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समय को अभिव्यक्त करती बाल कहानियों का संकलन/ डॉ. नीरज दइया

हिंदी के प्रख्यात कहानीकार संजीव की ‘आरोहण’ एक प्रसिद्ध कहानी है। यह कहानी इसलिए भी प्रसिद्ध है कि इसे केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है। लंबी कहानी ‘आरोहण’ में पहाड़ और पहाड़ पर चढ़ने वाले आरोही और दो भाइयों का संदर्भ समाहित है। प्रस्तुत संकलन की किसी भी कहानी में सीधे-सीधे कहीं पहाड़ अथवा पहाड़ पर चढ़ने का संदर्भ उजागर नहीं है। संकलन की संपादक डॉ. नवज्योत भनोत ने इस संकलन की विभिन्न कहानियों में अभिव्यक्त भाव कि बालकों को उत्तरोत्तर प्रगति करते हुए समस्याओं के ऊंचे टीलों, पहाड़ों पर निरंतर आगे बढ़ते हुए गतिशील रहना चाहिए, इस प्रेरणा-लक्ष्य को संभवतः नामकरण का आधार बनाया है। यह संकलन ‘सृजन कुंज’ त्रैमासिक पत्रिका में प्रकाशित पंद्रह बाल कहानियों का सुंदर पुस्तकाकार रूपांतरण है। अपेक्षा की जाती है कि इस संकलन में हमारे समय के विभिन्न बाल कहानीकारों की श्रेष्ठ बाल कहानियां संकलित हैं। संकलन की संपादिका डॉ. नवज्योत भनोत ने इस किताब को बच्चों की निश्छल मुस्कान को समर्पित करते हुए अपने संपादकीय में लिखा है- ‘ये बालकथाएं बच्चों में जिज्ञासा, प्रश्नाकुलता, कल्पनाशीलता, प्रयोगधर्मिता और युग की चुनौतियों को ध्यान में रखकर बच्चों की समझ विकसित करने की दृष्टि से प्रासंगिक हैं।’ अस्तु, हमें इस संकलन के माध्यम से समकालीन बाल कहानी के विविध आयामों, विषयों की विविधता, शैल्पिक बदलावों और बालविकास की चुनौतियों आदि को देखना-परखना चाहिए।
    हमारे देश और समाज में कोरोना का आतंक रहा और इस भयावह सच का प्रभाव बाल कहानियों में भी देखा जा सकता है। संकलन में ‘कोरोना वीर’ (अनुपमा अनुश्री) बाल कहानी में लॉकडाउन और उससे पहले की स्थितियों को समझते-समझाते हुए बहुत सुंदर ढंग से हमारे दायित्व-बोध को जाग्रत करने का प्रयास किया है। किरण बादल की बाल कहानी ‘हिम्मत के पांव’ में चंदन के माध्यम से विकलांग मानसिकता पर प्रहार करते हुए दृष्टिकोण बदने का प्रभावी संदेश दिया है। यह बाल कहानी बताती है कि सफलता के लिए दृढ़ संकल्प और निरंतर अभ्यास-कार्य की आवश्यकता होती है। इसी प्रकार राजकुमार जैन ‘राजन’ की बाल कहानी ‘मौत हार गई’ में कोरोना विषय को उठाते हुए पर्यावरण संरक्षण के महत्त्व को प्रतिपादित किया गया है।
    अंजीव अंजुम की बाल कहानी ‘पापा झूठ नहीं बोलते’ बेहद मार्मिक है जिसमें पिता-पुत्र और पुत्र-माता के वर्तालाप के माध्यम से ‘पर्पल आम’ के झूठ को सच साबित करना प्रभावी है। बालक राम के पिता अमरेंद्र शहीद हो गए किंतु उनके मजाक में कहे शब्दों को अपनी मां के आगे सच सिद्ध करने की युक्ति प्रभावशाली है। संवादों और इसी भावभूमि से जुड़ी एक दूसरी बाल कहानी ‘यह भी एक कहानी है’ (दीनदयाल शर्मा) में पांचवी कक्षा की निशा और उसके पिता के मध्य बातचीत है। इस कहानी में पिता अपने जीवन की एक घटना को पुत्री के समक्ष कहानी के रूप में प्रस्तुत करता है। सरल-सहज और प्रसंगानुकूल