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राजस्थान की बाल कहानियों का एक श्रेष्ठ संकलन / डॉ. नीरज दइया

हिंदी और राजस्थानी के प्रख्यात व्यंग्यकार-कहानीकार बुलाकी शर्मा की बालसाहित्यकार के रूप में भी पर्याप्त ख्याति है। साहित्य अकादेमी से सम्मानित शर्मा विगत चार दशकों से अधिक समय से विविध विधाओं में सृजनरत हैं। आपके बाल साहित्य के अवादान की बात करें तो ‘अनोखी कहानी’ (उपन्यास) ‘हमारी गुड़िया’, ‘सरपंच साहिबा’ (नाटक), प्यारा दोस्त’, ‘चमत्कारी ताबीज’, ‘बदल गया शेरू’, ‘पसीने की कमाई’, ‘चुनिंदा बाल कथाएं-कहानियां’ आदि अनेक पुस्तकें हैं, जो चर्चित रही हैं। इसके साथ ही गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर के चयनित बाल साहित्य का राजस्थानी भाषा में आप द्वारा किया अनुवाद दो खंडों में साहित्य अकादेमी नई दिल्ली ने प्रकाशित किया है। डायमंड प्रकाशन ने आजादी के अमृत महोत्सव के अवसर पर अलग-अलग प्रांतों और भाषाओं के आधार पर अनेक संपादित कहानी-संकलन प्रकाशित किए हैं। इसी योजना में बुलाकी शर्मा ने ‘21 श्रेष्ठ बालमन की कहानियां राजस्थान का संपादन किया है।

            राजस्थान के बाल साहित्य की बात करें तो यहां अनेक बाल साहित्यकार हुए हैं। इक्कीस कहानीकारों का फोटो-परिचय और एक-एक कहानी इस संकलन में शामिल की गई है। संपादक ने दिवंगत बाल कहानीकारों को शामिल नहीं करने की योजना लेकर कार्य किया, किंतु संकलित बाल कहानीकार हरदर्शन सहगल (1935-2022) दिवंगत हो गए हैं। आपकी बाल कहानी ‘लंगड़ी चिड़िया’ एक बेहद खुवसूरत कहानी है। इस कहानी में निशी के माध्यम से बहुत सहज भाव से लंगड़ी चिड़िया का उदाहरण देकर यह समझाने का प्रयास किया गया है कि प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में सिद्धांत और कार्य के प्रति लगन का होना अनिवार्य है। यही वह सूत्र है जिसके बल पर हमें सफलता मिलती है।

            संपादक बुलाकी शर्मा ने संग्रह के कहानीकारों को जन्म दिनांक से अवरोही क्रम में व्यवस्थित किया है। ‘21 श्रेष्ठ बालमन की कहानियां राजस्थान’ में लक्ष्मीनारायण रंगा (4 फरवरी, 1934) से लेकर डॉ. सत्यनारायण सत्य (12 जून, 1980) तक को शामिल किया गया है। दोनों रचनाकारों की आयु में 46 वर्षों से अधिक का अंतर है जिसका अभिप्राय यह है कि एक लंबे अंतराल में घटित हुए साहित्य के आरोह-अवरोह और परिवर्तनों की आंशिक झलक भी यहां मिलनी चाहिए। साथ ही संकलित कहानियों में राजस्थान की माटी की महक भी मुंह बोलनी चाहिए। कहानियों में कहीं-कहीं राजस्थानी भाषा का प्रयोग और परिवेश-चित्रण कुछ स्तर तक यह अहसास करता है।

            संग्रह में संपादक बुलाकी शर्मा ने अपनी कहानी ‘सबसे अच्छा सबसे प्यारा’ संकलित की है। इस कहानी में दो पात्रों पवन और राजी के माध्यम से लेखक ने बहुत सहजता से ईमानदारी और भाईचार जैसे जीवन मूल्य को प्रस्तुत किया है। कहानी में जो पात्र आएं है उनके बालमन का कहानी में मर्मस्पर्शी चित्रण हुआ है।

            वरिष्ठ नाटककार लक्ष्मीनारायण रंगा की बाल कहानी ‘वह इंतजार करता रहा’ में ग्रामीन जनजीवन के साथ अपनी मिट्टी के प्रति प्रेम का पाठ है। बाल कहानीकार के लिए यह चुनौती होती है कि वह किस प्रकार कथानक का निर्वाहन करे कि कहानी में पठनीयता-रोचकता बनी रहे। ‘आजादी का आनंद’ (आर. पी. सिंह) में एक पुराने और रूढ़ हो चुके कथानक को आधार बनाकर बालक बंटी का हृदय परिवर्तन द्वारा स्वतंत्रता का संदेश प्रस्तुत हुआ है वहीं ‘झण्डा ऊंचा रहे हमारा’ (डॉ. सत्यनारायण सत्य) में जासूसी कहानी जैसे राजस्थान के सीमावर्ती क्षेत्र में होने वाले बम-धमाके को निरोधक दस्ते द्वारा बालक द्वारा रोकना अभिव्यक्त हुआ है। क्या अब भी हम बच्चों को भूत प्रेत की कहानियां देते रहेंगे। बच्चों में शिक्षा के द्वारा वैज्ञानिक चेतना का विकास हो चुका है और ‘अंधविश्वास से मुक्ति’ (दिनेश विजयवर्गीय) जैसी कहानियां बीते समय की कहानियों का अहसास कराती है।

            बाल कहानी में नयापन और कुछ आकर्षक होना ही चाहिए। जैसे कहानी ‘हबपब टोली’ (मुरलीधर वैष्णव) की बात करें तो इसके शीर्षक में एक आकर्षण अर अर्थ में छिपा कर रखा गया है। हबपब का अभिप्राय- ‘हरियाली बढ़ाओ, पर्यावरण बचाओ’ नवीन है किंतु कहानी के विकास में शिव के दर्शन का तथ्य जोड़ना कहानी को रूढिगत मूल्यों की तरफ ले जाना है। इसके इतर वहीं कहानी ‘पेड़ और बादल’ (गोविंद शर्मा) में देखेंगे तो वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ इसी तथ्य को बहुत सुंदर ढंग से प्रतिपादित किया गया है। वरिष्ठ लेखिका विमला भंडारी ने भी अपनी कहानी ‘फूल खिले गली-गली’ के माध्यम से आकर्षक ढंग से फूलों के महत्त्व को रेखांकित करते हुए दो भिन्न-भिन्न संस्कृतियों की झलक से कहानी को अधिक जानने-समझने और सीखने का उद्गम बनाया हैं। ‘फूलों जैसी ऐलेना’ (इंद्रजीत कौशिक) में जहां बच्चों और फूलों की तुलना है वहीं ‘समझ गया सूरज’ (रेखा लोढ़ा ‘स्मित’) में पेड़ और कागज के संबंध बताते हुए कागद की बर्बादी को रोकने का सुंदर संदेश है।

            बाल कहानियों में संदेश को किस प्रकार जीवनानुभव के साथ प्रस्तुत किया जा सकता है इसका एक नमूना ‘बाल वाटिका’ के संपादक और प्रख्यात बाल साहित्यकार डॉ. भैरूंलाल गर्ग की कहानी ‘अपने काम में कैसा संकोच’ में देख सकते हैं। इस बाल कहानी में पढ़े-लिखे और शहरी मानसिकता में जीवन जीने वाले छात्रों को अपने छोटे-छोटे कामों को स्वयं करने का संदेश उनके ही एक ऐसे कार्य से दिया है, जिसमें उनके पश्चात होता है और वे संकल्पबद्ध होते हैं। इसी भावभूमि पर छोटे बच्चों के लिए ‘अपने काम अपने हाथ’ (ओमप्रकाश भाटिया) बाल कहानी में घर-परिवार और विद्यालय द्वारा बच्चे के सर्वांगीण विकास के लिए कुछ सूत्र देती कहानी है। बच्चों को स्वयं अवसर देने की बात अक्सर कही जाती है, यह भी कहा जाता है कि बच्चे गिर गिर कर खुद उठ सीखते है। कहानी इन्हीं बातों को समाहित करती है और खुद काम करने के आनंद के साथ ही उस निराले सुख को भी बालमन से अभिव्यक्त करती है। किसी लोककथा की भांति विकसित होती कहानी ‘खुशी दो, खुशी लो’ (राजकुमार जैन ‘राजन’) में भी बच्चों के लिए एक सुंदर संदेश भाषिक कौशल और शिल्प के प्रयोग से प्रतिपादित हुआ है।

