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कवि-मन और वैश्विक कविता का सफर / डॉ. नीरज दइया

रति सक्सेना से मेरी जान-पहचान का सिरा उनके पहले कविता संग्रह ‘माया महाठगिनी’ (1999) से जुड़ा हुआ है। वे राजस्थान की बेटी हैं और नियति ने उनकी कर्मस्थली केरल को चुना, किंतु वे केवल वहां की होकर नहीं रहीं। बहुत कम समय में उन्होंने बहुत लंबी यात्रा की है। उन्होंने केरल में रहते हुए ना केवल भारतीय कविता के लिए वरन विश्व कविता के लिए अद्वितीय कार्य किया है। कविता और अनुवाद के कार्यों के साथ-साथ उन्होंने वेब-पत्रिका ‘कृत्या’ के माध्यम से साहित्य की दुनिया में एक ऐसी अलख जगाई कि उसकी गूंज सुदूर देशों में भी सुनी गई है। विगत बीस वर्षों से अधिक के समय का आकलन करेंगे तो ऐसा लगता है कि अब उन्हें संपूर्ण विश्व ही अपना घर लगने लगा। पारिवारिक और साहित्यिक यात्राओं के उनके अनुभव हमारे चिंतन को नए आयाम देने वाले कहे जा सकते हैं। उन्होंने अपने पहले यात्रा-वृतांत का नाम ‘चिंटी के पर’ रखा था। इसकी व्यंजना को उन्होंने सार्थक कर दिखाया है। सुखद आश्चर्य होता है कि कोई इतना सब कुछ इतने कम समय में कैसे कर सकता है। उन्हें अंरतराष्ट्रीय स्तर पर भारतीय कवयित्री के रूप में जो पहचान मिली है, वह उनकी उनके व्यापक कार्यों का परिणाम है साथ ही इसमें उनकी अनेक वैश्विक यात्राओं का योग भी है। यहां यह कहना भी समीचीन होगा कि उनकी कविता और कार्यों का व्यापक मूल्यांकन होना शेष है। इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि भारतीय साहित्य में रति सक्सेना एक बेजोड़ उदाहरण के रूप में इस अर्थ में भी है कि कैसे बहुत कम संसाधनों में बहुत बड़े-बड़े आयोजनों को सफलतापूर्वक आयोजित करना संभव हो सकता है उससे सीखा जा सकता है। उनका कवि-मन और वैश्विक कविता का सफर हम कृति ‘सफर के पड़ाव’ के माध्यम से देख-जान सकते हैं।   
    यात्रा और अनुभव हो अंतहीन होते हैं किंतु इस कृति में उन्होंने पांच शीर्षकों में अभिव्यक्त अपनी यात्राओं में अपने पाठकों भी सहयात्री बनाने का सफल प्रयास किया है। किसी भी यात्रा-वृतांत की सर्वाधिक सफलता उसकी भाषा में अंतर्निहित होती है। भाषा अनेक तथ्यों को रोचक ढंग से प्रस्तुत करती हुई शब्दों के माध्यम से अपने पाठक को उसी अनुभव लोक में फिर फिर लेकर जाती है। लेखक की सफलता इस बात से आंक सकते हैं कि वह अपने साथ हमें कितनी दूर तक साथ लेकर चल सका है। कहना होगा कि सिकंदर के देश में, स्त्रुगा की काव्य संध्या के बहाने लेखिका रति सक्सेना ‘स्त्रुगा पोइट्री इवनिंग’ का आनंद देती है साथ ही यहां बहुत कुछ नया जानने और समझने का अवसर भी पाठकों को मिलता है। यहां कवि-कविता के साथ-साथ बदलते समय और जीवन के संघर्षों को भी अनेक ऐतिहासिक तथ्यों के संदर्भ में समझने-समझाने का प्रयास किया गया है। यहां प्रत्येक यात्रा में अन्य देशों के जीवन के साथ भारतीय लोक-जीवन, अध्ययन, चिंतन से तुलनात्मक विवरण भी दिया गया है। “मैं सोच रही हूं कि हमारे देश के कितने पाठकों या कवियों को जानकारी भी है कि यह पुरस्कार अभी तक मात्र एक भारतीय कवि को मिला है, जिनका नाम अज्ञेय है। हम कितना गर्व कर पाते हैं इस उपलब्धि पर? वस्तुतः गोल्डन रीथ पुरस्कार विश्व का सबसे बड़ा पुरस्कार है, जो मात्र कविता के लिए है। यह सम्मान नोबल पुरस्कार से भी बड़ा है।” (पृष्ठ- 10)   
