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कविता हमें भीतर से मुलायम करती है/ डॉ. नीरज दइया

 

     कविता हमें भीतर से मुलायम करती है’ क्या यह अपने आप में एक कविता है अथवा एक कवि का बयान है? क्या यह कविता की कोई विशेषता के बारे में एक उद्घोषणा है अथवा उसकी किसी परिभाषा का प्रयास है? अथवा यह भी कहा जा सकता है कि यह कविता को लेकर एक कवि-दृष्टि है। यहां प्रख्यात कवि केदारनाथ सिंह की चर्चित कविता ‘हाथ’ का मैं स्मरण करना चाहता हूं। ‘उसका हाथ/ अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा/ दुनिया को/ हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए।’ इसका अभिप्राय यह भी है कि दुनिया गर्म और सुंदर नहीं है। अथवा उतनी नहीं जितनी कवि की अभिलाषा है। साथ ही यहां हम यह भी विचार करें कि दुनिया की मुख्य इकाई क्या है? कविता में दो हाथों का जिक्र है, जिसमें एक हाथ नायिका का और दूसरा नायक का है। प्रेम के रहते ही एक ने दूसरे का हाथ अपने हाथों में लिया होगा और यह भी सत्य है कि कठोर हृदय में प्रेम का निवास नहीं होता है। उसके लिए तो हृदय कोमल, मुलायम चाहिए। आज के इस दौर में हमारी कठोरता का दूसरा अर्थ समय की यांत्रिकता में हमारा फँस जाना भी है। ऐसे समय में साहित्य और खासकर कविता ही है जो मानव मात्र को भीतर से मुलायम बनाने की क्षमता और योग्यता रखती है। अस्तु कहा जाना चाहिए कि पंक्ति- ‘कविता हमें भीतर से मुलायम करती है’ में शब्दों का ऐसा सुंदर संयोजन है कि यह किसी सूक्ति की भांति प्रतीति देती है। संग्रह के दूसरे खंड ‘पीठ पर भी खिलती हैं प्रार्थनाएं’ के यह दो अंश भी देखें- ‘अंधेरे के झांसे में मत आइए!/ वह डराये तो भी, / हर अंधेरे के अंतिम द्वार का/ ताला उजास ही तोड़ता है।’ और ‘हौसला/ सुनहरे पुल की तरह होता है,/ जिस पर चलकर/ वेदना का दरिया पार किया जा सकता है।’ इन पंक्तियों में जो सहजता और सरलता है वह एक गहरी कला-दृष्टि और साधना की मांग करती है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि कविता को क्या कोई एक सर्वमान्य परिभाषा में बांधा जा सकता है? अथवा कहें- कविता को क्या बाँधा जा सकता है? कविता कोई यांत्रिक कार्य नहीं है इसके लिए बंधे-बंधाए फार्मूले और पूर्व व्यवस्थाएं हर बार नए ढंग से कवि के सामने आते हैं और कविता की यही संभावना उसे व्यापकता प्रदान करती है।

            आज जब साहित्य की विधाएं अपने दायरों को लाँघते हुए विविध विधाओं के परिवृत्त को छूते हुए उनसे मेल-जोल करते हुए आगे बढ़ रही है तो ऐसे में परंपरागत छंद-विधान अथवा रूढ़ मान्यताएं छोड़ते  हुए आलोचना को नए मानदंडों की तलाश करते हुए आगे बढ़ना होगा। आलोचना सदैव रचना केंद्रित होती है इसलिए इस चुनौती को आलोचना के समक्ष कोई रचना ही प्रस्तुत कर सकती है। काव्यालोचना के संदर्भ में एक ऐसी ही चुनौती  प्रस्तुत करने का साहस कवयित्री ऋतु त्यागी ने पुस्तकनामा से प्रकाशित अपने सद्य कविता-संग्रह ‘तितलियों के शहर में’ (2024) से किया है। आज जब विविध विधाओं में अनेकानेक प्रयोग हो रहे हैं, ऐसे में कवयित्री त्यागी ने अपने पूर्ववर्ती काव्य-संग्रहों- ‘कुछ लापता ख़्वाबों की वापसी’ (2018) ‘समय की धुन पर’ (2019) और ‘मुझे पतंग हो जाना है’ (2022) में कथ्य, भाषा और शिल्प को लेकर कुछ प्रयोग किए हैं। किंतु वे अपने चौथे कविता संग्रह में कविता की बनी बनाई सभी रूढ़ अबधारणाओं को छोड़ते हुए एक नई तलाश के लिए जिद और जुनून  के साथ नजर आती है। यहाँ  किसी भी काव्य-आयुध का आग्रह नहीं है वरन कविता के रास्ते में कुछ नई सोच और विचार भूमि में अपने कदम आगे बढ़ाने की निरंतरता में कुछ पा लेने का प्रयास भर है। ‘जो रंग पक्के नहीं होते, वो सबको अपने जैसा बनाने की जिद में अपना असली रंग छोड़ देते हैं, ठीक ऐसे ही हम भी करते हैं जब हम दूसरों को अपने जैसा बनाने की जिद पाल लेते हैं’ यहां जीवन की बहुत गहरी और गंभीर बात को बहुत आसानी से खोलकर जैसे सामने रख दिया गया है बिना किसी आग्रह अथवा पूर्वाग्रह के साथ। यह तटस्थता  और सहजता ही इन कविताओं को उल्लेखनीय बनाने का सामर्थ्य देती हैं।

            कवयित्री का कथन है- ‘अर्थवान शब्दों की रिमझिम बारिश में आत्म तर हो जाता है, फूल खिल जाते हैं और कहते हैं, जहां फूल उगते हैं वह शहर तितलियों का शहर बन जाता है।’ कहने का अभिप्राय यह है कि शब्दों की बारिश में भीग कर तर आत्म से कुछ शब्दों के फूल कवयित्री के हृदय-आंगन में खिलें  हैं तो उन तक इतनी तितलियां पहुंच गई हैं कि वह शहर ही तितलियों का शहर हो गया है। यह कल्पना की रंगीन दुनिया हमारी दुनिया से खोती चली जा रही है ऐसे में ऐसी दुनिया को कहीं बचाने का जतन इन कविताओं में देखा जा सकता है। ‘तितलियों के शहर में’ में कहने को तो दस कविताएं है, किंतु इन दस कविताओं में उनकी छोटी-छोटी अनेक कविताओं के समुच्चय उल्लेखनीय है। अस्तु यहां कहना चाहिए कि कवयित्री ने अपनी लघु कविताओं को दस खंड़ों में प्रस्तुत किया है।

            अपनी कविताओं में लघुता के आग्रह के विषय में स्वयं कवयित्री लिखती हैं- ‘तो मेरे सथ कुछ हुआ  यूं कि परिस्थितियां जब-जब मुझे सूई चुभोती, मैं लिखती। लिखते हुए ना जाने क्यों ! मैं हमेशा दीर्घ से ज्याद लघु पर रुकी। दोस्तों ने कहा ‘थोड़ा बड़ा लिखो’ पर मैं लघु पर अटकी रही या ऐसा भी हो सकता है कि मेरे पैन में स्याही ही इतनी हो, खैर ये जो भी था...  नदी के पानी की तरह था, लहरें उठती-गिरती रही... तट से टकराकर लौटती रही। मैंने बांध बनाने की कभी कोशिश नहीं की; बह जाने दिया... अच्छे-बुरे... वाद-प्रतिवाद से परे, जो लिखा गया वो मेरी ही  तरह लघु ही था।’ अतः यह कहा जाना चाहिए कि लघु, लघु और लघु को मिलाते हुए इस कविता के दस खंडों अथवा दस कविताओं में एक विराट को देखा जा सकता है। वैसे किसी भी विराट की संरचना-इकाई लघु ही होती है। दस खंडों की इन कविताओं में प्रत्येक खंड का आरंभ कवयित्री के एक मुकमल गद्य-कविता से किया है, जिसमें वे उस खंड विशेष की भावभूमि पर प्रकाश भी डालती हैं। उदाहरण के लिए तीसरे खंड- ‘समय की टिक-टिक’ में प्रस्तुत गद्य कविता के इस अंश को देखा जा सकता है- ‘यह समय प्रार्थनाओं का है, रंज और कोसने का नहीं है, बस बैठने का है, हमेशा चलते रहने से जो ऊर्जा का क्षय होता है उस ऊर्जा को स्थितिज ऊर्जा में बदलने का है। गतिज ऊर्जा हमेशा आवश्यक नहीं होती....’ असल में यह जिंदगी को देखने परखने और पढ़ने का एक नजरिया देने वाला कविता संग्रह है।

            चौथे खंड ‘जिंदगी की ऐनक का नंबर’ में कवयित्री कहती हैं- ‘जिंदगी जितना दौड़ाती है ना!/ उतनी ही मात्रा में सबक के  बोसे भी दे जाती है।’ यह कोई बहुत नया अनुभव और नई बात नहीं है बस इसे अपने स्थान पर कहने की भंगिमा और शब्द कुछ नए रूप में हमारे सामने आते हैं। जैसे कवयित्री अपने अनुभवों का सार इन कविताओं में लिख रही हो- ‘उदासियों को तोड़ना/ पर बेरहम कुतर्कों से नहीं/ प्रहस्त की मृदु थाप से।’ अथवा ‘जारी रखो लिखना/ पंक्तियों को काटो, या मिटाओ/ गिरा भी सकते हो कभी,/ पर ध्यान रहे!/ कविता हठीली ना हो।’ और  कहना होगा कि ऋतु त्यागी की इन कविताओं में किसी भी प्रकार का कोई हठ नहीं है। कविताओं के लिए यह हठ नहीं होना ही  इन कविताओं को सरलता, सहजता और ताजगी देता है। किसी भी प्रकार के आडंबर से दूर इन छोटी-छोटी कविताओं में कवयित्री ने जैसे कुछ बीज अथवा मंत्रों को साध दिया है और वे पाठकों के अंतस में अपना रूप ग्रहण करते हैं।

            पांचवे खंड ‘मन्नतों के बीज’ की इस लघु कविता को देखें- ‘आईना दौड़ता है/ और पकड़ लेता है/ चेहरे की/ महीन रेखाओं का/ गणितीय सूत्र/ चेहरा अपना/ कोण बदलकर/ आईने पर/ खड़े करता है सवाल।’ यह जीवनानुभव सांकेतिक रूप में जिस सरलता से अभिव्यक्त हुआ है उसमें गहरी अंतर्दृष्टी निहित है। जैसे- ‘आंख से टूटे हुए/ उस आंसू से सवाल मत करना!/ जिसे/ सिसकियों ने तोड़ा था।’ अथवा ‘एक अश्रु/ टूटा/ भटका.../ फिर गरदन के/ उस तिल पर/ जा अटका/ जिस पर/ तुम्हारा स्पर्श/ अभी शेष था।’ इन कविताओं को इसी प्रकार के अनेक स्पर्शों का स्मरण है जो अपने दुखों को सहलाते  समय फिर फिर याद आते हैं। अपनी कविता यात्रा के विषय में एक कविता में कवयित्री ने लिखा है- ‘क्षमा करो मुझे!/ मैं पृथ्वी पर/ अपनी इस यात्रा में/ पराजयों-विजयों का/ हिसाब नहीं कर पाई; / गणित की जगह मैंने/ कविताओं को चुना।’ जीवन का गणित समझना और उसे लिखना सहज नहीं है किंतु वही गणित जब कविताओं में रूपाकार होता है तो उसके साथ अर्थ का एक पूरा वितान जुड़ जाता है। कविता की यह दुनिया कवि और दुनिया के बचने की शरणस्थली है।

            संग्रह में कुछ कविताओं में भावों-विचारों की पुनरावर्ती देखी जा सकती है तो यह कविता- ‘यही एक तरीका था/ जिससे मैं/ समूची बच सकती थी,/ मैंने अपने/ नाखूनों को धारदार/ और कानों को/ भोथरा कर दिया।’ पृष्ठ संख्या 67, 80 और 84 तीन जगह संग्रह में शामिल है। जिसमें दो जगह इसे इसी रूप में और एक जगह गद्य कविता के अंश के रूप में प्रस्तुत किया गया है। अंत में बस इतना ही कि संग्रह की कविताओं के अर्थ बाहुल्य को द्विगुणित करने का कार्य खंडों के मध्य दिए प्रसिद्ध चित्रकार संदीप राशिनकर के रेखांकनों के किया है और यह कविता संग्रह अपनी नई दृष्टि और कुछ अवधारणाओं के लिए अवश्य पहचाना जाएगा।

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  समीक्षक : डॉ. नीरज दइया, बीकानेर (राज.)

