सुधीर सक्सेना समकालीन
कविता के विशिष्ट कवि हैं। विशिष्ट इस अर्थ में कि वे अपने आरंभिक लेखन से ही
प्रयोगधर्मी और नवीन विषयों के प्रति मोहग्रस्त रहे हैं। कहा जा सकता कि वे भाषा, शिल्प और कथ्य के स्तर पर अन्य कवियों से अलहदा हैं, उनके यहां सामान्य और औसत से भिन्न विशिष्टता का पूर्वाग्रह
है। संभवतः उनके प्रभावित और स्मरणीय बने रहने का कारण ही उनकी नवीनता और
प्रयोगधर्मिता है। उनके हर नए संग्रह के साथ ऐसा लगता है कि जैसे वे विषयों का हर
बार अविष्कार करते हैं। या यूं कहें कि उनकी कविताओं के विषय अपनी ताजगी और नवीन
दृष्टिकोण के कारण नवीन अहसासों, मनःस्थितियों में ले जाने
में सक्षम हैं। उनके यहां किसी सामान्य अनुभव अथवा दिनचर्या को कविताओं में
रूपांतरित करते का हुनर विशेष परिस्थितियों में सांकेतिक रूप में होता है, किंतु व्यापक रूप में उनका सामान्य किसी विशिष्टता में
घुलमिल कर विशिष्ट रूप में ही प्रस्तुत हुआ है। उनकी कविताओं में यह भी लगातार हुआ
है कि वे इतिहास और वर्तमान को जैसे किसी धागे से जोड़ते हुए, उन्हें मंथर गति करते हुए हमारे सामने ला खड़ा करते हैं।
उनकी कविताएं कोरा भूत और वर्तमान का ब्यौरा मात्र नहीं वरन वे हमारे भविष्य की
संभावित अनेक व्यंजनाएं लिए हुए है। कहीं सांकेतिकता है तो कहीं खुलकर उनका कवि-मन
अपने विमर्श में हमें शामिल कर लेता है। यहां रेखांकित करने योग्य तथ्य यह है कि
इन कविताओं में कवि के सवाल हमारे अपने सवाल बन जाते हैं, द्वंद्व में कवि के साथ हम भी द्वंद्वग्रस्त हो जाते हैं।
यह भी कहना चाहिए कि सुधीर सक्सेना की कविताओं का केंद्र-बिंदु बदलता रहा है, किंतु यह भी उल्लेखनीय है कि कवि के चिंतन के मूलाधार
लक्ष्यबद्ध रहे हैं। वे हर बार कुछ अभिनव विषयों से मुठभेड़ करते हुए अपने
चिंतन-मनन का वातायान प्रस्तुत कर हमारे आकर्षण का केंद्र रहे हैं। उनका नए नए
विषयों के प्रति मूलतः आकर्षण है जिसे समकलीन हिंदी अथवा भारतीय कविता के अन्य
कवियों और कविताओं में वरेण्य है।
उदाहरण के लिए यदि हम कवि सुधीर सक्सेना के कविता संग्रह ‘ईश्वर : हां, नहीं... तो’ की बात करें, तो सर्वप्रथम यह कि ‘ईश्वर’ विषयक कविताएं आधुनिक कविता के केंद्र में इस रूप में कहीं नहीं है। वैसे भी यह क्षेत्र अथवा काव्य-विषय अतिसंवेदनशील है। यह शीर्षक अपने आप में किसी काव्य-युक्ति की भांति अनेक आयामों को लिए हमारी उत्सुकता को दिशा देने वाला है। यह भी सत्य है कि ईश्वर विषयक ‘हां’ और ‘ना’ के दो पक्षों के अतिरिक्त यहां जो ‘तो’ का अन्य पक्ष है, वह कवि का इजाद किया हुआ नहीं है। लेकिन इन तीनों पक्षों को एक साथ में इस रूप में किसी कविता संग्रह का केंद्रीय विषय बनाना कवि का इजाद किया हुआ है। हमें इस संग्रह से गुजरते हुए लगता है कि इन तीनों पक्षों को एक साथ कविताओं में नए विकल्प के रूप में प्रस्तुत करना