    किसी भी वैश्विक आयोजन में भाषा को लेकर जो बाधाएं और दुविधाएं होती हैं उनका यहां खुल कर वर्णन किया गया है। हम सोचते हैं कि अंग्रेजी वैश्विक भाषा है किंतु बहुत स्थानों पर किस प्रकार अंग्रेजी पंगु हो जाती है। अपनी इस विवश्ता को झेलना कितना संत्रास देता है। हम पढ़े-लिखे होते हुए भी मूक-बधिक अथवा कहें अनेक भाषाओं की जानकारी के बावजूद निरक्षर जैसे हो जाते हैं। ऐसे में यहां यह व्यंजित होना बेहद सुखद प्रतीत होता है कि मानवता और मानवीय संवेदनाओं की भी अपनी एक  भाषा होती है। कविता के देश मेडेलिन में ‘मैडेलिन पोइट्री फेस्टिवल, कोलंबिया’ के सिलसिले में वर्णित यात्रा-अनुभव ऐसे मशहूर फेस्टिवल में स्वयं के नाम पहुंचने के आश्चर्य से करते हुए लेखिका ने अनेक संदर्भों और जानकारियों को सोचकता के साथ साझा करते हुए कहीं भी स्वयं को अतिरेक में ले जाकर महान अथवा बड़ा साबित करने का किंचित भी प्रयास नहीं किया है।
    अलग-अलग देशों में भाषा के साथ-साथ खान-पान और रहन-सहन के तौर-तरीकों की भिन्नता भी होती है जिसका वर्णन अनेक स्थलों पर देखा जा सकता है। यहां रोचक होगा कि भारतीय स्त्री रति सक्सेना के मन में रुपये-पैसों को लेकर किस तरह की मितव्ययिता है। इसका हवाला अनेक स्थलों पर मिलता है जहां वे अन्य देशों की मुद्राओं से भारतीय मुद्रा में रूपांतरण के साथ विदेशों में महंगे जीवन के कसैलेपन को अभिव्यक्त करती है। जिसके खून में पैसे लुटाना अथवा अपव्यय करना नहीं हो वह कैसे अपने वैश्विक भ्रमण में फूंक-फूंक कर सावधानी के साथ आगे बढ़ती है कि उसे वैश्विक कविता आयोजनों की को-ऑर्डिनेटर कमेटी की मीटिंग में शामिल होने का सौभाग्य मिलता है। यह निसंदेह उनके अध्यनन, मनन और चिंतन का उपहार है जो उन्हें अपने कार्यों के फलस्वरूप एक वरदान के रूप में मिला है।
    सफर का हर पड़ाव अपने आप में मनोरम है। ‘अस्मिता की लड़ाई और भाषाई भूमिका, वैलश से ज्यादा कौन सिखा सकता है’ अध्याय में भाषा की बात करते हुए मुझे अपेक्षा रही कि लेखिका अपनी जन्मभूमि राजस्थान की मातृभाषा के विषय को छू लेंगी लेकिन ऐसा नहीं किया गया है। फिर भी इसे एक आदर्श उदाहरण के रूप में हम देख सकते हैं कि कृति में बीच-बीच में कविता और उसकी रचना-प्रक्रिया के साथ अनेक संवादों-कार्यक्रमों से सजी-धजी यह बानगी अपने आप में परिपूर्ण है। बेहद सधी हुई भाषा में यह कृति केवल डायरी अथवा अनुभवों का लेखा-जोखा ही नहीं वरन अपने आप में एक बड़ी कविता है। यह हमें रति सक्सेना के कवि-मन और उनके वैश्विक कविता के सफर से आलोकित- आह्लादित करती है।
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पुस्तक का नाम – सफर के पड़ाव (यात्रा-वृतांत)
कवि – रति सक्सेना
प्रकाशक – कलमकार मंच, जयपुर
पृष्ठ- 96
संस्करण - 2019
मूल्य- 150/-

