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व्यंग्य ने जिसे चुना : प्रेम जनमेजय/ डॉ. नीरज दइया


 समकालीन हिंदी साहित्य में और खासकर व्यंग्य के क्षेत्र में एक बहुत बड़ा नाम है- प्रेम जनमेजय। यह पंक्ति मैंने बहुत सम्मानपूर्वक लिखी है, किंतु यह पंक्ति मेरी मौलिक अथवा निजी स्थापना नहीं है। यह सबका या कहें व्यंग्य को जानने वालों का मानना है, और यहां मैं ‘बड़ा नाम’ पद को प्रयुक्त करते हुआ कुछ डर रहा हूं। मेरे डर का कारण मेरे भीतर जो अदना सा एक व्यंग्यकार है वह बिना अवसर के भी कभी भी चेतन अवस्था में आ जाता है। मैंने मेरे लिए ‘अदना’ शब्द इस संदर्भ में प्रयुक्त किया है कि आदरणीय प्रेम जनमेजय जैसे बड़े व्यंग्यकार और संपादक के सामने मेरा इस क्षेत्र में कार्य बहुत सामान्य और थोड़ा-सा है। मैं अपने भीतर के व्यंग्यकार को रोकता हूं कि यह बात कहने की तेरी औकात नहीं है। मैं यह भी नहीं जानता हूं कि प्रेम जनमेजय जी की प्लैटिनम जयंती के अवसर यह बात कितनी उचित अथवा अनुचित है। किंतु कहावत है और लोग इसे रसीली मानते हैं। लोगों का तो यह भी कहना हैं कि बड़े आदमियों के दोस्त और दुश्मन दोनों होते हैं। मैं इन खेमों से दूर हूं और यह विश्वास के साथ कह सकता हूं कि प्रेम जनमेजय जिस प्रकार के लेखक हैं, उनके दुश्मन ढूंढ़ने से भी नहीं मिलेंगे। दोस्त तो उन के देश-विदेश में असंख्य हैं। खैर, जिस कहावत की तरफ मैंने संकेत किया उसे आप जान गए होंगे- ‘नाम बड़े और दर्शन छोटे’। मेरा दावा है कि यह कहावत भले कितनी ही रसीली हो, किंतु यहां इससे रस नहीं निकलने वाला है। माफ करें मुझे, मैं तो बस यहां आपको अपने पाठ की गिरफ्त में लेना चाहता था। प्रेम जी का नाम भी बड़ा है और उनके दर्शन भी। उनके पास ऐसा बहुत कुछ है जिनसे हम सीख सकते हैं।
    प्रेम जनमेजय जी अब उम्र के उस मुकाम जो पार कर रहे हैं जहां पहुंच कर मन होता है कि जो कुछ इस संसार से ग्रहण किया है पाया है उसे किसी न किसी रूप में लौटा दिया जाए। आपका रचना-संसार बहुत बड़ा और व्यापक है। जब मैंने उन्हें एक लेखक के रूप में जाना, तब वे बहुत बड़े लेखक के रूप में स्थापित हो चुके थे। मेरा यह वह दौर था जब मैंने जयशंकर प्रसाद के नाटक ‘जनमेजय का नाग-यज्ञ’ पढ़ा और ‘जनमेजय’ से मैं प्रेम जनमेजय की छवि देखता था। माना कि यह संज्ञा प्रसाद जी के नाटक में धनुर्धारी अर्जुन के पौत्र के लिए प्रयुक्त है, किंतु मेरे मन का क्या? वह तो जनमेजय के रूप में प्रेम जी से ही साम्य रखे हुए है। बाद में मैंने पढ़ते-लिखते जाना कि प्रेम जनमेजय के व्यंग्य अर्जुन के निशाने की भांति अचूक होते हैं। अर्जुन को जिस प्रकार चिड़िया की आंख के अलावा कुछ नहीं दिखता था, वैसे ही प्रेम जनमेजय जी की व्यंग्य को लेकर स्थिति है। हिंदी साहित्य में बहुत कुछ है, अनेक विधाएं हैं किंतु प्रेम जनमेजय जी का व्यंग्य को लेकर लंबे समय से समर्पण देखा जा सकता है। इसी के रहते यदि यह कहा जाए कि हिंदी साहित्य में उनको व्यंग्य के अतिरिक्त कुछ दिखाई