            बच्चों के जीवन में किताबों का कितना महत्त्व हो सकता है इस बात को केंद्र में रखते हुए ‘बेकार तोहफा’ (कुसुम अग्रवाल) कहानी में सुंदर ढंग से दो दोस्तों के माध्यम से कहानी को आगे बढ़ाया गया है तो ‘दादी बदल गई’ (इंजीनियर आशा शर्मा) कहानी में लोक मान्यताओं के बदलाव को सुंदर ढंग से दिखाया है। कहानी में बिल्ली के बच्चे के माध्यम से पशु-पक्षियों से प्रेम की बात है तो साथ में दादी के व्यवहार और विचारों में किस प्रकार सहज परिवर्तन हुआ को कहानीकार ने सुंदर ढंग से समायोजित किया है। किरण बादल की कहानी ‘नन्हा जादूगर’ में जहां बालकों में असमानता और वर्ग-भेद को मार्मिक ढंग से रेखांकित कर हमें इस दिशा में सोचने का संदेश दिया है।  

            ‘बड़े बाप की बेटी’ (गोविंद भारद्वाज) की कहानी में फैंसी ड्रेस प्रतियोगिता के आयोजन को केंद्र में रखते हुए विनम्रता के संदेश दो सहेलियों के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। ‘मम्मी का बचपन’ (कीर्ति शर्मा) और ‘मनु मन से अच्छा’ (डॉ. पूनम पाण्डे) आदि अनेक कहानियां जिन पर बात की जा सकती है। यहां संग्रह में संकलित कहानी ‘पापा झूठ नहीं बोलते’ (डॉ. अंजीव अंजुम) के शीर्षक को देख प्रसिद्ध बाल साहित्यकार दीनदयाल शर्मा की इसी नाम से प्रकाशित पुस्तक का स्मरण हो आया। एक ही शीर्षक पर दो कहानियां लिखी गई है किंतु जो सहजता-सरलता दीनदयाल शर्मा की कहानी है वह अंजुम के यहां दिखाई नहीं देती है।

            बालमन की बात इन बाल कहानियों और कहानीकारों को लेकर करें तो अलग अलग स्तर पर देख सकते हैं। कुछ कहानियों में अभी भी बच्चों को वही छोटे और पुराने जमाने के बच्चों जैसा चित्रित किया गया है, किंतु कुछ में बच्चे समय के साथ आगे बढ़ते हुए इक्कीसवीं सदी के नए बच्चे अपनी भाषा और कार्यों से लगते हैं। यहां राजस्थान के अनेक बाल साहित्यकार छूट गए हैं अथवा कुछ को संख्या और की सीमा के कारण छोड़ दिया गया है। किसी रचनाकार को शामिल करने का अथवा नहीं करने का फैसला संपादक का होता है। फोंट साइज थोड़ा बड़ा और कहानियों के साथ यदि मनभावन चित्र होते तो यह सोने पर सुहागा होता। यह राजस्थान की बाल कहानियों का एक श्रेष्ठ संकलन है और इसे बाल साहित्य की एक जरूरी किताब कहा जा सकता है।  

  समीक्षक : डॉ. नीरज दइया, बीकानेर (राज.)

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21 श्रेष्ठ बालमन की कहानियां राजस्थान (बाल कहानी संग्रह)

संपादक – बुलाकी शर्मा

प्रकाशक- डायमंड बुक्स, नई दिल्ली

प्रथम संस्करण- 2022 ; पृष्ठ- 106 ; मूल्य- 150/-

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देवेन्द्र कुमार की बाल कहानियों का अद्वितीय लोक / डॉ. नीरज दइया

 

संपादक आदरणीय डॉ. भैरूंलाल जी गर्ग का ‘बाल वाटिका’ के इस विशेषांक के लिए आलेख लिखने का आग्रह जान कर मैं बेहद खुश हुआ कि मुझे एक बड़ा काम दिया जा रहा है। मैंने गर्ग साहब के आग्रह को हमेशा की भांति एक आदेश की भांति ग्रहण किया। डॉ. गर्ग जी और बाल बाटिका का अवदान वंदनीय है। बाल साहित्यकार देवेंद्र कुमार जी की बाल-कहानियों पर लिखना कोई सहज काम नहीं है। मैंने निवेदन किया कि देवेंद्र कुमार जी कहानियों को पढ़ा तो है किंतु उनकी समग्र कहानियों अब पढ़ा जाना अनिर्वाय है। तब ज्ञात हुआ कि विशेषांक की योजना में प्रकाश मनु जी भी शामिल रहे हैं और वे मुझे देवेंद्र जी की चयनित कुछ कहानियां ई-मेल से भेजेंगे।

            डॉ. भैरूंलाल गर्ग (1949) और प्रकाश मनु जी (1950) का अपने वरिष्ठ लेखक मित्र देवेंद्र कुमार जी (1940) के प्रति प्रेम, आत्मीयता और श्रद्धा भाव रेखांकित करने योग्य है। हमारे समय के तीनों वरिष्ठ लेखक उम्र के इस मुकाम पर भी बच्चों की कोमलता और निश्चलता को हृदय में बचाए-बनाए हुए इतने सक्रिय, सहयोगी और आत्मीय हैं कि हमें प्रेरित करते हैं। देवेंद्र जी लंबे समय से बाल कहानियां लिख रहे हैं, तो मेरा अथवा किसी का भी पहला सवाल यही होगा कि उन्होंने पहली बाल कहानी कब लिखी? इसका सही-सही उत्तर यदि उनसे ही प्राप्त हो जाए तो उत्तर में कोई संदेह नहीं रहेगा। देवेंद्र जी ने बताया कि उन्हें अब यह याद नहीं है कि उन्होंने बच्चों के लिए पहली कहानी कब लिखी थी। विगत स्मृतियों में लौटते हुए उन्होंने स्पष्ट किया कि वे पहले बड़ों के लिए लिखते थे। बच्चों के लिए उन्होंने छिटपुट कुछ कथाएं लिखी जरूर थी, पर बाल साहित्य में उनका नियमित लेखन वर्ष 1970 के आसपास हुआ। जब देवेंद्र जी की बाल कहानी ‘अध्यापक’ लोकप्रिय पत्रिका ‘पराग’ में छपी और उनको संपादक श्री आनंद प्रकाश जैन ने अपने पत्र में कहा- ‘तुम अच्छा लिख सकते हो और लिखो।’ तो उनके इस दिशा में जैसे पंख लग गए। इसी पत्र ने उन्हें बच्चों के लिए लिखने की अमिट प्रेरणा दी।

            संयोग यह बना कि देवेंद्र जी ने वर्ष 1971 में लोकप्रिय बाल पत्रिका मासिक ‘नंदन’ में काम करना शुरू किया। नैतिकता का तकाज़ा स्वीकार करते हुए वे संपादक के रूप किसी अन्य बाल पत्रिका में छपने से बचते रहे अथवा कहें कि उन्होंने तब अन्यत्र नहीं छपने का निर्णय ले लिया और ‘नंदन’ के लिए ही लिखना उनकी नौकरी का एक जरूरी हिस्सा बन गया। नंदन में रहते हुए उन्होंने  परियों की अनेक कहानियां लिखी। उनकी कहानियों के विषय पुराणों से जुड़े हुए होते थे। उन्हें एक सीमा में रहते हुए मांग के अनुरूप अनेक कहानियां लिखनी थी, जो उन्होंने लिखी। यह उनकी पत्रिका की मांग थी। उन्होंने तब के लेखक को अपने मौलिक लेखन में शामिल नहीं किया है। यह उल्लेखनीय है कि उन्होंने नौकरी के सिलसिले में लिखी उन सारी कहानियों अपनी नहीं मानते हुए कहीं संकलित रूप में प्रकाशित नहीं करवाया है। वे  कहानियां उनके किसी बाल-कथा संकलन का हिस्सा नहीं बनी। देवेंद्र जी ने बताया कि नौकरी में रहते हुए उन्होंने बाल उपन्यासों पर अपना ध्यान केंद्रित किया और उनके सभी बाल उपन्यास उन्हीं दिनों प्रकाशित हुए हैं। देवेंद्र जी से मेरे संवाद का पूरा श्रेय पत्रिका के संपादक गर्ग साहब को देना चाहता हूं कि अगर वे मुझे यहां शामिल नहीं करते तो मैं अनेक बातें जान ही नहीं पाता।

