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कहानी के प्रचलित मुहावरे से इतर कहानियां/ डॉ. नीरज दइया


            ऋतु त्यागी की पहचान एक कवियत्री के रूप में है। उनके तीन कविता संग्रह- ‘कुछ लापता सपनों की वापसी’, ‘समय की धुन पर’ और ‘मुझे पतंग हो जाना है’ प्रकाशित हुए हैं। सद्य प्रकाशित कहानी संग्रह “एक स्कर्ट की चाह” के लिए यह कहना बहुत सरल है कि उनकी कहानियों में यत्र-तत्र-सर्वत्र एक कवि-मन उपस्थित है। इसी सरलीकृत विवेचना में यह भी जोड़ा जा सकता है कि इन कहनियां में अनुभूति के स्तर पर एक स्त्री मन आछादित है। प्रस्तुत कथा-संसार की निजता में जाएं तो स्कूली लड़के-लड़कियों की उपस्थित के साथ कुछ स्थलों पर शिक्षिका के रूप में स्वयं लेखिका को भी देखा जा सकता है।
            संग्रह के आरंभ में आत्मकथ्य में लेखिका लिखती हैं- “चलते चलते पाँव का किसी लम्हे पर टिकना, किसी कण्ठ में उठते हाहाकार, आश्रुओं की चटकन, रात के किसी अबूझे पहर में धप्पा मारकर भागते स्वप्न और... अतीत की श्वेत-श्याम पगडण्डी पर न जाने कितनी बैचनियाँ दौड़ती मिली? जब भी मैं आईने के सामने आती या अपनी टकटकी से एक सुई-सी चुभो जाती तब मन घायल हो जाता फिर कुछ आधी अधूरी कहानियाँ जो डायरी में घुट रही थीं उन्हें उनके हिस्से के पँख तो देने ही थे और..... किसी का देय जो पीछा करता ही जा रहा था ये सभी कहानियाँ उन्हीं से मुक्ति का स्वर हैं।”
            हमें यहां भाषा की नवीनता और बिम्बों की अनोखी छटा की जो झलक मिलती है, वह संग्रह की लगभग सभी कहानियों में देख सकते हैं। कहते हैं कि कहानी यथार्थ और कल्पना के मिश्रण का एक रसायन है जिसे प्रत्येक कहानीकार अपने-अपने विवेक से त्यार करता है। कहानी की लंबी परंपरा में उसके अनेक घटकों को लेकर प्रयोग हुए हैं और हो रहे हैं। संग्रह का शीर्षक ‘एक स्कर्ट की चाह’ जैसे अपने भीतर कोई कहानी लिए हुए है। यहां यह बताना जरूरी है कि शीर्षक को संग्रह में संकलित कहानी ‘एक स्कर्ट की चाह और सपने खोदती स्त्री’ से लिया गया है। अन्य कहानियों के शीर्षक और कहानियां भी ऐसे ही कुछ रहस्यों को लिए हुए हैं। अब देखना यह है कि लेखिका ने अपने अनुभवों को किस प्रकार कहानियों में प्रस्तुत किया है।
            “आईने की तरफ देखकर वह न जाने आज कैसे मुस्कुरा दी। बहुत समय बाद आज फिर उसे वही सपना दिखा था लाल स्कर्ट। सफेद टॉप। पर अब चाँद की छाती नहीं थी। करीब चालीस साल पहले कुछ कठोर कुछ मुलायम छाती जिस पर सिर रखकर उसने अपनी दुनिया का एक नक्शा बनाया था और जो उसके जन्मदिन पर लाल डिब्बे में लाल स्कर्ट और सफेद टॉप लाया था।” (एक स्कर्ट की चाह और सपने खोदती स्त्री, पृष्ठ-39)
            यह शीर्षक कहानी का अंतिम परिच्छेद है। इसके साथ ही कहानी का आरंभिक वाक्य भी देखें- ‘आईना सामने था और वह उसमें उतर कर खुद को देख रही थी।’ इसके विस्तार में एक छोटा सा विवरण और निष्कर्ष भी है- ‘अरसे बाद।’, ‘कितना कुछ बदल गया था।’