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दुनिया वह नहीं दिखती, जो वाकई वह होती है!/ डॉ. नीरज दइया


'लौटा हुआ लिफाफा' कवि कुमार विजय गुप्त का सद्य प्रकाशित दूसरा कविता संग्रह है, जो उनके प्रथम काव्य संग्रह- 'खुलती हैं खिड़कियां' के 26 वर्षों बाद प्रकाशित हुआ है। हम जिस दौर से गुजर रहे हैं उसमें छपने-छापने की इतनी जल्दबाजी देखी जा रही है कि इतना धैर्य और विराम देखकर आश्चर्य होता है। प्रस्तुत संग्रह की कविताओं में उनके रचनाकाल को इंगित नहीं किया गया है, फिर भी यह कहा जा सकता है कि संग्रह की कविताएं कवि के पिछले 20-25 वर्षों में लिखी गई कविताओं से चयनित कविताओं का संकलन है। सबसे पहले शीर्षक कविता की बात करें तो कविताओं के क्रम में इसे संग्रह के मध्य में रखा गया है। इसका मध्य में रखे जाने का कोई विशेष अभिप्राय नहीं है किंतु मुझे लगता है कि इस कविता के द्वारा कवि की इन कविताओं की केंद्रीय भावभूमि की बात की जा सकती है। कविता का आरंभिक अंश देखें-
'निकाला था, तो झाड़े क्रीजदार/ लौटा, तो मुचराया हुआ'
इस कविता को पढ़ते हुए मैं कबीर को याद करता हूं जहां लौटने के भाव में चदरिया को ज्यों की त्यों रखे जाने की भावभूमि है। यहां यह कि लिफाफा जो संदेश और संभावनों के साथ भेजा गया था, वह लौटा तो उसके लौटने की व्यथा कथा कविता में है।

कवि कुमार विजय गुप्त असाधारण काव्य-प्रतिभा के धनी हैं। वे अपनी तमाम कविताओं में जिस किसी विषय को लेते हैं उसकी सारी संभावनाओं के साथ नए पुराने संदर्भों को भी अपनी कविता में जोड़ते हुए अभिव्यक्त करते हैं। कई बार तो हमें आश्चर्य होता है कि हमारी सोची-समझी जानी-पहचानी सीमाओं का भी वे अतिक्रमण करते हैं। उदाहरण के लिए इसी कविता का अंतिम अंश देखा जा सकता है-
'शुक्र, उन तमाम अनदेखी आत्माओं का/ कम-से-कम सकुशल लौट तो आया यह/ घर से भागे उस लड़के जैसा/ जो वापस आया हो फिर अपनों के बीच/ एक आंख में मासूमियत और दूसरी में/ पश्चाताप के आंसू छुपाते हुए!' यहां जिस सूक्ष्मता से आंखों में झांकते हुए कवि नवीन भाषा विधान में हमारे समक्ष मन की परतों को खोलता  है वह कुमार विजय गुप्त की कविताओं को असाधारण बनाता है।

संग्रह की कविताओं में विषयों की विविधता है, वही जीवन को समग्रता से देखने का उपक्रम भी. किसी भी रचना की प्रमाणिकता को निजी अनुभूतियां और परिवेश की स्थानीयता द्विगुणित करती है। प्रत्येक कवि की अपनी निजी अनुभूतियां होती है और इसी मौलिक अनुभव-दृष्टि से रचना में प्रभावशीलता प्रकट होती है। मुक्तिबोध ने लिखा है- 'गरबीली गरीबी यह, ये गंभीर अनुभव सब/ यह विचार-वैभव सब/ दृढ़ता यह, भीतर की सरिता यह अभिनव/ सब मौलिक है, मौलिक है।'  अपने भीतर की इसी मौलिकता को बचाए रखने के अनेक प्रयास इस संग्रह में हुए हैं।

एक विशेष बिंदु यह भी कि इन कविताओं में कवि के आवासीय जिले मुंगेर के साथ जमालपुर और भागलपुर जैसी जगहों के संदर्भों से कविता अपनी जड़ों के साथ उभरकर सामने आती है। 'डेढ़-डेढ़ रोटी और थोड़ी-थोड़ी खुशी' कविता में शहर मुंगेर का जुबली वेल चौक है तो 'गोलगप्पे खा रही लड़कियां' कविता में भागलपुर का वेरायटी चौक है. साथ ही इसी कविता की एक पंक्ति में कवि ब्यौरा देता है कि 'मुझे शाम के वक्त जमालपुर स्टेशन के परिसर में  खड़ा / चिड़ियों की चहचह से भरा एक घना वृक्ष याद आ रहा है।' यह सब बिंब जहां किसी दृश्य की प्रामाणिकता को अभिव्यक्त करते हैं वहीं हमें स्थानीयता से जोड़ते हुए मोटे तौर पर यह भी बताते हैं कि ऐसी जीवन स्थितियां, बदलाव और अनुभूतियां देश विदेश के किस भी शहर अथवा कोने में संभव है। क्योंकि जो मजदूर मुंगेर में बिकने के लिए खड़ा है वह केवल और केवल मुंगेर का दृश्य नहीं है, यहां के मजदूर की भांति देश दुनिया के सभी मजदूरों की पीड़ाएं आशाएं निराशाएं और दुख दर्द समान है। नया इसमें क्या है? अथवा कहें कि यह तो बस एक उदाहरण है। यहां अपनी निराशाओं में कुछ आशाएं, सपने, सुख को पाने-देखने का उनका अपना तरीका है। यहां भी वे तंगहाली में भी मिल-बांट कर बिना किसी शिकायत के खा-पी कर जीवन बसर कर रहे हैं। भागलपुर की लड़कियां देश के किसी भी कोने में मिल सकती हैं। यह नए समय के साथ अपने पंख फैला कर उड़ने की कामना चाहती हैं। स्वाद और समय को वे अपने नाम कर लेना चाहती हैं।

कुमार विजय गुप्त की कविताएं हमारे आस-पास के जीवनानुभवों को केंद्र में रखते हुए जिन घटनाओं और रूपकों को प्रस्तुत करती है, वे बहुधा ऐसे होते हैं जिन पर हमारा ध्यान नहीं जाता है अथवा वे हमारे आस पास होते हुए भी अनदेखे रहते हैं। एक अन्य कविता की बात करें जिसमें स्त्री-पुरुष की इस दुनिया में से कवि तीसरे वर्ग की बात अपनी कविता 'ट्रेन में ताली' में करते हुए हमारी संवेदनशीलता को छू रहा है। जिन्हें हम आपदा के रूप में लेते हैं, उनकी भी अपनी दुनिया और संवेदनाएं हैं। महज ताली से एक वर्ग की उपस्थिति और अनुभूति को प्रस्तुत करना कविता की विशेषता है। इसी प्रकार आधुनिकता और बाजार के हमले पर 'चोर जेब वाली कमीज़' एक बेहतरीन कविता है,  तो 'बासी रोटी ताजा चाय' में परंपरा और आधुनिकता का द्वंद्व है।

कुमार विजय गुप्त अपनी कविताओं में साधारण और मामूली चीजों को असाधारण और जरूरी के रूप में प्रस्तुत करने का हुनर रखते हैं . उनकी अनेक कविताओं में व्यंग्य की मीठी मार भी हमें प्रभावित करती है। 'कलम की खोली', 'मैं तर्जनी हूं',  दांव-पेंच', 'सरल रेखा' और 'समय की साज़िश' कविताओं को इस संदर्भ में देखा-पढ़ा जा सकता है। कुछ कविताओं में कविता और शब्द को लेकर कवि की विभिन्न स्थितियों में मनःस्थितियां चित्रित हुई हैं तो कहीं पुराने मिथकों की दुनिया को नए सन्दर्भों के साथ देखे जाने की बानगी प्रभावित करती है।

संग्रह के विषय में कवि-अनुवादक प्रभात मिलन लिखते हैं- 'ये कविताएं हमारे समय और संघर्ष का प्रोडक्ट हैं इसलिए इनको पढ़ते हुए किसी यूटोपिया से होकर गुजरने का बोध नहीं होता, और ने इनको पढ़ते हुए किसी कृत्रिम आशावाद और दुनिया को बदल देने की हवाबाज दावेदारी की अनुभूति होती है।'

कथात्मक और घटना प्रधान कविताओं में कवि जीवन के ऐसे मार्मिक प्रसंगों को छूता है कि वे हमारे भीतर कहीं अपनी मनःस्थितियों से तुलना का भाव जगाती हुई जैसे कुछ कहती हैं । अथवा इसे यूं कहा जाए कि ऐसा लगता है कि कवि ने हमारे ही मन की बात कागज पर उतार दी हो। पिता और मां को केंद्र में लिखी गई कविताओं में बिना किसी अतिरेक के बेहद सहजता सरलता के साथ जो बात कही गई है, वह हृदयस्पर्शी है। मां के साथ मोबाइल और पिता के साथ चश्मे का संदर्भ जिस सहजता में बड़ी बात करने में समर्थ है वह इन दिनों लिखी जा रही कविता में दुर्लभ है।
'पिता के चश्मे से/ दुनिया बेहतर दिखती तो है / किंतु वह नहीं दिखती जो वाकई वह होती है!' यह संग्रह दुनिया को अपने ढंग से देखने-परखने का एक प्रयास है। कहना होगा कि 'लौटा हुआ लिफाफा' एक महत्त्वपूर्ण काव्य-कृति है,  जिसे पढ़ना कविता के एक जरूरी और महत्वपूर्ण परिदृश्य को जानना है।
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काव्य-संग्रह : लौटा हुआ लिफाफा
बिम्ब प्रतिबिम्ब प्रकाशन , फगवाडा (पंजाब)
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समीक्षक : डॉ नीरज दइया

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चुनिंदा बाल कहानियों में बचपन / डॉ. नीरज दइया