            अब देवेंद्र जी केवल बाल साहित्य के क्षेत्र में सक्रिय हैं और खुशी की बात है कि वे बच्चों के लिए मौलिक लेखन निरंतर कर रहे हैं। उनकी कहानियों के पात्र उनके अपने परिवेश से आती हैं, हमारे समाज में एक वर्ग समाज से उपेक्षितों और वंचितों का भी है, उसी वर्ग से अनेक कथानक उनकी कहानियों में आते रहे हैं। उन्होंने बताया कि ‘नंदन’ पत्रिका में उनका कार्यकाल लगभग 27 वर्षों का रहा। उनको अपने कार्यकाल में यह बात सदा परेशान करती रही कि वे परी कथाओं के राजसी परिवेश में नेपथ्य में रहने वाले साधारण पात्रों पर केंद्रित कहानियां कब और कैसे लिखेंगे...। खैर बाद के वर्षों में उनको अपने मन के अनुकूल रचने का अवसर मिला और उन्होंने विपुल लेखन किया है।

            आदरणीय प्रकाश मनु जी द्वारा आरंभ में देवेंद्र जी की चुनिंदा 20 कहानियां पढ़ने का सौभाग्य मिला। इसका पूरा श्रेय ‘बालवाटिका’ के संपादक गर्ग साहब को जाता है कि उन्होंने विशेषांक के लिए लिखने का कहा और मैंने कुछ और रचनाएं पढ़ने की इच्छा जाहिर की तो 18 अन्य कहानियां प्राप्त हुई। किसी बाल कहानीकार को समझने के लिए इतनी रचनाएं पर्याप्त हैं। देवेंद्र कुमार जी की ‘31 बाल कहानियां’ और ‘इक्यावन बाल कहानियां’ जैसी बड़ी अनेक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। उन्होंने ‘विश्व प्रसिद्ध बाल जासूसी कहानियां’ आदि लोकप्रिय कृतियां बाल साहित्य को दी हैं। देवेंद्र जी द्वार रचित समग्र बाल कहानियों का संचयन पढ़ने की मैं अभिलाषा रखता हूं।

            प्रत्येक बाल कहानी का एक उद्देश्य होता है कि वह बालकों को अपनी बात कहे। कुछ कहना अथवा समझाना सीधे सीधे बाल कहनियों में अभिव्यक्त हो तो ऐसा उनका कमजोर पक्ष कहा जाता है। माना कि कोई भी लेखक बिना किसी उद्देश्य के कोई बाल कहानी की रचना नहीं करता है किंतु कुछ कहना और उपदेश की शैली में नहीं कहना है यह भी रचनाकार को देखना होता है। समझने समझाने की बात करेंगे तो बहुत कुछ तो समझा दिया गया है पहले से ही तो क्या उसी के इर्द-गिर्द फिर से नए बाल साहित्य में काम होता रहेगा। मूल्यों की बात हो या फिर अच्छे जीवन और बोध की यदि नवीन परिस्थितियों और पर्यावरण में उसे नए ढंग से कहा जाएगा तभी लिखना सार्थक होगा। संभवतः यही कारण है कि देवेंद्र कुमार जी की कहानियां का मुख्य विषय समकालीन समय-समाज में युगबोध रहा है। इन कहानियों में एक तरफ जहां जीवन की अनेक समस्याओं को चित्रित अभिव्यक्त किया गया है वहीं दूसरी तरफ बस कुछ स्थितियों के चित्र उकेर कर उनको जस का तस प्रस्तुत भर कर दिया गया है। कहीं कोई आदेश, उपदेश या आग्रह नहीं है। बाल पाठक स्वयं अपने विवेक से इनसे उन्हें जो कुछ ग्रहण करना है वे ग्रहण करेंगे। देवेंद्र कुमार हमारे समय के ऐसे लेखक हैं जो वर्तमान समय की ज्वलंत समस्याओं को अपनी रचनाओं के केंद्र में रखते हैं।

            साफ-सफाई और स्वच्छता की बात करें तो कहानी ‘पूरी बाबा’ में हम देखते हैं कि इसी उद्देश्य को बहुत सुंदर और सार्थक ढंग से न केवल रेखांकित किया गया है, वरन कहानी में एक युक्ति प्रयुक्त कर बच्चों को इस दिशा में क्रियाशील भी किया गया है। यदि बच्चे स्वयं साफ-सफाई और स्वच्छता के महत्त्व को जान जाएंगे तो वे भरपूर  सहयोग करेंगे। यह भी सत्य है कि कुछ बच्चों को इस दिशा में संलग्न देख अन्य भी उनके कार्यों से प्रेरणा पाते हैं।

            कहानी में बहुत सहजता और सरलता से कुछ घटनाओं को वर्णित किया गया है। रविवार के दिन मोहल्ला समिति द्वारा लंगर का आयोजन होना और लंगर या मुफ्त भोजन का सुबह दस बजे से बारह बजे तक चलना कहानी का मुख्य विषय है। उसके बाद होता यह है कि वहां दूर-दूर तक जूठन तथा गंदी प्लेटें बिखरी हुई है पर साफ-सफाई नहीं है। सफाई करने वाला शाम को आता है, तब तक बिखरी जूठन और गंदी प्लेटों के ढेर पर कुत्ते मुंह मारते हैं और साथ ही कई बच्चे उनमें से अपने खाने का सामान जुटाने लगते हैं। अधखाई पूरियां में अपना खाना तलाशते बच्चों को कहानी के केंद्र में लाकर कहानीकार ने कथानायक रामदास बाबू के माध्यम से एक बुरे रविवार को अच्छा बनाने का सुंदर प्रयास किया है। कचरा और गंदगी बुरी बात है लेकिन उसे ठीक कैसे करें? स्वच्छता जरूरी है किंतु वह आएगी कैसे? क्या सफाईकर्मी का इंतजार किया जाए या स्वयं ही इस कार्य में हमें लग जाना चाहिए? क्या हलवाई धनराज से शिकायत की जाए कि भैया यह सब तुम्हारे कारण हो रहा है? या फिर जूठन से भोजन ढूंढ़ते बच्चों को डांटकर भगाया जाए? यह स्थित कैसे बदल सकती है? कहानीकार ने रामदास बाबू के माध्यम से उन्हीं कमजोर और पिछड़े बच्चों को सफाई पर लगा दिया है। उन बच्चों को बदले में भोजन देना कहानी में एक अनुकरणीय उदाहरण के रूप में प्रस्तुत हुआ है। इसी से रामदास का नाम पूरी बाबा हो गया। कहानी का एक अंश देखें-

            “रामदास बाबू ने कहा, “बच्चो, जरा देखो तो सब तरफ कितनी गंदगी फैली है। पहले हम सफाई करेंगे, फिर पूरी हलवा खाएँगे।”

            रामदास बाबू ने धनराज से दो बड़े काले बैग ले लिए और फिर जूठी प्लेटें उनमें डालने लगे। इस काम में बच्चों ने भी हाथ बंटाया। थोड़ी ही दूर में दूर-दूर तक फैली गंदी प्लेटें और जूठन उन थैलों में समा गई। अब वहाँ गंदगी नहीं थी।”

            कहानी का अंत इन पंक्तियों के साथ होता है- “रामदास बाबू कुछ और भी सोच रहे थे, जैसे क्या इन बच्चों के लिए पढ़ाई का प्रबंध किया जा सकता है? उनके दिमाग में कई योजनाएँ घूम रही थीं। हर योजना के बीच में बच्चे थे, जिन्हें वे कभी जूठन में पूरी नहीं ढूँढने देंगे।”

