद है। यह कहानी बताती है कि कैसे बातों-बातों में ज्ञान की महत्त्वपूर्ण बातों को सरलता से समझाया जा सकता है। बच्चे भी बड़े समझदार हो गए हैं। कहानी के अंत में एक बालक का यह कथन देखें- ‘यही की आपने पढ़ाने का मूड न होने का कह कर भी हमें पानी बचाने का पाठ पढ़ा ही दिया।’ इस बात पर सर केवल मुसकराये और बच्चे हंस दिए। ऐसा ही संदेश संग्रह की एक अन्य कहानी ‘जल चोर’ में देख सकते हैं। पानी बचाने की बात को हमारी जिम्मेदारी के रूप में कहना समझना इस कहानी उद्देश्य है।
    पशु-पक्षियों के लिए पर्यावरण का क्या महत्त्व है? जब आज हमारे गांव परिवर्तित और विकसित होते जा रहे हैं, तो जीव-जंतुओं और पशु-पखेरूओं के आवास स्थानों पर भी विचार किया जाना चाहिए। ‘हमें हमारा घर दो’ कहानी में बदलू के माध्यम से हरियल तोते की बात प्रस्तुत कर कहानीकार ने बाल मन को छूने का प्रयास किया गया है। ‘चलो, मेरी कठिनाई तुम्हारी समझ में तो आई। भैया, मेरी दोस्ती निभानी है, मुझे साथ रखना है तो गांव में रहो। खेती करो या शहर में गांव जैसा महौल बनाओ। फिर मुझे बुलाना।’ हरियल तोता बदलू के हाथ के नए पिंजरे को घूरते हुए उड़ गया। (पृष्ठ-37)
    आज की अवश्यकता है कि बच्चे जाने कि पेड़-पौधों में भी हमारी तरह जान बसती है। यह खोज करने वाले हमारे भारतीय वैज्ञानिक सर जगदीश चंद्र बोस की बातें आज भी कितनी उपयोगी और महत्त्वपूर्ण है। यह कहना बहुत सरल है किंतु इसी बात को किसी कहानी का आधार बनाना बेहद कठिन है। इस कठिन काम को सरलता से कर दिखाया है कहानीकार गोविन्द शर्मा ने अपनी कहानी- ‘पत्ते नहीं, कान’ में। यह कहानी में दो छोटी-छोटी कहानियों या कहें घटनाओं का समूह है, जो दस वर्ष का अंतराल लिए हुए है। पहले प्रसंग को दूसरे प्रसंग से जोड़ते हुए बहुत सुंदर कहानी का रूप लेखक ने विकसित किया है। फूफाजी पूजा का प्रसाद खुद तैयार करते हैं और पूजा के लिए पेड़ से पत्ते तोड़ते हैं तो कथानायक का यह कहना- ‘फूफाजी, प्रसाद तो आप अपने हाथ से बनाकर चढ़ाते हैं, पर पत्ते किसी और के लगाए पेड़ से चढ़ाते हैं। कितना अच्छा होता यदि आप अपने हाथ से पेड़ लगाते और उसके पत्ते तोड़कर ले जाते।’ कहानी में यह कथन बड़ा मार्मिक है। नासमझ बालक की इस बात पर यह कहते हुए कि बड़ों से इस तरह बात नहीं की जाती है, फूफाजी ने उसका कान उमेठ दिया। किंतु जब फूफाजी को इस बात का मर्म समझ आया तो उन्होंने खुद एक पेड़ लगाया। दस वर्ष में एक पेड़ के पास दूसरा पेड़ खड़ा हो गया। समय के साथ उनकी कुछ आदते बदल चुकी है किंतु कुछ पुरानी है। वे प्रसाद तो अब भी बनाते हैं किंतु पेड़ के पत्ते नहीं तोड़ते।
    राजस्थान की वनदेवी अमृता की कहानी हम नहीं भूल सकते हैं। शमी वृक्ष जिसे राजस्थान में खेजड़ी कहते हैं। इसी शमी की लकड़ी यज्ञ की समिधा के लिए बहुत पवित्र मानी जाती है। खेजड़ी को राजस्थान का राज्य वृक्ष घोषित कर दिया गया है। संग्रह की अंतिम कहानी ‘अमृता देवी ने बचाए वक्ष’ में इसी कहानी को प्रस्तुत किया गया है। संग्रह की अन्य कहानियों में भी पर्यावरण विषय को सराहनीय ढंग से प्रस्तुत किया गया है। भाषा और कहन के मामले में गोविन्द शर्मा जिस सहजता और सरलता से अपनी बात कह जाते हैं वह निसंदेह अनुकरणीय है। प्रस्तुत बाल कहानियों के साथ-साथ पुस्तक में सुंदर चित्रों और साज-सज्जा पर भी प्रकाशक द्वारा पर्याप्त ध्यान दिया गया है, जिससे यह पुस्तक संग्रहणीय बन पड़ी है।