छोटे छोटे वाक्यों से आगे बढ़ती इस संवाद-कहानी में सहजता के साथ बच्चों के लिए अनेक बातों को प्रस्तुत किया गया है। यह इस कहानी के नायक की सझदारी है कि वह झूठ बोलता है। उसका यह नहीं बताना कि रमन सर ने कनपटी पर थप्पड़ मारा है, उसकी महानता और गुरु-शिष्य परंपरा को दर्शाता है। गुरु को गोविंद से भी बड़ा बताया गया है किंतु क्या सभी गुरु इस महान पद के योग्य भी हैं। वर्तमान परिस्थितियों में बदलते आचार व्यवहार और परंपराओं को पतन को दर्शाने वाली सुंदर कहानी है ‘ऐना की बहादुरी’ (मानसी शर्मा) इसमें गुड टच और बेड टच को विषय बनाया गया है।
    अंशु प्रधान ने आजादी के महत्त्व को पिंजरे और तोते के पुराने रूपक को अपने बाल कहानी ‘जुगनू की सीख’ में ढालने का प्रयास किया है तो अनिल जायसवाल ने अपनी बाल कहानी ‘नंबर प्लेट’ में छात्र गोगी के माध्यम से स्कूल पिकनिक के सफर का चित्रण करते हुए बालक की सूझ-बूझ से लुटेरों को पकड़ाया है। स्कूल जीवन से प्राप्त शिक्षा और संस्कारों से एक बालक किस प्रकार योग्य जिला कलेक्टर बन कर अपने गुरु का सम्मान करते हुए शांति और सद्भवना के लिए कार्य है इसका वर्णन राजेश अरोड़ा की बाल कहानी ‘प्रीत लड़ी में सब बंधे’ में हुआ है।  
     पर्यावरण प्रदूषण पर ‘जंगन का दुःख’ (नरेश मेहन), बच्चों में ईमानदारी के विकास हेतु ‘ईमानदारी की खुशबू’ (प्रकाश तातेड़) और जीव-जंतुओं से प्रेम-अपनापन दर्शाने वाली ‘कोने वाला गड्डा’ (प्रभाशंकर उपाध्याय) भी अच्छी कहानियां है जो मनोरंजन के साथ-साथ शिक्षा के उद्देश्य को लेकर चलती है। बाल साहित्य में कल्पनाशीलता बेहद जरूरी है। ‘मेंढ़क हंसा’ (मुरलीधर वैष्णव) कहानी में जीव दया के साथ-साथ जीवन में हमें आगे किस प्रकार के कार्यों को करते हुए आगे बढ़ना चाहिए की सुंदर अभिव्यक्ति मिलती है। ‘अभिमानी हवा’ (डॉ. शील कौशिक) में हवा का घमंड दूर करने के लिए सूरज पेड़ों को गायब कर देता है और बिना किसी समझाइस के अपने उद्देश्य को पूर्ण करती है। ‘नया सरदार’ (सावित्री चौधरी) का यह वाक्य देखें- तभी उसे एक पक्षी के बोलने की आवाज सुनाई दी। जिसका मतलब था, ‘मित्र दुखी मत हो, यह फल खा लो।’ यहां उल्लेखनीय है कि बाल पाठकों से पक्षी के बोलने का मतलब समझाने की जगह उससे सीधे संवाद की कल्पनाशीलता को समझा जाना चाहिए।       
    इस संपादित बाल कहानी संग्रह के विषय में फ्लैप पर सृजन कुंज के संपादक और बालसाहित्यकार डॉ. कृष्ण कुमार आशु ने ठीक ही लिखा है- ‘ये कहानियां बच्चों के हौसले और उनके साहस के साथ-साथ सूझ-बूझ की कहानियां है। ये बालकथाएं समकालीन बाल कहानी का प्रतिनिधित्व करती हैं और बच्चों में इस तरह के संस्कार विकसित करने की प्रेरणा देती है कि उन्हें किसी भी स्थिति में हिम्मत नहीं हारनी है। उन्हें आगे बढ़ना है और कुछ नया करते हुए देश की सेवा करनी है।’ इस बाल कहानी संकलन से गुजरना हमारे समकालीन बाल कहानी के विविध आयामों और रंगों से परिचित होना है। आकर्षक आवरण और सचित्र सुंदर प्रकाशन के लिए संपादिका डॉ. भनोत के साथ प्रकाशक भी बधाई के पात्र हैं।     
      

