डॉ. मोहम्मद अरशद खान बाल साहित्य के सुपरिचित हस्ताक्षर हैं। आपकी बाल कहानियों की पुस्तक ‘रोचक नन्ही बाल कहानियां’ अपने शीर्षक को सार्थक करती बीस कहानियों को प्रस्तुत करती है। बाल कहानियों की तीन प्रमुख शर्तों का उल्लेख शीर्षक में देख सकते हैं। लेखक की भांति मेरा भी यह मानना है कि नन्हे पाठकों के लिए बाल-कहानी रोचक, नन्ही और कहानी होनी चाहिए। यह पुस्तक बाल मनोवैज्ञानिक ढंग से बच्चों को जहां इस सुंदर संसार के अनेक तथ्यों से परिचित कराती है, वहीं उन्हें अपने परिवेश और पर्यावरण में होने वाले अनेक बदलावों का अहसास भी देती है।
पुस्तक के आरंभ में पत्र शैली में लेखक ने भूमिका में अपने लेखक होने की यात्रा का संक्षिप्त परिचय दिया है। नन्हे दोस्तों से संवाद का यह आगाज आत्मीयता से भरा बेहद रोचक है। अपने नाम के स्थान पर ‘तुम्हारा भैया’ लिखना लेखकीय सूझ-बूझ को दर्शाता है। इसी क्रम में इस संग्रह की अंतिम कहानी ‘जादू की किताब’ जो आत्म संस्मरण के रूप में लिखी गई है भी बेहद प्रभावित करते हुए किताबों के महत्त्व को प्रतिपादित करती है। यहां लेखक का अपना सामाजिक परिवेश और आत्मीयता के साथ हकीकत को सहजता के साथ शब्दों में ढालना एक कला के रूप में अपने मानक स्थापित करती है। बाल कहानियों को शिक्षा और उपदेश को आरोपित नहीं किया जाना चाहिए किंतु समझदारी का दामन बाल साहित छोड़ भी नहीं सकता। इस दुविधा को अंगीकार करते हुए डॉ. मोहम्मद अरशद खान अपनी बाल कहानियों में शिल्प की संरचना बेहद आत्मीय भाव से करते हैं कि कुछ भी आरोपित नहीं प्रतीत होता है। उदाहरण के लिए ‘जादू की किताब’ कहानी का अंतिम अंश देख सकते हैं-
“तभी अचानक किसी ने आकर मुझे गोद में उठा लिया। पलटकर देखा तो नाना थे। वह हंसते हुए बोले- ‘बर्खुरदार, वहां तक पहुंचने के लिए मेज और स्टूल काम नहीं आएंगे। उस ऊंचाई तक पहुंचना आसान नहीं है। वहां तक पहुंचने के लिए रात-दिन एक करने पड़ते हैं।’
उस वक्त मैं नाना की बात समझ नहीं पाया था। पर आज ध्यान देता हूं तो समझ में आता है कि सचमुच, ज्ञान की ऊंचाई को मेज और स्टूल पर चढ़कर नहीं पाया जा सकता। उसके लिए सचमुच मेहनत करनी पड़ती है।” (पृष्ठ-72)
व्यक्तिवाचक संज्ञाओं के बाहुल्य से सजे शीर्षकों की इस किताब की पहली कहानी पर गौर करेंगे तो पाएंगे कि बच्चों में कौतूहल और उत्सुकता के साथ खोज का भाव भी जाग्रत करने में यह कहानियां अपनी भूमिका निभाती हैं। कहानी ‘चिड़िया, डिब्बा और कनखजूरा’ हो या अन्य कोई भी कहानी हम पाते हैं कि छोटे छोटे वाक्यों में सरलता-सहजता के साथ आत्मीयता का भाव सर्वत्र विद्यमान है। पर्यावरण और प्रकृति के साथ अपने परिवेश को उजागर करती ये कहानियां पाठकों को दूर तक ले जाती हैं। चिड़िया, डिब्बा औ कनखजूरा के माध्यम से हवाई जाहज, टेलीविजन और रेलगाड़ी से बच्चों को जुड़ने के लिए पहेली के रूप में प्रेरित करना कहानी में एक अविस्मरणीय प्रयोग है। ‘जंगल के निवासियों को उनके नाम नहीं पता। पर क्या आप उनकी मदद कर सकते हैं?’ कहानी इस सवाल के साथ पूरी होती है।