समकालीन भारतीय बाल-साहित्य में राजस्थान के जिन गिने-चुने बाल साहित्यकारों के नाम लिए जाते हैं उनमें दीनदयाल शर्मा एक प्रमुख नाम है। वे विगत पचास वर्षों से हिंदी और राजस्थानी बाल-साहित्य लेखन में सक्रिय हैं और आपकी पांच दर्जन से अधिक पुस्तकें विभिन्न विधाओं में प्रकाशित हो चुकी है। शर्मा को राजस्थानी बाल साहित्य संस्मरण-कृति ‘बाळपणै री बात’ पर केंद्रीय साहित्य अकादेमी नई दिल्ली के बाल साहित्य अकादेमी पुरस्कार के अतिरिक्त अनेक मान-सम्मानों से नवाजा जा चुका है। उनकी अनेक कृतियों का अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद भी हुआ है। वे अब भी अपनी पहली सी लगन, निष्ठा और उत्साह के साथ बाल साहित्य के क्षेत्र में सक्रिय हैं और ‘टाबर टोळी’ नामक पाक्षिक समाचार पत्र का संपादन-प्रकाशन भी कर रहे हैं। अस्तु कहा जा सकता है कि बाल-साहित्य लेखन के लिए प्रौढ़ावस्था में भी दीनदयाल शर्मा ने अपनी सुकोमल भावनाओं के साथ बालकों जैसे मन को अपने भीतर बचा कर रखा हुआ है और समाज में साहित्य और शिक्षा द्वारा संस्कार निर्माण की दिशा में भी वे सक्रिय हैं।
    बाल साहित्य लेखन के लिए बहुत विद्वतापूर्ण अथवा जटिलताओं से भरी संकल्पना की आवश्यकता नहीं होती है, वे तो जिस सहजता-सरलता के जरिए बाल-हृदय को स्पर्श कर सके वही अनुकूल होती हैं। इसी प्रकार की भावना लिए बालसाहित्यकार दीनदयाल शर्मा सतत रूप से सक्रिय हैं। उनके अब तक हिंदी में पांच बाल-कहानियों के संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। चिंटू-पिंटू की सूझ (1987), बड़ों के बचपन की कहानियां (1987), पापा झूठ नहीं बोलते (1997), चमत्कारी चूर्ण (2003) और मित्र की मदद (2016)। सद्य प्रकाशित ‘दीनदयाल शर्मा की चुनिंदा बाल कहानियां’ (2024) उनके पूर्ववर्ती संकलनों से कुछ चयनित और कुछ नई कहानियों का संग्रह है। इस संग्रह में इन बाल-कहानियों के पूर्ववर्ती प्रकाशन अथवा रचनाकाल से संबंधित विवरण नहीं दिया गया है किंतु संग्रह में लेखक ने अपनी दस चुनिंदा कहानियों को संकलित किया है तो कहा जा सकता है कि यह उनके अब तक के लेखन की श्रेष्ठतम कहानियां हैं।
     दीनदयाल शर्मा के बाल साहित्य लेखन की यह विशेषता है कि वे बाल मन के अनुरूप ऐसी भाषा-शैली और शिल्प का चुनाव करते हैं जो उनके बेहद करीब होता है। आम बोलचाल की भाषा में ऐसी जीवन स्थितियों को इन कहानियों में संजोया गया है जो देश-काल की सीमाओं को लांघती हुई किसी भी भूभाग के बालकों के लिए उतनी ही प्रासंगिक है जितनी की उनके यहां के बालकों के लिए। लेखक का संबंध राजस्थान के शिक्षा विभाग से रहा है और वे विभिन्न सरकारी विद्यालयों में सेवाएं दे चुके हैं इसलिए बाल मनोविज्ञान की गहरी जानकारी व्यावहारिक रूप से भी होनी स्वाभाविक है। संग्रह की पहली कहानी ‘यह भी एक कहानी है’ में पांचवी कक्षा की छात्रा निशा का अपने पापा से कहानियां सुनने का चाव अद्वितीय है, संभवतः लेखक की यहां यह कामना रही है कि बच्चों को अब भी घर-परिवार में दादी-नानी की भांति किस्से कहानियों से जोड़े रखा जाना जरूरी है। आधुनिकता के चलते एकल परिवार की अवधारणा विकसित हुई है किंतु उस परंपरा को नए रूप में स्वीकार किया जा सकता है। वहीं इस कहानी में शिक्षक और शिष्य के संबंधों पर भी प्रकाश डाला गया है। यहां यह भी कहा जा सकता है कि बाल साहित्यकार दीनदयाल शर्मा की अधिकांश बाल कहानियों के केंद्र में स्कूली विद्यार्थी रहे हैं और वे बहुधा छोटे-छोटे घटनाक्रम को संयोजित करते हुए किसी एक दिशा में कहानी को केंद्रित कर देते हैं। उनका यह कौशल ही उनकी सीमा कहा जा सकता है, क्योंकि ‘प्रहेलिका की पहेलियां’ जैसी कहानियों को किसी शिक्षाप्रद अवधारणा में संकुचित नहीं करते हुए वे एक स्वतंत्र वितान देते हैं जो उल्लेखनीय है। इसी प्रकार ‘अंजू की सीख’ बाल कहानी में छोटी अंजू जो कहानी की नायिका है वह बड़ों जैसी बातें करती हैं और प्रभावित करती है।
    ‘सबसे बड़ा उपहार’ बाल कहानी में पुस्तकों के महत्त्व को प्रतिपादित किया गया है और इसलिए जन्मदिन के साथ-साथ अमिताभ बच्चन की स्टार वन शुद्ध शब्द प्रतियोगिता की कल्पना मनोरंजन है। यहां यह भी प्रश्न किया जा सकता है कि आज के बच्चे क्या इस प्रकार की परिकल्पना पर विश्वास कर सकेंगे जाहिर है इसका उत्तर नहीं है किंतु फिर भी शब्द और सहित्य से जोड़ने के लिए इस प्रकार के प्रयास सराहनीय कहे जाएंगे। बाल कहानी ‘कैसे आया बदलाव’ में महापुरुषों के अनमोल वचनों से हृदय परिवर्तन को स्कूल से कंप्यूटर चोरी प्रकरण में दिखया गया है। जब समाज के ढांचे में आमूलचूल परिवर्तन हो चुका है ऐसे समय में इससे बेहतर क्या हो सकता है कि बाल कहानी ‘पापा झूठ नहीं बोलते’ में लड़के और लड़की के अंतर को बहुत ही सुंदर ढंग से उजागर किया है। हम लड़का-लड़की समानता की बातें करते हैं किंतु कुछ मामलों में समाज अब भी अपनी पुरानी अवधारणाओं को ढोता चला आ रहा है। लेखक का यह सोच रेखांकित किए जाने योग्य है कि जब बदलाव हुआ है तो वह सकारात्मक होना चाहिए और सभी क्षेत्रों में होना चाहिए। यह कहानी पाठकों में भावनात्मक रूप से हृदय पर अपनी गहरी छाप छोड़ती है। कहानी के अंत में पापा का कथन बेहद मार्मिक है- “सुरभी के इतना पूछते ही उसके पापा का गला रुंध गया। उन्होंने बेटी को बांहों में लेते हुए रुंधे गले से कहा- कंचन सच्ची है बेटा... कंचन सच्ची है। मैं तो तुझे खुश करने के लिए झूठ बोल गया था। मुझे माफ कर दो बेटा। मुझे माफ कर दो।” (पृष्ठ-39)
    बाल कहानी ‘इनाम और सजा’ में भी स्कूली जीवन है और शिक्षा के साथ-साथ संस्कारों का महत्त्व स्थापित करने का प्रयास है तो दूसरी तरफ ‘पश्चाताप के आंसू’ में शिक्षक द्वारा अपने विद्यार्थियों में चोरी नहीं करने से संबंधित शिक्षा को केंद्र में रखते हुए घटनाक्रम को बुना गया है। बाल कहानी ‘लेखराम जी की गाय’ में गाय के ऊपर के दांत नहीं होते हैं इस अवधारणा पर रोचक ढंग से खुलासा किया है तो ‘चमत्कारी चूर्ण’ में भाई-बहन के प्यार और ढोंगी बाबाओं के झूठ को उजागर करने का प्रयास है। कुल मिलाकर देखा जाए तो इन कहानियों में पठनीयता के साथ साथ शिक्षा और संस्कारों की वे बातें है जो आज के समय में बेहद जरूरी है। इन कहानियों के माध्यम से ना केवल बालसाहित्यकार दीनदयाल शर्मा की बाल कहानी-यात्रा को जाना जा सकता है वरन इक्कीसवीं शताब्दी में बाल कहानी में आए बदलावों से भी परिचित हुआ जा सकता है।    
    

समीक्षक : डॉ. नीरज दइया


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व्यंग्य ने जिसे चुना : प्रेम जनमेजय/ डॉ. नीरज दइया


