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बाल साहित्य के वरेण्य लेखक गोविंद शर्मा/ डॉ. नीरज दइया

राजस्थान से जिन बाल साहित्यकारों का नाम भारतीय बाल साहित्य की अग्रिम पंक्ति में स्वीकारा जा सकता है, उनमें एक नाम गोविंद शर्मा है। वे राजस्थान के अब तक इकलौते ऐसे लेखक हैं जिन्हें साहित्य अकादेमी का ‘बाल साहित्य पुरस्कार’ (2019) बाल कहानी संग्रह ‘काचू की टोपी’ (2017) के लिए अर्पित किया गया है। इससे पहले भी वे जाने-पहचाने जाते थे, किंतु अकादेमी पुरस्कार के बाद उनकी छवि बाल साहित्यकार के रूप में रूढ़ हो चुकी है। साहित्य-यात्रा की बात करें तो स्वयं लेखक गोविंद शर्मा ने अपनी अनेक पुस्तकों की प्रस्तावनाओं और भूमिकाओं में लिखा है कि उन्होंने पहली बालकथा सन 1972 में लिखी और उन्हें बाल पाठकों के लिए लिखना बेहद प्रिय है। वे अब तक विविध विधाओं में पचास से अधिक पुस्तकें दे चुके हैं और उनमें बाल कहानियों की पुस्तकें सर्वाधिक है। यहां यह भी स्पष्ट करना जरूरी है कि वे विगत पचास वर्षों से नियमित रूप से बाल साहित्य के साथ-साथ लघुकथाएं और व्यंग्य आदि विधाओं में भी सक्रिय रहे हैं, किंतु केंद्रीय विधा बाल साहित्य और उसमें भी बाल कहानी है। बाल साहित्य के लिए ही आपको भारत सरकार के प्रकाशन द्वारा ‘भारतेंदु पुरस्कार’ (1999) और राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा ‘शंभुदयाल सक्सेना पुरस्कार’ (2000) आदि अनेक मान-सम्मान और पुरस्कार अर्पित किए जा चुके हैं। उनकी अनेक पुस्तकों के अंत में दिए परिचय में ऐसी सूची देखी जा सकती है।
    अन्य विधाओं के लेखकों की तुलना में बाल साहित्यकारों के संपूर्ण अवदान पर लिखना कठिन होता है क्योंकि उनकी सभी कृतियों को एक साथ प्राप्त करना बेहद कठिन कार्य है। बहुत सी किताबों की प्रतियां स्वयं लेखक के पास भी नहीं होती है और होती भी है तो केवल फाइल प्रति। दूसरा यह भी कि बाल साहित्य की किताबों की आवृतियां और रूप-संग-नाम बदल-बदल कर प्रकाशक अपनी व्यावसायिक सुविधाओं के अनुसार करते रहते हैं। तीसरी और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात यह भी है कि बाल साहित्य को अब भी साहित्य में जिस गंभीरता से लिया जाना चाहिए वह नहीं लिया जाता है। आलोचना के नाम पर बहुधा रचनाओं के सार को प्रस्तुत करते हुए टिप्पणियां देखी जाती है और कहीं-कहीं तो लेखक के यशोगान से ही समीक्षा की इतिश्री मान ली जाती है। जबकि बाल साहित्य लेखन, समीक्षा और आलोचना में भी लेखकीय गंभीरता, तुलनात्मक भाव और जिम्मेदारी- जिम्मेदारी-जवाबदेही की मांग अंतर्निहित है। जब हम गोविंद शर्मा के बाल साहित्य खासकर बाल कहानियों के अवदान पर चर्चा करते हैं तो सबसे पहला सवाल यही आता है कि उन्होंने अब तक कितनी बाल कहानियां लिखी है? यह शोध-खोज का विषय है। इसका सही सही उत्तर मेरे पास नहीं है किंतु यहां यह भी कहा जा सकता है कि साहित्य में इस प्रकार के संख्याजाल की आवश्यकता ही क्या है?
    यह सर्वविदित सत्य है कि हिंदी साहित्य को गोविंद शर्मा ने अनेक श्रेष्ठ बाल कहानियां दी हैं और उन्हें बाल साहित्य के वरेण्य लेखक के रूप में पहचना जाता रहा है। हम यह भी जानते हैं कि विपुल मात्रा में लेखन करने से ही कोई लेखक श्रेष्ठ अथवा महान नहीं हो जाता है। लेखन में तो वही श्रेष्ठ और महान माना जाता है जो कि किसी विधा विशेष में श्रेष्ठ देने के निरंतर प्रयासों में ऐसा कुछ रच देता है कि जिसे पढ़कर लगता है कि यह लेखक का विधा को श्रेष्ठत्तम अवदान है। गोविंद शर्मा के बाल कहानी साहित्य को देखेंगे तो उनकी अनेक कहानियां इस कसौटी पर खरी उतरने वाली है। सर्वाधिक चर्चित और साहित्य अकादेमी से पुरस्कृत कृति की शीर्षक कहानी ‘काचू की टोपी’ स्वयं में एक ऐसी अद्वितीय बाल कहानी है जो देशकाल की सीमाओं को लांघती हुई दूर तक यात्रा करने वाली कालजयी रचना है। गोविंद शर्मा की रचनाओं में श्रेष्ठता के अनेक सूत्र होने के प्रमाण में एक यह तथ्य भी वर्णित किया जा सकता है कि उनकी अनेक बाल कृतियों के अनुवाद विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनूदित होकर बेहद चर्चित रहे हैं। यह सिलसिला निरंतर जारी है। उनके कथा कौशल का ही यह प्रतिफल है कि राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत से ‘डोबू और राजकुमार’ (2010), ‘सागर में गागर’ (2019) और ‘सूरज का बिल’ (2023) जैसी अनेक पुस्तकें हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं।
     ‘डोबू और राजकुमार’ मूलतः एक रोचक बाल कहानी है जिसका राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत ने सचित्र स्वतंत्र पुस्तिका के रूप में प्रकाशन किया है। इस कहानी के माध्यम से लेखक रूढ़ अवधारणाओं को प्रति मूल्यांकन का भाव प्रस्तुत करते हुए उन्हें बदलने का आह्वान करता है। कहानी में बाल्यकाल में राजकुमार एक गधे के बच्चे को पसंद करता है और उसे दोबू नाम देता है। इस बाल कहानी का विकास मनोवैज्ञानिक ढंग से किया गया है कि डोबू द्वारा ऐसे अजब-गजब कारनामें कहानी में होते चले जाते हैं कि उसका महत्व प्रतिपादित होने लगता है किंतु गधे यह सब कैसे कर सकता है ऐसे में समाज के बने बनाए मूल्यों की साख गिर जाएगी। कहानी कहीं प्रत्यक्ष में कोई संदेश व्यक्त नहीं करती है किंतु बहुत गंभीरता से अपने पाठकों पर असर छोड़ती है। किसी लोककथा की भांति कथारस से भरपूर यह कहानी राजस्थानी लोकथा जगत को स्पर्श करती हुई रूढ़ समाज अवधारणाओं को ध्वस्त करते हुए उन्हें नई दृष्टि से देखने का बालकों को साहस देती है। किसी भी परिस्थिति को परंपरागत ढंग से देखना बुरी बात नहीं है, किंतु अपनी परंपरा में समय के साथ आधुनिकता के द्वारा परिष्कार और नए संदर्भों में परिमार्जन भी बहुत जरूरी है।
    राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत द्वारा सचित्र लघु-पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित बाल कहानी ‘सागर में गागर’ एक क्लासिक रचना के रूप में देखा जा सकता है। इस कहानी में एक गागर के माध्यम से लेखक ने न केवल बच्चों को सागर की सैर करा दी है वरन उन्हें कुछ रहस्यों से अवगत कराते हुए पर्यटन के महत्त्व को भी प्रतिपादित किया है। बाल साहित्य में बाल पाठकों की आयु का विशेष महत्त्व होता है जिसे इस पुस्तिका में विशेष रूप चिह्नित किया गया है। यह पुस्तिका आयुवर्ग 6 से 8 वर्ष के लिए है। इस कहानी में किसी परंपागत कहानी के रचाव का अनुसरण नहीं करते हुए आरंभ में एक बच्चे के हाथ से सागर में गगर को गिरते हुए प्रस्तुत किया गया है। यहां कोई रूढ़ बंधन भी नहीं है कि बच्चे ने गागर को खो दिया तो उसके घरवाले उसकी क्या हालत करेंगे। यह सर्वविदित सत्य है कि बच्चों और प्रकृति का गहरा रिश्ता होता है। वे प्रकृति के रहस्यों को जानना-समझना चाहते हैं। उन्हें ऐसे घटक बेहद पसंद होते हैं जो रोमांचकारी हो। बच्चों के मन के बहुत करीब जो जो कहे जा सकते हैं उनमें पानी और मछली प्रमुख नाम हैं। सागर की यात्रा में लेखक ने गागर के माध्यम से अनेक भेदों को खोलते हुए उसका संवाद मछलियों और चिड़िया से दिखाया है। गागर में बच्चों की कोमलता और भय की भावना भी प्रभावित करने वाली है। वह अंत में एक चिड़िया के लिए आश्रय स्थल बनती है और चिड़िया उसी गागर में अंडा देती है। कहानी को रोचक ढंग से अंत में पुनः बच्चों तक पहुंचाया गया है। ऐसा लगता है कि अपने अंत से यह कहानी फिर से आरंभ होती है। असल में यह कहानी पृथ्वी के गोल होने को भी प्रस्तुत करती है। गागर जैसी वस्तु का घूम-फिर कर वापस धरती पर आ जाना बच्चों के लिए बेहद सुखद है। ज्ञान, विज्ञान और मनोरंजन से भरपूर ऐसी रचनाएं बाल पाठकों को बेहद प्रभावित करती हैं।
    गोविंद शर्मा को बाल साहित्य में मुख्य रूप से पर्यावरण चेतना और विज्ञान लेखन के लिए भी जाना जाएगा। ‘सूरज का बिल’ नामक कहानी पुस्तिका को भी राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत ने प्रकाशित किया है। इस सुंदर, सरस और सहज लघु पुस्तिका में एक ऐसी बाल कहानी का रचाव हुआ है जिसमें सूरज और चांद का संवाद प्रस्तुत किया गया है। यह कृत्रिम वार्तालाप इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है कि वह आडंबर रहित और वास्तविक जैसा प्रतीत होता है। यह बेहद प्रासंगिक इसलिए भी है कि बच्चों को बचपन से ही ऊर्जा के विभिन्न रूपों के महत्व को यह पुस्तक रोचक ढंग से सीखने का काम करती है। यह पुस्तक आयुवर्ग 8 से 10 वर्ष के बच्चों के लिए प्रकाशित की गई है। इसमें ओजोन मंडल विषयक जानकारी भी प्रदान की गई है। सर्वाधिक उल्लेखनीय बात यह है कि यहां लेखक कहीं भी किसी बात को बेवजह आरोपित नहीं करता है, वह किसी बात में से नई बात को निकलने का कौशल रखते हुए कथा को इस प्रकार प्रस्तुत करता जाता कि कहीं भी कथा-रस भंग नहीं होता है जो इस कृति की अतिरिक्त विशेषता है।

