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जलम शताब्दी सिमरण- अन्नाराम सुदामा री साहित्य-साधना/ डॉ. नीरज दइया

          राजस्थान शिक्षा विभाग सूं जुड़िया केई रचनाकारां रो नांव आवणवाळै टैम मांय विभाग भूल सकै पण साहित्य रो इतिहास कदैई कोनी भूलैला। विभाग री आपरी सींव अर हिसाब-किताब हुवै, नौकरी मांय जठै कठै कोई काम करै बठै जाणीजै। सेवामुगत हुया पछै ई विभाग सूं जुड़ाव रैवै। इण ढाळै कैय सकां कै जे कोई विभाग रो कर्मचारी किणी पण क्षेत्र मांय कोई नांव हासिल करै तो उण रो जस विभाग नै जावै। साहित्य री बात करां तो शिक्षा विभाग राजस्थान आखै देस मांय फगत अेक इसो संस्थान रैयो जिको आपरै गुरुजनां-कर्मचारियां री रचनात्मकता पेटै सजगता बरता थका बरसां लग पांच पोथ्यां शिक्षक दिवस रै टांणै छापी। देस रा नामी लेखक-कवि संपादक रैया। बरस 1997 मांय राजस्थानी साहित्य री संपादित पोथी ‘कोरणी कलम री’ विभाग प्रकाशित करी, जिण रो संपादन अन्नाराम ‘सुदामा’ करियो। सुदामा जी रै उपनांव सूं जाणीजता आं गुरुदेव रो जलम 23 मई, 1923 नै अर सरगवास 02 जनवरी, 2014 नै हुयो। अठै खास ध्यानदेवण जोग बात आ है कै 23 मई, 2023 सूं सरू हुयो ओ वगत अन्नाराम जी री जलम शताब्दी रो बरस है। आओ आपां इण मिस गुरुजी अन्नाराम सुदामा री साहित्य-साधना पेटै कीं चरचा करां।

          चावा-ठावा रचनाकार अन्नाराम सुदामा रै सिरजण रा केई-केई पख देखण-परखण नै मिलै। बां राजस्थानी अर हिंदी दोनूं भासावां मांय कहाणियां अर उपन्यासां रै अलावा संस्मरण, बाल साहित्य अर कविता आद विधावां मांय लगोलग सिरजण करियो। बां री रचनावां रो देस-विदेस री भासावां मांय अनुवाद ई हुयो। बां सूं म्हारी ओळख रो मोटो कारण म्हारा जीसा सांवर दइया रैया। अेक लेखक-कवि रै घरै जलम हुयां म्हारै नजीक पोथ्यां कीं बेसी रैयी पण पोथ्यां नजीक रैयां ई कीं कोनी हुवै। बांचण रो चाव मोटी बात हुया करै। स्कूल रै दिनां री बात करूं तो म्हैं नोखा रै सेठिया स्कूल सूं छोटूनाथ उच्च माध्यमिक स्कूल पूग्यो तो डेलूजी गुरुजी जिका पीटीआई हा, बां री मीठी वाणी मांय सुदामाजी री रचनावां सुणण रो सौभाग मिल्यो। फेर राजस्थानी साहित्य री रावत सारस्वत जी री परीक्षावां अर कन्हैयालाल सेठिया जी रो मायड़ रो हेलो इण मारग माथै म्हनै गति दीवी। ‘पिरोळ में कुत्ती ब्याई’ अर ‘दूर-दिसावर’ पोथ्यां पछै बरस 1985 मांय जद म्हारै जीसा सांवर दइया नै साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिल्यो तो बां रै सम्मान में नागरी भंडार बीकानेर में हुयै जळसै री अध्यक्षता अन्नाराम सुदामा करी अर म्हारा पैला दरसण हुया।

          अन्नाराम सुदामा रै जीवन परिचय अर साहित्‍य री बात करां तो राजस्‍थानी में आपरा छव उपन्यास- ‘मैकती काया: मुळकती धरती’ (1966), ‘आंधी अर आस्था’ (1974), ‘मेवै रा रूंख? (1977), ‘डंकीजता मानवी’ (1981), ‘घर-संसार’ पैलो भाग (1983), ‘घर-संसार’ दूजो भाग (1985) अर ‘अचूक इलाज’ (1990) प्रकाशित हुया। कहाणी संग्रै च्यार- ‘आंधै नै आंख्यां’ (1971), ‘गळत इलाज’ (1983), ‘माया रो रंग’ (1976) अर ‘औ इक्कीस’ (2002) प्रकाशित हुया। आपरी ख्याति मूळ रूप सूं गद्यकार अर खास तौर माथै कथाकार रूप बेसी मानीनै। बियां आप बीजी बीजी विधावां मांय ई सांगोपांग लेखन करियो।

          जातरा संस्मरण री बात करां तो दोय पोथ्यां- ‘दूर-दिसावर’ (1975) अर ‘आंगण सूं अर्नाकुलम’ (2002) छपी थकी नै चावी। आपरा च्यार कविता-संग्रह- ‘पिरोळ में कुत्ती ब्याई’ (1969), ‘व्यथा-कथा अर दूजी कवितावां’ (1981), ‘ओळभो जड़ आंधै नै’ (2002) ‘ऊंट रै मिस : थारी-म्हारी सगळां री’ (2015) साम्हीं आया तो अेक-अेक पोथी नाटक- ‘बधती अंवळाई’ (1979), निवंध- ‘मनवा थारी आदत नै’ (2003) अर बाल-साहित्य- ‘गांव रो गौरव’ (1981) री ई जसजोग मान सकां।   

          आपरै हिंदी साहित्य लेखन री बात करां तो छव उपन्यास- ‘जगिया की वापसी’ (1979), ‘आंगन-नदिया’ (1990) ‘अजहुं दूरी अधूरी’ (1996), ‘अलाव’ (2000), ‘बाघ और बिल्लियां’ (2007) अर ‘त्रिभुवन को सुख लागत फीको’ (2009) प्रकाशित हुया। चिंतनपरक साहित्य पेटै दोय पोथ्यां- ‘त्रिभुवन को सुख लागत फीको’ (2015) अर ‘अवधू अरथ उघारा’ (2015) छपी। महात्मा गांधी रै शताब्दी वर्ष रै मौकै गांधीजी री भारत यात्रा पेटै चावी पोथी ‘उत्सुक गांधी : उदास भारत’ (1970) ई घणी चर्चित रैयी।

          विभाग कानी सूं श्रेष्ठ शिक्षक सम्मान रै अलावा अन्नाराम सुदामा नै घणा मान-सम्मान अर पुरस्कार मिल्या जिण मांय खास खास री बात करां तो राजस्थानी उपन्यास 'मेवै रा रूंख?' नै साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली रो राजस्थानी भाषा रो मुख्य पुरस्कार बरस 1978 रो आपनै अरपण करीज्यो। इणी ढाळै हिंदी उपन्यास ‘आंगन-नदिया’ नै राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर रो सर्वोच्च ‘मीरां पुरस्कार’ (1991-92) मिल्तो तो उपन्यास ‘अचूक इलाज’ नै राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी रो ‘सूर्यमल्ल मीसण शिखर पुरस्कार’ बरस 1992 रो अरपण करीज्यो। श्रेष्ठ गद्य लेखन सारू गोइन्का फाउंडेशन रो ‘कमला गोइन्का राजस्थानी साहित्य पुरस्कार’ बरस 2005 रो मिल्यो अर बीजा ई केई सम्मान-पुरस्कार आपनै मिल्या। मोटो सम्मान अर पुरस्कार तो ओ है कै राजस्थानी उपन्यास ‘मेवै रा रूंख?’ अर ‘मैकती काया : मुळकती धरती’ जयनारायण व्यास वि.वि. जोधपुर, म. द. स. विश्वविद्यालय, अजमेर अर महाराजा गंगा सिंह विश्वविद्यालय, बीकानेर रै पाठ्यक्रमां मांय बरसां सूं सामल है अर लाखू पढेसरी आपनै पढ रैया है। आपरी रचनावां रो केई केई भाषावां मांय अनुवाद ई हुयो। सार रूप कैवां तो शिक्षा विभाग राजस्थान रो नांव आखै देस-विदेस अर खास कर राजस्थानी साहित्य मांय जसजोग बणावणवाळा कमलकारां मांय आप सिरै मानीजो।

