संपादक आदरणीय डॉ. भैरूंलाल जी गर्ग का ‘बाल वाटिका’ के इस विशेषांक के लिए आलेख लिखने का आग्रह जान कर मैं बेहद खुश हुआ कि मुझे एक बड़ा काम दिया जा रहा है। मैंने गर्ग साहब के आग्रह को हमेशा की भांति एक आदेश की भांति ग्रहण किया। डॉ. गर्ग जी और बाल बाटिका का अवदान वंदनीय है। बाल साहित्यकार देवेंद्र कुमार जी की बाल-कहानियों पर लिखना कोई सहज काम नहीं है। मैंने निवेदन किया कि देवेंद्र कुमार जी कहानियों को पढ़ा तो है किंतु उनकी समग्र कहानियों अब पढ़ा जाना अनिर्वाय है। तब ज्ञात हुआ कि विशेषांक की योजना में प्रकाश मनु जी भी शामिल रहे हैं और वे मुझे देवेंद्र जी की चयनित कुछ कहानियां ई-मेल से भेजेंगे।
डॉ. भैरूंलाल गर्ग (1949) और प्रकाश मनु जी (1950) का अपने वरिष्ठ लेखक मित्र देवेंद्र कुमार जी (1940) के प्रति प्रेम, आत्मीयता और श्रद्धा भाव रेखांकित करने योग्य है। हमारे समय के तीनों वरिष्ठ लेखक उम्र के इस मुकाम पर भी बच्चों की कोमलता और निश्चलता को हृदय में बचाए-बनाए हुए इतने सक्रिय, सहयोगी और आत्मीय हैं कि हमें प्रेरित करते हैं। देवेंद्र जी लंबे समय से बाल कहानियां लिख रहे हैं, तो मेरा अथवा किसी का भी पहला सवाल यही होगा कि उन्होंने पहली बाल कहानी कब लिखी? इसका सही-सही उत्तर यदि उनसे ही प्राप्त हो जाए तो उत्तर में कोई संदेह नहीं रहेगा। देवेंद्र जी ने बताया कि उन्हें अब यह याद नहीं है कि उन्होंने बच्चों के लिए पहली कहानी कब लिखी थी। विगत स्मृतियों में लौटते हुए उन्होंने स्पष्ट किया कि वे पहले बड़ों के लिए लिखते थे। बच्चों के लिए उन्होंने छिटपुट कुछ कथाएं लिखी जरूर थी, पर बाल साहित्य में उनका नियमित लेखन वर्ष 1970 के आसपास हुआ। जब देवेंद्र जी की बाल कहानी ‘अध्यापक’ लोकप्रिय पत्रिका ‘पराग’ में छपी और उनको संपादक श्री आनंद प्रकाश जैन ने अपने पत्र में कहा- ‘तुम अच्छा लिख सकते हो और लिखो।’ तो उनके इस दिशा में जैसे पंख लग गए। इसी पत्र ने उन्हें बच्चों के लिए लिखने की अमिट प्रेरणा दी।
संयोग यह बना कि देवेंद्र जी ने वर्ष 1971 में लोकप्रिय बाल पत्रिका मासिक ‘नंदन’ में काम करना शुरू किया। नैतिकता का तकाज़ा स्वीकार करते हुए वे संपादक के रूप किसी अन्य बाल पत्रिका में छपने से बचते रहे अथवा कहें कि उन्होंने तब अन्यत्र नहीं छपने का निर्णय ले लिया और ‘नंदन’ के लिए ही लिखना उनकी नौकरी का एक जरूरी हिस्सा बन गया। नंदन में रहते हुए उन्होंने परियों की अनेक कहानियां लिखी। उनकी कहानियों के विषय पुराणों से जुड़े हुए होते थे। उन्हें एक सीमा में रहते हुए मांग के अनुरूप अनेक कहानियां लिखनी थी, जो उन्होंने लिखी। यह उनकी पत्रिका की मांग थी। उन्होंने तब के लेखक को अपने मौलिक लेखन में शामिल नहीं किया है। यह उल्लेखनीय है कि उन्होंने नौकरी के सिलसिले में लिखी उन सारी कहानियों अपनी नहीं मानते हुए कहीं संकलित रूप में प्रकाशित नहीं करवाया है। वे कहानियां उनके किसी बाल-कथा संकलन का हिस्सा नहीं बनी। देवेंद्र जी ने बताया कि नौकरी में रहते हुए उन्होंने बाल उपन्यासों पर अपना ध्यान केंद्रित किया और उनके सभी बाल उपन्यास उन्हीं दिनों प्रकाशित हुए हैं। देवेंद्र जी से मेरे संवाद का पूरा श्रेय पत्रिका के संपादक गर्ग साहब को देना चाहता हूं कि अगर वे मुझे यहां शामिल नहीं करते तो मैं अनेक बातें जान ही नहीं पाता।