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० डॉ. नीरज दइया


 


 

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सीख देती बाल कथाएं / डॉ. नीरज दइया

‘कर भला तो हो भला, अंत भले का भला’ जैसी अनेक उक्तियों में जीवन का मर्म है और इसे बच्चों तक पहुंचनाने में मदद करती है बाल कहानियां। ऐसी ही 13 बाल कहानियों का संग्रह है- अंत भले का भला। अब सवाल यह भी है कि क्या हम बच्चों के केवल और केवल पाठ ही पढ़ाना चाहते हैं। इसका जबाब है नहीं, हम बाल कहानियों के माध्यम से उनका मनोरंजन करना चाहते हैं और ऐसे में अगर मनोरंजक कहानियां पाठ भी पढ़ाएं तो बुराई कहां है। बाल कथाकार कुसुम अग्रवाल के इस संग्रह में ऐसी अनेक कहानियां गहरी सूझ-बूझ और बाल मनोविज्ञान को ध्यान में रखते हुए रची गई है।
    शीर्षक कहानी ‘अंत भले का भला’ में विजय को स्कूल जाते हुए रास्ते में एक आदमी बेहोश पड़ा मिलता है, वह उसकी मदद करता है। विजय स्कूल जल्दी पहुंचने की फिराक में था क्यों कि उसे देर हो चुकी थी। स्कूल में होने वाली चित्रकला प्रतियोगिता में वह भाग लेना चाहता था किंतु होने को कुछ दूसरा ही मंजूर था। उसे लगा इस बेहोश आदमी की मदद जरूरी है। पर यह क्या, मदद करना उसे भारी पड़ा। होश में आने पर सेठ जीवनराम ने उसी पर चोरी का आरोप लगाया। कहानी में लगाता है कि ऐसी भलाई करना बहुत महंगा पड़ता है। कहानी को इस तरह रचा गया है कि सांसे थम-सी जाती है। इसी बीच कहानी करवट लेती है और असली अपराधी को उसकी मां सामने लाती है। जाहिर है अंत में जीवनराम विजय को सीने से लगा लेता है। उस गरीब बच्चे की पढ़ाई-लिखाई का खर्चा स्कूल की तरफ से होना घोषित होता है। कहानी की अंतिम पंक्ति है- विजय ने सिर उठाकर देखा तो स्कूल की दीवार पर लिखा था ‘कर भला तो हो भला, अंत भले का भला है।’ (पृष्ठ-40) यह पंक्ति पहले भी लिखी हुई थी किंतु जिन परिस्थितों को पार करा कहानी में विजय को कहानीकार दिखा रहा है और उसके माध्यम से पाठकों को दिखा रहा है यह महत्त्वपूर्ण है।
    सरलता, सहजता और प्रवाहयुक्त भाषा में यह और संग्रह की अनेक कहनियां अपने उद्देश्य में सफल होती हैं। कहानी में एक अनुभव को बहुत कलात्मक ढंग से संप्रेषित किया गया है। किंतु फिर भी लेखिका को संग्रह के आरंभ में पांच पृष्ठ के समर्पण-आलेख में यह लिखने की आवश्यकता समझ से परे है- “कहानी ‘अंत भले का भला’ जिसके नाम पर मैंने इस पुस्तक का नामकरण किया है, यह कहती है कि भलाई का अंत सदा अच्छा ही होता है, सुखद ही होता है। भले ही प्रत्यक्ष रूप में हमें यह नजर ना आएं परंतु अंत में भले का फल भला ही होता है। अंत कभी-कभी परिस्थितिवश हमें निजी स्वार्थ को भूलकर परहित को प्राथमिकता देनी चाहिए।” (पृष्ठ-6) संभवतः यह लेखिका का अपने शब्दों पर अविश्वास है। उन्हें विश्वास रखना चाहिए कि यह जो बात वे समझा रही है वह तो कहानी खुद ही समझा रही है। ऐसी भूमिकाओं अथवा स्पष्टीकरणों से बचा जाना चाहिए। सभी कहानियों के बारे में लेखिका ने आरंभ में ही सब कुछ बता दिया है इससे जो मर्म कहानी से स्वतः प्रकट होना है वह एक दिशा में बंध-सा जाता है।
    संग्रह की पहली कहानी ‘जिद की हार’ बेहद मार्मिक है, इसमें दो दोस्तों महेश और विनोद को यादगार पात्रों के रूप में चित्रित किया गया है। जिद नहीं करनी चाहिए और जिद से क्या हो सकता है इसे बहुत सुंदर ढंग से कहानी में नियोजित किया गया है। इसी भांति ‘मेरी सखी’ कहानी में दो लड़कियां रीता और नीतू के माध्यम से दोस्ती का ऐसा रहस्य लेखिका ने सहजता से उजागर किया है कि इस बारे में किसी भूमिका में कहना कहानी को कमजोर करना है। छोटी-छोटी इन मार्मिक कहानियों को औसतन तीन पृष्ठों में साथ में दो पृष्ठों में चित्र देकर कलात्मक ढंग से पांच पृष्ठों में संजोया गया है। कहानियों में बच्चों की निडरता, बहादुरी, परिस्थितियों से समझ-निर्माण, अंतर्दृष्टि, सद्भावना, सत्यनिष्ठा जैसी अनेक भवनाओं पर प्रकाश डाला गया है।
    कहानी ‘अनोखा जादू’ संग्रह की सर्वश्रेष्ठ कहानी है जिसमें एक दोस्त के द्वारा दूसरे दोस्त की चोरी करने की आदत को बहुत शानदार ढंग से सुधारने का सबल प्रयास प्रस्तुत किया गया है। दोस्त के लिए उसकी भावनाओं को ठेस पहुंचाए बिना उसे बदलने का मार्ग देना कहानी की बहुत बड़ी बात है जो सरलता-सहजता से उजागर होती है। वहीं कहानी ‘कैसी दोस्ती’ भी दो दोस्तों की कहानी है मगर इसमें अपने नकलची दोस्त के बारे में आशू का परीक्षा परिणाम के बाद में शिक्षक को बताना और शिक्षक का नीरज के अंक काट लेना विश्वनीय नहीं है। कहानी की पंक्ति देखें- ‘सारी बात सुनकर अध्यापक ने नीरज की ओर देखा। वह सिर झुकाए खड़ा था, अध्यापक ने नीरज के सभी अंक काट लिए तथा उसे फेल घोषित कर दिया।’ (पृष्ठ-79) सवाल यह है कि यह कौनसा स्कूल रहा होगा जिसमें 100 अंक देकर अध्यापक बच्चे को फेल करने का अधिकार रखता है। जैसे दूध में जरा-सा जावण (दही) देते ही एक दूसरी प्रक्रिया आरंभ हो जाती है ठीक वैसे ही इस पूरे संग्रह के अंत में ऐसी असावधानी उस भले को बुरा करने के लिए पर्याप्त है। समग्र रूप से कहना होगा कि कुसुम अग्रवाल की कहानियां पाठकों को लंबे समय तक प्रभावित करती रहेंगी। वे बच्चों के जीवन के बहुत छोटे-छोटे प्रसंगों से मार्मिक कहानियां निर्मित कर देने में प्रवीण हैं।       
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पुस्तक : अंत भले का भला (बाल कथा-संग्रह)
कहानीकार : कुसुम अग्रवाल
प्रकाशक  : साहित्यगार, धामाणी मार्केट की गली, चौड़ा रास्ता, जयपुर
संस्करण : 2018, पृष्ठ : 80
मूल्य : 150

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समीक्षक : डॉ. नीरज दइया

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आईना वो ही रहता है / डॉ. नीरज दइया