नहीं देता है तो गलत नहीं होगा। वे चाहते तो साहित्य की अन्य अन्य विधाओं में भी सतत कार्य कर सकते थे। किंतु अब तक का हिसाब यह है कि आपने व्यंग्य के क्षेत्र में विपुल योगदान दिया है। व्यंग्य लेखन ही नहीं संपादन और व्यंग्य विधा के उन्नयन के लिए साथी लेखकों को प्रेरित प्रोत्साहित करने का कार्य किया है। वे हर बात का मर्म पहचानते हैं। वे बहुधा जो कहना है उसे कहने से नहीं चूकते हैं। कभी सीधे तो कभी लपेट कर बात कहते हैं। आज यदि व्यंग्य को स्वतंत्र विधा के रूप में जाना-पहचाना जाने लगा है तो इसे स्थापित करने में जिन प्रमुख रचनाकारों का नाम लिया जाता है, उनमें एक प्रमुख नाम प्रेम जनमेजय जी का है।
      प्रेम जनमेजय जी को मैंने पढ़ा तो बहुत पहले से था किंतु उनसे पहली मुलाकात मई, 2019 में बीकानेर और दूसरी सितंबर, 2021 में श्रीगंगानगर में हुई। उम्मीद पर दुनिया कामय है इसलिए तीसरी मुलाकात भी जल्दी होगी ऐसा मानते हुए यहां कहना चाहता हूं कि दूसरी मुलाकात काफी सघन और यादगार रही। हुआ यूं कि सृजन सेवा संस्थान और नोजगे पब्लिक स्कूल, श्रीगंगानगर के द्वारा आयोजित ‘राष्ट्रीय व्यंग्य संगोष्ठी’ में भाई कृष्ण कुमार ‘आशु’ ने आदरणीय हरीश नवल, सुभाष चंदर और प्रेम जनमेजय जी के साथ-साथ बीकानेर से मुझे और बुलाकी शर्मा आदि को भी कार्यक्रम में आमंत्रित किया था। जैसा कि मैंने कहा कि मैं प्रेम जनमेजय जी से ‘प्रभावित’ तो था, किंतु इस दूसरी मुलाकात के बाद ‘बेहद’ विशेषण के रूप में जुड़ गया है। मेरे बेहद प्रभावित होने के कारणों को जब मैं तलाशता हूं तो पाता हूं कि आदरणीय प्रेम जनमेजय जी के साथ जब आप होते हैं तो बहुत अच्छा लगता है। वे बेहद उदारमना और मित्रवत लेखक के रूप में व्यवहार करते हैं। यदि मुझे कहने की अनुमति हो तो यहां यह तक कह सकता हूं कि वे साहित्य परिवार के एक बड़े-बुजुर्ग की भांति स्नेह लुटाने में कोई कमी नहीं रखते हैं। ऐसा नहीं है कि उनका भरपूर स्नेह केवल मुझे मिला हो, जो भी उनके संपर्क में आए है उसे यह अनुभूति अवश्य हुई है कि वे अपने सभी साथी रचनाकारों को अग्रजों और अनुजों सरीखा मान-सम्मान प्यार-दुलार देते हैं। उन पर मुग्ध होने का एक कारण यह भी है कि वे हर किसी से बड़े आदर और सम्मान के साथ मिलते हैं, उनके अपनेपन की एक महक चारों तरफ बिखरी मिलेगी आपको।
    केवल हंसमुख और मिलनसार स्वभाव प्रेम जी की खासियत नहीं है, खासियत है इन सब को हमारे बर्तमान समय और लेखक-समाज में बचाए रखना है। आज के दौर में जब आदमी अनेक क्षेत्रों में कार्यरत रहता है तो उसके पास इतना समय नहीं होता है कि वह सब को पर्याप्त समय दे सके। घर-परिवार, मित्र, सगे-संबंधियों के बीच ‘व्यंग्य-यात्रा’ का नियमित प्रकाशन-संपादन निसंदेह एक बहुत बड़ा काम है। वे पत्रिका के साथ अपने वरिष्ठ लेखकों पर पुस्तकें लिख रहे हैं, संपादित कर रहे हैं और साथ में खुद का नियमित लेखन। इन दिनों ऑनलाइन पत्रिका भी हमारे समाने हैं। कभी-कभी आश्चर्य होता है कि वे इतना समय कैसे निकाल लेते हैं!