अब देवेंद्र जी केवल बाल साहित्य के क्षेत्र में सक्रिय हैं और खुशी की बात है कि वे बच्चों के लिए मौलिक लेखन निरंतर कर रहे हैं। उनकी कहानियों के पात्र उनके अपने परिवेश से आती हैं, हमारे समाज में एक वर्ग समाज से उपेक्षितों और वंचितों का भी है, उसी वर्ग से अनेक कथानक उनकी कहानियों में आते रहे हैं। उन्होंने बताया कि ‘नंदन’ पत्रिका में उनका कार्यकाल लगभग 27 वर्षों का रहा। उनको अपने कार्यकाल में यह बात सदा परेशान करती रही कि वे परी कथाओं के राजसी परिवेश में नेपथ्य में रहने वाले साधारण पात्रों पर केंद्रित कहानियां कब और कैसे लिखेंगे...। खैर बाद के वर्षों में उनको अपने मन के अनुकूल रचने का अवसर मिला और उन्होंने विपुल लेखन किया है।
आदरणीय प्रकाश मनु जी द्वारा आरंभ में देवेंद्र जी की चुनिंदा 20 कहानियां पढ़ने का सौभाग्य मिला। इसका पूरा श्रेय ‘बालवाटिका’ के संपादक गर्ग साहब को जाता है कि उन्होंने विशेषांक के लिए लिखने का कहा और मैंने कुछ और रचनाएं पढ़ने की इच्छा जाहिर की तो 18 अन्य कहानियां प्राप्त हुई। किसी बाल कहानीकार को समझने के लिए इतनी रचनाएं पर्याप्त हैं। देवेंद्र कुमार जी की ‘31 बाल कहानियां’ और ‘इक्यावन बाल कहानियां’ जैसी बड़ी अनेक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। उन्होंने ‘विश्व प्रसिद्ध बाल जासूसी कहानियां’ आदि लोकप्रिय कृतियां बाल साहित्य को दी हैं। देवेंद्र जी द्वार रचित समग्र बाल कहानियों का संचयन पढ़ने की मैं अभिलाषा रखता हूं।
प्रत्येक बाल कहानी का एक उद्देश्य होता है कि वह बालकों को अपनी बात कहे। कुछ कहना अथवा समझाना सीधे सीधे बाल कहनियों में अभिव्यक्त हो तो ऐसा उनका कमजोर पक्ष कहा जाता है। माना कि कोई भी लेखक बिना किसी उद्देश्य के कोई बाल कहानी की रचना नहीं करता है किंतु कुछ कहना और उपदेश की शैली में नहीं कहना है यह भी रचनाकार को देखना होता है। समझने समझाने की बात करेंगे तो बहुत कुछ तो समझा दिया गया है पहले से ही तो क्या उसी के इर्द-गिर्द फिर से नए बाल साहित्य में काम होता रहेगा। मूल्यों की बात हो या फिर अच्छे जीवन और बोध की यदि नवीन परिस्थितियों और पर्यावरण में उसे नए ढंग से कहा जाएगा तभी लिखना सार्थक होगा। संभवतः यही कारण है कि देवेंद्र कुमार जी की कहानियां का मुख्य विषय समकालीन समय-समाज में युगबोध रहा है। इन कहानियों में एक तरफ जहां जीवन की अनेक समस्याओं को चित्रित अभिव्यक्त किया गया है वहीं दूसरी तरफ बस कुछ स्थितियों के चित्र उकेर कर उनको जस का तस प्रस्तुत भर कर दिया गया है। कहीं कोई आदेश, उपदेश या आग्रह नहीं है। बाल पाठक स्वयं अपने विवेक से इनसे उन्हें जो कुछ ग्रहण करना है वे ग्रहण करेंगे। देवेंद्र कुमार हमारे समय के ऐसे लेखक हैं जो वर्तमान समय की ज्वलंत समस्याओं को अपनी रचनाओं के केंद्र में रखते हैं।