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पुस्तक : पेड़ और बादल (बाल कहानियां)
लेखक : गोविन्द शर्मा
प्रकाशक  : साहित्यागार, धमाणी मार्केट की गली, चौड़ा रास्ता, जयपुर-302003
संस्करण : 2020, पृष्ठ : 64, मूल्य : 200/-

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डॉ. नीरज दइया


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अगंभीर होते समय-समाज की सहज-सशक्त अभिव्यक्ति / डॉ. नीरज दइया

लिखना बेहद कठिन है। लिखना शब्द के भीतर छिपा नकार ‘लिख ना’ को जब से मैंने पहचना है, वह ‘ना’ मुझे रोकता रहता है। पहले जब यह पहचान नहीं हुई थी तब मैं खूब लिखता हूं। लिखता तो अब भी हूं किंतु इस ना को सुनते और समझते हुए। अब लिखते समय बड़ा संकट यह रहता है कि क्या लिखा जाए और क्या कुछ छोड़ दिया जाए। लिखने में सब कुछ लिखा नहीं जा सकता है। लिखने से पहले अपने पूर्ववर्ती रचनाकारों को पढ़ते हुए विधा में हुए कामों के साथ अपनी परंपरा को पहचान सकते हैं। प्रत्येक लेखक को यह फैसला करना होता है कि उसे क्या कुछ किस विधा में लिखना है, क्या कुछ नहीं लिखना।
    मुझे लगता है कि लिखना लुका-छिपी के खेल जैसा है। शब्दों का अजब-गजब जादू है। भाषा में असंभव को संभव करने की शक्ति है। वैसे शब्द तो सभी के लिए समान है, किंतु शब्दों का प्रयोग और अभिप्राय जब हम वाक्यों में प्रयुक्त कर करते हैं तो वह कला कहलती है। हमारे यहां शब्द को ब्रह्म कहा गया है। शब्द का ज्ञान और संस्कार देने वाला गुरु होता है। भारतीय परंपरा में गुरु सर्वाधिक उच्च पद पर आसीन है। उसे गोविंद से भी बड़ा और महान बताया गया है।
    जीवन में यदि एक योग्य गुरु मिल जाए तो जीवन सफल हो जाता है। मैं बड़ा सौभाग्यशाली हूं कि मुझे मेरे जीवन में अनेक गुरुजनों का आशीर्वाद मिला है। प्रो. अजय जोशी जी बैचलर ऑफ जर्नलिज्म एंड मास कम्युनिकेशन में मेरे गुरुदेव रहे हैं। वाणिज्य और अर्थशास्त्र के विद्वान होने के साथ-साथ वे पत्रकारिता और जनसंचार के प्राध्यापक और साहित्य अध्येयता रहे हैं। प्रो. जोशी का जीवन विद्यार्थियों के कल्याण और सतत मार्गर्दशन के लिए समर्पित है। शैक्षणिक और समाजिक कार्यों का उल्लेख यहां अभिप्राय नहीं है। अच्छा तो यह होता कि वे मेरी किसी किताब की भूमिका लिखते और मुझे आशीर्वाद देते। किंतु यहां हो कुछ विपरीत रहा है। मुझे गुरुवर प्रो. अजय जोशी ने अपने नए व्यंग्य-संग्रह ‘पत्नीस्यमूडम’ की भूमिका लिखने का आदेश दे दिया तो मैं आश्चर्य और संकोच से हमारे समय के अग्रजों के नाम गिनवाने लगा। किंतु वे अपने निर्णय को बदलना नहीं चाहते थे। ऐसे में गुरु-वचन की अवहेलना कर मैं घृष्टता कैसे कर सकता था।