          सुदामा जी सूं जुड़ी केई बातां अर यादां बां रै हरेक पढेसरी पाखती हुवणी लाजमी है। बां माथै शोध हुया है अर भळै ई हुवैला। आखो जीवण साहित्य नै सूंपण वाळा सुदामा जी लिखण माथै भरोसो करियो अर तद ई इत्तो साहित्य बै लिखग्या। काण-कायदा अर नेम नै पक्का मानण वाळा सुदामा जी रै जीवण, व्यवहार, आचार-विचार अर साहित्य सूं आपां घणो कीं सीख सकां। बां रै विविधवर्णी आखै सिरजण संसार माथै बात कीं कर’र अठै फगत राजस्थानी कथा-साहित्य री बात करालां।

          लोकथावां रै मायाजाळ सांम्ही आधुनिक कहाणी नै ऊभी करण मांय सिरै कहाणीकार अन्नाराम सुदामा रो नांव हरावळ इण सारू मानीजै कै बै पैली पीढी रा कहाणीकार हा अर पैलै कहाणी संग्रै- ‘आंधै नैं आंख्यां’ री भूमिका मांय बां लिख्यो- ‘राजस्थानी में कहाणी साहित्य री कमी है। है जिको घणखरो पुराणी खुरचण खा’र जीवै इसो। बींनै अलग-अलग आदम्यां, न्यारा-न्यारा गाभा पैरा’र आप आपरै ढंग सूं सजावण री सस्ती चेष्टा करी है, मूळ में कोई अंतर को आयोनी। केयां, संकलन अर संपादन, भूमिका में दो शब्द अर बीं में ही दो-दो पांती घाल, कथा साहित्य रो खासो भलो उपकार कियो है पण ऐ आसार कीं सीमा तांई ही ठीक हुवै। वर्तमान भी कठै न कठै, मोटो महीन चित्रित हुणो चाहीजै। बींरी पूर्ति अतीत सूं थोड़ी ही हुसी....।’

          कहाणीकार अन्नाराम सुदाम वर्तमान रै मोटो-महीन चित्रण अर अतीत सूं मुगती री बात उण दौर मांय करी जद लोककथावां रै संकलन-संपादन रो काम घणो जोरां माथै हो। आगै चाल’र बां कहाणी नै आधुनिक बणावण मांय योगदान दियो। इण सारू कहाणी-जातरां री संभाळ करतां कहाणीकार अन्नाराम सुदामा री कहाणियां माथै बात करणी लाजमी लखावै।

          ओ संजोग है कै सुदामा जी री च्यारू राजस्थानी कहाणी-पोथ्यां मांय कुल इक्कावन कहाणियां है अर बां आपरै छेहलै कहाणी-संग्रै रो नांव ‘ऐ इक्कीस’ राख्यो। किणी कहाणीकार री कहाणी-जातरा बाबत बात करता आलोचना नै बगत अर कहाणीकार री दीठ माथै ध्यान देवणो चाइजै। बरस 1971 मांय कहाणी-संग्रै ‘आंधै नैं आंख्यां’ सूं सुदामा जी जिकी जातरा चालू करी बा जातरा 2011 तांई चालू राखी। राजस्थानी कहाणी अर लोककथा री संभाळियोड़ी पूरी भाषा नै बां आपरै पैलै कहाणी-संग्रै ‘आंधै नैं आंख्यां’ री पांचू लांबी कहाणियां रै मारफत बदळ’र नुंवै ढाळै ढाळण री तजबीज करी। परंपरा मांय आ नवी भाषा नै सोधण री खेचळ ही।

          ‘आंधै नैं आंख्यां’ संग्रै री भाषा मांय हास्य अर व्यंग्य सूं बांचणियां नै रस तो आवै पण बिम्बां री भरमार सूं कहाणी री मूळ बात अर संवेदना कठैई दब-सी जावै। कहाणी जठै दौड़णी निगै आवणी चाइजै बठै कहाणी डिगू-डिगू करती आगै बधै। कहाणीकार नुंवै गद्य री सिरजणा मांय कहाणी विधा सूं घणी घणी आंतरै निकळ जावै। सुदामा री आं कहाणियां री भाषा री आलोचना हुई अर आ पूरी भाषा-बुणगट सेवट मांय कहाणीकार दूजै रूप मांय सोधण री तजबीज कर लेवै। सुदामा जी री कहाणी जातरा मांय सेवट भाषा सूं बेसी भाव, आदर्श, जीवण-मूल्य अर संस्कार मेहताऊ हुय जावै। भाषा अर दीठ अेक खास रंग-ढंग मांय लैण माथै जाणै ठेठ तांई पाटी पढावती निगै आवै। उल्लेखजोग है कै आं पाटी पढावती कहाणियां रो मूळ सुर आदर्श री थरपणा है अर इण मांय कहाणीकार आपरी सफलता दरसावै। लोक भाषा री सहजता-सरलता आं कहाणियां री मोटी खासियत मानी जाय सकै। आं सगळी बातां रै उपरांत ई कहाणीकार रो भाषा-रूप पूरी इण पूरी जातरा मांय ठैरियोड़ो-सो लखावै। प्रयोग अर इक्कीसवी सदी रै असवाड़ै-पसवाड़ै जिको बदळाव राजस्थानी कहाणी मांय निगै आवै उण भेळै आं कहाणियां नैं कोनी राख सकां। 

          ग्रामीण जन-जीवण सूं जुड़ी सुदामा जी री कहाणियां मांय सामाजिक सरोकार, जीवण-मूल्य, संस्कार अर मिनखपणै री जगमगाट जाणै बगत नै दीठ देवै। आधुनिक कहाणी परंपरा मांय आं कहाणियां री आपरी अेक न्यारी ओळखाण करी जावैला। कोई कहाणीकार कहाणी क्यूं लिखै? इण सवाल रा न्यारा न्यारा जबाब हुय सकै। कहाणीकार अन्नाराम सुदामा बाबत विचार करां तो लखावै कै बां आखी उमर माइत बण’र कहाणियां चूळियै उतरतै मानवियां नैं लैणसर लावण री दीठ सूं करी। ‘गळत इलाज’ संग्रै री कहाणियां सूं जिकी छवि कहाणीकार री बणै उण सूं आगै री कहाणियां मांय बो मुकाम बणायो राखै। बै औस्था रै बंघण सूं मुगत रैय’र ढळती उमर मांय लगोलग कहाणियां लिखता रैया। जसजोग बात आ कै अन्नाराम सुदामा मान-सम्मान अर पुरस्कारां पछै ई लिखणो सदीव चालू राख्यो। आकाशवाणी खातर बां केई कहाणियां लिखी जिकी लारला दोय कहाणी संग्रै मांय देखी जाय सकै। सुदामा जी नै बां रा करीबी मास्टर जी कैया करता हा। मास्टर जी री कहाणियां मांय ठेठ सूं अेक आदर्श मास्टर किणी बडेरै दांई सीख सीखावतो-समझावतो मिलै।

          बगत रै साथै-साथै ग्रामीण जीवण मांय शहर री हवा पूग्यां उण रै रूप-रंग मांय केई बदळाव हुया। सत-असत अर आस्थावां माथै बगत रो हमलो हुयो। इण सूं अंतस मांय सत-असत नै तोलण रा हरेक का आपरा नुंवा बाट बणग्या। कहाणी मांय जथारथ अर अंतस री दोधाचींत री पूरी पड़ताळ करीजण लागी। मिनख री इण जूझ मांय केई चितराम आंख्यां अगाड़ी किणी कहाणी रूप सांम्ही आया। मिनख रै मन मांयली जूझ रै उजळ पख रा केई केई चितरामां री ओळखाण सुदामा जी री कहाणियां सूं हुवै। ‘माया रो रंग’ अर ‘ऐ इक्कीस’ कहाणी संग्रै आं बातां नै पुखता करै।