    इसी प्रकार ‘दादाजी की अंतरिक्ष यात्रा’ (2022) और ‘यह कालीबंगा है’ (2022) जैसी कृतियों हैं जिन्हें कथा साहित्य की श्रेणी में तो नहीं रखा जा सकता है किंतु विज्ञान और इतिहास के अनेक रहस्यों को इन में सरस ढंग से उजागर किया गया है। दादाजी ने कभी अंतरिक्ष की यात्रा नहीं की किंतु वे पुस्तकों के माध्यम से इतना कुछ जानते हैं यह तथ्य निसंदेह पुस्तकों के महत्त्व को सुंदर ढंग से उजागर और प्रतिपादित करने वाला है। हमारी सभ्यताओं को जानने के सिलसिले में ‘यह कालीबंगा है’ पुस्तिका बेहद उपयोगी है। इस पुस्तक के माध्यम से इतिहास के ऐसे सच को सचित्र सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया गया है जिसके माध्यम से बाल पाठक अपने अतीत में और गहरे उतरने का प्रयास करेंगे। यह पुस्तिका उनमें धरती और आकाश विषयक रहस्यों के प्रति कौतूहल और जिज्ञासा के अनेक घटक जाग्रत में समर्थ है।
    जैसा कि पहले कहा गया है कि गोविंद शर्मा ने विपुल मात्रा में बाल साहित्य लिखा है। उनके समग्र बाल साहित्य के अध्ययन का सौभाग्य मुझे नहीं मिला है और यहां उनके बाल कहानीकार लेखन पर चर्चा के लिए मैंने उनके छह बाल कथा संग्रहों को मुख्य आधार पुस्तकों के रूप में लिया है- ‘काचू की टोपी’ (2017), ‘मुझे भी सिखाना’ (2019), ‘पेड़ और बादल’ (2020), ‘हवा का इंतजाम’ (2021), ‘सबकी धरती सबका देश’ (2022) और ‘गलती बंट गई’ (2023)। इसे ऐसे भी कहा जा सकता है कि दस-बारह किताबों के साथ यह प्रमुख छह बाल कहानियों की पुस्तकें मुझे प्राप्त हो सकी। इन पुस्तकों की कहानियों से गुजरते हुए मैंने पाया कि गोविंद शर्मा के बाल साहित्य लेखन में घर-परिवार और मानवीय संबंधों के साथ बच्चों के लिए नैतिक शिक्षा और संस्कारों पर खास ध्यान दिया गया है। जैसा कि हम जानते हैं कि बच्चों में पशु-पक्षियों और जंगल के प्रति बेहद उत्सुकता रहती है उनकी सुकोमल भावनाओं के अनुरूप अनेक कहानियों में ऐसी दुनिया को हमारी दुनिया के समानांतर रखा गया है, वहीं कुछ कहानियों का प्रमुख विषय विशुद्ध हास्य भी रखा गया है। विशेष बात यह भी है कि आज के सर्वाधिक ज्वलंत मुद्दे पर्यावरण के लिए इन कहानियों में सजगता और हमारे उत्तरदायित्वों को भी वर्णित किया गया है। बच्चों को मिठाइयां और कुछ त्योहारों का विशेष आकर्षण होता है। वे एक दूसरे से मिलने-जुलने और अपनी खुशियों को साथ मनाने में विश्वास रखते हैं इसी की पुष्टि इनकी कहानियों में देखी जा सकती है तो समाज में फैली रूढ़ अवधारणाओं और अंधविश्वासों को खंडित करने वाली भी अनेक कहानियां गोविंद शर्मा ने लिखी है। कहानियों में बाल पात्रों की चतुराई और समझदारी की बातों से निसंदेह वे इस दिशा में आगे बढ़ते हुए देशभक्ति, समाजसेवा और मानवीय मूल्यों का महत्त्व जान सकेंगे। यहां यह कहना आवश्यक है कि गोविंद शर्मा के लेखन में वैज्ञानिक दृष्टिकोण और आधुनिक सोच को प्रमुखता प्रदान करते हुए ऐसी कहानियों की दुनिया को सृजित किया गया है जिसमें बाल मन स्वतंत्र होकर विचरण करते हुए कुछ न कुछ सीखते हुए विकसित होता जाता है।
    वर्तमान समय में सबसे महत्त्वपूर्ण और ज्वलंत विषय पर्यावरण-चेतना है। इसी विषय पर सुंदर-सरस दस बाल कहानियां का संग्रह है- ‘पेड़ और बादल’। इस संग्रह की कहानियां बेहद प्रभावी ढंग से अपनी बात कहने का सामर्थ्य रखती हैं। संग्रह की शीर्षक कहानी ‘पेड़ और बादल’ में एक छोटी लड़की गुड़िया के माध्यम से पेड़ों के महत्त्व को बहुत सुंदर कथा-तत्वों के साथ स्थापित किया गया है। बादलों के बरसने का रहस्य पेड़ ही है, इस बात को गुड़िया और बादल के संवाद से सहज संभव करना यहां देखते बनता है। आज आधुनिकता और अद्यौगिक विकास के नाम पर पेड़ों को बचाना क्यों जरूरी है? खेती के अनेक संसाधनों के बाद भी वर्षा का जल क्यों जरूरी है? इन मुद्दों को कहानी स्पर्श करती है। विकास की आंधी में पेड़ों को जिस अंधाधुन गति से काटा जा रहा है, क्या उसी तेजी से बहुत जल्दी पेड़ हम उगा सकने में समर्थ हैं? यह सवाल को कहानी ‘नीम का बीज’ के माध्यम से प्रस्तुत करते हुए कहानीकार गोविंद शर्मा जहां विज्ञान की सीमाओं और संभवनाओं पर प्रकाश डालते हैं, वहीं पेड़ों को बचाने का संदेश भी देते हैं। कहानी को बाल मनोविज्ञान का निर्वाहन करते हुए वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ प्रस्तुत किया गया है। सरकारी स्तर पर ‘पानी बचाओ, बिजली बचाओ और सबको पढ़ाओ’ की बात क्यों जोर-शोर के साथ की जा रही है? इस बात को बच्चों को समझाने का दायित्व शिक्षकों और हमारे समाज का है। संग्रह में ‘जल कंजूस’ एक ऐसी ही बाल कहानी है जिसमें एक शिक्षक का अपने विद्यार्थियों से सीधा संवाद है। यह कहानी उनके पूर्व प्रकाशित बाल कहानी संग्रह ‘मुझे भी सिखाना’ से ली गई है। इन संग्रहों को कुछ कहानियों की पुनरावर्ती के अतिरिक्त सभी कहानियां नई हैं। ‘जल कंजूस’ कहानी बताती है कि कैसे बातों-बातों में ज्ञान की महत्त्वपूर्ण बातों को सरलता-सहजता से समझाया जा सकता है। बच्चे भी बड़े समझदार हो गए हैं। कहानी के अंत में एक बालक का यह कथन देखें- ‘यही की आपने पढ़ाने का मूड न होने का कह कर भी हमें पानी बचाने का पाठ पढ़ा ही दिया।’ इस बात पर सर केवल मुसकराये और बच्चे हंस दिए। ऐसा ही संदेश संग्रह की एक अन्य कहानी ‘जल चोर’ में देख सकते हैं। पानी बचाने की बात को हमारी जिम्मेदारी के रूप में ग्रहण करना समझना-समझाना इस कहानी उद्देश्य है।
        पशु-पक्षियों के लिए पर्यावरण का क्या महत्त्व है? जब आज हमारे गांव परिवर्तित और विकसित होते जा रहे हैं, तो जीव-जंतुओं और पशु-पखेरूओं के आवास स्थानों पर भी विचार किया जाना चाहिए। ‘हमें हमारा घर दो’ कहानी में बदलू के माध्यम से हरियल तोते की बात प्रस्तुत कर कहानीकार ने बाल मन को छूने का प्रयास किया गया है। ‘चलो, मेरी कठिनाई तुम्हारी समझ में तो आई। भैया, मेरी दोस्ती निभानी है, मुझे साथ रखना है तो गांव में रहो। खेती करो या शहर में गांव जैसा माहौल बनाओ। फिर मुझे बुलाना।’ हरियल तोता बदलू के हाथ के नए पिंजरे को घूरते हुए उड़ गया।
        आज की अवश्यकता है कि बच्चे जाने कि पेड़-पौधों में भी हमारी तरह जान बसती है। यह खोज करने वाले हमारे भारतीय वैज्ञानिक सर जगदीश चंद्र बोस की बातें आज भी कितनी उपयोगी और महत्त्वपूर्ण है। यह कहना बहुत सरल है किंतु इसी बात को किसी कहानी का आधार बनाना बेहद कठिन है। इस कठिन काम को सरलता से कर दिखाया है कहानीकार गोविन्द शर्मा ने अपनी कहानी- ‘पत्ते नहीं, कान’ में। यह कहानी में ‘मुझे भी सिखाना’ संग्रह से ली गई है। इस कहानी को दो छोटी-छोटी कहानियों या घटनाओं का समुच्चय कहा जा सकता है, जो दस वर्ष के अंतराल पर घटित होते हुए भी एक दूसरे से जुड़कर इसे संपूर्ण बनाती है। पहले प्रसंग अथवा घटना को दूसरे घटना-प्रसंग से जोड़ते हुए बहुत सुंदर कहानी को लेखक ने विकसित किया है। फूफाजी पूजा का प्रसाद खुद तैयार करते हैं और पूजा के लिए पेड़ से पत्ते तोड़ते हैं तो कथानायक का यह कहना- ‘फूफाजी, प्रसाद तो आप अपने हाथ से बनाकर चढ़ाते हैं, पर पत्ते किसी और के लगाए पेड़ से चढ़ाते हैं। कितना अच्छा होता यदि आप अपने हाथ से पेड़ लगाते और उसके पत्ते तोड़कर ले जाते।’ कहानी में यह कथन बड़ा मार्मिक है। नासमझ छोटा बालक नहीं जानता कि बड़ों से इस तरह बात नहीं की जाती है, किंतु उस समय फूफाजी ने उसका कान उमेठ दिया पर बाद में जब फूफाजी को इस बात का मर्म समझ आया तो उन्होंने खुद एक पेड़ लगाया और दस वर्ष के अंतराल में एक पेड़ के पास दूसरा पेड़ खड़ा हो गया। समय के साथ उनकी कुछ आदतें बदल चुकी है, किंतु कुछ पुरानी अभी भी शेष हैं। वे प्रसाद तो अब भी बनाते हैं किंतु पेड़ के पत्ते नहीं तोड़ते और बाद में उनका यह स्पष्ट करना कि पत्ते तोड़ते हुए उन्हें कथानायक के कान उमेठना का अहसास देते हैं बेहद मार्मिक हृदयस्पर्शी तथ्य है।
        राजस्थान की वनदेवी अमृता की कहानी हम नहीं भूल सकते हैं। शमी वृक्ष जिसे राजस्थान में खेजड़ी कहते हैं। इसी शमी की लकड़ी यज्ञ की समिधा के लिए बहुत पवित्र मानी जाती है। खेजड़ी को राजस्थान का राज्य वृक्ष घोषित कर दिया गया है। संग्रह की अंतिम कहानी ‘अमृता देवी ने बचाए वक्ष’ में इसी कहानी को प्रस्तुत किया गया है। संग्रह की अन्य कहानियों में भी पर्यावरण विषय को सराहनीय ढंग से प्रस्तुत किया गया है। मुझे नहीं लगता कि हिंदी अथवा अन्य भारतीय भाषाओं में पर्यावरण जैसे जटिल विषय पर इतनी सरस और सहज कहानियां लिखी गई है। इस संग्रह का अन्य भारतीय भाषाओं में अनूदित होने का एक कारण यह भी है।
    ‘गलती बंट गई’ संग्रह की शीर्षक कहानी में पॉलिथीन के प्रति चेतना जागृत करना उद्देश्य रहा है। जैसा कि मैंने पूर्व में उल्लेख किया है कि गोविंद शर्मा की अनेक कहानियां क्लासिक की श्रेणी में रखी जा सकती है यह कहानी भी ऐसी ही एक यादगार कहानी है जिसमें एक वाक्य या कोई शब्द भी कहीं अप्रत्याशित, अप्रासंगिक अथवा अस्वाभाविक नहीं लगता है। सहजता, सरलता और स्वाभाविकता ही कहानी को उल्लेखनीय बनाने के लिए पर्याप्त हैं। कहानी का नायक बब्बू गाय को सब्जी के छिलके फेंकने के क्रम में पॉलिथीन सहित कूड़ा ले जाता है और संयोग से गाय पॉलिथीन सहित सब्जी के छिलकों को खा लेती है और इस बात से बब्बू बहुत परेशान हो जाता है और उसे अहसास होता है कि उससे बहुत बड़ी गलती हो गई है। यह जिम्मेदारी और दायित्व बोध कहानी के अंत तक आते आते इस प्रकार परिवार में बंटता हुआ चित्रित किया गया है कि उसमें सहजता और सुंदरता के साथ स्वीकार का भाव प्रभावित करने वाला है। बब्बू की इस गलती में उसकी मम्मी, पापा, दादी और दादा भी शामिल हो जाते हैं। पॉलिथीन प्रयोग को बाधित करती यह बेहद प्रभावी कहानी है। इस कहानी में सर्वाधिक प्रभावशाली इसका अंत है जो बाल पाठकों को बेहद प्रभावित करने वाला है। जिसमें दादा जी द्वारा कहा गया है कि किसी गलती को गलती स्वीकार करना बहुत बड़ी बात है और सुधार के प्रेरित होता तथा भविष्य में उसे नहीं दोहराने का संकल्प बड़ा है। यदि हमसे अनजाने में कोई गलती हो जाए और हम उसे मान लेते कि हमसे गलती हो गई है और सोच ले कि आगे से ऐसी गलती नहीं करेंगे तो वह गलती गलती रहती ही नहीं, यह कथन निश्चित रूप से बहुत प्रेरक, यादगार और प्रभावशाली है।
    गोविंद शर्मा के बाल कहानी लेखन की यह विशेषता है कि वे जीवन से जुड़े किसी जरूरी मुद्दे को एक सामान्य घटना जैसे वर्णित करते-करते घटना से कुछ जरूरी सूत्र इस प्रकार सृजित करते हैं कि कहानी में जान फूंक देते हैं। ‘गलती बंट गई’ बाल कहानी घरों में सब्जी और अन्य सामान का पॉलिथीन में रखना मिलना एक सामान्य सी बात है। साथ ही यह भी सामान्य है कि कचरे को पॉलिथीन में इकट्ठा करते हैं और उस पॉलिथीन को ही फेंका जाता है जिसे जानवर बचे हुए खाने और सब्जी के छिलकों के मोह में पॉलिथीन को ही अहार बना लेते हैं। निसंदेह ऐसा उनके लिए जानलेवा और हानिकार साबित होता है। यह देशव्यापी ज्वलंत मुद्दा है और किसी बाल मन को इससे प्रभावित भी होना चाहिए, किंतु इस कहानी में बाल के मन के अवसाद को दूर करने के लिए सभी अपने-अपने स्तर पर अपनी गलती को स्वीकार करते हैं। इससे बालमन में किसी प्रकार की कुंठा अथवा हीन भावना विकसित नहीं होती है तो साथ ही जो सजगता निर्मित होती है वह इस कहानी को विशेष रचना के रूप में रेखांकित किए जाने के पर्याप्त है।
    ‘आजादी की खुशी’ एक बाल कहानी है जिसमें पुराने विषय और मूल्यों की स्थापना को नए ढंग से प्रतिस्थापित किया जाना प्रभावित करने वाला है। पिंजरा और तोता का प्रतीक-रूपक आजादी के संदर्भ में बहुत बार प्रयुक्त हुआ है किंतु यहां लेखक गोविंद शर्मा ने बच्चों की मानसिकता के साथ इस सत्य को अनुपम ढंग से उजागर किया गया है कि बच्चा पिंजरा लिए लिए तोते के पीछे घूमता है। आजादी के सुख के पीछे सभी दूसरे सुख फीके हैं। कहानी के अंत में राजू द्वारा पिंजरे को छत के कोने में जमा कबाड़ में फेंकना और मिट्ठू की तरफ देखकर उसे हाथ हिलाना निसंदेह उसकी खुशी का एक कारण है जो उसे अपने अनुभव से प्राप्त हुई है।
    बाल कहानीकार गोविंद शर्मा कहीं विषय में नए घटनाक्रम द्वारा रोचकता पैदा करते हैं तो कहीं भाषा और भाषा के घटकों द्वारा खेल खेल में नए अर्थ की तरफ बाल पाठकों को जाने के लिए उत्सुक कर देते हैं। बाल कहानी ‘शैतान’ में प्रस्तुत नए शब्द सामर्थ्य और पदों के द्वारा भाषा की ऐसी उम्दा कारीगरी प्रस्तुत होती है कि कहानी में छोटी बालिका द्वारा अपने बाल चातुर्य और शब्द सामर्थ्य के साथ भाषिक शक्ति प्रदीप्त होती दिखाई देती है। इसी प्रकार कहानी ‘गोलू के लिए गोलगप्पे’ बाल कहानी में ‘डीसीबी’ और ‘एनसीबी’ के फुल-फॉर्म ‘दादी चाट भंडार’ और ‘नानी चाट भंडार’ प्रस्तुत करना बालकों के लिए मनोरंजक है।

