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कन्हैया लाल "मत्त" का बाल कथा-साहित्य में करिश्मा/ डॉ. नीरज दइया

बाल साहित्य में अनेक ऐसे लेखक-कवि हैं जिनकी रचनाओं पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया, ऐसा ही एक नाम कन्हैया लाल "मत्त" (1911-2003) का है। 'जमा रंग का मेला' उनकी बाल कविताओं का बेहद खूबसूरत संकलन है किंतु यहां मैं उनकी बाल कहानियों के संकलन 'तराजू का करिश्मा' पर बात करना चाहूंगा। यह संकलन वर्ष 1990 में प्रकाशन विभाग द्वारा प्रकाशित किया गया। इस संकलन में कन्हैया लाल जी की 10 कहानियां संकलित हैं, जो 'पंचतंत्र' और 'हितोपदेश' की कथाओं को आधार बनाकर प्रस्तुत की गई है। प्रकाशन विभाग ने बाल कहानियों की एक शृंखला प्रकाशित की थी, जिसके अंतर्गत 'तराजू का करिश्मा' भाग-6 के रूप में प्रकाशित हुआ। शीर्षक कहानी की बात करें तो यह वही दो मित्रों की कहानी है जिसमें एक मित्र दूसरे मित्र के पास अपना तराजू और बाट छोड़कर कमाने जाता है और जब लौटता है तो उसे सुनने मिलता है कि चूहा तराजू खा गए हैं। इस कहानी को मैंने कब पढ़ा अथवा सुना ठीक से नहीं कह सकता किंतु यह अवश्य है कि यह कहानी हमारे लोक में विभिन्न रूपों में सुनी-सुनाई जाती रही है। यहां साथ यह भी कि इसी कहानी को प्राथमिक कक्षाओं के हिंदी पाठ्यक्रम में भी कई पुस्तकों में संकलित किया गया है। इसे अनूदित रूप में अंग्रेजी और विभिन्न भाषाओं में भी देखा-पढ़ा जा सकता है। राजस्थानी में विजयदान देथा इस बात का अनुपम उदाहरण है कि उन्होंने लोक में यत्र-तत्र बिखरी हुई कथाओं को 'बातां री फुलवाड़ी' नामक अपने विशालकाय ग्रंथ में स्थान दिया, या कहें कि 13 खंडों में लिपिबद्ध किया और वे इसी कार्य से पहचाने गए। उनको  'बातां री फुलवाड़ी' खंड-10 के लिए साहित्य अकादेमी द्वारा मुख्य पुरस्कार भी अर्पित किया गया। यह अब भी चर्चा का विषय है कि क्या कन्हैया लाल "मत्त" अथवा विजयदान देथा जैसे लेखकों की उन कहानियों को मौलिक कहा जाए अथवा नहीं।