    यह कलयुग है और इसमें बहुत कुछ उल्टा-पुल्टा हो रहा है। इसी उल्टे-पुल्टे को ठीक ढंग से देखने-दिखाने का आयुध व्यंग्य विधा है। हमारे समय में व्यंग्य को बेहद सरल-सहज मान लिया गया है किंतु व्यंग्य लिखना अपने आप में नाकों चने चबाने जैसा है। यह चने कुछ ज्यादा कठोर और कष्टकारक होने स्वाभाविक हैं जब कोई वामांगी को केंद्र में रखने की सोचता है। स्त्री और पुरुष से यह संसार चलता है और स्त्री को देश की आधी आबादी कहा जाता है। यह व्यंग्य संग्रह अपने नाम और विषयगत अवधारणा से हमें प्रभावित करने वाला है।
     ‘पत्नीस्यमूडम’ शीर्षक नया, आकर्षक और गूढ़ता से भरा हुआ है। मूड के अनेक सेड्स हमें यहां मिलेंगे। साहित्य और खाकर व्यंग्य का काम नए शब्दों को गढ़ना और बरतना है। प्रो. अजय जोशी विगत पांच-सात वर्षों से व्यंग्य लिखे रहे हैं। उनके नियमित कॉलम प्रकाशित होते रहे हैं। देश-विदेश की पत्र-पत्रिकाओं में उनकी रचनाओं को स्थान मिला है। इससे पूर्व उनके दो व्यंग्य-संकलन प्रकाशित हो चुके हैं। अनेक व्यंग्य-संकलनों में आपकी रचनाओं को स्थान मिला है। कहने का अभिप्राय है कि बीकानेर के अजय जोशी जी देश के व्यंग्यकारों में प्रमुखता से शामिल हो रहे हैं।
    ‘पत्नीस्यमूडम’ संग्रह का शीर्षक इसमें संकलित एक रचना से लिया गया है जो इसी शीर्षक से संकलित है। शीर्षक का मूल उत्स संस्कृत का यह श्लोक है-
नृपस्य चित्तं, कृपणस्य वित्तम; मनोरथाः दुर्जनमानवानाम्।
त्रिया चरित्रं, पुरुषस्य भाग्यम; देवो न जानाति कुतो मनुष्यः।।
    (अर्थ- राजा का चित्त, कंजूस का धन, दुर्जनों का मनोरथ, पुरुष का भाग्य और स्त्रियों का चरित्र देवता तक नहीं जान पाते तो मनुष्यों की तो बात ही क्या है।)
     ‘पुरुषस्य भाग्यम’ पद को बदलते हुए यहां ‘पत्नीस्य मूडम’ किया गया है। हास्य कवि सुरेंद्र शर्मा ने घर-परिवार की केंद्र बिंदु पत्नी पर खूब हास्य कविताएं लिखी हैं। हम व्यंग्य की बात करेंगे तो हमारे समय के लगभग सभी व्यंग्यकारों ने इस विषय को स्पर्श अवश्य किया है, किंतु इस विषय से इतना लिपटने का साहस अब तक किसी दूसरे व्यंग्यकार में नहीं देखा गया है। यहां मेरे अध्ययन की सीमा का भी मुझे भान है इसलिए यह भी कहा जा सकता है कि ऐसा बहुत कम हुआ ।
    ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता’ उक्ति की तर्ज पर यहां इस कृति ‘पत्नीस्यमूडम’ के संबंध में कहना होगा कि पत्नी अनंत पत्नी कथा अनंता.... पत्नी की महिमा और अनंत कथा का बखान जितना जिस रूप में किया जाए वह कम है। किंतु यहां त्रासदी यह है कि व्यंग्य में आलोचना और नकारात्मक तत्वों को अधिक रेखांकित किया जाता है। पक्ष के साथ बड़े रूप में पत्नी के विपक्षी होने की इस अमर कथा में बहुत कुछ हमें अपने घर-परिवार और जीवन जैसा प्रतीत होगा। मैं मानता हूं कि रचनाकार की रचनाओं को उसके जीवन और अनुभव से खाद-पानी मिलता है और वह आगे बढ़ता है। यहां इन रचनाओं में जो खाद-पानी है और जिन से पत्नी के विविध चरित्र में अनेक आयामों का उद्घाटन हुआ है।    
