असल में बड़ा आदमी वह होता है जिसके साथ हमें या किसी को भी आपनी लघुता का अहसास नहीं होता। इस विचार के आलोक में सुधीर सक्सेना बड़े आदमी हैं। मेरे शब्दों पर उनके परिचित और मित्र मोहर लगाएंगे कि उनके साथ जब कभी साथ होने का अवसर आता है, हमें हमेशा यही अहसास रहता है कि जैसे कोई अपना सगा-संबंधी आत्मीय जन हमारे साथ है। इस आत्मीयता के आस्वाद में वे भूले से भी कभी कहीं किसी भी क्षण ऐसा कुछ नहीं छोड़ते कि जिस पर कोई संदेह या शक किया जा सके। चंद मुलाकातों और थोड़े से संवाद में वे धीरे-धीरे हर दूरी को पाटने की क्षमता रखते हैं।
मैंने सुधीर सक्सेना को बड़ा आदमी इसलिए कहा है कि वे संबंधों में ऐसे समानता और समव्यस्कता के घरातल पर पहुंच जाते हैं, जहां छोटे-बड़े का अहसास लुप्त हो जाता है। जाहिर है कि यह अनायास यूं ही नहीं होता, ऐसा अहसास बहुत कम बड़े रचनाकारों के साथ हम पाते हैं। उनकी सहजता हमारी धरोहर है। यह मेरा अनुभव है कि वे नए और युवा रचनाकारों से बतियाते हुए अक्सर उम्र के ढलान से जैसे लुढ़ते हुए समानता के धरातल पर बिना कोई अहसास कराए खुद को उतार लेते हैं। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि वे हमसे बतियाते हुए हमारे पंख लगा देते हैं और हमें उड़ते हुए अपने तक पहुंचने में सक्षम बना देते हैं। उनका यह ऐसा हुनर है कि हर किसी की पकड़ में नहीं आता। वे कहीं ऐसा कोई संदेह या शक होने से पहले ही उसे पाट देते हैं। कोई स्थान रिक्त नहीं छोड़ते कि जहां कोई सूराख हो सके, और हम ऐसे किसी रहस्य तक पहुंच सकें।
यह अंधेरे में तीर छोड़ा ऐसा एक तीर है जो सीधा निशाने पर जा कर लगा है। इसके प्रमाण एक-एक कर मैं जाहिर करता हूं। पहले-पहल तो सुधीर सक्सेना अपनी किताबों में उम्र का हवाला दिया करते थे, लेकिन काफी समय से यह सिलसिला बंद है। शायद उन्हें लगने लगा होगा कि उम्र का हवाला नहीं देने से ‘काल को भी नहीं पता’ चलेगा कि वे समय के साथ छेड़छाड़ कर रहे हैं। हां, यह भी हो सकता है कि वे वर्तमान से भविष्य की तरफ दौड़ते समय में कुछ रफ़तार का अहसास कम करने की फिराक़ में हैं। वे स्मृतियों और अतीत में अधिक से अधिक बने रहने की संभावनाएं तलाशते हैं। साफ शब्दों में कहा जाए तो उन्हें रचनात्मकता के तौर पर अतीत, संभावना और बदलते समय के रंग अधिक पसंद हैं।
आकंठ आत्मीयता में डूबे कवि सुधीर सक्सेना न केवल आत्मीयता से लबरेज गहरे इंसान है, वरन उन्हें एक दिव्यात्मा कहना अधिक उपर्युक्त होगा। दिव्यात्मा इसलिए कि उनकी आत्मीयता हर छोटे-बड़े के साथ समानता का एक आदर्श भाव लिए हुए है। इंसान जब मसीनों में तब्दील हो गए हैं, तब ऐसे समय में ऐसा क्यों हैं? यह बदला हुआ समय और सब कुछ बदलते जाने का अहसास कराने वाला समय है। ऐसे कुहासे के समय में सुधीर सक्सेना अक्सर हमें लडाते हुए, किसी स्मृति में सहलाते हुए, चुपचाप अपनी कविताओं में सतत रूप से ऐसा मर्म अपने विविध पाठों में उद्घाटित करते हैं कि हमसे मिलने वाले हर इंसान हमारी आत्मीयता का ऐसा ही अहसास कर सके। क्या इस पर विचार नहीं किया जाना चाहिए कि सुधीर सक्सेना ऐसा क्या करते हैं कि वे हम सब को अपने घनिष्ट, निजी, अंतरंग और आत्मीय लगते हैं।
