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जीवन-पथ की स्मृतियों का लेखा-जोखा/ डॉ. नीरज दइया

 डॉ. भैंरूलाल गर्ग की दो संस्मरण कृतियों पर केंद्रित आलेख

            आज के समय में जब मनुष्य मशीन बनता जा रहा है अथवा कहें कि उसे मशीन बना दिया गया है। वह मशीनों की दुनिया में है और मशीनों से धिर गया है। हमारा पूरा तंत्र ही मशीनों के हवाले हो चुका है, ऐसे में संवेदनाओं, भावनाओं और अनुभवों-अनुभूतियों को बचाना बेहद जरूरी है। हम अगर अब भी कहीं जीवंत बने हुए हैं अथवा भविष्य में जीवंत बने रह सकेंगे तो इसका सारा श्रेय स्मृति को देना होगा। हमारी सभ्यता, संस्कृति, संस्कारों और संवेदनाओं की शरणस्थली हैं हमारी स्मृतियां। सभी की अपनी-अपनी स्मृतियां होती हैं- कुछ सुखद और कुछ दुखद भी। कुछ स्मृतियां जीवन को उजास और संबल देती हैं तो कुछ निराशा और हताशा के महासागरों में ले जाती हैं। साहित्य में स्मृतियों को संजोने का काम अलग अलग विधाएं अपने-अपने ढंग से करती हैं, इसमें आत्मकथा, जीवनी, रेखाचित्र, संस्मरण आदि कथेतर विधाएं प्रमुख हैं। इन विधाओं में व्यक्ति को सरोकारों को सीधे सीधे परिभाषित होते हम देखते हैं। कविता, कहानी और उपन्यास के साथ अनेक विधाएं मुख्यधारा में वर्षों से बनी हुई है किंतु विद्बानों का मानना है कि बाल साहित्य के प्रति अपेक्षित गंभीरता से कार्य नहीं हुआ है। 
           बाल साहित्य लिखना और निरंतर लिखना सच में एक बड़ी चुनौती रहा है। बाल साहित्य की बात करें तो भीलवाड़ा राजस्थान से डॉ. भैरूंलाल गर्ग एक ऐसा नाम है, जो अब किसी परिचय की आवश्यकता नहीं रखता है। वे एक सुपरिचित बाल-साहित्यकार, संपादक और शिक्षक के रूप में वे न केवल राजस्थान वरन पूरे देश में जाने-पहचाने जाते हैं। बाल साहित्य के विकास हेतु आपने वर्ष 1996 से सीमित संसाधनों के रहते हुए भी मासिक ‘बाल वाटिका’ पत्रिका का संपादन-प्रकाशन कर एक कीर्तिमान बनाया है। अनेक मान-सम्मानों और पुरस्कारों के साथ उन्हें उनकी दीर्घकालीन उत्कृष्ट बाल साहित्य-साधना के लिए उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान लखनऊ द्वारा ‘बाल साहित्य भारती सम्मान’2018 भी अर्पित किया जा चुका है। आज हमारे सामने डॉ. गर्ग एक ऐसे संघर्षशील लेखक हैं, जिन्होंने जीवन के सत्तर से अधिक बसंत देखें हैं। उसके जीवनानुभवों और स्मृतियों को हम उनके संस्मरणों की दो कृतियों- ‘मेरी माटी मेरा देश’ और ‘यादों की धूप-छाँह’ द्वारा विस्तार से परिचित हो सकते हैं।

            ‘मेरी माटी मेरा देश’ कृति के मूल भाव को समझने लिए लेखक द्वारा समर्पण पृष्ठ पर अंकित आभार पर्याप्त है- ‘वह घर, आंगन, गली, गांव, वे खेत-खलिहान, वह विद्यालय, वे ताल-तलैया, खेत के मैदान, वे मित्र, वे मेरे प्रेरक सहयोगी, वे तीज-त्योहार, मेले-ठेले और उन सभी को जिन्होंने मेरे जीवन को बड़े प्रेम से संवारा है और जो मेरे मन-मस्तिष्क में अमिट रूप से रचे बसे हैं, जिनकी यादें आज भी मेरी आंखें गीला कर जाती हैं...!’ वही दूसरे संग्रह में लेखक ने कृति के समर्पण में लिखा है- ‘मां और पिताजी को नम आंखों से याद करते हुए जिनके असीम आत्मीय वात्सलय ने मुझे इस योग्य बनाया।’ अर्थात लेखक भैरूंलाल गर्ग की इन दो कृतियों में उनके सूक्ष्म से विराट स्वरूप बनने की यात्रा को अंश दर अंश अभिव्यक्त किया गया है। दिल्ली पुस्तक सदन से प्रकाशित कृति ‘मेरी माटी मेरा देश’ के विषय में प्रख्यात बाल साहित्यकार प्रकाश मनु लिखते हैं- ‘कहना न होगा कि डॉ. भैरूंलाल गर्ग के ये संस्मरण स्मृतियों के मेले सरीखे हैं, जिनमें घूमते हुए हम खुले आकाश के नीचे जीवन की बहुरंगी छवियों का आनंद लेते हैं और भाव-विभोर हो उठते हैं। इन संस्मरणों में जीवन मानो छल-छल करके बह रहा है।’  