    ‘पत्नीस्यमूडम’ संग्रह में प्रो. अजय जोशी जी के 34 व्यंग्य संकलित किए गए हैं। इन रचनाओं में सर्वाधिक प्रभावित करने वाली बात प्रस्तुत कथ्य और भाषा की सहजता और सरलता है। अनेक रचनाओं में हमें गीतों की पंक्तियां अथवा कोई समसामयिक घटना-स्थिति का स्पर्श मिलता है तो मन मुदित होता है। व्यंग्यकार का भरसक प्रयास रहा है कि वे जो कुछ भी कहें वह सीधे-सरल और बहुत संक्षेप में कहा जाए। भाषा की वक्रता का खेल खेलना व्यंग्य में प्रो. अजय जोशी को अधिक पसंद नहीं है। इन रचनाओं में भाषा की वक्रता जहां कहीं है वह भी सहज प्राप्य है। अनेक स्थलों पर पात्रों के संवादों के कारण भी हम व्यंग्य के मर्म को पहचान पाते हैं। हास्य से गुदगुदाते हैं। जो कुछ कहा गया है वह हमारे आस-पास का है। इन रचनाओं में जो जैसा है उसे वैसा ही चित्रित करते हुए, उसके किसी अन्य अथवा उन्नत होने की संभवानाओं को भी संकेत में अभिव्यक्त किया गया है। व्यंग्य में स्थान स्थान पर हास्य का साथ रचनाओं की चुभन को सहनीय बनाने वाला है।
    पति-पत्नी के संबंधों को हमारे यहां सात जन्मों का संबंध कहा गया है और यदि प्रत्येक जन्म में यह सात जन्म का संबंध गुणित होता रहे तो संबंध जन्म-जनांतर का बन जाता है। इस संबंध में परस्पर सहयोग, सद्भाव और सहानुभूति के साथ-साथ सर्वाधिक जरूरी घटक प्रेम कितना है, यह पड़ताल का इन रचनाओं क मूल उद्देश्य है।
    ‘पत्नीस्यमूडम’ संग्रह की प्रथम रचना की आरंभिक पंक्तियां हैं- ‘अरे सुनो तो... अपनी पत्नी प्राणेश्वरी के ये शब्द सुनते ही हमारे पड़ौसी प्राणनाथ एकदम एलर्ट मुद्रा में आ जाते हैं, चाहे वो कहीं भी हो, कैसी भी स्थिति में हो। जिस प्रकार चौकीदार को मालिक द्वारा आवाज लगाते ही वह नींद से जागकर आंख मलते हए अटेंशन खड़े होकर आंख के ऊपर ललाट पर उल्टी हथेली रखकर सलाम ठोकते हैं ठीक वैसे ही प्राणनाथ जी ने भी किया।’
    यह पति-पत्नी का आधुनिक प्रेम है अथवा आधुनिक सभ्यता के कारण बदलती भयावह स्थितियां। व्यंग्य में अतिश्योक्ति का स्थान होता है किंतु सर्वाधिक प्रभावशाली व्यंग्य करुणा और संवेदशील स्थितियों में कहा गया है। ‘गृहलक्ष्मी का वेतन’ व्यंग्य में पत्नी के कार्यों का गहन मूल्यांकन करते हुए उनका अर्थिक विश्लेषण अवलोकन प्रस्तुत हुआ है। वेतन का अभिप्राय जब हम इस व्यंग्य रचना के माध्यम से समझने का प्रयास करते हैं तो हमारे भीतर सहानुभूति का अज्रस स्रोत प्रवाहित होने लगता है।
    साहित्य और कविता को लेकर बहुत कुछ इस संग्रह की रचनाओं में कहा गया है। कविमन जिह्वा बावरी, कोने में कहराये कविता, चुटकी बजाते ही कविता, बेबस कवि बलवान, पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ और हिंदी साहित्य बीस रुपये किलो जैसी अनेक रचनाएं संग्रह में संकलित हैं। जिनमें कविता की बदहाली और साहित्य के प्रति अगंभीर होते समय-समाज को रेखांकित किया गया है। माना कि यहां अभिव्यक्त जो सत्य है वह एकदम नया नहीं है, किंतु नया है वह जिससे स्थानीयता के साथ बातों को सहजता से उठाया गया है, वह फिर फिर चिंतन-मनन योग्य है। जमीन पर रहते हुए हम हवा में उड़ने की बातें करते हैं, किंतु सर्वप्रथम हमें जमीन पर चलना आना चाहिए... यह सीख इन रचनाओं के मर्म में समाहित है।