साफ-सफाई और स्वच्छता की बात करें तो कहानी ‘पूरी बाबा’ में हम देखते हैं कि इसी उद्देश्य को बहुत सुंदर और सार्थक ढंग से न केवल रेखांकित किया गया है, वरन कहानी में एक युक्ति प्रयुक्त कर बच्चों को इस दिशा में क्रियाशील भी किया गया है। यदि बच्चे स्वयं साफ-सफाई और स्वच्छता के महत्त्व को जान जाएंगे तो वे भरपूर सहयोग करेंगे। यह भी सत्य है कि कुछ बच्चों को इस दिशा में संलग्न देख अन्य भी उनके कार्यों से प्रेरणा पाते हैं।
कहानी में बहुत सहजता और सरलता से कुछ घटनाओं को वर्णित किया गया है। रविवार के दिन मोहल्ला समिति द्वारा लंगर का आयोजन होना और लंगर या मुफ्त भोजन का सुबह दस बजे से बारह बजे तक चलना कहानी का मुख्य विषय है। उसके बाद होता यह है कि वहां दूर-दूर तक जूठन तथा गंदी प्लेटें बिखरी हुई है पर साफ-सफाई नहीं है। सफाई करने वाला शाम को आता है, तब तक बिखरी जूठन और गंदी प्लेटों के ढेर पर कुत्ते मुंह मारते हैं और साथ ही कई बच्चे उनमें से अपने खाने का सामान जुटाने लगते हैं। अधखाई पूरियां में अपना खाना तलाशते बच्चों को कहानी के केंद्र में लाकर कहानीकार ने कथानायक रामदास बाबू के माध्यम से एक बुरे रविवार को अच्छा बनाने का सुंदर प्रयास किया है। कचरा और गंदगी बुरी बात है लेकिन उसे ठीक कैसे करें? स्वच्छता जरूरी है किंतु वह आएगी कैसे? क्या सफाईकर्मी का इंतजार किया जाए या स्वयं ही इस कार्य में हमें लग जाना चाहिए? क्या हलवाई धनराज से शिकायत की जाए कि भैया यह सब तुम्हारे कारण हो रहा है? या फिर जूठन से भोजन ढूंढ़ते बच्चों को डांटकर भगाया जाए? यह स्थित कैसे बदल सकती है? कहानीकार ने रामदास बाबू के माध्यम से उन्हीं कमजोर और पिछड़े बच्चों को सफाई पर लगा दिया है। उन बच्चों को बदले में भोजन देना कहानी में एक अनुकरणीय उदाहरण के रूप में प्रस्तुत हुआ है। इसी से रामदास का नाम पूरी बाबा हो गया। कहानी का एक अंश देखें-
“रामदास बाबू ने कहा, “बच्चो, जरा देखो तो सब तरफ कितनी गंदगी फैली है। पहले हम सफाई करेंगे, फिर पूरी हलवा खाएँगे।”
रामदास बाबू ने धनराज से दो बड़े काले बैग ले लिए और फिर जूठी प्लेटें उनमें डालने लगे। इस काम में बच्चों ने भी हाथ बंटाया। थोड़ी ही दूर में दूर-दूर तक फैली गंदी प्लेटें और जूठन उन थैलों में समा गई। अब वहाँ गंदगी नहीं थी।”
कहानी का अंत इन पंक्तियों के साथ होता है- “रामदास बाबू कुछ और भी सोच रहे थे, जैसे क्या इन बच्चों के लिए पढ़ाई का प्रबंध किया जा सकता है? उनके दिमाग में कई योजनाएँ घूम रही थीं। हर योजना के बीच में बच्चे थे, जिन्हें वे कभी जूठन में पूरी नहीं ढूँढने देंगे।”
बच्चे ही आने वाले कल का भविष्य है और यदि वे साफ-सफाई के लिए जागरूक हो जाएं तो अनेक समस्याओं का समाधान हो जाएगा। सफाई की ही बात को देवेंद्र जी एक अन्य काहनी ‘प्याऊ में क्या’ में भी देख सकते हैं। इस कहानी में भी बच्चों ने मिलकर सफाई की, इसी प्रकार कहानी ‘पिकनिक’ में भी सफाई के महत्त्व को बिना किसी उपदेश के स्वयं कार्य कर प्रेरणा दी गई है।