    प्रेम जनमेजय जी की सफलता का सबसे बड़ा रहस्य है- उनका लगातार व्यंग्य के क्षेत्र में कर्मठता से सक्रिय रहना। आपके अब तक तेरह व्यंग्य संकलन, तीन व्यंग्य नाटक, दो संस्मरणात्मक कृतियां प्रकाशित हो चुकी हैं। अनेक विश्वविद्यालयों द्वारा आपकी रचनाओं पर शोध कार्य हुए हैं। प्रेम जनमेजय जी की लंबी साहित्यिक-यात्रा पर विस्तार से लिखा जा सकता है। किंतु यह सच्चाई है कि मैंने आपकी सभी व्यंग्य रचनाएं पढ़ी नहीं है, इसलिए व्यंग्य-अवदान पर लिखना फिलहाल टालते हुए यहां मैं संक्षेप में उनके सद्य कविता-संग्रह ‘मेरी नादान काव्याभिव्यक्तियां’ पर अपनी बात केंद्रित करना चाहता हूं। यह चर्चा यहां इसलिए भी जरूरी लगती है कि हाल ही में प्रेम जनमेजय जी को साहित्य अकादेमी ने कविता पाठ के लिए आमंत्रित किया है और कुछ मित्रों का कहना है कि प्रेम जी ने पाला बदल लिया है। मेरा कहना है कि यह जल्दबाजी में दिया गया बयान है। क्योंकि व्यंग्य ने जिसे चुना बह प्रेम जनमेजय है और वे कविता या किसी अन्य विधा क्षेत्र में रहते हुए भी व्यंग्य की ही बात करेंगे।     प्रेम जनमेजय जी ने अपने कविता संग्रह ‘मेरी नादान काव्याभिव्यक्तियां’ में अपनी बात ‘सुप्त काव्यकीटक का पुर्नजागरण’ शीर्षक से लिखी है। जिसमें उन्होंने लिखा है कि वे व्यंग्य लेखन में बाद में आए, उससे पहले कहानीकार और कवि के रूप में काफी काम किया था। कविता-संग्रह का श्रेय वे हरीश नवल जी और डॉ. संजीव जी को देते हुए बहुत सी बातों को भूमिका में विस्तार से लिखा गया हैं। इसी संग्रह में कवि-आलोचक दिविक रमेश और नीरज कुमार मिश्रा के आलेख हैं। ये दोनों आलेख प्रेम जी की कविता के पक्ष में लिखे गए हैं, जो इन कविताओं की पृष्ठभूमि के साथ समझने में बेहद सहायक कहे जा सकते हैं। सब कुछ गुडी-गुडी होने के बाद भी मेरा मानना है कि इस पुस्तक का प्रकाशन जल्दबाजी में किया गया है। हालांकि प्रेम जनमेजय जी ने लिखा है- “मैं अपनी किताब पर गंभीरता से काम करता हूं और कच्चापन बर्दाशत नहीं।” साथ ही इस कृति के लिए उन्होंने ‘तुतलाते साहित्य’ पद प्रयुक्त किया है। प्रेम जी की इस बात पर संदेह नहीं है कि वे किताब पर गंभीरता से काम करते हैं किंतु प्रकाशक ने यहां उनकी गंभीरता को खंडित किया है।
    संग्रह के विषय में सर्वप्रथम तो यह कि इसमें प्रेम जनमेजय की अलग-अलग दौर और मनःस्थितियों में लिखी कविताएं संग्रहित है। अच्छा होता कि कविताओं के साथ उनका रचनाकाल भी दिया जाता। दूसरा यह भी कि अनेक स्थलों पर प्रूफ की भूलों के साथ ही अनुक्रम में पृष्ठ संख्या दर्ज नहीं है। साथ ही कुछ कविताओं को किसी अन्य कविता के हिस्से के रूप में मर्ज कर दिया गया है। यह जिसे आप ‘तुतलाते साहित्य’ और ‘नादान’ जैसे नामों से परिचित करा रहे हैं इसमें भी नादानी अथवा अभिव्यक्ति की कमी नजर नहीं आती है। प्रेम जनमेजय गहरे अध्येयता और साहित्य के रसिक रहे हैं साथ ही लंबे समय तक प्राध्यापक के रूप में साहित्य से जुड़े रहे हैं। आप ने देश-विदेश के अनेक