 समकालीन हिंदी साहित्य में और खासकर व्यंग्य के क्षेत्र में एक बहुत बड़ा नाम है- प्रेम जनमेजय। यह पंक्ति मैंने बहुत सम्मानपूर्वक लिखी है, किंतु यह पंक्ति मेरी मौलिक अथवा निजी स्थापना नहीं है। यह सबका या कहें व्यंग्य को जानने वालों का मानना है, और यहां मैं ‘बड़ा नाम’ पद को प्रयुक्त करते हुआ कुछ डर रहा हूं। मेरे डर का कारण मेरे भीतर जो अदना सा एक व्यंग्यकार है वह बिना अवसर के भी कभी भी चेतन अवस्था में आ जाता है। मैंने मेरे लिए ‘अदना’ शब्द इस संदर्भ में प्रयुक्त किया है कि आदरणीय प्रेम जनमेजय जैसे बड़े व्यंग्यकार और संपादक के सामने मेरा इस क्षेत्र में कार्य बहुत सामान्य और थोड़ा-सा है। मैं अपने भीतर के व्यंग्यकार को रोकता हूं कि यह बात कहने की तेरी औकात नहीं है। मैं यह भी नहीं जानता हूं कि प्रेम जनमेजय जी की प्लैटिनम जयंती के अवसर यह बात कितनी उचित अथवा अनुचित है। किंतु कहावत है और लोग इसे रसीली मानते हैं। लोगों का तो यह भी कहना हैं कि बड़े आदमियों के दोस्त और दुश्मन दोनों होते हैं। मैं इन खेमों से दूर हूं और यह विश्वास के साथ कह सकता हूं कि प्रेम जनमेजय जिस प्रकार के लेखक हैं, उनके दुश्मन ढूंढ़ने से भी नहीं मिलेंगे। दोस्त तो उन के देश-विदेश में असंख्य हैं। खैर, जिस कहावत की तरफ मैंने संकेत किया उसे आप जान गए होंगे- ‘नाम बड़े और दर्शन छोटे’। मेरा दावा है कि यह कहावत भले कितनी ही रसीली हो, किंतु यहां इससे रस नहीं निकलने वाला है। माफ करें मुझे, मैं तो बस यहां आपको अपने पाठ की गिरफ्त में लेना चाहता था। प्रेम जी का नाम भी बड़ा है और उनके दर्शन भी। उनके पास ऐसा बहुत कुछ है जिनसे हम सीख सकते हैं।
    प्रेम जनमेजय जी अब उम्र के उस मुकाम जो पार कर रहे हैं जहां पहुंच कर मन होता है कि जो कुछ इस संसार से ग्रहण किया है पाया है उसे किसी न किसी रूप में लौटा दिया जाए। आपका रचना-संसार बहुत बड़ा और व्यापक है। जब मैंने उन्हें एक लेखक के रूप में जाना, तब वे बहुत बड़े लेखक के रूप में स्थापित हो चुके थे। मेरा यह वह दौर था जब मैंने जयशंकर प्रसाद के नाटक ‘जनमेजय का नाग-यज्ञ’ पढ़ा और ‘जनमेजय’ से मैं प्रेम जनमेजय की छवि देखता था। माना कि यह संज्ञा प्रसाद जी के नाटक में धनुर्धारी अर्जुन के पौत्र के लिए प्रयुक्त है, किंतु मेरे मन का क्या? वह तो जनमेजय के रूप में प्रेम जी से ही साम्य रखे हुए है। बाद में मैंने पढ़ते-लिखते जाना कि प्रेम जनमेजय के व्यंग्य अर्जुन के निशाने की भांति अचूक होते हैं। अर्जुन को जिस प्रकार चिड़िया की आंख के अलावा कुछ नहीं दिखता था, वैसे ही प्रेम जनमेजय जी की व्यंग्य को लेकर स्थिति है। हिंदी साहित्य में बहुत कुछ है, अनेक विधाएं हैं किंतु प्रेम जनमेजय जी का व्यंग्य को लेकर लंबे समय से समर्पण देखा जा सकता है। इसी के रहते यदि यह कहा जाए कि हिंदी साहित्य में उनको व्यंग्य के अतिरिक्त कुछ दिखाई नहीं देता है तो गलत नहीं होगा। वे चाहते तो साहित्य की अन्य अन्य विधाओं में भी सतत कार्य कर सकते थे। किंतु अब तक का हिसाब यह है कि आपने व्यंग्य के क्षेत्र में विपुल योगदान दिया है। व्यंग्य लेखन ही नहीं संपादन और व्यंग्य विधा के उन्नयन के लिए साथी लेखकों को प्रेरित प्रोत्साहित करने का कार्य किया है। वे हर बात का मर्म पहचानते हैं। वे बहुधा जो कहना है उसे कहने से नहीं चूकते हैं। कभी सीधे तो कभी लपेट कर बात कहते हैं। आज यदि व्यंग्य को स्वतंत्र विधा के रूप में जाना-पहचाना जाने लगा है तो इसे स्थापित करने में जिन प्रमुख रचनाकारों का नाम लिया जाता है, उनमें एक प्रमुख नाम प्रेम जनमेजय जी का है।
      प्रेम जनमेजय जी को मैंने पढ़ा तो बहुत पहले से था किंतु उनसे पहली मुलाकात मई, 2019 में बीकानेर और दूसरी सितंबर, 2021 में श्रीगंगानगर में हुई। उम्मीद पर दुनिया कामय है इसलिए तीसरी मुलाकात भी जल्दी होगी ऐसा मानते हुए यहां कहना चाहता हूं कि दूसरी मुलाकात काफी सघन और यादगार रही। हुआ यूं कि सृजन सेवा संस्थान और नोजगे पब्लिक स्कूल, श्रीगंगानगर के द्वारा आयोजित ‘राष्ट्रीय व्यंग्य संगोष्ठी’ में भाई कृष्ण कुमार ‘आशु’ ने आदरणीय हरीश नवल, सुभाष चंदर और प्रेम जनमेजय जी के साथ-साथ बीकानेर से मुझे और बुलाकी शर्मा आदि को भी कार्यक्रम में आमंत्रित किया था। जैसा कि मैंने कहा कि मैं प्रेम जनमेजय जी से ‘प्रभावित’ तो था, किंतु इस दूसरी मुलाकात के बाद ‘बेहद’ विशेषण के रूप में जुड़ गया है। मेरे बेहद प्रभावित होने के कारणों को जब मैं तलाशता हूं तो पाता हूं कि आदरणीय प्रेम जनमेजय जी के साथ जब आप होते हैं तो बहुत अच्छा लगता है। वे बेहद उदारमना और मित्रवत लेखक के रूप में व्यवहार करते हैं। यदि मुझे कहने की अनुमति हो तो यहां यह तक कह सकता हूं कि वे साहित्य परिवार के एक बड़े-बुजुर्ग की भांति स्नेह लुटाने में कोई कमी नहीं रखते हैं। ऐसा नहीं है कि उनका भरपूर स्नेह केवल मुझे मिला हो, जो भी उनके संपर्क में आए है उसे यह अनुभूति अवश्य हुई है कि वे अपने सभी साथी रचनाकारों को अग्रजों और अनुजों सरीखा मान-सम्मान प्यार-दुलार देते हैं। उन पर मुग्ध होने का एक कारण यह भी है कि वे हर किसी से बड़े आदर और सम्मान के साथ मिलते हैं, उनके अपनेपन की एक महक चारों तरफ बिखरी मिलेगी आपको।
    केवल हंसमुख और मिलनसार स्वभाव प्रेम जी की खासियत नहीं है, खासियत है इन सब को हमारे बर्तमान समय और लेखक-समाज में बचाए रखना है। आज के दौर में जब आदमी अनेक क्षेत्रों में कार्यरत रहता है तो उसके पास इतना समय नहीं होता है कि वह सब को पर्याप्त समय दे सके। घर-परिवार, मित्र, सगे-संबंधियों के बीच ‘व्यंग्य-यात्रा’ का नियमित प्रकाशन-संपादन निसंदेह एक बहुत बड़ा काम है। वे पत्रिका के साथ अपने वरिष्ठ लेखकों पर पुस्तकें लिख रहे हैं, संपादित कर रहे हैं और साथ में खुद का नियमित लेखन। इन दिनों ऑनलाइन पत्रिका भी हमारे समाने हैं। कभी-कभी आश्चर्य होता है कि वे इतना समय कैसे निकाल लेते हैं!
    प्रेम जनमेजय जी की सफलता का सबसे बड़ा रहस्य है- उनका लगातार व्यंग्य के क्षेत्र में कर्मठता से सक्रिय रहना। आपके अब तक तेरह व्यंग्य संकलन, तीन व्यंग्य नाटक, दो संस्मरणात्मक कृतियां प्रकाशित हो चुकी हैं। अनेक विश्वविद्यालयों द्वारा आपकी रचनाओं पर शोध कार्य हुए हैं। प्रेम जनमेजय जी की लंबी साहित्यिक-यात्रा पर विस्तार से लिखा जा सकता है। किंतु यह सच्चाई है कि मैंने आपकी सभी व्यंग्य रचनाएं पढ़ी नहीं है, इसलिए व्यंग्य-अवदान पर लिखना फिलहाल टालते हुए यहां मैं संक्षेप में उनके सद्य कविता-संग्रह ‘मेरी नादान काव्याभिव्यक्तियां’ पर अपनी बात केंद्रित करना चाहता हूं। यह चर्चा यहां इसलिए भी जरूरी लगती है कि हाल ही में प्रेम जनमेजय जी को साहित्य अकादेमी ने कविता पाठ के लिए आमंत्रित किया है और कुछ मित्रों का कहना है कि प्रेम जी ने पाला बदल लिया है। मेरा कहना है कि यह जल्दबाजी में दिया गया बयान है। क्योंकि व्यंग्य ने जिसे चुना बह प्रेम जनमेजय है और वे कविता या किसी अन्य विधा क्षेत्र में रहते हुए भी व्यंग्य की ही बात करेंगे।     प्रेम जनमेजय जी ने अपने कविता संग्रह ‘मेरी नादान काव्याभिव्यक्तियां’ में अपनी बात ‘सुप्त काव्यकीटक का पुर्नजागरण’ शीर्षक से लिखी है। जिसमें उन्होंने लिखा है कि वे व्यंग्य लेखन में बाद में आए, उससे पहले कहानीकार और कवि के रूप में काफी काम किया था। कविता-संग्रह का श्रेय वे हरीश नवल जी और डॉ. संजीव जी को देते हुए बहुत सी बातों को भूमिका में विस्तार से लिखा गया हैं। इसी संग्रह में कवि-आलोचक दिविक रमेश और नीरज कुमार मिश्रा के आलेख हैं। ये दोनों आलेख प्रेम जी की कविता के पक्ष में लिखे गए हैं, जो इन कविताओं की पृष्ठभूमि के साथ समझने में बेहद सहायक कहे जा सकते हैं। सब कुछ गुडी-गुडी होने के बाद भी मेरा मानना है कि इस पुस्तक का प्रकाशन जल्दबाजी में किया गया है। हालांकि प्रेम जनमेजय जी ने लिखा है- “मैं अपनी किताब पर गंभीरता से काम करता हूं और कच्चापन बर्दाशत नहीं।” साथ ही इस कृति के लिए उन्होंने ‘तुतलाते साहित्य’ पद प्रयुक्त किया है। प्रेम जी की इस बात पर संदेह नहीं है कि वे किताब पर गंभीरता से काम करते हैं किंतु प्रकाशक ने यहां उनकी गंभीरता को खंडित किया है।
    संग्रह के विषय में सर्वप्रथम तो यह कि इसमें प्रेम जनमेजय की अलग-अलग दौर और मनःस्थितियों में लिखी कविताएं संग्रहित है। अच्छा होता कि कविताओं के साथ उनका रचनाकाल भी दिया जाता। दूसरा यह भी कि अनेक स्थलों पर प्रूफ की भूलों के साथ ही अनुक्रम में पृष्ठ संख्या दर्ज नहीं है। साथ ही कुछ कविताओं को किसी अन्य कविता के हिस्से के रूप में मर्ज कर दिया गया है। यह जिसे आप ‘तुतलाते साहित्य’ और ‘नादान’ जैसे नामों से परिचित करा रहे हैं इसमें भी नादानी अथवा अभिव्यक्ति की कमी नजर नहीं आती है। प्रेम जनमेजय गहरे अध्येयता और साहित्य के रसिक रहे हैं साथ ही लंबे समय तक प्राध्यापक के रूप में साहित्य से जुड़े रहे हैं। आप ने देश-विदेश के अनेक विश्वविद्यालयों में अपनी सेवाएं दी है। ऐसे में कोई कैसे मान सकता है कि हिंदी कविता के बदलते मिजाज से आप पूर्णरूपेण परिचित ही नहीं हैं, ये सभी नादानियां भी है तो सोच समझ कर पूरे होश-ओ-हवास के साथ है। यह जरूर है कि आपने नियमित रूप से कविताएं नहीं लिखी किंतु एक लंबे दौर- छायावद से नई कविता की महक इन कविताओं में है। विद्यार्थियों को आपने अनेक हिंदी कवियों की कविताओं के मर्म को समझाया है। वे इस क्षेत्र के ओर-छोर से पूर्णतः परिचित हैं।
    ‘प्राध्यापक’ शीर्षक से छोटी व्यंग्य कविता है, जिसमें कवि ने विनोद किया है- ‘नवीन, कुंजियों को/ नक्ल अक्ल से कर-कहने वाली/ -एक मशीन-’ इसके पश्चात की कविता जिसे अनुक्रम में ‘मॉड’ शीर्षक दिया है उसे भी इस कविता के हिस्से के रूप में मर्ज कर प्रस्तुत करने की नादानी यहां जरूरी हुई है। शिक्षक और विद्यार्थी के ज्ञान और संबंधों के विषय में विरोधाभास को वे व्यंग्य के माध्यम से वे उजागर करते हैं। गहरे व्यंग्य का स्वर भी अनेक कविताओं में प्रमुखता से देखा जा सकता है।    
    इस संग्रह में संकलित कविताओं में बदलती काव्य-भाषा के विभिन्न रूपों को देख सकते हैं, वहीं छंद-गीत और नई कविता के अनेक अयामों को उद्घाटित होते भी देखा जा सकता है। ‘हमारा हिंदी गीत’ में हिंदी की महिमा का गान हुआ है, तो जहाजी चालीसा और मुक्तक-दोहा आदि का भी अपना महत्त्व है। ‘कुछ मुक्तक’ के साथ ‘असफल गीत’ को मिला कर मुद्रित किया गया है। संभवतः अनुक्रम में चार खंडों को करने का प्रयास हुआ है किंतु जितनी और जैसी गंभीरता से संपादन-प्रकाशन का काम होना चाहिए, वह इस संस्करण में नहीं हुआ है। ऐसा लगता है कि सुप्त काव्यकीटकों को फिर से सुलाने का कुछ काम जाने-अनजाने में हुआ है। इतना सब कुछ होने के बाद भी ऐसा बिल्कुल नहीं है कि ‘ऊंची दुकान फीके पकवान’। पकवान तो मीठे ही हैं, जितना उन्हें मीठा होना चाहिए था। बस इन पकवानों को अगर आप पहचान सकेंगे तो निसंदेह इस कृति को पढ़कर आनंद आएगा। यह प्रेम जनमेजय की अतिरिक्त मेधा का परिचय देने वाली कृति है। मेरा मत है कि यह कृति असल में आनंद देने-लेने के लिए ही तैयार की गई है। कवि ने श्री नागार्जुन से क्षमा-याचना सहित एक कविता ‘आपात अकाल चर्चा’ इस संग्रह में संकलित की है, जिसे अनुक्रम में ‘आकाल-चर्चा’ नाम दिया गया है। साथ ही यह कविता ‘पत्रोत्तर’ के नीचे प्रकाशित हुई है। कविता का अंश देखिए- ‘बहुत दिनों तक जनता सोई/ संसद रही उदास/ बहुत दिनों तक पत्नी सोई/ डरे पति के पास।’ ऐसी पेरोड़ी व्यंग्य कविता कोई अकवि अथवा कुकवि नहीं लिख सकता है इसलिए मेरा मत है कि बेशक यह हिस्सा आपके साहित्य में तुलनात्मक रूप से बहुत छोटा हो किंतु यह एक जरूरी हिस्सा है जिसे देखा-समझा जाना चाहिए। प्लैटिनम जयंती के अवसर पर आदरणीय कवि प्रेम जनमेजय जी को अपार शुभकामनाएं।
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डॉ. नीरज दइया