‘मेरा बस्ता’ कहानी में भी लेखक हमारा ध्यान कचरा बीनने वाले गरीब और पिछड़े बच्चों की तरफ इंगित करता है कि इनका कल्याण कैसे किया जाए? कहानी में ऐसे बच्चों के स्कूल और शिक्षा के प्रयासों को प्रस्तुत किया गया है। स्वयंसेवी संस्थाओं के कार्यों से हम प्रेरित हो कर कुछ कर सकते हैं। ऐसी कहानियों से ऐसे बच्चों के प्रति संवेदनशीलता, सद्भावना और सहानुभूति विकसित होती है। ‘खाली गिलास’ कहानी में एक बालश्रमिक को शोषण के चुंगल से छुटकारा दिलाने की अभिव्यक्ति मिली है। कहानी ‘स्कूल चलो’ में साक्षरता की बात को प्रमुखता से उठाया गया है। बड़ों को भी पढ़ने की आवश्यकता है और बालक भरतू को गुरुजी बनाकर सिक्शेवाले का पढ़ने के लिए प्रेरित होना, असल में बालकों को पढ़ने-पढ़ाने की प्रेरणा से भर देने वाली कहानी है।
बालमन कोमल और भोला होता है। किंतु मुझे लगता है कि बच्चों के साहित्य में आयु के वर्गों के मुताबिक कुछ भेद होना चाहिए। ऐसा किया भी गया है- किशोर साहित्य को अलग से रेखांकित किया जाने लगा है। कहानी ‘बच्चे फूल हैं’ में बच्चों और फूलों का साम्य प्रस्तुत करते हुए, फूलों को आपस में बतियाते दिखया गया है। फूल हवा से बातें करते हैं और बच्चों से भी। गंदगी के ढेर में फूलों की बातें और उनके सपने निसंदेह बच्चों को प्रभावित करने वाले हैं। इस काहनी को भी एक प्रकार से हम स्वच्छता और पर्यावरण के प्रति जागरूकता की श्रेणी में रख सकते हैं। कहानीकार देवेंद्र जी की कहानियों के केंद्र में बेसहारा, कमजोर और बाल श्रम करने वाले अनेक बच्चे और उनके परिवार बार बार आते हैं। कहानी ‘बंद दरवाजा’ ऐसे बच्चों को सहयोग करने की दास्तान सुंदर ढंग से कहती है जो बच्चे बेसहारा हैं।
बाल साहित्य लेखन में हमे यह देखना होता है कि एक लेखक अपने पर्यावरण, परिस्थितियों और समय की समस्याओं को किस तरह देखता, दिखता और अभिव्यक्त करता है। बाल साहित्यकार अपने मन-मस्तिष्क में एक नई दुनिया की कल्पना करता है, वह बच्चों को एक बेहतर दुनिया सौंपना चाहता है जहां वे जिम्मेदार नागरिक के रूप में अपना दायित्वबोध जान सके। वह आने वाली पीढ़ी को संस्कार, शिक्षा और अंतर्दृष्टि देना चाहता है कि वह दुनिया में अपना बेहतर योगदान दे सके। इसके लिए जरूरी है कि बाल कहानियों में प्रस्तुत बच्चों का दूसरे बच्चों के साथ व्यवहार संवेदनशील हो। बच्चे अपनों से कमजोर और छोटों के प्रति भाईचार विकसित करें, समाज के पिछड़ा वर्ग को भी वे महत्वपूर्ण मानकर उसके प्रति भी अच्छा नजरिया विकसित करें।
यह युग नया है और इसमें नई तकनीक उनकी समझ और निर्णय में सहायक बन सकती है, यह बात भी उन्हें समझानी है। बाल साहित्य में बच्चों की दुनिया के यथार्थ ही उन्हें दुनिया से तादात्म्य स्थापित करने में सहयोगी हो सकते हैं। लेखक ने प्रायः सभी कहानियों में एक सामान्य जीवन का आरंभ करते हुए उसे घटनाक्रम से ऐसे आगे बढ़ाने का प्रयास किया है कि बालक स्वयं ऐसी घटनाओं, परिस्थिति में किए गए पात्रों के कार्यों से प्रेरणा पा सके। कहानियां अनेक है और प्रत्येक कहानी पर विस्तार से बात की जा सकती है किंतु हम यहां उनकी कुछ चयनित और श्रेष्ठ कहानियों पर बात करें तो सहज ही एक कहानी ‘सुख-दुख’ का स्मरण होता है। यह कहानी मार्मिकता के साथ जीवन में सुख और दुख के गतिशील होने की स्थितियां प्रस्तुत करती हैं। कहानी में बर्तनों के संवादों के माध्यम से कौतूहल है और शिक्षा भी। चम्मच और थाली का संवाद जहां रोचक और रोमांचक है, वही बच्चों के लिए यादगार भी है। कहानी की कोई स्थिति कोई संवाद या कोई बात बाल मन में अटकी रह जाए और उनसे वे संवेदनशील बने यही तो हम सब चाहते हैं।
