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कन्हैया लाल "मत्त" का बाल कथा-साहित्य में करिश्मा/ डॉ. नीरज दइया

बाल साहित्य में अनेक ऐसे लेखक-कवि हैं जिनकी रचनाओं पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया, ऐसा ही एक नाम कन्हैया लाल "मत्त" (1911-2003) का है। 'जमा रंग का मेला' उनकी बाल कविताओं का बेहद खूबसूरत संकलन है किंतु यहां मैं उनकी बाल कहानियों के संकलन 'तराजू का करिश्मा' पर बात करना चाहूंगा। यह संकलन वर्ष 1990 में प्रकाशन विभाग द्वारा प्रकाशित किया गया। इस संकलन में कन्हैया लाल जी की 10 कहानियां संकलित हैं, जो 'पंचतंत्र' और 'हितोपदेश' की कथाओं को आधार बनाकर प्रस्तुत की गई है। प्रकाशन विभाग ने बाल कहानियों की एक शृंखला प्रकाशित की थी, जिसके अंतर्गत 'तराजू का करिश्मा' भाग-6 के रूप में प्रकाशित हुआ। शीर्षक कहानी की बात करें तो यह वही दो मित्रों की कहानी है जिसमें एक मित्र दूसरे मित्र के पास अपना तराजू और बाट छोड़कर कमाने जाता है और जब लौटता है तो उसे सुनने मिलता है कि चूहा तराजू खा गए हैं। इस कहानी को मैंने कब पढ़ा अथवा सुना ठीक से नहीं कह सकता किंतु यह अवश्य है कि यह कहानी हमारे लोक में विभिन्न रूपों में सुनी-सुनाई जाती रही है। यहां साथ यह भी कि इसी कहानी को प्राथमिक कक्षाओं के हिंदी पाठ्यक्रम में भी कई पुस्तकों में संकलित किया गया है। इसे अनूदित रूप में अंग्रेजी और विभिन्न भाषाओं में भी देखा-पढ़ा जा सकता है। राजस्थानी में विजयदान देथा इस बात का अनुपम उदाहरण है कि उन्होंने लोक में यत्र-तत्र बिखरी हुई कथाओं को 'बातां री फुलवाड़ी' नामक अपने विशालकाय ग्रंथ में स्थान दिया, या कहें कि 13 खंडों में लिपिबद्ध किया और वे इसी कार्य से पहचाने गए। उनको  'बातां री फुलवाड़ी' खंड-10 के लिए साहित्य अकादेमी द्वारा मुख्य पुरस्कार भी अर्पित किया गया। यह अब भी चर्चा का विषय है कि क्या कन्हैया लाल "मत्त" अथवा विजयदान देथा जैसे लेखकों की उन कहानियों को मौलिक कहा जाए अथवा नहीं।

