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राजस्थानी व्यंग्य की प्राथमिकताएं/ डॉ. नीरज दइया

    ‘राजस्थानी व्यंग्य’ से यहां मेरा अभिप्राय राजस्थानी भाषा में आजादी के बाद विकसित और स्थापित एक गद्य विधा से है। सबसे बड़ा व्यंग्य यह है कि राजस्थानी भाषा और साहित्य की विशालता की बात करते हुए हम हिंदी भाषा और साहित्य को पीछे छोड़ देना चाहते हैं। इसे एक विशेष अर्थ में देखेंगे तो यकीक करना होगा कि वास्तव में राजस्थानी भाषा का हिंदी भाषा पर अतुलनीय ऋण है। यह वास्तविकता है कि हिंदी साहित्य के विशाल भवन की नींव में राजस्थानी साहित्य ही है। आदिकालीन रासो-काव्य के अंतर्गत ‘पृथ्वीराज रासो’ और अन्य रसो काव्य रचनाएं मूल में राजस्थानी भाषा की हैं। यहां यह भी कहा जा सकता है कि वर्षों पहले राजस्थानी के ऊपर हिंदी को व्यवस्थित कर उसका भवन बनाया गया और उसे निरंतर विकसित किया गया है। हिंदी भाषा और साहित्य के विकास के साथ ही संभावित विकास को महत्त्व देते हुए यहां किन्हीं भाषाओं के मुकाबले अथवा तुलना की बात खासकर आधुनिक व्यंग्य विधा पर चर्चा करते हुए करेंगे तो संभवतः यह उचित नहीं होगा। खासकर राजस्थानी भाषा में लिखे गए व्यंग्य और राजस्थान भूभाग अथवा राजस्थानी समाज के रचनाकारों द्वारा लिखे गए हिंदी व्यंग्य की बात व्यापक भारतीय परिदृश्य में सद्भावना से होनी चाहिए। राजस्थानी व्यंग्य की प्रमुखता अथवा प्राथमिकता सद्भावना ही है, और यहां विषय का दायरा व्यापक करते हुए मैं निवेदन करना चाहता हूं कि मूलतः हमारे संपूर्ण वैश्विक साहित्य की प्राथमिकता सद्भावना ही है।
    सद्भावना का घटक राजस्थानी लोक साहित्य में बहुत व्यापकता और विस्तृत रूप में चित्रित हुआ है। आधुनिक साहित्य और व्यंग्य विधा पर चर्चा से पूर्व सद्भावना का एक उदाहरण अपने शहर बीकानेर की स्थापना विषयक मैं प्रस्तुत करना चाहता हूं। एक दिन राव जोधा दरबार में बैठे थे, बीकाजी दरबार में देर से आए तथा प्रणाम कर अपने चाचा कांधल से कान में धीर-धीरे कुछ बात करने लगे। यह देख कर जोधा जी ने व्यंग्य में कहा- ‘मालूम होता है कि चाचा-भतीजा किसी नवीन राज्य को विजित करने की योजना बना रहे हैं।’ इस पर बीका और कांधल ने कहा कि यदि आप की कृपा होगी तो यही होगा। और इसी के साथ चाचा-भतीजा दोनों दरबार से उठ के चले आए तथा दोनों ने बीकानेर राज्य की स्थापना की। इस संदर्भ के हवाले व्यंग्य की प्राथमिकता की बात कर सकते हैं कि व्यंग्य को सदैव सकारात्मक रूप से ग्रहण किए जाने की योग्यता दोनों पक्षों में होनी चाहिए। साथ ही व्यंग्य को अपने लक्ष्य का संधान उद्देश्यपरक रखना होता है। राजस्थानी साहित्य के लोक साहित्य और आधुनिक कविता में प्रचुर मात्रा में व्यंग्य एक घटक के रूप में उपस्थित रहा है, किंतु हम जिस गद्य विधा व्यंग्य की बात कर रहे हैं वह बहुत बाद में और धीरे-धीरे विकसित हुई है। यह भी संदेह है कि व्यंग्य विधा को जितना और जिस रूप में विकसित होना चाहिए था, वह विकास हुआ भी है अथवा नहीं।
