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स्थानीय रंगों में सजी अनुभूतियों की कविताएं/ नीरज दइया

     मदन गोपाल लढ़ा के कविता संग्रह ‘सुनो घग्घर’ नाम से ध्वनित होता है कि इसमें ‘घग्घर’ से कवि संबोधित होगा। वास्तविकता भी यही है कि प्रस्तुत संग्रह में नौ कविताएं ‘घग्घर : नौ चित्र’ नामक उप खंड में संकलित है। अन्य कविताओं में भी कहीं-कहीं नदी के साथ स्थानीय संदर्भ है। घग्घर नामक नदी के विषय में कुछ विद्वानों और लोक-मान्यता है कि प्राचीनकाल में बहने वाली महान नदी सरस्वती का ही यह बचा हुआ रूप है। इसमें मतभेद हो सकते हैं, किंतु राजस्थान के कवि लढ़ा का घग्घर अथवा अपने यहां स्थित कालीबंगा को कविता के केंद्र में रखना एक सुखद अहसास है। वर्तमान कविता में जब वैश्विक परिवेश, भूमंडलीकरण और विमर्शों का बोलबाला अधिक है ऐसे में कवि का अपनी जमीन से प्रेम और स्थानीय रंग की अनुभूतियां कविता को स्मरणीय और उल्लेखनीय बनाते हैं। बहुत से कवियों की कविताओं को पढ़कर यह अंदाजा लगाना कठिन होता जा रहा है कि वह किस प्रदेश-प्रांत अथवा जमीन की कविता है। हिंदी कविता से निजी और स्थानीय रंग जैसे लुप्त होते जा रहे हैं, ऐसे में कवि लढ़ा का अपनी रचनात्मकता के केंद्र में नदी, प्राचीन अवशेषों अथवा अपने घर-परिवार-गांव को रखते हुए अपने पर्यावरण और परंपरा से जुड़ना, उनकी चिंता करना... निसंदेह रेखांकित किया जाना चाहिए।
    मदन गोपाल लढ़ा हिंदी और राजस्थानी भाषा के प्रतिष्ठित युवा हस्ताक्षर हैं। ‘सुनो घग्घर’ कविता संग्रह के तीन खंड है- ‘बिसरी हुई तारीखें’, ‘फूल से झरी हुई पंखुरी’ और ‘घर-बाहर’। इन तीनों में अनेक उपखंडों में कविताओं को विषय-वस्तु के अनुसार व्यवस्थित किया गया है। यहां इस संग्रह से पूर्व प्रकाशित कविता-संग्रह ‘होना चाहता हूं जल’ का उल्लेख इसलिए भी जरूरी है कि उसके नाम में ‘जल’ होने की अभिलाषा व्यंजित होती है और यहां जैसे उसी अभिलाषा का एक विकसित रूप है- ‘सुनो घग्घर’। सरस्वती नदी के लुप्त होने की बात को अभिव्यक्त करते हुए कवि ने लिखा है कि घग्घर नदी धरा पर बहता हुआ एक इतिहास है। कवि इसे वर्तमान और अतीत के मध्य एक पुल मानते हुए वीणा के स्वरों को इसी में समाहित करते हुए, हमें सुनता है। असल में घग्घर कवि के लिए कल, आज और आने वाले कल के बीच काल को जानने-समझने का माध्यम है। कवि सृजनधर्मी है और उसे घग्घर नदी भी अपने समान सृजनधर्मी प्रतीत होती है-
    ‘‘पानी के मिस/ लेकर जाती है सरहद पार/ कथाएं पुरखों की/ अतीत के अहसास/ निबंध गलतियों के/ और रिश्तों की कविताएं।
    कितना कुछ कहना चहती है/ कितना कुछ सुनना चाहती है/ सृजनधर्मी घग्घर।’’
(सृजनधर्मी घग्घर, पृष्ठ-25)
    ‘घग्घर के जल को छूकर/ महसूस होता है/ जैसे अतीत के तहखाने में/ खड़े हैं हम।’ (घग्घर देवी, पृष्ठ-31) कवि मदन गोपाल लढ़ा की ये अनुभूतियां घग्घर के समानांतर राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले के एक प्राचीन एवं ऐतिहासिक स्थल कालीबंगा को लेकर भी देखी जा सकती है। ‘कालीबंगा : नौ चित्र’ खंड की यह कविता देखें-
