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मेरे गुरुदेव आदरणीय भवानीशंकर व्यास ‘विनोद’/ डॉ. नीरज दइया

मैं अपने अध्ययन-काल के दौरन जिन शिक्षकों से प्रभावित रहा और जिनका लोहा आज तक मानता चला आ रहा हूं, उन में से एक हैं- आदरणीय श्री भवानीशंकर व्यास ‘विनोद’। शिक्षक और संपादक के रूप में मैंने आपको बहुत करीब से देखा है। बाद में आपके विविध रूप और कार्य मेरे लिए आपके प्रति सम्मान में श्रीवद्धि करते रहे हैं। आपसे मैंने बहुत कुछ सीखा और समझा है। जब मैं बीकानेर के टी.टी.कॉलेज से बी.एड. कर रहा था तो आपका विद्यार्थी रहा। मेरे पिता श्री सांवर दइया जब ‘शिविरा’ में संपादक रहे तब आप वरिष्ठ संपादक के रूप में सेवारत थे। वैसे आपसे पहली भेंट संभवतः सीटी स्कूल में हुई। आप वहां प्रधानाचार्य के रूप में काफी कठोर और अनुशासन प्रिय माने जाते थे। अपने काम के प्रति बेहद गंभीर और अनुशासित।
बी.एड. कॉजेल में उनकी कक्षा में पिन-ड्राप साइलेंस और उनके गंभीर भाव-विभोर कर देने वाले व्याख्यानों से हम सभी प्रभावित रहते थे। ठीक समय पर पूरी तैयारी के साथ कक्षा में आना और अध्यापन में डूब कर गहराई में भावी शिक्षकों को ले जाने की उनकी अद्वितीय कला थी। लूना की सवारी, एक हाथ में चमड़े का बैग लिए उस दौर में उनके जैसा हमारे कॉलेज में कोई दूसरा नहीं था। अन्य शिक्षक भी बेहद गुणी थे पर वे सारे उनके बाद में उनके पीछे विराजित थे।
स्मरण शक्ति गजब की, सभी सोचते इतना सर को मुख-जबानी याद कैसे रहता है। व्यास सर के शव्दों से जहां हमने व्यक्ति की संवेदनशीलता-सहनशीलता और मानवता के पाठ पढ़े, वहीं उनकी कविताओं पर मोहित होकर खूब तालियां बजाते थे। कवि सम्मेलनों के दौर हो अथवा किसी राजकीय आयोजन का मसला, अक्सर आप संचालन करते थे और पूरा चार्ट कौन कितने मिनिट बोलेगा, कार्यक्रम का कुल समय कितना होगा। कोई नियम भंग करता और आप खीजते तो झुंझलाहट चेहरे पर साफ दिखाई देती थी। ‘तेरा मन दर्पन कहलाए’ जैसी पंक्ति आप पर लागू होती है, जैसा जो मन में है वही चेहरे पर दिखता है। दोगले विचारों और ख्यालों की आपके पास जगह नहीं रही। काम इतना अधिक कि फुर्सत का एक पल की नहीं और समय सब को इतना अवश्य देते थे जितना जरूरी होता था। ‘शिविरा’ में इतना काम होता था कि वहां कार्यरत सभी उसके बोझ से दबे रहते थे। मेरे पिताश्री भी समय के पाबंद रहे और वे स्वयं व्यास सर का बहुत सम्मान करते थे। एक संपादक का अपरिमित-श्रम और अपने काम के प्रति निष्ठा और डूब कर अध्ययन करने का पाठ मैंने इन्हीं दिनों सीखा।