मैं सुधीर जी से न केवल उम्र के लिहाज से वरन रचनात्मकता के हिसाब से मैं खुद को उनके पीछे-पीछे दौड़ते हुए पाता हूं। यह दौड़ना इसलिए भी जरूरी है कि वे आचार-विचार और व्यवहार से इतना उत्साह, आत्मीयता और जोश से भर देते हैं कि मुझे लगने लगने लगता है मुझे भी सुधीर सक्सेना जैसे आकंठ आत्मीयता में डूब जाना चाहिए। वे अपने समय से इतना समय निकाल लेते हैं कि नए रचनाकारों से सम्मान और स्नेह से भरपूर उनका संवाद होता है।
यह सम्मान और स्नेह ही है कि मैं अतीत में उस जगह पहुंच गया हूं, जहां सुधीर सक्सेना से मेरी पहली मुलाकात सूरतगढ़ में हुई थी। यह संयोग बना कि वे हमारे मित्र रविदत्त मोहता के यहां मेहमान बन कर आए थे। आकाशवाणी सूरतगढ़ में मोहता के सहकर्मी उद्घोषक एवं कवि-गीतकार राजेश चढ्ढा व अन्य स्थानीय रचनाकारों के आग्रह से एक संवाद-कार्यक्रम रखा गया, असल में यह हमारी पहली मुलाकात का एक बहाना बना। मिलकर लगा जैसे कोई पहचान थी, बस हमारा मिलना ही बाकी था।
सूरतगढ़ जैसे छोटे कस्बे में भले सुधीर सक्सेना के पाठक अधिक नहीं हो, किंतु कविता कोश पर चस्पा उनकी कविताएं हम सब मित्रों के लिए उनके कवि को पहचानने-परखने की पहली सीढ़ी कही जाएगी। जिस दिन राजेश चढ्ढा ने मुझे फोन पर इस कार्यक्रम का आमंत्रण दिया, संयोग से मेरे मित्र नंदकिशोर सोमानी साथ थे। मुझे याद आता है कि उनके पूछने पर मैंने उन्हें कहा था कि कुछ कविताएं और आलेख सुधीर सक्सेना के पढ़े हुए हैं, पर सुधीर सक्सेना तो दो हैं। पता नहीं ये कौनसे वाले आएं है।
सुधीर सक्सेना ‘सुधि’ और सुधीर सक्सेना के बारे में उसी दिन एक बार नए सिरे से अंतरजाल पर गूगल से खोज-खबर ली। राजेश चढ्ढ़ा से बात कर यह भी पक्का कर लिया कि आने वाले ‘सुधि’ नहीं हैं, पर मित्र ऐसे हैं कि हम सभी की ‘सुधी’ बराबर लेते-देते रहेंगे। और यही हुआ, पहली ही मुलाकात में हम मित्रों ने जान लिया कि साहित्यकार सुधीर सक्सेना का व्यक्तित्व चुम्बकीय है। उन्होंने मेरे साथ वहां के सभी साथी रचनाकारों और सुधि पाठकों को पहली नजर में आकर्षित किया। फेंचकट दाड़ी और चश्मा पहने जो कवि मेरे सामने आया, वह किसी कहानी के नायक से कम नहीं था। जब बतियाना आरंभ किया तो जैसे उनका जादू पूरे सभागार में बढ़-चढ़ कर बोलने लगा। लंबे अंतराल के बाद सूरतगढ़ में किसी को सुनना और मिलना हमें महत्त्वपूर्ण लगा था।