    ‘गलती बंट गई’ संग्रह की ही एक अन्य बाल कहानी ‘नया फैसला’ में भी बाल मन की चतुराई का एक अनुपम उदाहरण मिलता है जिसमें वह किसी सीधे-साधे परंपरागत फैसले को मानने को तैयार नहीं है। उसके वह हिम्मत और धैर्य के तार्किकता है कि वह किसी तयसुदा फैसले को आधुनिक संदर्भों और वैज्ञानिक दृष्टिकोण द्वारा जांचते-परखते हुए बदलने और युग सापेक्ष फैसला करने की क्षमता रखता है। बिना अनुमति के भूखे का फल खाना ऐसा अपराध नहीं है कि जिसके लिए हाथ काट दिए जाए। स्कूल की प्रार्थना सभा में अतिथि वक्ता द्वारा प्रस्तुत कहानी के संदर्भ में ऐसे साहस भरे कदम की सराहना होनी चाहिए। क्योंकि नायक के फैसले में उसके संर्दभों के साथ मानवीय मूल्यों और सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः की भावना निहित है।
    पेड़-पौधों और पक्षियों के प्रति प्रेम की अनेक कहानियां गोविंद शर्मा ने लिखी है जिनमें ‘रास्ते का पानी’ भी उल्लेखनीय कहानी है। इस कहानी में उस समय का वर्णन है जब राजस्थान में पानी का अभाव था और गांवों में दूर-दूर से पानी लाना पड़ता था। ‘सबकी धरती सबका देश’ कहानी संग्रह में ‘चोरी करना छोड़ दिया’ जैसी कहानी के द्वारा लेखक ने चूहा-बिल्ली और कुत्ते के माध्यम से एक नई दुनिया को समानांतर दिखाया है। इन कहानियों में सीधा साधा कठोर यथार्थ भले ना हो किंतु जो जिस रूप में प्रस्तुत हुआ है वह काल्पनिक होकर भी यथार्थ के रूप में प्रस्तुत हुआ है। बाल कहानियों में मूल उद्देश्य मनोरंजन और मनोरंजन के साथ शिक्षा को मानते हुए लेखक ने ऐसी अनेक कहानियां लिखी हैं जिनके कथानक बाल मन को छूने वाले हैं। यह कल्पना की एक नई दुनिया है जो बच्चों को कल्पना के पंख देते हुए उसे इस दुनिया के यथार्थ में जीने का भरोसा और विश्वास के साथ प्रवेश करने का मार्ग प्रस्तुत करती हैं।
    गोविंद शर्मा की सभी बाल कहानियों में जो भी पात्र बच्चे हैं वे बहुत भोले और मासूम दिखाई देते हैं। सर्वाधिक उल्लेखनीय कि उनमें जैसा बचपन अथवा बालपन होना चाहिए वह बचा हुआ है। वे शहर और आधुनिकता की हवा में इतने अधिक यांत्रिक और स्वच्छंद नहीं हुए हैं कि सीमाहीन दिखाई दें। बच्चों की कोमलता और भोलेपन को कहानी संग्रह ‘हवा का इंतजाम’ की शीर्षक कहानी में भी देख सकते हैं। इस कहानी में दादा संतलाल जी के लिए कहानी का मुख्य पात्र पांच वर्षीय पोता रघु शहर से कुछ गुब्बारे मंगवाता है जिससे दादा जी के लिए हवा का इंतजाम हो सके और वे उसके साथ गांव में रह सके। ऐसी प्यारी और मीठी बातों वाले पोते को दादा जी भी भला अपने थोड़े से सुख के लिए कैसे छोड़ सकते हैं। कहानी में जो युक्ति प्रयुक्त हुई है वह प्रभावित करने वाली है। इसी भांति बाल कहानी ‘चूहा गढ़ में चुनाव’ के माध्यम से लेखन ने कुछ ऐसी नसीहतें बच्चों को दी है जो देखने में बहुत सरल प्रतीत होती है किंतु उन्हीं बातों को प्रस्तुत करने का कौशल अद्वितीय है। चूहों के माध्यम से अनाज के महत्त्व को कहानी में प्रतिपादित किया गया है। अनाज को खराब अथवा बर्बाद नहीं करना चाहिए। यह बात चूहों की सभा और उनके वार्तालाप द्वारा बच्चों के मानस पटल पर अंकित होने की क्षमता रखती है। कहानी को इस प्रकार की सहज सरल भाषा में रचा गया है कि वह जींवत संवादों के माध्यम से जैसे किसी चलचित्र की भांति बाल पाठकों के समक्ष उभरने का सामर्थ्य रखती है।
    ‘वनराज और गजराज’ कहानी में शेर और हाथी के माध्यम से हमारे समाज में प्रत्येक महान व्यक्ति के महत्व को इंगित करते हुए कुछ ऐसी स्थितियां प्रस्तुत करने का प्रयास हुआ है कि बच्चों को यह अहसास होने लगता कि प्रत्येक में अपनी अपनी क्षमता होती है और उन क्षमता के विकास के साथ-साथ दूसरों की भावनाओं का सम्मान भी किया जाना चाहिए। वनराज शेर का गजराज का महत्त्व स्वीकार करना और भाईचारे का भाव कहानी को नए रंग देता है। इसी प्रकार ‘कला की कद्र’ हो अथवा ‘हौसले की उड़ान’ कहानी को देखेंगे तो उसमें सेठ जी के द्वारा कलाकार के साथ साथ उसे बचाने वाले आम आदमी के प्रति भी आदर का भाव है तो सेवा भाव को भी प्रमुखता देते हुए व्यक्ति के कार्यों और गुणों के महत्त्व को प्रतिस्थापित किया गया है।
    गोविंद शर्मा ने अब तक इतनी कहानियां लिखी हैं कि अब आश्चर्य होता है कि वे हर बार अपनी नई कहानी में नई जमीन को कैसे निर्मित कर लेते हैं। ‘जूते’ बाल कहानी में नए और पुराने जूतों का संवाद प्रस्तुत करते हुए एक छोटे से कृत्रिम घटनाक्रम से कहानी का रचाव देखने योग्य है इसी प्रकार ‘हाथी पर ऊंट’ कहानी में भी दोस्ती के महत्त्व के साथ नई कल्पनाओं को कहानी के रंगों में प्रस्तुत करने का हुनर दिखाई देता है। सच तो यह है कि बाल साहित्यकार गोविंद शर्मा की प्रत्येक कहानी अपने रचना संसार में एक परिपूर्ण दुनिया को प्रस्तुत करती है जिसमें बाल मन को स्पर्श करने की क्षमता है।
    ‘काचू की टोपी’ पुस्तक की शीर्षक कहानी बहुत चर्चित रही है। सच्चाई और ईमानदारी जैसे मूल्यों को इस शीर्षक कहानी में जिस नए अंदाज में प्रस्तुत हुए हैं वह अद्वितीय है। काचू की टोपी में उसका भोलापन और खुद की टोपी के लिए भी जिसे किसी ने चुराया और उसे बिना पूछे वापस लेने में भी चोरी का अहसास होना उसके एकदम सच्चे होने का प्रमाण है। क्या इतनी सच्चाई और ईमानदारी आज के युग में जिंदा है अथवा नहीं है तो क्या उसे जिंदा रखने की आवश्यकता नहीं है? यह कहानी ऐसे छोटे छोटे मासूस से सवाल छोड़ती है। नींद की सजा को अनायास ग्रहण करने और सजा के रूप में ग्रहण करने में विभेद को प्रस्तुत करने वाली इस कहानी के काचू को कौन सा ऐसा पाठक है जो एक बार पढ़ने के बाद भूल सकेगा। इसी संग्रह की बाल कहानी ‘दोस्ती का पुल’ में दोस्ती और अपनेपन भी भावना को उम्दा ढंग से प्रस्तुत किया गया है तो अन्य कहानियों का भी अपना अपना महत्त्व है। गोविंद शर्मा के बाल कहानियों के लेखन की यह तो एक छोटी सी झलक मात्र है। उनकी अनेक कहानियों पर बात की जा सकती है। बहुत से अन्य बाल कहानी संग्रह भी हैं जो मैं नहीं देख सका उनमें भी अनेक उम्दा कहानियां होंगी तो कुल मिलाकर यह कहना उचित जान पड़ता है कि लेखक गोविंद शर्मा ने बाल कहानियों के रचाव के अनेक मुकाम देखें-परखें हैं और अब वे सिद्धहस्त बाल कहानीकार के रूप में हमें ऐसी बाल कहानियां दे रहे हैं जिनसे बाल साहित्य का एक मानक निर्धारित हो रहा है। ऐसा बहुत कम हुआ है कि किसी लेखक की बाल कहानियां किसी क्लासिक रचना की भांति गहरे तक मन पर छाप छोड़े और वह लंबे समय तक स्मृति में किसी मीठी याद सी बनी रहे। यहां यह भी लिखना जरूरी है कि लेखक गोविंद शर्मा की लंबी और विपुल साहित्य साधना के बाद भी उन्हें जो मान-सम्मान मिलना चाहिए वह हिंदी आलोचना द्वारा नहीं दिया गया है। मूल्यांकन के अभाव के चलते उनकी पूरी यात्रा को अब तक देखा परखा नहीं गया है, मुझे विश्वास है कि यदि भविष्य में ऐसा होगा तो गोविंद शर्मा को हिंदी साहित्य के इतिहास में एक वरेण्य लेखक के रूप में रेखांकित किया जाएगा।
    गोविंद शर्मा के अधिकतर बाल कहानी संग्रह जयपुर से प्रकाशित हुए हैं और लगभग सभी संग्रहों में सुंदर चित्रों और आकर्षक साज-सज्जा द्वारा प्रकाशक ने पर्याप्त ध्यान देकर इनकी गुणवत्ता में श्रीवृद्धि करने का सराहनीय प्रयास किया है। बाल साहित्य की पुस्तकों में साज-सज्जा और अक्षरों को फोंट आदि पर भी ध्यान देने से उनकी उपयोगिता द्विगुणित हो जाती है। अंत में यह कहा जा सकता है कि बाल साहित्यकार गोविंद शर्मा के लेखन में सर्वाधिक उल्लेखनीय और प्रभावित करने वाले घटक की बात करें तो वह है कहानीकार का अपनी रचनाओं में बिना किसी उपदेशक की भूमिका ग्रहण करते हुए बाल मन के समक्ष सुंदर संदेश शिक्षा देने के भाव में मनोरंजन का पूरा पूरा ध्यान रखना और अपनी प्रत्येक कहानी को नई चुनौती के रूप में स्वीकार करते हुए उसमें सफल होना है। साथ ही यहां यह भी रेखांकित करने योग्य है कि गोविंद शर्मा भाषा और शिल्प के प्रति बेहद सजग लेखक हैं। वे ऐसी कलात्मकता को रूपाकार करते हैं कि जिसमें सहजता और सरलता से अपनी बात कही जा सके। उन्होंने निरंतर रचनात्मकता को बचाते हुए ऐसे हुनर को विकसित कर लिया है कि वे अन्य बाल कहानी लेखकों के लिए अनुकरणीय और वंदनीय हो गए हैं।
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समीक्षक : डॉ. नीरज दइया, बीकानेर (राज.)

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व्यंग्य ने जिसे चुना : प्रेम जनमेजय/ डॉ. नीरज दइया