समीक्षक : डॉ. नीरज दइया

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आरोहण (बाल कहानी संग्रह)
संपादक – डॉ. नवज्योत भनोत     
प्रकाशक- अपोलो प्रकाशन, 25, न्यू पिंकसीटी मार्केट, राजापार्क, जयपुर-04    
प्रथम संस्करण- 2022 ; पृष्ठ- 96 ; मूल्य- 200/-    

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जीवन-पथ की स्मृतियों का लेखा-जोखा/ डॉ. नीरज दइया

 डॉ. भैंरूलाल गर्ग की दो संस्मरण कृतियों पर केंद्रित आलेख

            आज के समय में जब मनुष्य मशीन बनता जा रहा है अथवा कहें कि उसे मशीन बना दिया गया है। वह मशीनों की दुनिया में है और मशीनों से धिर गया है। हमारा पूरा तंत्र ही मशीनों के हवाले हो चुका है, ऐसे में संवेदनाओं, भावनाओं और अनुभवों-अनुभूतियों को बचाना बेहद जरूरी है। हम अगर अब भी कहीं जीवंत बने हुए हैं अथवा भविष्य में जीवंत बने रह सकेंगे तो इसका सारा श्रेय स्मृति को देना होगा। हमारी सभ्यता, संस्कृति, संस्कारों और संवेदनाओं की शरणस्थली हैं हमारी स्मृतियां। सभी की अपनी-अपनी स्मृतियां होती हैं- कुछ सुखद और कुछ दुखद भी। कुछ स्मृतियां जीवन को उजास और संबल देती हैं तो कुछ निराशा और हताशा के महासागरों में ले जाती हैं। साहित्य में स्मृतियों को संजोने का काम अलग अलग विधाएं अपने-अपने ढंग से करती हैं, इसमें आत्मकथा, जीवनी, रेखाचित्र, संस्मरण आदि कथेतर विधाएं प्रमुख हैं। इन विधाओं में व्यक्ति को सरोकारों को सीधे सीधे परिभाषित होते हम देखते हैं। कविता, कहानी और उपन्यास के साथ अनेक विधाएं मुख्यधारा में वर्षों से बनी हुई है किंतु विद्बानों का मानना है कि बाल साहित्य के प्रति अपेक्षित गंभीरता से कार्य नहीं हुआ है। 
           बाल साहित्य लिखना और निरंतर लिखना सच में एक बड़ी चुनौती रहा है। बाल साहित्य की बात करें तो भीलवाड़ा राजस्थान से डॉ. भैरूंलाल गर्ग एक ऐसा नाम है, जो अब किसी परिचय की आवश्यकता नहीं रखता है। वे एक सुपरिचित बाल-साहित्यकार, संपादक और शिक्षक के रूप में वे न केवल राजस्थान वरन पूरे देश में जाने-पहचाने जाते हैं। बाल साहित्य के विकास हेतु आपने वर्ष 1996 से सीमित संसाधनों के रहते हुए भी मासिक ‘बाल वाटिका’ पत्रिका का संपादन-प्रकाशन कर एक कीर्तिमान बनाया है। अनेक मान-सम्मानों और पुरस्कारों के साथ उन्हें उनकी दीर्घकालीन उत्कृष्ट बाल साहित्य-साधना के लिए उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान लखनऊ द्वारा ‘बाल साहित्य भारती सम्मान’2018 भी अर्पित किया जा चुका है। आज हमारे सामने डॉ. गर्ग एक ऐसे संघर्षशील लेखक हैं, जिन्होंने जीवन के सत्तर से अधिक बसंत देखें हैं। उसके जीवनानुभवों और स्मृतियों को हम उनके संस्मरणों की दो कृतियों- ‘मेरी माटी मेरा देश’ और ‘यादों की धूप-छाँह’ द्वारा विस्तार से परिचित हो सकते हैं।