प्रकाशन विभाग के तत्कालीन निदेशक डॉ. श्याम सिंह शशि ने इस पुस्तक के प्रकाशकीय में लिखा भी है- 'प्रकाशन विभाग का सदैव यही उद्देश्य रहा है कि अपने बाल पाठकों को मनोरंजन और शिक्षाप्रद कहानियां उपलब्ध कराई जाएं। हमारे अनुरोध पर प्रस्तुत कहानियां वरिष्ठ कवि और कथाकार श्री कन्हैया लाल "मत्त" ने इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए 'पंचतंत्र' और 'हितोपदेश' को आधार बनाकर प्रस्तुत की है।'
इस बात में कोई संदेह नहीं है कि इस संकलन में प्रस्तुत सभी दस कहानियां बच्चों का मनोरंजन करते हुए उन्हें कोई न कोई शिक्षा देती है अथवा नैतिकता का पाठ अवश्य पढ़ती है।
यहां संकलन में प्रस्तुत कहानियों पर चर्चा करते हुए कुछ संकेत दिए जाएंगे तो आपके जेहन में संचित कहानियों में वह कहानी आकार लेने लगेगी। कोई लोककथा हो अथवा किसी ग्रंथ विशेष से प्रभावित कोई कथा उसमें कहानीकार का कहानी को प्रस्तुत करने का अपना ढंग निश्चित रूप से कुछ अलग होता है। यहां भी लेखक कन्हैया लाल जी ने कहानी के आरंभ में एक अनुच्छेद उस कहानी के संबंध में एक उद्धोषणा के रूप में प्रस्तुत किया है जो उस कहानी की केंद्रीय कथा-वस्तु को स्पष्ट करता है। जैसे शीर्षक कहानी के इस प्रथम अनुच्छेद को देखें- "क्या कोई चूहा लोहे की तराजू को खा सकता है? नहीं न! पर साहूकार ने तो यही कहा था! यही कह कर उसने अपने मित्र को धोखा दिया और पूरी तराजू हजम कर गया! पर... पर तराजू भला हजम कैसे हो सकती थी ! तराजू तो न्याय का प्रतीक होती है। वह बेईमान को उसकी बेईमानी का मजा चखाकर ईमानदारी का ही तो साथ देती। यह न्याय ही तो तराजू का करिश्मा था।"
इसके बाद लोककथाओं के सरस अंदाज में कहानी आरंभ होती है- 'बहुत पुरानी बात है। एक नगर में जीर्णधन नाम का एक व्यापारी रहता था।...' आधुनिक और नई कहानियों की तुलना में (जिन्हें मौलिक कहा जाता है) इन कहानियों का मुकाबला नहीं किया जा सकता है। इनकी गजब की पठनीयता, मोहक कथानक और लोक जीवन की महक सदाबहार है। ये कहानियां जितनी बाल पाठकों को सम्मोहित करतीं हैं उतनी ही बड़े-बूढ़ों को भी।
आप और हम उस सपने देखने वाले सत्तू वाले गरीब ब्राह्मण को नहीं भूले होंगे जो एक के बाद एक ख्याली पुलाव पकाता सपने में अमीर बनाता है और जिसने अपनी लात से कहानी के अंत में घड़ा फोड़ डाला था, उसी कथानक पर आश्रित कहानी है- 'कंजूस का हवाई किला'। इस कहानी का प्रारूप और इससे पूर्व उपलब्ध कहानी के प्रारूप को तुलना करने पर लगेगा कि पूरी कथा वस्तु, चरित्र चित्रण, पात्र और देशकाल वही है और कुछ बदला गया है तो वह है शीर्षक। मूल कथा को हू-ब-हू रखते हुए पंचतंत्र के संकलित अंतिम संवाद को यहां नहीं दिया गया है और कहानी के कहन में अन्य कहानियों से समानता और समरूपता के लिए कुछ वाक्यों में बदलाव जरूर किया गया है।
संग्रह की कहानी 'भाग्यशाली मूर्ख' में संयोग के महत्त्व को प्रतिपादित किया गया है कि कोई मूर्ख व्यक्ति कैसे कैसे संयोग से कोई स्थान प्राप्त कर लेता है। जीवन में सदा संयोग नहीं घटते हैं, इसलिए इस प्रकार की कहानियों में जो संयोग और संयोग की योजना होती है वह हमें रोचक लगती है। सेठ का घोड़ा लोक में सुनी कहानियों में कुंभार का गधा अथवा राजा की सेविका जिह्वा, राजस्थानी लोक साहित्य में निदिया नाम की दासी वर्णित मिलती है किंतु यह पाठांतर इन कहानियों के कथा रस को कहीं खंडित नहीं करता। एक बार कहानी के पाठ में आबद्ध होने के बाद सीधे तक तक किसी गिरफ्त में पाठक दौड़ते हुए पहुंचते हैं, यही इन कहानियों की सार्थकता और जीवंतता है। इतने समय के बाद भी इन कहानियों में किसी को भी सम्मोहित करने की क्षमता अक्षुण है। 'बोलने वाला पेड़' दो मित्रों की एक यादगार कहानी है जिसमें धन के लिए एक मित्र दूसरे मित्र पर आरोप लगाता हैं किंतु कहानी के अंत में सच और झूठ का फैसला हो ही जाता है। पेड़ के आसपास जब आग लगाई जाती है तो झूठ बोलने वाले मित्र के पिता उसे पेड़ के भीतर से दौड़कर बाहर आते हैं और पेड़ के बोलने का रहस्य खुल जाता है।
'टिटहरी के अंडे' कहानी में समुद्र से लड़ाई करती निरीह टिटहरी की व्यथा-कथा है। इस लड़ाई में विष्णु भगवान का आना बच्चों में धार्मिक तथ्यों और जानकारी देने वाला है कि किस प्रकार घटनाएं एक दूसरे से जुड़ी हुई है। 'सोने की दलदल' लोभ लालच नहीं करने की शिक्षा देती है तो 'कुलघाती मेंढ़क' में एक ऐसे मेंढ़क को दिखाया गया है जो अपने कुछ दुश्मनों से बदला लेने के लिए सांप से दोस्ती करता है किंतु वह दोस्ती उसे बहुत भारी पड़ती है। उसका अपना परिवार भी सांप के आहार की भेंट चढ़ जाता है और वह स्वयं जैसे तैसे अपनी जान बचाता है। अंतिम कहानी 'पढ़े-लिखे पोंगा' में चार मूर्ख पंडितों की कहानी है जो विद्याध्ययन के अंतर्गत ग्रंथ तो पढ़ चुके थे किंतु उन्होंने जीवन का व्यावहारिक ज्ञान नहीं सीखा। वे ऊंट और गधे को धर्म और इष्ट मानते हुए बांधते हैं। सामने आया भोजन भी वे अपने ज्ञान के गलत अर्थ के कारण ग्रहण नहीं कर पाते हैं। यह कहानी हमें जीवन में व्यावहारिक ज्ञान को सीखने की शिक्षा देते हुए समय पर सही निर्णय के महत्व को प्रतिपादित करती है।
यह पुस्तक आज से लगभग पैंतीस वर्ष पूर्व प्रकाशित हुए थी और उस समय की बाल साहित्य की स्थिति को देखते हुए यह अपने आप में एक अद्भुत प्रयोग था। पंचतंत्र और हितोपदेश की अनेक कहानियों में से कुछ चुनिंदा कहानियों को केंद्र में रखते हुए इस पुस्तक की रचना निश्चित रूप से तात्कालिक समय में बाल साहित्य की एक उपलब्धि मानी जा सकती है। बाल वाटिका पत्रिका की अनेक उपलब्धियां में यह भी एक बड़ी उपलब्धि है कि पत्रिका अनेक ऐसे दिवंगत साहित्यकारों के रचनात्मक अवदान को रेखांकित कर रही है जिससे आज की युवा पीढ़ी लगभग अपरिचित है अथवा उनके बारे में वे बहुत कम जानकारी रखते हैं।

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'मनुष्य' की संज्ञा और श्रेणी से बेदखल स्त्री की भाषा/ डॉ. नीरज दइया

कुछ इतना सधा और व्यवस्थित है स्त्री-मन/ कि कोई माथे पर छाप गया है :/ तिरिया चरित्रम्.../ जिसे देवता भी नहीं समझ पाते,/ मनुष्य की क्या बिसात...

और इस तरह स्त्री को/ 'मनुष्य' की संज्ञा और श्रेणी से बेदखल कर दिया गया है...