 समकालीन हिंदी साहित्य में और खासकर व्यंग्य के क्षेत्र में एक बहुत बड़ा नाम है- प्रेम जनमेजय। यह पंक्ति मैंने बहुत सम्मानपूर्वक लिखी है, किंतु यह पंक्ति मेरी मौलिक अथवा निजी स्थापना नहीं है। यह सबका या कहें व्यंग्य को जानने वालों का मानना है, और यहां मैं ‘बड़ा नाम’ पद को प्रयुक्त करते हुआ कुछ डर रहा हूं। मेरे डर का कारण मेरे भीतर जो अदना सा एक व्यंग्यकार है वह बिना अवसर के भी कभी भी चेतन अवस्था में आ जाता है। मैंने मेरे लिए ‘अदना’ शब्द इस संदर्भ में प्रयुक्त किया है कि आदरणीय प्रेम जनमेजय जैसे बड़े व्यंग्यकार और संपादक के सामने मेरा इस क्षेत्र में कार्य बहुत सामान्य और थोड़ा-सा है। मैं अपने भीतर के व्यंग्यकार को रोकता हूं कि यह बात कहने की तेरी औकात नहीं है। मैं यह भी नहीं जानता हूं कि प्रेम जनमेजय जी की प्लैटिनम जयंती के अवसर यह बात कितनी उचित अथवा अनुचित है। किंतु कहावत है और लोग इसे रसीली मानते हैं। लोगों का तो यह भी कहना हैं कि बड़े आदमियों के दोस्त और दुश्मन दोनों होते हैं। मैं इन खेमों से दूर हूं और यह विश्वास के साथ कह सकता हूं कि प्रेम जनमेजय जिस प्रकार के लेखक हैं, उनके दुश्मन ढूंढ़ने से भी नहीं मिलेंगे। दोस्त तो उन के देश-विदेश में असंख्य हैं। खैर, जिस कहावत की तरफ मैंने संकेत किया उसे आप जान गए होंगे- ‘नाम बड़े और दर्शन छोटे’। मेरा दावा है कि यह कहावत भले कितनी ही रसीली हो, किंतु यहां इससे रस नहीं निकलने वाला है। माफ करें मुझे, मैं तो बस यहां आपको अपने पाठ की गिरफ्त में लेना चाहता था। प्रेम जी का नाम भी बड़ा है और उनके दर्शन भी। उनके पास ऐसा बहुत कुछ है जिनसे हम सीख सकते हैं।
    प्रेम जनमेजय जी अब उम्र के उस मुकाम जो पार कर रहे हैं जहां पहुंच कर मन होता है कि जो कुछ इस संसार से ग्रहण किया है पाया है उसे किसी न किसी रूप में लौटा दिया जाए। आपका रचना-संसार बहुत बड़ा और व्यापक है। जब मैंने उन्हें एक लेखक के रूप में जाना, तब वे बहुत बड़े लेखक के रूप में स्थापित हो चुके थे। मेरा यह वह दौर था जब मैंने जयशंकर प्रसाद के नाटक ‘जनमेजय का नाग-यज्ञ’ पढ़ा और ‘जनमेजय’ से मैं प्रेम जनमेजय की छवि देखता था। माना कि यह संज्ञा प्रसाद जी के नाटक में धनुर्धारी अर्जुन के पौत्र के लिए प्रयुक्त है, किंतु मेरे मन का क्या? वह तो जनमेजय के रूप में प्रेम जी से ही साम्य रखे हुए है। बाद में मैंने पढ़ते-लिखते जाना कि प्रेम जनमेजय के व्यंग्य अर्जुन के निशाने की भांति अचूक होते हैं। अर्जुन को जिस प्रकार चिड़िया की आंख के अलावा कुछ नहीं दिखता था, वैसे ही प्रेम जनमेजय जी की व्यंग्य को लेकर स्थिति है। हिंदी साहित्य में बहुत कुछ है, अनेक विधाएं हैं किंतु प्रेम जनमेजय जी का व्यंग्य को लेकर लंबे समय से समर्पण देखा जा सकता है। इसी के रहते यदि यह कहा जाए कि हिंदी साहित्य में उनको व्यंग्य के अतिरिक्त कुछ दिखाई नहीं देता है तो गलत नहीं होगा। वे चाहते तो साहित्य की अन्य अन्य विधाओं में भी सतत कार्य कर सकते थे। किंतु अब तक का हिसाब यह है कि आपने व्यंग्य के क्षेत्र में विपुल योगदान दिया है। व्यंग्य लेखन ही नहीं संपादन और व्यंग्य विधा के उन्नयन के लिए साथी लेखकों को प्रेरित प्रोत्साहित करने का कार्य किया है। वे हर बात का मर्म पहचानते हैं। वे बहुधा जो कहना है उसे कहने से नहीं चूकते हैं। कभी सीधे तो कभी लपेट कर बात कहते हैं। आज यदि व्यंग्य को स्वतंत्र विधा के रूप में जाना-पहचाना जाने लगा है तो इसे स्थापित करने में जिन प्रमुख रचनाकारों का नाम लिया जाता है, उनमें एक प्रमुख नाम प्रेम जनमेजय जी का है।
      प्रेम जनमेजय जी को मैंने पढ़ा तो बहुत पहले से था किंतु उनसे पहली मुलाकात मई, 2019 में बीकानेर और दूसरी सितंबर, 2021 में श्रीगंगानगर में हुई। उम्मीद पर दुनिया कामय है इसलिए तीसरी मुलाकात भी जल्दी होगी ऐसा मानते हुए यहां कहना चाहता हूं कि दूसरी मुलाकात काफी सघन और यादगार रही। हुआ यूं कि सृजन सेवा संस्थान और नोजगे पब्लिक स्कूल, श्रीगंगानगर के द्वारा आयोजित ‘राष्ट्रीय व्यंग्य संगोष्ठी’ में भाई कृष्ण कुमार ‘आशु’ ने आदरणीय हरीश नवल, सुभाष चंदर और प्रेम जनमेजय जी के साथ-साथ बीकानेर से मुझे और बुलाकी शर्मा आदि को भी कार्यक्रम में आमंत्रित किया था। जैसा कि मैंने कहा कि मैं प्रेम जनमेजय जी से ‘प्रभावित’ तो था, किंतु इस दूसरी मुलाकात के बाद ‘बेहद’ विशेषण के रूप में जुड़ गया है। मेरे बेहद प्रभावित होने के कारणों को जब मैं तलाशता हूं तो पाता हूं कि आदरणीय प्रेम जनमेजय जी के साथ जब आप होते हैं तो बहुत अच्छा लगता है। वे बेहद उदारमना और मित्रवत लेखक के रूप में व्यवहार करते हैं। यदि मुझे कहने की अनुमति हो तो यहां यह तक कह सकता हूं कि वे साहित्य परिवार के एक बड़े-बुजुर्ग की भांति स्नेह लुटाने में कोई कमी नहीं रखते हैं। ऐसा नहीं है कि उनका भरपूर स्नेह केवल मुझे मिला हो, जो भी उनके संपर्क में आए है उसे यह अनुभूति अवश्य हुई है कि वे अपने सभी साथी रचनाकारों को अग्रजों और अनुजों सरीखा मान-सम्मान प्यार-दुलार देते हैं। उन पर मुग्ध होने का एक कारण यह भी है कि वे हर किसी से बड़े आदर और सम्मान के साथ मिलते हैं, उनके अपनेपन की एक महक चारों तरफ बिखरी मिलेगी आपको।
    केवल हंसमुख और मिलनसार स्वभाव प्रेम जी की खासियत नहीं है, खासियत है इन सब को हमारे बर्तमान समय और लेखक-समाज में बचाए रखना है। आज के दौर में जब आदमी अनेक क्षेत्रों में कार्यरत रहता है तो उसके पास इतना समय नहीं होता है कि वह सब को पर्याप्त समय दे सके। घर-परिवार, मित्र, सगे-संबंधियों के बीच ‘व्यंग्य-यात्रा’ का नियमित प्रकाशन-संपादन निसंदेह एक बहुत बड़ा काम है। वे पत्रिका के साथ अपने वरिष्ठ लेखकों पर पुस्तकें लिख रहे हैं, संपादित कर रहे हैं और साथ में खुद का नियमित लेखन। इन दिनों ऑनलाइन पत्रिका भी हमारे समाने हैं। कभी-कभी आश्चर्य होता है कि वे इतना समय कैसे निकाल लेते हैं!
    प्रेम जनमेजय जी की सफलता का सबसे बड़ा रहस्य है- उनका लगातार व्यंग्य के क्षेत्र में कर्मठता से सक्रिय रहना। आपके अब तक तेरह व्यंग्य संकलन, तीन व्यंग्य नाटक, दो संस्मरणात्मक कृतियां प्रकाशित हो चुकी हैं। अनेक विश्वविद्यालयों द्वारा आपकी रचनाओं पर शोध कार्य हुए हैं। प्रेम जनमेजय जी की लंबी साहित्यिक-यात्रा पर विस्तार से लिखा जा सकता है। किंतु यह सच्चाई है कि मैंने आपकी सभी व्यंग्य रचनाएं पढ़ी नहीं है, इसलिए व्यंग्य-अवदान पर लिखना फिलहाल टालते हुए यहां मैं संक्षेप में उनके सद्य कविता-संग्रह ‘मेरी नादान काव्याभिव्यक्तियां’ पर अपनी बात केंद्रित करना चाहता हूं। यह चर्चा यहां इसलिए भी जरूरी लगती है कि हाल ही में प्रेम जनमेजय जी को साहित्य अकादेमी ने कविता पाठ के लिए आमंत्रित किया है और कुछ मित्रों का कहना है कि प्रेम जी ने पाला बदल लिया है। मेरा कहना है कि यह जल्दबाजी में दिया गया बयान है। क्योंकि व्यंग्य ने जिसे चुना बह प्रेम जनमेजय है और वे कविता या किसी अन्य विधा क्षेत्र में रहते हुए भी व्यंग्य की ही बात करेंगे।     प्रेम जनमेजय जी ने अपने कविता संग्रह ‘मेरी नादान काव्याभिव्यक्तियां’ में अपनी बात ‘सुप्त काव्यकीटक का पुर्नजागरण’ शीर्षक से लिखी है। जिसमें उन्होंने लिखा है कि वे व्यंग्य लेखन में बाद में आए, उससे पहले कहानीकार और कवि के रूप में काफी काम किया था। कविता-संग्रह का श्रेय वे हरीश नवल जी और डॉ. संजीव जी को देते हुए बहुत सी बातों को भूमिका में विस्तार से लिखा गया हैं। इसी संग्रह में कवि-आलोचक दिविक रमेश और नीरज कुमार मिश्रा के आलेख हैं। ये दोनों आलेख प्रेम जी की कविता के पक्ष में लिखे गए हैं, जो इन कविताओं की पृष्ठभूमि के साथ समझने में बेहद सहायक कहे जा सकते हैं। सब कुछ गुडी-गुडी होने के बाद भी मेरा मानना है कि इस पुस्तक का प्रकाशन जल्दबाजी में किया गया है। हालांकि प्रेम जनमेजय जी ने लिखा है- “मैं अपनी किताब पर गंभीरता से काम करता हूं और कच्चापन बर्दाशत नहीं।” साथ ही इस कृति के लिए उन्होंने ‘तुतलाते साहित्य’ पद प्रयुक्त किया है। प्रेम जी की इस बात पर संदेह नहीं है कि वे किताब पर गंभीरता से काम करते हैं किंतु प्रकाशक ने यहां उनकी गंभीरता को खंडित किया है।
    संग्रह के विषय में सर्वप्रथम तो यह कि इसमें प्रेम जनमेजय की अलग-अलग दौर और मनःस्थितियों में लिखी कविताएं संग्रहित है। अच्छा होता कि कविताओं के साथ उनका रचनाकाल भी दिया जाता। दूसरा यह भी कि अनेक स्थलों पर प्रूफ की भूलों के साथ ही अनुक्रम में पृष्ठ संख्या दर्ज नहीं है। साथ ही कुछ कविताओं को किसी अन्य कविता के हिस्से के रूप में मर्ज कर दिया गया है। यह जिसे आप ‘तुतलाते साहित्य’ और ‘नादान’ जैसे नामों से परिचित करा रहे हैं इसमें भी नादानी अथवा अभिव्यक्ति की कमी नजर नहीं आती है। प्रेम जनमेजय गहरे अध्येयता और साहित्य के रसिक रहे हैं साथ ही लंबे समय तक प्राध्यापक के रूप में साहित्य से जुड़े रहे हैं। आप ने देश-विदेश के अनेक विश्वविद्यालयों में अपनी सेवाएं दी है। ऐसे में कोई कैसे मान सकता है कि हिंदी कविता के बदलते मिजाज से आप पूर्णरूपेण परिचित ही नहीं हैं, ये सभी नादानियां भी है तो सोच समझ कर पूरे होश-ओ-हवास के साथ है। यह जरूर है कि आपने नियमित रूप से कविताएं नहीं लिखी किंतु एक लंबे दौर- छायावद से नई कविता की महक इन कविताओं में है। विद्यार्थियों को आपने अनेक हिंदी कवियों की कविताओं के मर्म को समझाया है। वे इस क्षेत्र के ओर-छोर से पूर्णतः परिचित हैं।
    ‘प्राध्यापक’ शीर्षक से छोटी व्यंग्य कविता है, जिसमें कवि ने विनोद किया है- ‘नवीन, कुंजियों को/ नक्ल अक्ल से कर-कहने वाली/ -एक मशीन-’ इसके पश्चात की कविता जिसे अनुक्रम में ‘मॉड’ शीर्षक दिया है उसे भी इस कविता के हिस्से के रूप में मर्ज कर प्रस्तुत करने की नादानी यहां जरूरी हुई है। शिक्षक और विद्यार्थी के ज्ञान और संबंधों के विषय में विरोधाभास को वे व्यंग्य के माध्यम से वे उजागर करते हैं। गहरे व्यंग्य का स्वर भी अनेक कविताओं में प्रमुखता से देखा जा सकता है।    
    इस संग्रह में संकलित कविताओं में बदलती काव्य-भाषा के विभिन्न रूपों को देख सकते हैं, वहीं छंद-गीत और नई कविता के अनेक अयामों को उद्घाटित होते भी देखा जा सकता है। ‘हमारा हिंदी गीत’ में हिंदी की महिमा का गान हुआ है, तो जहाजी चालीसा और मुक्तक-दोहा आदि का भी अपना महत्त्व है। ‘कुछ मुक्तक’ के साथ ‘असफल गीत’ को मिला कर मुद्रित किया गया है। संभवतः अनुक्रम में चार खंडों को करने का प्रयास हुआ है किंतु जितनी और जैसी गंभीरता से संपादन-प्रकाशन का काम होना चाहिए, वह इस संस्करण में नहीं हुआ है। ऐसा लगता है कि सुप्त काव्यकीटकों को फिर से सुलाने का कुछ काम जाने-अनजाने में हुआ है। इतना सब कुछ होने के बाद भी ऐसा बिल्कुल नहीं है कि ‘ऊंची दुकान फीके पकवान’। पकवान तो मीठे ही हैं, जितना उन्हें मीठा होना चाहिए था। बस इन पकवानों को अगर आप पहचान सकेंगे तो निसंदेह इस कृति को पढ़कर आनंद आएगा। यह प्रेम जनमेजय की अतिरिक्त मेधा का परिचय देने वाली कृति है। मेरा मत है कि यह कृति असल में आनंद देने-लेने के लिए ही तैयार की गई है। कवि ने श्री नागार्जुन से क्षमा-याचना सहित एक कविता ‘आपात अकाल चर्चा’ इस संग्रह में संकलित की है, जिसे अनुक्रम में ‘आकाल-चर्चा’ नाम दिया गया है। साथ ही यह कविता ‘पत्रोत्तर’ के नीचे प्रकाशित हुई है। कविता का अंश देखिए- ‘बहुत दिनों तक जनता सोई/ संसद रही उदास/ बहुत दिनों तक पत्नी सोई/ डरे पति के पास।’ ऐसी पेरोड़ी व्यंग्य कविता कोई अकवि अथवा कुकवि नहीं लिख सकता है इसलिए मेरा मत है कि बेशक यह हिस्सा आपके साहित्य में तुलनात्मक रूप से बहुत छोटा हो किंतु यह एक जरूरी हिस्सा है जिसे देखा-समझा जाना चाहिए। प्लैटिनम जयंती के अवसर पर आदरणीय कवि प्रेम जनमेजय जी को अपार शुभकामनाएं।
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डॉ. नीरज दइया



 






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लघकथा विधा सूं ‘भ्रमर’ री अपणायत/ डॉ. नीरज दइया