            ‘मेरी माटी मेरा देश’ कृति के मूल भाव को समझने लिए लेखक द्वारा समर्पण पृष्ठ पर अंकित आभार पर्याप्त है- ‘वह घर, आंगन, गली, गांव, वे खेत-खलिहान, वह विद्यालय, वे ताल-तलैया, खेत के मैदान, वे मित्र, वे मेरे प्रेरक सहयोगी, वे तीज-त्योहार, मेले-ठेले और उन सभी को जिन्होंने मेरे जीवन को बड़े प्रेम से संवारा है और जो मेरे मन-मस्तिष्क में अमिट रूप से रचे बसे हैं, जिनकी यादें आज भी मेरी आंखें गीला कर जाती हैं...!’ वही दूसरे संग्रह में लेखक ने कृति के समर्पण में लिखा है- ‘मां और पिताजी को नम आंखों से याद करते हुए जिनके असीम आत्मीय वात्सलय ने मुझे इस योग्य बनाया।’ अर्थात लेखक भैरूंलाल गर्ग की इन दो कृतियों में उनके सूक्ष्म से विराट स्वरूप बनने की यात्रा को अंश दर अंश अभिव्यक्त किया गया है। दिल्ली पुस्तक सदन से प्रकाशित कृति ‘मेरी माटी मेरा देश’ के विषय में प्रख्यात बाल साहित्यकार प्रकाश मनु लिखते हैं- ‘कहना न होगा कि डॉ. भैरूंलाल गर्ग के ये संस्मरण स्मृतियों के मेले सरीखे हैं, जिनमें घूमते हुए हम खुले आकाश के नीचे जीवन की बहुरंगी छवियों का आनंद लेते हैं और भाव-विभोर हो उठते हैं। इन संस्मरणों में जीवन मानो छल-छल करके बह रहा है।’  

            स्वयं लेखक ने अपनी भूमिका ‘ये यादें मेरी धरोहर हैं’ में उस किताब की रचनात्मकता और अपने अनुभवों का लेखा-जोखा प्रस्तुत करते हुए लिखा है- ‘एक छोटे से ग्राम में जन्म लेकर संघर्षों से जूझते हुए अपने अभीष्ट को प्राप्त कर लेना मेरे लिए जैसे आकाश-कुसुम ही था। लेकिन अपनी इच्छा शक्ति, दृढ़ संकल्प और सहयोगियों तथा शिक्षकों के उचित निर्देशनों के परिणाम स्वरूप जो कुछ मैं कर पाया, यह सब कुछ मेरे आत्मसंतोष के लिए बहुत कुछ है।’  किसी भी रचना और कहें जीवन का ध्येय आत्मसंतोष ही होता है। कृति में प्रस्तुत अठारह अध्याय बेशक गीता के नहीं हैं किंतु गीता की भांति जीवन में कर्म फल के महत्त्व को अवश्य प्रतिपादित करते हैं।