ये लगभग पांच वर्षों से अधिक पुरानी बातें हैं। उन्होंने उस दिन कुछ कविताएं और अपनी यात्राओं की स्मृतियां साझा करते हुए व्याख्यान दिया था। कविता में स्मृतियों और ऐतिहासिक संदर्भों से जुड़े कुछ अहसास और शब्दों की अनुगूंज अब भी किसी संगीत की भांति भीतर कहीं दफन है, किंतु वे शब्द अब पकड़ में नहीं आते। जैसे स्मरण में उस दिन के संवाद का पूरा ब्यौरा कहीं खो गया। किंतु उनके संवाद में स्थानीयता और राजस्थान के विषय में जानने की उत्कंठा और अद्भुद लालसा का स्मरण मैं भूला नहीं हूं। वे जिस तन्मयता के साथ कुरेद-कुरेद कर सवाल-दर-सवाल करते हुए हमारी बातों को ध्यान-मगन हो कर सुन रहे थे, और उसी समय स्मृति में किसी फिल्म की भांति कैद भी होते जा रहे थे। वह स्मृति अब वैसी नहीं है, इन विगत कुछ दृश्यों में आवाजें नहीं रहीं। रील चल भी नहीं रही, बस एक चित्र पर अटकी हुई है। सुधीर सक्सेना का उस समय में होना और हम सब से मिलना। तब से अब तक सुधीन सक्सेना स्नेहिल बने रहे हैं, इसे ऐसे भी कहा जाना चाहिए कि मेरे प्रति उनके स्नेह में निरंतर इजाफा हो रहा है।
जिक्र ‘दुनिया इन दिनों’ पत्रिका का भी आया था। साथ ही यह भी कि दिल्ली-भोपाल के विषय में सुना कि सरकारी विज्ञापनों के बल पर बहुत पत्रिकाएं निकल रही हैं। सुधीर जी ने हम मित्रों के आग्रह का मान रखते हुए एक बंडल बना कर पत्रिका के कुछ अंक भिजवाए। ‘दुनिया इन दिनों’ के वे विशेषांक फिल्म जगत के कलाकारों पर बेहद मेहनत से तैयार किए गए थे। वे अंक बेहद आकर्षक और प्रभावशाली लगे। मेरी राय आज भी यही है कि प्रधान संपादक सुधीर सक्सेना की मेहनत के बल पर ‘दुनिया इन दिनों’ पाक्षिक पत्रिका सदा मित्रों को सम्मोहित करने वाली बनी रहेगी।
इस बीच एक लंबा अंतराल गुजर गया। कभी-कभार दुआ सलाम हो जाती। मैं बिना काम हाय-हेलो करने वाला नहीं हूं किंतु दोस्तों-दुश्मनों की याद बराबर बनी रहती है। बहुत अच्छा हुआ कि फेसबुक पर एक बार फिर सुधीर सक्सेना से मित्रता और संवाद का सिलसिला बना। मेरे हिंदी कविता-संग्रह ‘उचटी हुई नींद’ की समीक्षा ‘दुनिया इन दिनों’ में प्रकाशित कर उन्होंने मुझे उपकृत किया। ऐसा इसलिए कि राजस्थानी भाषा में तो पत्र-पत्रिकाएं बेहद कम है और जब हिंदी कविता-संग्रह आया तो जिन बहुत-सी पत्र-पत्रिकाओं का दंभ हिंदी ओढ़े है, उन में से काफी को समीक्षार्थ पुस्तकें भिजवाने पर भी निराशा हाथ लगी।
सुधीर सक्सेना का आभार इसलिए भी कि ‘दुनिया इन दिनों’ के आगे के अंकों में उन्होंने मुझे सक्रियता से जोड़े रखा। जब मैंने चयनित राजस्थानी कवियों की कविताओं के प्रकाशन का सुझाव दिया तो उसे न केवल सहर्ष स्वीकार किया वरन मेरी मातृभाषा के कई कवियों को किसी स्तंभ की भांति पत्रिका में लगातार सुंदर साज-सज्जा के साथ स्थान दिया।