विश्वविद्यालयों में अपनी सेवाएं दी है। ऐसे में कोई कैसे मान सकता है कि हिंदी कविता के बदलते मिजाज से आप पूर्णरूपेण परिचित ही नहीं हैं, ये सभी नादानियां भी है तो सोच समझ कर पूरे होश-ओ-हवास के साथ है। यह जरूर है कि आपने नियमित रूप से कविताएं नहीं लिखी किंतु एक लंबे दौर- छायावद से नई कविता की महक इन कविताओं में है। विद्यार्थियों को आपने अनेक हिंदी कवियों की कविताओं के मर्म को समझाया है। वे इस क्षेत्र के ओर-छोर से पूर्णतः परिचित हैं।
    ‘प्राध्यापक’ शीर्षक से छोटी व्यंग्य कविता है, जिसमें कवि ने विनोद किया है- ‘नवीन, कुंजियों को/ नक्ल अक्ल से कर-कहने वाली/ -एक मशीन-’ इसके पश्चात की कविता जिसे अनुक्रम में ‘मॉड’ शीर्षक दिया है उसे भी इस कविता के हिस्से के रूप में मर्ज कर प्रस्तुत करने की नादानी यहां जरूरी हुई है। शिक्षक और विद्यार्थी के ज्ञान और संबंधों के विषय में विरोधाभास को वे व्यंग्य के माध्यम से वे उजागर करते हैं। गहरे व्यंग्य का स्वर भी अनेक कविताओं में प्रमुखता से देखा जा सकता है।    
    इस संग्रह में संकलित कविताओं में बदलती काव्य-भाषा के विभिन्न रूपों को देख सकते हैं, वहीं छंद-गीत और नई कविता के अनेक अयामों को उद्घाटित होते भी देखा जा सकता है। ‘हमारा हिंदी गीत’ में हिंदी की महिमा का गान हुआ है, तो जहाजी चालीसा और मुक्तक-दोहा आदि का भी अपना महत्त्व है। ‘कुछ मुक्तक’ के साथ ‘असफल गीत’ को मिला कर मुद्रित किया गया है। संभवतः अनुक्रम में चार खंडों को करने का प्रयास हुआ है किंतु जितनी और जैसी गंभीरता से संपादन-प्रकाशन का काम होना चाहिए, वह इस संस्करण में नहीं हुआ है। ऐसा लगता है कि सुप्त काव्यकीटकों को फिर से सुलाने का कुछ काम जाने-अनजाने में हुआ है। इतना सब कुछ होने के बाद भी ऐसा बिल्कुल नहीं है कि ‘ऊंची दुकान फीके पकवान’। पकवान तो मीठे ही हैं, जितना उन्हें मीठा होना चाहिए था। बस इन पकवानों को अगर आप पहचान सकेंगे तो निसंदेह इस कृति को पढ़कर आनंद आएगा। यह प्रेम जनमेजय की अतिरिक्त मेधा का परिचय देने वाली कृति है। मेरा मत है कि यह कृति असल में आनंद देने-लेने के लिए ही तैयार की गई है। कवि ने श्री नागार्जुन से क्षमा-याचना सहित एक कविता ‘आपात अकाल चर्चा’ इस संग्रह में संकलित की है, जिसे अनुक्रम में ‘आकाल-चर्चा’ नाम दिया गया है। साथ ही यह कविता ‘पत्रोत्तर’ के नीचे प्रकाशित हुई है। कविता का अंश देखिए- ‘बहुत दिनों तक जनता सोई/ संसद रही उदास/ बहुत दिनों तक पत्नी सोई/ डरे पति के पास।’ ऐसी पेरोड़ी व्यंग्य कविता कोई अकवि अथवा कुकवि नहीं लिख सकता है इसलिए मेरा मत है कि बेशक यह हिस्सा आपके साहित्य में तुलनात्मक रूप से बहुत छोटा हो किंतु यह एक जरूरी हिस्सा है जिसे देखा-समझा जाना चाहिए। प्लैटिनम जयंती के अवसर पर आदरणीय कवि प्रेम जनमेजय जी को अपार शुभकामनाएं।
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डॉ. नीरज दइया



 






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