    ‘‘जिस जगह को छुआ है मैंने/ अभी-अभी/ उस जगह को छुआ होगा/ जाने कितने हाथों ने।
    जहां खड़ा हूं मै इस वक्त/ वहां कितने पांव पड़े होंगे कभी।
    जहां सांस ले रहा हूं मैं इस पल/ जाने कितनों ने ली होगी सांसें/ कितनी-कितनी बार।
    कालीबंगा के बहरे-गूंगे थेहड़/ कितना बतियाते हैं/ मुझ सरीखे बावरे लोगों से।’’
(कितना बतियाते हैं, पृष्ठ-14)
    क्या अपने क्षेत्र की नदी अथवा थेहड़ से बतियाना कवि का बावरापन है? अथवा यह एक ऐसी स्थानीयता है जो स्थानीय होकर भी अपने स्थान और समय का अतिक्रमण करती हैं। कवि का काल की सीमाओं से मुक्त होकर यह सोचना कि ‘अलग क्या रहा होगा फिर’ ही यहां ध्यानाकर्षण का विषय है जो कवि को अपने समय में कुछ अलग करने का कौशल देता है। इसी के बल पर वह सैंधव सभ्यता की लिपि की बात करता है जिसमें मानवता का आदिम इतिहास सुरक्षित है और वह एक अबूझ पहेली बुनी हुई है। ‘दर्द की लिपि को बांचना/ आसान कहां होता है भला।’ जैसी काव्य पंक्तियों के माध्यम से कवि अपने पाठकों को भी समय का अतिक्रमण और दर्द का अहसास कराने में सफल होता है। कवि कालीबंगा में मिली मिट्टी की ठीकरियों, काली चूड़ियों, घग्घर नदी आदि में आदिम वक्त को देखने का प्रयास करता है।     
    “... श्राद्ध पक्ष में उपस्थित हुआ हूं पुरखों/ अतीत की भूली-बिसरी सरगम को सुनने/ मुझे अपने आशीर्वाद की शीतल छाया में/ कुछ पल गुजारने दो/ अपनी चेतना से आप्लावित करो/ मेरा अतंस/ भरोसा रखो/ मैं तर्पण करूंगा तुम्हारा/ कविता में शब्दों से।”
(कविता में तर्पण, पृष्ठ-23)
    अगले उपखंड ‘स्मृति : पांच चित्र’ में कवि जहां बहुरुपा स्मृति को परिभाषित करता है वहीं ‘स्मृति-छंद’ कविता में लिखता है- “नदी-/ मछली की स्मृति है/ पेड़-/ गोरैया की स्मृति है/ आग-/ दीपक की स्मृति है/ धरा-/ स्मृति है जीवन की।’ (पृष्ठ-36) और कवि अपनी धरा की स्मृति को चित्रों के रूप में सहेजते हुए आगे से आगे बढ़ता है। यह अकारण नहीं है कि ‘पिता : पांच चित्र’ में अपने दिवंगत पिता का स्मरण करते हुए कवि लिखता है-
     “लिखने के नाम पर/ पिता ने नहीं लिखा/ एक भी शब्द/ मगर जो कुछ लिखा-छपा है/ मेरे नाम से/ या फिर लिखूंगा भविष्य में कभी/ सब कुछ पिता का ही है/ मेरा कुछ भी नहीं।
    पिता से बड़ा लेखक/ मैंने आज तक नहीं देखा।”
(सब कुछ पिता का ही है, पृष्ठ-39)
    ‘सुनो घग्घर’ कविता संग्रह के पहले खंड ‘बिखरी हुई तारीखें’ में कवि ने विभिन्न चित्रों के माध्यम से समय को विविधवर्णी रूपों में देखने-दिखाने का उपक्रम किया है। दूसरे खंड ‘फूल से झरी हुई पंखुड़ी’ में ‘प्रेम : नौ चित्र’, ‘आना-जाना : छह चित्र’ और ‘आंगन में अपवन : चार चित्र’ तीन उपखंड है। इन कविताओं पर भी लंबी चर्चा हो सकती है किंतु यदि संक्षेप में कहा जाए तो यहां प्रेम के सूक्ष्म अहसास के साथ-साथ हमारे संसार से आने-जाने और जीवन-आंगन की बगिया में रहने के कुछ चित्रों को संजोया गया है।
    ‘‘..... केवल शब्दकोश के भरोसे/ हल नहीं होती/ प्रीत-पहेली/ प्रियतम के कंधे पर/ सिर रखकर/ बंद आंखों से ही/ सुलझ सकती है/ यह गुलझटी।’’ (प्रीत-पहेली, पृष्ठ-47)