          अन्नाराम सुदामा री कहाणियां रै केंद्र मांय- बाल-विवाह, सुगन-विचार, जीव-दया, छुआ-छूत, स्वाभिमान, आत्म-सम्मान, ईमानदारी, पाड़ौस-धर्म, अंध-भगती, जबान रो मोल, दया, संस्कार, संबंध, स्वार्थ आद मिलै। कहाणीकार रै पात्रां मांय घणखारा पचास रै आसै-पासै रा पात्र है। आपसी सम्पत अर सद्भाव सूं मेळ-मुलाकाती आं पात्रां रो सोच लूंठो है। जियां कै आगूंच जिण धन री आंधी दौड़ री बात करी उण पेटै कहाणीकार री आ थरपणा सरावणजोग है कै आज रै जुग मांय धन ई स्सौ कीं नीं हुवणो चाइजै। दोय उल्लेखजोग कहाणियां री चरचा जरूरी है। कहाणी ‘सूझती दीठ’ मांय दूध अर ‘अखंड जोत’ मांय धी नै बेचण री बात है। आज रै जुग मुजब हरेक खुद रो नफो विचारै। कीं बेसी धन मांय खुद रो लाभ विचारण रै इण जुग सांम्ही आं कहाणियां रा पात्र दूध अर घी रै बेच्या पछै उण रै उपयोग नै विचारता नफो करता जाणै घाटै नै अंगेजै। तुळछी रो हवेली रै बारकर दूध री कार निकाळण नै दूध का मीरां बाई रो सेठ चूनीलालजी रै रामशरण हुयां घी नै अंखड़ जोत करण खातर नटणो घणो अबखो काम है। आज ओ रूप कठैई देखण नै कोनी मिलै। ओ रूप अर सोच हुय सकै आ दरसावणो कहाणीकार री लांठी सोच है। दूध-घी मिनखां खातर है इण ऐळो गवाण सूं कांई सरै। इण ढाळै री आं कुरीतियां रो छेड़ो कोनी। सुदामा री खासियत आ कै हरेक कहाणी मांय याद रैवण जोग कथानक है। हरेक कहाणी री आपरी कहाणी है। कहाणी रो प्रभाव इत्तो कै उण मांय पूग्या पछै जाणै कीं बातां हियै रै आंगणै सदा खातर मंड जावै। कहाणी रा पात्र-वातावरण अर संवाद चाहे बिसर जावां पण मूळ मुद्दो जिको कहाणी कैवै बो अंतस मांय बैठ जावै।

          उपन्यास विधा पेटै पैली पीढी रा उपन्यासकार सुदामा जी रो घणो जस मानीजै। आपरा छव उपन्यासां मांय राजस्थान रै गांवां रा सांवठा चितराम मिलै। कैय सकां कै राजस्थान रै गांवां री बदळती तासीर रा केई-केई रंग सुदामा जी आपरै उपन्यासां मांय अंवेरै। आजादी पछै गांव रो रंग-रूप बदळतो गयो। मोटो बदळाव ओ हुयो कै अंग्रेजी राज तो गयो परो पण अबै उण ठौड़ गांव रा सेठ-साहूकार अर जमीदार आय'र बैठग्या। पैली राज करणिया अर लूट मचावणिया दूजा हा। अबै घर रा भेदी लंका ढावण आळा अर घर नै ई खावण आळा हुयग्या। पंच-पटवारी, पुलिस-थाणो सगळी ठौड़ आम आदमी माथै मोटी मार। किसान जिको अन्नदाता बाजै, नित अकाळ भोगै अर अन्न खातर तरसै। जे कदैई कीं भगवान री मेहर सूं खेत सावळ हुवै तो बो करजै रै मांय डूब्योड़ो ब्याज भरै अर ऊपर सूं बेगार न्यारी काढै।

          सुदामा जी रै उपन्यासां रै मूळ मांय सामंती सोसण व्यवस्था री व्यथा-कथा मिलै। बै जिण गांवां रा चितराम आपां साम्हीं राखै, उणा मांय जात-पांत रो टंटो मिलै। मिनख-लुगाई किणी इकाई रूप कोनी। बै का तो गरीब है का अमीर। बै का तो सोसक है का सोसित। निम्न-मध्यम वरग री मानसिकता मांय जीवता घणा लोग-लुगाई जद धन री अनीत देखै, उणा नै कोई मारग नीं लाधै। रछक ई भछक भेळै रळियोड़ा दीसै। गांव री जीया-जूण मांय पग-पग परसती राजनीति रा रंग-ढंग। गरीब अर किसान नै ठौड़-ठौड़ मार। कदैई कोई तो कदैई कोई अर सुणवाई कठैई कोनी। आं सगळी बातां अर हालातां बिचाळै सुदामा जी आपरै उपन्यासां मांय इसा पात्रां नै ऊभा करै जिका कीं बदळाव री हूंस लियोड़ा हुवै। आत्मकथात्मक उपन्यास 'मैकती काया : मुळकती धरती' री नायिका सुगनी नानी आपरै दोहितै गोरधन नै आपरी जूण-गाथा मांड'र कैवै। इण कैवणगत मांय कथा नै कैवण रो जूनो तरीको मिलै। लोककथा दांई हंकारो भरणियो ई दोहितो है अर मुंहबोली नानी सूं उण री जूण-विगत सुण रैयो है। सुगनी रै मारफत उपन्यासकार अेक लुगाई री जूझ नै साम्हीं राखै।

          'आंधी अर आस्था' उपन्यास मांय सुदामा जी मेट माथै काम करणियै जगन्नाथ री जूण-गाथा राखै। जगन्नाथ अर सरपंच रै कांई ठाह कांई बैर बंधै कै बो आंख बांध लेवै। ओ अेक संजोग ई कैयो जाय सकै कै जगन्नाथ सेठ प्रताप रै घरै चारो लावण नै जावै अर रात रै बगत बो सेठ नै घर री विधवा बीनणी भेळै सूतो देख लेवै। जगन्नाथ आंख्यां मींच छानै-मानै पाछो आ जावै, पण सेठ नै काळो खावै अर बो आत्मघात कर लेवै। इसो मौको सरपंच ताकै ही हो अर उपन्यास री कथा इण ढाळै आगै बधै कै बो जगन्नाथ नै फसा देवै। उण नै जेळ हुय जावै। उपन्यास मांय दूजो संजोग ओ सधै कै जगन्नाथ री बहू यसोदा ई बीकानेर मांय अेक सेठ रै चक्कारियै मांय उळूझै जावै अर अठै आळो सेठ ई मर जावै। दुख-दरद ई जूण री कहाणी बणै पण जद जीवण मांय दुख-दरद, कलीफां री आंधी पूरै परिवार माथै आय जावै तो कोई कांई करै।

          ‘मैवै रा रूंख?’ उपन्यास रो सिरैनांव प्रतीकात्मक है। उपन्यास मांय अेक ठौड़ डोकरी कैवै- ‘ना अन्नदाताजी, खूंटण री जबान मत काढोन, फळो फूलो मैवै रा रूंख हो थे, म्हे तो दिया लेवा, म्हारै सागै घणो नान्हो लेखो करता थे फूठरा को लागोनी।’ (पेज-53) रसूखदार मिनख, जिका कीं अड़ी मांय किणी रो काम काढ सकै, जिका माथै भगवान री मेहरबानी कीं बेसी है - बै सेठ-साहूकार-जमीदार-पइसैआळा मैवै का रूंख है। पण उपन्यासकार आं रूंखा माथै सवाल रो निसाण लगावै। असल मांय अै लोग खाली कैवण कैवण नै मैवै रा रूंख है, पण असल मांय आं रो मैवो फगत खुद खातर ई है। प्रेमचंद रै होरी रो प्रभाव भण्यै-गुण्यै किसान सिनाथ माथै देख्यो जाय सकै।          