गीतकार आनंद बक्सी ने लिखा था- ‘आईना वो ही रहता है, चेहरा बदल जाते हैं...’ ऐसे में ‘बचपन के आईने से’ बाल कहानी संग्रह का शीर्षक महज यह संकेत देता है कि लेखिका डॉ. शील कौशिक ने इन बाल कहानियों में बचपन के कुछ चित्र आईने की स्मृति से चुने हैं। डॉ. शीला कौशिक ने विविध विधाओं में लिखा है और बदलते चेहरों के अनेक चित्र प्रस्तुत किए हैं। ‘बचपन के आईने से’ संग्रह में 18 कहानियां है और उनसे पूर्व में उनकी दो टिप्पणियां भी है। संग्रह की भूमिका ‘बालकथा संग्रह के बहाने’ को लेखिका डॉ. शील कौशिक अपने बाल पाठकों को दादीजी बनकर उन्हें सामूहिक रूप से संबोधित करते हुए एक पत्र के रूप में लिखा है। बच्चों को वे अपने सृजन और पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में बताती हुई अपने मानकों और कहानियों की दुनिया की कुछ बातों को साझा करती हैं। इसके बाद ‘अपनी बात.... अभिभावकों से’ में वे बच्चों के माता-पिता और अन्य बड़ों से संबोधित होती हैं। बाल साहित्य के विविध मानकों में एक मानक यह भी है कि बाल साहित्य न केवल बच्चों को प्रभावित करे बल्कि वह बड़ों के लिए भी उतना ही उपयोगी और पठनीय हो। इस मानक पर यह कृति खरी उतरती है। कहानियों में ‘बचपन के आईने से’ नाम से कोई कहानी नहीं है, यह शीर्षक केवल कहानियों की पृष्ठभूमिक को स्पष्ट करता है।
पहली कहानी ‘जीरो से हीरो’ में उमा जैसी लड़की साधारण लड़की का प्रेरणास्पद संघर्ष है तो ‘झबरी और उसके बच्चे’ में बच्चों का जानवरों के प्रति प्रेम तो ‘गुल्लू बंदर’ में जानवरों का बच्चों के प्रति प्रेम उजागर हुआ है। मानवीय संवेदनाओं और ज्ञान का विस्तार ‘पहाड़ का रहस्य’ कहानी में देखा जा सकता है। इसमें पर्यावरण और प्रकृति के ज्ञान का विस्तार कहानी में बहुत सहजता से किया गया है। ‘ममता’ कहानी में पशुओं का प्रेम और समझ को रेखांकित किया गया है, वहीं ‘पोलियो मुक्ति’ में एक घटना प्रसंग को कहानी का आधार बनाते हुए जन चेतना की बात है। कहानी सकारात्मक बदलाव को रेखांकित करती है वहीं अंत में लेखिका ने नोट के रूप में लिखा है- ‘अब हमारा देश भी 2014 में सचमुच पोलियो-मुक्त घोषित हो चुका है।’ (पृष्ठ-29)
बाल साहित्य लेखन की बड़ी समस्या यह भी होती है कि बच्चों के विभिन्न आयु वर्ग लेखन के बहुत घटकों को प्रभावित करते हैं। ऐसे में बाल साहित्य के अंतर्गत ऐसी रचनाएं होनी चाहिए जो सभी बच्चों के लिए उभयनिष्ठ प्रभाव के साथ उन्हें दिशा देने वाली हो। संग्रह में ऐसी ही एक कहानी है- ‘मनु और कनु’ जो बचपन में नासमझी के कारण फूल-पत्तों और पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले बच्चों के लिए संकेत लिए हुए है। कहानी में पांच वर्षीय मनु अपनी छोटी बहन तीन वर्षीय कनु को चिटियां नहीं मारने और फूल-पत्तियों को नुकसान नहीं पहुंचाने का सहज संदेश देती है। ‘तुझे पता नहीं था ना कि गुलाब के फूल के साथ कांटे भी होते हैं, मना किया था ना तुझे, अब तुझे कितना दर्द हो रहा है, ऐसे ही इन फूलों को भी दर्द होता है। आईंदा फूल मत तोड़कर बिखराना समझी?’ (पृष्ठ-32) इसके बाद कनु को चींटियां जगह जगह काट गई कारण उसने बिस्तर पर बैठ कर बिस्कुट और केक खाया था। बहुत सहज संकेतों को कहानी में नियोजित कर किसी एक मुख्य उद्देश्य के साथ बहुत सी बातें सीखा-समझा सकते हैं। कहानीकार का यह कौशल है कि कहानी में सीखाने-समझाने का यह भाव आरोपित अथवा थोपा हुआ नहीं लगता, वरन सब कुछ घटना-प्रसंगों में सहज रूप से समायोजित किया गया है।
‘तोहफा’ कहानी किशोरोपयोगी है जिसमें मां और बेटे के संबंधों में जिम्मेदारी और जबाबदेही का अहसास है तो ‘साजिश’ कहानी में मोहल्ले की बूढ़ी दादी के पगली रूप का रहस्य मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। बच्चे भी हमारे समाज का अभिन्न अंग हैं, उन्हें अपनी समझ स्वयं विकसित कर गलत और सही का निर्णय लेने की दिशा में सदा अग्रसर होना चाहिए। संग्रह की अनेक कहानियां बहुत जीवंत घटना-प्रसंगों को कम शब्दों में समेटते हुए अनेक मार्मिक बातों को उद्घाटित करती हैं। ‘रंगों का जादू’ और ‘नन्हें जासूस’ कहानियों में समय सापेक्ष हिम्मत और अंतर्दृष्टि के विकास को देखा जा साकता है तो ‘दादी की सीख’ बालकों में सृजनात्मकता विकसित करने की दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम है।
‘तरकीब’ कहानी में नितिन की चोरी करने को एक नई तरकीब से पकड़ कर उसे पाठ पढ़ाया गया है और ‘अंधविश्वास’ में बालकों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास को कहानी के केंद्र में रखा गया है। समग्र रूप से कहा जा सकता है कि ‘बचपन के आईने से’ जो कुछ दिखता है अथवा लेखिका ने दिखाने का प्रयास किया है वह बेहद समयानुकूल है। संग्रह में कहानियों का आकार छोटा मगर घाव करे गंभीर जैसा है किंतु प्रकाशन में चित्रों को महज खानापूर्ति जैसे अंतजाल से उठा कर रख दिया गया है। बेहतर होता किसी चित्रकार को प्रकाशक द्वारा इस कृति से जोड़ा जाता तो इन कहानियों का प्रभाव द्विगुणित हो जाता। कहानियों के संबंध में पूर्व मेजर डॉ. शक्तिराज की फ्लैप पर लिखी टिप्पणी सार्थक है- “लेखिका की भावप्रवणता व बेहतर संप्रेषणीयता के कारण पाठक इनकी रचनाओं को आद्यंत पढ़ने को विवश हो जाते हैं। भाषा में क्लिष्ट शब्दों का प्रयोग न करके वे मुहावरों, लोकोक्तियां, उपमाओं, अलंकारों आदि से सजा कर अपनी रचनाओं को रोचक बना देती हैं।”
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पुस्तक : बचपन के आईने से (बाल कहानी-संग्रह) ; कहानीकार : डॉ. शील कौशिक ; प्रकाशक : सुकीर्ति प्रकाशन, करनाल रोड़, कैथल (हरियाणा) ; संस्करण : 2017 ; पृष्ठ : 88 ; मूल्य : 250/-
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डॉ. नीरज दइया 