    मदन गोपाल लढ़ा की इन कविताओं में बंद आंखों और खुली आंखों के अनेक अहसास चित्रों में विविध रूपों में आकार लेते हुए हमारे स्वयं के जीवन से संयुक्त होते चले जाते हैं। इन कविताओं की भाषा में स्थानीय रंगत जहां इनको अपने स्थानीय परिवेश से जोड़ती है वहीं वह सहजता और सादगी भी अनकहे सौंप देती है, जो ऐसी कविताओं के लिए बेहद जरूरी है। जैसे- ‘भरता है उनका पेट’ कविता की अंतिम पंक्तियां देखें- “खाने को तो वे/ रोज दोपहर में भी खाते हैं/ मगर शाम को/ बच्चों के बीच/ जीमकर ही/ भरता है उनका पेट।” (पृष्ठ-60)
    तीसरे खंड ‘घर-बाहर’ में भी तीन उपखंड है- ‘घर : सात चित्र’, ‘भट्टा : पांच चित्र’ और ‘इर्द-गिर्द’। घर अपना हो अथवा किराए का किंतु उसका अहसास जीवन पर्यंत बना रहता है। मदन गोपाल लढ़ा के कवि मन की यह विशिष्टता है कि वह किसी सूक्ष्म से सूक्ष्म से अहसास को एक अनूठे चित्र के रूप में अभिव्यक्त करते हुए उसे उसके संदर्भों से व्यापक और विशद बना सकते हैं।
    “सालों रहने पर भी/ नहीं बन पाए बाशिंदें/ दुनिया के लिए/ रहे किरायेदार के किरायेदार।
    घर ने/ एक दिन भी/ नहीं किया फर्क/ अपना समझा हमेशा/ बरसाया अपनापन।
    अपना-पराया तो/ सिर्फ दुनियादारी है।”
(अपना-पराया, पृष्ठ- 69)
    एक अन्य कविता जो आकार में छोटी सी है किंतु जैसे कवि ने सादगी-सरलता और सहजता से सूत्र रूप में बहुत कुछ कह दिया है। देखें-
    “कुछ घर/ किरायेदार को भी रखते हैं/ अपनों की तरह।
    कुछ लोग/ अपने घर में भी रहते हैं/ किरायेदार की तरह।”
 (कुछ घर – कुछ लोग, पृष्ठ-71)
    ‘गिरना’ कविता में कवि इस क्रिया पर विमर्श करते हुए वर्तमान समय को जैसे खोल कर रख देता है। वह पुराने पड़ गए गुरुत्वाकर्षण के नियम को बदलने की बात गिरते हुए विचारों, भावों, भाषा, लोगों, रिश्तों को देखकर प्रस्तावित करते हुए कहता है- ‘कह पाना मुश्किल है/ कि कोई/ कब, कहां, कैसे और कितना/ गिरेगा/ अलबत्ता अब/ किसी के गिरने का/ अचंभा भी नहीं रहा। (गिरना, पृष्ठ-85) यहां हम एक कवि के ऐसे कौशल से रू-ब-रू होते हैं कि वह कौशल इन कविताओं में कलात्मक रूप में उपस्थित होते हुए भी उनमें कहीं छुपा कर रख दिया गया है। कवि प्रांजल धर ने इस संग्रह के विषय में उचित ही लिखा है- ‘‘यह संकलन उस ईमानदारी का साक्षी और प्रमाण है जिसके तहत सरलता को सबसे बड़ा जीवन मूल्य माना जाता है और तब कविता वमन नहीं हुआ करती, वरन शांति के घनीभूत संवेगों का एकत्रण हो जाया करती है।” निसंदेह इस संग्रह से गुजरते हुए हम अनेक संवेगों में अपनेपन का अहसास कर पाते हैं तो वह इसलिए कि मदन गोपाल लढ़ा की इन कविताओं में स्थानीयता रंगों में सजी अनुभूतियों की ऐसी ऐसी व्यंजनाएं हैं जो अपनी सरलता-सहजता और सादगी के कारण विशिष्ट पहचान बनाने में सक्षम है।
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सुनो घग्घर (कविता-संग्रह) : मदन गोपाल लढ़ा ; बोधि प्रकाशन, जयपुर ; 2022 ; 150/-
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डॉ. नीरज दइया


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