            एक स्त्री की वेदनाओं और अभिलाषाओं के संसार में यह कहानी सार्थक हस्तक्षेप करती है। कहानीकार अपनी जादुई भाषा के बल पर अपने पाठकों को जैसे किसी तिलिस्म की दुनिया में होले होले उतारती चली जाती है। यह कहानी जैसे एक ऐसी स्त्री का कोई हल्फिया बयान है जिसमें उसने अपने साठ साल के जीवन और उसमें भी अड़तीस साल के वैवाहिक जीवन को शामिल किया है। आज जब हम आधुनिकता के आईने में स्त्री-पुरुष की समानता और अधिकारों की बात करते हैं तो हमें इस कहानी के प्रथम वाक्य से ही कहानीका त्यागी का मन्तव्य जान लेना चाहिए- ‘आईना सामने था और वह उसमें उतर कर खुद को देख रही थी।’ असल में यह कहानी एक स्त्री के अपने विगत में वर्षों बाद उतर कर खुद को देखने की कहानी के बहाने ‘स्त्री विमर्श’ के नाम पर लिखी जाने वाली अनेक कहानियों के समक्ष फटी जिंदगी की तुरपाई करने की कहानी है। क्या यह एक बड़ी त्रासदी नहीं है कि अपने परिवार और संसार में इतनी समर्पित होने के बाद भी किसी स्त्री को अपने कोई एक अदद मामूली सपने के पूरित नहीं होने का दुख भोगना जैसे नियति में लिख दिया गया है। यहां एक बात स्पष्ट रूप से उभर कर सामने आती हैं कि कहानी के प्रचलित मुहावरे से इतर ऋतु त्यागी की कहानियां समकालीन हिंदी कहानी के क्षेत्र में एक नवीन प्रयोग है।
            “ये उन दिनों की बात है जब दुनिया मोबाइल जैसी बला से कोसों दूर थी। पाने की चाह पाने से कहीं ज्यादा कीमती थी। किसी को दूर से देखकर श्वास की बिगड़ी मात्रा को भी ठीक करने की कोई कवायद नहीं होती थी। बारिश की बूंदें, हवा की रुनझुन और धूप का तीखापन दिन को मुलायम कर जाता था और रात को शरबती.... तो किस्सा कुछ यूँ था....” (कौन थी वो?, पष्ठ- 94)
            ‘कौन थी वो?’ संग्रह की अंतिम कहानी कुछ कहानी जैसी कहानी है। यह कहानी अपने परंपरागत ढांचे का निर्वाहन करते हुए संग्रह की अन्य कहानियों से एकदम अलग है किंतु इसमें भी भाषिक स्तर पर प्रयोग के स्वर समाहित है। रहस्य, कौतूहल और भाषा का जादू जिसमें बिंबों और कविता के अहसास की सुखद अनुभूति लिए ऋतु त्यागी की कहानियां बदलते संसार में जैसे एक बड़ा कोलाज प्रस्तुत करती है। इस कोलाज में स्त्री की अस्मिता के सवाल बहुत गहराई से रेखांकित किए गए हैं। कहानीकार ‘मिशिका और सप्ताह का एक दिन’ कहानी में एक छोटी लड़की के माध्यम से ऐसे-ऐसे प्रश्नों को उठाती है जिनका तथाकथित आधुनिक कहे जाने वाले समाज से सीधा सरोकार है। एक पुरुष के दो घर और उसमें एक स्त्री के हिस्से में केवल सप्ताह का एक दिन। यह हमारे भारतीय समाज की कुछ ऐसी तश्वीरें हैं जिन्हें हम देखकर भी अनदेखा कर देते हैं, बच्चों से छिपाते हैं। ऐसे में यह कहानी इसके प्रतिकार में बाल मनोवैज्ञानिक ढंग से एक लड़की के समक्ष न केवल उसके आस-पास के संसार को खोलती चली जाती है वरन यहीं से उसके जानने-समझने और परखने की साहस भरी एक मुहिम दिखाती है। इस कहानी का एक अंश देखें-
            ‘आँटी आप अपनी मम्मी के पास क्यों नहीं चली जाती?’
            मिशिका के मासूम सवालों से घिरी गौरी आँटी आज जैसे अपने अन्तस के सारे कपाट खोलकर बैठी हो- ‘हमारी मम्मी नहीं होती बिटिया...’
            ‘मतलब’
            ‘मतलब हम कोठेवालियों को।’
            ‘कोठेवालियों मतलब?’