    भंवरलाल ‘भ्रमर’ राजस्थानी रा चावा-ठावा कहाणीकार अर संपादक रूप जाणीजै। आपरा तीन कहाणी-संग्रै ‘तगादो’, ‘अमूझो कद तांई’ अर ‘सातूं सुख’ घणा चर्चित रैया। कहाणियां रै अेक संपादित संग्रै ‘पगडांडी’ रो जस ई आपरै नांव। बाल उपन्यास ‘भोर रा पगलिया’ अर लघुकथा संग्रह ‘सुख सागर’ (1997) ई राजस्थानी में छप्योड़ा। आपरै संपादक-रूप री बात करां तो ‘मनवार’ (1981) नांव सूं कहाणी पत्रिका काढी, जिण रो फगत अेक अंक ई साम्हीं आयो। मुरलीधर व्यास ‘राजस्थानी’ री प्रेरणा सूं राजस्थानी कहाणी रै विगसाव सारू आप घणा जतन करिया। कहाणी विधा रै विगसाव नै लेय’र ‘मरवण’ (1986) नांव सूं अेक तिमाही पत्रिका आप बरसां-बरस आपां साम्हीं राखी। ‘मरवण’ सूं अेक कथा आंदोलन री सरुआत हुई। इण रा कहाणी-अंक, व्यंग्य अंक अर ‘कनक सुंदर’ उपन्यास अंक बरसां याद करीजैला। इणी ढाळै आप राजस्थानी भाषा साहित्य अेवं संस्कृति अकादमी बीकानेर री पत्रिका ‘जागती जोत’ रै अेक अंक संपादित करियो। इण नै लघकथा विधा सूं ‘भ्रमर’ री अपणायत ही कैय सकां कै बां लघुकथा विधा री सबळी ओळखाण खातर ‘अपणायत’ (1996) नांव सूं अेक पत्रिका सरु करी।
    पत्रिकावां रै इतिहास मांय भंवरलाल ‘भ्रमर’ री इतिहासू भूमिका मानी जावैला क्यूं कै कोई पण लघुपत्रिका काढणी अर उण नै चलावणी घणो अबखो काम है। कैवै कै पत्रिका काढणो हाथी पाळणो हुवै। नफै री बात तो कठैई कोई कोनी, इण सूं खुद री रचनात्मकता अर पइसा-टका रो नुकसाण ई साफ निजर आवै। संपादन नै केई-केई स्तर माथै सैयोग चाइजै। आर्थिक समस्या हल करै तो ढंग री रचनावां री समस्या अर उण रै संपादन पछै छापैखानै री समस्या। आजकलै तो छपाई कंप्यूटराइज हुया केई सुभीता हुया है भ्रमर जी री टैम राजस्थानी नै लेय’र छापाखाना री घणी अबखाई ही। अबखाई तो हाल ई है कै राजस्थानी नै सावळ टाइप करणियां टाइपिस्ट साव कमती है जिका नै इण काम री जाणकारी है। भ्रमर जी रै साम्हीं आयै छपाई रै अबखै काम में सदीव राजस्थानी रा विद्वान लेखक माणक तिवाड़ी ‘बंधु’ रो मोटो सैयोग रैयो। तिवाड़ी जी खुद प्रेस लाइन सूं जुड़ियोड़ा हा अर ‘मरवण’ अर ‘अपणायत’ रै प्रकाशन नै लेय’र बां घणी मैनत करी। ‘अपणायत’ रो चौथो अर पांचवो अंक कंप्यूटराइज हुवण सूं उणां में लारलै अंक सूं फरक साफ-साफ निगै आवै। अबै जरूरत ‘अपणायत’ अर दूजी दूजी पत्र-पत्रिकावां रै पीडीएफ का इमेज रूपां नै इंटरनेट रै हवालै सूंपण री जिण सूं आगै रै सोध-खोज रै कामां मांय सुभीतो हुवै। अबै अपणात पत्रिका का किणी दूजी पत्रिका का जूना अंक कठै मिलै अर बां बाबत पुखता जाणकारी ई कठै। राजस्थानी मांय इण ढाळै रै कामां री अंवेर हुवणी चाइजै।
    विगतवार बात करां तो लघुकथा विधा रै विगसाव नै लेय’र भंवरलाल ‘भ्रमर’ घणी हूंस साथै ‘अपणायत’ नै तिमाही रूप काढण री योजना बणाई ही। पत्रिका रो पैलो अंक मार्च, 1996 मांय पाठकां साम्हीं राख्यो। पत्रिका रो दूसरो अंक जून में आवणो हो पण नीं आय सक्यो। बरस 1996 रा लारला दोय अंक-  सितंबर अर दिसंबर में बगतसर प्रकाशित हुया। उण पछै बरस 1997 रै दिसंबर महीनै में ‘अपणायत- 4’ आपां साम्हीं आवै, उण पछै अेक मोटो गेप अर ‘अपणायत- 5’ रो अंक दिसंबर, 2007 में पाठकां साम्हीं आवै। इण कमी रै छता अठै आ कम मोटी बात मानीजैला कै कोई संपादक राजस्थानी में लघुकथा विधा री स्वतंत्र पत्रिका का पांच अंक काढ्या। अपणायत रो छठो अंक तैयार जरूर करीज्यो पण प्रेस में अटकग्यो अर पछै इण ढाळै रो कोई काम राजस्थानी में कोनी हुयो।
    आज देखां तो राजस्थानी री कोई पत्रिका लघुकथा रै विगसाव पेटै समरपित कोनी। बगत-बगत माथै पत्रिकावां में लघुकथावां छापै पण दुर्गेश टाळ कोई दूजो लेखक कोनी जिण सूं लघुकथा विधा री का उण लेखक री ओळखाण राजस्थानी लघुकथाकार रूप बणी हुवै। फगत अेक पत्रिका- ‘राजस्थली’ है, जिकी बरसां पैली लघुकथा केंद्रित विशेषांक काढ्यो। इणी ढाळै जे लघुकथा रै संपादित ग्रंथां री बात करां तो इण विधा रो पैलो संपादक हुवण रो जस कवि श्याम महर्षि नै जावै, बांरै संपादन में अेक लघुकथा संग्रै प्रकाशित हुयो। प्रयास संस्थान अर रामकुमार घोटड़ इण दिसा में काम करिया है अर ‘मिणिया मोत’ नांव सूं पैलो व्यवस्थित संपादित लघुकथा संग्रै साम्हीं आयो। काम तो केई हुया अर भळै ई हुवैला पण अठै भंवरलाल ‘भ्रमर’ री बात करूं तो कैयो जावैला कै बां मांय संपादन नै लेय’र अेक गैरी दीठ देखी जाय सकै।
    अपणायत-1 सूं 5 तांई हरेक अंक मांय संपादक आपरै संपादकीय मांय लघुकथा विगसाव री बातां नै लेय’र चिंता करै साथै ई अंक नै न्यारा-न्यारा संतभां सूं उल्लेखजोग बणावण री खेचळ ई करै। दाखलै रूप बात करां तो बडेरा लेखकां री लघुकथा लेखन रचनात्मकता नै दरसावण सारू ‘धरोड़’ स्तंभ में मुरलीधर व्यास ‘राजस्थानी’ सांवर दइया, श्रीचंद राय, नृसिंह राजपुरोहित, दुर्गेश री लघुकथावां अेकठ प्रकाशित करी तो किणी लेखक री अेकठ रचनात्मकता रै दरसाव सारू ‘हेमाणी’ स्तंभ में नीरज दइया, डॉ. मनोहर शर्मा, भंवरलाल ‘भ्रमर’, बुलाकी शर्मा, उदयवीर शर्मा री लघुकथावां नै ठौड़ दीवी। अठै सवाल ओ पण करियो जावणो चाइजै कै लेखकां रै नांव मांय वरिष्ठता रो ध्यान क्यूं नीं राखीज्यो तो इण पेटै म्हारो कैवणो है क्यूं कै म्हैं ई संपादन रै काम सूं जुड़ाव राखूं कै किणी पण पत्रिका रै संपादक साम्हीं बगत बगत माथै केई अबखायां रैवै। रचनावां नै संपादन रै मारग सोधणो अर संजोवणो सरल नीं है अर जे भंवरलाल ‘भ्रमर’ जद कदैई कोई लघुकथा रो संकलन संपादित करैला तद बै अवस वरिष्ठता क्रम का अकादि क्रम सूं लघुकथा लेखकां नै राखैला।
    म्हारै इण आलेख रो मकसद लघुकथा लेखकां अर बां रै संग्रां रा नांव गिणावण रो नीं मानता थकां म्हैं कैवणी चावूं कै लघुकथावां रै विगवास री सोध करणिया आ पण कैवै कै आ विधा आजादी सूं पैली पांगरी। भ्रमर जी आपरै पैलै अंक रै संपादकीय मांय लिखै- ‘‘स्व. मुरलीधर व्यास ‘राजस्थानी’ री ‘प्रभु रो धरम’ राजस्थानी री पैली लघुकथा मानीजै, जिकी ‘ओळमो’ रै प्रवेशांक (1954) में छपी।” अपणायत रै प्रवेशांक में व्यास जी री तीन लघुकथावां ‘धरोड़’ स्तंभ में छपी जिण मांय अेक ‘प्रभु रो धरम’ ई सामिल है। लघुकथा में ‘लघु’ सबद रो मायनो कम सबदां सूं लियो जावै पण कम नै आपां किणी सबद सींव मांय नीं बांध सकां। लघुकथा में मूळ सबद लघु नीं ‘कथा’ है। अठै विरोधाभास ई देख सकां कै कथा रै दायरै मांय उपन्यास अर कहाणी दोनूं नै मान्या जावै फेर इसो उपन्यास का कहाणी जिकी कम सबदां मांय लिखीजै कांई बा लघुकथा कैयी जावै?
    राजस्थानी में अेक ही रचना नै कठैई कहाणी अर कठैई उपन्यास कैवणिया ई मिलै अर इण ढाळै री रचनावां पण मिलै जिकी कहाणी रूप रचनाकार राखी, पण पछै उण नै विस्तार देय’र उपन्यास रो नांव अर सरूप देय दियो। सांवर दइया रो दाखलो आपां साम्हीं है जिका छोटी छोटी कहाणियां रै कोलाज सूं ‘हालत’ अर ‘स्कूल : अेक कोलाज कथा’ मांडी जिण रै मूळ मांय लघुकथावां है इणी ढाळै बां री छोटी छोटी व्यंग्य-कथावां नै ई आपां ‘लघुकथा’ रै पाळै राख सकां। इण रो अरथाव ओ पण मान सकां कै कोई रचनाकार किणी लघुकथा नै ई विस्तार देय’र कहाणी का उपन्यास अथवा लघुकथवां रै कोलाज सूं ई कहाणी बण सकै। भरत ओळा रो दाखलो आपां साम्हीं है जिका कहाणियां रै कोलाज सूं उपन्यास बणावण री खिमता राखै। सबद तो रचनाकार रै हाथां री माटी है जिण सूं बो किणी रचना नै आकार प्रकार देवै। ‘लघुकथा’ विधा में कथा रो अरथाव उण री खिमता साथै रस नै अंगेजै। लघुकथा मांय व्यंग्य अर विरोधाभास री पूछ कीं बेसी हुवै। इण सारू व्यंग्य नै विरोधाभास नै लघुकथा रा जरूरी घटक मान सकां। आ बात आखै लघुकथा इतिहास रै विगसाव नै देखता साची निजर आवै। इण रै दाखलै रूप अठै कहाणी रा आगीवाण लेखक मुरलीधर व्यास ‘राजस्थानी’ री लघुकथा ‘न्याय’ देखां- जिकी लुगाई अर पंच रै फगत अेक संवाद सूं बणाइजी है। अेक सवाल है अर दूजो पड़ूतर। लघुकथा इयां है-
    लुगाई – मनै अेकली नै ई कियां दंड देवो हो? म्हारै जिसी खोटा करतब करणआळी बीजी रांडां नै भी तो दंड मिलणो चाइजै।
    पंच – थां रै पाप रो घड़ो फूटग्यो, समझगी! नहीं जणै धोती मांय कुण नागो कोनी?!
    कुल 37 सबदां री इण रचना में जठै अेक समाजिक साच प्रगट हुवै बठै ई न्याय व्यवस्था रा पोत ई निगै आवै। इण ढाळै री व्यंग्य री लकब आगै चाल’र लक्ष्मीनारायण रंगा, भंवरलाल ‘भ्रमर’ आद लघुकथाकारां री केई-केई लघुकथावां में ई देखी जाय सकै।
    राजस्थानी लघुकथा विधा री जातरां देखां तो ठाह लागै कै मानीता कवि कन्हैयालाल सेठिया री गद्य कवितावां री कृति ‘गळगचिया’ मांय लघुकथा सोधणिया बिरथा जतन करै! क्यूं कै राजस्थानी में घणा लेखक मिलैला जिका छिड़ी-बिछड़ी लघुकथावां मांडी, पण इण विधा खातर समरपित लेखक कमती है। म्हारी इण बात मांय नृसिंह राजपुरोहित अर सांवर दइया आद लेखकां नै सामिल करता कैवणी चावूं कै बां बगत रै दबाव में कणाई कीं रचनावां लघुकथा रै रूप मांडी पण बै प्रमुख लघुकथाकार रूप नीं जाणिया जावै। मनोहर शर्मा, उदयवीर शर्मा, दुर्गेश, भानसिंह शेखावत, नीरज दइया, पवन पहाड़िया, भंवरलाल ‘भ्रमर’, माधव नागदा, रामकुमार घोटड़ आद केई लेखकां रा नांव इण खातर उल्लेखजोग कैया जावैला कै आं लघुकथा विधा मांय आपरो अवदान बरसां सूं लगोलग दरसावता थकां विधा रै विगसाव सारू सोच्यो।
    ‘अपणायत’ पत्रिका में देस-दिसावर-विदेस तीन स्तंभ तीन दिसावां रा मारग खोलै। ‘देस’ संतभ मांय मूळ राजस्थानी लेखकां री रचनात्मकता देखी जाय सकै तो परदेस अर विदेस दो दूजा स्तंभां मांय केई-केई भासावां सूं अनूदित लघुकथावां सामिल कर’र संपादक इण विधा रा नवा दीठावां साम्हीं राखै। भंवरलाल ‘भ्रमर’ लघुकथा आलोचना री दिसा में ई काम करियो अर ‘लघुकथा रा बिगसता दरसाव : अेक इतिहासू दीठ’ नांव रै आलेख में बां लघुकथा नै परिभाषित करता थकां उण रै उद्भव अर विकास री बात करी है। अठै खास उल्लेखजोग बात आ है कै भंवरलाल ‘भ्रमर’ ‘अपणायत-1’ में लिख्यो कै स्व. मुरलीधर व्यास ‘राजस्थानी’ री ‘प्रभु रो धरम’ राजस्थानी री पैली लघुकथा मानीजै, जिकी ‘ओळमो’ रै प्रवेशांक (1954) में छपी। जद कै बां आपरै इण आलेख में लिख्यो है- ‘आधुनिक राजस्थानी लघुकथा रो श्रीगणेश लगैटगै 1937-38 ई. मांय श्रीलाल नथमल जोशी रै संपादन में ‘ज्योति’ हस्तलिखित पत्रिका में प्रकाशित श्रीचंद राय री ‘जापानी बबुओ’ सूं मानी जाय सकै। राजस्थानी री पैली लघुकथा रो जस ‘जापानी बबुओ’ नै मिलै। नित नवै सोध-खोज सूं जूनी स्थापनावां बदळै अर कैय सकां कै इण दिसा मांय फेर ई काम हुवैला अर नवी बातां आपां साम्हीं आवैला। आपरी कैयोड़ी बात नै सुधारणी अर स्वीकार करणी भ्रमर जी री मोटी बात कैय सकां।
    मुरलीधर व्यास ‘राजस्थानी’ री लघुकथा ‘न्याय’ नै इणी आलेख मांय आपरै साम्हीं राखी जिकी इयां लखावै कै राजस्थानी री सबसू छोटी लघुकथा हुवैला पण भ्रंवरलाल ‘भ्रमर’ आपरै आलोचनात्मक आलेख में लिख्यो है- ‘विकट पहेली’ बां (श्रीचंद राय) री लघुतम लघुकथा ही, जिकी आजादी सूं घणी पैली छ्प’र मोकळी चावी हुई- ‘अेक सत्ताधारी मिनख नरमुंडा री फुटबाल खेलतो कीं नहीं लखै, पण बो ही जद सत्ताहीण हो जावै तो गळियां रै मांय फिरता सूं नर नूं नारायण जाण दोनूं हाथ जोड़नै नमस्कार करण लागै।’ मुरलीधर व्यास ‘राजस्थानी’ री लघुकथा ‘न्याय’ कुल 37 सबदां री ही अर 34 सबदां री। उण मांय अेक संवाद है अर इण मांय अेक स्टेटमेंट है। लघुकथा री सबसूं मोटी खासियत ‘घाव करै गंभीर’ मानीजै अर देखणो ओ चाइजै कै अै दोनूं लघुकथावां कित्तो, कांई कोई घाव करै...!
    हरेक रचनाकार अर आलोचक री आपरी आपरी मनगत अर सींव हुवै। दूजी दूजी भासावां मांय ई पैली लघुकथा बाबत केई केई बातां मिलै अर सोधणिया आ पण सोधै कै संसार री सगळा सूं छोटी लघुकथा किण नै माना। लघुकथा में मरम री गैरी बात हुवणी चाइजै अठै दाखलै रूप चावा-ठावा लेखक खलील जीब्रान री लघुकथा ‘लोमड़ी’ री चरचा करणी ठीक रैसी।
    सूरज ऊगाळी री टैम खुद री छियां देख’र लोमड़ी कैवै- आज दुपारा रै खाणै मांय ऊंठ खासूं।
    दिनूगै रो पूरो बगत उणा ऊंठ री तलास मांय गुजार दियो फेर दुपारां उण आपरी छियां देख’र कैयो- अेक मूसो ई घणो हुसी।
    दूजी बात- लोक में अेक छोटी कहाणी चलै- ‘अेक हो राजा, अेक ही राणी। दोनूं मरगिया, खतम कहाणी।’ आपां जाणा कै इयां राजा-राणी रै मरिया कहाणी खतम कोनी हुवै। खलील जीब्रान री लघुकथा लोमड़ी मांय जिण ढाळै लोमड़ी आपरी छियां देख’र रंग बदळै उण सूं घणी बातां आपां रै मनां मांय उठै-बैठै। अंतस मांय इण ढाळै री बात जाणै किणी खूंटी माथै अटक जावै। लागै कै कीं तो हुयो है अर नवो हुयो है। कोई पण रचना आपरै पाठकां नै संस्कारित करै। पंच की बात करां का सत्ताधारी अर सत्ताहीन री तो आं री मनगत लोक मांय आगूंच ई इणी ढाळै री बणियोड़ी है।
    कवि नारायणसिंह भाटी आपरी चावी कविता ‘मिनख नै समझावणो दोरौ है’ में लिखै- ‘जोयेड़ी जोत रो कांई जोणो है/ होवतै काम रौ कांई होणौ है/ अणु नै उधेड़णो सोरौ है/ पण मिनख नै समझावणो दोरौ है।’ म्हारो मानणो है कि कोई पण रचना रो मूळ काम मिनख नै समझावणो है अर ओ काम दोरौ इण खातर है कै बो आगूंच समझ्यो-समझायोड़ो है। अेक रचनाकार अर रचना री इणी चुनौती नै आलोचना देख्या करै का कैवां कै आलोचना नै देखणो चाइजै। अठै भाटी साब री काव्य-ओळी सूं ई अेक बात आलोचना रै सीगै कैवणी चावूंला कै आलोचना नै ‘जोयेड़ी जोत रो कांई जोणो है’ ओळी रै मरम नै समझणो चाइजै। किणी पण आलेख में फगत इतिहासू बिकास रै नांव माथै पैली सूं बखाणीज्या आंकड़ा सूचनावां नै खुद रै आलेख मांय राखण रो काम ई राजस्थानी आलोचना करती रैयी है, बात बिना होवतै काम नै करण री हूंस लेय’र कीं नवो करण री हुया करै। अर नवी बात लघकथा विधा सूं ‘भ्रमर’ री अपणायत नै देखण-परखण री है।
००००