प्रकाशन विभाग के तत्कालीन निदेशक डॉ. श्याम सिंह शशि ने इस पुस्तक के प्रकाशकीय में लिखा भी है- 'प्रकाशन विभाग का सदैव यही उद्देश्य रहा है कि अपने बाल पाठकों को मनोरंजन और शिक्षाप्रद कहानियां उपलब्ध कराई जाएं। हमारे अनुरोध पर प्रस्तुत कहानियां वरिष्ठ कवि और कथाकार श्री कन्हैया लाल "मत्त" ने इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए 'पंचतंत्र' और 'हितोपदेश' को आधार बनाकर प्रस्तुत की है।'
इस बात में कोई संदेह नहीं है कि इस संकलन में प्रस्तुत सभी दस कहानियां बच्चों का मनोरंजन करते हुए उन्हें कोई न कोई शिक्षा देती है अथवा नैतिकता का पाठ अवश्य पढ़ती है।
यहां संकलन में प्रस्तुत कहानियों पर चर्चा करते हुए कुछ संकेत दिए जाएंगे तो आपके जेहन में संचित कहानियों में वह कहानी आकार लेने लगेगी। कोई लोककथा हो अथवा किसी ग्रंथ विशेष से प्रभावित कोई कथा उसमें कहानीकार का कहानी को प्रस्तुत करने का अपना ढंग निश्चित रूप से कुछ अलग होता है। यहां भी लेखक कन्हैया लाल जी ने कहानी के आरंभ में एक अनुच्छेद उस कहानी के संबंध में एक उद्धोषणा के रूप में प्रस्तुत किया है जो उस कहानी की केंद्रीय कथा-वस्तु को स्पष्ट करता है। जैसे शीर्षक कहानी के इस प्रथम अनुच्छेद को देखें- "क्या कोई चूहा लोहे की तराजू को खा सकता है? नहीं न! पर साहूकार ने तो यही कहा था! यही कह कर उसने अपने मित्र को धोखा दिया और पूरी तराजू हजम कर गया! पर... पर तराजू भला हजम कैसे हो सकती थी ! तराजू तो न्याय का प्रतीक होती है। वह बेईमान को उसकी बेईमानी का मजा चखाकर ईमानदारी का ही तो साथ देती। यह न्याय ही तो तराजू का करिश्मा था।"
इसके बाद लोककथाओं के सरस अंदाज में कहानी आरंभ होती है- 'बहुत पुरानी बात है। एक नगर में जीर्णधन नाम का एक व्यापारी रहता था।...' आधुनिक और नई कहानियों की तुलना में (जिन्हें मौलिक कहा जाता है) इन कहानियों का मुकाबला नहीं किया जा सकता है। इनकी गजब की पठनीयता, मोहक कथानक और लोक जीवन की महक सदाबहार है। ये कहानियां जितनी बाल पाठकों को सम्मोहित करतीं हैं उतनी ही बड़े-बूढ़ों को भी।
आप और हम उस सपने देखने वाले सत्तू वाले गरीब ब्राह्मण को नहीं भूले होंगे जो एक के बाद एक ख्याली पुलाव पकाता सपने में अमीर बनाता है और जिसने अपनी लात से कहानी के अंत में घड़ा फोड़ डाला था, उसी कथानक पर आश्रित कहानी है- 'कंजूस का हवाई किला'। इस कहानी का प्रारूप और इससे पूर्व उपलब्ध कहानी के प्रारूप को तुलना करने पर लगेगा कि पूरी कथा वस्तु, चरित्र चित्रण, पात्र और देशकाल वही है और कुछ बदला गया है तो वह है शीर्षक। मूल कथा को हू-ब-हू रखते हुए पंचतंत्र के संकलित अंतिम संवाद को यहां नहीं दिया गया है और कहानी के कहन में अन्य कहानियों से समानता और समरूपता के लिए कुछ वाक्यों में बदलाव जरूर किया गया है।
संग्रह की कहानी 'भाग्यशाली मूर्ख' में संयोग के महत्त्व को प्रतिपादित किया गया है कि कोई मूर्ख व्यक्ति कैसे कैसे संयोग से कोई स्थान प्राप्त कर लेता है। जीवन में सदा संयोग नहीं घटते हैं, इसलिए इस प्रकार की कहानियों में जो संयोग और संयोग की योजना होती है वह हमें रोचक लगती है। सेठ का घोड़ा लोक में सुनी कहानियों में कुंभार का गधा अथवा राजा की सेविका जिह्वा, राजस्थानी लोक साहित्य में निदिया नाम की दासी वर्णित मिलती है किंतु यह पाठांतर इन कहानियों के कथा रस को कहीं खंडित नहीं करता। एक बार कहानी के पाठ में आबद्ध होने के बाद सीधे तक तक किसी गिरफ्त में पाठक दौड़ते हुए पहुंचते हैं, यही इन कहानियों की सार्थकता और जीवंतता है। इतने समय के बाद भी इन कहानियों में किसी को भी सम्मोहित करने की क्षमता अक्षुण है। 'बोलने वाला पेड़' दो मित्रों की एक यादगार कहानी है जिसमें धन के लिए एक मित्र दूसरे मित्र पर आरोप लगाता हैं किंतु कहानी के अंत में सच और झूठ का फैसला हो ही जाता है। पेड़ के आसपास जब आग लगाई जाती है तो झूठ बोलने वाले मित्र के पिता उसे पेड़ के भीतर से दौड़कर बाहर आते हैं और पेड़ के बोलने का रहस्य खुल जाता है।
'टिटहरी के अंडे' कहानी में समुद्र से लड़ाई करती निरीह टिटहरी की व्यथा-कथा है। इस लड़ाई में विष्णु भगवान का आना बच्चों में धार्मिक तथ्यों और जानकारी देने वाला है कि किस प्रकार घटनाएं एक दूसरे से जुड़ी हुई है। 'सोने की दलदल' लोभ लालच नहीं करने की शिक्षा देती है तो 'कुलघाती मेंढ़क' में एक ऐसे मेंढ़क को दिखाया गया है जो अपने कुछ दुश्मनों से बदला लेने के लिए सांप से दोस्ती करता है किंतु वह दोस्ती उसे बहुत भारी पड़ती है। उसका अपना परिवार भी सांप के आहार की भेंट चढ़ जाता है और वह स्वयं जैसे तैसे अपनी जान बचाता है। अंतिम कहानी 'पढ़े-लिखे पोंगा' में चार मूर्ख पंडितों की कहानी है जो विद्याध्ययन के अंतर्गत ग्रंथ तो पढ़ चुके थे किंतु उन्होंने जीवन का व्यावहारिक ज्ञान नहीं सीखा। वे ऊंट और गधे को धर्म और इष्ट मानते हुए बांधते हैं। सामने आया भोजन भी वे अपने ज्ञान के गलत अर्थ के कारण ग्रहण नहीं कर पाते हैं। यह कहानी हमें जीवन में व्यावहारिक ज्ञान को सीखने की शिक्षा देते हुए समय पर सही निर्णय के महत्व को प्रतिपादित करती है।
यह पुस्तक आज से लगभग पैंतीस वर्ष पूर्व प्रकाशित हुए थी और उस समय की बाल साहित्य की स्थिति को देखते हुए यह अपने आप में एक अद्भुत प्रयोग था। पंचतंत्र और हितोपदेश की अनेक कहानियों में से कुछ चुनिंदा कहानियों को केंद्र में रखते हुए इस पुस्तक की रचना निश्चित रूप से तात्कालिक समय में बाल साहित्य की एक उपलब्धि मानी जा सकती है। बाल वाटिका पत्रिका की अनेक उपलब्धियां में यह भी एक बड़ी उपलब्धि है कि पत्रिका अनेक ऐसे दिवंगत साहित्यकारों के रचनात्मक अवदान को रेखांकित कर रही है जिससे आज की युवा पीढ़ी लगभग अपरिचित है अथवा उनके बारे में वे बहुत कम जानकारी रखते हैं।

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