    इस संग्रह की अंतिम रचना ‘निंदक नियर ही है’ की बात करें तो उसमें व्यंग्यकार ने घर में पत्नी और बाहर साहित्यिक मित्रों की निंदाओं का आगार बताया है। ज्ञानी बाबा से बतियाते हुए जिस सहजता से यह रचना प्रस्तुत होती है उसमें सादगी-सरलता संवाद प्रभवाशाली है। मेरा मानना है कि वर्तमान स्थितियों के यथार्थ से व्यंग्य को पहचना लेना ही इन रचनाओं की प्रमुखता है। प्रेम, विवाह और तलाक जैसे अनेक मुद्दों के साथ ही हमारे समाज के बदलते समीकरणों को भी संग्रह की रचनाओं में स्थान मिला है। इन रचनाओं की विशेषताओं में यह प्रमुख विशेषता भी है कि संग्रह की प्रत्येक रचना खुद अपने बारे में कहने में समर्थ है, उसकी व्याख्या अथवा अतिरिक्त टिप्पणी की आवश्यकता नहीं है। जिस प्रकार इनसाइक्लोपीडिया में हमें सभी प्रकार की जानकारियां मिलती है, उसी प्रकार यह यह संग्रह ‘पत्नीस्यमूडम’ पत्नी के विविध आयामों को समेटता हुआ एक छोटा-मोटा इनसाइक्लोपीडिया है।
    इस व्यंग्य संग्रह ‘पत्नीस्यमूडम’ के लिए मैं अपने गुरुवर प्रो. अजय जोशी को बहुत-बहुत बधाई और शुभकानाएं व्यक्त करते हुए कृति का स्वागत करता हूं।  
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पुस्तक : पत्नीस्यमूडम (व्यंग्य संग्रह)
व्यंग्यकार : डॉ. अजय जोशी
प्रकाशक  : नवकिरण प्रकाशन,बिस्सों का चौक,बीकानेर 334001 मो. 941968900
संस्करण : 2022, पृष्ठ :96
 मूल्य : 200/- हार्ड बाउंड
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-    डॉ. नीरज दइया


 

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समय और समाज की नब्ज टटोलते हैं आफरीदी के व्यंग्य / डॉ. नीरज दइया


‘धन्य है आम आदमी’ (2021) व्यंग्यकार फारूक आफरीदी का दूसरा व्यंग्य-संग्रह है। उनके पहले संग्रह ‘मीनमेख’ (1998) से काफी अंतराल के बाद यह संग्रह आया है। इस बीच आपका व्यंग्य संग्रह ‘बुद्धि का बफर स्टॉक’ नाम से आने वाला था, किंतु नहीं प्रकाशित हो सका। आलेख लेखकों की अगंभीरता के कारण कुछ जगह यह संग्रह के रूप में उल्लेखित भी हुआ है। खैर, सद्य प्रकाशित संग्रह में 41 व्यंग्य रचनाएं शामिल हैं। पहली रचना का शीर्षक ‘बुद्धि का बफर स्टॉक’ है। शीर्षक व्यंग्य ‘धन्य है आम आदमी’ को इसके बाद दूसरे स्थान पर रखा गया है। वैसे किसी शीर्षक रचना को संग्रह में किस क्रम पर दिया जाए, इसका कोई निर्धारित नियम-कानून नहीं है। अनेक जगहर यह भी हुआ है कि पुस्तक का जो शीर्षक है उस नाम से संग्रह में कोई रचना नहीं होती है। किंतु यहां जो शीर्षक है वह संग्रह में संकलित रचनाओं के केंद्रीय स्वर को व्यंजित करने वाला है। साथ ही यह शीर्षक पाठकों को आकर्पित करता है कि व्यंग्यकार फारूक आफरीदी ‘आम आदमी’को धन्य क्यों कह रहे हैं। व्यंग्यकार का आम आदमी को प्रमुखता देना कोई आम बात नहीं है। भक्त कवि कुंभनदास जी ने बेशक कहा हो कि ‘संतन को कहा सीकरी सों काम’, पर आम आदमी की बात करने वाले हमारे व्यंग्यकार तो स्वयं ही सीकरी से करीबी जुड़ाव रखते हैं और उनकी पनहियां वर्षों से सही-सलामत है। वे अपनी इसी पनहियां को दुसाले में लपेट कर व्यंग्यकार के रूप में चलाते रहे हैं और फिलहाल सीकरी ही उनका ठिकाना है।   
