यह प्रतिष्ठित कवि शहंशाह आलम की विराट कल्पना है अथवा कोई भावभूमि जहां पहुंच कर वह इतना विराट हो जाता है। इसे इस प्रकार कहा जाना उचित होगा कि कवि के हृदय में बसा प्रेम उसे इस कदर विराट कर देता है कि वह सूक्ष्म रूप में विराटता को अनुभूत करता है। अपनी एक अन्य कविता 'पागलपन' में लिखी पंक्ति- 'यह ब्रह्मांड मेरे प्रेम से छोटा जो है' इसकी ताईद के लिए काफी है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि इस कविता की पहली दो पंक्तियों हैं- 'कोई गा रहा है जनवरी को/ अपने तबले पर थाप देकर।' समय का यह सुर ही कवि को वह आंख देता है कि वह लिखता है- 'लांघना कितना आसान है/ पृथ्वी को आकाश को।' इस कविता में कवि एक बड़ा रूपक रचता है जिसमें सूरज एक अलाव के रूप में चित्रित हुआ है और वह किसी कुंभार के घर में है तो निसंदेह यह कवि कबीर का कुंभार है जिसने हमें अपनी मिट्टी से सिरजा है। इस कविता के अंत में राजा के संदर्भ से कवि सत्ता और वर्तमान के संबंध को दर्शाते हुए इसे राज व्यवस्था द्वारा पागलपन की संज्ञा से व्यंग्यात्मक प्रहार करता है। किंतु सच तो यह है कि यह पागलपन जिसे कल्पनाशीलता कह सकते हैं यदि नहीं हो तो पृथ्वी का अंत बहुत जल्दी हो जाएगा। उस विराट प्रेम को अनुभूत सत्ता और स्वार्थ से ऊपर उठ कर ही किया जा सकता है।
कवि-आलोचक शहंशाह आलम के नए कविता संग्रह 'कल का मौसम बढ़िया होगया' में प्रेम, उम्मीद और विश्वास से जुड़ी विविध रंगों से सजी अनेक कविताएं हैं। वे लंबे समय से कविता के क्षेत्र में सक्रिय हैं, अब तक उनके अनेक कविता संग्रह और संचयन प्रकाशित हो चुके हैं। वे अब ऐसे मुकाम पर है जहां उन्होंने अपनी काव्य भाषा और शैली के बल पर प्रेम, उम्मीद और विश्वास से भरी समानांतर एक दुनिया कविताओं से निर्मित की है। यहां यह कहना होगा कि इस संग्रह में वे हमारी उम्मीदों और विश्वासों पर एकदम खरे उतरते हैं।
कविता-संग्रह के शीर्षक को एक कविता 'यहां अकस्मात कुछ भी नहीं हो रहा था' मैं किंचित अलग ढंग से प्रयुक्त किया गया है- 'कल का मौसम कितना बढ़िया था'। कल, आज और कल के सभी मौसम बढ़िया ही होने चाहिए। यह तभी संभव हो सकेगा जब हम खुद बढ़िया होने के प्रयासों को गति देंगे। शहंशाह आलम की कविता-यात्रा में उनके कविताओं को लेकर अनेक प्रयोग और जोखिम उठाने के साहस को रेखांकित किया जाना चाहिए।
शहंशाह आलम की से मेरा परिचय तब से है जब से वे कविताओं की दुनिया में सक्रिय हुए और मैंने उन्हें अनेक पत्रिकाओं में निरंतर पढ़ना आरंभ किया। उनके लिए कविता एक सतत प्रविधि रही है जिसके द्वारा वे विविधवर्णी दुनिया के रंग-रूप, सुख-दुख और जीवन-संघर्ष को हमसे साझा करते हुए अपना एक स्थान बनाते हैं।
इस संग्रह की कविताओं में कुछ कविताएं कला के विभिन्न माध्यमों यथा- फिल्म, गायन और शायरी से जुड़े महान फ़नकारों से जुड़ी है। स्मिता पाटिल, दीप्ति नवल, गुलाम अली अथवा जॉन एलिया को केंद्र में रखते हुए कविता रचना सहज सरल नहीं है। हिंदी में इस प्रकार की कविताएं बहुत कम लिखी गई है। ऐसी कविताओं में हर समय खतरा मंडराता रहता है कि कविता कहीं कविता की परिधि से बाहर नहीं निकल जाए। किसी विषय में उतर कर उसमें गहरे तक डूबकर कवि शहंशाह आलम संवेदना के उन बिंदुओं को ना केवल स्पर्श करते हैं वरन वे अपने पाठकों भी उस दुनिया में ले जाने में सक्षम हैं। उदाहरण के लिए जॉन एलिया शीर्षक से संग्रहित छह कविताओं में पहली को देखें- 'दिल जब उदास रहता है मेरा/ अक़्ल जब हैरान रहती है मेरी/ इस नए ज़माने का हिसाब-किताब देखकर/ तुम्हारी शायरी अपना हाथ बढ़ाती है/ मेरी उदासी मेरी हैरानी दूर करने/ तुम जॉन एलिया हो या कोई जादूगर हो/ जो मेरी ज़िंदगी आसान कर देते हो हमेशा।'