‘जरा ठहरो तो दुष्टों!’ भी एक अद्वितीय बाल कहानी है, जिसमें पर्यावरण और मनुष्य के संबंध को परिभाषित किया गया। मनुष्य को चाहिए कि वह अपने आसपास के पर्यावरण को देखे, समझे और संभाले... किंतु वास्तविकता इसके विपरीत है। वह पर्यावरण को नष्ट करने में तुला है। एक पेड़ और मनुष्य की छोटी-सी झड़प को कहानी का मूल आधार बनाया गया है। कहानी हमें एक ऐसी काल्पनिक दुनिया में ले जाती है जहां पेड़ अपने ढंग से पक्षियों के माध्यम से अपमान का बदला लेता है। पेड़ों में भी जान होती है और उनका हमें ध्यान रखाना चाहिए, मनुष्य और प्रकृति के समन्यव से ही यह सुंदर संसार आगे बढ़ सकता है और हमें एक दूसरे का ध्यान रखना चाहिए। एक कहानी एक सुंदर उदाहरण कि किस प्रकार शुद्ध मनोरंजन के साथ कहानी अपने उद्देश्य को बहुत कम शब्दों में पूरा करती है। बड़ी बात बालकों तक सहज संप्रेषित करना इस कहानी की कलात्मकता है।
‘भूले-बिसरे’ कहानी की बात करें तो उसमें यश और उसके फॅमिली डाक्टर हरीश रायजादा के बीच संवादों के माध्यम से बालकों को अपनी जड़ों से जुड़े रहने की प्रेरणा दी गई है। कहानी में दीवार पर फूलों के दो सुंदर फ्रेम मंडित चित्र दिखाते हुए संवाद का रोचक क्रम आगे बढ़ता है- “अंकल, ये फूल कौन से हैं?” कहानी में डॉ. हरीश का हँसते हुए कहना- “यश, सच कहूं तो मैं इन फूलों के बारे में कुछ नहीं जानता।” यह उक्ति बालकों और हमें जहां फूलों के बारे में जानने को प्रेरित करने वाली है, वहीं बदलते जीवन और समाज में प्रकृति से हो रहे अलगाव पर करारा व्यंग्य है। कहानी में गांव के अभावों के बीच एक डॉक्टर की सेवा का महत्त्व प्रस्तुत कर जैसे बालकों से अपनी जड़ों से जुड़े रहने का आह्वान किया गया है।
पहले एक समय था जब संयुक्त परिवार थे और बालकों तक संस्कार शिक्षा पहुंचाने के अनेक तरीके थे अब जब जीवन की दौड़भाग और एकल परिवार में पीढ़ियों में अलगाव देख रहे हैं वहीं व्यक्ति और समाज स्वकेंद्रित होता जा रहा है। विश्व बंधुत्व की बात करने को हम करते हैं और करते रहेंगे किंतु अपने स्वयं के माता पिता के प्रति दायित्व को भी सर्वप्रथम हमें स्वीकार करना होगा। ‘मरना नहीं’ कहानी में नए समय में जो बच्चे अपने मां-बाप को अकेले छोड़ कर देश-विदेश में कमाने के लिए चल पड़ते, फिर लौटते नहीं विषय को कहानी का कथानक बनाया गया है। कहानी के कथानायक रामदयाल इस बड़ी दुनिया में अकेले रह गए, क्योंकि पत्नी की मृत्यु हो गई और बेटा कमाने के लिए बाहर गया हुआ है। वे अकेले हैं और मां के निधन के समाचार जानकर भी वह बेटा जो बंबई में अपने काम-काज में खो गया, घर नहीं आया। उसका संदेश आया- “बहुत उलझा हुआ हूँ, फुरसत होने पर आऊंगा।” यह बच्चों का विषय नहीं है पर बच्चों को समय रहते इसे जान लेना चाहिए कि अब घर में अकेला बूढ़ा बाप क्या करे? पत्नी और बच्चे के गम में अपनी जान दे दे या कुछ करे और अपने अनमोल जीवन का एक लक्ष्य निर्धारित करे। यह कहानी रामदयाल जी के माध्यम से उन बच्चों को बहुत कुछ कहने में सक्षम है जो असफलता पर आत्महत्या की सोचते हैं। कहानी में लेखक यह कहने में सफल रहा है कि जीवन अनमोल है और मनुष्य को किसी भी परिस्थित में हारना नहीं है, जीवन से भागना और आत्महत्या कोई विकल्प नहीं है।
