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दीठ साम्हीं सांस लेवती अेक अदीठ दुनिया/ डॉ. नीरज दइया

 राजस्थान सूं जिण हिंदी रचनाकारां नै आखै भारत मांय ओळखीजै बां मांय सूं चावो-ठावो अेक हरावळ नांव- पद्मजा शर्मा रो मानीजै। आपरा दस नैड़ा कविता-संग्रै साम्हीं आयोड़ा। कवितावां मांय सहजता-सरलता सूं मन नै परस करती, हियै ढूकती बातां अर जूण रा न्यारा-न्यारा लखावां नै नवी दीठ सूं राखणो पद्मजा जी री कवितावां री लूंठी खासियत कैय सकां। आपरो मूळ विसय लुगाई-जूण रैयो है अर ‘धरती पर औरतें’ कविता-संग्रै इणी खातर खास रूप सूं ओळखीजै। घणै हरख री बात कै इणी संग्रै रो राजस्थानी उल्थो आपां साम्हीं चावा-ठावा रचनाकार बसंती पंवार जी रै मारफत आयो है।
            राजस्थानी अर हिंदी दोनूं भासावां मांय न्यारी न्यारी विधावां मांय बसंती पंवार री केई पोथ्यां साम्हीं आयोड़ी अर निरा मान-सम्मान ई मिल्योड़ा। उल्थाकार खुद चावी-ठावी रचनाकार रूप आपरी सांवठी ओळख राखै। आज चेतै करूं तो लखावै कै लगैटगै पच्चीस बरसां पैली री बात हुवैला जद म्हैं बसंती पंवार रै पैलै उपन्यास ‘सोगन’ नै बांच्यो। उणी दिनां ठाह लाग्यो कै आप शिक्षक विभाग मांय काम करै अर आपरी जलमभोम बीकानेर है। ‘सोगन’ उपन्यास नै राजस्थानी भाषा, साहित्य अेवं संस्कृति अकादमी बीकानेर रो ‘सांवर दइया पैली पोथी पुरस्कार’ 1998 अरपण करीज्यो, तद बसंती जी सूं पैली दफै मिलणो ई हुयो। अठै आं सगळी बातां नै गिणावण रो मकसद ओ है कै बसंती जी लगोलग संजीदा रचनाकार रूप लिखता-पढता रैया है। राजस्थानी री बात करूं तो इण ढाळै रा महिला रचनाकार आंगळियां माथै गिण सकां जिका लगोलग राजस्थानी साहित्य नै विकसित करणै री हूंस दरसावता रैया है।
            अेक रचनाकार रूप बसंती पंवार मानै कै मिनखां करता लुगायां मांय संवेदनशीलता कीं बेसी हुवै अर इणी सारू बै सवाई हुवै। साहित्य रो मूळ आधार संवेदना ई हुवै अर न्यारी न्यारी विधावां मांय कोई रचनाकार संवेदना नै किण ढाळै परोटै इणी मांय उण री कला अर खासियत हुवै। उपन्यास अर कहाणी साथै साथै बसंती जी री कवि रूप रचनात्मकता राजस्थानी-हिंदी दोनूं भासावां मांय देख सकां। ‘जोवूं अेक विस्वास’ राजस्थानी कविता संग्रै अर ‘कब आया बसंत!’ हिंदी कविता-संग्रै छप्योड़ा। इण पोथी रै मारफत आपां बसंती पंवार जी नै सिरजण रै भेळै अनुसिरजण रै लेखै ई देखां-परखां।
           अनुवाद अर उल्थो सबद करता अनुसिरजण सबद म्हनै बेसी अरथावू इण रूप मांय लखावै कै इण सबद मांय मूळ सबद सिरजण बिराजै। अनुसिरजण री सगळा सूं लांठी खासियत उण रो मूळ सिरजण अर सिरजक रै सबदां री भावनावां नै सिरै मानणो समझणो-समझावणो मानीजै। जिण ढाळै कोई अभिनेता किणी किरदार नै निभावै उणी ढाळै अनुसिरजक मूळ सिरजक रै किरदार नै खुद री भासा मांय साकार करै। इण पोथी री कवितावां बांचता घणी दफै आपां नै इयां लागै कै जाणै आपां मूळ राजस्थानी री कवितावां ई बांच रैया हां, आ किणी पण अनुसिरजण री सखरी बात हुवै। आपां आ बातां ई जाणा कै अनुसिरजण बो ई सफल अर सारथक मानीजै जिको खुद सिरजण दांई गुणवान हुय जावै।
            पोथी री कवितावां री बात करण सूं पैली भासा री बात करणी जरूरी लखावै। राजस्थानी भासा मानकीकरण अर अेकरूपता सूं बेसी जरूरी बात आज सबदां री समरूपता री मानणी चाइजै। औकारांत अर ओकारांत भासा रा दोय रूप आपां रै अठै मानीजै पण अरथ मांय जे कोई बदळाव नीं निगै आवै तो आं दोनूं रूपां नै लेखक आपरै विवेक सूं बरत सकै। अनुसिरजण रै मामलै मांय मूळ सिरजक री बात नै अनुसिरजक किण ढाळै समझी उणी माथै उण रै सबदां रो चुनाव हुया करै। किणी अेक सबद खातर अनुसिरजक किसो सबद बरतै आ उण री समझ अर खिमता री बात हुवै। ‘धरती’ खातर राजस्थानी मांय केई केई सबद मिलैला, जे बसंती पंवार जी ‘धरणी’ सबद बरतै तो ओ बां रो लखाव अर फैसलो है कै कवितावां री भावनावां सूं ओ सबद बेसी जुड़ैला। इणी खातर अेक अनुसिरजण हुया पछै उणी पोथी रो अनुसिरजण कोई दूजो रचनाकार भळै करै।