यह किसी एक रचनाकार का दूसरे के प्रति मान-सम्मान है अथवा सबको जीवन जीने के सही और आसान रास्ते से परिचित कराने का काव्यात्मक उपक्रम। यहां साहित्य से सतत जुड़े रहने की बात के साथ ही जॉन एलिया के कवि व्यक्तित्व से जुड़ने का आह्वान भी है। इसी प्रकार अन्य कविताओं में भी कवि मन की सघन अनुभूतियां सहजता के साथ इन शृंखला कविताओं में देख सकते हैं।
शहंशाह आलम की कविताओं का एक बड़ा आधार वर्तमान व्यवस्था का प्रतिकार और प्रतिरोध भी है। वे अपनी कविताओं में बहुधा सीधे-सीधे और कहीं सांकेतिक रूप में सत्ता और व्यवस्था को लक्षित करते हैं। दादरी के मुस्लिम परिवार पर दंगाइयों द्वारा हुए अत्याचार को बहुत ही मार्मिक शब्दों में कवि ने अपनी कविता में शब्दबद्ध किया है। कवि यहां भी आशा और उम्मीद का दामन थाम कर जैसे हौसला और हिम्मत देता है- 'मगर तय यह भी था उसी दादरी में/ कल बिलकुल नया सूरज निकलेगा/ एक बिलकुल नई नदी बहेगी झिलमिल/ एक बिलकुल नया रिश्ता बनेगा मुहब्बत का।' मुहब्बत के इस रिश्ते में कवि का यह रंग भरने जैसा कौशल रेखांकित किए जाने योग्य है।
शहंशाह आलम की कविता में राजनैतिक ऊहापोह के बीच आम आदमी की तकलीफों के साथ कवि का बुलंद स्वर भी देख सकते हैं। अपनी कविता में वे इस स्थितियों से इस कदर सीधी मुठभेड़ करने लगते हैं कि वे बयान की श्रेणी तक जा पहुंचते हैं, जैसे बयान कविता के इस अंश को देखें- 'तुम्हारी तरफ़ से की जाने वाली जितनी जाँचें हैं हमारे ख़िलाफ़/ सभी झूठी हैं और यह तुम बखूबी जानते-बुझते हो, समझते हो/ कि जिस दिन तुम्हारे विरुद्ध जाँच बिठाई गई हम सबके द्वारा/ तुम तुम्हारी सत्ता से बेदखल किए जाओगे, मार भगाए जाओगे/ तुम, तुम जो हत्यारे हो, बलात्कारी हो, चोर हो, गिरहकट हो/ हमारे बच्चों के जीवन के, हमारे समय के, हमारी ज़रूरतों के।' कहना होगा कि शहंशाह आलम अपनी कविता-यात्रा में बहुधा ऐसे रास्तों पर निकल पड़ते हैं जहां विरल आवागमन होता है। उनका कवि-मन जीवन की विविधता में रमता है और वे विविधवर्णी रंगों के ऐसे कवि हैं जिन पर भरोसा किया जा सकता है। उनके जीवन देखने की दृष्टि में कविता है।
संग्रह की कविता 'मातृभाषा' की पंक्तियां देखें- 'जो भी शब्द है/ घास में/ आकाश में/ जलप्रपात में/ मेरी मातृभाषा से हैं/ गुंजित और गुंफित।' अपने पूरे पर्यावरण से जुड़ते हुए कवि शहंशाह ने अपनी एक अन्य कविता 'एक भाषा जो मुझसे निकली' में लिखा है- 'जानते हो ऐसा क्यों है/ मेरी भाषा के साथ ऐसा इसलिए है/ कि भाषा तुम्हारी ज़बाँ पर चढ़कर/ तुम्हारे प्रेम की तरह फैल जाती है/ अनंत के संपूर्ण विस्तार तक/ नदी का रास्ता पकड़े-पकड़े।' यहां भाषा के विस्तार में प्रेम एक आवश्यक घटक है वहीं सामूहिकता एक अहम सवाल। इसी सामूहिक की हत्या के लिए सत्ता अपना खेल खेलती है और उस खेल को बहुत सूक्ष्मता से उजागर करते हुए कविता 'भाषा में हत्या' में कवि ने लिखा है- 'हत्यारा इस मामले में अक्सर चतुराई से कम लेता है/ ताकि मारे गए आदमी के मन में यह भ्रम हमेशा बना रहे/ कि उसकी हत्या करने वाला उसी की भाषा का आदमी था।' इस काव्य भाषा के विषय में कवि राजकिशोर राजन ने लिखा भी है- 'शहंशाह आलम ने अपनी नई काव्यभाषा लंबे समय तक कविताई के बाद अर्जित की है। इसमें तत्सम का ठाठ है तो उर्दू की खूबसूरती भी है। इस कारण इनकी कविता की भाषा ताजगी और जीवंतता से भरपूर है, जैसे खेत में लहराते सरसों, तीसी के फूल, वसंत के मोजराए आम।' यह कविता संग्रह कवि यतीश कुमार को समर्पित है, वहीं इसमें युवा कवि विनय सौरभ ने एक संस्मरणनुमा शानदार भूमिका लिखी है, जिसमें शहंशाह आलम के कृतित्व के साथ व्यक्तित्व को भी बहुत गहराई और आत्मीय ढंग से चित्रित किया गया है। किसी भी कवि की कविता को कोई पूरी तरह से नहीं पकड़ सकता है, ठीक उसी प्रकार जैसे प्रेम के विषय में 'प्रेम को' कविता में स्वयं कवि ने लिखा है- 'क्या प्रेम को/ पकड़ा जा सकता है/ जिस तरह कोई मछुआरा/ जाल को पानी में डालकर।'
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