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स्त्रियों की बदलती तस्वीर का कोलाज : चौकन्नी स्त्रियां/ डॉ. नीरज दइया

     ‘चौकन्नी स्त्रियां’ कथाकार रजनी मोरवाल का चौथा कहानी संग्रह है। इससे पूर्व उनके ‘कुछ तो बाकी है...’ (2016), नमकसार (2019) और ‘हवाओं से आगे’ (2019) तीन कहानी-संग्रह प्रकाशित हैं। इसी क्रम में यदि उपन्यासों की बात करें तो ‘गली हसनपुरा’ (2020) रजनी मोरवाल का उपन्यास चर्चित रहा है और हाल ही में प्रकाशित ‘बटन रोज़’ (2023) भी चर्चा में है। उनकी सक्रियता और निरंतरता प्रभावित करती है। कहना होगा कि रजनी मोरवाल ने समकालीन कथा साहित्य में अपनी गंभीरतापूर्वक उपस्थिति दर्ज करते हुए अब एक विशिष्ट स्थान बना लिया है।
    संग्रह ‘चौकन्नी स्त्रियां’ में रजनी मोरवाल की अलग अलग तेवर की बारह कहानियां संकलित है। सभी कहानियों का केंद्र बिंदु स्त्रियां होते हुए भी इनकी अपनी अलग-अलग दुनिया है जो अंततः मिलकर आज के समाज में स्त्रियों की बदलती तस्वीर का कोलाज निर्मित करती है। शीर्षक कहानी ‘चौकन्नी स्त्रियां’ से बात आरंभ करें, जिसे संग्रह में सबसे अंत में रखा गया है। असल में यह अंत एक प्रकार का आरंभ है, क्योंकि हमारी दुनिया के आरंभ की कल्पना बिना स्त्री के नहीं कर सकते हैं। जो भी हुआ होगा किंतु यह निर्वादित सत्य है कि  दुनिया के विकास का आधार स्त्रियां हैं। स्त्री विमर्श की अनेक कहानियों और कहानीकारों के बीच रजनी मोरवाल इसलिए पृथक से अपनी विशिष्टता लिए हुए है कि उनके यहां परंपरा और आधुनिकता का समन्वय है और वे किसी विचार अथवा निर्णय को अपने पाठकों पर आरोपित नहीं करती हैं।
    कहानी ‘चौकन्नी स्त्रियां’ की नायिका दूर्वा के साथ दो अन्य स्त्री चरित्र बिमला और बिनीथा हैं जो असल में अपनी अपनी पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करती हैं। सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य यह कि ये तीनों जैसे अलग अलग पीढ़ियों के प्रतीक स्वरूप प्रस्तुत होकर समय का एक पूरा परिदृश्य रचती हैं। ऊपरी और सरसरी तौर पर इसे दूर्वा के त्रिकोणीय प्रेम की सफलता-असफलता की कहानी कहते हुए खारिज किया जा सकता है। ऐसी अनेक कहानियां पहले से मौजूद हैं, फिर इसमें सतही तौर पर देखेंगे तो नया कुछ भी नहीं लगेगा, किंतु रजनी मोरवाल ने इस सरल सी कहानी में सरलता को बरकरार रखते हुए सत्या अथवा रोहित के माध्यम से तीन स्त्रियों के सामूहिक चरित्रों द्वारा एक ऐसा कोलाज उपस्थित किया है जिसमें हमें आजादी के बाद हुए अनेक बड़े बदलावों को स्त्रियों के माध्यम से रेखांकित होते नजर आते हैं। तीन स्त्री चरित्रों के अपने अपने सुख-दुख हैं।
    असल में ‘चौकन्नी स्त्रियां’ कहानी में आधुनिकता की उजास में परंपरागत छवियों और मूल्यों को जांचने परखने के साथ आधुनिकता की त्रासदी की रेखांकन करना कहानी का उद्देश्य रखा गया है। साथ ही यह कहानी हमें एक ऐसे समय की यात्रा में शामिल करती है जिसमें वैश्विक समाज के अवयव के रूप में भारतीय स्त्री की आजादी के प्रांगण में बदलती छवि का हम आकलन कर सकते हैं, यही इस कहानी की सार्थकता है। ‘चौकन्नी स्त्रियां’ के कान जैसे पहले से अधिक खुले गए हैं और वे स्पष्ट ध्वनियों के साथ अस्पष्ट ध्वनियों को भी सुनने में सक्षम हैं वहीं भविष्य के प्रति सजग हैं।  
    ‘तोशे’ कहानी में सुलेमान के हवाले उन बिछड़े रिश्तों नातों की पड़ताल की गई है जो भारत-पाक के बंटवारे के बाद कहीं खो गए है और मन है कि अपनी उडान में देश की सीमाओं के बंधनों से दूर फिर फिर वहीं वहीं जा पहुंचता है और समय के बंधन तक को भूल जाना चाहता है। इस कहानी में विभाजन की त्रासदी से हुए मनोरोगी के साथ-साथ समय और बदलती स्थितियों का भी सुंदर चित्रण हुआ है। कहानी के शीर्षक का अभिप्राय इन पंक्तियों से खुलता है- ‘उस रोज के बाद सुलेमान ने सरहद के पास जाना छोड़ दिया था। अगले मेले में तौफीक ने एक और चादर अली रहमत बाबा की मजरा पर चढ़ाई थी, साथ ही अब्बू के पसंदीदा पाकपटनियां तोशेवाले की दुकान के मीठे एवं लवाबदार चांदी की जर्दी चढ़े तोशे बांटे थे। तौफीक ने पत्र के बाबत में जो भी खेल रचा था उस झूठ के लिए अल्लाह पाक से माफी मांगी लेकिन सेवादार का कहना था कि ऐसा झूठ भी झूठ नहीं कहलता है जिससे सुलेमान की जिंदगी बचाई हो। (पृष्ठ-142) रजनी मोरवाल के यहां कहानियों में नई-नई चीजों नामों के साथ-साथ कहीं कविता जैसा मर्मस्पर्शी जादूई वितान देखा जा सकता है तो कहीं राजस्थानी-गुजराती अथवा अन्य भाषओं की आंचलिक खुशबू के साथ देश-विदेश के स्थलों के ब्यौरे और पाश्चात्य सभ्यता के रंग-ढंग इस प्रकार प्रस्तुत होते हैं कि कथा-दृश्य सजीव होकर दिखाई देने लगते हैं।  