    हम राजस्थानी व्यंग्य विधा के विकास की बात करें उसके पूर्व कुछ प्रसिद्ध व्यंग्यकारों की व्यंग्य विषयक अवधारणों के आलोक में व्यंग्य की सीमाओं, संभावनाओं और प्राथमिकताओं को जानना जरूरी लगता है। प्रख्यात लेखक मनोहर श्याम जोशी कहते थे- ‘हम निर्लज्ज समाज में रहते हैं, यहां व्यंग्य से क्या फर्क पड़ेगा।’ इस कथक के आलोक में व्यंग्य की पहली प्राथमिकता है कि उससे समाज पर फर्क पड़ना चाहिए। बहुत बार हम अपनी प्राथमिकताओं से समझौता कर लेते हैं, किंतु यह जरूरी है कि ऐसा समझौता नहीं हो। ‘व्यंग्य-यात्रा’ के जनवरी-मार्च, 2010 अंक का यहां उल्लेख इसलिए आवश्यक है कि इस अंक में भारतीय भाषाओं के अंतर्गत व्यंग्य की चर्चा में राजस्थानी भाषा के व्यंग्य विमर्श को शामिल किया गया था। संपादक-व्यंग्यकार प्रेम जनमेजय का मानना है कि व्यंग्य में आलोचना कर्म उतना नहीं हुआ है, जितना अन्य विधाओं में... और यही कारण है कि वे अपनी पत्रिका के माध्यम से निरंतर सक्रिय हैं और व्यंग्य-आलोचना को प्रोत्साहित करते रहे हैं।
    व्यंग्य पुरोधा परसाई जी मानते थे- ‘व्यंग्य जीवन से साक्षात्कार करता है, जीवन की आलोचना करता है, विसंगतियों-मिथ्याचारों और पाखंडों का पर्दाफाश करता है।’ और प्रसिद्ध व्यंग्यकार डॉ. हरीश नवल ने कहा है कि व्यंग्य लिखना खाला का घर नहीं है। इसी क्रम में हम व्यंग्य-आलोचक सुभाष चंद्र जी की इस उक्ति का भी स्मरण कर सकते हैं कि व्यंग्यकार लेखक के लिए नहीं वरन पाठक के लिए लिखें। अर्थात व्यंग्यकार को अपनी प्राथमिकता में सदैव पाठक को केंद्र में रखते हुए बहुत सावधानी से व्यंग्य में हाथ डालना चाहिए क्योंकि यह खाला का घर नहीं हैं। व्यंग्य आलोचना के क्षेत्र में स्वयं व्यंग्यकार आलोचना की दिशा में सजग हो रहे हैं लेकिन हमें इस प्राथमिकता को गहराई से समझना होगा कि अपने अध्ययन में हम जिससे प्रभावित हों उसकी चर्चा ईमानदारी से करें और जो कुछ अच्छा नहीं लगे अथवा कुछ न्यूनताएं दिखाई देती हैं तो उसे खुलकर प्रस्तुत करने की हिम्मत दिखानी होगी। ऐसी चर्चा और आलोचना से ही साहित्य के क्षेत्र में जो खरपतवार उग आई है उसका सफाया होगा।
    व्यंग्य विधा के अंतर्गत भाषा ही वह औजार है जिसके द्वारा व्यंग्यकार पाठक के अंतस में पेठ कर उसे गहरे तक स्पर्श करता है। बिना धारदार अथवा मारक भाषा के बिना यह स्पर्श ऐसा होगा कि पाठक को मालूम भी नहीं चलेगा कि व्यंग्य कहां स्पर्श कर रहा है। सपाटबयानी से बचते हुए यदि व्यंग्यकार सहज-सरल भाषा में शैल्पिक आकर्षण का रहस्य खोज लेता है तो बात दूर तक जाती है। यहां पाठक के साथ जुड़ने के लिए व्यंग्यकार को सजगता, प्रासंगिकता और समयानुकूलता के घटकों पर सतत ध्यान रखना होता है। किसी के पास ऐसा कोई सूत्र नहीं है कि आप और हम व्यंग्य में कितने प्रतिशत हास्य का इस्तेमाल करें और कितने प्रतिशत मिर्च का? यह स्पष्ट हो जाए। व्यंग्य को रोचक होना चाहिए और रोचकता के लिए मौलिकता के साथ-साथ प्रभावशाली भाषा हमें दूर तक ले जा सकती है। आत्म-व्यंग्य से खुद को बचाना अथवा समाज की रग-रग से वाकिफ नहीं होना व्यंग्यकार की कमजोरी है। व्यंग्यकार केवल व्यंग्यकार ही नहीं अपने भीतर के आलोचक, चित्रकार अथवा डाक्टर को भी पहचान लें। यहां अनेक संभावनाओं के साथ चुनौतियां भी है।