यह कुछ काव्य पंक्तियां सपना भट्ट के नवीनतम काव्य संग्रह 'भाषा में नहीं' में संकलित कविता 'रियायत' से है, जो स्त्री-मन को हमारे सामने इस तरह खोलकर रखती है कि हमें सोचने पर विवश होना पड़ता है कि ऐसा क्यों है? कोई इस सत्य को झुठला नहीं सकता कि स्त्री समानता और अधिकारों की बातें तो सदियों से होती रही हैं, किंतु स्थितियां नहीं बदली है। यह एक अहम सवाल है जो हमारे सामने होकर भी हमारे बीच 'भाषा में नहीं' है, यह अकारण नहीं कि इस संग्रह को शीर्षक भी 'भाषा में नहीं' दिया गया है। वैसे इसी शीर्षक से संग्रह में एक कविता भी है, जिसकी चर्चा हम आगे करेंगे। फिलहाल 'तर्पण' कविता की चंद पंक्तियां देखें-
'पण्डित जी समझाते हैं/ एक ही माँ के गर्भ से जन्म लेकर भी/ एक सी सिद्धि दोनों संतानों को नहीं मिलती

पितृ केवल पुत्र द्वारा ही तृप्ति पाते हैं।/ इसलिए देवता भी पुत्र की कामना करते हैं।'

ऐसा लगता है कि ऊपर से सब कुछ सामान्य-सी प्रतीत होती इन कविताओं के भीतर लावा बह रहा है। पुत्र-पुत्री में भेदभाव और धार्मिक मान्यताओं के रहते विधान इतने एकांगी क्यों हैं का सवाल इन कविताओं में प्रमुखता से देखा जा सकता है।
'भाषा में नहीं' सपना भट्ट का कविता-संग्रह सबसे पहले यही प्रश्न छोड़ता है कि ऐसा क्या है जो सच में भाषा में नहीं होता? क्या कविता किसी भाषा में होकर भी वह भाषा से बाहर विचरण करती है, अथवा कुछ चीजों को भाषा में लाने से परहेज किया जाता रहा है? ऐसा क्यों है कि सपना भट्ट जैसी किसी कवयित्री को भाषा के बाहर का वह सब कुछ नजर आता है जो भाषा में होना चाहिए। स्त्री की परंपरागत छवि से इतर इन कविताओं में कोमलता और कठोरता का समन्वय तो है ही किंतु अनेक छूटे हुए अथवा छोड़ दिए गए संदर्भ भी हैं। संग्रह की पहली कविता 'इंकलाब का रंग' जैसे स्त्री के एक पक्ष को भाषा में नहीं होने की वारदात को सीधे सीधे भाषा के द्वार पर खड़े करने की जोरदार मुहिम है।

'मेरे स्त्रीत्व का रंग है/ लाल चटख पलाश सा दहकता यह रक्त

माह के पाँच दिवस/ मेरी देह गुलमोहर हो जाती है/ ज्यों प्रकृति ने भेंट कर दी हों अपनी सारी श्रेष्ठताएँ मुझे

यह घृणा नहीं अनुराग का रंग है/ मेरी धमनियों में इसी रंग की उठान ने/ पहले प्रेम की मसृण गाढ़ी स्मृतियाँ बोयी

अपवित्र कैसे कहूँ इसे/ इसी रंग की रोशनी मेरी गर्भनाल से फूटती थी/ कोख में इसी रंग का सौन्दर्य अनवरत धड़कता था' (पृ.-17,)

निसंदेह ये कविताएं समकालीन हिंदी कविता के शोरगुल और कुछ रूढ़ियों में जकड़ी जाती कविताओं के बीच अपने ही तरह का एक अलग अहसास कराती है। यहां स्त्री मन अपने पूरे आवेग के साथ जैसे मन की परतों को बहुत गहरे तक खोलते हुए वह अभिव्यक्त करने का प्रयास कर रहा है, जो 'भाषा में नहीं' है।
संग्रह में 'भाषा में नहीं' शीर्षक से एक कविता भी है तो अन्य कुछ कविताओं में भाषा के विविध रूपों को कथ्य-संदर्भ में प्रयुक्त किया गया है। शीर्षक कविता की कुछ पंक्तियां देखें-
'भाषा में नहीं/ शोक के संदिग्ध पर्यायों में/ ढल जाती है प्रतीक्षा/ असाध्य करुणा घुटनों में सर दिए/ सुबकती रहती है।' (पृ.-104) किंतु ये कविताएं घुटनों में सर दिए स्त्री के सुबकने की कविताएं नहीं हैं, ये कविताएं एकांत में उम्मीद का दामन थामें ऐसी स्त्री की कविताएं हैं जिसमें उस पर अनगिनत दिशाओं से हो रहे वारों को रोकने की हिम्मत है, एक जोश और जज्बा है। कुछ कर गुजरने का हौसला और उम्मीद है। वह एक ऐसी भाषा की तलाश में है जो उसकी अभिव्यक्ति को संपूर्ण रूप में प्रस्तुत कर सके। उसके प्रतिरोध को अभिव्यक्ति दे सके।
कवयित्री लिखतीं हैं- 'बेचारी कविताओं पर भाषा का दबाव रहा/ और भाषा पर नैतिकता का' (पृ.-115) और यह भी- 'कि हे ईश्वर!/ मेरी सब प्रेम कविताओं के बदले/ मुझे बस एक रात की गाढ़ी और मीठी नींद दे दो!' (पृ.-150) इस संवाद, प्रार्थना अथवा संबोधन की मुद्रा में किसी खास समय विशेष की अभिव्यक्ति है। यहां कविता अपनी परंपागत भाषा में नहीं है, वह उसके अर्थ और निहितार्थ में कहीं व्यवस्थित है।
यहां यह भी सवाल किया जा सकता है कि यदि कोई कविता 'भाषा में नहीं' होती है, तो वह कहां होती है? इस प्रश्न के अनेक उत्तर हो सकते हैं, किंतु यहां एक सहज उत्तर इस संग्रह के हवाले दिया जा सकता है वह यह कि कविता उन भावों और मनः स्थितियों में होती है जो किसी संवेदना को कविता के रूप में रूपाकार करते हैं, और जाहिर है सपना भट्ट उन्हीं भावों और मनः स्थितियों को अंगीकार करते हुए अपनी कविताओं में प्रस्तुत करती है। स्थितियां कहीं से आयातित नहीं है, वे ऐसे परिदृश्यों को प्रस्तुत करती हैं जो सामान्य है किंतु उनके यहां किसी भी सामान्य को विशिष्ट बना देने का अद्भुत कौशल है।
सपना भट्ट की लगभग सभी कविताएं अपने आप में अनेक अंतर्कथाओं को समाहित किए हुए स्त्री के भीतरी-बाहरी संघर्षों का अलिखित दस्तावेज है। वे अपनी कविता 'चाल-चलन' में लिखती हैं- 'उन्हें मेरे तने कंधे/ और सीधी रीढ़ के पीछे के संघर्ष नहीं दीखते' यहां यह भी दुविधा है कि इन कविताओं में पंक्ति-दर-पंक्ति अनेक ऐसी काव्य अभिव्यक्तियां हैं, जिन्हें रेखांकित किया जा सकता है किंतु यहां यह संभव नहीं है... अस्तु कुछ चुनिंदा अंशों पर ही बात हो सकती है। स्त्री के अवरोधों और संघर्षों को नहीं देखने वाला समाज उसका 'चाल-चलन' सतही तौर पर देखता है और उसे किसी परिधि में बांधने बंधने के लिए 'खराब' विशेषण से विभूषित करता है। क्योंकि-
'पृथ्वी पर बराबरी के हक के लिए/ लड़ती औरत का साहस नहीं दीखता