फोन और इंटरनेट संवाद के लंबे सिलसिले के बाद एक बार फिर उन से रू-ब-रू होने का संयोग बना। दैनिक भास्कर बीकानेर संस्करण के मुख्य-संपादक मधु आचार्य ‘आशावादी’ और उनके बड़े भाई आनंद वि. आचार्य की पुस्तकों के लोकार्पण के कार्यक्रम की रूपरेखा जब मित्र बना रहे थे, तब बहार से बुलाए जाने वाले मुख्य अतिथियों के प्रस्तावित नामों में एक नाम सुधीर सक्सेना का भी था। जिसे आयोजन से जुड़ी मित्र मंडली द्वारा सर्वसहमति से स्वीकार किया। बीकानेर के लेखकों में मधु आचार्य ‘आशावादी’ की सक्रियता जान कर सुधीर सक्सेना बहुत प्रसन्न हुए।
लोकार्पित होने वाली पुस्तकें उनको ई-मेल पर उपलब्ध करवाने के बाद हमारी चर्चा का लंबा सिलसिला चला। राजस्थानी और बीकानेर सुधीर सक्सेना के लिए आकर्षकण का केंद्र इसलिए भी रहा है कि उनके पूर्वज यहीं के थे, और अब भी उनके अनेक सगे-संबंधियों के निवास राजस्थान में हैं। जिन दिन सुधीर जी को दिल्ली से बीकानेर आना था उसी दिन भास्कर के धीरेंद्र आचार्य ने दूरभाष पर उनसे लंबी चर्चा कर एक शानदार साक्षत्कार तैयार किया जो आगले दिन भास्कर में प्रकाशित हुआ। मेरे आग्रह पर सुधीर जी ने अपनी तीन-चार कविताओं को राजस्थानी में अनूदित करने की अनुमति दी। यह संयोग बनाया गया कि जिस दिन वे बीकानेर में रहें, उसी दिन ‘दैनिक युगपक्ष’ में उनकी हिंदी कविताओं के राजस्थानी अनुवाद उनके सम्मान में प्रकाशित हो सकें।
रेल्वे स्टेशन पर बहुत आत्मीयता से सुधीर जी का मिलना और वहां से होटल तक के छोटे से सफर में बेहद आत्मीयता भरी बातें, मेरी निजी धरोहर है। मधु आचार्य ‘आशावादी’ के हर लोकार्पण-कार्यक्रम की भांति यह कार्यक्रम भी टाउन हॉल में भव्यता के साथ हुआ। खूब साहित्य-प्रेमी जुटे। बहुत कम समय में सुधीर सक्सेना ने अपनी लिखित टिप्पणी तैयार कर की थी। उस दिन साहित्य, समाज और कविताओं पर उनकी सारगर्भित टिप्पणी सभी को प्रभावित करने वाली लगी। मैं नहीं भूला हूं कि टाउन हॉल में कार्यक्रम के बाद वे भोज का जितना रस ले रहे थे, उससे कहीं अधिक उनकों रस मित्रों से बातों करने में आ रहा था। वे इतनी आत्मीयता के साथ मधुर संवाद में खोए रहे कि किसी को यह अहसास नहीं होने दिया कि वे दिल्ली से आएं हैं और सफर के साथ दिन भर की थकवट हमारे इस मेहमान ने पूरे दिन भूलाए रखी। ऐसा लगा कि यह मेहमान मेजबान जैसा है।
मैं जितना सुधीर सक्सेना को याद करता हूं उतना भीतर डूबता जाता हूं। असंख्य यादों में सुधीर जी के साथ मेरी और मित्र हरीश बी. शर्मा की देशनोक-यात्रा भी शामिल है, तो उनका बीकानेर की हवेलियों को देखने का चाव भी अविस्मरणीय है। इसी प्रसंग में उनका एकांत क्षणों में साथ बैठने का आग्रह और मुझे ‘सूफी संत’ की उपमा से विभूषित करना। ऐसे अनेक प्रसंग हैं जो मेरे भीतर रोमांच भर देते हैं।
‘दुनिया इन दिनों’ में प्रकाशन का क्रम और हमारी चर्चाएं निर्बाध गति से चलती रही। इसी बीच इस बार उनकी तरफ से सूचना मिली कि वे जल्द ही बीकानेर आ रहे हैं। पता चला एक लोकार्पण-कार्यक्रम में वे और ज्योतिष जोशी आने वाले हैं। सुधीर जी अक्सर चर्चा में पूछते रहते हैं- और इन दिनों क्या चल रहा है? मैं इस सवाल को लेखन से जोड़ते हुए अपनी गतिविधियों के बारे में बताता हूं और वे अपने बारे में।