डॉ. नीरज दइया


 





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अे.वी. कमल रो रचना-संसार/ डॉ. नीरज दइया

 6 मार्च पुण्यतिथि माथै खास सिमरण-

राजस्थानी कवि-कथाकार-नाटककार मानीता अब्दुल वहीद ‘कमल’ (17 अप्रैल, 1936 - 6 मार्च, 2006) नै इण संसार सूं गया नै आज लगैटगै अठारा बरस हुवण नै आया है। आपां जे अेम.अे. कॉलेज रै हाई-वे सूं मुक्ता प्रसाद कानी जावां तद मुक्ता प्रसाद सरु हुवण सूं पैली जीवणै हाथ कानी मोटै आखरां मांय ‘घराणो’ नांब लिख्यो दीसैला। ओ गुरुजी अे.वी.कमल रो रैवास हो अर बां रै चावै उपन्यास रो नांव ई ‘घराणो’ हो जिको बरस 1996 में छप्यो अर उण नै साहित्य अकादेमी पुरस्कार बरस 2021 रो मिल्यो। इण उपन्यास री भूमिका लिखता पद्मश्री लक्ष्मीकुमारी चूण्डावत अर दूजा लेखकां ई सरावणा करी। इण उपन्यास पछै आपरो दूजो उपन्यास ‘रूपाळी’ (2003) ई घणो चरचा में रैयो। आं दोनूं उपन्यासां नै केंद्र में राखता म्हैं अेक लांबो आलेख ई उपन्यास विधा रै विगसाव रूप परखता मांडियो हो। म्हारो मानणो है कै राजस्थानी उपन्यास परंपरा नै पोखण पैटै अे.वी.कमल रा दोनूं उपन्यास आपरी कथा-जमीन अर पात्रां रै पाण घणा-घणा महतावूं है।
म्हैं जद सार्दूल स्कूल मांय पढ़तो हो तद मानीता अे.वी. कमल, मो. सद्दीक, अजीज आदाज आद केई गुरुजनां सूं घणो कीं सीखण नै मिल्यो। साहित्य सूं ओळखाण करवाण मांय घर-परिवार अर स्कूल री मोटी भूमिका हुवै। कमल गुरुजी स्कूटर राख्या करता हा अर बां रै जीवण रै लारलै बरसां बां रो पृथ्वीराज रतनू अर कन्हैयालाल बोथरा सूं बेसी घराणो रैयो। बां मिमझर नांव सूं संस्था रै मारफत काम करिया अर जसजोग ग्रंथ ‘आपणी धरती आपणा लोग’ मांय बां रो मोटो सैयोग रैयो। गुरुजी अे. वी. कमल कवि अर नाटककार रै साथै बाल साहित्यकार रूप ई जाणीजै। बां रो बाल उपन्यास ‘हावड़ै रो धोरो’ घणो चावो रैयो। इणी ढाळै नवयुग ग्रंथ कुटीर सूं बां रो कविता संग्रै छप्यो। नाटक री बात करां तो राजस्थानी नाटक ‘तूं जांणी का म्हैं जांणी’ (1993) जिको अकादमी सैयोग सूं बां खुद बाबुल प्रकाशन सूं छाप्यो। इण नाटक रो 23 मार्च, 1993 नै रेलवे प्रेक्षागृह मांय लक्ष्मीनारायण सोनी रै निर्देशन में मंचन हुयो। ओ मंचन राजस्थली संस्थान कानी सूं हुयो अर राजस्थान संगीत नाटक अकादमी री मंचीकरण योजना रै तैत इण नाटक मांय हनुमान पारीक, प्रदीप भटनागर, जगदीश सिंह राठौड़, सुरेश खत्री, सीमा माथुर आद कलाकार रूप भाग लियो तो ओम सोनी, आभाशंकर जिसा दिग्गज नांव ई इण नाटक सूं जुड़्या हा। कैवण रो अरथाव कै कोई रचनाकार आपरै जीवण काल मांय खूब काम करै पण उण रै जायां पछै उण काम री अंवेर कम हुया करै। इण रा केई कारण कैया जाय सकै। घर-परिवार कानी सूं उण री सिरजणा रो मोल-तोल नीं करीजै तद उण काम नै ठबक लागै। कमल गुरुजी री केई अणछपी रचनावां फाइलां अर पांडुलिपियां रूप ई रैयगी। जिकी छपी बै अबै सगळी मिलण मांय समस्या है। बां रै समग्र साहित्य माथै पोथ्यां नीं मिलण सूं बात नीं हुय सकै पण बां रै उपन्यासकार रूप बाबत अठै कीं खास खास बातां कैवणी चावूं।
अब्दुल वहीद 'कमल' आपरै दोय उपन्यासां घराणो (1996) अर रूपाळी (2003) रै पाण जिकी कीरत कमाई उण री बात करां तो उपन्यासकार कमल री सगळां सूं लांठी खासियत आ है कै बां आपरै समाज रो जिको सांतरो चितराम सबदां रै मारफत राख्यो बो मुसळमान समाज रै जुदा-जुदा रूप-रंग नै राखतां थकां उण मायंला दुख-दरद अर सांच नै राखै। राजस्थानी उपन्यासां में कमल सूं पैला किणी रचनाकार इण दिस इण ढाळै री रचनावां कोनी करी। राजस्थानी उपन्यास परंपरा में संजोग रा खेल बात परंपरा सूं हाल तांई साथै-साथै चालै। घराणो में ई संजोग-दर-संजोग उण री कथा रै जथारथ नै अळघो बैठावै, पण आ कुबाण तो आपां देखां, उपन्यास परंपरा री खास खासियत है। उपन्यास ‘घराणो’ में काव्यात्मक गद्य रा दरसण ई हुवै, जिण रो अेक दाखलो- ‘मांझळ रात ही। तारां छायी चूनड़ी सो आभो आपरी छक जवानी माथै हो। स्यांत समुंदर-सो गहरी नींद में सूत्यो सगळो गांव। बाळू रेत रै धोरां सूं चौफेरो घिरियोड़ो ओ गांव अर गांव रै च्यारूंमेर पसरियोड़ो सागीड़ो सरणाटो, जाणै ओ सरणाटो सगळै गांव नै आपरी गोदी मांय सांवट राख्यो हो।’ (पेज - 11)
भासा बाबत अेक बीजी घणी सरावणजोग बात आ है कै आं उपन्यासां में मुसळमान समाज री जिण राजस्थानी भासा रो अेक खरो-खरो रूप आपां सामीं आवै बो आपरै लोक जथारथ रै कारण घणो असरदार है। भासा में सामाजिक रूप-रंग नै राखतां थकां, उणां मांयला दुख-दरद अर सांच नै लेखक जिण रूप में चवड़ै करै बो उपन्यास परंपरा में सदव यादगार रैवैला। घराणो में ‘म्हारा दो आखर’ में उपन्यासकार री टीप तीन पानां में छपी है। कबीर आपां नै ढाई आार में पंडत बणा देवै, तो लेखक आगूंच दो-आखर में रचना रा सगळा पोत चवड़ै कर देवै। आगूंच दो आखर में उपन्यासकार लिखै- ‘म्हैं इण उपन्यास में आ कैवण री चेष्टा करी है कै ‘घराणो बेटी’ रै नांव सूं, बेटी रे सुभाव सूं, बेटी रै बरताव सूं अर बेटी रै चाल-चलन सूं ओळखीजै।’ तो सा ओ मूळ मंतर है जिको इण रचाव रो सार है। अेक समाज रै सांच नै लेखक इण ढाळै प्रगटै- ‘बेटी नै जलमतै ई गळो घोट’र का अमल देयर मारणै री रीत इण घराणै में लारली चार-पांच पीढियां सूं चाल रैयी है। इणां रौ ओ मानणो है कै बेटी तो भाग-फूट्यां रे हुवै है।’ (पेज - 17)
घरणो मुसळमान दांईं हमीदा री कीरत नै बखाणै। उपन्यास अेक छोरै री आस में गळती सूं जलमी छोरी रै प्राणां री अेंवर रै मिस सवाल उठावै, पण उण नै जिण रूप में बिगसावै बो सहज कोनी। असहज कथा ई कथा रो आधार होया करै, पण असहज नै लेखक सहज रै रूप में प्रगटै आ लेखक री खिमता मानीजै। विचार में आ बुणगट कै हिंदू-मुसलमान अेक है-हमीदा रो हीराबाई रै रूप में बदळाव प्रभावित करै, अर ठाकर धनजी अर जीवण रो आंतरो मिनख-मिनख रै विचारां रै आंतरै नै दरसावै।
घराणो बरस 1957 सूं 1966 तांईं रै बगत नै आधार बणावै। रूपाळी में बगत बरस 1965 अर 1971 रै भारत-पाकिस्तान जुद्ध रै अेनाणां रै अैन बीचाळै ऊभो है। जुद्ध रै मांयला-बारला नफा-नुकसाणां री विगतां में केई विगतां अधूरी रैय जावै। बां री संभाळ रचनाकार ई कर सकै, अर अेक संभाळ नै आपां उपन्यास ‘रूपाळी’ में देख सकां। रूपाळी में हिंदू-मुसळमान अेकता अर सद्भाव नै जठै सुर मिल्या है, बठै ई मिनखबायरै घर में किणी लुगाई अर उण रै टाबरां नै हुवण आळी तकलीफां रो लेखो-जोखो पूरी ईमानदारी सूं सामीं राखीज्यो है। जीवण-जुद्ध जूझती लुगाई-जात री इण अंवेर खातर लखदाद। आगूंच ढाई आखर में उपन्यासकार कमल लिख्यो है- ‘उपन्यास में म्हैं आ कैवण री चेष्टा करी है कै जकी लुगाई, लोक लाज सूं, लुगाई जात री मर्यादा सूं आज तक घुट-घुट’र मरती रैयी है। अबै बा समाज री कुरीत्यां अर लोक री अनीत्यां सूं जुड़ै थकां जुलमां अर अणकथ कष्टा नै भोगण नै त्यार नीं है। चावै बा रूपाळी (जमाली) हो का राधा। क्यूं कै लुगाई जात है। लुगाई रो धरम लुगाई है। उपन्यास री नायिका रूपाळी रो चरित्र अेक अेड़ो ई चरित्र है।’
लुगाई जात रो समाज री जूनी मानता, परंपरा, रिवाज का अणचाइजती बात सामीं हुवणो नै पेटै गळत रै विरोध मे हरफ काढणो किणी, आधुनिक रचना में सरावणाजोग मानीजै। स्त्रीवाद जैड़ी चरचा राजस्थानी में कोनी पण उपन्यास रूपाळी रै मारफत जे लेखक राजस्थानी समाज री किणी लुगाई रै इण नवै रूप री ओळखाण करावै तो उण री सरावण हुवणी चाइजै। अठै आ ओळी लिखतां रूपाळी री इण दीठ सूं पुरजोर सरावणा करणी चावूं। उपन्यास-जातरा में ‘रूपाळी’ उपन्यास रो खास उल्लेख इण खातर करियो जावैला कै इण में उपन्यासकार हिंदू-मुसळमान अेकता अर बां री आपसरी री प्रीत रा केई बेजोड़ चितराम ई मांड्या है। बियां घणै गौर सूं रूपाळी री कथा माथै विचार करां तो आ अेक प्रेम-कथा है, जिण में रूपाळी री प्रेमकथा रै साथै-साथै उण री मां जुबैदा री आपरै घरधणी रै लारै प्रेम अर विरह री कथा आधार रूप गूंथीजी है। सगळां सूं सिरै बात आ है कै जुबैदा आपरै घराळै जमालखां (जगमाल) अर छोरी जमाली (रूपाळी) रै सुख-दुख में बंधी राजस्थानी उपन्यासां में जीवटआळी यादगार नायिका रै रूप में आपां सामीं ऊभी होई है। उपन्यास में मुसळमान रो ठेठ भारतीयकरण मिलै, जिण नै कोई हिंदूवाद का हिंदूकरण ई मान सकै। लेखक जमाली रो नांव ई रूपाळी अर जमाल खां रो जगमाल बरतै। आं चरित्रा में लेखक रो मकसद हिंदूवाद नीं पण अेक गांव री भारतीयता रो रंग उजागर करण रो रैयो है।
सगळा सूं मोटी बात आ कै कमल गुरुजी खुद आपरै जीवण मांय धरम का किणी पण आधार रो भेदभाव कोनी राख्यो। बै किणी जात का संप्रदाय रा लेखक नीं हा अर बां रै लेखन सूं इण संसार साथै बसतो लोक जीवण रो अंस उजागर हुवै जिको भारत री मूरत नै पूरण करण मांय मददगार बणै। बै सदीव राजीमन सूं बोलता-बतळावता अर छोटा रो खास लाड रखता हा। बां रै उपन्यासां माथै फिलम बण सकै आ बात बै जाणता इण सारू बां कीं प्रयास ई करिया। म्हनै चेतै आवै कै आमीर खान सूं ई इण सिलसिलै मांय मिल्या पण आगै संयोज ओ रैयो कै बै इण संसार सूं विदा ले लीवी अर सगळी बातां लारै रैयगी। आज जरूरत बां रै प्रकाशित अप्रकाशित साहित्य नै अंवेरण री कैय सका जिण सूं बां रै साहित्य माथै विगतवार चरचा हुय सकै।