            बच्चे ही आने वाले कल का भविष्य है और यदि वे साफ-सफाई के लिए जागरूक हो जाएं तो अनेक समस्याओं का समाधान हो जाएगा। सफाई की ही बात को देवेंद्र जी एक अन्य काहनी ‘प्याऊ में क्या’ में भी देख सकते हैं। इस कहानी में भी बच्चों ने मिलकर सफाई की, इसी प्रकार कहानी ‘पिकनिक’ में भी सफाई के महत्त्व को बिना किसी उपदेश के स्वयं कार्य कर प्रेरणा दी गई है।

            ‘मेरा बस्ता’ कहानी में भी लेखक हमारा ध्यान कचरा बीनने वाले गरीब और पिछड़े बच्चों की तरफ इंगित करता है कि इनका कल्याण कैसे किया जाए? कहानी में ऐसे बच्चों के स्कूल और शिक्षा के प्रयासों को प्रस्तुत किया गया है। स्वयंसेवी संस्थाओं के कार्यों से हम प्रेरित हो कर कुछ कर सकते हैं। ऐसी कहानियों से ऐसे बच्चों के प्रति संवेदनशीलता, सद्भावना और सहानुभूति विकसित होती है। ‘खाली गिलास’ कहानी में एक बालश्रमिक को शोषण के चुंगल से छुटकारा दिलाने की अभिव्यक्ति मिली है। कहानी ‘स्कूल चलो’ में साक्षरता की बात को प्रमुखता से उठाया गया है। बड़ों को भी पढ़ने की आवश्यकता है और बालक भरतू को गुरुजी बनाकर सिक्शेवाले का पढ़ने के लिए प्रेरित होना, असल में बालकों को पढ़ने-पढ़ाने की प्रेरणा से भर देने वाली कहानी है।

            बालमन कोमल और भोला होता है। किंतु मुझे लगता है कि बच्चों के साहित्य में आयु के वर्गों के मुताबिक कुछ भेद होना चाहिए। ऐसा किया भी गया है- किशोर साहित्य को अलग से रेखांकित किया जाने लगा है। कहानी ‘बच्चे फूल हैं’ में बच्चों और फूलों का साम्य प्रस्तुत करते हुए, फूलों को आपस में बतियाते दिखया गया है। फूल हवा से बातें करते हैं और बच्चों से भी। गंदगी के ढेर में फूलों की बातें और उनके सपने निसंदेह बच्चों को प्रभावित करने वाले हैं। इस काहनी को भी एक प्रकार से हम स्वच्छता और पर्यावरण के प्रति जागरूकता की श्रेणी में रख सकते हैं। कहानीकार देवेंद्र जी की कहानियों के केंद्र में बेसहारा, कमजोर और बाल श्रम करने वाले अनेक बच्चे और उनके परिवार बार बार आते हैं। कहानी ‘बंद दरवाजा’ ऐसे बच्चों को सहयोग करने की दास्तान सुंदर ढंग से कहती है जो बच्चे बेसहारा हैं।

            बाल साहित्य लेखन में हमे यह देखना होता है कि एक लेखक अपने पर्यावरण, परिस्थितियों और समय की समस्याओं को किस तरह देखता, दिखता और अभिव्यक्त करता है। बाल साहित्यकार अपने मन-मस्तिष्क में एक नई दुनिया की कल्पना करता है, वह बच्चों को एक बेहतर दुनिया सौंपना चाहता है जहां वे जिम्मेदार नागरिक के रूप में अपना दायित्वबोध जान सके। वह आने वाली पीढ़ी को संस्कार, शिक्षा और अंतर्दृष्टि देना चाहता है कि वह दुनिया में अपना बेहतर योगदान दे सके। इसके लिए जरूरी है कि बाल कहानियों में प्रस्तुत बच्चों का दूसरे बच्चों के साथ व्यवहार संवेदनशील हो। बच्चे अपनों से कमजोर और छोटों के प्रति भाईचार विकसित करें, समाज के पिछड़ा वर्ग को भी वे महत्वपूर्ण मानकर उसके प्रति भी अच्छा नजरिया विकसित करें।

            यह युग नया है और इसमें नई तकनीक उनकी समझ और निर्णय में सहायक बन सकती है, यह बात भी उन्हें समझानी है। बाल साहित्य में बच्चों की दुनिया के यथार्थ ही उन्हें दुनिया से तादात्म्य स्थापित करने में सहयोगी हो सकते हैं। लेखक ने प्रायः सभी कहानियों में एक सामान्य जीवन का आरंभ करते हुए उसे घटनाक्रम से ऐसे आगे बढ़ाने का प्रयास किया है कि बालक स्वयं ऐसी घटनाओं, परिस्थिति में किए गए पात्रों के कार्यों से प्रेरणा पा सके। कहानियां अनेक है और प्रत्येक कहानी पर विस्तार से बात की जा सकती है किंतु हम यहां उनकी कुछ चयनित और श्रेष्ठ कहानियों पर बात करें तो सहज ही एक कहानी ‘सुख-दुख’ का स्मरण होता है। यह कहानी मार्मिकता के साथ जीवन में सुख और दुख के गतिशील होने की स्थितियां प्रस्तुत करती हैं। कहानी में बर्तनों के संवादों के माध्यम से कौतूहल है और शिक्षा भी। चम्मच और थाली का संवाद जहां रोचक और रोमांचक है, वही बच्चों के लिए यादगार भी है। कहानी की कोई स्थिति कोई संवाद या कोई बात बाल मन में अटकी रह जाए और उनसे वे संवेदनशील बने यही तो हम सब चाहते हैं।

            ‘जरा ठहरो तो दुष्टों!’ भी एक अद्वितीय बाल कहानी है, जिसमें पर्यावरण और मनुष्य के संबंध को परिभाषित किया गया। मनुष्य को चाहिए कि वह अपने आसपास के पर्यावरण को देखे, समझे और संभाले... किंतु वास्तविकता इसके विपरीत है। वह पर्यावरण को नष्ट करने में तुला है। एक पेड़ और मनुष्य की छोटी-सी झड़प को कहानी का मूल आधार बनाया गया है। कहानी हमें एक ऐसी काल्पनिक दुनिया में ले जाती है जहां पेड़ अपने ढंग से पक्षियों के माध्यम से अपमान का बदला लेता है। पेड़ों में भी जान होती है और उनका हमें ध्यान रखाना चाहिए, मनुष्य और प्रकृति के समन्यव से ही यह सुंदर संसार आगे बढ़ सकता है और हमें एक दूसरे का ध्यान रखना चाहिए। एक कहानी एक सुंदर उदाहरण कि किस प्रकार शुद्ध मनोरंजन के साथ कहानी अपने उद्देश्य को बहुत कम शब्दों में पूरा करती है। बड़ी बात बालकों तक सहज संप्रेषित करना इस कहानी की कलात्मकता है।

            ‘भूले-बिसरे’ कहानी की बात करें तो उसमें यश और उसके फॅमिली डाक्टर हरीश रायजादा के बीच संवादों के माध्यम से बालकों को अपनी जड़ों से जुड़े रहने की प्रेरणा दी गई है। कहानी में दीवार पर फूलों के दो सुंदर फ्रेम मंडित चित्र दिखाते हुए संवाद का रोचक क्रम आगे बढ़ता है- “अंकल, ये फूल कौन से हैं?” कहानी में डॉ. हरीश का हँसते हुए कहना- “यश, सच कहूं तो मैं इन फूलों के बारे में कुछ नहीं जानता।” यह उक्ति बालकों और हमें जहां फूलों के बारे में जानने को प्रेरित करने वाली है, वहीं बदलते जीवन और समाज में प्रकृति से हो रहे अलगाव पर करारा व्यंग्य है। कहानी में गांव के अभावों के बीच एक डॉक्टर की सेवा का महत्त्व प्रस्तुत कर जैसे बालकों से अपनी जड़ों से जुड़े रहने का आह्वान किया गया है।

