गीतकार आनंद बक्सी ने लिखा था- ‘आईना वो ही रहता है, चेहरा बदल जाते हैं...’ ऐसे में ‘बचपन के आईने से’ बाल कहानी संग्रह का शीर्षक महज यह संकेत देता है कि लेखिका डॉ. शील कौशिक ने इन बाल कहानियों में बचपन के कुछ चित्र आईने की स्मृति से चुने हैं। डॉ. शीला कौशिक ने विविध विधाओं में लिखा है और बदलते चेहरों के अनेक चित्र प्रस्तुत किए हैं। ‘बचपन के आईने से’ संग्रह में 18 कहानियां है और उनसे पूर्व में उनकी दो टिप्पणियां भी है। संग्रह की भूमिका ‘बालकथा संग्रह के बहाने’ को लेखिका डॉ. शील कौशिक अपने बाल पाठकों को दादीजी बनकर उन्हें सामूहिक रूप से संबोधित करते हुए एक पत्र के रूप में लिखा है। बच्चों को वे अपने सृजन और पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में बताती हुई अपने मानकों और कहानियों की दुनिया की कुछ बातों को साझा करती हैं। इसके बाद ‘अपनी बात.... अभिभावकों से’ में वे बच्चों के माता-पिता और अन्य बड़ों से संबोधित होती हैं। बाल साहित्य के विविध मानकों में एक मानक यह भी है कि बाल साहित्य न केवल बच्चों को प्रभावित करे बल्कि वह बड़ों के लिए भी उतना ही उपयोगी और पठनीय हो। इस मानक पर यह कृति खरी उतरती है। कहानियों में ‘बचपन के आईने से’ नाम से कोई कहानी नहीं है, यह शीर्षक केवल कहानियों की पृष्ठभूमिक को स्पष्ट करता है।
पहली कहानी ‘जीरो से हीरो’ में उमा जैसी लड़की साधारण लड़की का प्रेरणास्पद संघर्ष है तो ‘झबरी और उसके बच्चे’ में बच्चों का जानवरों के प्रति प्रेम तो ‘गुल्लू बंदर’ में जानवरों का बच्चों के प्रति प्रेम उजागर हुआ है। मानवीय संवेदनाओं और ज्ञान का विस्तार ‘पहाड़ का रहस्य’ कहानी में देखा जा सकता है। इसमें पर्यावरण और प्रकृति के ज्ञान का विस्तार कहानी में बहुत सहजता से किया गया है। ‘ममता’ कहानी में पशुओं का प्रेम और समझ को रेखांकित किया गया है, वहीं ‘पोलियो मुक्ति’ में एक घटना प्रसंग को कहानी का आधार बनाते हुए जन चेतना की बात है। कहानी सकारात्मक बदलाव को रेखांकित करती है वहीं अंत में लेखिका ने नोट के रूप में लिखा है- ‘अब हमारा देश भी 2014 में सचमुच पोलियो-मुक्त घोषित हो चुका है।’ (पृष्ठ-29)
बाल साहित्य लेखन की बड़ी समस्या यह भी होती है कि बच्चों के विभिन्न आयु वर्ग लेखन के बहुत घटकों को प्रभावित करते हैं। ऐसे में बाल साहित्य के अंतर्गत ऐसी रचनाएं होनी चाहिए जो सभी बच्चों के लिए उभयनिष्ठ प्रभाव के साथ उन्हें दिशा देने वाली हो। संग्रह में ऐसी ही एक कहानी है- ‘मनु और कनु’ जो बचपन में नासमझी के कारण फूल-पत्तों और पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले बच्चों के लिए संकेत लिए हुए है। कहानी में पांच वर्षीय मनु अपनी छोटी बहन तीन वर्षीय कनु को चिटियां नहीं मारने और फूल-पत्तियों को नुकसान नहीं पहुंचाने का सहज संदेश देती है। ‘तुझे पता नहीं था ना कि गुलाब के फूल के साथ कांटे भी होते हैं, मना किया था ना तुझे, अब तुझे कितना दर्द हो रहा है, ऐसे ही इन फूलों को भी दर्द होता है। आईंदा फूल मत तोड़कर बिखराना समझी?’ (पृष्ठ-32) इसके बाद कनु को चींटियां जगह जगह काट गई कारण उसने बिस्तर पर बैठ कर बिस्कुट और केक खाया था। बहुत सहज संकेतों को कहानी में नियोजित कर किसी एक मुख्य उद्देश्य के साथ बहुत सी बातें सीखा-समझा सकते हैं। कहानीकार का यह कौशल है कि कहानी में सीखाने-समझाने का यह भाव आरोपित अथवा थोपा हुआ नहीं लगता, वरन सब कुछ घटना-प्रसंगों में सहज रूप से समायोजित किया गया है।
‘तोहफा’ कहानी किशोरोपयोगी है जिसमें मां और बेटे के संबंधों में जिम्मेदारी और जबाबदेही का अहसास है तो ‘साजिश’ कहानी में मोहल्ले की बूढ़ी दादी के पगली रूप का रहस्य मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। बच्चे भी हमारे समाज का अभिन्न अंग हैं, उन्हें अपनी समझ स्वयं विकसित कर गलत और सही का निर्णय लेने की दिशा में सदा अग्रसर होना चाहिए। संग्रह की अनेक कहानियां बहुत जीवंत घटना-प्रसंगों को कम शब्दों में समेटते हुए अनेक मार्मिक बातों को उद्घाटित करती हैं। ‘रंगों का जादू’ और ‘नन्हें जासूस’ कहानियों में समय सापेक्ष हिम्मत और अंतर्दृष्टि के विकास को देखा जा साकता है तो ‘दादी की सीख’ बालकों में सृजनात्मकता विकसित करने की दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम है।
‘तरकीब’ कहानी में नितिन की चोरी करने को एक नई तरकीब से पकड़ कर उसे पाठ पढ़ाया गया है और ‘अंधविश्वास’ में बालकों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास को कहानी के केंद्र में रखा गया है। समग्र रूप से कहा जा सकता है कि ‘बचपन के आईने से’ जो कुछ दिखता है अथवा लेखिका ने दिखाने का प्रयास किया है वह बेहद समयानुकूल है। संग्रह में कहानियों का आकार छोटा मगर घाव करे गंभीर जैसा है किंतु प्रकाशन में चित्रों को महज खानापूर्ति जैसे अंतजाल से उठा कर रख दिया गया है। बेहतर होता किसी चित्रकार को प्रकाशक द्वारा इस कृति से जोड़ा जाता तो इन कहानियों का प्रभाव द्विगुणित हो जाता। कहानियों के संबंध में पूर्व मेजर डॉ. शक्तिराज की फ्लैप पर लिखी टिप्पणी सार्थक है- “लेखिका की भावप्रवणता व बेहतर संप्रेषणीयता के कारण पाठक इनकी रचनाओं को आद्यंत पढ़ने को विवश हो जाते हैं। भाषा में क्लिष्ट शब्दों का प्रयोग न करके वे मुहावरों, लोकोक्तियां, उपमाओं, अलंकारों आदि से सजा कर अपनी रचनाओं को रोचक बना देती हैं।”
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पुस्तक : बचपन के आईने से (बाल कहानी-संग्रह) ; कहानीकार : डॉ. शील कौशिक ; प्रकाशक : सुकीर्ति प्रकाशन, करनाल रोड़, कैथल (हरियाणा) ; संस्करण : 2017 ; पृष्ठ : 88 ; मूल्य : 250/-
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डॉ. नीरज दइया
("बाल वाटिका" के मार्च 2018 अंक में)
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