            स्वयं लेखक ने अपनी भूमिका ‘ये यादें मेरी धरोहर हैं’ में उस किताब की रचनात्मकता और अपने अनुभवों का लेखा-जोखा प्रस्तुत करते हुए लिखा है- ‘एक छोटे से ग्राम में जन्म लेकर संघर्षों से जूझते हुए अपने अभीष्ट को प्राप्त कर लेना मेरे लिए जैसे आकाश-कुसुम ही था। लेकिन अपनी इच्छा शक्ति, दृढ़ संकल्प और सहयोगियों तथा शिक्षकों के उचित निर्देशनों के परिणाम स्वरूप जो कुछ मैं कर पाया, यह सब कुछ मेरे आत्मसंतोष के लिए बहुत कुछ है।’  किसी भी रचना और कहें जीवन का ध्येय आत्मसंतोष ही होता है। कृति में प्रस्तुत अठारह अध्याय बेशक गीता के नहीं हैं किंतु गीता की भांति जीवन में कर्म फल के महत्त्व को अवश्य प्रतिपादित करते हैं।

            इन संस्मरणों में एक भरा पूरा ग्रामीण लोक अपनी माटी की महक के साथ सांस्कृतिक रंगों को बिखेरता हुआ हमारी आंखों के सामने होले होले उपस्थित होता जाता है। ग्राम में जहां अथह अभाव है वहीं लेखक जिस घर-परिवार में विकसित हुआ है वह भी बेहद साधारण है। यह कृति अपने आप में एक मिशाल है। इसके माध्यम से देखा जा सकता है कि एक छोटे से गांव की मिट्टी से आभावों के बीच किस प्रकार एक प्रतिभा अंकुरित, पल्लवित और पुष्पित होती है। ऐसा नहीं है कि प्रकृति प्रत्येक बीज को समान अवसर देती है, वह बीज ही होता है जो जितना मिलता है उसे ग्रहण कर अपने पंख लेते हुए आकाश को छूने का सपना जिंदा रखता है। लेखक के जीवन में उसके आदर्श, मूल्य और संघर्ष किस प्रकार उसे प्रेरणा देने वाले बने हैं इसका ब्यौरा देते समय लेखक के जीवनानुभव बेहद कारगार सिद्ध हुए हैं। हम जानते हैं कि डॉ. गर्ग में अपनी दीर्घकालीन सेवाएं महाविद्यालय में युवाओं को समर्पित की हैं तो उनके अध्ययन-अध्यापन में ज्ञान के विविध क्षेत्रों की झलक यहां इस पुस्तक को संबल प्रदान करने वाली बनी हैं। वे न केवल विभिन्न कवियों लेखकों का स्थान स्थान पर स्मरण करते हैं वरन किसी भी प्रसंग में भाषा किस प्रकार अनुभव को परत-दर-परत शब्दों के माध्यम से ऐसे रखा जाए कि पढ़ने वालों में उत्सुकता का भाव बना रहे इस काला में भी सिद्धहस्त हैं।

            अपने गांव सोडार की वर्षाकालीन स्मृतियों से पुस्तक का प्रथम अध्याय आरंभ करते हुए गांव के विद्यालय के दिनों को स्मृति पटल पर उजागर करते हैं। चुलबुला बचपन है तो विभिन्न मौसमों के रंगों के साथ सर्दी, गर्मी, वर्षा और आनंददायी बसंत हैं। होली-दीवाली के उत्सव हैं तो अकाल और राहत के कार्यों का भी विस्तार से वर्णन किया है। यहां सर्वाधिक रेखांकित करने वाली बात यह है कि डॉ. गर्ग ने अपने शिक्षकों जिसमें मातादीन शर्मा और डॉ. युगलकिशोर सुरोलिया जी पर पूरा अध्याय रच कर जहां गुरु भक्ति का उदाहरण प्रस्तुत किया है वहीं वर्तमान समय के संदर्भों में ऐसे शिक्षकों की आवश्यकता को भी प्रतिपादित किया है। सरल-सीधी सहज भाषा शैली में यहां लेखक के मन के आरोह-अवरोह के साथ हमें आशा-निराशा के अनेक अविस्मरणीय चित्र देखने को मिलते हैं।