एक दिन जब मैंने उन्हें बताया कि मैं नंदकिशोर आचार्य की चयनित कविताओं की एक कविता पूरी कर चुका हूं, तब उन्होंने कहा कि वे बीकानेर आएंगे तब उस किताब को देखना चाहेंगे। उनकी इस चाहना में एक दूसरी किताब का हमारा स्वपन छिपा था। योजना बनी कि सुधीर सक्सेना की चयनित कविताओं की एक किताब राजस्थानी में आए। उनका सुझाव था कि अनुवाद के साथ मूल कविताओं का पाठ भी साथ में प्रकाशित होना चाहिए।
उनके उपलब्ध संग्रह में पढ़ता रहा और बिना कवि-आग्रह के मैं कविताएं चयनित करने लगा। मैं चाहता था कि उनकी सभी कविताएं और सारे संग्रह पढ़ सकूं। जो उपलब्ध नहीं थे, वे उन्होंने मेरे लगातार आग्रह पर पीडीएफ फाइल के रूप में उपलब्ध करवाए। अच्छा तो यह रहता कि वे खुद अपनी प्रतिनिधि कविताएं अनुवाद के लिए चयनित कर देते, पर उन्होंने ऐसा नहीं करते हुए मुझ पर विश्वास बनाए रखा और मुझे निरंतर प्रोत्साहित करते रहे। उनकी कविताओं का मैं ऐसा भिखारी बन गया कि जहां कहीं कोई सुराग मिलता, मैं पीछा करने लगता। कहीं ऐसा नहीं हो कि उनकी कोई कविता मेरी आंखों के आगे आने से रह जाए। कुछ भी छोड़ना मुझे गवारा नहीं था।
कविता-पाठ करते उनका एक चित्र इसी खोज-खबर के बीच हाथ लगा और मैंने पाया कि उनके हाथ के नीचे डायरी और किताब जैसा कुछ है। मैंने फोटो डाउनलोड कर उसे एनलार्ज कर उत्सुकतावश देखा तो समझ में आया कि संभवतः एक किताब अब भी मुझे दूर है। मैंने उसी दिन आग्रह किया और अपने पिछले आग्रहों के इतिहास को याद करते हुए नए संग्रह की सोफ्ट कॉपी भेजने का अनुनय किया। बाद में सुधीर जी ने इसे मेरी ‘बनिक-वृति’ की संज्ञा देते हुए, मुझे अपने उस उपहार से विभूषित किया था।
इस बीच साहित्य अकादेमी का राजस्थानी भाषा के लिए पुरस्कार मधु आचार्य ‘आशावादी’ के उपन्यास ‘गवाड़’ को मिलना और ‘दुनिया इन दिनों’ के लिए बेहद उत्साह और आत्मीयता से उपन्यास-अंश के अनुवाद का आग्रह मिलना, जैसी अनेक बातें हैं लिखने को। अंत में मैं अपनी डायरी-अंश अथवा कहूं कुछ पंक्तियां सुधीर सक्सेना के काव्य-संग्रहों पर नोट्स के रूप में प्रस्तुत करते हुए ‘जय हिंद’ कहना चाहता हूं।
कविता संग्रहों पर कुछ तरतीब और बेतरतीब बातें
कविता संग्रह ‘ईश्वर हां, नहीं.... तो’ का नाम ही बेजोड़-अद्वितीय है। मुझे ज्ञात नहीं कि हिंदी कविता के इतिहास में ऐसा नामकरण विन्यास किसी कवि ने अपने कविता संग्रह के में किया होगा। उस परमपिता और शक्ति को लेकर इन कविताओं में किसी संत कवि-सी दार्शनिकता है, तो साथ ही इतिहास के विराट रूप को दृष्टि में रखते हुए असमंजस, संशय, द्वंद्व और विरोधाभास जैसे अनेक घटक हमें अद्वितीय अनुभव और विस्तार देते हैं। इस संग्रह की लगभग सभी कविताएं कवि के दो तरफा आत्म-संवाद से जुड़ी हैं। यहां विशेष उल्लेखनीय यह है कि जो ईश्वर से अपरिमित दूरी है अथवा होना न होना जिस संशय-द्वंद्व में है, उसके अस्थित्व को कवि ने आशा और विश्वास से भाषा में अभिव्यंजित किया है।