            पहले एक समय था जब संयुक्त परिवार थे और बालकों तक संस्कार शिक्षा पहुंचाने के अनेक तरीके थे अब जब जीवन की दौड़भाग और एकल परिवार में पीढ़ियों में अलगाव देख रहे हैं वहीं व्यक्ति और समाज स्वकेंद्रित होता जा रहा है। विश्व बंधुत्व की बात करने को हम करते हैं और करते रहेंगे किंतु अपने स्वयं के माता पिता के प्रति दायित्व को भी सर्वप्रथम हमें स्वीकार करना होगा। ‘मरना नहीं’ कहानी में नए समय में जो बच्चे अपने मां-बाप को अकेले छोड़ कर देश-विदेश में कमाने के लिए चल पड़ते, फिर लौटते नहीं विषय को कहानी का कथानक बनाया गया है। कहानी के कथानायक रामदयाल इस बड़ी दुनिया में अकेले रह गए, क्योंकि पत्नी की मृत्यु हो गई और बेटा कमाने के लिए बाहर गया हुआ है। वे अकेले हैं और मां के निधन के समाचार जानकर भी वह बेटा जो बंबई में अपने काम-काज में खो गया, घर नहीं आया। उसका संदेश आया- “बहुत उलझा हुआ हूँ, फुरसत होने पर आऊंगा।” यह बच्चों का विषय नहीं है पर बच्चों को समय रहते इसे जान लेना चाहिए कि अब घर में अकेला बूढ़ा बाप क्या करे? पत्नी और बच्चे के गम में अपनी जान दे दे या कुछ करे और अपने अनमोल जीवन का एक लक्ष्य निर्धारित करे। यह कहानी रामदयाल जी के माध्यम से उन बच्चों को बहुत कुछ कहने में सक्षम है जो असफलता पर आत्महत्या की सोचते हैं। कहानी में लेखक यह कहने में सफल रहा है कि जीवन अनमोल है और मनुष्य को किसी भी परिस्थित में हारना नहीं है, जीवन से भागना और आत्महत्या कोई विकल्प नहीं है।

            कहा गया है कि जीवन चलने का नाम, चलते रहो सुबह-शाम। हर दिन नई सौगात लेकर हमारे सामने आता है। ‘मिठाई’ कहानी में देवेंद्र कुमार जी ने जीवन के अप्रत्याशित घटनाक्रम को केंद्र में रखते हुए हमारे दायित्वबोध को अच्छे ढंग से ना केवल परिभाषित किया है उसे सहज स्पष्ट भी किया है। इस कहानी में कथानायक अमित को आगरा दफ्तर के काम से एक दिन के लिए जाना होता है और उसके पिता जी एक छोटे कागज में अपने मित्र का पता लिख कर थमा देते हैं कि उससे मिल कर आना। एक दिन के इस कार्यक्रम में अमित अपना काम पूरा कर, दिए गए पते पर मिठाई का डिब्बा लेकर पहुंचता है तो पता चलता है कि उसके पिताजी के मित्र शंभूजी की मृत्यु हो गई है, उनके घर ममत छाया है। ऐसे में अमित मिठाई के डिब्बे को दरवाज़े के बाहर रखी एक छोटी सी अलमारी पर छोड़ देता है। जब वह लौटता है तो पाता है कि मिठाई का डिब्बा गायब है। इसी कहानी में एक अन्य कहानी मिठाई के डिब्बे की चोरी की आरंभ होती है, जिसमें कहानीकार ने वंचितों के प्रति सद्भावना का सुंदर संदेश दिया है। इसी प्रकार एक अन्य कहानी ‘मिठास’ की चर्चा करना बेहद जरूरी है। मिठास कहनी में सोमू के कपट और उसकी छल-योजना को प्रेम से परिवर्तित होते दिखया गया है। किसी के हृदय को कोई नहीं पढ़ सकता है, किंतु सच्चे प्रेम और निश्चल व्यवहार में यदि अपनापन है तो वह अपने परिणाम अवश्य दिखाएगा। प्रेम से सब कुछ परिवर्तित किया जा सकता है। बुरे को अच्छा और भला प्रेम ही बनाता है। नेकी कर और दरिया में डाल। हमें हमारे दैनिक जीवन और कार्यों में अपना उद्देश्य लेकर चलाना चाहिए।

            परेश के पैर फिसलने से ‘मेरा गुलाब’ कहानी में एक गमला टूट जाता है. उसमें लगा पौधा एक ओर झुक जाता है। पौधों में भी जान होती है। हमें उनसे प्रेम करना चाहिए, इसे केंद्र में रखते हुए लेखक ने यहां भी एक ऐसा घटनाक्रम बुना है कि पाठक कहानी को पढ़ता चला जाता है। कहानी के अंत में वह पौधा तो ठीक हो जाता है और कथानायक परेश की दोस्ती गमले बेचने वाले बलराम से हो जाती है। बलराम ने अपनी झोंपड़ी के पीछे एक छोटी सी नर्सरी बना रखी है। प्रकृति हमें बहुत कुछ देती है और उसे सहेजना संभालना दायित्व हमारा है। इसी दायित्व-बोध को एक अन्य कहनी ‘सर्दी की चादर’ भी स्पष्ट करती है। बच्चों का फूलों से प्यार और दोस्ती को देवेंद्र जी ने अपनी अनेक कहानियों में भिन्न-भिन्न रूपों में नए नए तरीके से देखने-दिखाने का प्रयास किया है।

            भारतीय समाज में लड़के और लड़की में भेदभाव नया नहीं है। ‘मैं भैया जैसी’ कहानी में भाई-बहन के माध्यम से होते भेदभाव को एक विमर्श के रूप में प्रस्तुत किया गया है। बच्चों के सोचने-समझने का अपना एक ढंग होता है और उनके बालमन को खोलने वाली कहानियों में बाल मनोविज्ञान के अनेक आयाम समाहित होते हैं। ‘रोटी ने कहा’ कहानी में भोलू के आंसुओं में उसका दर्द बोलता है और रोटी ने उसका दर्द समझ लिया। उसके दर्द के लिए रोटी का बोलना केवल भोलू ही नहीं, उसके जैसे अनेक बच्चों के लिए जो ढाबों पर काम करते हैं दुख-दर्द की दास्तान कहना है। बालश्रमिकों की व्यथा-कथा को सीधे सरल शब्दों में कहानी बिना किसी उपदेश के मुखर हुए सहजता से कहती है।

            कहानी ‘वह मेरा दोस्त’ के माध्यम से बच्चों में अमीरी और गरीबी के आधार पर भेदभाव नहीं करने की शिक्षा दी गई है। कहानी में जरूरतमंदों की मदद करने में ही मानव धर्म है को एक सिद्धांत के रूप में प्रतिस्थापित किया गया है। कहानी कहती है कि प्रेम का धर्म ही सबसे बड़ा है और इसी से इस संसार में हमारे दोस्त बनते हैं। बालकों में शिक्षा और सुसंस्कारों के विकास के लिए उनके व्यवहार और कार्यों को कहानियों में प्रस्तुत किया गया है। जैसे एक कहानी ‘शुभ विवाह’ की बात करें जिसमें गुड्डे-गुडिया के खेल-खेल में विवाह का प्रसंग है, किंतु कहानी में इससे भी महत्त्वपूर्ण बच्चों का सफाईकर्मी के प्रति सद्भावना को प्रदर्शित करना है। देवेंद्र कुमार की कहानी कला की सार्थकता इस में है कि वे अपनी लगभग सभी कहानियों में मार्मिक प्रसंगों से उसे ना केवल पठनीय बनाते है वरन अनुकूल और योग्य व्यवहार की शिक्षा-संस्कार भी देते हैं।

            कहानी ‘वह लड़का’ में एक बाल मजदूर लड़के को दिखाया गया है, जिसके अपने कुछ सपने हैं। वह अपने खोए हुए पिता को ढूंढ़ना चाहता है। ऐसे लावारिश बच्चों पर कोई विश्वास नहीं करता है। कहानी का कथानक विश्वास और अविश्वास के बीच गति करता है। कथानायक विश्वास करके उसके दर्द को बाहर आने का रास्ता देता है। बच्चे पर भरोसा कर उसे साइकिल दिलाना और उससे यह उम्मीद करना कि वह लौट आएगा बुरा नहीं है। ऐसा होना चाहिए। वह बालक अपने पिता को ढूंढ़ने का प्रयास करेगा। दुनिया में सभी प्रकार के लोग है। कुछ अच्छे तो कुछ बुरे भी हैं। अच्छे और बुरे लोग समय के अनुसार बदलते भी हैं। कहानी ‘सिक्का और सांप’ में बुरे चरित्र में प्रस्तुत कुख्यात सिक्का का बदला हुआ रूप कहानी के विकास के साथ प्रस्तुत हुआ है। वह सांप काटे हुए व्यक्ति की समय पर मदद कर साधु के सामने अपने परिवर्तित चरित्र को प्रस्तुत करता है।

