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एक अलग और विशिष्ट अंदाज की कवयित्री रति सक्सेना/ डॉ. नीरज दइया

            आज रति सक्सेना एक ऐसा नाम है जिसे साहित्य की विधाओं, भाषाओं अथवा क्षेत्र की सीमाओं में बांधना संभव नहीं है। आपने जहां कविता, अनुवाद, यात्रा-वृतांत, शोध, आलोचना, संपादन आदि में विपुल कार्य किया है, वहीं विभिन्न भाषाओं में समानांतर लेखन-अनुवाद द्वारा देश-दुनिया में अपनी पहचान को नए रंग दिए हैं। मुझे लगता है कि रति सक्सेना जैसी गंभीर रचनाकार के विविध विधाओं और माध्यमों में सक्रिय रहने से उनकी रचनात्मकता के कुछ मूलभूत पक्षों का विशद मूल्यांकन नहीं हुआ है। आपके यात्रा-वृतांत के विषय में पढ़ते-लिखते हुए मैंने यह महसूस किया कि वे हमे वैश्विक परिदृश्यों से जहां रू-ब-रू करती हैं, तो उनकी भाषा में एक किस्म की काव्यात्मकता भी अनेक स्थलों पर देखी जा सकती है। असल में उनके यात्रा-वृतांत विशेषकर कविता आयोजनों में शामिल होने से जुड़े हैं। उनके गद्य में अनेक स्थलों पर उनका कविताओं से जुड़ाव-लगाव देखते ही बनता है। वहीं बीच बीच में कविताओं अथवा काव्यांशों के साथ साहित्य की दुनिया भी हमारा ध्यान आकर्षित करती है। हमें यात्राओं में केवल दुनिया के विविध देशों जगहों का परिचय या ब्यौरा ही नहीं मिलता वरन हमारा वैश्विक साहित्य और इतिहास से परिचय व्यापक होता चला जाता है।
            रति सक्सेना के प्रथम कविता-संग्रह ‘माया महाठगिनी’ (1999) से मैं उनका पाठक रहा हूं। हमारे संवाद का आरंभ भी इसी संग्रह के आने से हुआ था। यह संग्रह मेरे शहर बीकानेर से प्रकाशित हुआ है। मुझे लगता रहा है कि राजस्थान के उदयपुर में 08 जनवरी, 1954 को जन्मी रति सक्सेना के काव्य-पक्ष पर बहुत कम ध्यान दिया गया है, जबकि उनके कविता संग्रह लगातार प्रकाशित होते रहे हैं। उनकी काव्य-यात्रा के अगले पड़ावों की बात करें तो काव्य संग्रह- ‘अजन्मी कविता की कोख से जन्मी कविता’ (2001), ‘सपने देखता समुद्र’ (2003), ‘एक खिड़की आठ सलाखें’ (2007) और ‘हँसी एक प्रार्थना है’ (2019) तक की पूरी एक लंबी यात्रा है। यह संग्रह उनके अलग और विशिष्ट अंदाज की कवयित्री होने के लगातार संकेत देते रहे हैं। यह बेहद सुखद है कि हाल ही में आपके कविता-संग्रह ‘हँसी एक प्रार्थना है’ पर राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर का सर्वोच्च पुरस्कार ‘मीरा पुरस्का’ घोषित हुआ है। देश विदेश में कविता की दुनिया में पहचानी जानी वाली कवयित्री का यह राजस्थान से पहला बड़ा पुरस्कार है।  