हजार कठिनाइयों के बावजूद/ स्वाभिमान से जिंदा रहने का मेरा है नहीं दीखता' (पृ.-20)

समाज की प्रचलित मान्यताओं धारणाओं और विचारधाराओं के तहत चलने वाली वे सभी स्त्रियां समाज को सहज सामान्य रूप से स्वीकार्य है जो उसकी सत्ता को चुनौती नहीं देती है, यहां इन कविताओं में एक सिर उठाती हुई बोलती हुई स्त्री इकाई की कुछ अद्वितीय अभिव्यक्तियों में प्रस्तुत हुई है, जो हिंदी कविता के परिवृत में विरल है। मूक से मुखरित होती स्त्री के पक्ष में खड़ी इन कविताओं में बदलता समय रेखांकित हुआ है। संग्रह की कविताओं को तीन उपखंडों- 'थोड़ी सी उम्मीद', 'निर्जन पगडंडियों से गुजरते हुए' और 'मैं अनगिनत दिशाओं से' में प्रस्तुत किया गया है।
भारतीय समाज की स्त्रियों से कुछ अपेक्षाएं हैं-
'इतने सलीक़े से ओढ़े दुपट्टे/ कि छाती ढकी रहे/ पर मंगलसूत्र दीखता रहे,/ चेहरे पर हो इतना मेकअप/ कि तिल तो दिखे ठोड़ी पर का/ पर रात पड़े थप्पड़ का/ सियाह दाग छिप जाए...' (रियायत : पृ.-21)

विरोधाभास में लिथड़े हमारे भारतीय समाज की यही सच्चाई है। संभवतः यही कारण है कि आधी आबादी के कुछ दुख को जो भाषा में नहीं है उस को इस संग्रह की कविताओं में सपना भट्ट द्वारा आकार दिया गया है।
'दुख व्यंजनाओं में/ गड़ते रहे ठीक वहां/ जहां सबसे अधिक है पीड़ा' यही इन कविताओं का उत्स अथवा केंद्र बिंदु कहा जा सकता है। कोई रचनाकार अपने निजी अनुभवों और अपने पर्यावरण को अपनी रचनाओं में समग्रता से अभिव्यक्त करता है, अस्तु रचनाओं में जहां एक चेहरा उस रचनाकार का उभरता है वहीं वह अपने पूरे परिदृश्य के साथ नजर आता है। उसे अपनी रचना में किस प्रकार अपने देशकाल में समाज के साथ बनना-संवारना होता है, यही उसके चिंतन की आधार-भूमि उसे प्रेरित करती रहती है कि जो कुछ उसके समय में भाषा में नहीं है, वह उसे भाषा से बाहर देखे और पहचाने। यही उसका दायित्व भी है कि जो कुछ उसके चिंतन-मनन में है उसे साधिकर भाषा के भीतर लाने का साहस दिखाए। ऐसे ही साहस का नाम है- 'भाषा में नहीं'। यही कारण है कि इन कविताओं में कुछ सवाल अधिक है। जैसे- 'क्या यह मांग बहुत बड़ी है कि/
हमारी देह और जीवन पर/ हमारी इच्छाओं के हस्ताक्षर हों?' अथवा 'श्रद्धालुओं!/ अब किसको करोगे चरणतल नमस्कार/ किसके आगे शीश झुकाओगे?' कविताओं में अनेक प्रश्न ऐसे भी हैं जिन्हें प्रश्न की मुद्रा में प्रस्तुत नहीं किया गया है। यहां प्रस्तुत-अप्रस्तुत कहन अपनी भंगिमा में स्वयं पाठकों के भीतर पहुंच कर कुछ प्रश्नों का आकार ग्रहण करने में सक्षम है। जैसे- 'हमारी मुक्ति की चाबी/ दूर खड़ी उस पौरुषयुक्त शक्ति के पास थी/ जिसने हमारी परछाईं को अपने खोखले पुंसत्व और/ गैरबराबरी के दोमुँहे खण्डित संस्कारों से बाँध रखा था।' (अपनी पराजय : पृ.-56)
संग्रह में पहाड़ों का वर्णन है तो प्रेम और अध्यात्म के भी अनेक रंग हैं।  कवयित्री पहाड़ों की घनी वादियों में रहती हैं और उनका यह लगाव कविताओं में अभिव्यक्त भी हुआ है। 'अब तुम क्या देखने आओगे पहाड़' कविता में कवयित्री समय के चक्र में बदलते मूल्यों के साथ हमारे हाथों से छूटता जीवन, मिट्टी, वन और हवा-पानी के छीजते वैभव की चर्चा करती है। वे पर्यटन से अधिक विलुप्त होती संस्कृति की चिंता करती हैं, उनका मानना बेहद औचित्यपूर्ण है- 'विलुप्त होती पहाड़ी संस्कृति और/ विराट आदिम सभ्यता का कोई पुनर्वास संभव नहीं...'
इसी प्रकार अनेक कविता में प्रेम के विविध रंगों में संयोग-वियोग के साथ स्मृतियों के मोहक आस्वाद है। यहां प्रेम का अर्थ केवल मिलना और बिछड़ना नहीं है। केवल और केवल प्रेम के लिए प्रेम नहीं है, यहां प्रेम में उलझी और उलझ कर सुलझी कुछ सुलझती स्त्री का निर्मित होता हुआ एक ऐसा चेहरा है जो जवाबदेह और जिम्मेदार है। अपने अधिकारों और बदलते समय में समान स्थान पर प्रतिष्ठित होने के लिए एक प्रतिरोध की भाषा गढ़ सकने में समर्थ और विचारवान-विकेकशील चेहरा है। इस चेहरे को पहले की भांति दबाया या कुचला नहीं जा सकता है। यह एक चेहरा अपने जैसे अनेक चेहरों को अपने साथ चलने के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित करने वाला है।
यहां यह भी विशेष उल्लेखनीय है कि संग्रह में कुछ कविताएं अपने प्रिय कवियों को संबोधित, उन से संबंधित है अथवा कहें कि उनके लिए है। कवि स्वदेश दीपक, अनीता वर्मा और प्रभात के लिए लिखी इन कविताओं में उनकी रचनाओं के साथ कवयित्री का अपना नजरिया अभिव्यक्त हुआ है। उदाहरण के लिए कविता 'किसकी याद आती है?' की बात करें तो इसमें कवयित्री सपना भट्ट लिखती हैं- 'प्यारे कवि प्रभात !/ तुम्हारी एक कविता ने सताया है बहुत/ कि जिसे माँ की याद नहीं आती/ उसे माँ की जगह किसकी याद आती है?