 






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लघकथा विधा सूं ‘भ्रमर’ री अपणायत/ डॉ. नीरज दइया

    भंवरलाल ‘भ्रमर’ राजस्थानी रा चावा-ठावा कहाणीकार अर संपादक रूप जाणीजै। आपरा तीन कहाणी-संग्रै ‘तगादो’, ‘अमूझो कद तांई’ अर ‘सातूं सुख’ घणा चर्चित रैया। कहाणियां रै अेक संपादित संग्रै ‘पगडांडी’ रो जस ई आपरै नांव। बाल उपन्यास ‘भोर रा पगलिया’ अर लघुकथा संग्रह ‘सुख सागर’ (1997) ई राजस्थानी में छप्योड़ा। आपरै संपादक-रूप री बात करां तो ‘मनवार’ (1981) नांव सूं कहाणी पत्रिका काढी, जिण रो फगत अेक अंक ई साम्हीं आयो। मुरलीधर व्यास ‘राजस्थानी’ री प्रेरणा सूं राजस्थानी कहाणी रै विगसाव सारू आप घणा जतन करिया। कहाणी विधा रै विगसाव नै लेय’र ‘मरवण’ (1986) नांव सूं अेक तिमाही पत्रिका आप बरसां-बरस आपां साम्हीं राखी। ‘मरवण’ सूं अेक कथा आंदोलन री सरुआत हुई। इण रा कहाणी-अंक, व्यंग्य अंक अर ‘कनक सुंदर’ उपन्यास अंक बरसां याद करीजैला। इणी ढाळै आप राजस्थानी भाषा साहित्य अेवं संस्कृति अकादमी बीकानेर री पत्रिका ‘जागती जोत’ रै अेक अंक संपादित करियो। इण नै लघकथा विधा सूं ‘भ्रमर’ री अपणायत ही कैय सकां कै बां लघुकथा विधा री सबळी ओळखाण खातर ‘अपणायत’ (1996) नांव सूं अेक पत्रिका सरु करी।
    पत्रिकावां रै इतिहास मांय भंवरलाल ‘भ्रमर’ री इतिहासू भूमिका मानी जावैला क्यूं कै कोई पण लघुपत्रिका काढणी अर उण नै चलावणी घणो अबखो काम है। कैवै कै पत्रिका काढणो हाथी पाळणो हुवै। नफै री बात तो कठैई कोई कोनी, इण सूं खुद री रचनात्मकता अर पइसा-टका रो नुकसाण ई साफ निजर आवै। संपादन नै केई-केई स्तर माथै सैयोग चाइजै। आर्थिक समस्या हल करै तो ढंग री रचनावां री समस्या अर उण रै संपादन पछै छापैखानै री समस्या। आजकलै तो छपाई कंप्यूटराइज हुया केई सुभीता हुया है भ्रमर जी री टैम राजस्थानी नै लेय’र छापाखाना री घणी अबखाई ही। अबखाई तो हाल ई है कै राजस्थानी नै सावळ टाइप करणियां टाइपिस्ट साव कमती है जिका नै इण काम री जाणकारी है। भ्रमर जी रै साम्हीं आयै छपाई रै अबखै काम में सदीव राजस्थानी रा विद्वान लेखक माणक तिवाड़ी ‘बंधु’ रो मोटो सैयोग रैयो। तिवाड़ी जी खुद प्रेस लाइन सूं जुड़ियोड़ा हा अर ‘मरवण’ अर ‘अपणायत’ रै प्रकाशन नै लेय’र बां घणी मैनत करी। ‘अपणायत’ रो चौथो अर पांचवो अंक कंप्यूटराइज हुवण सूं उणां में लारलै अंक सूं फरक साफ-साफ निगै आवै। अबै जरूरत ‘अपणायत’ अर दूजी दूजी पत्र-पत्रिकावां रै पीडीएफ का इमेज रूपां नै इंटरनेट रै हवालै सूंपण री जिण सूं आगै रै सोध-खोज रै कामां मांय सुभीतो हुवै। अबै अपणात पत्रिका का किणी दूजी पत्रिका का जूना अंक कठै मिलै अर बां बाबत पुखता जाणकारी ई कठै। राजस्थानी मांय इण ढाळै रै कामां री अंवेर हुवणी चाइजै।
    विगतवार बात करां तो लघुकथा विधा रै विगसाव नै लेय’र भंवरलाल ‘भ्रमर’ घणी हूंस साथै ‘अपणायत’ नै तिमाही रूप काढण री योजना बणाई ही। पत्रिका रो पैलो अंक मार्च, 1996 मांय पाठकां साम्हीं राख्यो। पत्रिका रो दूसरो अंक जून में आवणो हो पण नीं आय सक्यो। बरस 1996 रा लारला दोय अंक-  सितंबर अर दिसंबर में बगतसर प्रकाशित हुया। उण पछै बरस 1997 रै दिसंबर महीनै में ‘अपणायत- 4’ आपां साम्हीं आवै, उण पछै अेक मोटो गेप अर ‘अपणायत- 5’ रो अंक दिसंबर, 2007 में पाठकां साम्हीं आवै। इण कमी रै छता अठै आ कम मोटी बात मानीजैला कै कोई संपादक राजस्थानी में लघुकथा विधा री स्वतंत्र पत्रिका का पांच अंक काढ्या। अपणायत रो छठो अंक तैयार जरूर करीज्यो पण प्रेस में अटकग्यो अर पछै इण ढाळै रो कोई काम राजस्थानी में कोनी हुयो।
    आज देखां तो राजस्थानी री कोई पत्रिका लघुकथा रै विगसाव पेटै समरपित कोनी। बगत-बगत माथै पत्रिकावां में लघुकथावां छापै पण दुर्गेश टाळ कोई दूजो लेखक कोनी जिण सूं लघुकथा विधा री का उण लेखक री ओळखाण राजस्थानी लघुकथाकार रूप बणी हुवै। फगत अेक पत्रिका- ‘राजस्थली’ है, जिकी बरसां पैली लघुकथा केंद्रित विशेषांक काढ्यो। इणी ढाळै जे लघुकथा रै संपादित ग्रंथां री बात करां तो इण विधा रो पैलो संपादक हुवण रो जस कवि श्याम महर्षि नै जावै, बांरै संपादन में अेक लघुकथा संग्रै प्रकाशित हुयो। प्रयास संस्थान अर रामकुमार घोटड़ इण दिसा में काम करिया है अर ‘मिणिया मोत’ नांव सूं पैलो व्यवस्थित संपादित लघुकथा संग्रै साम्हीं आयो। काम तो केई हुया अर भळै ई हुवैला पण अठै भंवरलाल ‘भ्रमर’ री बात करूं तो कैयो जावैला कै बां मांय संपादन नै लेय’र अेक गैरी दीठ देखी जाय सकै।
    अपणायत-1 सूं 5 तांई हरेक अंक मांय संपादक आपरै संपादकीय मांय लघुकथा विगसाव री बातां नै लेय’र चिंता करै साथै ई अंक नै न्यारा-न्यारा संतभां सूं उल्लेखजोग बणावण री खेचळ ई करै। दाखलै रूप बात करां तो बडेरा लेखकां री लघुकथा लेखन रचनात्मकता नै दरसावण सारू ‘धरोड़’ स्तंभ में मुरलीधर व्यास ‘राजस्थानी’ सांवर दइया, श्रीचंद राय, नृसिंह राजपुरोहित, दुर्गेश री लघुकथावां अेकठ प्रकाशित करी तो किणी लेखक री अेकठ रचनात्मकता रै दरसाव सारू ‘हेमाणी’ स्तंभ में नीरज दइया, डॉ. मनोहर शर्मा, भंवरलाल ‘भ्रमर’, बुलाकी शर्मा, उदयवीर शर्मा री लघुकथावां नै ठौड़ दीवी। अठै सवाल ओ पण करियो जावणो चाइजै कै लेखकां रै नांव मांय वरिष्ठता रो ध्यान क्यूं नीं राखीज्यो तो इण पेटै म्हारो कैवणो है क्यूं कै म्हैं ई संपादन रै काम सूं जुड़ाव राखूं कै किणी पण पत्रिका रै संपादक साम्हीं बगत बगत माथै केई अबखायां रैवै। रचनावां नै संपादन रै मारग सोधणो अर संजोवणो सरल नीं है अर जे भंवरलाल ‘भ्रमर’ जद कदैई कोई लघुकथा रो संकलन संपादित करैला तद बै अवस वरिष्ठता क्रम का अकादि क्रम सूं लघुकथा लेखकां नै राखैला।
    म्हारै इण आलेख रो मकसद लघुकथा लेखकां अर बां रै संग्रां रा नांव गिणावण रो नीं मानता थकां म्हैं कैवणी चावूं कै लघुकथावां रै विगवास री सोध करणिया आ पण कैवै कै आ विधा आजादी सूं पैली पांगरी। भ्रमर जी आपरै पैलै अंक रै संपादकीय मांय लिखै- ‘‘स्व. मुरलीधर व्यास ‘राजस्थानी’ री ‘प्रभु रो धरम’ राजस्थानी री पैली लघुकथा मानीजै, जिकी ‘ओळमो’ रै प्रवेशांक (1954) में छपी।” अपणायत रै प्रवेशांक में व्यास जी री तीन लघुकथावां ‘धरोड़’ स्तंभ में छपी जिण मांय अेक ‘प्रभु रो धरम’ ई सामिल है। लघुकथा में ‘लघु’ सबद रो मायनो कम सबदां सूं लियो जावै पण कम नै आपां किणी सबद सींव मांय नीं बांध सकां। लघुकथा में मूळ सबद लघु नीं ‘कथा’ है। अठै विरोधाभास ई देख सकां कै कथा रै दायरै मांय उपन्यास अर कहाणी दोनूं नै मान्या जावै फेर इसो उपन्यास का कहाणी जिकी कम सबदां मांय लिखीजै कांई बा लघुकथा कैयी जावै?
