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‘बाबा थारी बकरियां बिदाम खावै रे...’ / डॉ. नीरज दइया

     मेरे गुरुदेव आदरणीय मोहम्मद सदीक (1937-1998) इस संसार में 61 वर्ष रहे और आयु के इस आंकड़े में अंकों का स्थान परिवर्तन कर दूं तो कह सकता हूं कि करीब 16 वर्षों तक मुझे उनका स्नेह-सानिध्य मिला। इसका पहला और अंतिम कारण यह कि वे मेरे पिता सांवर दइया (1948-1992) के अभिन्न मित्र रहे। दोनों ही इस संसार से असमय चले गए। दोनों की जीवन-यात्रा में अनेक बिंदु समान है। जैसे- दोनों शिक्षा विभाग राजस्थान में सेवारत रहे थे और वे अपने समय में साहित्य के सुपरिचित हस्ताक्षर रहे। दोनों हिंदी और राजस्थानी में समान रूप से लिखते-छपते थे। राजस्थानी भाषा सहित्य एवं संस्कृति अकादमी के पद्य-गद्य पुरस्कार सदीक साहब को कविता संग्रह ‘जूझती जूण’ (1979) और मेरे पिता सांवर दइया को कहानी संग्रह ‘धरती कद तांई धूमैला’ (1980) एक ही वर्ष 1983 में अर्पित हुए। यह दौर मेरे जीवन में बहुत बड़े बदलाव का रहा है। मैं उन वर्षों साहित्य के अधिक करीब आने लगा था, छुटपुट कविताएं लिखना और छपने साथ गंभीरता से साहित्य अध्ययन का सिलसिला आरंभ हो गया था। यही वह समय रहा जब हमारा परिवार नोखा से बीकानेर आ गया और मैंने वर्ष 1982 में बीकानेर के राजकीय सादुल उच्च माध्यमिक विद्यालय की नाइंथ क्लास में प्रवेश लिया। मेरे इसी विद्यालय में मोहम्मद सदीक उपप्राचार्य पद पर थे।
    आज जब मैं सादुल स्कूल के दिनों को याद करता हूं तो मुझे आदरणीय सदीक जी के साथ ही सर्वश्री जगदीश प्र्साद ‘उज्जवल’, ए.वी. कमल, मूलदान देवापवत, खुशालचंद व्यास और अजीज आदाज सरीखे गुरुजनों का स्मरण होता है। वह भी क्या समय था जब शिष्यों के मन में गुरुओं के प्रति भरपूर सम्मान होता था, उनका डर और खौफ भी रहता था। उस बिगड़ने वाले दौर में ऐसा नहीं कि मैं अछूता रह गया हूं, मैंने भी कभी-कभार चोरी-छिपे क्लास बंक कर विश्वज्योति सिनेमा हॉल में कई पुरानी फिल्मों का आनंद लिया। कोटगेट के पास लगे फिल्मी पोस्टर देखे, तो वहीं लेखकों-कवियों की मंडली देखी जिसमें भादानी जी भी शामिल रहते थे। वहां चाय की दुकान पर बुद्धिजीवियों का एक जमावड़ा देखा जा सकता था। पास ही गुणप्रकाश सज्जनालय में अपने गुरुजनों को अखबारों को बांचते देखा। ये कुछ दृश्यों के कोलाज हैं। उन दिनों फोटो और मोबाइल की दुनिया बहुत दूर थी। अधिकतर ब्लैक एंड वाइट होते थे। याद पड़ता है कि दसवीं और ग्यारहवीं के बोर्ड फार्म पर जो चिपकाने के लिए फोटो होता है वही उन दिनों का प्रमाण है। स्कूल का कोई ग्रुप फोटो भी नहीं है। बस इतना कहा जा सकता है कि वे सुनहरे दिन थे। उन दिनों की कुछ बातें अब इतनी बेतरतीब है कि स्मृति में सदीक साहब का लूना से स्कूल आना-जाना और हमारे स्कूल के उस कमरे का भूगोल कहीं अटका है।
    एक बार मैं किसी कागज या फार्म पर सदीक साहब से हस्ताक्षर करवाने उनके कमरे की तरफ गया था तो अंदर जाने की हिम्मत नहीं हुई। मैं उनके कमरे में जाने से डर रहा था। बाहर काफी देर से खड़ा था। जब उन्होंने मुझे देखा तो बोले- ‘बारै क्यों खड़ो है?’ मैं फिर भी चुप रहा तो वे बोले- ‘मांयनै आव।’ मैंने भीतर जाकर उनके हस्ताक्षर लिए और उनकी स्नेहिल दृष्टि और व्यवहार से अभिभूत हो गया।