          ‘डंकीजता मानवी’ उपन्यास मांय सुदामा जी जिण डंक री बात करै वो फगत कोई अेक गांव मांय कोनी, ओ डंक तो फगत अेक दाखलै रूप समझो। राजस्थान रै ई नीं आखै देस रै गांवां मांय मानवी डंकीजता जाय रैया है। हालत अर हालात मांय उगणीस-बीस फरक हुय सकै, पण सगळै गांवां अर लोगां री दसा इण सूं न्यारी नीं कैय सकां। ब्याज भुगतता अर बेगार करता गांव रा लोग-लुगाई अन्याय री घाणी मांय पीसता जावै। कोई रकम नीं, जाणै बां री सांस अडाणै राखीजगी। जिकी अेक'र फस्या पछै इण जूण मांय तो मुगती कोनी मिलै।  

          ‘घर-संसार’ उपन्यास दोय खंड मांय साम्हीं आयो अर ओ गांधी-दर्शन, अछूत-उद्धार माथै आधारित राजस्थानी रो पैलो उपन्यास है। अछूत-उद्धार री बात सुदामा जी रै पैला रा उपन्यासां मांय ई मिलै पण इण मांय पूरी बात इणी विसय माथै केंद्रीत करीजी है। समाज मांय बदळाव लावणो कोई सरल काम कोनी। समाज बीसवीं सदी मांय पूगग्यो पण हाल बो डोरा-मादळिया री बात करै। समझावण री कोई कमी कोनी, पण समझता थकां ई कोई नासमझ बणै उण रो कांई करियो जावै। ‘घर-संसार’ री अेक दूजी खासियत खुद री खुद सूं बातां ई कैय सकां – ‘सुधा सोचै ही अै आदमी-लुगाई ही कदेई स्वाभिमान अर सुतंत्र कमाई री खरीदी खुद री पौसाक पैरसी? मैनत जे मोड़ बदळ लियो तो क्योंनी? बण ही सवाल कियो अर बण ही समाधान।’ उपन्यास मांय इण ढाळै सवाल-जबाब मांय पात्रां री मनगत तो साम्हीं आवै ई आवै, साथै इण ढाळै बांचणियां साम्हीं सीख रा दरवाजा ई खुलै। उठै उपन्यासकार बिना कैया ई कैय देवै कै चिंतन ई किणी पण काम री सफलता रो आधार हुवै।

          ‘अचूक इलाज’ तांई पूगता-पूगता सुदामा जी आपरी जमीन माथै आदर्स भेळै आक्रोस रा सुर ई साम्हीं लावै। बै जीवण मूल्यां नै पोखै। भलै साथै भलो अर बुरै साथै बुरो हुवण रो संदेस देवै। भासा मांय हास्य व्यंग्य अर लोक री रंजकता रूढ हुवती जावै। गांव जिसा गांव है। खेत जिसा खेत है। किसान जिसा किसान है। सेठ-साहूकार जिसा सेठ-साहूकार है अर बाणियां, प्याऊ, बूढ़ा-बडेरा सगळा आपरी संवेदनावां मांय सामाजिक सरोकारां सूं जुड़ता चेतना अर क्रांति खातर उडीक करै। अकाळ हुवो भलाई बिखै रा दिना, आं सगळां री जूझ अर हूंस कमती नीं हुवै। बदरंग हुवती जूण मांय रंगां री आस मांय सुदामा जी रा पात्रां सूं भरोसो उपजै। भरोसै सूं भरियोड़ा पात्र नवै समाज रो सपनो फगत देखै-विचारै ई नीं, उण नै साकार ई करै। वां रै उपन्यासां रा पात्र जमीन सूं उठियोड़ा अर जमीन सूं बंध्योड़ा हुवै। भलाई वै किणी पोसाळा मांय भणिया-गुणिया ना हुवो, पण बै अक्कल रै मामलै मांय इक्कीस कैया जावैला। अक्कल जाणै बां रै हियै उपज्योड़ी हुवै। सगळां सूं सांवठी बात कै बां पाखती जूण रै अनुभवां ई मोटी कमाई हेमाणी रूप मिलै, जिकी नै बै अेक-दूजै री मदद खातर बरतता रैवै। सार रूप कैयो जाय सकै कै आधुनिकता रै पाण हुया बदळावां बिचाळै गांवां रै राजस्थानी समाज रो सुदामा-पख असल मांय अेक सरकारी मास्टर अन्नाराम सुदामा री आंख सूं देख्योड़ो साच अर सुपनां रो जंजाळ है। 

डॉ. नीरज दइया. संपादक- ‘नेगचार’ (पाक्षिक)





 

 

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छूटे और बचे हुए रंगों के आस-पास / डॉ. नीरज दइया