कहा गया है कि जीवन चलने का नाम, चलते रहो सुबह-शाम। हर दिन नई सौगात लेकर हमारे सामने आता है। ‘मिठाई’ कहानी में देवेंद्र कुमार जी ने जीवन के अप्रत्याशित घटनाक्रम को केंद्र में रखते हुए हमारे दायित्वबोध को अच्छे ढंग से ना केवल परिभाषित किया है उसे सहज स्पष्ट भी किया है। इस कहानी में कथानायक अमित को आगरा दफ्तर के काम से एक दिन के लिए जाना होता है और उसके पिता जी एक छोटे कागज में अपने मित्र का पता लिख कर थमा देते हैं कि उससे मिल कर आना। एक दिन के इस कार्यक्रम में अमित अपना काम पूरा कर, दिए गए पते पर मिठाई का डिब्बा लेकर पहुंचता है तो पता चलता है कि उसके पिताजी के मित्र शंभूजी की मृत्यु हो गई है, उनके घर ममत छाया है। ऐसे में अमित मिठाई के डिब्बे को दरवाज़े के बाहर रखी एक छोटी सी अलमारी पर छोड़ देता है। जब वह लौटता है तो पाता है कि मिठाई का डिब्बा गायब है। इसी कहानी में एक अन्य कहानी मिठाई के डिब्बे की चोरी की आरंभ होती है, जिसमें कहानीकार ने वंचितों के प्रति सद्भावना का सुंदर संदेश दिया है। इसी प्रकार एक अन्य कहानी ‘मिठास’ की चर्चा करना बेहद जरूरी है। मिठास कहनी में सोमू के कपट और उसकी छल-योजना को प्रेम से परिवर्तित होते दिखया गया है। किसी के हृदय को कोई नहीं पढ़ सकता है, किंतु सच्चे प्रेम और निश्चल व्यवहार में यदि अपनापन है तो वह अपने परिणाम अवश्य दिखाएगा। प्रेम से सब कुछ परिवर्तित किया जा सकता है। बुरे को अच्छा और भला प्रेम ही बनाता है। नेकी कर और दरिया में डाल। हमें हमारे दैनिक जीवन और कार्यों में अपना उद्देश्य लेकर चलाना चाहिए।
परेश के पैर फिसलने से ‘मेरा गुलाब’ कहानी में एक गमला टूट जाता है. उसमें लगा पौधा एक ओर झुक जाता है। पौधों में भी जान होती है। हमें उनसे प्रेम करना चाहिए, इसे केंद्र में रखते हुए लेखक ने यहां भी एक ऐसा घटनाक्रम बुना है कि पाठक कहानी को पढ़ता चला जाता है। कहानी के अंत में वह पौधा तो ठीक हो जाता है और कथानायक परेश की दोस्ती गमले बेचने वाले बलराम से हो जाती है। बलराम ने अपनी झोंपड़ी के पीछे एक छोटी सी नर्सरी बना रखी है। प्रकृति हमें बहुत कुछ देती है और उसे सहेजना संभालना दायित्व हमारा है। इसी दायित्व-बोध को एक अन्य कहनी ‘सर्दी की चादर’ भी स्पष्ट करती है। बच्चों का फूलों से प्यार और दोस्ती को देवेंद्र जी ने अपनी अनेक कहानियों में भिन्न-भिन्न रूपों में नए नए तरीके से देखने-दिखाने का प्रयास किया है।
भारतीय समाज में लड़के और लड़की में भेदभाव नया नहीं है। ‘मैं भैया जैसी’ कहानी में भाई-बहन के माध्यम से होते भेदभाव को एक विमर्श के रूप में प्रस्तुत किया गया है। बच्चों के सोचने-समझने का अपना एक ढंग होता है और उनके बालमन को खोलने वाली कहानियों में बाल मनोविज्ञान के अनेक आयाम समाहित होते हैं। ‘रोटी ने कहा’ कहानी में भोलू के आंसुओं में उसका दर्द बोलता है और रोटी ने उसका दर्द समझ लिया। उसके दर्द के लिए रोटी का बोलना केवल भोलू ही नहीं, उसके जैसे अनेक बच्चों के लिए जो ढाबों पर काम करते हैं दुख-दर्द की दास्तान कहना है। बालश्रमिकों की व्यथा-कथा को सीधे सरल शब्दों में कहानी बिना किसी उपदेश के मुखर हुए सहजता से कहती है।
