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बहुत कुछ बाकी है अनकहा / डॉ. नीरज दइया

 

           व्यंग्य, कविता और संपादन के क्षेत्र में डॉ. लालित्य ललित निरंतर आगे बढ़ रहे हैं। उनकी यह विशेषता है कि एक पहचान बन जाने के बाद भी वे निरंतर सक्रिय है। कहना होगा कि साहित्य का जुनून उनके सिर पर सवार है। रोज बहुत कुछ लिखना और पढ़ना उनकी दिनचर्या में शुमार है। नियमित कॉलम लिखना कोई सरल काम नहीं है, जिसे वे लंबे अरसे से बखूबी लिख रहे हैं। व्यंग्य और कविता की उनको लत लग गई है। जैसे किसी दौड़ में कोई सबसे आगे निकल जाने को दौड़ता है, वैसे ही उनका किताबों का सिलसिला हो रहा है। इसी जुनून में वे अब तक अनेक कीर्तिमान बना चुके हैं, और अनेक बनाने वाले हैं। यह अचंभित और हर्षित करने वाली बात है कि वे अपनी सभी जिम्मेदारियों को सफलतापूर्वक निभाते हुए, साहित्य में इतनी सक्रियता से इस बार एक साथ 25 कविता-संग्रह पाठकों को दे रहे हैं।
            किसी भी रचना के साथ आलोचना का भाव पहले पहल स्वयं लेखक-कवि के मन में रहता है, जिसके चलते वह रचना को संवारता है और नए आयाम छूने का प्रयास करता रहता है। यहां यह भी रेखांकित किया जाना चाहिए कि कवि लालित्य की कविताओं में सर्वाधिक उल्लेखनीय समकालीनता और कोरोना-काल है। वे अपने वर्तमान को जिस ढंग से देखते-समझते हुए कविता की निर्मिति करते हैं, उसमें सरलता, सहजता और संवादप्रियता व्यापक तौर पर स्थाई भाव के रूप में है। वे जिस अनुभव और जीवन को अपनी कविताओं के माध्यम से साझा करते हैं, उनका सीधा सरोकार हमारे जीवन से है। जीवन स्वयं में एक कविता है। जीवन कविता की एक बड़ी किताब है, जिसे कवि अपनी कविताओं में अंश-दर-अंश प्रस्तुत करता रहा है। यह संग्रह भी उसी समेकित जीवन की झलक है, जो कवि के चारों तरफ फैली सकारात्मकता और नकारात्मक के साथ वह पाता है और उसे अपने ढंग से देखता-परखा है। यह भी सच है कि उनका अपना एक विशाल पाठक-समुदाय है। डॉ. लालित्य को चाहने और पढ़ने वालों का बड़ा वर्ग है और इसी में कुछ ऐसे भी है जो कहीं किसी कोने से नकारने का भाव भी रखते हैं। कुछ ऐसे भी है जो बिना पढ़े भी नकार सकते हैं, कारण इतना लिखा है और अधिक लिखना उनकी नजर में अच्छा नहीं होता है। यह आवश्यकता से अधिक सावधानी पूर्वाग्रह का रूप ले लेती है तो रचना के मूल्यांकन की बात छूट जाती है।  

            जो व्यक्तिगत रूप से कवि लालित्य को जानते है और उनके द्वारा कविता पाठ का आनंद ले चुके हैं, वे इस बात पर सहमत होंगे कि कविता में आए तमाम ब्यौरे और विवरण ऐसे होते हैं कि उन्हें यदि स्वयं कवि के श्रीमुख से पाठ सुना जाए तो एक नया आस्वाद सम्मिलित होता है। कवि की मुद्राओं, आरोह-अवरोह और भाव-भंगिमाओं के साथ टिप्पणियों द्वारा इन कविताओं की रसात्मकता मूल पाठ में वृद्धि करने वाली कही जा सकती है। वैसे इन कविताओं के मूल पाठ में अनेक मार्मिक स्थल देखे जा सकते हैं। कुछ कविताओं के अंश अपने आप में स्वतंत्र कविता की गरज सारने वाले हैं। जैसे इन पंक्तियों को देखेंगे तो लगेगा- यह पूरी कविता के विन्यास में तो अपनी अभिव्यंजना के साथ व्यस्थित है ही, किंतु यह एक स्वतंत्र कविता के रूप से भी प्रभावित करती है- ‘अब प्रेम वैसा रहा नहीं/ सब समझती है ये आंखें/ कि सामने वाले के मन में कितना जल है/ और कितना सजल है वह खुद भी!’