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राजस्थानी कविता यात्रा : एक परिचय

 

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जलम शताब्दी सिमरण- अन्नाराम सुदामा री साहित्य-साधना/ डॉ. नीरज दइया

          राजस्थान शिक्षा विभाग सूं जुड़िया केई रचनाकारां रो नांव आवणवाळै टैम मांय विभाग भूल सकै पण साहित्य रो इतिहास कदैई कोनी भूलैला। विभाग री आपरी सींव अर हिसाब-किताब हुवै, नौकरी मांय जठै कठै कोई काम करै बठै जाणीजै। सेवामुगत हुया पछै ई विभाग सूं जुड़ाव रैवै। इण ढाळै कैय सकां कै जे कोई विभाग रो कर्मचारी किणी पण क्षेत्र मांय कोई नांव हासिल करै तो उण रो जस विभाग नै जावै। साहित्य री बात करां तो शिक्षा विभाग राजस्थान आखै देस मांय फगत अेक इसो संस्थान रैयो जिको आपरै गुरुजनां-कर्मचारियां री रचनात्मकता पेटै सजगता बरता थका बरसां लग पांच पोथ्यां शिक्षक दिवस रै टांणै छापी। देस रा नामी लेखक-कवि संपादक रैया। बरस 1997 मांय राजस्थानी साहित्य री संपादित पोथी ‘कोरणी कलम री’ विभाग प्रकाशित करी, जिण रो संपादन अन्नाराम ‘सुदामा’ करियो। सुदामा जी रै उपनांव सूं जाणीजता आं गुरुदेव रो जलम 23 मई, 1923 नै अर सरगवास 02 जनवरी, 2014 नै हुयो। अठै खास ध्यानदेवण जोग बात आ है कै 23 मई, 2023 सूं सरू हुयो ओ वगत अन्नाराम जी री जलम शताब्दी रो बरस है। आओ आपां इण मिस गुरुजी अन्नाराम सुदामा री साहित्य-साधना पेटै कीं चरचा करां।

          चावा-ठावा रचनाकार अन्नाराम सुदामा रै सिरजण रा केई-केई पख देखण-परखण नै मिलै। बां राजस्थानी अर हिंदी दोनूं भासावां मांय कहाणियां अर उपन्यासां रै अलावा संस्मरण, बाल साहित्य अर कविता आद विधावां मांय लगोलग सिरजण करियो। बां री रचनावां रो देस-विदेस री भासावां मांय अनुवाद ई हुयो। बां सूं म्हारी ओळख रो मोटो कारण म्हारा जीसा सांवर दइया रैया। अेक लेखक-कवि रै घरै जलम हुयां म्हारै नजीक पोथ्यां कीं बेसी रैयी पण पोथ्यां नजीक रैयां ई कीं कोनी हुवै। बांचण रो चाव मोटी बात हुया करै। स्कूल रै दिनां री बात करूं तो म्हैं नोखा रै सेठिया स्कूल सूं छोटूनाथ उच्च माध्यमिक स्कूल पूग्यो तो डेलूजी गुरुजी जिका पीटीआई हा, बां री मीठी वाणी मांय सुदामाजी री रचनावां सुणण रो सौभाग मिल्यो। फेर राजस्थानी साहित्य री रावत सारस्वत जी री परीक्षावां अर कन्हैयालाल सेठिया जी रो मायड़ रो हेलो इण मारग माथै म्हनै गति दीवी। ‘पिरोळ में कुत्ती ब्याई’ अर ‘दूर-दिसावर’ पोथ्यां पछै बरस 1985 मांय जद म्हारै जीसा सांवर दइया नै साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिल्यो तो बां रै सम्मान में नागरी भंडार बीकानेर में हुयै जळसै री अध्यक्षता अन्नाराम सुदामा करी अर म्हारा पैला दरसण हुया।

          अन्नाराम सुदामा रै जीवन परिचय अर साहित्‍य री बात करां तो राजस्‍थानी में आपरा छव उपन्यास- ‘मैकती काया: मुळकती धरती’ (1966), ‘आंधी अर आस्था’ (1974), ‘मेवै रा रूंख? (1977), ‘डंकीजता मानवी’ (1981), ‘घर-संसार’ पैलो भाग (1983), ‘घर-संसार’ दूजो भाग (1985) अर ‘अचूक इलाज’ (1990) प्रकाशित हुया। कहाणी संग्रै च्यार- ‘आंधै नै आंख्यां’ (1971), ‘गळत इलाज’ (1983), ‘माया रो रंग’ (1976) अर ‘औ इक्कीस’ (2002) प्रकाशित हुया। आपरी ख्याति मूळ रूप सूं गद्यकार अर खास तौर माथै कथाकार रूप बेसी मानीनै। बियां आप बीजी बीजी विधावां मांय ई सांगोपांग लेखन करियो।

          जातरा संस्मरण री बात करां तो दोय पोथ्यां- ‘दूर-दिसावर’ (1975) अर ‘आंगण सूं अर्नाकुलम’ (2002) छपी थकी नै चावी। आपरा च्यार कविता-संग्रह- ‘पिरोळ में कुत्ती ब्याई’ (1969), ‘व्यथा-कथा अर दूजी कवितावां’ (1981), ‘ओळभो जड़ आंधै नै’ (2002) ‘ऊंट रै मिस : थारी-म्हारी सगळां री’ (2015) साम्हीं आया तो अेक-अेक पोथी नाटक- ‘बधती अंवळाई’ (1979), निवंध- ‘मनवा थारी आदत नै’ (2003) अर बाल-साहित्य- ‘गांव रो गौरव’ (1981) री ई जसजोग मान सकां।   

          आपरै हिंदी साहित्य लेखन री बात करां तो छव उपन्यास- ‘जगिया की वापसी’ (1979), ‘आंगन-नदिया’ (1990) ‘अजहुं दूरी अधूरी’ (1996), ‘अलाव’ (2000), ‘बाघ और बिल्लियां’ (2007) अर ‘त्रिभुवन को सुख लागत फीको’ (2009) प्रकाशित हुया। चिंतनपरक साहित्य पेटै दोय पोथ्यां- ‘त्रिभुवन को सुख लागत फीको’ (2015) अर ‘अवधू अरथ उघारा’ (2015) छपी। महात्मा गांधी रै शताब्दी वर्ष रै मौकै गांधीजी री भारत यात्रा पेटै चावी पोथी ‘उत्सुक गांधी : उदास भारत’ (1970) ई घणी चर्चित रैयी।

          विभाग कानी सूं श्रेष्ठ शिक्षक सम्मान रै अलावा अन्नाराम सुदामा नै घणा मान-सम्मान अर पुरस्कार मिल्या जिण मांय खास खास री बात करां तो राजस्थानी उपन्यास 'मेवै रा रूंख?' नै साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली रो राजस्थानी भाषा रो मुख्य पुरस्कार बरस 1978 रो आपनै अरपण करीज्यो। इणी ढाळै हिंदी उपन्यास ‘आंगन-नदिया’ नै राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर रो सर्वोच्च ‘मीरां पुरस्कार’ (1991-92) मिल्तो तो उपन्यास ‘अचूक इलाज’ नै राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी रो ‘सूर्यमल्ल मीसण शिखर पुरस्कार’ बरस 1992 रो अरपण करीज्यो। श्रेष्ठ गद्य लेखन सारू गोइन्का फाउंडेशन रो ‘कमला गोइन्का राजस्थानी साहित्य पुरस्कार’ बरस 2005 रो मिल्यो अर बीजा ई केई सम्मान-पुरस्कार आपनै मिल्या। मोटो सम्मान अर पुरस्कार तो ओ है कै राजस्थानी उपन्यास ‘मेवै रा रूंख?’ अर ‘मैकती काया : मुळकती धरती’ जयनारायण व्यास वि.वि. जोधपुर, म. द. स. विश्वविद्यालय, अजमेर अर महाराजा गंगा सिंह विश्वविद्यालय, बीकानेर रै पाठ्यक्रमां मांय बरसां सूं सामल है अर लाखू पढेसरी आपनै पढ रैया है। आपरी रचनावां रो केई केई भाषावां मांय अनुवाद ई हुयो। सार रूप कैवां तो शिक्षा विभाग राजस्थान रो नांव आखै देस-विदेस अर खास कर राजस्थानी साहित्य मांय जसजोग बणावणवाळा कमलकारां मांय आप सिरै मानीजो।

          सुदामा जी सूं जुड़ी केई बातां अर यादां बां रै हरेक पढेसरी पाखती हुवणी लाजमी है। बां माथै शोध हुया है अर भळै ई हुवैला। आखो जीवण साहित्य नै सूंपण वाळा सुदामा जी लिखण माथै भरोसो करियो अर तद ई इत्तो साहित्य बै लिखग्या। काण-कायदा अर नेम नै पक्का मानण वाळा सुदामा जी रै जीवण, व्यवहार, आचार-विचार अर साहित्य सूं आपां घणो कीं सीख सकां। बां रै विविधवर्णी आखै सिरजण संसार माथै बात कीं कर’र अठै फगत राजस्थानी कथा-साहित्य री बात करालां।

          लोकथावां रै मायाजाळ सांम्ही आधुनिक कहाणी नै ऊभी करण मांय सिरै कहाणीकार अन्नाराम सुदामा रो नांव हरावळ इण सारू मानीजै कै बै पैली पीढी रा कहाणीकार हा अर पैलै कहाणी संग्रै- ‘आंधै नैं आंख्यां’ री भूमिका मांय बां लिख्यो- ‘राजस्थानी में कहाणी साहित्य री कमी है। है जिको घणखरो पुराणी खुरचण खा’र जीवै इसो। बींनै अलग-अलग आदम्यां, न्यारा-न्यारा गाभा पैरा’र आप आपरै ढंग सूं सजावण री सस्ती चेष्टा करी है, मूळ में कोई अंतर को आयोनी। केयां, संकलन अर संपादन, भूमिका में दो शब्द अर बीं में ही दो-दो पांती घाल, कथा साहित्य रो खासो भलो उपकार कियो है पण ऐ आसार कीं सीमा तांई ही ठीक हुवै। वर्तमान भी कठै न कठै, मोटो महीन चित्रित हुणो चाहीजै। बींरी पूर्ति अतीत सूं थोड़ी ही हुसी....।’

          कहाणीकार अन्नाराम सुदाम वर्तमान रै मोटो-महीन चित्रण अर अतीत सूं मुगती री बात उण दौर मांय करी जद लोककथावां रै संकलन-संपादन रो काम घणो जोरां माथै हो। आगै चाल’र बां कहाणी नै आधुनिक बणावण मांय योगदान दियो। इण सारू कहाणी-जातरां री संभाळ करतां कहाणीकार अन्नाराम सुदामा री कहाणियां माथै बात करणी लाजमी लखावै।

          ओ संजोग है कै सुदामा जी री च्यारू राजस्थानी कहाणी-पोथ्यां मांय कुल इक्कावन कहाणियां है अर बां आपरै छेहलै कहाणी-संग्रै रो नांव ‘ऐ इक्कीस’ राख्यो। किणी कहाणीकार री कहाणी-जातरा बाबत बात करता आलोचना नै बगत अर कहाणीकार री दीठ माथै ध्यान देवणो चाइजै। बरस 1971 मांय कहाणी-संग्रै ‘आंधै नैं आंख्यां’ सूं सुदामा जी जिकी जातरा चालू करी बा जातरा 2011 तांई चालू राखी। राजस्थानी कहाणी अर लोककथा री संभाळियोड़ी पूरी भाषा नै बां आपरै पैलै कहाणी-संग्रै ‘आंधै नैं आंख्यां’ री पांचू लांबी कहाणियां रै मारफत बदळ’र नुंवै ढाळै ढाळण री तजबीज करी। परंपरा मांय आ नवी भाषा नै सोधण री खेचळ ही।

          ‘आंधै नैं आंख्यां’ संग्रै री भाषा मांय हास्य अर व्यंग्य सूं बांचणियां नै रस तो आवै पण बिम्बां री भरमार सूं कहाणी री मूळ बात अर संवेदना कठैई दब-सी जावै। कहाणी जठै दौड़णी निगै आवणी चाइजै बठै कहाणी डिगू-डिगू करती आगै बधै। कहाणीकार नुंवै गद्य री सिरजणा मांय कहाणी विधा सूं घणी घणी आंतरै निकळ जावै। सुदामा री आं कहाणियां री भाषा री आलोचना हुई अर आ पूरी भाषा-बुणगट सेवट मांय कहाणीकार दूजै रूप मांय सोधण री तजबीज कर लेवै। सुदामा जी री कहाणी जातरा मांय सेवट भाषा सूं बेसी भाव, आदर्श, जीवण-मूल्य अर संस्कार मेहताऊ हुय जावै। भाषा अर दीठ अेक खास रंग-ढंग मांय लैण माथै जाणै ठेठ तांई पाटी पढावती निगै आवै। उल्लेखजोग है कै आं पाटी पढावती कहाणियां रो मूळ सुर आदर्श री थरपणा है अर इण मांय कहाणीकार आपरी सफलता दरसावै। लोक भाषा री सहजता-सरलता आं कहाणियां री मोटी खासियत मानी जाय सकै। आं सगळी बातां रै उपरांत ई कहाणीकार रो भाषा-रूप पूरी इण पूरी जातरा मांय ठैरियोड़ो-सो लखावै। प्रयोग अर इक्कीसवी सदी रै असवाड़ै-पसवाड़ै जिको बदळाव राजस्थानी कहाणी मांय निगै आवै उण भेळै आं कहाणियां नैं कोनी राख सकां। 