कहानी ‘वह मेरा दोस्त’ के माध्यम से बच्चों में अमीरी और गरीबी के आधार पर भेदभाव नहीं करने की शिक्षा दी गई है। कहानी में जरूरतमंदों की मदद करने में ही मानव धर्म है को एक सिद्धांत के रूप में प्रतिस्थापित किया गया है। कहानी कहती है कि प्रेम का धर्म ही सबसे बड़ा है और इसी से इस संसार में हमारे दोस्त बनते हैं। बालकों में शिक्षा और सुसंस्कारों के विकास के लिए उनके व्यवहार और कार्यों को कहानियों में प्रस्तुत किया गया है। जैसे एक कहानी ‘शुभ विवाह’ की बात करें जिसमें गुड्डे-गुडिया के खेल-खेल में विवाह का प्रसंग है, किंतु कहानी में इससे भी महत्त्वपूर्ण बच्चों का सफाईकर्मी के प्रति सद्भावना को प्रदर्शित करना है। देवेंद्र कुमार की कहानी कला की सार्थकता इस में है कि वे अपनी लगभग सभी कहानियों में मार्मिक प्रसंगों से उसे ना केवल पठनीय बनाते है वरन अनुकूल और योग्य व्यवहार की शिक्षा-संस्कार भी देते हैं।
कहानी ‘वह लड़का’ में एक बाल मजदूर लड़के को दिखाया गया है, जिसके अपने कुछ सपने हैं। वह अपने खोए हुए पिता को ढूंढ़ना चाहता है। ऐसे लावारिश बच्चों पर कोई विश्वास नहीं करता है। कहानी का कथानक विश्वास और अविश्वास के बीच गति करता है। कथानायक विश्वास करके उसके दर्द को बाहर आने का रास्ता देता है। बच्चे पर भरोसा कर उसे साइकिल दिलाना और उससे यह उम्मीद करना कि वह लौट आएगा बुरा नहीं है। ऐसा होना चाहिए। वह बालक अपने पिता को ढूंढ़ने का प्रयास करेगा। दुनिया में सभी प्रकार के लोग है। कुछ अच्छे तो कुछ बुरे भी हैं। अच्छे और बुरे लोग समय के अनुसार बदलते भी हैं। कहानी ‘सिक्का और सांप’ में बुरे चरित्र में प्रस्तुत कुख्यात सिक्का का बदला हुआ रूप कहानी के विकास के साथ प्रस्तुत हुआ है। वह सांप काटे हुए व्यक्ति की समय पर मदद कर साधु के सामने अपने परिवर्तित चरित्र को प्रस्तुत करता है।
कहानियां बहुत और किस की चर्चा की जाए किसे छोड़ा जाए। ‘बप्पा बाहर गए हैं’ कहानी में गरीब बालक के साथ हुई त्रासदी का वर्णन है। पिता के देहांत के बाद वह क्या करेगा? उसका भविष्य कैसा होगा? उसकी मां और परिवार की दशा को कहानी में मार्मिक ढंग से चित्रित किया गया है। ऐसे चरित्रों की कहानियों से दया और सहानुभूति के बीच बच्चों में ऐसे परिवारों-बच्चों के प्रति संवेदनाएं जाग्रत होती है। संवेदनाएं केवल मनुष्यों के लिए ही नहीं पशु-पक्षियों और वनस्पतियों के लिए भी अनेक कहानियों में मिलती हैं। ‘आओ नाश्ता करें’ कहानी में पक्षियों के भोजन के लिए बाबा और अमित की संवेदना का गणित बच्चों के समझ में आ जाए तो वे प्रकृति के साथ अच्छा व्यवहार करना सीख सकेंगे। कहानी ‘पंख बोलते हैं’ पुराने विषय पर नए ढंग से लिखी एक प्रभावशाली कहानी है। पक्षियों की आजादी का प्रसंग और उन्हें कैद नहीं कर खुले आकाश में उड़ने छोड़ देने की प्रेरणा कहानी के केंद्र में है।