    गुरुवर सदीक साहब और मेरे के संबंधों का यह बाल्यकाल था। स्कूल से कॉलेज और फिर टी.टी. कॉलेज के पांच-छह वर्षों के सफर में सदीक साहब कवि के रूप में मेरे भीतर स्थान बनाते गए। एक दो बार उनको रेडियो पर सुनने का अवसर भी मिला। उनके घर ‘कवि कुटिर’ के पास ही मेरे ताऊजी के बड़े बेटे भंवरसा का घर है और वहां जब कभी जाने का अवसर आया और सदीक साब दिखाई दे जाते तो उनको प्रणाम करता, वे कहते- ‘भंवर रै अठै आयो है कांई?’ उनके घर के बाहर दिखाई देती- बकरियां और मींगणियां दिखाई देती थी और मैं उनका गीत- ‘बाबा थारी बकरयां बिदाम खावै रे...’  को याद करता हुआ उस वक्त हंसता था कि बकरियों ने बिदामों का क्या हाल बना दिया है। बहुत बाद में इस कविता और इस जैसी अनेक अन्य कविताओं का मर्म समझ आया कि वे किस सरलता, सहजता और व्यंग्य द्वारा लोक के दुख-दर्द और परिवर्तन को अपनी कविताओं में वाणी देते हैं।
    मैं जब डूंगर कॉलेज में पढ़ता था तो लिखने-पढ़ने का सिलसिला काफी आगे बढ़ चुका था। कॉलेज के पुस्तकालय में मेरे मित्र फिजिक्स-केमिस्ट्री की मोटी-मोटी किताबें पढ़ते थे, वहीं मैं उनके साथ किसी साहित्यिक कृति में डूब जाता था। एक दिन मैं रानी बाजार स्थित अपने बड़े भाई साहब भंवरसा के घर से लौट रहा था कि आदरणीय सदीक साहब दिखाई दिए, मैंने प्रणाम किया। उत्तर में उन्होंने मुस्कान बिखेरते हुए कहा- ‘मरवण मांय थारी लघुकथा पढ़ी। लिखो, लिखो- खूब लिखो। बढ़िया है।’ उनका यह कहना हुआ और मेरे जैसे पंख लग गए और उस दिन मेरी साइकिल उड़ते उड़ते घर तक पहुंची। रानीबाजार से पवनपुरी के बीच का पूरा रास्ता जैसे वायु मार्ग से तय किया कि बीच के सभी दृश्य हवा हो गए थे।
    वर्ष 1992 में जब मेरे पिता का असामयिक निधन हो गया तब मैं काफी विचलित था। किंतु मैंने एक मिशन लिया कि अपने पिता के अप्रकाशित साहित्य को प्रकाश में लाना है और इसी क्रम में उनका राजस्थानी कविता संग्रह ‘हुवै रंग हजार’ प्रकाशित हुआ। उन्हीं दिनों मैंने राजस्थानी के अनेक कवियों की कविताओं का अनुवाद किया जो ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ में एक साथ छपे तो सदीक साहब बड़े खुश हुए। मैं उनसे मिलने गया तब बहुत आत्मीयता से खुलकर बातें हुई। साहित्य में स्वीकार और अस्वीकार के सवाल पर भी हमारी चर्चा हुई। मुझे अब भी स्मरण है कि मेरे गुरुवर सदीक जी के शब्द थे- ‘नीरज! म्हैं आखी जूण टाबरां नै अंग्रेजी पढ़ाई अर लिखूं राजस्थानी-हिंदी मांय, ऊपर सूं जात रो मिंयो... लोगां नै हजम कोनी हुवै। आ तो म्हारी कविता री ताकत है कै नाम लेवणो पड़ै। थारै बाप साथै ई सागी बात है, बेटा! काम बोलै।’
    मोहम्मद सदीक साहब का कहना था कि वैसे तो उम्र में सांवर से मैं बड़ा हूं, वह हमेशा मुझे बड़े भाई से भी अधिक सम्मान देता था। अब जब वह चल गया है तो वह बड़ा हो गया है। पहले तो मैं तुम्हारा ताऊ था पर अब काका हो गया हूं। प्रेम और आपनापन की सदीक साहब जैसे खान थे और इतने लाड से बात वे बात कर रहे थे कि मुझे मेरे पिता की छवि उनमें दिखाई देने लगी। वही ललाट और वैसा ही रंग, फर्क बस कद में है। मेरे पिता थोड़े लंबे थे किंतु सर मेरी हाइट के हैं। उन्होंने अपनी किताब ‘अंतस तास’ न केवल मुझे भेंट की वरन उस पर लिखा- ‘श्री नीरज दैया को मेरी अंतस तास कविता संकलन में छपी तमाम कविताओं का हिन्दी अनुवाद करने की आज्ञा व अधिकार प्रदत्त किया जाता है। तथा जूझती-जूण की कविताओं का भी अनुवाद की अनुमति दी जाती है। हस्ताक्षर (18-11-1993) उन्होंने पूछा- ‘जूझती-जूण पोथी तो हुवैला थानै खन्नै, म्हैं सांवर नै दी ही।’ मैंने कहा- ‘हां।’