    ‘धूप किनारा’ कहानी में एक संवेदनशील स्त्री नीमा की रचनात्मकता और प्रेम के अद्वितीय रूप को देख सकते हैं, वहीं ‘हरे तिरपाल वाला घर’ कहानी में स्त्री के दो वर्गों को मौसुमी और मंजुला के माध्यम से समानांतर प्रस्तुत करते हुए लेखिका उन कारणों को जांचने परखने का आह्वान करती है जिसके कारण स्त्री चाहते हुए भी मुक्त नहीं हो सकती है। ‘बलेड़ी औरत’ में जली हुई स्त्री की पीड़ा मर्म को स्पर्श करती है तो कहानी ‘कोख के खेत’ हमारे सामने एक ऐसा परिदृश्य रखती है जिसमें हम प्रश्नों से जूझने को विवश होते हैं। क्या करण है कि आजादी के इतने वर्षों बाद भी अनेक क्षेत्रों में गरीबी, स्त्रियां की लाचारी, उन पर होता अन्याय-अत्याचार और अमानवीय व्यवहार सहने की हमारी विवशताएं हैं। यह बंधनों की जकड़न परंपराओं ने स्त्रियों के गले में डाल दी है अथवा उनकी अपनी मजबूरियां ही मुक्ति में बाधक बना दी गई है?
    संग्रह की कहानियों की यह विशेषता है कि वे अपने पाठकों को अपने अनुभवों द्वारा नए धरातलों तक ले जाने में सक्षम है वहीं अपने अहसासों के द्वारा कहानियां एक दृष्टिकोण निर्मित करती हैं। मोरवाल के कथा संसार में प्रेम की चमक-दमक के साथ यात्रा-अनुभवों का खजाना भी छिपा हुआ है। ‘नीले कंधे’ कहानी हो अथवा कोई अन्य कहानी उसे संवादों के माध्यम से कहानीकार ने इस प्रकार निर्मित किया है कि पाठक जुड़ता चला जाता है और अनंतः एक अनुभव को लेकर अपने अहसासों के बीच उन चरित्रों के सुख-दुख से खुद को पृथक नहीं कर पाता। ‘बैकुंठी ने परभातिया के नीले पड़े कंधों पर अपनी हथेलियां हौले से छुआ दी थी। उसने देखा अचानक वहां कुछ घाव भरने लगे थे। परभातिया ने बैकुंठी के नीले कांधे पर अपना सिर टिका दिया था। बैकुंठी को महसूस हुआ मानो उसके अपने नीले पड़े फफोलों पर रूई के फाहे सहला दिए हो किसी ने। (पृष्ठ-75) ऐसी शकुन भरी राहत तभी संभव होती है जब भाव और भाषा परस्पर घुल-मिल जाए।
    किसी भी कहानी को पढ़ते हुए एक सवाल अक्सर पाठक मे मन में उभरता है कि यह सब रचनाकार की स्वानुभूति है अथवा कपोल कल्पना? कहानी का बीज अकसर कोई अनुभव अथवा सुनी-देखी कोई घटना पर आधारित होता है। कहानी में कल्पना को भी सत्य की तरह प्रस्तुत किया जाता है और उससे यह अपेक्षा भी रहती है कि वह अनुभूतियों के संसार में अपने पाठक को ले जाए। वैसे किसी रचना के उत्स में अक्सर कोई पीड़ा छिपी होती है। ‘अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, आंचल में है दूध और आंखों में पानी...’ की बात बहुत पुरानी हो चुकी अब नारी सशक्तिकरण के दौर में हर अबला सबला बनती जा रही है अथवा बनें ऐसा सपना लेखिका ने अपनी अनेक कहानियों में बुना है और वे इस संग्रह में ‘अपनी बात’ में लिखती भी हैं- ‘स्व-पीड़ा हो या पर-पीड़ा अथवा सब मिश्रित भाव ही हों किंतु प्रयास यह रहता है कि अपने अस्तित्व तलाशती हर उस स्त्री को केंद्र में रखते हुए ये कहानियां जब समाज तक की यात्रा करें तो पाठकों को उस कहानी में विषय के लिए सोचने के अवश्य प्रेरित करें।’ निसंदेह संग्रह की कहानियां हमें सोचने के लिए प्रेरित करती हैं। प्रख्यात साहित्यकार धीरेंद्र अस्थाना की भूमिका में लिखी इस बात से सहमत हुआ जा सकता है- ‘इस संग्रह की कहानियां लेखिका के साथ-साथ हिंदी कहानी की भी बेहतर तस्वीर पेश करती है।’       ------------
पुस्तक का नाम : चौकन्नी स्त्रियां (कहानी संग्रह) लेखक : रजनी मोरवाल
प्रकाशक : प्रलेक प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, ठाणे, महाराष्ट्र
प्रकाशन वर्ष : 2022 ; मूल्य : 200/- ; पृष्ठ : 160

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आभार : श्री सुभाष राय
संपर्क : डॉ. नीरज दइया



 

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