    राजस्थानी में अेक ही रचना नै कठैई कहाणी अर कठैई उपन्यास कैवणिया ई मिलै अर इण ढाळै री रचनावां पण मिलै जिकी कहाणी रूप रचनाकार राखी, पण पछै उण नै विस्तार देय’र उपन्यास रो नांव अर सरूप देय दियो। सांवर दइया रो दाखलो आपां साम्हीं है जिका छोटी छोटी कहाणियां रै कोलाज सूं ‘हालत’ अर ‘स्कूल : अेक कोलाज कथा’ मांडी जिण रै मूळ मांय लघुकथावां है इणी ढाळै बां री छोटी छोटी व्यंग्य-कथावां नै ई आपां ‘लघुकथा’ रै पाळै राख सकां। इण रो अरथाव ओ पण मान सकां कै कोई रचनाकार किणी लघुकथा नै ई विस्तार देय’र कहाणी का उपन्यास अथवा लघुकथवां रै कोलाज सूं ई कहाणी बण सकै। भरत ओळा रो दाखलो आपां साम्हीं है जिका कहाणियां रै कोलाज सूं उपन्यास बणावण री खिमता राखै। सबद तो रचनाकार रै हाथां री माटी है जिण सूं बो किणी रचना नै आकार प्रकार देवै। ‘लघुकथा’ विधा में कथा रो अरथाव उण री खिमता साथै रस नै अंगेजै। लघुकथा मांय व्यंग्य अर विरोधाभास री पूछ कीं बेसी हुवै। इण सारू व्यंग्य नै विरोधाभास नै लघुकथा रा जरूरी घटक मान सकां। आ बात आखै लघुकथा इतिहास रै विगसाव नै देखता साची निजर आवै। इण रै दाखलै रूप अठै कहाणी रा आगीवाण लेखक मुरलीधर व्यास ‘राजस्थानी’ री लघुकथा ‘न्याय’ देखां- जिकी लुगाई अर पंच रै फगत अेक संवाद सूं बणाइजी है। अेक सवाल है अर दूजो पड़ूतर। लघुकथा इयां है-
    लुगाई – मनै अेकली नै ई कियां दंड देवो हो? म्हारै जिसी खोटा करतब करणआळी बीजी रांडां नै भी तो दंड मिलणो चाइजै।
    पंच – थां रै पाप रो घड़ो फूटग्यो, समझगी! नहीं जणै धोती मांय कुण नागो कोनी?!
    कुल 37 सबदां री इण रचना में जठै अेक समाजिक साच प्रगट हुवै बठै ई न्याय व्यवस्था रा पोत ई निगै आवै। इण ढाळै री व्यंग्य री लकब आगै चाल’र लक्ष्मीनारायण रंगा, भंवरलाल ‘भ्रमर’ आद लघुकथाकारां री केई-केई लघुकथावां में ई देखी जाय सकै।
    राजस्थानी लघुकथा विधा री जातरां देखां तो ठाह लागै कै मानीता कवि कन्हैयालाल सेठिया री गद्य कवितावां री कृति ‘गळगचिया’ मांय लघुकथा सोधणिया बिरथा जतन करै! क्यूं कै राजस्थानी में घणा लेखक मिलैला जिका छिड़ी-बिछड़ी लघुकथावां मांडी, पण इण विधा खातर समरपित लेखक कमती है। म्हारी इण बात मांय नृसिंह राजपुरोहित अर सांवर दइया आद लेखकां नै सामिल करता कैवणी चावूं कै बां बगत रै दबाव में कणाई कीं रचनावां लघुकथा रै रूप मांडी पण बै प्रमुख लघुकथाकार रूप नीं जाणिया जावै। मनोहर शर्मा, उदयवीर शर्मा, दुर्गेश, भानसिंह शेखावत, नीरज दइया, पवन पहाड़िया, भंवरलाल ‘भ्रमर’, माधव नागदा, रामकुमार घोटड़ आद केई लेखकां रा नांव इण खातर उल्लेखजोग कैया जावैला कै आं लघुकथा विधा मांय आपरो अवदान बरसां सूं लगोलग दरसावता थकां विधा रै विगसाव सारू सोच्यो।
    ‘अपणायत’ पत्रिका में देस-दिसावर-विदेस तीन स्तंभ तीन दिसावां रा मारग खोलै। ‘देस’ संतभ मांय मूळ राजस्थानी लेखकां री रचनात्मकता देखी जाय सकै तो परदेस अर विदेस दो दूजा स्तंभां मांय केई-केई भासावां सूं अनूदित लघुकथावां सामिल कर’र संपादक इण विधा रा नवा दीठावां साम्हीं राखै। भंवरलाल ‘भ्रमर’ लघुकथा आलोचना री दिसा में ई काम करियो अर ‘लघुकथा रा बिगसता दरसाव : अेक इतिहासू दीठ’ नांव रै आलेख में बां लघुकथा नै परिभाषित करता थकां उण रै उद्भव अर विकास री बात करी है। अठै खास उल्लेखजोग बात आ है कै भंवरलाल ‘भ्रमर’ ‘अपणायत-1’ में लिख्यो कै स्व. मुरलीधर व्यास ‘राजस्थानी’ री ‘प्रभु रो धरम’ राजस्थानी री पैली लघुकथा मानीजै, जिकी ‘ओळमो’ रै प्रवेशांक (1954) में छपी। जद कै बां आपरै इण आलेख में लिख्यो है- ‘आधुनिक राजस्थानी लघुकथा रो श्रीगणेश लगैटगै 1937-38 ई. मांय श्रीलाल नथमल जोशी रै संपादन में ‘ज्योति’ हस्तलिखित पत्रिका में प्रकाशित श्रीचंद राय री ‘जापानी बबुओ’ सूं मानी जाय सकै। राजस्थानी री पैली लघुकथा रो जस ‘जापानी बबुओ’ नै मिलै। नित नवै सोध-खोज सूं जूनी स्थापनावां बदळै अर कैय सकां कै इण दिसा मांय फेर ई काम हुवैला अर नवी बातां आपां साम्हीं आवैला। आपरी कैयोड़ी बात नै सुधारणी अर स्वीकार करणी भ्रमर जी री मोटी बात कैय सकां।
    मुरलीधर व्यास ‘राजस्थानी’ री लघुकथा ‘न्याय’ नै इणी आलेख मांय आपरै साम्हीं राखी जिकी इयां लखावै कै राजस्थानी री सबसू छोटी लघुकथा हुवैला पण भ्रंवरलाल ‘भ्रमर’ आपरै आलोचनात्मक आलेख में लिख्यो है- ‘विकट पहेली’ बां (श्रीचंद राय) री लघुतम लघुकथा ही, जिकी आजादी सूं घणी पैली छ्प’र मोकळी चावी हुई- ‘अेक सत्ताधारी मिनख नरमुंडा री फुटबाल खेलतो कीं नहीं लखै, पण बो ही जद सत्ताहीण हो जावै तो गळियां रै मांय फिरता सूं नर नूं नारायण जाण दोनूं हाथ जोड़नै नमस्कार करण लागै।’ मुरलीधर व्यास ‘राजस्थानी’ री लघुकथा ‘न्याय’ कुल 37 सबदां री ही अर 34 सबदां री। उण मांय अेक संवाद है अर इण मांय अेक स्टेटमेंट है। लघुकथा री सबसूं मोटी खासियत ‘घाव करै गंभीर’ मानीजै अर देखणो ओ चाइजै कै अै दोनूं लघुकथावां कित्तो, कांई कोई घाव करै...!
    हरेक रचनाकार अर आलोचक री आपरी आपरी मनगत अर सींव हुवै। दूजी दूजी भासावां मांय ई पैली लघुकथा बाबत केई केई बातां मिलै अर सोधणिया आ पण सोधै कै संसार री सगळा सूं छोटी लघुकथा किण नै माना। लघुकथा में मरम री गैरी बात हुवणी चाइजै अठै दाखलै रूप चावा-ठावा लेखक खलील जीब्रान री लघुकथा ‘लोमड़ी’ री चरचा करणी ठीक रैसी।
    सूरज ऊगाळी री टैम खुद री छियां देख’र लोमड़ी कैवै- आज दुपारा रै खाणै मांय ऊंठ खासूं।
    दिनूगै रो पूरो बगत उणा ऊंठ री तलास मांय गुजार दियो फेर दुपारां उण आपरी छियां देख’र कैयो- अेक मूसो ई घणो हुसी।
    दूजी बात- लोक में अेक छोटी कहाणी चलै- ‘अेक हो राजा, अेक ही राणी। दोनूं मरगिया, खतम कहाणी।’ आपां जाणा कै इयां राजा-राणी रै मरिया कहाणी खतम कोनी हुवै। खलील जीब्रान री लघुकथा लोमड़ी मांय जिण ढाळै लोमड़ी आपरी छियां देख’र रंग बदळै उण सूं घणी बातां आपां रै मनां मांय उठै-बैठै। अंतस मांय इण ढाळै री बात जाणै किणी खूंटी माथै अटक जावै। लागै कै कीं तो हुयो है अर नवो हुयो है। कोई पण रचना आपरै पाठकां नै संस्कारित करै। पंच की बात करां का सत्ताधारी अर सत्ताहीन री तो आं री मनगत लोक मांय आगूंच ई इणी ढाळै री बणियोड़ी है।
    कवि नारायणसिंह भाटी आपरी चावी कविता ‘मिनख नै समझावणो दोरौ है’ में लिखै- ‘जोयेड़ी जोत रो कांई जोणो है/ होवतै काम रौ कांई होणौ है/ अणु नै उधेड़णो सोरौ है/ पण मिनख नै समझावणो दोरौ है।’ म्हारो मानणो है कि कोई पण रचना रो मूळ काम मिनख नै समझावणो है अर ओ काम दोरौ इण खातर है कै बो आगूंच समझ्यो-समझायोड़ो है। अेक रचनाकार अर रचना री इणी चुनौती नै आलोचना देख्या करै का कैवां कै आलोचना नै देखणो चाइजै। अठै भाटी साब री काव्य-ओळी सूं ई अेक बात आलोचना रै सीगै कैवणी चावूंला कै आलोचना नै ‘जोयेड़ी जोत रो कांई जोणो है’ ओळी रै मरम नै समझणो चाइजै। किणी पण आलेख में फगत इतिहासू बिकास रै नांव माथै पैली सूं बखाणीज्या आंकड़ा सूचनावां नै खुद रै आलेख मांय राखण रो काम ई राजस्थानी आलोचना करती रैयी है, बात बिना होवतै काम नै करण री हूंस लेय’र कीं नवो करण री हुया करै। अर नवी बात लघकथा विधा सूं ‘भ्रमर’ री अपणायत नै देखण-परखण री है।
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डॉ. नीरज दइया





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अे.वी. कमल रो रचना-संसार/ डॉ. नीरज दइया