            इन संस्मरणों में एक भरा पूरा ग्रामीण लोक अपनी माटी की महक के साथ सांस्कृतिक रंगों को बिखेरता हुआ हमारी आंखों के सामने होले होले उपस्थित होता जाता है। ग्राम में जहां अथह अभाव है वहीं लेखक जिस घर-परिवार में विकसित हुआ है वह भी बेहद साधारण है। यह कृति अपने आप में एक मिशाल है। इसके माध्यम से देखा जा सकता है कि एक छोटे से गांव की मिट्टी से आभावों के बीच किस प्रकार एक प्रतिभा अंकुरित, पल्लवित और पुष्पित होती है। ऐसा नहीं है कि प्रकृति प्रत्येक बीज को समान अवसर देती है, वह बीज ही होता है जो जितना मिलता है उसे ग्रहण कर अपने पंख लेते हुए आकाश को छूने का सपना जिंदा रखता है। लेखक के जीवन में उसके आदर्श, मूल्य और संघर्ष किस प्रकार उसे प्रेरणा देने वाले बने हैं इसका ब्यौरा देते समय लेखक के जीवनानुभव बेहद कारगार सिद्ध हुए हैं। हम जानते हैं कि डॉ. गर्ग में अपनी दीर्घकालीन सेवाएं महाविद्यालय में युवाओं को समर्पित की हैं तो उनके अध्ययन-अध्यापन में ज्ञान के विविध क्षेत्रों की झलक यहां इस पुस्तक को संबल प्रदान करने वाली बनी हैं। वे न केवल विभिन्न कवियों लेखकों का स्थान स्थान पर स्मरण करते हैं वरन किसी भी प्रसंग में भाषा किस प्रकार अनुभव को परत-दर-परत शब्दों के माध्यम से ऐसे रखा जाए कि पढ़ने वालों में उत्सुकता का भाव बना रहे इस काला में भी सिद्धहस्त हैं।

            अपने गांव सोडार की वर्षाकालीन स्मृतियों से पुस्तक का प्रथम अध्याय आरंभ करते हुए गांव के विद्यालय के दिनों को स्मृति पटल पर उजागर करते हैं। चुलबुला बचपन है तो विभिन्न मौसमों के रंगों के साथ सर्दी, गर्मी, वर्षा और आनंददायी बसंत हैं। होली-दीवाली के उत्सव हैं तो अकाल और राहत के कार्यों का भी विस्तार से वर्णन किया है। यहां सर्वाधिक रेखांकित करने वाली बात यह है कि डॉ. गर्ग ने अपने शिक्षकों जिसमें मातादीन शर्मा और डॉ. युगलकिशोर सुरोलिया जी पर पूरा अध्याय रच कर जहां गुरु भक्ति का उदाहरण प्रस्तुत किया है वहीं वर्तमान समय के संदर्भों में ऐसे शिक्षकों की आवश्यकता को भी प्रतिपादित किया है। सरल-सीधी सहज भाषा शैली में यहां लेखक के मन के आरोह-अवरोह के साथ हमें आशा-निराशा के अनेक अविस्मरणीय चित्र देखने को मिलते हैं।

            दूसरी पुस्तक में सोलह अध्यायों में अपने जीवन के आगे के अध्यायों का विवरण दिया है। पत्नी, पिता और माता के प्रसंगों के साथ यहां भी जीवन संघर्ष के बाद महाविद्यालय के शिक्षक बनने की यात्रा का वर्णन मिलता है। यहा यह कहना होगा कि इन दोनों कृतियों के प्रत्येक आलेख का स्वतंत्र पाठ अपने आप में प्रेरक और स्वायत है। इन संस्मरणों में भले अनेक बातें अलग अलग स्थलों पर फिर फिर आती हो किंतु इनसे हमारे समय के एक संघर्षशील बड़े रचनाकार के बड़े बनने की यात्रा का विस्तार से खुलासा होता है। सभी अध्यय परस्पर एक दूसरे से जुड़े हुए भी है और इनका पृथक-पृथक पाठ भी आनंददायी है। यहां आरंभ और इति जैसा भी कोई सूत्र सीधा सीधा लागू नहीं होता है। जहां से इस कृति में हम प्रवेश करें वही सुगम और सहज मार्ग हैं इसके साथ ही प्रत्येक पाठ में एक प्रकार की ललक भी जागती है कि इससे पहले और बाद के जीवन-प्रसंगों में क्या कुछ घटित हुआ, वह भी पढ़ा जाए। यही इन दोनों पुस्तकों की सबसे बड़ी सफलता है।