            कहानियां बहुत और किस की चर्चा की जाए किसे छोड़ा जाए। ‘बप्पा बाहर गए हैं’ कहानी में गरीब बालक के साथ हुई त्रासदी का वर्णन है। पिता के देहांत के बाद वह क्या करेगा? उसका भविष्य कैसा होगा? उसकी मां और परिवार की दशा को कहानी में मार्मिक ढंग से चित्रित किया गया है। ऐसे चरित्रों की कहानियों से दया और सहानुभूति के बीच बच्चों में ऐसे परिवारों-बच्चों के प्रति संवेदनाएं जाग्रत होती है। संवेदनाएं केवल मनुष्यों के लिए ही नहीं पशु-पक्षियों और वनस्पतियों के लिए भी अनेक कहानियों में मिलती हैं। ‘आओ नाश्ता करें’ कहानी में पक्षियों के भोजन के लिए बाबा और अमित की संवेदना का गणित बच्चों के समझ में आ जाए तो वे प्रकृति के साथ अच्छा व्यवहार करना सीख सकेंगे। कहानी ‘पंख बोलते हैं’ पुराने विषय पर नए ढंग से लिखी एक प्रभावशाली कहानी है। पक्षियों की आजादी का प्रसंग और उन्हें कैद नहीं कर खुले आकाश में उड़ने छोड़ देने की प्रेरणा कहानी के केंद्र में है।

            कहानी ‘नया घर’ में ऐसे बच्चों के जीवन को दिखाया गया है जो अभावों और दुखों के बीच सुख और खुशी के गणित को समझ लेते हैं। एक दुखी दूसरे अपने ही जैसे से मिल जाए तो वे मिलकर एक दूसरे के दुखों को बांट सकते हैं। संबंधों को मधुर बनाने से जीवन महक उठता है। अम्मा और मुनिया को दो लड़के- जीवन और रघु से मिलने से परिवार का सुखद अहसास होता है जो इस प्रकार कहानी में वर्णित हुआ है कि भुलाए नहीं भूलता। किताब पढ़ने की आदत सभी के लिए विकसित करना हमारा एक उद्देश्य होना चाहिए। कहानी ‘पीपल वाला चबूतरा’ में अजय के पापा रमेश का ट्रांसफर नई जगह हुआ तो रमेश के पिता रामचंद्र ने अपने लिए जनसेवा का अवसर खोज लिया। उन्होंने किताबों के वाचनालय के रूप में पीपल वाले चबूतरे को चुन लिया।

            यथार्थवादी कहानियों के बीच कुछ कहानियां राजा-महाराजाओं और परियों की भी देवेंद्र कुमार जी ने रची है। जैसे- ‘पानी नहीं चाहिए’ में परी के चमत्कार को दिखाकर फिर से उसी हालत में लौटना रोमांचकारी है। तो ‘पुल बना है’ कहानी में राजा दीपेंद्रनाथ के दरबार में चलती राजनीति के कारण उनके प्रिय वीरराज का उनसे अलगाव होना देख कर, वहीं कुछ समझदारों के कारण पुनः उनके मिलन को देखना एक समझदारी की शिक्षा है। रियासतों और राजाओं की कहानियों के क्रम में ही ‘मैं बदल गया’ कहानी में यशवंत सिंह की बहादुरी पर पड़ोसी राजगढ़ नरेश दलबीर सिंह की इर्ष्या प्रदर्शित हुई है। दलवीर सिंह चाहता था कि यशवंत सिंह भी दूसरे राजाओं की तरह उसके दरबार में हाजिर होकर उसे झुककर सलाम करे। इस प्रकार की कहानियां भी जरूरी है किंतु देवेंद्र कुमार जी की असल मेधा यर्थाथवादी मनोवैज्ञानिक कहानियों में बेहतर ढंग से उजागर होती है।

            देवेंद्र कुमार जी के लंबे अनुभव और कार्य से अनेक कहानियों में परंपरागत बातों को भी दिखाया गया है जो इस नए युग में विकल्प के रूप में याद रखी जानी चाहिए। माना कि रोशनी के लिए अब अनेक विकल्प मौजूद है किंतु जब किसी गांव की बात हो और वहां रोशनी चली जाए तो क्या किया जाए? कहानी ‘रोशनी का चौराहा’ में बिजली जाने से बच्चों की पढ़ाई में बाधा नहीं आए इसलिए दादी का पुराना तरीका आटे का दीपक बनाकर रोशनी करना प्रस्तुत हुआ है वहीं ‘जुगनी का बीरन’ एक देशभक्ति से जुड़ी कहानी है जिसमें मां जुगनी के अविस्मरणीय चरित्र को रेखांकित किया गया है। वह शेरा को बड़ा कर के उसे ही बीरन कहकर पुकारती है, उसने अपने असली बेटे बीरन को सेना से भागने और डाका डालने के अपराधों के सिलसिले में जेल भिजवा दिया है।

            बाल साहित्य की अनेक रचनाओं में हम बचकाने और सरल सीधे उपदेशात्मक ढंग से घटित होता देखते हैं। देवेंद्र कुमार जी की यह खूबी है कि वे इन सब से बचाते हुए कहानियों में व्यस्कों की भांति असाधारण तरीके से जीवन की गतिशीलता को प्रस्तुत करते हैं। यही वह घटक है जो उन्हें विशिष्ट पहचान और सम्मान दिलाने वाला रहा है। वे अपने पाठकों में लोकप्रिय रहे हैं इसका बड़ा कारण उनकी कहानियों की नई शैली और कथानक विकसित करने कला है। इसको मैं ठीक ठीक परिभाषित करना चाहूं तो कहना होगा कि जिस प्रकार हिंदी कहानी में निर्मल वर्मा अपने अलग कथानक और वातावरण-शैली के कारण पहचान रखते हैं वैसे ही देवेंद्र जी की कहानियां अन्य कहानीकारों से अलाहदा है। बाल कहानियों में शैलीगत नवीनता और प्रयोगशील भाषा का सबल घटक उन्हें विशिष्ट और वरेण्य बनाता है।






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स्त्री-मन की सघन अनुभूतियां और उमा की कहानियां / डॉ, नीरज दइया

लेखन में स्त्री-पुरुष विभेद बेमानी है। केवल लेखन ही क्यों, सभी कला माध्यमों अथवा स्वयं जीवन में  और जीवन के किसी भी कोने में ऐसा नहीं होना चाहिए। यहां हम यह प्रतिप्रश्न भी कर सकते हैं- क्या किसी भी प्रकार का विभेद कहीं भी नहीं होना चाहिए? यदि ऐसा है तो फिर अब तक ऐसा क्यों होता चला आ रहा है? यहां विषयांतर से बचते हुए यदि केवल लेखन-आलोचना की बात करें तो कहा जा सकता है कि हमने सुगमता के लिए ऐसे कुछ रास्ते विभेद इजाद किए थे, और अभी भी हम उन्हीं पर चल रहे हैं। लेखकीय मन के संदर्भ में स्त्री-मन और पुरुष-मन की अवधारणाओं के रहते हुए कोई भी पाठ ऐसे बंधनों से मुक्त नहीं होता है। थर्ड जेंडर की अवधारणा भी इन दिनों चर्चा में है। जहां बंधन होते हैं, वहीं उससे मुक्त होने के कुछ संकेत समाहित रहते हैं। कहानी संग्रह ‘चाँद, रोटी और चादर की सिलवटें’ पर कहानीकार का नाम ‘उमा’ अंकित है। जो संभवतः ऐसी ही किसी मुक्ति का संकेत अथवा आकांक्षा को व्यंजित करता है। संग्रह को उमा ने अपनी माँ माणक देवी सोनी के नाम समर्पित किया है।