 6 मार्च पुण्यतिथि माथै खास सिमरण-

राजस्थानी कवि-कथाकार-नाटककार मानीता अब्दुल वहीद ‘कमल’ (17 अप्रैल, 1936 - 6 मार्च, 2006) नै इण संसार सूं गया नै आज लगैटगै अठारा बरस हुवण नै आया है। आपां जे अेम.अे. कॉलेज रै हाई-वे सूं मुक्ता प्रसाद कानी जावां तद मुक्ता प्रसाद सरु हुवण सूं पैली जीवणै हाथ कानी मोटै आखरां मांय ‘घराणो’ नांब लिख्यो दीसैला। ओ गुरुजी अे.वी.कमल रो रैवास हो अर बां रै चावै उपन्यास रो नांव ई ‘घराणो’ हो जिको बरस 1996 में छप्यो अर उण नै साहित्य अकादेमी पुरस्कार बरस 2021 रो मिल्यो। इण उपन्यास री भूमिका लिखता पद्मश्री लक्ष्मीकुमारी चूण्डावत अर दूजा लेखकां ई सरावणा करी। इण उपन्यास पछै आपरो दूजो उपन्यास ‘रूपाळी’ (2003) ई घणो चरचा में रैयो। आं दोनूं उपन्यासां नै केंद्र में राखता म्हैं अेक लांबो आलेख ई उपन्यास विधा रै विगसाव रूप परखता मांडियो हो। म्हारो मानणो है कै राजस्थानी उपन्यास परंपरा नै पोखण पैटै अे.वी.कमल रा दोनूं उपन्यास आपरी कथा-जमीन अर पात्रां रै पाण घणा-घणा महतावूं है।
म्हैं जद सार्दूल स्कूल मांय पढ़तो हो तद मानीता अे.वी. कमल, मो. सद्दीक, अजीज आदाज आद केई गुरुजनां सूं घणो कीं सीखण नै मिल्यो। साहित्य सूं ओळखाण करवाण मांय घर-परिवार अर स्कूल री मोटी भूमिका हुवै। कमल गुरुजी स्कूटर राख्या करता हा अर बां रै जीवण रै लारलै बरसां बां रो पृथ्वीराज रतनू अर कन्हैयालाल बोथरा सूं बेसी घराणो रैयो। बां मिमझर नांव सूं संस्था रै मारफत काम करिया अर जसजोग ग्रंथ ‘आपणी धरती आपणा लोग’ मांय बां रो मोटो सैयोग रैयो। गुरुजी अे. वी. कमल कवि अर नाटककार रै साथै बाल साहित्यकार रूप ई जाणीजै। बां रो बाल उपन्यास ‘हावड़ै रो धोरो’ घणो चावो रैयो। इणी ढाळै नवयुग ग्रंथ कुटीर सूं बां रो कविता संग्रै छप्यो। नाटक री बात करां तो राजस्थानी नाटक ‘तूं जांणी का म्हैं जांणी’ (1993) जिको अकादमी सैयोग सूं बां खुद बाबुल प्रकाशन सूं छाप्यो। इण नाटक रो 23 मार्च, 1993 नै रेलवे प्रेक्षागृह मांय लक्ष्मीनारायण सोनी रै निर्देशन में मंचन हुयो। ओ मंचन राजस्थली संस्थान कानी सूं हुयो अर राजस्थान संगीत नाटक अकादमी री मंचीकरण योजना रै तैत इण नाटक मांय हनुमान पारीक, प्रदीप भटनागर, जगदीश सिंह राठौड़, सुरेश खत्री, सीमा माथुर आद कलाकार रूप भाग लियो तो ओम सोनी, आभाशंकर जिसा दिग्गज नांव ई इण नाटक सूं जुड़्या हा। कैवण रो अरथाव कै कोई रचनाकार आपरै जीवण काल मांय खूब काम करै पण उण रै जायां पछै उण काम री अंवेर कम हुया करै। इण रा केई कारण कैया जाय सकै। घर-परिवार कानी सूं उण री सिरजणा रो मोल-तोल नीं करीजै तद उण काम नै ठबक लागै। कमल गुरुजी री केई अणछपी रचनावां फाइलां अर पांडुलिपियां रूप ई रैयगी। जिकी छपी बै अबै सगळी मिलण मांय समस्या है। बां रै समग्र साहित्य माथै पोथ्यां नीं मिलण सूं बात नीं हुय सकै पण बां रै उपन्यासकार रूप बाबत अठै कीं खास खास बातां कैवणी चावूं।
अब्दुल वहीद 'कमल' आपरै दोय उपन्यासां घराणो (1996) अर रूपाळी (2003) रै पाण जिकी कीरत कमाई उण री बात करां तो उपन्यासकार कमल री सगळां सूं लांठी खासियत आ है कै बां आपरै समाज रो जिको सांतरो चितराम सबदां रै मारफत राख्यो बो मुसळमान समाज रै जुदा-जुदा रूप-रंग नै राखतां थकां उण मायंला दुख-दरद अर सांच नै राखै। राजस्थानी उपन्यासां में कमल सूं पैला किणी रचनाकार इण दिस इण ढाळै री रचनावां कोनी करी। राजस्थानी उपन्यास परंपरा में संजोग रा खेल बात परंपरा सूं हाल तांई साथै-साथै चालै। घराणो में ई संजोग-दर-संजोग उण री कथा रै जथारथ नै अळघो बैठावै, पण आ कुबाण तो आपां देखां, उपन्यास परंपरा री खास खासियत है। उपन्यास ‘घराणो’ में काव्यात्मक गद्य रा दरसण ई हुवै, जिण रो अेक दाखलो- ‘मांझळ रात ही। तारां छायी चूनड़ी सो आभो आपरी छक जवानी माथै हो। स्यांत समुंदर-सो गहरी नींद में सूत्यो सगळो गांव। बाळू रेत रै धोरां सूं चौफेरो घिरियोड़ो ओ गांव अर गांव रै च्यारूंमेर पसरियोड़ो सागीड़ो सरणाटो, जाणै ओ सरणाटो सगळै गांव नै आपरी गोदी मांय सांवट राख्यो हो।’ (पेज - 11)
भासा बाबत अेक बीजी घणी सरावणजोग बात आ है कै आं उपन्यासां में मुसळमान समाज री जिण राजस्थानी भासा रो अेक खरो-खरो रूप आपां सामीं आवै बो आपरै लोक जथारथ रै कारण घणो असरदार है। भासा में सामाजिक रूप-रंग नै राखतां थकां, उणां मांयला दुख-दरद अर सांच नै लेखक जिण रूप में चवड़ै करै बो उपन्यास परंपरा में सदव यादगार रैवैला। घराणो में ‘म्हारा दो आखर’ में उपन्यासकार री टीप तीन पानां में छपी है। कबीर आपां नै ढाई आार में पंडत बणा देवै, तो लेखक आगूंच दो-आखर में रचना रा सगळा पोत चवड़ै कर देवै। आगूंच दो आखर में उपन्यासकार लिखै- ‘म्हैं इण उपन्यास में आ कैवण री चेष्टा करी है कै ‘घराणो बेटी’ रै नांव सूं, बेटी रे सुभाव सूं, बेटी रै बरताव सूं अर बेटी रै चाल-चलन सूं ओळखीजै।’ तो सा ओ मूळ मंतर है जिको इण रचाव रो सार है। अेक समाज रै सांच नै लेखक इण ढाळै प्रगटै- ‘बेटी नै जलमतै ई गळो घोट’र का अमल देयर मारणै री रीत इण घराणै में लारली चार-पांच पीढियां सूं चाल रैयी है। इणां रौ ओ मानणो है कै बेटी तो भाग-फूट्यां रे हुवै है।’ (पेज - 17)
घरणो मुसळमान दांईं हमीदा री कीरत नै बखाणै। उपन्यास अेक छोरै री आस में गळती सूं जलमी छोरी रै प्राणां री अेंवर रै मिस सवाल उठावै, पण उण नै जिण रूप में बिगसावै बो सहज कोनी। असहज कथा ई कथा रो आधार होया करै, पण असहज नै लेखक सहज रै रूप में प्रगटै आ लेखक री खिमता मानीजै। विचार में आ बुणगट कै हिंदू-मुसलमान अेक है-हमीदा रो हीराबाई रै रूप में बदळाव प्रभावित करै, अर ठाकर धनजी अर जीवण रो आंतरो मिनख-मिनख रै विचारां रै आंतरै नै दरसावै।
घराणो बरस 1957 सूं 1966 तांईं रै बगत नै आधार बणावै। रूपाळी में बगत बरस 1965 अर 1971 रै भारत-पाकिस्तान जुद्ध रै अेनाणां रै अैन बीचाळै ऊभो है। जुद्ध रै मांयला-बारला नफा-नुकसाणां री विगतां में केई विगतां अधूरी रैय जावै। बां री संभाळ रचनाकार ई कर सकै, अर अेक संभाळ नै आपां उपन्यास ‘रूपाळी’ में देख सकां। रूपाळी में हिंदू-मुसळमान अेकता अर सद्भाव नै जठै सुर मिल्या है, बठै ई मिनखबायरै घर में किणी लुगाई अर उण रै टाबरां नै हुवण आळी तकलीफां रो लेखो-जोखो पूरी ईमानदारी सूं सामीं राखीज्यो है। जीवण-जुद्ध जूझती लुगाई-जात री इण अंवेर खातर लखदाद। आगूंच ढाई आखर में उपन्यासकार कमल लिख्यो है- ‘उपन्यास में म्हैं आ कैवण री चेष्टा करी है कै जकी लुगाई, लोक लाज सूं, लुगाई जात री मर्यादा सूं आज तक घुट-घुट’र मरती रैयी है। अबै बा समाज री कुरीत्यां अर लोक री अनीत्यां सूं जुड़ै थकां जुलमां अर अणकथ कष्टा नै भोगण नै त्यार नीं है। चावै बा रूपाळी (जमाली) हो का राधा। क्यूं कै लुगाई जात है। लुगाई रो धरम लुगाई है। उपन्यास री नायिका रूपाळी रो चरित्र अेक अेड़ो ई चरित्र है।’
लुगाई जात रो समाज री जूनी मानता, परंपरा, रिवाज का अणचाइजती बात सामीं हुवणो नै पेटै गळत रै विरोध मे हरफ काढणो किणी, आधुनिक रचना में सरावणाजोग मानीजै। स्त्रीवाद जैड़ी चरचा राजस्थानी में कोनी पण उपन्यास रूपाळी रै मारफत जे लेखक राजस्थानी समाज री किणी लुगाई रै इण नवै रूप री ओळखाण करावै तो उण री सरावण हुवणी चाइजै। अठै आ ओळी लिखतां रूपाळी री इण दीठ सूं पुरजोर सरावणा करणी चावूं। उपन्यास-जातरा में ‘रूपाळी’ उपन्यास रो खास उल्लेख इण खातर करियो जावैला कै इण में उपन्यासकार हिंदू-मुसळमान अेकता अर बां री आपसरी री प्रीत रा केई बेजोड़ चितराम ई मांड्या है। बियां घणै गौर सूं रूपाळी री कथा माथै विचार करां तो आ अेक प्रेम-कथा है, जिण में रूपाळी री प्रेमकथा रै साथै-साथै उण री मां जुबैदा री आपरै घरधणी रै लारै प्रेम अर विरह री कथा आधार रूप गूंथीजी है। सगळां सूं सिरै बात आ है कै जुबैदा आपरै घराळै जमालखां (जगमाल) अर छोरी जमाली (रूपाळी) रै सुख-दुख में बंधी राजस्थानी उपन्यासां में जीवटआळी यादगार नायिका रै रूप में आपां सामीं ऊभी होई है। उपन्यास में मुसळमान रो ठेठ भारतीयकरण मिलै, जिण नै कोई हिंदूवाद का हिंदूकरण ई मान सकै। लेखक जमाली रो नांव ई रूपाळी अर जमाल खां रो जगमाल बरतै। आं चरित्रा में लेखक रो मकसद हिंदूवाद नीं पण अेक गांव री भारतीयता रो रंग उजागर करण रो रैयो है।
सगळा सूं मोटी बात आ कै कमल गुरुजी खुद आपरै जीवण मांय धरम का किणी पण आधार रो भेदभाव कोनी राख्यो। बै किणी जात का संप्रदाय रा लेखक नीं हा अर बां रै लेखन सूं इण संसार साथै बसतो लोक जीवण रो अंस उजागर हुवै जिको भारत री मूरत नै पूरण करण मांय मददगार बणै। बै सदीव राजीमन सूं बोलता-बतळावता अर छोटा रो खास लाड रखता हा। बां रै उपन्यासां माथै फिलम बण सकै आ बात बै जाणता इण सारू बां कीं प्रयास ई करिया। म्हनै चेतै आवै कै आमीर खान सूं ई इण सिलसिलै मांय मिल्या पण आगै संयोज ओ रैयो कै बै इण संसार सूं विदा ले लीवी अर सगळी बातां लारै रैयगी। आज जरूरत बां रै प्रकाशित अप्रकाशित साहित्य नै अंवेरण री कैय सका जिण सूं बां रै साहित्य माथै विगतवार चरचा हुय सकै।