("बाल वाटिका" के मार्च 2018 अंक में)

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फिर से बच्चों की भूतों से मुठभेड / डॉ. नीरज दइया

लेखन में डॉ. फकीर चंद शुक्ला एक जाना-पहचाना नाम है। नए बाल उपन्यास ‘साहसी बच्चे’ में आपका लेखक-परिचय पुस्तक के अंतिम आवरण के साथ ही भीतर तीन पृष्ठों में देखा जा सकता है। डॉ. शुक्ला ने पुस्तक के आरंभ में ‘चिंतन मनन’ के अंतर्गत बाल साहित्य के संबंध में अपनी अवधारणाओं पर दो पृष्ठों में प्रकाश डाला है। इस किशोरोपयोगी उपन्यास में अवधारणाएं और परिचय प्रभावित करने वाला है। लेखक की लंबी और सतत साहित्य-साधना का सम्मान करते हुए यहां कहना है कि भूमिका में वर्णित अवधारणाओं का प्रतिफलन पुस्तक मं नहीं हुआ है। भूमिका के अनुसार- ‘हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि आजकल के बच्चों का बौद्धिक अंश जब हम बच्चे होते थे की तुलना में कहीं अधिक है क्योंकि उनके लिए ज्ञान प्राप्ति के अनगिनत साधन उपलब्ध है। इसलिए उनमें कुछ नवीन जानने की जिज्ञासा बनी रहती है।’ प्रस्तुत उपन्यास ‘सहासी बच्चे’ में भूत-विषयक पुराने अंधविश्वास को दिखाना और फिर से बच्चों की भूतों से मुठभेड़ करना नवीन नहीं कहा जा सकता है।
उपन्यास की कथा दो दोस्तों मोहन और सुरेन्द्र की मजाक-मस्ती और चुहलबाजी प्रस्तुत करते हुए शहर से गांव का रुख करती है। दोनों पात्रों के नाटकीय संवाद और लेखकीय कौशल से उपन्यास के आरंभ में कौतूहल का भाव विकसित होता है। जब मामाजी के माध्यम से वे ननिहाल पहुंचते है और कहानी भूतों की दिशा का रुख करती है तो रहस्य पहले से ही चौपट हो जाता है।
लेखक का मानना सर्वथा उचित है कि ‘बच्चों के मनोविज्ञान को समझते हुए, उनकी आधुनिक आवश्यक्ताओं तथा रुचि के अनुसार ही साहित्य लिखना चाहिए’ साथ ही इससे भी सहमत हुआ जा सकता है कि किशोरावस्था जिंदगी की वह संवेदनशील अवस्था है, जहां भविष्य की नींव रखी जाती है। प्रस्तुत उपन्यास में उन्होंने किशोरों के जीवन में होने वाली सामान्य घटनाओं को आधार बनाकर यह रचना की है। लेखक को विश्वास है कि यह उपन्यास किशोरों को पसंद आएगा और प्रेरणाप्रद सिद्ध होगा। यहां यह विचारणीय है कि ‘सहासी बच्चे’ उपन्यास के माध्यम से वे इस आधुनिक समय में किस प्रकार के भविष्य की नींव रखते हुए प्रेरणा दे रहे हैं। भूतों की पोल खोलने वाली ऐसी अनेक कथाएं पूर्व में आ चुकी हैं।
कथानक के स्तर पर नवीनता नहीं होने के उपरांत भी प्रस्तुतिकरण में लेखक की निजता और भाषा के पक्ष को देखा जाना उचित होगा। बाल उपन्यास के आरंभिक अंश से एक वाक्य देखें- ‘वह इतना खुश था मानो उसकी लाखों रुपए की लॉटरी निकल आई हो।' (पृष्ठ-9) और दूसरा वाक्य इसी तर्ज का देखें- ‘पत्र पाकर तो वह ऐसे खिल उठा मानो लाखों रुपए की लॉटरी निकल आई हो।’ (पृष्ठ-39) यहा यदि हम बाल मनोविज्ञान की बात करें तो किसी मोहन के जीवन में लेखक का यह लॉटरी निकालने का सुख आधुनिक अभिव्यक्ति और किशोरीय जीवनानुभूति के अनुकूल नहीं है। मुहावरों का प्रयोग भाषा में निश्चय ही ज्ञानवर्धक होता है। यह लेखकीय कौशल होता है कि किसी मुहावरे को कहां और कैसे प्रयुक्त किया जाए। भाषा में नवीनता और विषय बोध की अनुकूलता के साथ बाल मन के बिम्बों से उनका साम्य भी देखा जाना चाहिए। वैसे भी वर्तमान संदर्भों में लॉटरी जीवन में कितना क्या महत्त्व रखती है!
कहा जाता है कि किसी रचना में सहजता और सरलता के बीच लेखक की अवधारणा का प्रत्यक्ष आरोपण नहीं होना चाहिए। इस उपन्यास को एक रचना के रूप में लिखते हुए लेखक डॉ. फकीर चंद शुक्ला ने जब कथा का सुंदर विन्यास चुना है। किशोर पात्र मोहन अपने दोस्त सुरेन्द्र के घर उससे मिलने जाता है। वहां प्रस्तुत दृश्य में सुरेन्द्र हाथ-मुँह धोने जाना चाहता है तब लेखक द्वारा उससे बच्चों की कुछ पत्रिकाएं मोहन को दिलवाने का उपक्रम एक ऐसी ही घटना है जिसे लेखकीय अवधारणाओं का आरोपण कहा जा सकता है। दूसरा उदाहरण इसी घटनाक्रम में आगे दिखाई देता है। इस वाक्य को उदाहरण स्वरूप देखें- ‘सुरेन्द्र वह पत्र लेकर यूँ ध्यान से पढ़ने लगा जैसे किसी समाचार पत्र में अपनी परीक्षा का परिणाम पढ़ रहा हो।’ यहां कथाकार आधुनिक होने के विकल्प के साथ अपने पुराने लोक में खोया हुआ प्रतीत होता है जहां परीक्षा परिणाम समाचार पत्रों में खोजा जाता है। यह एक विरोधाभास है कि आधुनिक तकनीक की पैरवी के साथ ही हम काल के अंतराल और समाजिक बदलाव को रचना में अभिव्यक्त करने से चूक जाते हैं।
उपन्यास के पढ़ते हुए बीच में ऐसा लगता है कि मुद्रण के समय भी संभवत कहीं कुछ अंश प्रकाशित होने में आगे का पीछे और पीछे का आगे हो गया है। इससे कथा-क्रम में बीच में थोड़ा अवरोध और व्यवधान आता है। उपन्यास के आरंभिक अंश में दो दिन बाद छुट्टियों की बात वर्णित हुई है और बीच में मोहन के विगत वर्ष में ननिहाल भ्रमण के अनुभव को साझा किया गया है। एक बार ऐसा लगता है कि इतनी जल्दी वह गांव कैसे पहुंच गया। उपन्यास में यहां से कुछ आगे मामाजी का आना और उनका लाख ना-ना करने के बावजूद भी मोहन की मां यानी उनकी बहन द्वारा दो दिन के लिए रोकना मोहन को अखरता है। अखरने का कारण बस यह है कि मोहन जल्दी से जल्दी गांव पहुंच जाना चाहता है। उसका गांव और ननिहाल के प्रति आकर्षण अस्वाभाविक नहीं है किंतु उस आकर्षण के कारणों को उपन्यास में लेखक द्वारा खोला जाना था। उपन्यास आरंभ में किंचित धैर्य से आगे बढ़ता है किंतु अंत में जैसे उसे भूतों पहुंचाने की जल्दबाजी प्रतीत होती है। इस लघुउपन्यास में सर्वाधिक प्रभावित करने वाली बात यह है कि प्रकाशन में अनुकूल साज-सज्जा प्रभावी है।