            रति सक्सेना की कविताओं में प्रवेश से पहले यह जानना जरूरी है कि वे कविता को लेकर किस हद तक समर्पित, गंभीर और संघर्ष करती रही है। यह बहुत महत्त्वपूर्ण है कि कवयित्री ने अपने अध्ययन-चिंतन-मनन को आपने कविता के उद्गम या कहें वेदों से आरंभ कर इति तक गहन जुड़ाव से इस यात्रा को समृद्ध किया है। निसंदेह वेदों पर कार्य श्रमसाध्य रहा है। उन्होंने वैश्विक परिदृश्य में अनेक नवीन प्रतिमान प्रतिस्थापित भी किए हैं। भारतीय मेधा का प्रमाण हमारे वेद और उनमें छिपे गूढ़ अभिप्रायों को आपने आलेखों और अपनी पुस्तकों के माध्यम से जहां स्पष्ट किया है वहीं उन पर शोध आपका प्रिय विषय रहा है। हिंदी और अंग्रेजी में आप द्वारा संपादित इंटरनेट पत्रिका ‘कृत्या’ का उद्देश्य भारतीय साहित्य को विश्व पटल पर ख्याति प्रदान करवाना रहा है। यह पत्रिका हिंदी और अंग्रेजी में समानांतर रूप से इंटरनेट पर प्रकाशित हो रही है। यह भी सुखद है कि उम्र के इस मुकाम पर भी रति सक्सेना सक्रिय है और युवाओं के प्रति अतिरिक्त संवेदनशीलता के साथ कार्य कर रही हैं। कविता को लेकर उनकी सजगता और गंभीरता का ही परिणाम है कि वे अनेक विश्वस्तरीय कविता आयोजनों का हिस्सा रही हैं। उन्होंने स्वयं ऐसे आयोजनों को भारत में ‘कृत्या’ के माध्यम से करवाया भी है। उनकी कविता की जमीन के विषय में हम उनके यात्रा वृत्तांत-संग्रह ‘चींटी के पर’, ‘सफ़र के पड़ाव’ और ‘अटारी पर चांद’ से बहुत कुछ जान सकते हैं। इस पूरी पृष्ठभूमि उनके कविता प्रदेश में प्रवेश कर उसके आस्वाद के लिए जरूरी हैं।
            रति सक्सेना एक सहज, सरल अथवा साधारण कवयित्री नहीं, वरन वे अपनी काव्य-यात्रा द्वारा एक गूढ़, संश्लिष्ट और असाधारण होती जा रही हैं। सीधे शब्दों में कहें तो वे एक अलग और विशिष्ट अंदाज की अपनी तरह की एक ऐसी कवयित्री है जिसने अपनी कविता-भूमि का विस्तार भाषा, शिल्प और भाव के स्तर पर किया है। इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि उन्होंने कविता को समकालीन परिदृश्य में वैश्विक कविता के समानांतर ले जाने के लिए लंबी यात्रा की है। हिंदी, अंग्रेजी, मलयालम के साथ विश्व की अनेक भाषाओं से रति सक्सेना का संपर्क और जुड़ाव उनकी  कविता को निरंतर नए आयाम, विस्तार और वितान देते रहे हैं। वे संभवतः पहली ऐसी भारतीय कवयित्री हैं जिनको देश-विदेश में दूर-दूर तक एक व्यापक पहचान और सहमति मिली है। वे जितनी यायावर रहीं हैं, उतनी अन्य कोई उनकी समकालीन नहीं है। यह सब उनकी कविता के लिए एक पूरा परिदृश्य और खाद-पानी तैयार करने जैसा रहा है।
            रति सक्सेना की कविता अथवा ऐसी किसी महिला रचनाकार की कविता पर बात करते हुए यह कहना बेहद सरल और साधारणीकृत मानक है कि आपकी कविता में एक स्त्री मन के संघर्ष की विविध व्यंजनाएं नजर आती हैं। ऐसा नहीं है कि उनकी कविता में यह पक्ष नहीं है। निर्मला पुतुल ने लिखा है- ‘तन के भूगोल से परे/ एक स्त्री के/ मन की गाँठे खोलकर/ कभी पढ़ा है तुमने/ उसके भीतर का खौलता इतिहास’ इन्हीं शब्दों में कहें तो रति सक्सेना की कविता में स्त्री मन की अनेक गांठों के भीतर खौलते इतिहास को प्रस्तुत करने का साहस है। ‘एक खिड़की आठ सलाखें’ कविता-संग्रह की पहली शीर्षक कविता की पंक्तियां है- ‘मैं खिड़की के पीछे हूं/ खिड़की मेरे सामने है/ दोनों क्या एक बात है?’