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बटन रोज : प्रेम-संबंधों की अबूझ पहेली/ डॉ. नीरज दइया

    चर्चित कथाकार रजनी मोरवाल ने अपने दूसरे उपन्यास ‘बटन रोज़’ को ‘प्रेम करने वालों के नाम’ समर्पित किया है। उपन्यास के विषय में उपन्यासकार ने ‘अपनी बात’ में लिखा है कि वे एक प्रेम कहानी लिखने बैठी थीं और कहानी बढ़ते-बढ़ते उपन्यास में तब्दील हो गई। उपन्यास के नामकरण के विषय में उपन्यासकार का मत है : पाठकों के मन में ये प्रश्न कौंधेगा कि रोज़ (गुलाब) तो आखिर रोज़ (गुलाब) है, फिर बटन रोज़ क्यों? तब शायद उपन्यास के नायक-नायिका की तरह वे आपस में संवाद करने लगें-  
    - ‘तुम्हें ये बटन रोज इतने क्यों पसंद हैं?’
    - ‘क्योंकि ये सुबह की पहली किरण के साथ उगते हैं, किंतु दिन पर धीमे-धीमे खुलते हैं, ठीक प्रेम की मानिंद... जो होता है, तो होता है या होता ही नहीं... और जब होता है तो पूरे जीवन पर महकता है।’
    - ‘लेकिन इनकी सुगंध बहुत मंद-मंद होती है...’
    - ‘हां, लेकिन ये कई दिनों तक अपनी भीनी-भीनी सुगंध बिखेरते रहते हैं।’
    बस यहीं से इस उपन्यास का नामकरण बटन रोज़ हो गया।
    ‘बटन रोज’ को उपन्यास में एक प्रतीक के रूप में प्रस्तुत करते हुए नवीनता के साथ यह सर्वांगीण हो इसलिए अनेक प्रयास किए गए हैं। वैसे प्रेम का प्रतीक गुलाब को माना जाता रहा है और उसके रंगों के हिसाब से काफी बातें कही गई है। इस संसार में ऐसा कौन होगा जिसके जीवन में कभी ‘प्रेम’ घटित नहीं हुआ होगा! सूरदास जी की गोपियों ने उद्धव को कहा था- ‘प्रीति-नदी में पाँव न बोरयो, दृष्टि न रूप परागी।’ किंतु यह सत्य है कि यह नदी जीवन में बरसात बन कर आती है और सभी को आर्द्र करती है। रजनी मोरवाल के रचना-संसार में इससे पहले भी स्त्री की स्वतंत्रता और स्वच्छंदता को विभिन्न कोणों से उठाया जाता रहा है। वे यहां भी नायिका मारिया के माध्यम से एक ऐसी स्त्री के जीवन की महागाथा को प्रस्तुत कर रही हैं जिसके पार जीवन को देखने और समझने की अपनी दृष्टि है। तीस खंडों में उपन्यास की कथा इस प्रकार प्रस्तुत हुई है जैसे वे अलग-अलग काल खंड की अनुभूतियां चित्रों के रूप में होकर एक बड़ा कोलाज बनाए। मुख्य रूप से उपन्यास की कथा के चार आधार कहे जा सकते हैं। पहला- मारिया और एडवर्ड का पहला प्यार, दूसरा- मारिया और हैनरी का वैवाहिक जीवन-संबंध, तीसरा- विवाहित मारिया और इरफान का प्रेम तथा चौथा- मारिया की घर वापसी।
    प्रेम के साथ संयोग और वियोग दो घटक जुड़े हैं। किंतु प्रेम जब भी होता है, जिस किसी अवस्था में होता है, वह जहां भी होता है अद्वितीय होता है। उसकी अनुभूति अथवा होना जीवन का एक ऐसा अनिर्वचनीय सुख है, जिसे शब्दों में पूरा का पूरा अभिव्यक्ति नहीं किया सकता है। वह जितनी भी बार घटित होता है नया नया बनकर घटित होता है। उसे रंगों में पूरा का पूरा उकेरा नहीं जा सकता है। उसे किसी गीत में पूरा गाया नहीं जा सकता है। अभिव्यक्ति के सभी माध्यम और कलाएं मिलकर भी उसे रूपायित करने का प्रयास करें तो बस उसका आभास भर होता है। उपन्यास का मुख्य नायक इरफान चित्रकार है और नायिका मारिया कला प्रेमी। चित्रकला, मूर्तिकला, कविता, इतिहास और समय-संदर्भों के साथ संगीत के घटक भी समाहित किए गए है। प्यानों के म्यूजिक पीस हो अथवा प्रकृति के रूप-रंग और संगीत की बात सभी मिलकर एक ऐसा व्यापक कला-वितान रचते हैं। सब कुछ रचे और कहे जाने के बाद भी प्रेम के लिए बस इतना ही कहा जाएगा कि बिना इस नदी में स्नान किए, प्रेम में आर्द्र होने की अनुभूति को नहीं पाया जा सकता है।
    प्रेम को फिर-फिर नए-नए रूपों-स्थितियों में चित्रित करने के प्रयास हुए हैं, और होते रहेंगे। यहां नायिका के रूप में मारिया को चुना गया है, जो मध्यवर्गीय एंग्लो इंडियन परिवार की लड़की का प्रतिनिधित्व करती है। किशोरावस्था के प्रेम में सुख के साथ दुख और अवसाद का एक ऐसा जटिल समीकरण प्रस्तुत होता है कि नायिका का विवाह हो जाता है किंतु वह किसी तलाश में है। उसकी तलाश इरफान में पूरी होती है किंतु अंत में वहां भी निराशा हाथ लगती है। असल में उपन्यास का केंद्रीय विषय एक ऐसी स्त्री के मनोलोक को उजागर करना रहा है जो विवाह पूर्व और विवाह पश्चात के प्रेम-संबंधों की अबूझ पहेली को सुलझाते हुए किसी निर्णायक स्थिति तक पहुंचना चाहती है। समाज ने वैध और अवैध दो धाराएं निर्मित की है, किंतु प्रेम जीवन में अविस्मरणीय और अद्वितीय होता है और जब उस रास्ते पर कदम उठ जाते हैं तो स्मृति से संसार घर-परिवार सभी जैसे लुप्त होने लगते हैं।
    लेखिका रजनी मोरवाल ने अपने पहले उपन्यास ‘गली हसनपुरा’ (2020) में भी अमर प्रेम की एक दर्द भरी दास्तान से अपने पाठकों को रू-ब-रू कराया था। दोनों उपन्यास में प्रेम का अधूरापन है। अधूरापन इस रूप में कि प्रेम बार-बार जीवन में आकर फिर फिर छूट क्यों जाता है? प्रेम का होना कौन निर्धारित करता है? यह जटिल प्रश्न है कि कब, किसका, कहां और किससे प्रेम होगा। विवाह समाज में क्या प्रेम होने की गारंटी नहीं देता है। मारिया के जीवन में आधुनिक होने की स्थितियों के साथ त्रासदियां है। उसका अपनी जीवन स्थितियों से जूझना और फिर-फिर अपनी परंपरा, मान्यताओं और बंधनों में बंध जाने की नियति को लेखिका ने यहां रेखांकित की है। नारी विमर्श के अंतर्गत ऐसी अनेक रचनाएं हमारे सामने हैं जिन में मुक्ति के मार्ग की तलाश करती में स्त्री जीवन के अनेक आयामों को उजागर किया गया है। उल्लेखनीय है कि यहां परंपरा और आधुनिकता का समन्वय है। लेखिका किसी विचार अथवा निर्णय को अपने पाठकों पर आरोपित नहीं करती हैं। आधुनिकता की त्रासदी के रेखांकन में भारतीय परिवेश में नारी के लिए स्वतंत्रता व स्वच्छंदता में विभेदीकरण करने वाले सवालों का यहां सूक्ष्म अंकन हुआ है। यह सत्य है कि नैसर्गिक अधिकार स्त्री-पुरुष के लिए समान होने चाहिए। कुछ मूलभूत सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए प्रत्येक स्थिति में नारी की व्यक्तिगत परिस्थितियां भी विचारणीय रखी जानी चाहिए। कवि कृष्ण कल्पित ने उपन्यास की भूमिका में लिखा है- ‘रजनी मोरवाल का यह उपन्यास इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि यह काम और प्रेम के द्वंद्व को प्रस्तुत करता है। यह उपन्यास प्रेम जैसी संदेहस्पद चीज के बरक्स काम को विश्वसनीय बताता है। पुरुरवा और उर्वशी के जमाने से शुरू हुए इस सनातन द्वंद्व को रजनी मोरवाल ने नयी कथा में गूंथकर नए ढंग से अभिव्यक्त किया है।’
    बटन रोज बारहमासी फूलों वाला आउटडोर पौधा है। प्रेम के लिए इसके समय में तो साम्य दिखाई देता है किंतु इसका आउटडोर होना प्रेम के संबंध में पूर्णतः सही नहीं है। प्रेम के लिए कोई स्थल अथवा स्थान निर्धारित नहीं किया जा सकता है। अंत में इसके शीर्षक को लेकर यह भी कि ‘बटन रोज़’ में ‘ज’ के नीचे लगे नुक्ता लगाया गया है जिसके बिना भी काम चल सकता था। यहां परिहास में कहें तो यह मुक्ता काले टीके के रूप में इसे नजर से बचने का टोटका है। किंतु कहा गया है- इश्क़ और मुश्क छुपाए नहीं छुपते। यह प्रेम-संबंधों की अबूझ पहेली है जिसे इसके पाठ में उपन्यासकार के साथ खोजना सुखद है।
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उपन्यास : ‘बटन रोज़’  
उपन्यासकार : रजनी मोरवाल
प्रकाशक : सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली
पृष्ठ :192 ;
मूल्य : 395/- (पेपर बैक)
संस्करण : 2023

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संपर्क : डॉ. नीरज दइया


 


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