            हिंदी कविता और खासकर इक्कीसवीं शताब्दी की कविता में काव्य-भाषा में जो बदलाव हुआ है, वह यहां भी देखा जा सकता है- ‘समय हर सवाल को अपने हिसाब से/ हल कर देता है/ तुम सवाल हो/ मैं समय हूं/ खुश रहने की आदत डालें’ कविता का सौंदर्य जो पहले विभिन्न युक्तियों के बल पर होता था, वह अब सादगी और सरलता में भी संभव होता दीखता है- ‘यही जीवन है / जहां कुछ अपने हैं/ कुछ पराए हैं/ एक उम्र में/ आदमी जी लेता है/ कई कई जिंदगी एक साथ’ इसका कोई विशेष कारण यदि हम समझना चाहे तो वह है पूर्वाग्रह सहित जीवन और सपाट बयानी। जैसे- ‘जिंदगी इत्ती बुरी भी नहीं / जित्ता हम/ सोच लिया करते हैं बाबू’ इसलिए कवि लालित्य को जीवन के लालित्य को खोजने समझने का कवि कहना चाहिए। वे कहीं कहीं तो सीधे आह्वान की मुद्रा में कहते हैं- ‘अरे!/ अभी फायदे की दुनिया से/ बाहर निकल कर देखो’ और जैसा कि मैंने महसूस किया कि कवि पूर्वाग्रह से युक्त होकर भी, वह जिस मुक्तिकामी दृष्टि से जीवन की बात करता है वह उल्लेखनीय है- ‘मन में आया तो सोचा कह दूं/ मानना न मानना तुम्हारा काम/ हमें तो कहना था कह दिया/ नमस्कार!’

            कवि लालित्य का विश्वास जीवन के सौंदर्य को कविताओं में अभिव्यंजित करने में रहा है। वे ‘गुलदस्ते’ जैसी कविता में वाट्सएप और मैसेंजर में आने वाले अनचाहे संदेशों के बारे में खीज प्रकट करते हैं। यह असल में ऐसा यथार्थ है जिससे हमारी भी भेंट होती रही है। ऐसी रचनाओं को कुछ मित्र कविता की श्रेणी में रखने से गुरेज कर सकते हैं, क्योंकि किसी घटना की सीधी सीधी प्रतिक्रिया अथवा प्रत्युत्तर कविता हो यह कठिन-साध्य है। किंतु यह कविता को लेकर अपनी-अपनी अवधारणा और कविता के क्षेत्र में स्वतंत्रता का मुद्दा भी है। असल में कविता क्या है या क्या नहीं है, इसका कोई सीधा-सीधा सूत्र अथवा जांच-उपकरण निर्मित ही नहीं किया जा सका है। यह फैसला समय का होता है और यह फैसला भी समय का ही होगा कि ‘प्रेम शब्द है ही ऐसा जो/ किसी को भी आवाज दे सकता है’ इसी तर्ज पर कहें तो कविता जब किसी को आवाज देती है और वह कवि जब उस आवाज को सुन लेता है, तब वह ऐसा फैसला लेता है- ‘ऐसा कुछ लिख दो/ जिससे अंधेरे घर में रोशनी हो जाए।’ संग्रह की अधिकांश कविताएं वर्तमान समय और समाज पर रोशनी डालती हैं।

            कोरोना-काल में लेखक और प्रकाशक के साथ कवि अपने पाठकों, घर परिवार के साथ सभी रिश्ते-नातों के गणित को खोलता हुआ हमें एक ऐसे लोक में ले जाता है जो हमारा अपना जाना-पहचाना है। अपने जाने-पहचाने को कवि की आंख से देखना निसंदेह हमें ऊर्जा और उत्साह देने वाला है। प्रेम के विविध रूप भी संग्रह में प्रभावित करने वाले हैं। कवि मित्र लालित्य को मैं बहुत-बहुत बधाई देते हुए उनके प्रति आभार प्रकट करता हूं कि बहुत कुछ बाकी है अनकहा और उस बहुत कुछ को सतत रूप से वे कविताओं में सहेजते रहेंगे। इन्हीं शुभकामनाओं के साथ आशा करता हूं कि एक साथ इतनी संख्या में कविता-संग्रह आने का यह कीर्तिमान पाठक-मित्रों को जरूर पसंद आएगा और इस उपक्रम से समेकेतिक रूप से कवि लालित्य ललित के कवि-कर्म पर चर्चा हो सकेगी।

 डॉ. नीरज दइया

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