    मोहम्मद सदीक को पढ़ना एक अलग अनुभव से गुजरना है। उनको सुनना दूसरा अनुभव है। बहुत सी रचनाएं यदि आपने उनके श्रीमुख से सुनी नहीं है तो उनके रस को ग्रहण करना कठिन होगा किंतु यदि आपने गीत को सुना और फिर पढ़ रहे हैं तो लगेगा पढ़ते हुए कि वे आपके भीतर गा रहे हैं। किसी रचना की क्षमता यही होती है कि वह हमारे मन में रच-बस जाए। सदीक साहब इतने सुरीले गीतकार रहे कि उनकी लोकप्रिय को कोई छू नहीं सकता है। मुझे लगता कि यदि हम मोहम्मद सदीक जी को राजस्थान का जनकवि कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। उनके हिंदी और राजस्थानी गीत इतने लोकप्रिय हैं कि उनका स्मरण आते ही हमारे मनों में उनकी अनुगूंज उमड़ने-घुमड़ने लगती है। यह प्रेम और भाईचारे का संदेश देने वाला कवि जनता का कवि रहा है। वे जहां भी गए श्रोताओं ने उन्हें सर-आंखों पर बैठाया। बेशक आज वे इस संसार से कूच कर गए हैं किंतु अब भी वे अपने शब्दों के माध्यम से हमारे बीच जिंदा है।         
    यह वह दौर था जब हम युवा साहित्य के प्रति कुछ करने को उत्साहित हुए थे। एक साहित्यिक संस्था ‘सरोकार’ का गठन किया। हमारा पहला कार्यक्रम आनंद निकेतन में हुआ। जिसमें जनकवि मोहम्मद सदीक साहब ने अध्यक्षता की और प्रख्यात कथाकार हरदर्शन सहगल मुख्य अतिथि थे। सारी यादों को स्मृति ने विलोपित कर दिया किंतु उस कार्यक्रम का एक रंगीन चित्र आज भी मेरे पास है जिसमें मंच के अतिथियों के साथ डायस पर बोलते हुए मैं खड़ा हूं। बैनर दिखाई दे रहा है जिस पर दिनांक 20-11-1994 अंकित है। ‘राजस्थानी भाषण प्रतियोगिता’ के इस आयोजन में विभिन्न विद्यालयों और कॉलेज के विद्यार्थियों ने भाग लिया। यह प्रतियोगिता दो वर्गों में आयोजित की गई थी।
    हमारे घर ब्लैक एंड वाइट टेलीविजन था और उन्हीं दिनों जयपुर दूरदर्शन के एक कवि सम्मेलन में गुरुदेव मोहम्मद सदीक को गाते हुए सुना- ‘आपको सलाम मेरा सबको राम-राम। अब तो बोल आदमी का आदमी है नाम’ इस गीत में सरलता और सादगी के साथ भाईचारे की बात कही गई है वह दूसरे किसी कवि के गीत में दुर्लभ है।
    यादों और बातों का एक लंबा सिलसिला है। साक्षरता कार्यक्रम के अंतर्गत रिड़मलसर पुरोहितान की पैदल यात्रा में हमारे साथ मोहम्मद सदीक साहब और अन्य अनेक कवि-लेखक थे। बीकानेर के जिला कलेक्टर सुबोध अग्रवाल स्वयं जब इस यात्रा में पैदल चल रहे थे तो पूरा प्रशासन साथ चल रहा था। वहां के कवि सम्मेलन में जो गीत सर्वाधिक लोकप्रिय हुआ वह मोहम्मद सदीक साहब का था- ‘इयां कियां रे भाई इयां कियां. न्याय ताकड़ी काण कियां...’ ग्रामीन जनता ही नहीं सभी लोग इस पर झूम रहे थे और साथ साथ गा रहे थे- ‘इयां कियां रे भाई इयां कियां...’ यह न्याय ताकड़ी के काण को निकाल कर जनता राज में समानता, समता और बराबरी के अधिकार की जन भावना का उद्घोष करता गीत उस दिन जिस किसी ने भी सुना था उसकी स्मृति में स्थाई हो गया है। उसे आज भी कोई नहीं भूला है।