    राजस्थान के सूचना और जनसंपर्क विभाग के संयुक्त निदेशक पद से सेवानिवृत होकर फारूक आफरीदी वर्तमान में मुख्यमंत्री के विशेषाधिकारी के रूप में अपनी सेवाएं दे रहे हैं। दूसरी सूचना आपके पास है कि वे वर्षों से विविध विधाओं में एक लेखक के रूप में सक्रिय रहे हैं। अन्य विधाओं की तुलना में व्यंग्य लेखन जोखिम भरा इसलिए है कि इसमें रचनाकार जो भी बात कहता है उसे उसके काम और आस-पास की दुनिया से जोड़ कर देखा-परखा जाता है। यह अकारण नहीं है कि ‘धन्य है आम आदमी’ में एक व्यंग्यकार के रूप में फारूक आफरीदी की चिंताओं के केंद्र में लेखकों की दुनिया के साथ-साथ बदलती सत्ता और समाज के अनेक पक्ष हैं। इन रचनाओं में व्यक्ति और सत्ताओं के बदलते स्वभाव का आकलन है वहीं जो गलत और ठीक नहीं है उस पर निशाने साधते हुए जिम्मेदारी और बेबाकी से अपनी बात कहने का हौसला है। संग्रह की पहली रचना का आरंभिक अंश देखें-
    ‘बुद्धिराम का यह कहना सौ टका शुद्ध है कि भगवान ने आदमी को जो बुद्धि दी है, उसका वह जबरदस्त दुरुपयोग कर रहा है। ऊपर वालों को सारे बुद्धिजीवियों की बुद्धि का बफर स्टॉक कर लेना चाहिए। मान लो ऊपर वाला दूसरे कामों में व्यस्त हो अथवा लगता हो कि अभी यह उनकी प्राथमिकता नहीं है तो यह काम प्राइवेट सेक्टर को आसानी से सौंपा जा सकता है। प्राइवेट सेक्टर का जब सारे टीवी चैनलों पर कब्जा है तो यह एक चुटकीभर काम है। वैसे भी आजकल सरकार अपनी दूसरी बड़ी जिम्मेदारियों को देखते हुए निजी क्षेत्र को सारे उपक्रम सौंपकर अपने दायित्व से पल्ला झाड़ रही है।’ (पृष्ठ-7)
    यहां न केवल अपने समकालीन समय और उसके सामजिक संदर्भों के प्रति गहरे सरोकार हैं वरन पाठकों के लिए भाषा में उत्सुकता और कौतूहल भी जबरदस्त है। व्यंग्यकार अपनी बात को होले-होले जाहिर करते हुए जैसे सत्य को उजागर करते हुए पहले हमें उससे धीरे-धीरे जोड़ता है। यह पाठकीय जुड़ाव ही एक गति देते हुए किसी दिशा और सोच के लिए प्रेरित-प्रोत्साहित करता है। यहां बात किसी घटना-प्रसंग अथवा स्थिति के सही और गलत रूप की नहीं है। असल में व्यंग्यकार को जो कुछ गलत प्रतीत हो रहा है अथवा वास्तव में जो गलत है, उसे कहने का जोखिम उठाना बड़ी बात है। वह किसी विषय के लिए एक बार व्यंग्य लिखकर इतिश्री करने वालों में नहीं है, इसके लिए एक ही विषय पर अनेक बार प्रहार करना भी उसे मंजूर है।
    इन व्यंग्य रचनाओं के प्रमुख घटक के रूप में हम प्रयुक्त भाषा को रेखांकित कर सकते हैं। भाषा का सही और सटीक प्रयोग ही पाठकों को भी उन मुद्दों पर विचारशील-विवेकवान बना सकता है। सहमति-असहमति के अवसर को रखते हुए व्यंग्यकार व्यंग के मूल उद्देश्य अपने समय और समाज की विसंगतियों को उजागर करना नहीं भूलता है। व्यंग्यकार के भीतर स्थितियों को परिवर्तित करने की अभिलाषा के साथ-साथ जनमत को किसी बदलाव के लिए जाग्रत-प्रेरित करना भी है। माना कि व्यंग्य में व्यंग्यकार का यह कहना- ‘आजकल सरकार अपनी दूसरी बड़ी जिम्मेदारियों को देखते हुए निजी क्षेत्र को सारे उपक्रम सौंपकर अपने दायित्व से पल्ला झाड़ रही है।’ पर्याप्त नहीं है, किंतु गौर करेंगे तो समय पर किसी पक्ष में अपनी उपस्थिति दर्ज करना ही सही होता है। क्योंकि जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध। एक रचनाकार के लिए कुछ कहने और लिखने के अतिरिक्त कुछ नहीं है, उसी में वह आम आदमी के लिए कुछ कर सकता है। वैसे स्वयं लेखक भी कोई बहुत विशेष या खास आदमी नहीं होता है, वह भी एक आम आदमी है और आम आदमियों के बीच ही रहते-रचते हुए खटता है।