            ‘मतलब... जिसका कोई नहीं होता। जिसका हक किसी पर नहीं होता पर जिस पर सबका हक होता है।’ गौरी आँटी जैसे अचानक किसी गहरे कुँए में उतर गई हों और मिशिका उन्हें डूबते हुए देख रही हो, मिशिका घबराकर आँटी का हाथ कसकर पकड़ लेती है।’ (मिशिका और सप्ताह का एक दिन , पृष्ठ-16)
            इस संग्रह में 13 कहानियां हैं और प्रत्येक कहानी को एक प्रयोग की तरह कहानीकार ने प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। कहानी ‘फस्लें दिल है खुला है मयखाना...’ में बस के पांच यात्री अपने क्रम से अपनी बात और जीवन के प्रति दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं तो ‘फरवरी का महीना और सुलगती चत की लपटों में झुलसा मन’ कहानी अपने तीन दृश्यों में संवेदनाओं को अलग अलग आयामों से प्रस्तुत करते हुए किसी घटना के पीछे बनने वाले कारणों की तलाश की कहानी है।
            स्त्री-पुरुष संबंधों को संग्रह की कहानियां रेखांकित करती है किंतु एक स्त्री का किसी दूसरी स्त्री के प्रति दृष्टिकोण ‘आंसुओं के गुच्छे’ में जिस रूप में प्रस्तुत हुआ है वह नया नहीं है। प्रेम संबंधों के बनते बिगड़ते समीकरण के बीच बहुत सहजता से कहानी अपनी बात कहती भी है किंतु अंत में सुजाता का अभिमन्यु को ब्लॉक कर देना आरोपित लगता है। कहानी अभिमन्यु के बहाने पुरुष प्रवृत्ति को रेखांकित करने में सफल रही है कि वे अस्थिर व्यवहार करते हैं और उनमें समय-परिस्थिति के अनुसार असहज विचलन देखा जा सकता है। इसी के चलते अभिमन्यु अदिति से सुजात की तरफ लौटता है और उसके लौटने के विकल्प में ही कहानी को समाप्त हो जाना चाहिए था। ‘उसके मैसेज के अक्षरों को आकृतियाँ तथा प्यार की इमोजी कसैले धुएँ का बादल बनकर उड़ने लगी। अपनी राख होती आँखों के बिखरने से पहले सुजाता ने मोबाइल उठाया और अभिमन्यु का नंबर ब्लॉक कर दिया।’ (पृष्ठ-48) अतिरिक्त कथन और सूचना है। अन्य कहानियों में जो भरोसा और विश्वास लेखिका ने पाठकों पर दिखाया है वह यहां भी दिखाते हुए सुजाता के निर्णय को स्थगित रखा जा सकता था।
            ‘गुलमोहर’ कहानी में पंतासी है किंतु वह बहुत सहजता से एक स्त्री मन और संवेदनाओं को प्रकट करती हैं। काला पत्थर और गुलमोहर का बत्तख में बदल जाना असहज होते हुए भी जिस काव्यात्मक भाषा के रस में लिपटा हुआ प्रस्तुत हुआ है वह उल्लेखनीय है। ‘वो गहरी साँवली लड़की’ और ‘माँ और दुबली लड़की’ के केंद्र में लड़कियां हैं जो अपने पंखों की पहचान करना चाहती हैं पर इनसे भी उल्लेखनीय वे छात्र-छात्राएं हैं जो कहानी ‘स्कूल डायरी के हाशिए पर पड़े नोट्स’ से बाहर निकल कर हमारे सामने आते हैं। यहां मुख्य मुद्दा संभवतः लेखिका का यह देखना और दिखाना रहा है कि हमारी बदलती दुनिया में हम किस तेजी से और किस प्रकार बदल रहे हैं। वह ध्यानाकर्षण का विषय बनाती है कि हमारी परंपरा, संस्कृति और मूल्यों का किस कदर लोप होता जा रहा है। हमारे संसार में रचने में महत्त्वपूर्ण भागीदारी स्त्रियों की हैं और वे आरंभ ही जिस क्षरण के मार्ग से होकर गुजर रही है तो भविष्य कैसा होगा यह जरूरी सवाल इन कहानियों के केंद्र में देख सकते हैं। निसंदेह यह एक पठनीय और हमारे समय का जरूरी कहानी संग्रह है इसे पढ़ा जाना जरूरी है। इसमें न केवल कहानी के क्षेत्र में होने वाले परिवर्तनों को देखा जा सकता है वरन यह संग्रह परंपरागत स्त्री छवि और मूल्यों को भी फिर से देखने-परखने और कुछ समय रहते का आह्वान प्रस्तुत करता है।  
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एक स्कर्ट की चाह (कहानी संग्रह)
कहानीकार – ऋतु त्यागी
प्रकाशक- न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन, नई दिल्ली
प्रथम संस्करण- 2022 ; पृष्ठ- 108 ; मूल्य- 200/-
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  समीक्षक : डॉ. नीरज दइया, बीकानेर (राज.)




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