सुनो प्रभात !/ मुझे अपने छुटपन की याद आती है/ मुझे आती है उन कहानियों की किताबों की याद/ जिन्हें पढ़ने का अवकाश न था' (पृ.-153)

और इस कविता की अंतिम पंक्तियां हैं- 'प्रभात !/ मुझे मेरे डोले से लगकर रोती-बिलखती/ मुझ पर खील दाल चावल वारती/ मूच्छित होती अपनी माँ की याद नहीं आती/ पितृसत्ता के स्त्री रूप की याद आती है...' (पृ.-155)

हिंदी कविता में ऐसी बहुत कम कविताएं हैं जो अन्य कवियों अथवा उनकी कविताओं पर केंद्रित है। कवि सुधीर सक्सेना का एक पूरा संग्रह ‘किताबें दीवार नहीं होतीं’ (2012) इस प्रकार की प्रयोगधर्मी कविताओं का है, जिसमें विभिन्न व्यक्तियों की रचनात्मकता और रागात्मकता को केंद्र में रखा गया है। ऐसे में इन कविताओं की एक धारा के विकास की बहुत संभानाएं है। किसी अन्य कवि की विचार भूमि को केंद्र में रखते हुए अपने जीवन प्रसंगों को कविता में रचना असल में कविता का विस्तार है।
कवयित्री ने यह संग्रह अपनी मां और पापा को समर्पित किया है जो उनके अहसासों को सघन करने वाला कारक रहा है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि संग्रह में माता-पिता और परिजनों के कुछ चेहरे रूप देखे जा सकते हैं, किंतु मां और पिता पर केंद्रित दो कविताएं विशेष हैं। 'मां' शीर्षक कविता में मां को उसके पूरे परिवेश के साथ सुखों और दुखों के बीच उभारा गया है वहीं 'मैंने दुख नहीं कहे पिता से' में किसी लड़की के ब्याह के बाद रोने और गुमसुम रहने की मासूम अभिव्यक्ति है। ब्याह के बाद उसके दो-दो घर के होने के बाद भी उसे गुमसुम रहने की त्रासदी भोगनी होती है।
प्रख्यात चित्रकार महेश वर्मा की भूमिका और काव्य संग्रह के तीनों खंडों में प्रयुक्त उनके चित्रों से इस संग्रह की गुणवत्ता में निश्चित रूप से वृद्धि हुई है। महेश वर्मा की भूमिका में लिखी इस बात से संग्रह को पढ़ते हुए सहमत हुआ जा सकता है, वे लिखते हैं- 'जब हम इन कविताओं से बारम्बार गुज़रते हुए अछूते बिम्बों और अछूते शब्द-विन्यासों के कौशल पर ठिठक कर सोचते हैं तब पाते हैं कि बिछोह, पीड़ा और नैराश्य की भीतरी तहों में रुदन की तरह बजती ये कविताएँ बगैर साददिली और सच्चाई के मुमकिन हो नहीं सकतीं। शब्दाडम्बर और कृत्रिमताओं के आधिक्य से संत्रस्त हमारे काव्य-जगत् में ये कविताएँ सच्ची भावनाओं को पुनर्स्थापित करने के कठिन काम को विनम्रता और संकोच से करती हुई दिखाई देती हैं।'
इस संग्रह के बाद सपना भट्ट के कविता संसार से हिंदी जगत की उम्मीदें बढ़ गई है और मुझे उनके नए संग्रह का इंतजार है।
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डॉ. नीरज दइया


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माधव नागदा री कहाणियां/ नीरज दइया