    लेखक को बुद्धिजीवी कहा जाता है और व्यंग्यकार फारूक आफरीदी का मानना है कि बुद्धिजीवी ताक-झांक करते हुए बवेला मचा देते हैं। अस्तु निडर, निर्भीक होकर व्यंग्य में बेबाकी से अपनी बात कहना इस संग्रह कि विशेषता है। यह अंश भी देखें- ‘बुद्धिजीवियों ने देशभक्तों और देश दोनों को दांव पर लगा दिया है। इससे देश की दुनिया में बेवजह थू-थू होती है। आसान बातें भी इन लोगों की समझ में नहीं आती कि सरकार माई-बाप होती है। सरकार की हर बात का सम्मान करना चाहिए अन्यथा जीते जी नरक का भागी बनना पड़ेगा।’ (पृष्ठ-8) अथवा शीर्षक व्यंग्य का यह आरंभिक अंश लें- ‘राम खिलावन जी हमारे क्षेत्र के प्रिय नेता हैं। बस, एक मामूली सी दिक्कत है कि उन्हें चुनाव जीतने के बाद एकांतवास पर जाने की आदत है। आम चुनाव आने पर वे अपनी कुर्सी से अधिक अपने मतदाताओं को प्यार करने लगते हैं। चुनाव की घोषणा से लेकर मतदान तिथि के स्वर्णिम काल में वे अपने मतदाताओं को तमाम खुशियां बांट देना चाहते हैं। इसमें वे अपनी जान लगा देते हैं।’ (पृष्ठ-10) कहना होगा कि आम आदमी को सजग सचेत करते हुए व्यंग्यकार कोई बहुत नई और अनोखी बात नहीं कह-कर रहा है, किंतु वह जो कह-कर रहा है वह समसामयिक और प्रासंगिक है।
    फारूक आफरीदी के इस संग्रह में अनेक प्रयोग भी देखे जा सकते हैं जिसमें वे ना केवल भाषा के स्तर पर प्रयोग करते हैं वरन शिल्पगत प्रयोग भी करते हैं। पत्र-शैली, संवाद शैली, डायरी शैली, प्रश्नोत्तर शैली के साथ ही दृश्यों का कोलाज भी इस संग्रह की व्यंग्य रचनाओं को महत्त्वपूर्ण बनाता है। उदाहरण के लिए ‘उमंग भरे उठावने’ की बात करें तो इसमें एक संपादक ने उठावने पर व्यंग्य भेजने की मांग को बहुत प्रभावी ढंग से उठाते हुए पांच दृश्यों का जो कोलाज प्रस्तुत किया है वह विशेष उल्लेखनीय है। हमारे समय में संवेदनाओं के पतन और संवेदनहीनता के अनेक उदाहरण संग्रह के अन्य व्यंग्य भी प्रस्तुत करते हैं। यही नहीं यहां व्यक्ति की निर्ज्जलता और फिटाई को भी व्यंग्यकार ने अनेक जगह उजागर किया है। यांत्रिक होते हमारे समाज की विडरूपता के कुछ चित्र ‘फेसबुक की फनाफन दुनिया’ और ‘सरकार से साक्षात्कार’ जैसे व्यंग्य प्रस्तुत करते हैं।
    ‘यथा प्रजा तथा राजा’ का यह अंश देखें- ‘भ्रष्टाचार ने तत्काल मुझे टोका- धीरे बेटा धीरे, इतनी तीव्र वाणी में हमारा उद्घोष शोभा नहीं देता। इससे तुम ख्वामखाह पर्दे के पीछे हमारे यज्ञ में आहुति देने वाले शरीफ लोगों से हमरा वैर बढ़ा दोगो। उन्हें बेवजह नाराज कर लोगे। कभी चुप भी रहना भी लाभदायक होता है। (पृष्ठ-43) सजीव संवाद और सीधी बात करने का हुनर अनेक व्यंग्य रचनाओं में देखा जा सकता है। ‘मतदाता के नाम विधायक जी का पत्र’ अथवा ‘सफलता का कोडवर्ड’ में सभी स्थितियों को सामान्य रूप से प्रस्तुत करते हुए असमान्य होते जा रहे समय-समाज को प्रस्तुत किया गया है वहीं ‘वे लेखक हैं जो लिखते-लिखते हैं पढ़ते नहीं’ जैसे व्यंग्य अपनी करुणा से हमें दूर तक बहा ले जाने में सक्षम हैं।