          ग्रामीण जन-जीवण सूं जुड़ी सुदामा जी री कहाणियां मांय सामाजिक सरोकार, जीवण-मूल्य, संस्कार अर मिनखपणै री जगमगाट जाणै बगत नै दीठ देवै। आधुनिक कहाणी परंपरा मांय आं कहाणियां री आपरी अेक न्यारी ओळखाण करी जावैला। कोई कहाणीकार कहाणी क्यूं लिखै? इण सवाल रा न्यारा न्यारा जबाब हुय सकै। कहाणीकार अन्नाराम सुदामा बाबत विचार करां तो लखावै कै बां आखी उमर माइत बण’र कहाणियां चूळियै उतरतै मानवियां नैं लैणसर लावण री दीठ सूं करी। ‘गळत इलाज’ संग्रै री कहाणियां सूं जिकी छवि कहाणीकार री बणै उण सूं आगै री कहाणियां मांय बो मुकाम बणायो राखै। बै औस्था रै बंघण सूं मुगत रैय’र ढळती उमर मांय लगोलग कहाणियां लिखता रैया। जसजोग बात आ कै अन्नाराम सुदामा मान-सम्मान अर पुरस्कारां पछै ई लिखणो सदीव चालू राख्यो। आकाशवाणी खातर बां केई कहाणियां लिखी जिकी लारला दोय कहाणी संग्रै मांय देखी जाय सकै। सुदामा जी नै बां रा करीबी मास्टर जी कैया करता हा। मास्टर जी री कहाणियां मांय ठेठ सूं अेक आदर्श मास्टर किणी बडेरै दांई सीख सीखावतो-समझावतो मिलै।

          बगत रै साथै-साथै ग्रामीण जीवण मांय शहर री हवा पूग्यां उण रै रूप-रंग मांय केई बदळाव हुया। सत-असत अर आस्थावां माथै बगत रो हमलो हुयो। इण सूं अंतस मांय सत-असत नै तोलण रा हरेक का आपरा नुंवा बाट बणग्या। कहाणी मांय जथारथ अर अंतस री दोधाचींत री पूरी पड़ताळ करीजण लागी। मिनख री इण जूझ मांय केई चितराम आंख्यां अगाड़ी किणी कहाणी रूप सांम्ही आया। मिनख रै मन मांयली जूझ रै उजळ पख रा केई केई चितरामां री ओळखाण सुदामा जी री कहाणियां सूं हुवै। ‘माया रो रंग’ अर ‘ऐ इक्कीस’ कहाणी संग्रै आं बातां नै पुखता करै।

          अन्नाराम सुदामा री कहाणियां रै केंद्र मांय- बाल-विवाह, सुगन-विचार, जीव-दया, छुआ-छूत, स्वाभिमान, आत्म-सम्मान, ईमानदारी, पाड़ौस-धर्म, अंध-भगती, जबान रो मोल, दया, संस्कार, संबंध, स्वार्थ आद मिलै। कहाणीकार रै पात्रां मांय घणखारा पचास रै आसै-पासै रा पात्र है। आपसी सम्पत अर सद्भाव सूं मेळ-मुलाकाती आं पात्रां रो सोच लूंठो है। जियां कै आगूंच जिण धन री आंधी दौड़ री बात करी उण पेटै कहाणीकार री आ थरपणा सरावणजोग है कै आज रै जुग मांय धन ई स्सौ कीं नीं हुवणो चाइजै। दोय उल्लेखजोग कहाणियां री चरचा जरूरी है। कहाणी ‘सूझती दीठ’ मांय दूध अर ‘अखंड जोत’ मांय धी नै बेचण री बात है। आज रै जुग मुजब हरेक खुद रो नफो विचारै। कीं बेसी धन मांय खुद रो लाभ विचारण रै इण जुग सांम्ही आं कहाणियां रा पात्र दूध अर घी रै बेच्या पछै उण रै उपयोग नै विचारता नफो करता जाणै घाटै नै अंगेजै। तुळछी रो हवेली रै बारकर दूध री कार निकाळण नै दूध का मीरां बाई रो सेठ चूनीलालजी रै रामशरण हुयां घी नै अंखड़ जोत करण खातर नटणो घणो अबखो काम है। आज ओ रूप कठैई देखण नै कोनी मिलै। ओ रूप अर सोच हुय सकै आ दरसावणो कहाणीकार री लांठी सोच है। दूध-घी मिनखां खातर है इण ऐळो गवाण सूं कांई सरै। इण ढाळै री आं कुरीतियां रो छेड़ो कोनी। सुदामा री खासियत आ कै हरेक कहाणी मांय याद रैवण जोग कथानक है। हरेक कहाणी री आपरी कहाणी है। कहाणी रो प्रभाव इत्तो कै उण मांय पूग्या पछै जाणै कीं बातां हियै रै आंगणै सदा खातर मंड जावै। कहाणी रा पात्र-वातावरण अर संवाद चाहे बिसर जावां पण मूळ मुद्दो जिको कहाणी कैवै बो अंतस मांय बैठ जावै।

          उपन्यास विधा पेटै पैली पीढी रा उपन्यासकार सुदामा जी रो घणो जस मानीजै। आपरा छव उपन्यासां मांय राजस्थान रै गांवां रा सांवठा चितराम मिलै। कैय सकां कै राजस्थान रै गांवां री बदळती तासीर रा केई-केई रंग सुदामा जी आपरै उपन्यासां मांय अंवेरै। आजादी पछै गांव रो रंग-रूप बदळतो गयो। मोटो बदळाव ओ हुयो कै अंग्रेजी राज तो गयो परो पण अबै उण ठौड़ गांव रा सेठ-साहूकार अर जमीदार आय'र बैठग्या। पैली राज करणिया अर लूट मचावणिया दूजा हा। अबै घर रा भेदी लंका ढावण आळा अर घर नै ई खावण आळा हुयग्या। पंच-पटवारी, पुलिस-थाणो सगळी ठौड़ आम आदमी माथै मोटी मार। किसान जिको अन्नदाता बाजै, नित अकाळ भोगै अर अन्न खातर तरसै। जे कदैई कीं भगवान री मेहर सूं खेत सावळ हुवै तो बो करजै रै मांय डूब्योड़ो ब्याज भरै अर ऊपर सूं बेगार न्यारी काढै।

          सुदामा जी रै उपन्यासां रै मूळ मांय सामंती सोसण व्यवस्था री व्यथा-कथा मिलै। बै जिण गांवां रा चितराम आपां साम्हीं राखै, उणा मांय जात-पांत रो टंटो मिलै। मिनख-लुगाई किणी इकाई रूप कोनी। बै का तो गरीब है का अमीर। बै का तो सोसक है का सोसित। निम्न-मध्यम वरग री मानसिकता मांय जीवता घणा लोग-लुगाई जद धन री अनीत देखै, उणा नै कोई मारग नीं लाधै। रछक ई भछक भेळै रळियोड़ा दीसै। गांव री जीया-जूण मांय पग-पग परसती राजनीति रा रंग-ढंग। गरीब अर किसान नै ठौड़-ठौड़ मार। कदैई कोई तो कदैई कोई अर सुणवाई कठैई कोनी। आं सगळी बातां अर हालातां बिचाळै सुदामा जी आपरै उपन्यासां मांय इसा पात्रां नै ऊभा करै जिका कीं बदळाव री हूंस लियोड़ा हुवै। आत्मकथात्मक उपन्यास 'मैकती काया : मुळकती धरती' री नायिका सुगनी नानी आपरै दोहितै गोरधन नै आपरी जूण-गाथा मांड'र कैवै। इण कैवणगत मांय कथा नै कैवण रो जूनो तरीको मिलै। लोककथा दांई हंकारो भरणियो ई दोहितो है अर मुंहबोली नानी सूं उण री जूण-विगत सुण रैयो है। सुगनी रै मारफत उपन्यासकार अेक लुगाई री जूझ नै साम्हीं राखै।

          'आंधी अर आस्था' उपन्यास मांय सुदामा जी मेट माथै काम करणियै जगन्नाथ री जूण-गाथा राखै। जगन्नाथ अर सरपंच रै कांई ठाह कांई बैर बंधै कै बो आंख बांध लेवै। ओ अेक संजोग ई कैयो जाय सकै कै जगन्नाथ सेठ प्रताप रै घरै चारो लावण नै जावै अर रात रै बगत बो सेठ नै घर री विधवा बीनणी भेळै सूतो देख लेवै। जगन्नाथ आंख्यां मींच छानै-मानै पाछो आ जावै, पण सेठ नै काळो खावै अर बो आत्मघात कर लेवै। इसो मौको सरपंच ताकै ही हो अर उपन्यास री कथा इण ढाळै आगै बधै कै बो जगन्नाथ नै फसा देवै। उण नै जेळ हुय जावै। उपन्यास मांय दूजो संजोग ओ सधै कै जगन्नाथ री बहू यसोदा ई बीकानेर मांय अेक सेठ रै चक्कारियै मांय उळूझै जावै अर अठै आळो सेठ ई मर जावै। दुख-दरद ई जूण री कहाणी बणै पण जद जीवण मांय दुख-दरद, कलीफां री आंधी पूरै परिवार माथै आय जावै तो कोई कांई करै।

          ‘मैवै रा रूंख?’ उपन्यास रो सिरैनांव प्रतीकात्मक है। उपन्यास मांय अेक ठौड़ डोकरी कैवै- ‘ना अन्नदाताजी, खूंटण री जबान मत काढोन, फळो फूलो मैवै रा रूंख हो थे, म्हे तो दिया लेवा, म्हारै सागै घणो नान्हो लेखो करता थे फूठरा को लागोनी।’ (पेज-53) रसूखदार मिनख, जिका कीं अड़ी मांय किणी रो काम काढ सकै, जिका माथै भगवान री मेहरबानी कीं बेसी है - बै सेठ-साहूकार-जमीदार-पइसैआळा मैवै का रूंख है। पण उपन्यासकार आं रूंखा माथै सवाल रो निसाण लगावै। असल मांय अै लोग खाली कैवण कैवण नै मैवै रा रूंख है, पण असल मांय आं रो मैवो फगत खुद खातर ई है। प्रेमचंद रै होरी रो प्रभाव भण्यै-गुण्यै किसान सिनाथ माथै देख्यो जाय सकै।          

          ‘डंकीजता मानवी’ उपन्यास मांय सुदामा जी जिण डंक री बात करै वो फगत कोई अेक गांव मांय कोनी, ओ डंक तो फगत अेक दाखलै रूप समझो। राजस्थान रै ई नीं आखै देस रै गांवां मांय मानवी डंकीजता जाय रैया है। हालत अर हालात मांय उगणीस-बीस फरक हुय सकै, पण सगळै गांवां अर लोगां री दसा इण सूं न्यारी नीं कैय सकां। ब्याज भुगतता अर बेगार करता गांव रा लोग-लुगाई अन्याय री घाणी मांय पीसता जावै। कोई रकम नीं, जाणै बां री सांस अडाणै राखीजगी। जिकी अेक'र फस्या पछै इण जूण मांय तो मुगती कोनी मिलै।  

          ‘घर-संसार’ उपन्यास दोय खंड मांय साम्हीं आयो अर ओ गांधी-दर्शन, अछूत-उद्धार माथै आधारित राजस्थानी रो पैलो उपन्यास है। अछूत-उद्धार री बात सुदामा जी रै पैला रा उपन्यासां मांय ई मिलै पण इण मांय पूरी बात इणी विसय माथै केंद्रीत करीजी है। समाज मांय बदळाव लावणो कोई सरल काम कोनी। समाज बीसवीं सदी मांय पूगग्यो पण हाल बो डोरा-मादळिया री बात करै। समझावण री कोई कमी कोनी, पण समझता थकां ई कोई नासमझ बणै उण रो कांई करियो जावै। ‘घर-संसार’ री अेक दूजी खासियत खुद री खुद सूं बातां ई कैय सकां – ‘सुधा सोचै ही अै आदमी-लुगाई ही कदेई स्वाभिमान अर सुतंत्र कमाई री खरीदी खुद री पौसाक पैरसी? मैनत जे मोड़ बदळ लियो तो क्योंनी? बण ही सवाल कियो अर बण ही समाधान।’ उपन्यास मांय इण ढाळै सवाल-जबाब मांय पात्रां री मनगत तो साम्हीं आवै ई आवै, साथै इण ढाळै बांचणियां साम्हीं सीख रा दरवाजा ई खुलै। उठै उपन्यासकार बिना कैया ई कैय देवै कै चिंतन ई किणी पण काम री सफलता रो आधार हुवै।

          ‘अचूक इलाज’ तांई पूगता-पूगता सुदामा जी आपरी जमीन माथै आदर्स भेळै आक्रोस रा सुर ई साम्हीं लावै। बै जीवण मूल्यां नै पोखै। भलै साथै भलो अर बुरै साथै बुरो हुवण रो संदेस देवै। भासा मांय हास्य व्यंग्य अर लोक री रंजकता रूढ हुवती जावै। गांव जिसा गांव है। खेत जिसा खेत है। किसान जिसा किसान है। सेठ-साहूकार जिसा सेठ-साहूकार है अर बाणियां, प्याऊ, बूढ़ा-बडेरा सगळा आपरी संवेदनावां मांय सामाजिक सरोकारां सूं जुड़ता चेतना अर क्रांति खातर उडीक करै। अकाळ हुवो भलाई बिखै रा दिना, आं सगळां री जूझ अर हूंस कमती नीं हुवै। बदरंग हुवती जूण मांय रंगां री आस मांय सुदामा जी रा पात्रां सूं भरोसो उपजै। भरोसै सूं भरियोड़ा पात्र नवै समाज रो सपनो फगत देखै-विचारै ई नीं, उण नै साकार ई करै। वां रै उपन्यासां रा पात्र जमीन सूं उठियोड़ा अर जमीन सूं बंध्योड़ा हुवै। भलाई वै किणी पोसाळा मांय भणिया-गुणिया ना हुवो, पण बै अक्कल रै मामलै मांय इक्कीस कैया जावैला। अक्कल जाणै बां रै हियै उपज्योड़ी हुवै। सगळां सूं सांवठी बात कै बां पाखती जूण रै अनुभवां ई मोटी कमाई हेमाणी रूप मिलै, जिकी नै बै अेक-दूजै री मदद खातर बरतता रैवै। सार रूप कैयो जाय सकै कै आधुनिकता रै पाण हुया बदळावां बिचाळै गांवां रै राजस्थानी समाज रो सुदामा-पख असल मांय अेक सरकारी मास्टर अन्नाराम सुदामा री आंख सूं देख्योड़ो साच अर सुपनां रो जंजाळ है। 

डॉ. नीरज दइया. संपादक- ‘नेगचार’ (पाक्षिक)





 

 

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