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‘किरच-किरच यकीन’ सुधीर सक्सेना का नई कविता को समृद्ध करने वाला कविता-संकलन है। छोटी और मध्यम आकार की इन कविताओं में कम शब्दों में कवि ने अपने काव्य-कौशल एवं शिल्प के बल पर जैसे प्रभावशाली कविताओं को सहजता से रचने का हुनर पा लिया है।
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‘काल को भी नहीं पता’ संग्रह सुधीर सक्सेना के कवि की कीर्ति को अभिवृद्धि करते हुए अलगा पड़ाव है। यहां कवि की चिर परिचित भाषा और कहन को हम पहचान सकते हैं। इस संग्रह से हमें पुखता अहसास होता है कि यह कवि सामान्य नहीं वरन विशेष है, जो हिंदी कविता में प्रयोग और अपने अद्वितीय विचार-बल पर कविता की ऊंचाई पर ले जाने वाला कहा जाएगा। तूतनखामेन के लिए तीस कविताओं की रचना करना यानी खुद को एक समय से दूसरे समय में ले जाकर, वहीं लंबे समय तक ठहर जाना है। बिना ठहराव के यहां जो अनुभूतियां शब्दों के रूपांतरित होकर हमारे सामने है, वे कदापि संभव नहीं थी। ये कविता कोरा ऐतिहासिक ज्ञान अथवा विमर्श नहीं, वरन कवि के वर्तमान से अतीत को छूने की चाह में उस बिंदु तक पहुंच जाना है जहां कोई कवि काल को विजित करता है।
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संग्रह ‘रात जब चंद्रमा बजाता है बांसुरी’ में प्रेम में पगी मोहक कविताएं हैं। यहां कवि का सांसारिक और प्रकृतिक-प्रेम एक ऐसे विन्यास में समायोजित है कि कविताएं विराट को व्यंजित करती हुई, बेहद निजता को भी अनेकार्थों में जुड़ती हुई भीतर समाहित करती है।
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लंबी कविता ‘धूसर में बिलासपुर’ संभवतः किसी शहर पर अपने ढंग की अद्भुद विराट कविता है। यहां एक ऐसा बिलासपुर है जिस की छाया में हमें अपना अपना बिलासपुर दिखता है। बदलाव की आंधी में आधुनिक समय के साथ बदलते इतिहास और एक शहर का यह दस्तावेज एक आईना है।
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मेरे विचार से समग्र आधुनिक भारतीय कविता में कविता संग्रह ‘किताबें दीवार नहीं होतीं’ रेखांकित किए जाने योग्य है। इस संग्रह में कवि सुधीर सक्सेना ने अपने आत्मीय मित्रों और परिवारिक जनों पर जो कविताएं लिखी हैं, वे असल में अनकी आत्मानुभूतियां और हमारा जीवन हैं। इस कविता संग्रह को हिंदी कविता में कवि के व्यक्तिगत जीवन के विशेष काल-खंडों और आत्मीय क्षणों का काव्यात्मक-रूपांतरण कर सहेजने-संवारने का अनुपन उदाहण कहा जाएगा।