            आज समय बहुत बदल गया है कैमरे का स्थान मोबाइल ने ले लिया है। चित्र ही नहीं स्मृतियों के फुटेज भी हमारे पास अनेक माध्यमों में संचित रखने के विकल्प हैं।  किंतु एक समय ऐसा रहा है जब हमारे पास हमारे पास अपने आत्मीय यहां तक की माताजी और पिताजी की तश्वीर तक नहीं होती थी। ‘मेरे पिता : साक्षात प्रेरणा की प्रतिमूर्ति’ का यह अंश देखें- ‘मुझे बड़ा दुःख है कि आज मेरे पिताजी का कोई अच्छा-सा चित्र मेरे पास नहीं है। मुझे याद है जब मैं बी.ए. प्रथम वर्ष में पढ़ रहा था, तब सर्दी की छुट्टियों में मैं श्री माणकचंद जी वर्मा से उनका ‘क्लिक थर्ड’ कैमरा मांग कर लाया था। तब हम भीलवाड़ा में एक ही मकान में किराए से साथ रह रहे थे। गांव में परिवार के सभी सदस्यों के चित्र लिए थे। तभी मैंने पिताजी का साफा बांधे और काला कोट पहने का मांगू बा के घर के बाहर की चबूतरी पर स्टूल पर बिठाकर चित्र भी लिया था। यही पिताजी का पहला और आखिरी चित्र था। पता नहीं वह चित्र बाद में कहां रखने में आ गया। लेकिन पिछले दिनों वह चित्र अपने पुराने दस्तावेजों के साथ मिल गया। यह मेरे लिए ही नहीं समस्त परिवार के लिए अत्यंत प्रसन्नता का विषय है। इस दुर्लभ एकमात्र चित्र का मिल जाना मेरे लिए आज बहुत बड़ी उपलब्धि है।’

            निसंदेह यह दोनों कृतियां भी आज बहुत बड़ी उपलब्धि इस रूप में है कि समय के साथ हमारी स्मृतियां क्षीण होती जाती हैं। हम अपने गुजरे हुए समय को भूलते जाते हैं ऐसे में अपने जीवन के अनेक महत्त्वपूर्ण घटनाक्रम को काल खंड़ के विभिन्न आयामों में इन संस्मरणों में शब्दबद्ध हो जाना स्वयं लेखक और उनके परिवार-परिजन, मित्रों-विद्यार्थियों के साथ इस विधा के लिए भी उल्लेखनीय विषय है। बालसाहित्यकार भैंरूलाल गर्ग जिस मिट्टी से बने हैं या उन्होंने अपने आप को बनाया है वैसी मिट्टी से अब संभवतः हमारा साक्षात्कार बहुत कम होता है। लेखक के पिताजी, माताजी, पत्नी अथवा शिक्षकों से जुड़े संस्मरणों से गुजरते हुए हम अनेक स्थलों पर भावविभोर हो जाते हैं। छोटी छोटी बातों और घटनाओं के ब्यौरों में जीवन की पवित्रता और निश्छलता किसी नदी की भांति कलकल करती अपने संगीत को रचती है। यह संस्मरण विधा में शब्द-संगत का वह संगीत है जिसमें एक बड़ा दर्पन लगा है और उसमें हम हमारा चेहरा डॉ. गर्ग के साथ देखते हुए यदि उसमें किंचित भी परिवर्तन परिवर्द्धन के लिए प्रेरित-प्रोत्साहित होते हैं तो यह इन कृतियों की सफलता है। छोटे बच्चों से बूढ़े पाठकों तक में समान रूप से पढ़े जाने की क्षमता रेखांकित करने योग्य है। इन कृतियों में से कुछ संस्मरण बच्चों की मासिक पत्रिका ‘बाल वाटिका’ में प्रकाशित हो चुकें हैं और इन्हें प्रत्येक वर्ग से काफी सराहना भी मिली है। 