मैंने एक कागज पर
          एक लाइन खींची
          और साथ में ही कुछ फूल
          कुछ पत्ते कुछ कांटे बना दिए
          उसने देखा और हंसा
          क्या यही कविता है
          मैंने कहा- हां यह एक खूबसूरत कविता है।
          (...खेतों में रची जाती कविता : ‘रंग जो छूट गया था’, पृष्ठ-87)
          कुँअर रवीन्द्र जाना-पहचाना एक नाम है। वे स्वयं को मूलतः चित्रकार मानते हैं किंतु रंगों-रेखाओं के साथ-साथ शब्दों की दुनिया में भी उनकी समान सक्रियता रही हैं। उनके चित्र समोहित करते हुए हमें कला-अनुरागी बनाते है। कला के प्रति गहन जानकारी के बिना भी हम उनके प्रति मुगधता के भाव से भर जाते हैं। उनकी कूची और कलम की सतत साधना का यह परिणाम है कि चित्र चित्ताकर्षक और कविताएं बेहद मर्मस्पर्शी हैं। सीधे सरल शब्दों में कहें तो उनका कोई शानी नहीं है। उनकी कविताओं में जीवनानुभवों के साथ अनेक रंगों से सज्जित चित्र देखे जा सकते हैं। हिंदी आलोचना में रेखाचित्र विधा के लिए विद्वानों ने ‘शब्दचित्र’ उपयुक्त शब्द माना, वहीं रवीन्द्र जी के यहां ऐसी सीमाएं ध्वस्त होती हैं। उनकी कविताएं पढ़ते हुए हम बारंबार अनुभूत करते हैं कि उनके यहां शब्दचित्रों और रेखाचित्रों की सीमाओं का समन्वय है, वे काफी उभयनिष्ठ होती हुई हमारा दायरा विस्तृत करती हैं। कहा जा सकता है कि वे अपने चित्रों में कविताएं रचते हैं और कविताओं में चित्र लिखते हैं। कलाओं के लोक में यह ऐसा आलोक है जहां रंगों, रेखाओं और शब्दों के समन्वय से जीवन के रंगों को बेहतर बनाने की एक मुहिम है। बदरंग और दागदार होती इस दुनिया के रंगों को बचाने के लिए वे समानांतर अपनी दुनिया सृजित करते हैं। जहां आशा-विश्वास और रंगों से भरी एक दुनिया नजर आती है। जो बेशक हमारे जैसी ही अथवा कहे बेहतर दुनिया  इस अर्थ में है कि वहां कुछ रंग और सपने के साथ जीवन है।
         कुँअर रवीन्द्र के दो कविता संग्रह ‘रंग जो छूट गया था’ (2016) और ‘बचे रहेंगे रंग’ (2017) प्रकाशित हुए हैं। कहना होगा कि इनकी कविताएं रंग से रंग की एक विराट यात्रा है जिसमें छूटे हुए रंगों के साथ रंगों के बचे रहने का विश्वास और उम्मीद है। देश और दुनिया के आवरण चित्र बनाने वाले कवि रवीन्द्र के दोनों संग्रहों पर उन्हीं के बनाएं अवारण है। दोनों को हम चाहे देर तक देखते रहे तो मन नहीं भरता है। क्या यह कवि अथवा उनकी कला के प्रति मेरा अतिरिक्त अनुराग है, ऐसा कहा भी जाए तो मुझे स्वीकार है। रचना और रचनाकार के प्रति स्नेह और सम्मान ही श्रेष्ठ मूल्यांकन का आधार होता है। इसे आलोचना का प्रवेश द्वारा कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। यहां यह अंतःप्रसंग भी जरूरी है कि मेरी और मेरे अनेक मित्रों की पुस्तकों के आवरण चित्र कुँअर रवीन्द्र द्वारा सहर्ष प्रदान किए गए हैं। मैं उनकी कविताओं से प्रभावित रहा और कुछ कविताओं का मैंने राजस्थानी में अनुवाद भी किया है।
          कुँअर रवीन्द्र की कविताओं का केंद्रीय विषय रंग के अतिरिक्त अन्य कुछ कहा नहीं जाना चाहिए। उनके दोनों कविता संग्रहों के शीर्षक में रंग शब्द समाहित है। ‘रंग जो छूट गया था’ अर्थात जिस रंग को उनके रंगों में स्थान नहीं मिला उसे उन्होंने शब्दों में कविताओं के माध्यम से अभिव्यक्त किया है। रंग ही जीवन है। यह पूरा जगत ही अनेक रंगों का संकाय है। ‘रंग’ अपने आप में बहुत बड़ा विषय है और वे चित्रकार-कवि के रूप में सदैव रंगों के निकट रहे हैं अथवा रहना चाहते हैं और उनकी ही नहीं हम सब की यही अभिलाषा है कि ‘बचे रहेंगे रंग’। इन रंगों के बचे रहने से हम भी बचे रहेंगे, इसलिए भी रंगों को बचाया जाना बेहद जरूरी है। रंग ही हमारी अभिलाषा, आकांक्षा और इच्छाओं को गतिशील बनाते हैं।
           ‘रंग जो छूट गया था’ संग्रह में प्रत्येक कविता को शीर्षक दिया गया है, जबकि ‘बचे रहेंगे रंग’ में कविताएं बिना शीर्षक से है। यह कवि का व्यक्तिगत फैसला है कि किसी कविता को वह शीर्षक दे अथवा नहीं दे। किसी अन्य कवि के विषय में तो मैं नहीं कहता पर कुँअर रवीन्द्र की कविताओं के विषय में कह सकता हूं कि इनकी सभी कविताओं के शीर्षक भले हो अथवा नहीं किंतु सभी कविताएं खंड खंड जीवन के विविध रंगों को प्रस्तुत करती हैं अस्तु सभी कविताएं रंग शीर्षक की शृंखलाबद्ध कविताएं हैं। दोनों संग्रहों की कविताएं प्रकाशन के लिए एक क्रम में रखी गई है किंतु यह रंगों की ऐसी माला है कि इसको जहां चाहे वहीं से आरंभ किया जा सकता है और इसकी इति कहीं नहीं है। यह कविताएं रंगों का जीवन में सतत प्रवाह है। जहां रंग नहीं है अथवा कम हैं वहां भी कवि की दृष्टि से हम रंगों को देख सकते हैं। कवि जीवन में रंग भरने का आह्वान भी करता है- ‘आओ रचें/ एक नया दृश्य/ एक नया आयाम/ एक नई सृष्टि/ एक बिंब तुम्हारा/ और हो एक बिंब मेरा/ हां/ इन बिंबों में/ रंग भी भरना होगा’ (...सार्वभौम बिंब : ‘रंग जो छूट गया था’ पृष्ठ- 72)
         ‘रंग जो छूट गया था’ संग्रह की कविताओं के शीर्षकों के साथ एक अन्य कलाकारी भी देखी जानी अनिवार्य है कि प्रत्येक कविता के शीर्षक से पहले तीन बिंदु खूंटियों जैसे टांगने के लिए बनाएं गए हैं जहां शीर्षक को अटकाया गया है। जैसा कि पहले कहा गया है कि दूसरे संग्रह में यह सब नहीं होकर कविताएं केवल गणितय अंकों के क्रम में व्यवस्थित की गई है और उसमें भी उनका होना बस उनके आरंभ भर की सूचना है। दोनों संग्रहों की कविताओं के अंत में कविताओं को जैसा कि बंद करने अथवा उनके पूर्ण होने पर कोई संकेत होता है वह यहां नहीं है। यह उनके अनंत होने का संकेत हैं और आरंभ भी कहीं से भी हो सकता है इस सूचना के साथ है जो अंकित नहीं है। यह आवश्यक अथवा अनावश्यक सभी बातें यहां इसलिए भी होनी थी कि कवि केवल कवि नहीं है वरन एक चित्रकार है और वह दोनों माध्यमों के समन्वय हेतु सक्रिय है। वह नए दृश्य रचकर रंग भरना चाहता है।