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सहासी बच्चे (बाल उपन्यास)
लेखक-     डॉ. फकीरचंद शुक्ला
प्रकाशक- वनिका पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली    
प्रथम संस्करण- 2016 ; पृष्ठ- 52 ; मूल्य- 110/-

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 डॉ. नीरज दइया

(बाल वाटिका जुलाई, 2018 में प्रकाशित)
 

 

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राजस्थानी कथा-साधना का प्रतिबिंब / डॉ. नीरज दइया

राजस्थानी के वयोवृद्ध लेखक देवकिशन राजपुरोहित ने हिंदी और राजस्थानी की विविध विधाओं में विपुल लेखन और संपादन कार्य किया है। अपनी साहित्य यात्रा ‘वरजूड़ी रो तप’ कहानी संग्रह से आरंभ कर ‘दो घूंट पाणी’ छठा कहानी संग्रह है जिसमें 20 राजस्थानी कहानियां संकलित है। राजस्थानी कहानी में एक धारा परंपरागत स्वरूप को लिए अविरल गति से प्रवाहमान है उसी धारा में इन कहानियों में वाचिक परंपरा और लोक रंजन की प्रमुखता देखी जा सकती है।
संग्रह की शीर्षक कहानी ‘दो घूंट पाणी’ राजस्थान की जल समस्या को लेकर रची गई कहानी है जो इस माटी के अनूठे संघर्ष की अभिव्यक्ति है, वहीं मानवीय मूल्यों और संवेदनाओं पर भी प्रकाश डालती है। लेखक राजपुरोहित की कहानी कला अपने सरोकारों और विशिष्टताओं के साथ एक विशेष धारा का पोषण करती है। वे अपने जीवन के विविध प्रसंगों और मानवीय संवेदनाओं से ओतप्रोत रची संग्रह की कहानियों में बहुत सी बातें जीवनानुभवओं और यथार्थ पर आधारित प्रस्तुत करते हैं। पेशे से शिक्षक रहे लेखक देवकिशन राजपुरोहित की इन रचनाओं में शिक्षा और संस्कारों के साथ इस धरा के विकास के विविध आयामों की लंबी दास्तान भी दिखाई देती है। संग्रह का सर्वाधिक उल्लेखनीय पक्ष कहानियों की भाषा है। भाषा में राजस्थानी जन-जीवन को वाणी मिली है। यह सतत अभ्यास और साधना का प्रतिफल है कि उनकी भाषा अपने पूरे लोक के अनेक रम्य चित्रों और अविस्मरणीय कथानकों से पाठकों को जोड़ती है।
इन कहानियों में केवल कलात्मकता अथवा मनोरंजन से इतर राजपुरोहित उद्देश्यपरकता को सर्वोपरि मानते हुए समाज को शिक्षा और संदेश देने की दिशा में प्रयासरत नजर आते हैं। प्रख्यात कवि-कहानीकार डॉ. मंगत बादल ने भूमिका में लिखा है- ‘आज का रचनाकार कला पक्ष में इतना खो जाता है कि पाठक को कभी कभी तो रचना भी समझ नहीं आती। ये कहानियों इस दोष से मुक्त है। श्री देवकिशन जी राजपुरोहित सीधी कहानी कहते हैं और वह पाठक के कलेजे में उतर जाती है।’
उम्र के इस मुकाम पर देवकिशन राजपुरोहित की सक्रियता और निरंतर रचनात्मकता ठीक वैसे ही नजर आती है जैसे कोई मनीषी राजस्थानी की कीर्ति पताका को लेकर अग्र पंक्ति में चलता जा रहा हो। निसंदेह यह कृति स्वागतयोग्य है।
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पुस्तक का नाम - दो घूंट पाणी (राजस्थानी कहानी संग्रह)
कहानीकार - देवकिशन राजपुरोहित
प्रकाशक - राजस्थानी ग्रंथागार, जोधपुर
पृष्ठ- 80
मूल्य- 200/-
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डॉ. नीरज दइया