माधव नागदा राजस्थानी रा चावा-ठावा कहाणीकार रूप जाणीजै। आप राजस्थानी मांय डायरी विधा रो सूत्रपात 'सोनै री पांख्यां वाळी तितलियां' (2005) नांव री पोथी सूं करियो। आपरो पैलो राजस्थानी कहाणी-संग्रै 'उजास' (1999) घणो चावो हुयो। आप हिंदी मांय ई न्यारी-न्यारी विधावां मांय लगोलग लिखता रैया है, अर आपरी केई-केई  पोथ्यां प्रकाशित नै पुरस्कृत हुयोड़ी है। बियां साच ओ पण है कै माधव नागदा राजस्थानी में कमती कहाणियां लिखी है, पण जिकी लिखी है बां मांय सूं केई-केई कहाणियां यादगार मानी जावै। किणी पण रचना री मोटी खासियत उण रो असर मानीजै। जे कोई कहाणी बांचणिया रै मन-मगज पर आपरी छाप मांड देवै अर इसी छाप कै बरसां-बरस पछै भलाई बा कहाणी आपरै मूळ सरूप मांय चेतै नीं रैवै पण उण रा कीं अैनाण-सैनाण पक्कायत चेतै रैवै, इण नै उण कहाणी अर कहाणीकार री सफळता कैवणो चाइजै। इणी ढाळै रा सफळ कहाणीकारां मांय माधव नागदा रो नांव लियो जाय सकै। जे आपनै किणी कहाणी रो दाखलो देवणो हुवै तो बात करां 'नीलकंठी' कहाणी री। जिकी बरसां पैली 'माणक' पत्रिका रै किणी अंक मांय छपी, आ कहाणी आपरै पैलै संग्रै में ई देखी जाय सकै नै सांवर दइया रै संपादित कहाणी संग्रै 'उकरास' में ई आ कहाणी सामिल करीजी। कहाणी 'नीलकंठी' रै जस री बात करां तो अठै ओ कैवणो जरूरी लखावै कै आ कहाणी बरसां-बरस सूं विश्वविद्यालयां रै पाठ्यक्रम में सामिल रैयी है अर हाल ई पढाईजै। लुगाई जात रै दुखां अर पीडावां माथै साहित्य मांय अबै खास बात करीजण लागी है पण माधव नागदा नै बरसां पैली लुगाई रै नीलकंठी रूप री ओळख हुयगी ही अर बां अठै रै सांस्कृतिक मूल्यां नै पोखणवाळी आ बेजोड़ कहाणी राजस्थानी कथा-साहित्य नै दीवी। गांव री संस्कृति अर जीवण मूल्यां नै प्रगट करती आ कहाणी अठै री लुगाई री हिम्मत री कहाणी है कै बां सासरै में अलेखूं तकलीफां सैन करता थकां ई शंकर दांई सगळो विस खुद रै कंठां धारण कर लेवै पण माइतां साम्हीं कोई सिसकारो तांई नीं पूगण देवै। आज री प्रगतिशीलता साम्हीं आ कहाणी अठै रै परंपागत मूल्यां रो मोल बखाणै। ओ बो चितराम है जिको माधव नागदा री कलम सूं निकळियो पण किणी दीठाव रै दरियाव मांय ई जोयां तुरत लाध जावै। कैय सकां कै 'नीलकंठी' कहाणी सूं राजस्थानी कहाणी विधा मांय माधव नागदा री ओळखाण बणी, का इयां पण कैयो जाय सकै कै आधुनिक राजस्थानी कहाणी री ओळखाण जिकी कहाणियां सूं बणै उण मांय आ कहाणी ई आपरी ठावी ठौड़ राखै।


घणै हरख री बात कै लागैटगै पचीस बरसां पछै माधव जी रो दूजो कहाणी संग्रै 'आसा-निरासा' आपां रै साम्हीं आयो है अर इण संग्रै री केई कहाणियां राजस्थानी कहाणी विधा री हूंस बधावै जैड़ी मान सकां। बियां तो संग्रै री सगळी कहाणियां कहाणीकार री ऊरमा नै दरसावै पण कीं कहाणियां नै तो राजस्थानी कहाणी विधा री गीरबैजोग कहाणियां कैय सकां। जियां बात करां इण संग्रै री पैली कहाणी 'कितरा सांप' री। आ कहाणी आधुनिक हुवतै समाज साम्हीं उण समाज री हकीगत बखाणै जिको इण दौड़ मांय घणो लारै छूटग्यो है का कैवो कै उण री सुध लेवण री किणी नै तो फुरसत काढणी पड़ैला। आ कहाणी ठीमर सुर में ओ सवाल उठावै कै आजादी रै इत्ता बरसां पछै ई गांवां मांय मूलभूत सुविधावां रो अभाव क्यूं है? 'कितरा सांप' कहाणी रै मारफत कहाणीकार मिनख अर सत्ता रै संबंधां नै अरथावै। आ कहाणी बतावै कै जे मिनख बावळो हुवै तो इण रो मूळ कारण सत्ता है। इण कहानी रै सरू में शंकर बावळो कोनी दीसै, धन लारै बावळी हुई उण री लुगाई रूपा निजर आवै। गांव आजादी पछै ई क्यूं नीं बदळिया? बरसां पछै ई गांव रै मिनखां रो सुभाव कोनी बदळ सक्यो! इत्ती तरक्की पछै ई झांड फूंक गांव-गांव घर करियोड़ा है। कहाणी में न्यारी-न्यारी बसां रो अबखी घड़ी में किणी दो सवारी खातर नीं रोकणो जनता रै प्रति किण री लापरवाही है? कहाणी असल मांय आ बात मांड'र कैवै कै सांप जूण मांय अेक नीं केई केई है। कहाणी रै सेवट में शंकर रो बस माथै भाठो फेंक'र काच रो तोड़णो प्रतिरोध री सरुवात है।

अेक दूजी उल्लेखजोग कहाणी 'धोळो भाठो लीलो रूंख' री बात करां, जिण में गांव री राजनीति रो निरवाळो खेल निगै आवै तो साथै ई अठै री लुगाई री सरम नै आ नवै ढंग सूं पेस करै। सत्ता रै खेल में 'नाथी' अर 'मगनियो' तो दोय मोरा है, जिण रै मारफत उठा-पटक री तजबीज बनाइजै। अेक 'बलातकार' सबद नै बोलण मांय नाथी नै कित्ती तकलीफ हुवै इण रो जबरदस्त दाखलो है आ कहाणी। आ कहाणी फगत नाथी री कहाणी कोनी, राजस्थान री समूळी लुगाई जात री सरम-हया-दया री कहाणी है। झूठी गवाही रै मिस इण कहाणी मांय लुगाई रै मन री पुड़‌ता नै खोलतो कहानीकार राजस्थान रै संस्कृतिक जीवन नै पोखै। इण ढाळै री कहाणियां असल में आपरै आज नै अभिव्यक्त करती थकी बांचणियां रै मगज में सवाल उपजावै कै 'अैड़ो क्यूं है?'