            पैली कविता ‘अपछरा’ री आज री लुगायां पेटै कैयोड़ी आं ओळ्यां नै देखां-
वै कोई चीजबस्त नीं है
मोलावौ बरतौ अर फेंक देवौ
लुगायां मांय ई जीव हुवै
            इण पूरी पोथी मांय ठौड़ ठौड़ इण ढाळै री ओळ्यां मिलैला जिण मांय आपां नै लुगायां मांयलै जीव री ओळख हुवैला। कवितवां मांयली लुगायां किणी दूजै लोक का परदेस री लुगायां कोनी। आपां रै आसै पासै री दुनिया मांय अठै तांई कै आपां रै घर-परिवार अर समाज मांय इण ढाळै री केई केई लुगायां न्यारै न्यारै रूपां अर संबंधां मांय आपां देखता रैया हां। पण खाली देखण अर ओळखण मांय आंतरो हुवै। अठै आ बात ई जोर देय’र कैवणी चाइजै कै कवयित्री री आंख सूं सागी दुनिया अर लुगाई जात नै ओळखणो कीं न्यारो हुया करै।
            राजस्थानी समाज मांय जिका बदळाव आया है उण मांय सगळा सूं मोटो बदळाव बगत साम्हीं सवाल करती लुगाई मान सकां अर ओ कविता संग्रै उण सवाल करती लुगाई जात री मनगत री पुड़ता नै होळै होळै खोलै। लुगाई नै दूजां करता घणो सुणणो-सैवणो पड़ै। बां कीं करै तो उण नै सुणणो पड़ै अर कीं नीं करै तो ई सुणण री बारी उण री ई हुवै। समाज किणी पण गत मांय लुगाई जात नै कीं न कीं कैवतो रैयो है अर इण कवितावां मांय ठीमर रूप लुगाई जात री अलेखू बातां होळै होळै साम्हीं आवै। ‘खुद री पांख्यां सूं उडूंला’ कविता री आं ओळ्यां नै देखो-
अैड़ौ ई हुवै जणैं थांरा फैसला कोई दूजा लेवै
म्हैं तै कर लियौ हूं
म्हैं दूजां री पांख्यां सूं नीं
खुद री पांख्यां सूं उड़ूला
खुद रै पगां सूं आगै पूगूंला
खुद री जुबान सूं खुद री बात आपौआप कैऊंला
कांई हुयग्यौ जे होळै-होळै ठैर-ठैर नै कैऊंला
            आं हूंस जसजोग हियै ढूकती कैय सकां। संग्रै मांय घणै सरल अर सीधै सबदां मांय जूण री अबखायां अर आंकी बांकी हुयोड़ी बातां समझ मांय आवै। लुगाई अर मिनख जूण-गाड़ी रा दोय पहिया मानीजै आं मांय समानता अर आपसी समझ घणी जरूरी हुवै। ‘म्हैं’ कविता नै अठै दाखलै रूप लेय सकां हां जिण मांय लुगाई जात रो मिनखां री दुनिया मांय छोटी हुय’र बरताव करणो बां नै लगोलग ओ भरम देय रैयो है कै बै उण सूं मोटा घणा मोटा हुयग्या है जद कै समझण री बात है कै असलियत दूजी हुया करै। आं कवितावां री मूळ संवेदना आ ई है कै आपां रै अठै लुगाई नै सगती रो रूप मानता रैया हां तो इण मानीजती बात बिचाळै झोळ कठै है कै समाज मांय उण री बेकदरी देखी जावै।
            संग्रै मांय घणी कवितावां है जिकी बांचता आपनै लागैला इण कविता रो जिकर म्हैं म्हारी बात लिखती वेळा क्यूं नीं करियो, अठै म्हारै लिखण री सींव रै कारण बै कवितावां छोड़णी पड़ी। सेवट मांय संग्रै री कविता ‘इणरौ मरणौ तै है’ री अै ओळ्यां आपरी निजर करता म्हैं म्हारी बात पूरी करूंला-
अै छोरियां जितरी हंसैला
उतरी ई हित्यारां री निजरां मांय आवैला
क्यूंकै हंसण रौ कानून संविधान मांय नीं है
अर संविधान री रक्सा रौ ठेकौ
इण दिनां में ले राख्यौ है ‘वै’
            ओ संग्रै जे आप अेकर बांच लेवो तो दीठ साम्हीं सांस लेवती अेक अदीठ दुनिया उजागर हुवैला। ओ आं कवितावां रो असर कैयो जावैला कै अेकर हाथ मांय लिया पछै आं सूं छूटणो का बचर निकळ जावणो आपां रै हाथ री बात नीं रैवै। मानीता बसंती पंवार जी नै मोकळा मोकळा रंग कै बां ओ जसजोग काम करियो।
            डॉ. नीरज दइया

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