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कविताओं में बाल-मन की सहजता-सरलता / डॉ. नीरज दइया

 

    बाल साहित्यकार दीनदयाल शर्मा से मेरा परिचय बहुत पुराना है। आपका साहित्य के प्रति निष्ठापूर्वक निरंतर कार्य करना हम सब को प्रभावित करता रहा है। भाई दीनदयाल शर्मा के पुत्र दुष्यन्त जोशी और दोनों पुत्रियां ऋतुप्रिया-मानसी शर्मा भी कविता लेखन में सक्रिय हैं, साथ ही कमलेश भाभी जी ‘टाबर-टोळी’ पाक्षिक के माध्यम से निरंतर साहित्य से जुड़ी हुई हैं। विविध विधाओं में स्वयं लेखन करना और अपने घर-परिवार-मित्रों को सतत सक्रिय बनाए रखना कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। हमारे भारतीय समाज में ऐसे गिने चुने परिवार ही होंगे, जहां साहित्य के प्रति इतनी कर्मठता-निरंतरता देखी जा सके।
    साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली से बाल साहित्य के लिए पुरस्कृत और प्रतिष्ठित साहित्यकार दीनदयाल शर्मा बेहद विनम्र है। आप विविध विधाओं में लिखते हैं। बाल साहित्य के साथ-साथ आप व्यंग्य, रेडियो नाटक, एकांकी और संस्मरण आदि पर आपकी अनेक कृतियां प्रकाशित हैं। हिन्दी भाषा के इस कविता संकलन ‘जहां मैं खड़ा हूं’ से पूर्व राजस्थानी भाषा में आपके अनेक कविता-संग्रह प्रकाशित हुए हैं।
    मेरा मानना है कि कवि दीनदयाल शर्मा मूलत: बाल साहित्यकार हैं। यही कारण है कि इस संग्रह की कविताओं में भी उनका वही बाल-मन सहजता-सरलता के साथ हमारा अनेक स्थलों पर स्वागत करता है। बाल मन की चंचलता, निर्मला, कोमलता और स्वच्छता आदि को यहां इन कविताओं में देख सकते हैं। कविताओं में घर-परिवार-मित्रों के साथ कवि की अपनी निजी दुनिया के अनेक घटनाक्रम और चित्रों से हमारा साक्षात्कार होता है। हम यहां शब्दों में जिस सहजता-सरलता के साथ मन की तरलता की अभिव्यक्ति देखते हैं वह प्रभावित करती है। कवि और कवि के संसार से जो हमारा परिचय पूर्व में रहा है, उसमें इन कविताओं द्वारा उत्तरोत्तर वृद्धि होती है। यही इन कविताओं की सार्थकता है।
    कविता संग्रह भाभी जी को समर्पित है, भाई दीनदयाल शर्मा जी और कमलेश भाभी जी को विवाह की 35 वीं वर्षगांठ पर मैं बधाई और शुभकानाएं देते हुए कामना करता हूं कि इनका कविता संग्रह ‘जहां मैं खड़ा हूं’ सभी पाठकों को पसंद आएगा।  
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पुस्तक का नाम – जहां मैं खड़ा हूं (कविता-संग्रह)
कवि – दीनदयाल शर्मा
प्रकाशक – सूर्य प्रकाशन मंदिर, बीकानेर
पृष्ठ- 112
संस्करण - 2021
मूल्य- 250/

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डॉ. नीरज दइया

05-09-2021


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युवा मन की भावपूर्ण कहानियां / डॉ. नीरज दइया

 समकालीन कविता, कहानी, आलोचना और अनुवाद के क्षेत्र में युवा लेखक डॉ. मदन गोपाल लढ़ा एक प्रमुख नाम है, जो विगत दो दशकों से राजस्थानी और हिंदी साहित्य में सक्रिय है। सद्य प्रकाशित हिंदी कहानी संग्रह ‘हरे रंग का मफलर’ उनकी अठारह कहानियों का संकलन है। शीर्षक कहानी में ही नहीं संग्रह की अन्य कहानियों में भी एक युवा मन के विविध भावों और खासकर मूक प्रेम की संयमित अभिव्यक्ति प्रमुखता से देखी जा सकती है। इस कहानी में कथानायक के यहां एक मफलर ‘गिफ्ट’ के रूप में पहुंचता है, जिसे अनुष्का ने भेजा है। ‘मैंने मफलर को गले में लपेटा तो ऊन के साथ अनाम रिस्ते की गर्माहट को भी करीब से महसूस किया।’ और कहानी फ्लैश-बैक में चलती है। कहानीकार बहुत सयंमित भाषा में परत-दर-परत संबंधों को बहुत ईमानदारी से उजागर करता जाता है कि कब, कहां, क्या और कैसे हुआ? और फिर उसके पास दस्तावेजी जन्मदिन पर उसका कोई ‘गिफ्ट’ पहुंचने लगा। कहानी के अंत में कथानायक की सात साल की बिटिया मफलर को देखकर बोली- ‘पापा यह तो मैं लूंगी।’ और कथानायक एकबारगी चौंकते हुए सहज होकर मफलर को उसके गले में डाल देता है। यह छोटी सी कहानी जो एक स्मृति के साथ एक बड़ी कहानी को प्रस्तुत करती है का समापन कथानायक के अपनी बेटी को करीब खींचकर मोबाइल से दोनों की सेल्फी लेने और ‘थैक्स वैरी मच’ के साथ अनुष्का को व्हाट्सएप करने की पंक्ति पर पूरी होती है।