          कविताओं में रंगों की उपस्थिति स्थूल और सूक्ष्म दोनों स्तरों और रूपों में अभिव्यंजित हुई है। कवि के कविता समय में कवि का पूरा पर्यावरण समाहित है। वे घर-परिवार, गांव-देस, मौहल्ले-बाजार से दिल्ली पुस्तक मेले तक के प्रसंगों को कविता की दुनिया में प्रस्तुत करते हैं कि उनका समय और दुनिया से हमारा साक्षात्कार होता है। अनेक विषयों को जीवन के विरोधाभासों के साथ कविताओं में पिरोया गया गया है या कहें कि कुछ ऐसा हुआ और वे इस रूप में ढल गई। यहां कवि अच्छाई-बुराई, सच-झूठ, सुख-दुख, प्रेम-घृणा जैसे अनेक युग्म शब्दों को प्रचलित अर्थों से इतर नए अर्थों-रंगों में सज्जित करता है- ‘तुमने पूछा है मुझसे/ रोटी का स्वाद?/ नहीं/ तुमने किया है/ मेरी निजता पर/ मेरी अस्मिता पर प्रहार/ क्या तुम जानते हो/ भूख की परिभाषा...।’ (...तुमने पूछा है मुझसे : ‘रंग जो छूट गया था’ पृष्ठ- 73) अथवा ‘जब अच्छे दिनों में/ कुछ भी अच्छा न हो/ सिवाय अच्छा शब्द के/ तब/ बुरे दिनों की यादें/ सुख देती हैं।’ (...बुरे दिनों की याद : ‘रंग जो छूट गया था’ पृष्ठ- 78)
          समाज में स्त्रियों की भूमिका पर कवि चिंतित हैं वहीं पुरुष मानसिकता से त्रस्त। वह दुनिया के रंगों को बनाएं रखने की पैरवी इस अर्थ में अभिव्यक्त करता है कि विचारों का आदान-प्रदान और विमर्श कभी एक तरफा नहीं होना चाहिए। हरेक स्थिति में खुलापन और आजादी अनिवार्य है। दुनिया को सहकारिता और सहभागिदारी से चलया जा सकता है। तभी उसकी सुंदरता रहेगी। कवि सरहदें मिटाने की बात करता है और एक ऐसी दुनिया की कल्पना करता है जहां किसी भी प्रकार की दीवारें नहीं हो। वह इस विरोधाभास को भी जानता है कि दीवारों के बिना घर नहीं होता और घर होता है तो दीवारें भी होती हैं। वह लिखता है- ‘दरअसल/ मैं अब सरहदों के पार जाना चाहता हूं/ जिस तरह दीवारें गिरायी/ सरहदें भी तो/ मिटाई जा सकती है।’ (...सरहदें भी तो मिटाई जा सकती हैं : ‘रंग जो छूट गया था’ पृष्ठ- 82) इतनी बड़ी अभिलाषा का आरंभ घर से होना चाहिए- ‘औरतें!/ बहुत भली होती है/ जब तक वे/ आपकी हां में हां मिलाती है/ औरतें!/ बहुत बुरी होती है/ जब वे सोचने-समझने/ और/ खड़ी होकर बोलने लगती हैं।’ (...औरतें : ‘रंग जो छूट गया था’ पृष्ठ- 101) औरतों का बोलना जरूरी है। उनके बोलने से ही जीवन और रंग बोलते हैं। वे ही प्रत्येक सृजन का आधार और प्रेरणा है।         
 रंगों की आब कवि के दूसरे संग्रह में सघन से सघनतर होती देखी जा सकती है। कवि का विश्वास है कि वह उजाले को देश और दुनिया के लिए बचाएगा इसलिए वह उजाले को अपने हाथ में लेकर चलता है। वह उजाले की बाड बानकर अंधेरे को घुसने नहीं देगा ठीक वैसे ही जैसे एक किसान अपने गन्ने के खेत को जंगली सूअरों से बचता है वह भी हमारे पास अंधेरे को फटकने नहीं देगा क्यों कि उसमे उजाले को पहचान लिया है और उसी उजाले की हमारी पहचान कविताओं के माध्यम से वह कराता है। कवि का मानना है कि हम हमारी स्थिति से अपनी नियति की तरफ अग्रसर होते हैं। नियति के लिए फैसला जरूरी है कि हम क्या तय करते हैं। कवि के शब्दों में देखें- ‘जहां पर तुम खड़े हो/ हां वहीं पर क्षितिज है/ उदय भी/ और अस्त भी वहीं होता है/ बस एक कदम आगे अंधेरा/ या फिर उजाला/ और यह तय तुम्हें ही करना है/ कि/ जाना किधर है।’ (बचे रहेंगे रंग : पृष्ठ- 74) कविताओं में सभ्यता के संकटों को भी समाहित किया गया है। कवि शहर और गांव में फैलते बाजारीकरण से चिंतत है और वह आदमी की तलाश में है जो स्थितियों से जूझ सके जो स्थितियों को बदलने के लिए हरावल बन सके। इस लड़ाई में इंसानों के मारे जाने पर कवि को दुख भी होता है किंतु वह धर्म जाति और बंधनों से परे हमारे समक्ष ऐसी जमीन तैयार करता है जहां बिना संघर्ष से कुछ हासिल नहीं होता। और वह हमें संघर्ष के लिए प्रेरित भी करता है- ‘लड़ना है/ लड़ना ही पड़ेगा/ अपने लिए/ अपने खेतों के लिए/ अपने जंगलों के लिए/ लड़ना है/ अपने आकाश, अपनी नदियों के लिए/ अपने विचारों के लिए/ अपने आपको जीवित रखने के लिए।’ (बचे रहेंगे रंग : पृष्ठ- 46) इस लड़ाई में ‘समय के साथ सब कुछ बदलता है’ और अंततः निर्णायक स्थितियों में कवि को कविता का सहारा है- ‘बेशक! यदि तुम तब भी नहीं मरे/ और गुनगुनाते रहे/ कविता की कोई पंक्ति/ तो वे हत्यारे हथियार डाल तुम्हारे पैरों पर लौटेंगे/ हत्यारे सिर्फ कविता से डरते हैं।’ (बचे रहेंगे रंग : पृष्ठ- 80) यह कवि का विश्वास-सहारा ही इन कविताओं की पूंजी है।   
          वरिष्ठ कवि सुधीर सक्सेना का मानना है- ‘कुँवर रवीन्द्र की कविता को लेकर अवधारणा ठोस और सुचिंत्य है। वह ऐसी कविता के हिमायती नहीं है, जो प्रारब्ध में लिपटी हो या उसे दरख्तों के साये में धूप लगे या जो ऐसी छुईमुई हो कि उसे हौले से छूना पड़े या इत्ती गेय हो कि कोई भी गा सके या इतनी अतुकांत हो कि किसी के जेहन में भी न बैठे।’ (बचे रहेंगे रंग : पृष्ठ- 6)
          मूर्त-अमूर्त और कल्पना-यथार्थ के अनेक रेशों से निर्मित कविताओं का संग्रह है- ‘बचे रहेंगे रंग’ इसकी पहली कविता है- ‘बचे हुए रंगों में से/ किसी एक रंग पर/ उंगली रखने से डरता हूं/ मैं लाल, नीला, केसरिया या हरा/ नहीं होना चाहता/ मैं इंद्रधनुष होना चाहता हूं/ धरती के इस छोर से/ उस छोर तक फैला हुआ। (पृष्ठ- 9) यह कविता स्वयं में प्रमाण है कि कवि किसी एक रंग अथवा जीवन की स्थिति में ठहर नहीं सकता, वह विविध वर्णों और रंगों के इंद्रधनुषी कवि हैं। ऐसा प्रेम संभव करता है और करता है कवि का जमीन पर रहकर ऊंचाई छूने का सपना- ‘मैं सीढ़ियां नहीं चढ़ता/ कि उतरना पड़े/ जमीन पर आने के लिए/ मैं जमीन पर ही अपना कद/ ऊंचा कर लेना चाहता हूं/ ऊंचाई छूने के लिए।’ (बचे रहेंगे रंग : पृष्ठ- 65) कुँवर रवीन्द्र ने बेशक अपनी कविताओं को भूमिका में अनगढ़ कहा हो किंतु इनकी अनगढ़ता में जो गढ़ने का शिल्प और कौशल प्रौढ़ होता प्रतीत होता है वह उनकी सहजता-सरलता और तटस्थता से संभव हुआ है। कवि का रंगों और शब्दों की दुनिया में निरंतर जुड़ाव बना रहेगा।