आ ई बात कहाणी 'फीस' अर 'बांध' पेटै कैय सकां। दोनूं कहाणियां मानखै रै ऊजळपख नै अंधारै साथै साम्हीं राखै। अै कहाणियां आपां साम्हीं इण ढाळै रै मिनखां रा चरित्र बखाणै जिका इणी दुनिया रा 'रेयर' चरित्र हुवतां जाय रैया है। इण दुनिया नै दुनिया बणावण खातर जिकै लोगां री भूमिका मेहतावू है उण मांय डागदर अर हैडमास्टर जी जिसा मिनख जरूरी है। डागदर खुद नै हिंदुस्तानी बतावै अर जीवण मूल्यां रो दाखलो राखै। इण कहाणी रो अंत बांचणियां नै रोवणखाळो कर देवै। हैडमास्टर जानकी प्रसाद रै बेटे रो दुख अर डागदर खालपाड़े रै बेटै रो दुख सगण है, पण दोनूं प्रेरक चरित्र आपरै काम नै मोटो मानै। बै आपरै निजू दुखां नै काम मांय बाधा कोनी बणावै। आं कहाणियां नै अेकर बांच्यां अै बांचणियां रै मन-मगज मांय ठावी ठौड़ बणा लेवै। आ इण संग्रै अर नागदा जी रो मोटी खासियत कैय सकां। अठै संग्रै री दूजी-दूजी कहाणियां बाबत विगतवार बात नीं हुय सकै, इण खातर सेवट मांय बस इत्तो ई कैवणो है कै माधव नागदा राजस्थानी कहाणी जातरा री लीक नै लांबी बधावण वाळा कहाणीकार है। आं री हरेक कहाणी जूण रै जिण किणी अंस नै बखाणै बो अेक यादगार बण जावै। भासा, कथ्य अर बुणगट री दीठ सूं आं संजोरी कहाणियां रो म्हैं घणै मान स्वागत करूं। उम्मीद करूं माधव नागदा जी आपरी आ जातरा आवतै बरसां चालू राखसी अर आपां नै बेगो ई आपरो नवो कहाणी संग्रै बांचण नै मिलसी। 


डॉ. नीरज दइया


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दुनिया वह नहीं दिखती, जो वाकई वह होती है!/ डॉ नीरज दइया

'लौटा हुआ लिफाफा' कवि कुमार विजय गुप्त का सद्य प्रकाशित दूसरा कविता संग्रह है, जो उनके प्रथम काव्य संग्रह- 'खुलती हैं खिड़कियां' के 26 वर्षों बाद प्रकाशित हुआ है। हम जिस दौर से गुजर रहे हैं उसमें छपने-छापने की इतनी जल्दबाजी देखी जा रही है कि इतना धैर्य और विराम देखकर आश्चर्य होता है। प्रस्तुत संग्रह की कविताओं में उनके रचनाकाल को इंगित नहीं किया गया है, फिर भी यह कहा जा सकता है कि संग्रह की कविताएं कवि के पिछले 20-25 वर्षों में लिखी गई कविताओं से चयनित कविताओं का संकलन है। सबसे पहले शीर्षक कविता की बात करें तो कविताओं के क्रम में इसे संग्रह के मध्य में रखा गया है। इसका मध्य में रखे जाने का कोई विशेष अभिप्राय नहीं है किंतु मुझे लगता है कि इस कविता के द्वारा कवि की इन कविताओं की केंद्रीय भावभूमि की बात की जा सकती है। कविता का आरंभिक अंश देखें-

'निकाला था, तो झाड़े क्रीजदार/ लौटा, तो मुचराया हुआ'

इस कविता को पढ़ते हुए मैं कबीर को याद करता हूं जहां लौटने के भाव में चदरिया को ज्यों की त्यों रखे जाने की भावभूमि है। यहां यह कि लिफाफा जो संदेश और संभावनों के साथ भेजा गया था, वह लौटा तो उसके लौटने की व्यथा कथा कविता में है। 

कवि कुमार विजय गुप्त असाधारण काव्य-प्रतिभा के धनी हैं। वे अपनी तमाम कविताओं में जिस किसी विषय को लेते हैं उसकी सारी संभावनाओं के साथ नए पुराने संदर्भों को भी अपनी कविता में जोड़ते हुए अभिव्यक्त करते हैं। कई बार तो हमें आश्चर्य होता है कि हमारी सोची-समझी जानी-पहचानी सीमाओं का भी वे अतिक्रमण करते हैं। उदाहरण के लिए इसी कविता का अंतिम अंश देखा जा सकता है-

'शुक्र, उन तमाम अनदेखी आत्माओं का/ कम-से-कम सकुशल लौट तो आया यह/ घर से भागे उस लड़के जैसा/ जो वापस आया हो फिर अपनों के बीच/ एक आंख में मासूमियत और दूसरी में/ पश्चाताप के आंसू छुपाते हुए!' यहां जिस सूक्ष्मता से आंखों में झांकते हुए कवि नवीन भाषा विधान में हमारे समक्ष मन की परतों को खोलता  है वह कुमार विजय गुप्त की कविताओं को असाधारण बनाता है। 

संग्रह की कविताओं में विषयों की विविधता है, वही जीवन को समग्रता से देखने का उपक्रम भी. किसी भी रचना की प्रमाणिकता को निजी अनुभूतियां और परिवेश की स्थानीयता द्विगुणित करती है। प्रत्येक कवि की अपनी निजी अनुभूतियां होती है और इसी मौलिक अनुभव-दृष्टि से रचना में प्रभावशीलता प्रकट होती है। मुक्तिबोध ने लिखा है- 'गरबीली गरीबी यह, ये गंभीर अनुभव सब/ यह विचार-वैभव सब/ दृढ़ता यह, भीतर की सरिता यह अभिनव/ सब मौलिक है, मौलिक है।'  अपने भीतर की इसी मौलिकता को बचाए रखने के अनेक प्रयास इस संग्रह में हुए हैं।