            हमारे समाज में स्त्री-पुरुष के संबंधों को एक बंधे-बधाए सांचे के अंतर्गत ही देखते हैं और इन कहानियों में भी सांचों के समानांतर अनेक मनः स्थितियों को अभिव्यक्ति करते हुए संबंधों को नए सिरे से परिभाषित करने की मांग मुखरित होती है।            ‘बुद्धं शरणं गच्छामि’, ‘रेलवे स्टेशन’, ‘अधूरी पंक्ति’, ‘चमेली की महक’ और ‘सिर्फ अंधेरा’ आदि ऐसे ही मूक प्रेम अथवा प्रेम की राहों में पीछे छूट जाने को अभिव्यक्ति देती है, यह ऐसा प्रेम है जिसे संबंध के रूप में पहचाना तो गया है किंतु वह किसी प्रचलित परिभाषा से परिभाषित होने से वंचित रह गया है। कहनीकार मदन गोपाल लढ़ा की इन कहानियों में बहुत कोमलता के साथ आहिस्ता-आहिस्ता एक एक कर स्थितियों और मनोभावों को प्रस्तुत करना बेहद मार्मिक और प्रभावित करने वाला है कि वे बहुत कम शब्दों में जैसे छोटे कैनवास पर जीवन के बडे प्रसंग को रूपाकार करने में समर्थ-सिद्ध हैं।

            कहानी ‘एक्सरे’ में स्त्री-पुरुष जीवन की मानसिक संरचनात्मक-त्रासदी अभिव्यक्त हुई है कि विवाह पश्चात स्त्री अपनी सहनशीलता को बनाए रखती है किंतु दूसरी तरफ पुरुष अपनी पत्नी के विगत जीवन में किसी संबंध अथवा सामान्य लोक व्यवहार को भी ‘एक्सरे’ से परखने की प्रवृत्ति रखता है। संबंध कोई भी हो उसमें प्रेम का सूत्र समाहित होता है। ‘पारिजात का फूल’ कहानी में पारिजात और चमेली के फूल के माध्यम से नखत सिंह जी का मनोरम चरित्र प्रस्तुत किया गया तो कोरोना काल के समय को व्यंजित करती कहानी ‘इक मुस्कान जो खिली’ में रोज कमाकर खाने वाले परिवारों के संकट कि दिहाड़ी के नाम पर अपने परिवार का खाना मांग कर काम करने की मार्मिक अभिव्यक्ति है।

            मानव व्यवहार और संबंधों को परिभाषित करना अथवा मनोभावों को सहज रूप में जान लेना बेहद कठिन होता है। आधुनिक जीवन की दौड़-भाग और यांत्रिकता के बीच भी कुछ लोग ऐसे हैं जिनके कार्यों पर हम गर्व कर सकते हैं। ‘स्माइली जैसा कुछ’ कहानी ब्ल्ड-डोनर की तलाश में जीवन के सकारात्मक पक्ष की अभिव्यक्ति है। आधुनिक समय और समाज में कैपटाउन में बैठी फाल्गुनी अहमदाबाद के मरीज के लिए तीन हजार रुपये ऑनलाइन देकर जैसे पुन्न कमा रही हो। मदन गोपाल लढ़ा की इन छोटी-छोटी कहानियों में जैसे देश विदेश के अनेक स्थलों को समेटते हुए एक व्यापक और विशद परिदृश्य प्रस्तुत होता है। यहां कहानीकार के गुजरात प्रवास से संबंधित कुछ कहानियां भी हैं जैसे- ‘जमवानु तैयार छे’ संभवतः उनके व्यक्तिगत प्रसंग से जुड़ी एक कहानी है। मन कहीं कुछ कह और कर पाता है तो कहीं बस वह मूक रह जाता है। इन कहानियों का केंद्र स्मृति है और कहानी ‘किराये का घर’ में कथानायक ना चाहते हुए भी अपनी स्मृतियों में खोया स्वतः अपने पुराने किराये के घर के दरवाजे तक पहुंच जाता है।

            कहानीकार के अनुसार मन बड़ा चंचल होता है और उसे पग पग पर संभालकर रखना होता है। ‘मोड़ से पहले’ कहानी सड़क पर सफर करते ड्राइवर और खलासी की कहानी है जिसमें संयमित जीवन का संदेश है वहीं ‘नमकीन टेस्ट’ के माध्यम से व्यक्ति के चारित्रिक पतन को उजागर किया गया है। यहां यह उल्लेखनीय है कि पंजाबी के प्रख्यात साहित्यकार डॉ. जगविंदर जोधा ने इस पुस्तक के फ्लैप पर लिखा है- ‘हमारे पंजाबी की कहानी अत्यधिक नवीनता दिखाने की कोशिश में नाना प्रकार के कथा-प्रयोगों को ओढ़ लेती है। इससे कथा-रस क्षीण हो जाता है। इसकी तुलना में मदन गोपाल लढ़ा की कहानियां कहीं अधिक सरल एवं कथा-रस से सराबोर है। यह जमीन से उनके जुड़ाव को दर्शाता है।’ निसंदेह कहानीकार लढ़ा जमीन से जुड़े कहानीकार है और इन कहानियों की कलात्मकता इनकी सरलता-सहजता और सहज प्रवाह में जीवन की अभिव्यक्ति में निहित है।  

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पुस्तक का नाम – हरे रंग का मफलर (कहानी-संग्रह)
कवि – मदन गोपाल लढ़ा
प्रकाशक – इंडिया नेटबुक्स प्राइवेट लिमिटेड, नोएडा
पृष्ठ- 80

संस्करण - 2021
मूल्य- 350/-

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डॉ. नीरज दइया


 

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