डॉ. नीरज दइया


 


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‘बाबा थारी बकरियां बिदाम खावै रे...’ / डॉ. नीरज दइया

     मेरे गुरुदेव आदरणीय मोहम्मद सदीक (1937-1998) इस संसार में 61 वर्ष रहे और आयु के इस आंकड़े में अंकों का स्थान परिवर्तन कर दूं तो कह सकता हूं कि करीब 16 वर्षों तक मुझे उनका स्नेह-सानिध्य मिला। इसका पहला और अंतिम कारण यह कि वे मेरे पिता सांवर दइया (1948-1992) के अभिन्न मित्र रहे। दोनों ही इस संसार से असमय चले गए। दोनों की जीवन-यात्रा में अनेक बिंदु समान है। जैसे- दोनों शिक्षा विभाग राजस्थान में सेवारत रहे थे और वे अपने समय में साहित्य के सुपरिचित हस्ताक्षर रहे। दोनों हिंदी और राजस्थानी में समान रूप से लिखते-छपते थे। राजस्थानी भाषा सहित्य एवं संस्कृति अकादमी के पद्य-गद्य पुरस्कार सदीक साहब को कविता संग्रह ‘जूझती जूण’ (1979) और मेरे पिता सांवर दइया को कहानी संग्रह ‘धरती कद तांई धूमैला’ (1980) एक ही वर्ष 1983 में अर्पित हुए। यह दौर मेरे जीवन में बहुत बड़े बदलाव का रहा है। मैं उन वर्षों साहित्य के अधिक करीब आने लगा था, छुटपुट कविताएं लिखना और छपने साथ गंभीरता से साहित्य अध्ययन का सिलसिला आरंभ हो गया था। यही वह समय रहा जब हमारा परिवार नोखा से बीकानेर आ गया और मैंने वर्ष 1982 में बीकानेर के राजकीय सादुल उच्च माध्यमिक विद्यालय की नाइंथ क्लास में प्रवेश लिया। मेरे इसी विद्यालय में मोहम्मद सदीक उपप्राचार्य पद पर थे।
    आज जब मैं सादुल स्कूल के दिनों को याद करता हूं तो मुझे आदरणीय सदीक जी के साथ ही सर्वश्री जगदीश प्र्साद ‘उज्जवल’, ए.वी. कमल, मूलदान देवापवत, खुशालचंद व्यास और अजीज आदाज सरीखे गुरुजनों का स्मरण होता है। वह भी क्या समय था जब शिष्यों के मन में गुरुओं के प्रति भरपूर सम्मान होता था, उनका डर और खौफ भी रहता था। उस बिगड़ने वाले दौर में ऐसा नहीं कि मैं अछूता रह गया हूं, मैंने भी कभी-कभार चोरी-छिपे क्लास बंक कर विश्वज्योति सिनेमा हॉल में कई पुरानी फिल्मों का आनंद लिया। कोटगेट के पास लगे फिल्मी पोस्टर देखे, तो वहीं लेखकों-कवियों की मंडली देखी जिसमें भादानी जी भी शामिल रहते थे। वहां चाय की दुकान पर बुद्धिजीवियों का एक जमावड़ा देखा जा सकता था। पास ही गुणप्रकाश सज्जनालय में अपने गुरुजनों को अखबारों को बांचते देखा। ये कुछ दृश्यों के कोलाज हैं। उन दिनों फोटो और मोबाइल की दुनिया बहुत दूर थी। अधिकतर ब्लैक एंड वाइट होते थे। याद पड़ता है कि दसवीं और ग्यारहवीं के बोर्ड फार्म पर जो चिपकाने के लिए फोटो होता है वही उन दिनों का प्रमाण है। स्कूल का कोई ग्रुप फोटो भी नहीं है। बस इतना कहा जा सकता है कि वे सुनहरे दिन थे। उन दिनों की कुछ बातें अब इतनी बेतरतीब है कि स्मृति में सदीक साहब का लूना से स्कूल आना-जाना और हमारे स्कूल के उस कमरे का भूगोल कहीं अटका है।
    एक बार मैं किसी कागज या फार्म पर सदीक साहब से हस्ताक्षर करवाने उनके कमरे की तरफ गया था तो अंदर जाने की हिम्मत नहीं हुई। मैं उनके कमरे में जाने से डर रहा था। बाहर काफी देर से खड़ा था। जब उन्होंने मुझे देखा तो बोले- ‘बारै क्यों खड़ो है?’ मैं फिर भी चुप रहा तो वे बोले- ‘मांयनै आव।’ मैंने भीतर जाकर उनके हस्ताक्षर लिए और उनकी स्नेहिल दृष्टि और व्यवहार से अभिभूत हो गया।