    ‘कोरोना के डर से दुनिया में भले ही बदलाव दृष्टिगोर हो रहा हो, भलाई करने वालों का पलड़ा भारी होता जा रहा हो, सहिष्णुता बढ़ रही हो, मानवता के प्रति लोगों का झुकाव हो, एक-दूसरे के दुःख-दर्द को बांटने की भावना विकसित हो रही हो, लेकिन सत्ता पिपासुओं को उनका पॉजिटिव रोल नहीं सुहाता। सत्ता पितासु इसमें अपने को असुरक्षित पाते हैं। इसलिए बंधु! सता सुखवीरों ने भुजबल और धनबल दोनों को साध लिया है। उन्हें बड़े प्यार और जतन से पाला-पोसा जा रहा है। मानव-सेवा के इतर उनके चरित्र को अब नया रंग-रूप देने और नई भूमिका में सामने लाने के लिए तैयार किया जा रहा है। साम्राज्यवाद नए अवतार में फिर लौट आया है। सत्ता पिपासुओं की भूख और गहरी हो गई है। इस भूख को मिटाने में धनबल और भुजबल ही हैं जो इनके सत्ता संर्वद्धन में अपनी महती भूमिका निभा सकते हैं।’ (पृष्ठ- 89) व्यंग्य ‘धनबल और भुजबल नई भूमिका में’ के साधुराम का यह कथन किसी भी अतिरिक्त व्याख्या अथवा विस्तार की अपेक्षा नहीं रखता है।    
    संग्रह के अनेक विषयों के विविध पक्षों पर हमें व्यंग्यों में ऐसे अनेक पंच वाक्य मिलेंगे कि हम व्यंग्यकार के सम्मोहन में बंधते चले जाते हैं। साथ ही इस संग्रह में हमारे समय के अनेक ऐसे विषयों पर व्यंग्य हैं जिन पर अन्य व्यंग्यकारों ने भी कलम चलाई है और उनको कुछ विद्वान घिसे-पिटे विषयों की संज्ञा देते हैं। विषय पुराना हो या नया उसके साथ लेखक ने किस प्रकार भाषा का बरताव करते हुए प्रस्तुत किया है यह महत्त्वपूर्ण होता है। व्यंग्यकार के सामजिक सरोकार यदि पाठकों को प्रभावित करते हैं तो वह सफल रचनाकार कहा जाता है और इस मामले में हम समाज-सत्ता के बीच एक लेखक फारूक आफरीदी की दुनिया कैसी है वह रचनाओं के माध्यम से जान-परख सकते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो आम आदमी की दुनिया कैसी है? यह जानना सच में बेहद सुखद है कि इन व्यंग्य रचनाओं में उम्मीद का स्वर शेष है। जहां विद्रूपताएं और विसंगतियां है वहां आशा और उम्मीद रखते हुए लगातार रचना इन व्यंग्य रचनाओं का सबल पक्ष है।
    यह संग्रह हमारे सामने अपने समय और समाज की सच्ची तश्वीर प्रस्तुत करते हुए आम आदमी के जीवट और जूझारूपन को धन्य-धन्य कहते हुए कामना करता है यह संसार सुंदर हो। ऐसा संसार जिसमें कुछ कानून-कायदों के साथ थोड़ा-बहुत आदर्श भी हो। इसलिए यह जरूरी है कि छोटे-छोटे संघर्षों और प्रतिरोधी के स्वरों को पहचना हम कर सकें। संभवतः जीवन-गाड़ी को पटरी पर बनाए रखने की यही सबसे बड़ी मुहिम है जो इस व्यंग्य संग्रह के माध्यम से फारूक आफरीदी करते नजर आते हैं। इस कृति को लेखक ने अपनी शरीके हयात दिलकीश बेगम साहिबा को समर्पित किया है और कलमकार मंच ने इसे सुंदर ढंग से प्रकाशित किया है।
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पुस्तक : धन्य है आम आदमी (व्यंग्य संग्रह)
व्यंग्यकार : फारूक आफरीदी
प्रकाशक  : कलमकार मंच, 3 विष्णु विहार, अर्जुन नगर, दुर्गापुरा, जयपुर-302018
संस्करण : 2021, पृष्ठ : 126, मूल्य : 180/-

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समीक्षक : डॉ. नीरज दइया

(‘मधुमति’ मार्च 2022 में प्रकाशित)
 


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