    मोहम्मद सदीक बीकानेर जिला साक्षरता समिति के सदस्य रहे और ‘अखर गंगा’ प्रवेशिकाओं में उनका मार्गदर्शन मिला। साक्षरता समिति के पाक्षिक अखबार ‘आखर उजास’ का कार्यभार मेरे पास रहा और हमारी समिति के अध्यक्ष माननीय जिला कलेक्टर सुबोध अग्रवाल राजस्थानी को अधिक गंभीरता से जानने-समझने के लिए उत्साहित थे। उन्हें ‘राजस्थानी शब्द कोश’ के दो खंड उपलब्ध कराए तो वे मुझ से बोले- ‘शाम को मुझे राजस्थानी पढ़ाने आओ।’ मैंने हाथ जोड़ते हुए कहा- ‘सर यह कार्य मेरे आदरणीय गुरुदेव मोहम्मद सदीक जी करेंगे। मैं उनसे अनुरोध करूंगा।’ मेरे आग्रह की रक्षा करते हुए गुरुदेव मोहम्मद सदीक जी काफी दिन शाम को कलेक्टर साहब की कोठी में राजस्थानी-समागम के लिए समय देते रहे।
    जब मैं माध्यमिक शिक्षा बोर्ड अजमेर में राजस्थानी भाषा पाठ्यक्रम समिति का संयोजक रहा तो कक्षा 12 के ऐच्छिक विषय हेतु राजस्थानी पद्य संग्रह में मोहम्मद सदीक जी की रचनाओं को शामिल किया और उनसे अनुमति के फोन पर पूछा तो बोले- ‘थन्नै म्हारै सूं पूछण री जरूरत है कांई? म्हारी सगळी रचनावां माथै थारो अधिकार है। मरजी आवै जिकी लेवो नीं।’ सर की उदारता और प्रेम के लिए मेरे पास उस समय भी शब्द नहीं थे और आज भी शब्द नहीं है।
    एक दिन साक्षरता समिति में कार्य करते हुए फोन आया कि मोहम्मद सदीक इस संसार में नहीं रहे हैं। यह 02 जुलाई, 1998 गुरुवार का दिन था और गुरुदेव का परलोक गमन हो गया। उस दिन समिति में स्वयं जिला कलेक्टर अग्रवाल साहब आए और शोक-सभा के बाद कार्य को विराम दिया गया। कहानी यहीं पूरी नहीं होती है और इसके बाद हम सब बीसवीं शताब्दी को छोड़कर इक्कीसवीं में प्रवेश करते हैं। दस-ग्यारह वर्षों बाद मुझे कविता कोश में सदीक साहब की कविताएं जोड़ने के लिए उनके फोटू की आवश्यकता पड़ती है तो पाता हूं इंटरनेट पर गूगल सर्च में उनका फोटो कहीं नहीं है। दिनांक कविता कोश में संचित है कि 9 दिसंबर, 2010 को मैंने 20 नवंबर, 1994 के दिन ‘राजस्थानी भाषण प्रतियोगिता’ के लिए जो फोटो लिया था उसको क्रोप कर के वहां जोड़ा। यहां यह लिखने का अभिप्राय यह है कि आज के तकनीकी दौर में हमारा राजस्थानी साहित्य कितना इंटरनेट पर सुलभ है इस दिशा में प्रयास हमें ही करने होंगे। यह तो मोहम्मद सदीक जी की पोती कौसर का कमाल है कि उनका तीसरा राजस्थनी कविता संग्रह- ‘चेतै रा चितराम’ (2022) प्रकाशित हुआ है।
    मोहम्मद सदीक जी ने संख्यातमक रूप से कम लिखा है किंतु जो लिखा है वह उनकी अक्षय कीर्ति के लिए पर्याप्त है और ऐसे बहुत से लेखक-कवि हैं जिन्होंने बहुत लिखा उस पर भारी है। आज आवश्यकता इस बात की है कि उनके लिखे को संचित किया जाए, अप्रकाशित को प्रकाशित कराया जाए। पत्र-पत्रिकाओं की खोज कर पता किया जाना चाहिए कि वे कहां कहां किन किन पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। उनकी पुस्तकों की उपलब्धता के सरल रास्ते बनाए जाए। उनके साहित्य पर शोध कार्य किए जाए और मूल्यांकन कार्य होना भी बेहद जरूरी है।
    राजस्थानी और हिंदी कविता में गीति-काव्य की जब भी चर्चा होगी तब मोहम्मद सदीक के काब्य-कर्म को निसंदेह स्मरण किया जाएगा। इस आलेख में मैंने अपने गुरुदेव को स्मरण करने का प्रयास किया है और भविष्य में उनके रचनात्मक अवदान पर भी लिखना हो सकेगा तो मुझे बेदह खुशी होगी। मैं हृदय की अतल गहराइयों से अपने गुरुदेव की पावन स्मृति को नमन करता हूं।
डॉ. नीरज दइया







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