    गुरुवर सदीक साहब और मेरे के संबंधों का यह बाल्यकाल था। स्कूल से कॉलेज और फिर टी.टी. कॉलेज के पांच-छह वर्षों के सफर में सदीक साहब कवि के रूप में मेरे भीतर स्थान बनाते गए। एक दो बार उनको रेडियो पर सुनने का अवसर भी मिला। उनके घर ‘कवि कुटिर’ के पास ही मेरे ताऊजी के बड़े बेटे भंवरसा का घर है और वहां जब कभी जाने का अवसर आया और सदीक साब दिखाई दे जाते तो उनको प्रणाम करता, वे कहते- ‘भंवर रै अठै आयो है कांई?’ उनके घर के बाहर दिखाई देती- बकरियां और मींगणियां दिखाई देती थी और मैं उनका गीत- ‘बाबा थारी बकरयां बिदाम खावै रे...’  को याद करता हुआ उस वक्त हंसता था कि बकरियों ने बिदामों का क्या हाल बना दिया है। बहुत बाद में इस कविता और इस जैसी अनेक अन्य कविताओं का मर्म समझ आया कि वे किस सरलता, सहजता और व्यंग्य द्वारा लोक के दुख-दर्द और परिवर्तन को अपनी कविताओं में वाणी देते हैं।
    मैं जब डूंगर कॉलेज में पढ़ता था तो लिखने-पढ़ने का सिलसिला काफी आगे बढ़ चुका था। कॉलेज के पुस्तकालय में मेरे मित्र फिजिक्स-केमिस्ट्री की मोटी-मोटी किताबें पढ़ते थे, वहीं मैं उनके साथ किसी साहित्यिक कृति में डूब जाता था। एक दिन मैं रानी बाजार स्थित अपने बड़े भाई साहब भंवरसा के घर से लौट रहा था कि आदरणीय सदीक साहब दिखाई दिए, मैंने प्रणाम किया। उत्तर में उन्होंने मुस्कान बिखेरते हुए कहा- ‘मरवण मांय थारी लघुकथा पढ़ी। लिखो, लिखो- खूब लिखो। बढ़िया है।’ उनका यह कहना हुआ और मेरे जैसे पंख लग गए और उस दिन मेरी साइकिल उड़ते उड़ते घर तक पहुंची। रानीबाजार से पवनपुरी के बीच का पूरा रास्ता जैसे वायु मार्ग से तय किया कि बीच के सभी दृश्य हवा हो गए थे।
    वर्ष 1992 में जब मेरे पिता का असामयिक निधन हो गया तब मैं काफी विचलित था। किंतु मैंने एक मिशन लिया कि अपने पिता के अप्रकाशित साहित्य को प्रकाश में लाना है और इसी क्रम में उनका राजस्थानी कविता संग्रह ‘हुवै रंग हजार’ प्रकाशित हुआ। उन्हीं दिनों मैंने राजस्थानी के अनेक कवियों की कविताओं का अनुवाद किया जो ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ में एक साथ छपे तो सदीक साहब बड़े खुश हुए। मैं उनसे मिलने गया तब बहुत आत्मीयता से खुलकर बातें हुई। साहित्य में स्वीकार और अस्वीकार के सवाल पर भी हमारी चर्चा हुई। मुझे अब भी स्मरण है कि मेरे गुरुवर सदीक जी के शब्द थे- ‘नीरज! म्हैं आखी जूण टाबरां नै अंग्रेजी पढ़ाई अर लिखूं राजस्थानी-हिंदी मांय, ऊपर सूं जात रो मिंयो... लोगां नै हजम कोनी हुवै। आ तो म्हारी कविता री ताकत है कै नाम लेवणो पड़ै। थारै बाप साथै ई सागी बात है, बेटा! काम बोलै।’
    मोहम्मद सदीक साहब का कहना था कि वैसे तो उम्र में सांवर से मैं बड़ा हूं, वह हमेशा मुझे बड़े भाई से भी अधिक सम्मान देता था। अब जब वह चल गया है तो वह बड़ा हो गया है। पहले तो मैं तुम्हारा ताऊ था पर अब काका हो गया हूं। प्रेम और आपनापन की सदीक साहब जैसे खान थे और इतने लाड से बात वे बात कर रहे थे कि मुझे मेरे पिता की छवि उनमें दिखाई देने लगी। वही ललाट और वैसा ही रंग, फर्क बस कद में है। मेरे पिता थोड़े लंबे थे किंतु सर मेरी हाइट के हैं। उन्होंने अपनी किताब ‘अंतस तास’ न केवल मुझे भेंट की वरन उस पर लिखा- ‘श्री नीरज दैया को मेरी अंतस तास कविता संकलन में छपी तमाम कविताओं का हिन्दी अनुवाद करने की आज्ञा व अधिकार प्रदत्त किया जाता है। तथा जूझती-जूण की कविताओं का भी अनुवाद की अनुमति दी जाती है। हस्ताक्षर (18-11-1993) उन्होंने पूछा- ‘जूझती-जूण पोथी तो हुवैला थानै खन्नै, म्हैं सांवर नै दी ही।’ मैंने कहा- ‘हां।’
    मोहम्मद सदीक को पढ़ना एक अलग अनुभव से गुजरना है। उनको सुनना दूसरा अनुभव है। बहुत सी रचनाएं यदि आपने उनके श्रीमुख से सुनी नहीं है तो उनके रस को ग्रहण करना कठिन होगा किंतु यदि आपने गीत को सुना और फिर पढ़ रहे हैं तो लगेगा पढ़ते हुए कि वे आपके भीतर गा रहे हैं। किसी रचना की क्षमता यही होती है कि वह हमारे मन में रच-बस जाए। सदीक साहब इतने सुरीले गीतकार रहे कि उनकी लोकप्रिय को कोई छू नहीं सकता है। मुझे लगता कि यदि हम मोहम्मद सदीक जी को राजस्थान का जनकवि कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। उनके हिंदी और राजस्थानी गीत इतने लोकप्रिय हैं कि उनका स्मरण आते ही हमारे मनों में उनकी अनुगूंज उमड़ने-घुमड़ने लगती है। यह प्रेम और भाईचारे का संदेश देने वाला कवि जनता का कवि रहा है। वे जहां भी गए श्रोताओं ने उन्हें सर-आंखों पर बैठाया। बेशक आज वे इस संसार से कूच कर गए हैं किंतु अब भी वे अपने शब्दों के माध्यम से हमारे बीच जिंदा है।         
    यह वह दौर था जब हम युवा साहित्य के प्रति कुछ करने को उत्साहित हुए थे। एक साहित्यिक संस्था ‘सरोकार’ का गठन किया। हमारा पहला कार्यक्रम आनंद निकेतन में हुआ। जिसमें जनकवि मोहम्मद सदीक साहब ने अध्यक्षता की और प्रख्यात कथाकार हरदर्शन सहगल मुख्य अतिथि थे। सारी यादों को स्मृति ने विलोपित कर दिया किंतु उस कार्यक्रम का एक रंगीन चित्र आज भी मेरे पास है जिसमें मंच के अतिथियों के साथ डायस पर बोलते हुए मैं खड़ा हूं। बैनर दिखाई दे रहा है जिस पर दिनांक 20-11-1994 अंकित है। ‘राजस्थानी भाषण प्रतियोगिता’ के इस आयोजन में विभिन्न विद्यालयों और कॉलेज के विद्यार्थियों ने भाग लिया। यह प्रतियोगिता दो वर्गों में आयोजित की गई थी।
    हमारे घर ब्लैक एंड वाइट टेलीविजन था और उन्हीं दिनों जयपुर दूरदर्शन के एक कवि सम्मेलन में गुरुदेव मोहम्मद सदीक को गाते हुए सुना- ‘आपको सलाम मेरा सबको राम-राम। अब तो बोल आदमी का आदमी है नाम’ इस गीत में सरलता और सादगी के साथ भाईचारे की बात कही गई है वह दूसरे किसी कवि के गीत में दुर्लभ है।
    यादों और बातों का एक लंबा सिलसिला है। साक्षरता कार्यक्रम के अंतर्गत रिड़मलसर पुरोहितान की पैदल यात्रा में हमारे साथ मोहम्मद सदीक साहब और अन्य अनेक कवि-लेखक थे। बीकानेर के जिला कलेक्टर सुबोध अग्रवाल स्वयं जब इस यात्रा में पैदल चल रहे थे तो पूरा प्रशासन साथ चल रहा था। वहां के कवि सम्मेलन में जो गीत सर्वाधिक लोकप्रिय हुआ वह मोहम्मद सदीक साहब का था- ‘इयां कियां रे भाई इयां कियां. न्याय ताकड़ी काण कियां...’ ग्रामीन जनता ही नहीं सभी लोग इस पर झूम रहे थे और साथ साथ गा रहे थे- ‘इयां कियां रे भाई इयां कियां...’ यह न्याय ताकड़ी के काण को निकाल कर जनता राज में समानता, समता और बराबरी के अधिकार की जन भावना का उद्घोष करता गीत उस दिन जिस किसी ने भी सुना था उसकी स्मृति में स्थाई हो गया है। उसे आज भी कोई नहीं भूला है।
    मोहम्मद सदीक बीकानेर जिला साक्षरता समिति के सदस्य रहे और ‘अखर गंगा’ प्रवेशिकाओं में उनका मार्गदर्शन मिला। साक्षरता समिति के पाक्षिक अखबार ‘आखर उजास’ का कार्यभार मेरे पास रहा और हमारी समिति के अध्यक्ष माननीय जिला कलेक्टर सुबोध अग्रवाल राजस्थानी को अधिक गंभीरता से जानने-समझने के लिए उत्साहित थे। उन्हें ‘राजस्थानी शब्द कोश’ के दो खंड उपलब्ध कराए तो वे मुझ से बोले- ‘शाम को मुझे राजस्थानी पढ़ाने आओ।’ मैंने हाथ जोड़ते हुए कहा- ‘सर यह कार्य मेरे आदरणीय गुरुदेव मोहम्मद सदीक जी करेंगे। मैं उनसे अनुरोध करूंगा।’ मेरे आग्रह की रक्षा करते हुए गुरुदेव मोहम्मद सदीक जी काफी दिन शाम को कलेक्टर साहब की कोठी में राजस्थानी-समागम के लिए समय देते रहे।
    जब मैं माध्यमिक शिक्षा बोर्ड अजमेर में राजस्थानी भाषा पाठ्यक्रम समिति का संयोजक रहा तो कक्षा 12 के ऐच्छिक विषय हेतु राजस्थानी पद्य संग्रह में मोहम्मद सदीक जी की रचनाओं को शामिल किया और उनसे अनुमति के फोन पर पूछा तो बोले- ‘थन्नै म्हारै सूं पूछण री जरूरत है कांई? म्हारी सगळी रचनावां माथै थारो अधिकार है। मरजी आवै जिकी लेवो नीं।’ सर की उदारता और प्रेम के लिए मेरे पास उस समय भी शब्द नहीं थे और आज भी शब्द नहीं है।
    एक दिन साक्षरता समिति में कार्य करते हुए फोन आया कि मोहम्मद सदीक इस संसार में नहीं रहे हैं। यह 02 जुलाई, 1998 गुरुवार का दिन था और गुरुदेव का परलोक गमन हो गया। उस दिन समिति में स्वयं जिला कलेक्टर अग्रवाल साहब आए और शोक-सभा के बाद कार्य को विराम दिया गया। कहानी यहीं पूरी नहीं होती है और इसके बाद हम सब बीसवीं शताब्दी को छोड़कर इक्कीसवीं में प्रवेश करते हैं। दस-ग्यारह वर्षों बाद मुझे कविता कोश में सदीक साहब की कविताएं जोड़ने के लिए उनके फोटू की आवश्यकता पड़ती है तो पाता हूं इंटरनेट पर गूगल सर्च में उनका फोटो कहीं नहीं है। दिनांक कविता कोश में संचित है कि 9 दिसंबर, 2010 को मैंने 20 नवंबर, 1994 के दिन ‘राजस्थानी भाषण प्रतियोगिता’ के लिए जो फोटो लिया था उसको क्रोप कर के वहां जोड़ा। यहां यह लिखने का अभिप्राय यह है कि आज के तकनीकी दौर में हमारा राजस्थानी साहित्य कितना इंटरनेट पर सुलभ है इस दिशा में प्रयास हमें ही करने होंगे। यह तो मोहम्मद सदीक जी की पोती कौसर का कमाल है कि उनका तीसरा राजस्थनी कविता संग्रह- ‘चेतै रा चितराम’ (2022) प्रकाशित हुआ है।
    मोहम्मद सदीक जी ने संख्यातमक रूप से कम लिखा है किंतु जो लिखा है वह उनकी अक्षय कीर्ति के लिए पर्याप्त है और ऐसे बहुत से लेखक-कवि हैं जिन्होंने बहुत लिखा उस पर भारी है। आज आवश्यकता इस बात की है कि उनके लिखे को संचित किया जाए, अप्रकाशित को प्रकाशित कराया जाए। पत्र-पत्रिकाओं की खोज कर पता किया जाना चाहिए कि वे कहां कहां किन किन पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। उनकी पुस्तकों की उपलब्धता के सरल रास्ते बनाए जाए। उनके साहित्य पर शोध कार्य किए जाए और मूल्यांकन कार्य होना भी बेहद जरूरी है।
    राजस्थानी और हिंदी कविता में गीति-काव्य की जब भी चर्चा होगी तब मोहम्मद सदीक के काब्य-कर्म को निसंदेह स्मरण किया जाएगा। इस आलेख में मैंने अपने गुरुदेव को स्मरण करने का प्रयास किया है और भविष्य में उनके रचनात्मक अवदान पर भी लिखना हो सकेगा तो मुझे बेदह खुशी होगी। मैं हृदय की अतल गहराइयों से अपने गुरुदेव की पावन स्मृति को नमन करता हूं।
डॉ. नीरज दइया







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