            दूसरी पुस्तक में सोलह अध्यायों में अपने जीवन के आगे के अध्यायों का विवरण दिया है। पत्नी, पिता और माता के प्रसंगों के साथ यहां भी जीवन संघर्ष के बाद महाविद्यालय के शिक्षक बनने की यात्रा का वर्णन मिलता है। यहा यह कहना होगा कि इन दोनों कृतियों के प्रत्येक आलेख का स्वतंत्र पाठ अपने आप में प्रेरक और स्वायत है। इन संस्मरणों में भले अनेक बातें अलग अलग स्थलों पर फिर फिर आती हो किंतु इनसे हमारे समय के एक संघर्षशील बड़े रचनाकार के बड़े बनने की यात्रा का विस्तार से खुलासा होता है। सभी अध्यय परस्पर एक दूसरे से जुड़े हुए भी है और इनका पृथक-पृथक पाठ भी आनंददायी है। यहां आरंभ और इति जैसा भी कोई सूत्र सीधा सीधा लागू नहीं होता है। जहां से इस कृति में हम प्रवेश करें वही सुगम और सहज मार्ग हैं इसके साथ ही प्रत्येक पाठ में एक प्रकार की ललक भी जागती है कि इससे पहले और बाद के जीवन-प्रसंगों में क्या कुछ घटित हुआ, वह भी पढ़ा जाए। यही इन दोनों पुस्तकों की सबसे बड़ी सफलता है।

            आज समय बहुत बदल गया है कैमरे का स्थान मोबाइल ने ले लिया है। चित्र ही नहीं स्मृतियों के फुटेज भी हमारे पास अनेक माध्यमों में संचित रखने के विकल्प हैं।  किंतु एक समय ऐसा रहा है जब हमारे पास हमारे पास अपने आत्मीय यहां तक की माताजी और पिताजी की तश्वीर तक नहीं होती थी। ‘मेरे पिता : साक्षात प्रेरणा की प्रतिमूर्ति’ का यह अंश देखें- ‘मुझे बड़ा दुःख है कि आज मेरे पिताजी का कोई अच्छा-सा चित्र मेरे पास नहीं है। मुझे याद है जब मैं बी.ए. प्रथम वर्ष में पढ़ रहा था, तब सर्दी की छुट्टियों में मैं श्री माणकचंद जी वर्मा से उनका ‘क्लिक थर्ड’ कैमरा मांग कर लाया था। तब हम भीलवाड़ा में एक ही मकान में किराए से साथ रह रहे थे। गांव में परिवार के सभी सदस्यों के चित्र लिए थे। तभी मैंने पिताजी का साफा बांधे और काला कोट पहने का मांगू बा के घर के बाहर की चबूतरी पर स्टूल पर बिठाकर चित्र भी लिया था। यही पिताजी का पहला और आखिरी चित्र था। पता नहीं वह चित्र बाद में कहां रखने में आ गया। लेकिन पिछले दिनों वह चित्र अपने पुराने दस्तावेजों के साथ मिल गया। यह मेरे लिए ही नहीं समस्त परिवार के लिए अत्यंत प्रसन्नता का विषय है। इस दुर्लभ एकमात्र चित्र का मिल जाना मेरे लिए आज बहुत बड़ी उपलब्धि है।’

            निसंदेह यह दोनों कृतियां भी आज बहुत बड़ी उपलब्धि इस रूप में है कि समय के साथ हमारी स्मृतियां क्षीण होती जाती हैं। हम अपने गुजरे हुए समय को भूलते जाते हैं ऐसे में अपने जीवन के अनेक महत्त्वपूर्ण घटनाक्रम को काल खंड़ के विभिन्न आयामों में इन संस्मरणों में शब्दबद्ध हो जाना स्वयं लेखक और उनके परिवार-परिजन, मित्रों-विद्यार्थियों के साथ इस विधा के लिए भी उल्लेखनीय विषय है। बालसाहित्यकार भैंरूलाल गर्ग जिस मिट्टी से बने हैं या उन्होंने अपने आप को बनाया है वैसी मिट्टी से अब संभवतः हमारा साक्षात्कार बहुत कम होता है। लेखक के पिताजी, माताजी, पत्नी अथवा शिक्षकों से जुड़े संस्मरणों से गुजरते हुए हम अनेक स्थलों पर भावविभोर हो जाते हैं। छोटी छोटी बातों और घटनाओं के ब्यौरों में जीवन की पवित्रता और निश्छलता किसी नदी की भांति कलकल करती अपने संगीत को रचती है। यह संस्मरण विधा में शब्द-संगत का वह संगीत है जिसमें एक बड़ा दर्पन लगा है और उसमें हम हमारा चेहरा डॉ. गर्ग के साथ देखते हुए यदि उसमें किंचित भी परिवर्तन परिवर्द्धन के लिए प्रेरित-प्रोत्साहित होते हैं तो यह इन कृतियों की सफलता है। छोटे बच्चों से बूढ़े पाठकों तक में समान रूप से पढ़े जाने की क्षमता रेखांकित करने योग्य है। इन कृतियों में से कुछ संस्मरण बच्चों की मासिक पत्रिका ‘बाल वाटिका’ में प्रकाशित हो चुकें हैं और इन्हें प्रत्येक वर्ग से काफी सराहना भी मिली है। 

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