हमारे आकर्षण का विषय है। हिंदी साहित्य में भक्तिकाल को स्वर्ण-युग कहा जाता है और वहां ईश्वर के संबंध में ‘हां’ की बहुलता और एकनिष्टता है। आधुनिक काल और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के रहते बीसवीं शताब्दी में ईश्वर के विषय में साहित्य और कविताओं में ‘ना’ का बाहुल्य है। यह यह भी सच है कि सुधीर सक्सेना अपने काव्यात्मक विमर्श में जिस ‘तो’ को संकेतित करते हैं वह बीसवीं शताब्दी के उतरार्द्ध का सच है। कवि के अनुभव और चिंतन में जहां तार्किता है वहीं निर्भिकता भी है। शायद यही कराण है कि इक्कीसवीं शताव्दी में डॉ. सुधीर सक्सेना जैसा एक कवि जो निसंदेह उत्तर-आधुनिक कवि है, ‘ईश्वर’ विषयक अपनी इन छत्तीस कविताओं में जैसे ‘छत्तीस का आंकड़ा’ भले जानबूझ कर उपस्थित नहीं भी करता हो किंतु यह संयोग भी निसंदेश एक बड़ा संकेत है। भारतीय संस्कृति में ‘आराध्य के लिए बनाए छत्तीस व्यंजनों’ का भी बड़ा महत्त्व है तो संग्रह की छत्तीस कविताएं बेशक अपने आराध्य के लिए है। जैसे कवि का यह हठ योग है कि वह बारंबार ईश्वर का आह्वान करता है और उसे अपने शब्दों से आहूतियां देता है।
यह अनायास नहीं हुआ है कि कवि सुधीर सक्सेना की इन कविताओं में निहित ‘ईश्वर’ संज्ञा में राम-रहीम के साथ वाहे गुरु, ईशु आदि सभी केंद्रों को जैसे मिश्रित कर उपस्थित किया गया है। इन कविओं की सबसे बड़ी सार्थकता यह है कि कवि के तर्क हमारे अपने तर्क हैं, जिनसे हम रोजमर्रा के जीवन में रू-ब-रू होते हैं। कवि के सवालों में हमारे अपने सवालों का होना इन कविताओं की सहजता हैं। यहां ईश्वर का गुणगान अथवा महिमा-मंडन नहीं है। साकार और निराकार सत्ताओं के बीच उस ईश्वर से साक्षात्कार होता है जो कवि का ही नहीं हमारा अपना ईश्वर है। कवि के द्वारा यह लिखना- ‘ईश्वर नहीं जानता हमारी भाषा तो दुख कैसे पढ़ेगा’ असल में सुख-दुख से धिरे सांसारिक प्राणियों की आत्माभिव्यक्ति है, वहीं ‘ईश्वर यदि सिर्फ देवभाषा जानता है/ और इतनी दूर है हमसे’ में पूर्व निर्मित ज्ञान के आभा मंडल में उसके होने और नहीं होने पर प्रश्न है।
ईश्वर के लिए अंतरिक्षवासी होना पूर्व धारण है वहीं बहुभाषी होने और आधुनिक युग की भाषाओं को जानने की शर्त हमारे मन का द्वंद्व है। ईश्वर के प्रति यह कवि का प्रेम है कि वह उसके दुख विचलित होता है, उसके एकाकीपन से द्रवित होता है।
फर्ज कीजिए कि वह सूई के छेद से निकल सकता है या कि उसके कद के बराबर कोई विवर ही नहीं जैसे काव्य-उद्गार में कबीर और अन्य भक्तिकालीन कवियों की अवधारणाएं परिक्षित होती हैं। ईश्वर की लीलाओं में उसके मानवीय़ रूप से हमारा साक्षात होता है, कवि सुधीर सक्सेना भी अपनी कविताओं के माध्यम से उसके मानवीय आचारण की अपेक्षा रखते हैं। रूप अर अरूप के दो बिंदुओं के बीच गति करती इन कविताओं में निसंदेह किसी एक ठिकाने की कवि को तलाश है। ‘कितना कुछ शको-शुबहा है/ तुम्हें लेकर/ सदियों की मुंडेर पर’ अथवा ‘तुम्हारी भौतिकी के बारे में कहना कठिन/ मगर तुम्हारा रसायन भी मेल नहीं खाता/ किसी और से, ईश्वर!’ जैसी अभिव्यक्ति में पाप और पुण्य से परे हमारे आधुनिक जीवन के संताप देखे जा सकते हैं। कवि की दृष्टि असीम होती है और वह इसी दृष्टि के बल पर जान और समझ लेता है कि इस संसार में माया का खेल विचित्र है- ‘कभी भी सर्वत्र न अंधियारा होता है/ न उजियारा’।
समय के साथ बदलती विचारधारों के बीच कवि कल्पना करता है- ‘अचरज नहीं/ कि उत्तर आधुनिक समय में ईश्वर/ गोलिसवाली पतलून पहले/ सिर पर हैट धर नजर आये/ नयी फब और नये ढब में/ किसी इंटरनेट कैफे या पब में!’ यह पंक्तियां इसका प्रमाण है कि कवि यहां अतिसंवेदनशील क्षेत्र में हमें ले जाता है और हम सोचने पर विवश होते हैं कि हां इस बदलते युग में यह भी हो सकता है। विभिन्न संदर्भों और ब्यौरों से लेस इन कविताओं में जहां विचार है वहीं सघन अनुभूतियां भी हैं। जहां धर्म है वहां दर्शन भी है। इन कविताओं की ज़द में एक व्यापक संसार है और कवि की व्यथा-कथा केवल उसकी अपनी नहीं है। यहां कुछ शब्द, पंक्तियां ऐसी भी है जिनको हम अपने भीतर के रसायन में बनता तो पाते रहे हैं किंतु वे किसी आकार में ढलने से पूर्व ही ध्वस्त हो जाती रही हैं। इन कविताओं से हमें किंचित साहस मिलता है और हम स्वयं को एक दायरे से बाहर लाकर सोचते-समझते हुए कवि के ‘ईश्वर : हां, नहीं... तो’ के मर्म में जैसे गहरे डूबते जाते हैं। संभवतः यही इन कविताओं का उद्देश्य भी है।
यहां यह भी रेखांकित किया जाना चाहिए कि सुधीर सक्सेना की काव्य-भाषा में प्रयुक्त शब्दावली एक विशेष प्रकार के चयन को साथ लेकर चलती है। यह उनका शब्दावली चयन उन्हें भाषा के स्तर पर जहां अन्य कवियों से विलगित करता है वहीं विशिष्ट भी बनाता है। भले पहले कविता ले अथवा अंतिम कविता या कोई बीच की कविता प्रत्येक कविता में कुछ शब्द ऐसे प्रयुक्त होते हैं जो जैसे उनके अपने हैं और केवल यह उनके यहीं देखने को मिलते हैं। जैसे- पहली कविता में ‘दुखों का खरीता’ अंतिम कविता में ‘हमारी फेहरिस्त’ उनकी निजी शब्दावली है जो उनकी कविताओं की पहचान बनती है। यह भी कहा जा सकता है कि उनके यहां कुछ अप्रचलित शब्द जिस ढंग से प्रयुक्त होते हैं कि लगता है उनके यहां उस काव्य-पंक्ति में इसके अतिरिक्त दूसरा कोई शब्द नहीं आ सकता है। सरलता, सहजता के साथ यह कवि की भाषागत विशिष्टता है।
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पुस्तक का नाम - ‘ईश्वर : हां, नहीं... तो’ (कविता संग्रह)
कवि - सुधीर सक्सेना
प्रकाशक - पहले पहल प्रकाशन, भोपाल
पृष्ठ- 64
संस्करण - 2014
मूल्य- 150/-
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डॉ. नीरज दइया
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