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सुंदर बाल कहानियों का एक गुलदस्ता/ डॉ. नीरज दइया

कविता मुकेश की चौदहा सुंदर बाल कहानियों का एक गुलदस्ता है पुस्तक- ‘हिना के कबूतर’। शीर्षक कहानी की नायिका हिना बहुत प्यारी और बुद्धिमान बच्ची है। वह पढ़ाई-लिखाई में तो अव्वल है ही साथ ही साथ चित्रकारी में गजब की महारत हासिल है। इतना सब कुछ होने के वाद भी कहानीकार कविता मुकेश से बहुत व्यवस्थित तरीके से बताया है कि वह अपने हमउम्र बच्चों की तरह जीवन नहीं जी पा रही और उसे कुछ मानसिक परेशानी है। दस-पंद्रह साल के बच्चों के लिए आयोजित चित्र-प्रतियोगिता के विषय ‘सहभोह’ के लिए वह एक ऐसे सुंदर चित्र बड़ी मेहनत और लगन से बनाती है कि लगता है उसे ही प्रथम पुरस्कार मिलेगा। उसने चित्र में एक शादी के उपलक्ष्य में ‘सहभोज’ का दृश्य चित्रित किया जिसमें सभी मेहमान जमीन पर बैठकर खाना खा रहे हैं और कुछ चावल के दाने पर्श पर बिखर गए हैं जिनको उसने कुछ पक्षियों को खाते हुए चित्र में दिखाया है। चार पांच दिन की साधाना से यह चित्र पूर्ण होने को था कि इस बीच सच में दो कबूतर उसके चित्र में दर्शाए दानों को चित्र पर बैठकर असली दाने समझते हुए खाने की कोशिश करने लगे। ड्रांइंग शीट में बहुत से छेद हो गए और चित्र वर्बाद हो गया। इस बाल कहानी में यह वह दृश्य है जिसे देख कर हिना सन्न रह गई और अगले ही पल वह जोर जोर से हंसने लगती है। उसकी मम्मी उसके उस व्यवाहर से सतब्ध रह जाती है और उसे समझ नहीं आता कि जो लड़की छोटी छोटी बातों पर सदा आंसू बहाती थी वह इतनी मेहतन से बनाए चित्र के बिगड़ जाने से हंस क्यों रही है?

            ‘हिना के कबूत’ कहानी में बड़ी सहजता सरलता में मनोवैज्ञानिक ढंग से कथ्य का विकास करते हुए हिना से यह कहला देना- ‘मम्मी, आपको तो मुझे शाबासी देनी चाहिए कि मैंने इतना सजीव चित्र बनाया कि कबूतर धोखा खा गए और इन्हें असली चावल के दाने समझ कर खाने आ गए। मुझे तो मजा आ गया मैंने कबूतरों को बुद्धू बना दिया। मुझे मेरे चित्र का पुरस्कार मिल गया।’ उसकी मम्मी ने कबूतरों को असली दाने दिए और इसके बाद जब भी हिना परेह्सान होती और उसके गालों पर आंसू लढ़कने लगते तो उसकी मम्मी ने उसे हंसाने का नया और कारगर तरीका- ‘हिना, तुम्हारे गालों पर कबूतर बैठ गए। इनको उड़ाओ, जल्दी उडाओ।’ पंक्ति के रूप में खोज निकाला जो अपने आप में मौलिक है। कहानी में हिना का पुनः पुनः उस दृश्य का स्मरण करना और हंसना उसकी मम्मी की एक युक्ति है जिसे इस कहानी से गुजरने वाला वाला प्रत्येक पाठक याद रखेगा। याद रखेगा पद के स्थान पर लिखना उचित होगा कि इस युक्ति का इस प्रकार प्रस्तुतिकरण किया गया है कि यह स्मरण में कहीं अटकी रह जाएगी। यही इस कहानी और अन्य कहानियों की सफलता होती है। एक पंक्ति में  कहानी का मूल उद्देश्य कहें तो चित्रकला अथवा किसी भी कला माध्यम में मेहनत और लगन से सजीवता, पूर्णता को प्रस्तुत करना है।