    हमारी प्रांतीय भाषाओं में लोक की अमूल्य थाती है। परंपरा विकास की यात्रा में लोक उसे मजबूत और दृढ़ बनाते हुए बहुत सटीक भाषा प्रदान करता है। राजस्थानी में व्यंग्य की जमीन बनाने में मनोहर शर्मा के ‘रोहिड़ै रा फूल’, श्रीलाल नथमल जोशी के ‘सवड़का’, नृसिंह राजपुरोहित के ‘हास्यां हरि मिळै’, बुद्धिप्रकाश पारीक के ‘चबड़का’ और मूलचंद प्राणेश के ‘हियै तणा उपाय’ का योगदान माना जाना चाहिए। राजस्थानी भाषा में विधिवत व्यंग्य साहित्य का आरंभ भी आधुनिक कहानी और कविता के आरंभ होने के कालखंड 1971 के आसपास माना जाना चाहिए। राजस्थानी भाषा के सामने संकट प्रकाशन का भी रहा है। अनेक व्यंग्यकारों के संकलन समय पर प्रकाशित नहीं हुए और अनेक व्यंग्यकारों ने ऐसी समस्याओं के रहते व्यंग्य लेखन से हाथ पीछे खींच लिया। राजस्थानी व्यंग्य के आरंभिक काल में व्यंग्य और हास्य को पर्याय मानकर लिखने वाले अनेक रचनाकार हुए हैं। व्यंग्य में सद्भावना और सुधार के मूल उद्देश्य को अनेक स्थलों पर उपदेश के रूप में देखा जा सकता है। मुहावरों और कहवतों द्वारा किसी भी बात को अच्छे ढंग से संक्षिप्ता के साथ प्रस्तुत कर सकते हैं वहीं अगर यह उद्देश्यपरक नहीं हो तो युगबोध की अभिव्यक्ति नहीं हो सकती है। कुछ न्यूनताओं के उपरांत भी राजस्थानी भाषा की ठकस और बांकपन के साथ कुछ ऐसे व्यंग्य लिखे गए हैं, जिनको पढ़कर बेजुबान लोग भी तिलमिलाने और बोलने लगते हैं।
    राजस्थानी व्यंग्य के आदि पुरुष अथवा पहला व्यंग्यकार भले कोई रहा हो, किंतु पुस्तकाकार अपनी पहली कृति ‘कवि, कविता अर घरआळी’ (1981) का श्रेय व्यंग्यकार बुलाकी शर्मा को है। दोनों भाषाओं में व्यंग्यकार के रूप में ख्यातिप्राप्त बुलाकी शर्मा के अनेक व्यंग्य संग्रह प्रकाशित हैं, किंतु राजस्थानी की बात करेंगे तो ‘इज्जत में इजाफो’ (2000) और ‘आपां महान’ (2020) कुल तीन कृतियां प्रकाशित हुई है। प्रहलाद श्रीमाळी के ‘आवळ-कावळ’ (1991) और भगवतीप्रसाद चौधरी के ‘सुपनै में चाणक’ (1995) के बाद युवा व्यंग्यकार के रूप में जिस रचनाकार को ख्याति मिली वह शंकरसिंह राजपुरोहित है। राजपुरोहित ने ‘सुण अरजुण’ (1995) और ‘म्रित्यु रासौ’ (2017) द्वारा व्यंग्य को एक नई भाषा देने के साथ ही राजस्थानी लोक की ऊर्जा से व्यंग्य को प्राणवान बनाया।
    प्रख्यात कवि-कहानीकार सांवर दइया (1948-1992) के निधन के चार वर्ष बाद उनका व्यंग्य संग्रह ‘इक्कयावन व्यंग्य’ (1996) प्रकाशित हुआ जिसमें वे व्यंग्य शामिल है जो उन्होंने काफी पहले लिखे थे और विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और संकलनों में प्रकाशित हुए थे। नृसिंह राजपुरोहित का कहना था- ‘सांवर दइया में व्यंग्य करने का अच्छा सामर्थ्य है। चादर में लपेट कर जूता मारना हरेक के बस का रोग नहीं है।’ यहां यह भी उल्लेखनीय है कि व्यंग्य की प्राथमिका है कि वह चादर और जूते का आकलन करता चले। इसी दौरान श्याम गोइन्का के तीन व्यंग्य संग्रह– बनड़ां रो सौदागर (1988), लोड़ी मोड़ी मथरी (1994), गादड़ो बड़ग्यो (1999) प्रकाशित हुए हैं।     