आज जब साहित्य की विधाएं अपने दायरों को लाँघते हुए विविध विधाओं के परिवृत्त को छूते हुए उनसे मेल-जोल करते हुए आगे बढ़ रही है तो ऐसे में परंपरागत छंद-विधान अथवा रूढ़ मान्यताएं छोड़ते हुए आलोचना को नए मानदंडों की तलाश करते हुए आगे बढ़ना होगा। आलोचना सदैव रचना केंद्रित होती है इसलिए इस चुनौती को आलोचना के समक्ष कोई रचना ही प्रस्तुत कर सकती है। काव्यालोचना के संदर्भ में एक ऐसी ही चुनौती प्रस्तुत करने का साहस कवयित्री ऋतु त्यागी ने पुस्तकनामा से प्रकाशित अपने सद्य कविता-संग्रह ‘तितलियों के शहर में’ (2024) से किया है। आज जब विविध विधाओं में अनेकानेक प्रयोग हो रहे हैं, ऐसे में कवयित्री त्यागी ने अपने पूर्ववर्ती काव्य-संग्रहों- ‘कुछ लापता ख़्वाबों की वापसी’ (2018) ‘समय की धुन पर’ (2019) और ‘मुझे पतंग हो जाना है’ (2022) में कथ्य, भाषा और शिल्प को लेकर कुछ प्रयोग किए हैं। किंतु वे अपने चौथे कविता संग्रह में कविता की बनी बनाई सभी रूढ़ अबधारणाओं को छोड़ते हुए एक नई तलाश के लिए जिद और जुनून के साथ नजर आती है। यहाँ किसी भी काव्य-आयुध का आग्रह नहीं है वरन कविता के रास्ते में कुछ नई सोच और विचार भूमि में अपने कदम आगे बढ़ाने की निरंतरता में कुछ पा लेने का प्रयास भर है। ‘जो रंग पक्के नहीं होते, वो सबको अपने जैसा बनाने की जिद में अपना असली रंग छोड़ देते हैं, ठीक ऐसे ही हम भी करते हैं जब हम दूसरों को अपने जैसा बनाने की जिद पाल लेते हैं’ यहां जीवन की बहुत गहरी और गंभीर बात को बहुत आसानी से खोलकर जैसे सामने रख दिया गया है बिना किसी आग्रह अथवा पूर्वाग्रह के साथ। यह तटस्थता और सहजता ही इन कविताओं को उल्लेखनीय बनाने का सामर्थ्य देती हैं।
कवयित्री का कथन है- ‘अर्थवान शब्दों की रिमझिम बारिश में आत्म तर हो जाता है, फूल खिल जाते हैं और कहते हैं, जहां फूल उगते हैं वह शहर तितलियों का शहर बन जाता है।’ कहने का अभिप्राय यह है कि शब्दों की बारिश में भीग कर तर आत्म से कुछ शब्दों के फूल कवयित्री के हृदय-आंगन में खिलें हैं तो उन तक इतनी तितलियां पहुंच गई हैं कि वह शहर ही तितलियों का शहर हो गया है। यह कल्पना की रंगीन दुनिया हमारी दुनिया से खोती चली जा रही है ऐसे में ऐसी दुनिया को कहीं बचाने का जतन इन कविताओं में देखा जा सकता है। ‘तितलियों के शहर में’ में कहने को तो दस कविताएं है, किंतु इन दस कविताओं में उनकी छोटी-छोटी अनेक कविताओं के समुच्चय उल्लेखनीय है। अस्तु यहां कहना चाहिए कि कवयित्री ने अपनी लघु कविताओं को दस खंड़ों में प्रस्तुत किया है।
अपनी कविताओं में लघुता के आग्रह के विषय में स्वयं कवयित्री लिखती हैं- ‘तो मेरे सथ कुछ हुआ यूं कि परिस्थितियां जब-जब मुझे सूई चुभोती, मैं लिखती। लिखते हुए ना जाने क्यों ! मैं हमेशा दीर्घ से ज्याद लघु पर रुकी। दोस्तों ने कहा ‘थोड़ा बड़ा लिखो’ पर मैं लघु पर अटकी रही या ऐसा भी हो सकता है कि मेरे पैन में स्याही ही इतनी हो, खैर ये जो भी था... नदी के पानी की तरह था, लहरें उठती-गिरती रही... तट से टकराकर लौटती रही। मैंने बांध बनाने की कभी कोशिश नहीं की; बह जाने दिया... अच्छे-बुरे... वाद-प्रतिवाद से परे, जो लिखा गया वो मेरी ही तरह लघु ही था।’ अतः यह कहा जाना चाहिए कि लघु, लघु और लघु को मिलाते हुए इस कविता के दस खंडों अथवा दस कविताओं में एक विराट को देखा जा सकता है। वैसे किसी भी विराट की संरचना-इकाई लघु ही होती है। दस खंडों की इन कविताओं में प्रत्येक खंड का आरंभ कवयित्री के एक मुकमल गद्य-कविता से किया है, जिसमें वे उस खंड विशेष की भावभूमि पर प्रकाश भी डालती हैं। उदाहरण के लिए तीसरे खंड- ‘समय की टिक-टिक’ में प्रस्तुत गद्य कविता के इस अंश को देखा जा सकता है- ‘यह समय प्रार्थनाओं का है, रंज और कोसने का नहीं है, बस बैठने का है, हमेशा चलते रहने से जो ऊर्जा का क्षय होता है उस ऊर्जा को स्थितिज ऊर्जा में बदलने का है। गतिज ऊर्जा हमेशा आवश्यक नहीं होती....’ असल में यह जिंदगी को देखने परखने और पढ़ने का एक नजरिया देने वाला कविता संग्रह है।
चौथे खंड ‘जिंदगी की ऐनक का नंबर’ में कवयित्री कहती हैं- ‘जिंदगी जितना दौड़ाती है ना!/ उतनी ही मात्रा में सबक के बोसे भी दे जाती है।’ यह कोई बहुत नया अनुभव और नई बात नहीं है बस इसे अपने स्थान पर कहने की भंगिमा और शब्द कुछ नए रूप में हमारे सामने आते हैं। जैसे कवयित्री अपने अनुभवों का सार इन कविताओं में लिख रही हो- ‘उदासियों को तोड़ना/ पर बेरहम कुतर्कों से नहीं/ प्रहस्त की मृदु थाप से।’ अथवा ‘जारी रखो लिखना/ पंक्तियों को काटो, या मिटाओ/ गिरा भी सकते हो कभी,/ पर ध्यान रहे!/ कविता हठीली ना हो।’ और कहना होगा कि ऋतु त्यागी की इन कविताओं में किसी भी प्रकार का कोई हठ नहीं है। कविताओं के लिए यह हठ नहीं होना ही इन कविताओं को सरलता, सहजता और ताजगी देता है। किसी भी प्रकार के आडंबर से दूर इन छोटी-छोटी कविताओं में कवयित्री ने जैसे कुछ बीज अथवा मंत्रों को साध दिया है और वे पाठकों के अंतस में अपना रूप ग्रहण करते हैं।
पांचवे खंड ‘मन्नतों के बीज’ की इस लघु कविता को देखें- ‘आईना दौड़ता है/ और पकड़ लेता है/ चेहरे की/ महीन रेखाओं का/ गणितीय सूत्र/ चेहरा अपना/ कोण बदलकर/ आईने पर/ खड़े करता है सवाल।’ यह जीवनानुभव सांकेतिक रूप में जिस सरलता से अभिव्यक्त हुआ है उसमें गहरी अंतर्दृष्टी निहित है। जैसे- ‘आंख से टूटे हुए/ उस आंसू से सवाल मत करना!/ जिसे/ सिसकियों ने तोड़ा था।’ अथवा ‘एक अश्रु/ टूटा/ भटका.../ फिर गरदन के/ उस तिल पर/ जा अटका/ जिस पर/ तुम्हारा स्पर्श/ अभी शेष था।’ इन कविताओं को इसी प्रकार के अनेक स्पर्शों का स्मरण है जो अपने दुखों को सहलाते समय फिर फिर याद आते हैं। अपनी कविता यात्रा के विषय में एक कविता में कवयित्री ने लिखा है- ‘क्षमा करो मुझे!/ मैं पृथ्वी पर/ अपनी इस यात्रा में/ पराजयों-विजयों का/ हिसाब नहीं कर पाई; / गणित की जगह मैंने/ कविताओं को चुना।’ जीवन का गणित समझना और उसे लिखना सहज नहीं है किंतु वही गणित जब कविताओं में रूपाकार होता है तो उसके साथ अर्थ का एक पूरा वितान जुड़ जाता है। कविता की यह दुनिया कवि और दुनिया के बचने की शरणस्थली है।
संग्रह में कुछ कविताओं में भावों-विचारों की पुनरावर्ती देखी जा सकती है तो यह कविता- ‘यही एक तरीका था/ जिससे मैं/ समूची बच सकती थी,/ मैंने अपने/ नाखूनों को धारदार/ और कानों को/ भोथरा कर दिया।’ पृष्ठ संख्या 67, 80 और 84 तीन जगह संग्रह में शामिल है। जिसमें दो जगह इसे इसी रूप में और एक जगह गद्य कविता के अंश के रूप में प्रस्तुत किया गया है। अंत में बस इतना ही कि संग्रह की कविताओं के अर्थ बाहुल्य को द्विगुणित करने का कार्य खंडों के मध्य दिए प्रसिद्ध चित्रकार संदीप राशिनकर के रेखांकनों के किया है और यह कविता संग्रह अपनी नई दृष्टि और कुछ अवधारणाओं के लिए अवश्य पहचाना जाएगा।
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