            कविता मुकेश का कहानीकार मन बाल अपनी कहानियों में बच्चों को कुछ न कुछ शिक्षा और संदेश देने की कामना रखते हुए कहानी का रचवा ऐसे करने में हुनरमंद है कि उन्हें पढ़ते हुए कहीं ऐसा नहीं लगता है कि किसी बात को आरोपित किया जा रहा है। बाल कहानी वही सफल होती है जिसमें शिक्षा और संदेश अप्रत्यक्ष हो। कहानी को पढ़ना आरंभ करें तो पता नहीं चले कि यह कहां और कैसे जाएगी। कविता मुकेश के इस संग्रह में संकलित प्रत्येक कहानी अपने आप में अनूठी इसलिए है कि उनके पास बच्चों के कल्पनालोक की गहरी समझ और सूझबूझ है। वे जानती है कि बच्चों का मन पशु-पक्षियों की दुनिया में अधिक रमता है। संभवतः यही कारण है कि ‘गीत का जादू’ में वे सोनल चिड़िया के मधुर गीत को शिल्प में ढालते हुए जीवन में गीत-संगीत के महत्त्व को प्रतिपादित करती हैं। ‘चुग्गा’, ‘गैरी का दाना’ और ‘अलार्म’ जैसी कहानियों में समय के अनुरूप दैनिक दिनचर्या और कार्य के महत्त्व को दर्शाया गया है। बाल कहानी ‘बालदों की सैर’ में एक नन्हे बादल और सोलन चिड़िया के माध्यम से दोस्ती और घर परिवार के महत्त्व के साथ बच्चों को हर समय अपने घर-परिवार और जिम्मेदारियों के प्रति सजग रहने का संदेश है।

            कविता मुकेश के कथा-संसार में बाल पात्रों के साथ चिड़िया, चूहे और विल्ली की अनोखी दुनिया है जिसमें वे एक दूसरे के लिए मिलजुल कर इस दुनिया को बेहतर बनाने की प्रेरणा देते हैं। ‘मयूर के छिपे हुए दोस्त’ एक ऐसी ही कहानी है जिसमें दो चूहे गिनी-मिनी को मयूर अपनी दुनिया में रखना चाहता है तो ‘नुक्कड़ नाटक’ कहानी में चूहे भेष बदलकर विल्ली को डरते हैं। इसी प्रकार ‘रोहित की चाल’ कहानी में भी वह मिकी चूहे को बचाने के लिए बिल्ली को अपनी बातों से खूब छकाता है। बच्चे अपने पर्यावरण और जीव-जंतुओं के प्रति सजग होकर सब के साथ हिलमिल कर रहेंगे, वे दूसरों की भावनाओं को समझेंगे तभी यह दुनिया बदल सकती है। इन विषयों से इतर इस संग्रह में ‘डांस ड्रेस’ और ‘चार्ली माली’ जैसी अनुपम कहानियां भी संग्रहित है जिसमें बालक-बालिकाओं का स्वाभिमान-सम्मान है तो दूसरी तरफ हिम्मत के साथ अपनी गलतियों को समझते हुए उन्हें सुधारने का साहस भी है। इन कहानियों के बच्चे आज की बदलती दुनिया के समझदार और समय के साथ आगे बढ़ते हुए बच्चे हैं जो अपने घर-परिवार की सीमाओं आर्थिक संकटों को भी समझने में सक्ष्म हैं।

            इस बाल कहानी संग्रह को राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर के आर्थिक सहयोग से प्रकाशित किया गया है किंतु यहां यह कहना होगा कि इन बेहतरीन कहानियों का प्रभाव द्बिगुणित हो जाता यदि संग्रह की कहानियों में बीच बीच में चित्र प्रयुक्त किए जाते। ऐसे महत्त्वपूर्ण बाल कहानी संग्रह में चित्रों का अभाव खटने वाला है और कीतम भी।

समीक्षक : डॉ. नीरज दइया 



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