            विभिन्न जातियों, धर्मों और समाजों के बीच रहते हुए इन सभी से परे कहानीकार उमा हमें ऐसे कथालोक में लेकर जाती हैं, जहां इन सब के रहते हुए भी इनसे मुक्त और स्वच्छंद जीवन जीने की संकल्पनाएं है। उमा की इस संग्रह में संकलित तेरह कहानियों में ऐसा ही कुछ अलाहदा संसार है जो यहां इसी जमीन पर है। वर्तमान समय के अनेक बदलावों और झंझावातों से जूझती जिंदगियों के अनेक रंगों से हमारा साक्षात्कार होता है। उमा की कहानियों को किसी सीमित दायरे में नहीं बंधा जा सकता है। यहां अलग-अलग वय के अनेक पात्र हमें मिलते हैं- स्त्री, पुरुष, लड़का और लड़की। बच्चे, जावान और बूढ़े इन सब पात्रों में सर्वाधिक प्रभावशाली रूप में उभरने वाले जो चरित्र हैं वह है स्त्री चरित्र। इस संग्रह के संदर्भ में स्त्री को कहानीकार का फोकस बिंदु कह सकते हैं। यहां स्त्रियों के चरित्र को लेकर एक खास किस्म की आधुनिकता और समानता की मुहिम देखी जा सकती है। कहानियां बेशक अलग अलग हो किंतु इनके केंद्रीय चरित्र के रूप में एक ऐसी स्त्री को देखा जा सकता है जो अपने स्त्री-मन की सघन अनुभूतियों की अभिव्यक्ति के लिए व्याकुल है। उसकी व्याकुलता को विविध रंगों में इन कहानियों में रेखांकित किया गया है।

            कहना होगा कि समकालीन कहानी में कहानीकार उमा के यहां जो स्त्री-पुरुष संबंधों का गणित प्रस्तुत हुआ है वह वर्तमान दौर का कोलाज है। यहां तक आते-आते कहानी-यात्रा में अनेक बदलाव हुए हैं उन्हें अंगीकार करते हुए नवीनता की चुनौतियों को स्वीकार किया गया है। भाषा, कथ्य और शिल्प के अनेक घटक इन कहानियों में बेहद प्रभावी रूप में नजर आते हैं। कहानीकार उमा ने नाटकीयता और दृश्यों से जो भाषा निर्मित की है वह बेहद प्रभावशाली है। कहानीकार का कवि मना और पर्यावरण प्रेमी होना कहानियों के प्रभाव को द्विगुणित करने वाला है। अपने समय और समाज को अभिव्यक्ति करती ये कहानियां इक्कीसवीं सदी की कहानियां इसलिए भी है कि इनमें सीधा सीधा कोरोना का आतंक है तो साथ ही बदलती स्त्री की छवि यहां देखी जा सकती है। जागरूकता, मुखरता तथा स्वच्छंदता के विविध रूप देख कर यकीन किया जा सकता है कि अबला अब पहले वाली अबला नहीं है, वह हर दृष्टि से सबला बनती जा रही है।

            हम कहानी संग्रह के शीर्षक में उमा के कवि मना होने का एहसास देख सकते हैं। चाँद, रोटी और चादर की सिलवटें शीर्षक ना केवल काव्यात्मक है वरन यह कहानी भी एक कहानीकार के आत्मसंघर्ष को व्यंजित करती है। यहां रचाव की छटपटाहट के साथ रचना के सुख-दुख भी है। कहानी कहती है कि जीवन की अनिश्चितता और उसका कोई नियत पैटर्न नहीं होता। उसे किसी सांचे या पैटर्न में नहीं बंधते हुए कहानी एक सुंदर कोलाज प्रस्तुत करती है। यहां कविता की भांति अनेक बिंबों की मोहक छवियां है। बिंबों और छवियों के अभिप्राय प्रत्येक भावक के लिए भिन्न-भिन्न होते हैं। कहानीकार का मानना है कि कहानी के विषय उसके आसपास रहते हैं अथवा वह अपने आसपास से उन्हें तलाश करता है।  

            संग्रह की पहली कहानी ‘कॉपी पेस्ट’ की बात करें तो विषय नया नहीं है। पति-पत्नी का तलाक और बच्चे की कस्टडी के सवाल को पहले भी उठाया जाता रहा है। किंतु उमा किसी भी विषय पर नए ढंग से कहानी रचने का कौशल जानती हैं। कहानीकार का काम कॉपी पेस्ट ही है, वह अपने आसपास के जीवन को शब्दों के माध्यम से कॉपी करते हुए पेस्ट करने का प्रयास करता है। रचना और मौलिकता की दृष्टि से कहानीकार को हर बार अपनी परंपरा में कुछ जोड़ते जाना होता है। आधुनिक स्त्री चरित्र के रूप में राम्या प्रभावित करती है। उसके चरित्र में प्रतिकार और प्रतिशोध की भावना कुछ अलग किस्म की है। कहानीकार की सफलता इसमें है कि वह तलाक के सवाल को उठाते हुए उस स्त्री की बेबसी-लाचारी को प्रकट करती है। तलाक उसको जिस स्तर पर लाकर छोड़ता है वह रेखांकित करने योग्य है जिसे कहानी में रेखांकित किया गया है। कहानी का मर्म इसमें समाहित है कि संभवतः स्त्री और उसकी उस अनुभूति को उसके स्तर पर जाकर पुरुष-वर्ग द्वारा समझा नहीं जाता है, जिस स्तर की बात इस कहानी में प्रस्तुत हुई है। राम्या का वैभव के मैसेज का बेटे की कस्टडी के लिए उसके ही मैसेज को कॉपी पेस्ट करना संभवत पुरुष-जाति को उसके ही हथियारों द्वारा उसे आहत करने की अनुभूति में ले जाने का सटीक संकेत है। अब यह अहसास होना जरूरी है कि समय बदल चुका है।

            कहानी ‘बंद आंखें’ स्त्री-पुरुष संबंधों की इसी भावभूमि की कहानी है जहां पति-पत्नी के खराम होते संबंधों की जटिलता को प्रस्तुत किया गया।

            “सच में पुरुष कितने अहंकारी होते हैं, वे सह झेल भी नहीं सकते कि उनकी पत्नी किसी और के साथ... और इसलिए वे तब सवाल करने बंद कर देते हैं, तब उन्हें जवाब मन मुताबिक मिलने की उम्मीद नहीं होती। मुझे अब वे ज्यादा बेचारे नजर आ रहे थे, बिल्कुल इस बिल्ली की तरह। अपने-अपने डर से आँखें बंद कर लेना कमजोरी हो  सकती है, लेकिन यह भी तो सच है कि सपने भी बंद आँखों में ही दाखिल हुआ करते हैं।” (पृष्ठ- 69)

            स्त्री को रोती-बिलखती और आंसुओं में भीगी देखने दिखाने के दिन अब नहीं रहे। यहां पुरानी कथा नायिकाओं से भिन्न परिस्थितियों से डटकर मुकाबला करने वाली इक्कीसवीं सदी की नई स्त्री का चेहरा नजर आता है। साथ ही बिना आक्रामक और आवेश में आए, जिस मंद और शांत भाव से प्रतिशोध-प्रतिरोध को प्रस्तुत किया गया है वह उल्लेखनीय है। 

            अपनी कहानियों के संग जीवन जीने वाली कहानीकार उमा हमें अपनी हर कहानी में भाषा और शिल्प के माध्यम से ऐसे जोड़ लेती है कि हम उनके चरित्रों में कहीं-न-कहीं मिश्रित होते चले जाते हैं। उनके गढ़े चरित्रों में हमें अपने आसपास के चरित्र नजर आते हैं अथवा हमें ऐसा प्रतीत होता है कि ये सब चरित्र तो अपने भीतर के ही किसी एहसास को जैसे जिंदा कर रहे हैं। उमा की लगभग सभी कहानियों में जीवन को नए समय और बदलते समाज के साथ देखने का नया नजरिया है, यहां सवाल करती स्त्री जहां बराबरी का दर्जा पाने को आतुर है वहीं वह अपने हकों के लिए जागरूक भी है। यहां उसे यह भी चिंता है कि उसके काम को बेगार जैसा क्यों समझा जाता है? वह राष्ट्रीय आय और अर्थशास्त्र का हिस्सा होते हुए भी उसमें गणना के समय नगण्य क्यों रहती है? कहानी ‘उसने मनुस्मृति नहीं जलाई’ कुछ ऐसे ही प्रश्नों को मुखरित करती है।