‘रोचक नन्ही बाल कहानियां’ संग्रह का नाम रखा गया है किंतु यह एक ‘जादू की किताब’ है जिसमें कहानी के आरंभ में अथवा मध्य बाल पाठकों को यह मालूम नहीं चलता कि समापन क्या और कैसे होगा। आधुनिक बाल कहानियों की त्रासदी यह होती है कि वे किसी एक किस्से को इस ढंग से लेकर बहुधा आगे बढ़ती है कि समापन का अंदाजा आरंभ अथवा मध्य में हो जाता है। यहां ऐसा नहीं है। ‘प्रोजेक्ट मेट्रो’ कहानी चूहे बिल्ली से बचने के लिए अपने घरों के अंदर ही अंदर अपनी मेट्रो लाइन बना डाली इसी प्रकार ‘खरगोशों की राडार’ कहानी में भेड़ियों से बचने के लिए लंबू जिराफ को राडार के रूप में प्रस्तुत करना बेहद रोचकता लिए हुए हैं। यहां विचार के साथ कहानी में उसका निर्वाहन भी सफलतापूर्वक हुआ है।
रोचक नन्ही बाल कहानी ‘मैं ऐसा क्यों हूं?’ में कद्दू के माध्यम से व्यक्तिगत भिन्नताएं और विशेषताओं की दिशा में विभिन्न तरकारियों के माध्यम से मंथन किया गया है और अंत में जिम के मैनेजर के माध्यम से एक संदेश इस प्रकार दिया गया है- ‘‘देखो कद्दू मियां, तुम जैसे हो वैसे ही ठीक लगते हो। अगर पतले हो गए तो कद्दू कहां रह जाओगे? गोल-मटोल होना ही तो तुम्हारी विशेषता है।” (पृष्ठ- 17) इसी प्रकार ‘मच्छरों का ब्लड-बैंक’ कहानी की बात करें तो इसमें जंगल के विभिन्न जानवरों का साक्षत उनकी त्वचा की भिन्नताओं और विशेषताओं के साथ सुंदर ढंग से कहानी बुनते हुए बालकों को रक्तदान की दिशा में सोचने-समझने को प्रेरित किया गया है। संग्रह की अनेक कहानियों में साफ-सफाई के महत्त्व को इंगित करते हुए कथानक बालमन के अनुकूल लेते हुए बातों बातों में शिक्षाप्रद बातों का इस तरह समावेश किया गया है कि किसी भी जगह कोई शिक्षा आरोपित उपदेश की भांति नहीं लगती, यही इन कहानियों की विशेषता है जो इनको अन्य कहानियों से अलग बनाकर बाल पाठकों के अंतस में कहानीकार की पहचान को चिर स्थाई करती है। ‘एकता में जीत है’, ‘किच्चू की कार’, ‘चिंटी और पिंटी’, ‘जूते निकले घूमने’ और ‘गुल्लू और चूजे’ आदि संग्रह की यादगार कहानियां कही जा सकती है।
बच्चों की कहानियों में भाषा पक्ष को लेकर अधिक सजगता बरतने की आवश्यकता होती है। पूरे संग्रह में कहीं कुछ ऐसा नहीं है जिसमें भाषा की न्यूनता के विषय में कोई आक्षेप किया जा सके, किंतु यह विचारणीय है- ‘मैना ने बड़ी बड़ी आंखें निकालकर बताया।’ (पृष्ठ-8), ‘एक बूढ़े चूहे ने मूंछे लटकाते हुए पूछा।’ (पृष्ठ-12) अथवा ‘हम सब तुम्हारा इंतजार देख रहे थे।’ (पृष्ठ-25) बच्चे भाषा को सीख रहे हैं और उनके लिए भाषा के गूढ भावार्थ को ग्रहण करने में कहीं अवरोध पैदा हो सकता है इसलिए जहां तक संभव हो भाषा-प्रयोग में जटिलता और दुरुहता से बचा जाना चाहिए। मेरा यह मत नहीं है कि भाषा में लाक्षणिता नहीं होनी चाहिए वह भी जरूरी है किंतु बाल साहित्य के पाठकों का आयु-वर्ग की निम्न सीमा और उच्चतम सीमा को ध्यान में रखते हुए यह विमर्श आवश्यक है।
बच्चों के लिए बाल कहानीकार डॉ. मोहम्मद अरशद खान के कहानी-संसार से गुजरना निसंदेह रोचकता से भरा हुआ है। यहां कौतूहल और उत्सुकता के साथ नवीन जानकारियों के स्रोतों देखे जा सकते हैं। कहानियों के माध्यम से बालमन को सीखने-समझने के अवसर मिलते हैं। कहानियों में अनेक ऐसे स्थल हैं जहां उनको आनंद और मनोरंजन के साथ-साथ अनेक नई बातें सीखने को भी मिलती है। बालमन के अनुकूल भाषा, शैली और शिल्प के साथ संग्रह में विषयगत विविधता का भी ध्यान रखा गया है। इस महत्त्वपूर्ण संग्रह से गुजरना समकालीन बाल कहानी के वर्तमान मिजाज को जानना कहा जा सकता है। प्रत्येक कहानी के साथ एक चित्र दिया गया है। यहां यह उल्लेखनीय है कि पुस्तक में चित्रों की संख्या और अक्षरों को फोंट साइज को बढ़ाना चाहिए था, जिससे इसकी रोचकता और उपयोगिता अधिक हो जाती।
समीक्षक : डॉ. नीरज दइया