कहानी ‘नया घर’ में ऐसे बच्चों के जीवन को दिखाया गया है जो अभावों और दुखों के बीच सुख और खुशी के गणित को समझ लेते हैं। एक दुखी दूसरे अपने ही जैसे से मिल जाए तो वे मिलकर एक दूसरे के दुखों को बांट सकते हैं। संबंधों को मधुर बनाने से जीवन महक उठता है। अम्मा और मुनिया को दो लड़के- जीवन और रघु से मिलने से परिवार का सुखद अहसास होता है जो इस प्रकार कहानी में वर्णित हुआ है कि भुलाए नहीं भूलता। किताब पढ़ने की आदत सभी के लिए विकसित करना हमारा एक उद्देश्य होना चाहिए। कहानी ‘पीपल वाला चबूतरा’ में अजय के पापा रमेश का ट्रांसफर नई जगह हुआ तो रमेश के पिता रामचंद्र ने अपने लिए जनसेवा का अवसर खोज लिया। उन्होंने किताबों के वाचनालय के रूप में पीपल वाले चबूतरे को चुन लिया।
यथार्थवादी कहानियों के बीच कुछ कहानियां राजा-महाराजाओं और परियों की भी देवेंद्र कुमार जी ने रची है। जैसे- ‘पानी नहीं चाहिए’ में परी के चमत्कार को दिखाकर फिर से उसी हालत में लौटना रोमांचकारी है। तो ‘पुल बना है’ कहानी में राजा दीपेंद्रनाथ के दरबार में चलती राजनीति के कारण उनके प्रिय वीरराज का उनसे अलगाव होना देख कर, वहीं कुछ समझदारों के कारण पुनः उनके मिलन को देखना एक समझदारी की शिक्षा है। रियासतों और राजाओं की कहानियों के क्रम में ही ‘मैं बदल गया’ कहानी में यशवंत सिंह की बहादुरी पर पड़ोसी राजगढ़ नरेश दलबीर सिंह की इर्ष्या प्रदर्शित हुई है। दलवीर सिंह चाहता था कि यशवंत सिंह भी दूसरे राजाओं की तरह उसके दरबार में हाजिर होकर उसे झुककर सलाम करे। इस प्रकार की कहानियां भी जरूरी है किंतु देवेंद्र कुमार जी की असल मेधा यर्थाथवादी मनोवैज्ञानिक कहानियों में बेहतर ढंग से उजागर होती है।
देवेंद्र कुमार जी के लंबे अनुभव और कार्य से अनेक कहानियों में परंपरागत बातों को भी दिखाया गया है जो इस नए युग में विकल्प के रूप में याद रखी जानी चाहिए। माना कि रोशनी के लिए अब अनेक विकल्प मौजूद है किंतु जब किसी गांव की बात हो और वहां रोशनी चली जाए तो क्या किया जाए? कहानी ‘रोशनी का चौराहा’ में बिजली जाने से बच्चों की पढ़ाई में बाधा नहीं आए इसलिए दादी का पुराना तरीका आटे का दीपक बनाकर रोशनी करना प्रस्तुत हुआ है वहीं ‘जुगनी का बीरन’ एक देशभक्ति से जुड़ी कहानी है जिसमें मां जुगनी के अविस्मरणीय चरित्र को रेखांकित किया गया है। वह शेरा को बड़ा कर के उसे ही बीरन कहकर पुकारती है, उसने अपने असली बेटे बीरन को सेना से भागने और डाका डालने के अपराधों के सिलसिले में जेल भिजवा दिया है।
बाल साहित्य की अनेक रचनाओं में हम बचकाने और सरल सीधे उपदेशात्मक ढंग से घटित होता देखते हैं। देवेंद्र कुमार जी की यह खूबी है कि वे इन सब से बचाते हुए कहानियों में व्यस्कों की भांति असाधारण तरीके से जीवन की गतिशीलता को प्रस्तुत करते हैं। यही वह घटक है जो उन्हें विशिष्ट पहचान और सम्मान दिलाने वाला रहा है। वे अपने पाठकों में लोकप्रिय रहे हैं इसका बड़ा कारण उनकी कहानियों की नई शैली और कथानक विकसित करने कला है। इसको मैं ठीक ठीक परिभाषित करना चाहूं तो कहना होगा कि जिस प्रकार हिंदी कहानी में निर्मल वर्मा अपने अलग कथानक और वातावरण-शैली के कारण पहचान रखते हैं वैसे ही देवेंद्र जी की कहानियां अन्य कहानीकारों से अलाहदा है। बाल कहानियों में शैलीगत नवीनता और प्रयोगशील भाषा का सबल घटक उन्हें विशिष्ट और वरेण्य बनाता है।
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