            प्रेम के विविध रूप और प्रसंग उमा के अनेक कहानियों में मिलते हैं जो उसके कथा-संसार को यादगार बनाते हैं। उमा के यहां प्रेम और संबंधों का अपना गणित है, उसको कहानीकार अपने ढंग से समझने-समझाने का प्रयास करती हैं। इश्किया रोड कहानी में जहां पीढ़ियों का अंतराल दादा-पोता के चरित्रों के माध्यम से उजागर हुआ है, वही यह कहानी स्त्री-पुरुष मानसिकता को प्रस्तुत करने वाली एक बेजोड़ कहानी है। यहां न केवल भाषिक अंदाज और जीवन व्यवहार बदल गया है वरन समय के साथ नई शताब्दी में प्रेम के बदलते स्वरूप का रेखांकन है। इस बदलाव को उसके सभी परिवर्तनों के साथ खुलापन और स्वीकार करने की स्थितियां हम देख सकते हैं। उमा के यहां बदलाव से मुंह नहीं मोड़ते हुए उसे स्वीकारने और समझने का भाव प्रभावित करता है।

            पेशे से पत्रकार रही उमा की कहानी हरा हुआ सिपाही एक पत्रकार के संघर्ष को प्रस्तुत करती है। एक सिपाही किस प्रकार जिंदगी की जंग में जीतता है और अपने ही घर में संबंधों की लड़ाई में वह हार जाता है। नियम और कानून के बीच जो जीवन रूढ़ हो चुका है वह किस प्रकार अनियंत्रित होते संबंधों में विवश हो जाता है और मन के भीतर उन अहसासों को लिए किस प्रकार का मार्मिक जीवन जीता है का निरूपण कहानी सुंदर ढंग से सांकेतिक रूप से करती है।  

            गेट तक पहुँच कर वह फिर पलटता है और कहता है कि फिर मिलने आऊँगा, फादर्स डे की स्टोरी करने। कर्नल की पत्नी उसी भाव से मुस्कुराती है और कहती है- ‘हार की वजह चाहे जो भी हो, पर जंग में हारे हुए सिपाही का इंटरव्यू करने कोई नहीं आता। इस सिपाही ने कभी दुश्मनों को सरहद के भीतर दाखिल नहीं होने दिया, लेकिन...’

            ‘लेकिन...’

                                    ‘लेकिन... अपने बेटे को घर की दहलीज लांधने से रोक नहीं पाया...।” (पृष्ठ- 128)

            ‘मुझे डूबने मत देना माँ कहानी में प्रशांत और सिंधु के बीच बूढ़ी मां के चरित्र को उम्र के अवसान पर जिस प्रकार चित्रित किया गया है उसमें गहरे द्वंद्व के अनेक घटकों को दिखाया गया है। कहानी के मध्य तक आते आते पाठक इस विचार में चला जाता है कि यह स्त्री-पुरुष के संबंधों की कहानियां जैसी ही होगी, किंतु अंत में बूढ़ी मां की पेंशन का प्रकरण उजागर करना और कहानी को नए समाज में धन के प्रति आकर्षण की तरफ मोड़ देना कहानीकार की खूबी है। उमा की कहानियों में पूर्व निर्धारित और प्रायोजित जैसा कुछ नहीं है। उनके यहां कहानी जैसे अपना रास्ता खुद चुनती हुई आगे बढ़ती है।

            ‘प्रेत को सुपारी कहानी में कहानीकार ने मोबाइल के माध्यम से एक युक्ति का प्रयोग कर अंधविश्वासों का खंडन किया है, यह अंत में पता चलता है। कहानी का आरंभ और चरम जिस मनस्थितियों को प्रस्तुत करते है वहां इसके विट की भनक तक नहीं लगती है। इसी प्रकार ‘प्रीत के प्रेत कहानी में सोनाली और मंजरी के माध्यम से स्त्री चरित्र की व्यथा-कथा और लाचारी का द्वंद्व प्रस्तुत हुआ है। इस कहानी का अंत रेखांकित करने योग्य है, जिसमें एक दृष्टि एक दृश्य प्रस्तुत करते हुए अंत को पाठकों पर छोड़ दिया गया है।

            अधकटे पेड़ को छोड़कर वह फोन लेकर साइड की ओर जाता है, वह उस और जा रहा है, सोनाली आगे बढ़ रही है, कोई चुंबस-सा है जो उसे खींच रहा है, खीच रहा है उस बगीचे की ओर, उस जंगल की ओर...

धड़ाम !!

और जोर की चीख...।”  (पृष्ठ- 160)

            नई कहानी में सबसे अधिक महत्वपूर्ण कहानीकार का फिल्मों की भांति दृश्य को प्रस्तुत करते हुए भाषा द्वारा घटना, चरित्रों-चित्रों को आकार देना है। यहां ‘मखमली फूल’ कहानी का जिक्र करना बेहद जरूरी है। इस कहानी में मुख्य रूप से संवादों के माध्यम से जहां जीवन और मृत्यु के प्रश्न को देखने का प्रयास है, वही प्रेम के उद्भव और विकास और उसकी जटिलता को भी अभिव्यक्त किया गया है। ‘चाट... जिंदगी वाली’ कहानी में मां और बेटी के मध्यम इस सदी के नए संदर्भों-शाब्दिक-युक्तियों को अभिव्यक्त करते हुए, पुरानी भाषा और संकोची स्वभाव-संबंधों को जैसे तिलांजलि दी गई है। नई पीढ़ी में भाषा और संबंधों को लेकर बेहद स्वच्छंदता-खुलापन और बेबाकी का भाव उमा की अनेक कहानियों में भी देखा जा सकता है। भाषा में यहां शब्दों और संबंधों के रूढ़ अर्थों को जैसे ध्वस्थ करते हुए नई भाषा के प्रस्तुतीकरण से यह कहने का प्रयास है कि वह पुराने वाली संवेदना और शिष्टता नए समाज में जैसे गायब हो गई है। यहां जीवन जीने के नए रंग-ढंग है।

            यह अकारण नहीं है कि ‘आदमी की जात’ कहानी में सेक्स-संबंध को आधार बनाते हुए उसे एक यांत्रिक घटनाक्रम जैसा चित्रित किया गया है। संग्रह की अनेक कहानियों में युवा पात्रों के अंतर्मन में जीवन और प्रेम के प्रति छटपटाहट प्रस्तुत हुई है। सवाल प्रस्तुत करती इन कहानियों का प्रमुख सवाल है कि समाज में स्त्री और पुरुष के लिए अलग-अलग नियम और प्रबंधन क्यों है? उमा की अनेक कहानियां इसी सवाल के विषय में सार्थक हस्तक्षेप करती नजर आती हैं।

            केंद्रीय चरित्र के रूप में इन कहानियों के स्त्री रहते हुए भी यहां जीवन की विविधा और जटिलता को अनेक स्तरों पर रेखांकित किया गया है। वरिष्ठ कथाकार सत्यनारायण के शब्दों में- “ये कहानियां सिर्फ स्त्री स्वर तक सीमित नहीं रहतीं, बल्कि उनमें जीवन की तमाम चिंताएं शामिल हैं। कथा के साथ कहानीकार ने नई कथा भाषा ईजाद की है, जो पाठक से गहरा रिश्ता बनाती है।” (पृष्ठ- 7) अपनी काव्यात्मक भाषा और शैल्पिक कौशल के कारण कहानीकार उमा न केवल राजस्थान और महिला कहानीकारों के मध्य वरन समग्र हिंदी कहानी के मध्य अपनी सशक्त और विशिष्ठ उपस्थिति दर्ज कराती हैं। कलमकार मंच ने सुंदर आवरण और आकर्षक रूप में इस संग्रह को प्रस्तुत किया है।

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पुस्तक का नाम : चाँद, रोटी और चादर की सिलवटें ; लेखक : उमा

विधा – कहानी ; संस्करण – 2021 ; पृष्ठ संख्या – 160 ; मूल्य – 200/- रुपए

प्रकाशक – कलमकार मंच, 3 विष्णु विहार, अर्जुन नगर, दुर्गापुरा, जयपुर 302 018

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NAND JI SE HATHAI (साक्षात्कार)

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