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लंबी कविता ‘बीसवीं सदी इक्कीसवीं सदी’ बेहद उत्सुकता के साथ समय में झांकने का रचनात्मक प्रयास है। यहां समय के बदलाव को देखने-समझने का विन्रम प्रयास निसंदेह रेखांकित किए जाने योग्य है। कवि का मानना है कि समय तो एक समय के बाद अपनी सीमा-रेखा को लांध कर, अंकों के बदलाव के साथ दूसरे में रूपांतरित हो जाता है। किंतु उस बदलाव के साथ बदलने वाले सभी घटकों का बदलाब क्या सच में होता है? या यह एक कृतिम और आभाषित स्थित है? इस भ्रम में खोये हम हैं। और कविता के अंत तक पहुंचते पहुंचते स्वयं प्रश्न-मुद्रा में समय के बदलाव को नियति की विडंबना मान कर चुप रहने की त्रासदी झेलने को विवश हो जाते हैं।
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‘समरकंद में बाबर’ अपनी सहजता, संप्रेषणीयता, सृजनात्मकता और विषयगत विविधता के कारण एक संग्रहणीय कविता-संग्रह है। इस संग्रह में उनकी लंबी कविता ‘बीसवीं सदी इक्कीसवीं सदी’ भी संकलित है। सुधीर सक्सेना की सभी कविता-संग्रह एक साथ देखते हैं तो कुछ कविताएं अभनिष्ठ है। संभवतः ये ऐसी कुछ कविताएं है जो उन्हें प्रिय रही हैं, अथवा उन्हें लगता है कि इनका पूरा मूल्यांकन नहीं हुआ है।
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‘कुछ भी नहीं अंतिम’ की विविध कविताओं और इससे पहले के संग्रहों में संकलित कविताओं में कुछ शब्दों के प्रयोग को लेकर मुझे लगता है कि सुधीर सक्सेना जैसे कवि हमारे भाषा-ज्ञान का विस्तार करते हैं। कुछ ऐसे शब्द हैं जो एक पाठक और रचनाकार के रूप में सुधीर सक्सेना को पढ़ते हुए मैंने सीखें हैं। कविता के प्रवाह और आवेग में कहीं कोई ऐसा शब्द अटक जाता है कि हम उस शब्द का पीछा करते हैं। हम शब्दकोश तक पहुंचते हैं और लोक में उसे तलाशते हैं। संग्रह की कविताओं के पाठ को फिर-फिर पढ़ने का उपक्रम असल में हमारा कविता में डूबना है। बहुत गहरे उतरना है। जहां हम पाते हैं कि एक ऐसा दृश्य है जो हमारी आंखों के सामने होते हुए भी अब तक हमसे अदृश्य रहा है। सुधीर सक्सेना की कविताएं हमें हमारे चिरपरिचित संसार में बहुत कम परिचित अथवा कहें समाहित अदृश्य संसार को दृश्य की सीमा में प्रस्तुत करती है। सच तो यह है कि ‘कुछ भी नहीं अंतिम’ संग्रह में गहन संभवनाएं हैं। यहां उनकी काव्य-यात्रा के परिभाषित-अपरिभाषित अनेक संकेत देखे जाने शेष हैं।
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सुधीर सक्सेना के मोह और प्रेम में मैं डूबा हुआ हूं, भविष्य में उनकी कविता-यात्रा पर विस्तार से लिखने की अभिलाषा है।
डॉ. नीरज दइया
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युग सहचर - सुधीर सक्सेना / संपादक : प्रद्युमन कुमार सिंह / लोकोदय प्रकाशन, 65/44, शंकरपुरी, छितवापुर रोड, लखनऊ- 226001 दूरभाष : 7897201523 / संस्करण : 2017 / मूल्य : 160/- /पृष्ठ : 160
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