बीसवीं शताब्दी के पूरे परिदृश्य में राजस्थानी व्यंग्य विधा के रूप में विधिवत स्थापित हुआ और व्यंग्य में भाषा और शिल्प के स्तर पर अनेक प्रयोग भी हुए हैं। इक्कीसबीं शताब्दी में प्रकाशित राजस्थानी के व्यंग्य संग्रह हैं- मदन केवलिया - गिनिज बुक सारू (2004), नंदकिशोर सोमानी - फाईल री आत्मकथा (2004), नागराज शर्मा- धापली रो लोकतंत्र’ (2005) ‘एक अदद सुदामा’ (2010), मनोहरसिंह राठौड़ – मूंछां री मरोड़ (2005), विनोद सोमानी हंस - पांच छंग तीस (2005), दुर्गेश - उजळा दागी (2005), हरमन चौहान - लखणां रा लाडा (2006), शरद उपाध्याय - चुगली री गुगली (2007), देवकिशन राजपुरोहित- ‘म्हारा व्यंग्य’ (2009) अर ‘निवण’ (2012), मंगत बादल- भेड़ अर उन रो गणित (2010), श्याम जांगिड़ – म्हारो अध्यक्षता कांड (2010), श्यामसुंदर भारती - कलम अर बंदूक (2012), सुरेंद्र शर्मा - महूँ पिच खोद्यां मानूंगो (2013), छगनलाल व्यास - पत्नीव्रता (2015), छत्र छाजेड़- जे इयां है तो है (2015), कैलासदान लालस - भला जो देखन मैं चला(2016), पूरन सरमा - चस्को राम राज रो (2017), राजेन्द्र शर्मा मुसाफिर- सत्त बोल्यां गत्त (2020) आदि। संभव है कुछ लेखक और किताबों के नाम यहां छूट गए हो, किंतु इस यात्रा में केवल बीस-बाइस अथवा इससे कुछ अधिक व्यंग्य संग्रहों का प्रकाशित होना बहुत कम कहा जाएगा। जब आलोचना की बात करेंगे तो इन में से काफी-कुछ को व्यंग्य की परिधि से बाहर करना होगा। व्यंग्य के विकास में सक्रिय रचनाकारों की प्राथमिकता में सर्वाधिक जरूरी व्यंग्य विधा में भारतीय साहित्य में सक्रिय रचनाकारों का अध्ययन, चिंतन और मनन है। राजस्थानी व्यंग्य के क्षेत्र में प्रयोग और विषयगत नवीनता के क्षेत्र में अधिक काम करने की आवश्यकता है। घिटे-पिटे विषयों की तुलना में हमें वर्तमान समय और समाज की आवश्यकता को गहराई ने जानने के प्रयास अधिक तेज करने होंगे।
    सुखद है कि कृष्ण कुमार आशु का राजस्थानी में पहला व्यंग्य उपन्यास ‘ब्याधि उच्छब’ आया है और वे प्रेम जनमेजय के चयनित व्यंग्य भी राजस्थानी में ला रहे हैं। राजस्थानी व्यंग्य के विकास के लिए जागती जोत, बिणजारो, राजस्थली, मरवण आदि अनेक पत्रिकाएं सक्रिय है वहीं बहुभाषी पत्रिका ‘हास्य व्यंग्यम’ भी निरंतर राजस्थानी व्यंग्य रचनाओं को स्थान दे रही है। राजस्थानी भाषा के समर्पित रचनाकारों के बीच कुछ रचनाकार ऐसे भी शामिल हैं जो मूल में हिंदी व्यंग्यकार हैं किंतु कुछ लाभ देखकर राजस्थानी में आए हैं। उनका भी स्वागत है किंतु उन्हें भाषा के प्रति सजग होना होगा। आलोचना में राजस्थानी भाषा के व्यंग्य की हिंदी अथवा अन्य भारतीय भाषाओं के साथ तुलाना करते हुए हमें इसके विकास की परिस्थितियों को भी ध्यान में रखना होगा। भविष्य में सरकारी संरक्षण और भाषा की मान्यता से प्रकाशन के क्षेत्र में सुगमता आएगी, वहीं अन्य लेखक सक्रियता के साथ जुड़ेंगे तब विकास की गति तेज हो सकेगी वहीं हमें युवा व्यंगकारों को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता को समझना होगा।   
००००
डॉ. नीरज  दइया
 

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