मेरे पिता के जाने के बाद मैंने राजस्थानी में एक लंबी कविता ‘देसूंटो’ लिखी जिसमें पिता और परम-पिता के श्लेष के साथ कुछ दार्शनिक बातें समय-परिस्थितियों के कारण आ गई थी। उससे पहले के कविता-संग्रह ‘साख’ की कविताओं से भी मेरे गुरुदेव भवानी शंकर व्यास ‘विनोद’ मुदित होते और कहते- ‘इन कविताओं में पीड़ा की अद्वितीय अनुभूति को शब्दों में ढालकर बड़ा काम किया है।’ यह उनका अतिरिक्त स्नेह था कि जब भी मैं किसी काम के लिए उनके पास गया तो सदैव मुझे ‘हां’ सुनने को मिला। आपने ‘इक्यावन व्यंग्य’ (सांवर दइया) पुस्तक पर लिखा और मेरी लंबी कविता पर भी लंबा आलेख लिखा। समय और शब्दों की गणना कोई गुरुदेव से सीख सकता है। जितने बजे और जिस दिन का कहा वह वचन है और उनका वचन खाली नहीं जाता है। जितने शव्दों में लिखना है उतने ही शब्दों में लिखेंगे ना कम ना ज्यादा। यह शब्दों का अनुशासन ऐसा कि दस्ते के लाइनदार पेज और लाल-नीला रेनॉल्ड्स बॉल पेन भी जानने लगे थे कि पचासवें शब्द के नीचे नीले पेन से छोटी सी लाइन और सौवें शब्द के नीचे लाल पेन से छोटी सी लाइन अथवा डबल लाइन उनकी आदत में शुमार हो गया है।
गुरुदेव को मैंने सदा किसी न किसी काम में व्यस्त पाया है। वे कभी खाली या बिना काम आज तक नहीं देखे गए हैं। उम्र का कुछ-कुछ असर जरूर उन को दबोच रहा है, पहले जहां वे आने-जाने में किसी पर निर्भर नहीं थे वहीं अब सहारे और सहयोग की जरूरत रहने लगी है। इस सब के उपरांत भी वे कभी हार मानने वाले नहीं रहे हैं, साहित्य के प्रति उनका जोश, उत्साह, उमंग वरेण्य है। उनकी अध्ययनशीलता और गतिशीलता सदा प्रेरित-प्रोत्साहित करती हैं। उम्र के इस मुकाम पर उनसे ईष्या करने वाले बहुत हैं कि डवल ऐट की उम्र में भी वे इतने सक्रिय क्यों और कैसे बने हुए हैं? अभी पिछले दिनों की ही बात है। मैंने एक मुलाकात में कहा कि आपने ‘देसूंटो’ किताब पर जो वर्षों पहले लिखा था वह मुझे मिल नहीं रहा है। उन्होंने कहा कि मैं मेरे पास है क्या देखूंगा। बाद में जब पता चला कि उसकी कॉपी उनके पास भी नहीं है तब उन्होंने कहा- ‘किताब एकर म्हनै पाछी ला दियै, म्हैं दुबारा लिख देसूं।’ उनका यह कहना ही मेरे लिए लिखने जितना और लिखने से भी बहुत बड़ा है। उनका मुझ पर भरपूर आशीर्वाद रहा है और इतना कि मैं अनेक अंतरंग बातें भी थोड़े साहस के साथ कर सकता हूं। अन्यथा मेरी हिम्मत नहीं होती, यह हिम्मत आपने ही वर्षों पहले प्रदान की है।
भाषा में शुद्धता और समरूपता के प्रति आप विशेष आग्रही रहे हैं। किसी शब्द को कैसे लिखा जाए इस पर अब भी चिंतन-मनन और शोध-खोज करते हैं। आपकी स्मरण शक्ति ईश्वरीय देन है कि सब कुछ कंठस्थ और मुंह जबानी हिसाव जैसे अब भी याद रहता है संभवतः इसलिए आपको अपने समय का इनसाइक्लोपीडिया कहा जाता है। कहने को बहुत कुछ है, फिलहाल गुरुदेव के चरणों में वंदन-प्रणाम।
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डॉ. नीरज दइया




 


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