एक विशेष बिंदु यह भी कि इन कविताओं में कवि के आवासीय जिले मुंगेर के साथ जमालपुर और भागलपुर जैसी जगहों के संदर्भों से कविता अपनी जड़ों के साथ उभरकर सामने आती है। 'डेढ़-डेढ़ रोटी और थोड़ी-थोड़ी खुशी' कविता में शहर मुंगेर का जुबली वेल चौक है तो 'गोलगप्पे खा रही लड़कियां' कविता में भागलपुर का वेरायटी चौक है. साथ ही इसी कविता की एक पंक्ति में कवि ब्यौरा देता है कि 'मुझे शाम के वक्त जमालपुर स्टेशन के परिसर में  खड़ा / चिड़ियों की चहचह से भरा एक घना वृक्ष याद आ रहा है।' यह सब बिंब जहां किसी दृश्य की प्रामाणिकता को अभिव्यक्त करते हैं वहीं हमें स्थानीयता से जोड़ते हुए मोटे तौर पर यह भी बताते हैं कि ऐसी जीवन स्थितियां, बदलाव और अनुभूतियां देश विदेश के किस भी शहर अथवा कोने में संभव है। क्योंकि जो मजदूर मुंगेर में बिकने के लिए खड़ा है वह केवल और केवल मुंगेर का दृश्य नहीं है, यहां के मजदूर की भांति देश दुनिया के सभी मजदूरों की पीड़ाएं आशाएं निराशाएं और दुख दर्द समान है। नया इसमें क्या है? अथवा कहें कि यह तो बस एक उदाहरण है। यहां अपनी निराशाओं में कुछ आशाएं, सपने, सुख को पाने-देखने का उनका अपना तरीका है। यहां भी वे तंगहाली में भी मिल-बांट कर बिना किसी शिकायत के खा-पी कर जीवन बसर कर रहे हैं। भागलपुर की लड़कियां देश के किसी भी कोने में मिल सकती हैं। यह नए समय के साथ अपने पंख फैला कर उड़ने की कामना चाहती हैं। स्वाद और समय को वे अपने नाम कर लेना चाहती हैं।

कुमार विजय गुप्त की कविताएं हमारे आस-पास के जीवनानुभवों को केंद्र में रखते हुए जिन घटनाओं और रूपकों को प्रस्तुत करती है, वे बहुधा ऐसे होते हैं जिन पर हमारा ध्यान नहीं जाता है अथवा वे हमारे आस पास होते हुए भी अनदेखे रहते हैं। एक अन्य कविता की बात करें जिसमें स्त्री-पुरुष की इस दुनिया में से कवि तीसरे वर्ग की बात अपनी कविता 'ट्रेन में ताली' में करते हुए हमारी संवेदनशीलता को छू रहा है। जिन्हें हम आपदा के रूप में लेते हैं, उनकी भी अपनी दुनिया और संवेदनाएं हैं। महज ताली से एक वर्ग की उपस्थिति और अनुभूति को प्रस्तुत करना कविता की विशेषता है। इसी प्रकार आधुनिकता और बाजार के हमले पर 'चोर जेब वाली कमीज़' एक बेहतरीन कविता है,  तो 'बासी रोटी ताजा चाय' में परंपरा और आधुनिकता का द्वंद्व है। 

कुमार विजय गुप्त अपनी कविताओं में साधारण और मामूली चीजों को असाधारण और जरूरी के रूप में प्रस्तुत करने का हुनर रखते हैं . उनकी अनेक कविताओं में व्यंग्य की मीठी मार भी हमें प्रभावित करती है। 'कलम की खोली', 'मैं तर्जनी हूं',  दांव-पेंच', 'सरल रेखा' और 'समय की साज़िश' कविताओं को इस संदर्भ में देखा-पढ़ा जा सकता है। कुछ कविताओं में कविता और शब्द को लेकर कवि की विभिन्न स्थितियों में मनःस्थितियां चित्रित हुई हैं तो कहीं पुराने मिथकों की दुनिया को नए सन्दर्भों के साथ देखे जाने की बानगी प्रभावित करती है।

संग्रह के विषय में कवि-अनुवादक प्रभात मिलन लिखते हैं- 'ये कविताएं हमारे समय और संघर्ष का प्रोडक्ट हैं इसलिए इनको पढ़ते हुए किसी यूटोपिया से होकर गुजरने का बोध नहीं होता, और ने इनको पढ़ते हुए किसी कृत्रिम आशावाद और दुनिया को बदल देने की हवाबाज दावेदारी की अनुभूति होती है।'

कथात्मक और घटना प्रधान कविताओं में कवि जीवन के ऐसे मार्मिक प्रसंगों को छूता है कि वे हमारे भीतर कहीं अपनी मनःस्थितियों से तुलना का भाव जगाती हुई जैसे कुछ कहती हैं । अथवा इसे यूं कहा जाए कि ऐसा लगता है कि कवि ने हमारे ही मन की बात कागज पर उतार दी हो। पिता और मां को केंद्र में लिखी गई कविताओं में बिना किसी अतिरेक के बेहद सहजता सरलता के साथ जो बात कही गई है, वह हृदयस्पर्शी है। मां के साथ मोबाइल और पिता के साथ चश्मे का संदर्भ जिस सहजता में बड़ी बात करने में समर्थ है वह इन दिनों लिखी जा रही कविता में दुर्लभ है।

'पिता के चश्मे से/ दुनिया बेहतर दिखती तो है / किंतु वह नहीं दिखती जो वाकई वह होती है!' यह संग्रह दुनिया को अपने ढंग से देखने-परखने का एक प्रयास है। कहना होगा कि 'लौटा हुआ लिफाफा' एक महत्त्वपूर्ण काव्य-कृति है,  जिसे पढ़ना कविता के एक जरूरी और महत्वपूर्ण परिदृश्य को जानना है।

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काव्य-संग्रह : लौटा हुआ लिफाफा 

बिम्ब प्रतिबिम्ब प्रकाशन , फगवाडा (पंजाब)

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समीक्षक : डॉ नीरज दइया 







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