            रति सक्सेना की यह विशेषता है कि वे कुछ शब्दों और चंद पंक्तियों के माध्यम से एक लंबी कहानी कहने का सामर्थ्य रखती हैं। केवल दो पंक्तियों की एक कविता पूर्ण होती है- ‘जैसे ही खिड़की खुलती है/ मेरी बंद सांस चलने लगती है।’ इसी प्रकार एक अन्य उदाहरण देखें- ‘मेरा अपना सपना/ खिड़की के बाहर/ मैं भीतर।’ यह केवल एक भारतीय स्त्री का खौलता इतिहास नहीं है, बल्कि संपूर्ण स्त्री जाति के अनेक संदर्भ इसमें समाहित है। सरलता, सहजता और साधारण शब्दावली के आवरण में कवयित्री जैसे कुछ विस्फोटक पदार्थों का संचय करती हुई आगे और आगे बढ़ती जाती हैं। उनकी पहली यात्रा-वृतांत की पुस्तक का शीर्षक ‘चींटी के पर’ है और ‘एक खिड़की आठ सलाखें’ कविता में भी एक छोटी सी कविता के माध्यम से लघुता में विराट होने के संघर्ष और संदर्भ को प्रस्तुत किया गया है- ‘पिता का एक प्रिय वाक्य था/ ‘जब चींटी की मौत आती है तो पर निकलते हैं’/ इस मुहावरे का प्रयोग वे जब तब कर लिया करते थे/ जब कभी हमारे सपने उड़ान के लिए तैयार होते/ उनका मुहावरा हमारे सामने डट जाता।’
            आज भी पितृसत्तात्मक समाज में बहुत बदलाव नहीं आया है। सपनों की उड़ान नहीं, उसकी तैयारी में यह प्रतिरोध का प्रथम ‘सामाने डट’ जाना निसंदेह सबसे बड़ा प्रतिरोध है। घर-परिवार के बाद पति का घर और सास-ससुर बाद बच्चे... सभी घटक सपनों की उड़ान के विपक्ष में इस प्रकार व्यवस्थित कर दिए गए हैं कि चींटी के पर निकलने हीं नहीं देते हैं। और यदि निकल भी आएं तो उड़ान कहां संभव होती है? बंद घर में एक खिड़की नहीं है। और यदि है भी तो उसकी एक सलाख ही उसे रोकने के लिए पर्याप्त है। फिर यहां तो आठ सलाखों की अभिव्यक्ति करते हुए रति सक्सेना स्त्रियों को जड़ बना दिए जाने की त्रासदियों को व्यंजित करती हैं। समाज के पूरे आधे हिस्से को किसी चित्र में कैद कर देने वाले समाज में उनकी आजादी और अभिव्यक्ति की बात वे करती हैं। ‘रिश्ते’ कविता में हमारे संबंधों की वास्तविकता को कुछ पंक्तियों में इस प्रकार अभिव्यक्ति मिली है-
            ‘कुछ रिश्ते/ तपती रेत पर बरसात से/ बुझ जाते हैं/ बनने से पहले
            रिश्ते/ ऐसे भी होते हैं/ चिनगारी बन/ सुलगते रहते हैं जो/ जिंदगी भर
            चलते साथ/ कुछ कदम/ कुछ रुक जाते हैं/ बीच रास्ते
            रिश्ते होते हैं कहां/ जो साथ निभाते हैं/ सफर के खत्म होने तक।’
            यहां कविता में जिस प्रकार बिंबों से हमारे रिश्तों की अनुभूतियों को अभिव्यक्त किया गया है, वह समझने-समझाने के लिए पर्याप्त है। जीवनानुभव के साथ एक व्यापक दृष्टिकोण ही नहीं कविता में अंत तक पहुंचते-पहुंचते जिस साहस को अप्रत्यक्ष रूप से लाया गया है, वह निश्चय ही कहीं खड़ित होने वाला नहीं है। अन्य एक उदाहरण इन पंक्तियों में भी देखा जा सकता है- ‘वे कहते हैं कि/ उनकी रातें पहाड़ है/ पर मेरी तो/ उथला पोखर ही/ फिर भी/ रात जागती है/ मेरी आंखों में।’ (पहाड़ी रातें)
            रति सक्सेना की आरंभ की कविता-यात्रा में जहां कविता में जीवन की विविध अनुभूतियों को समाहित करते हुए, वे अपने लिए रास्ता बनाने की एक मुहिम चलाती नजर आती हैं। वहीं आगे की इस यात्रा में वे बड़े फलक पर अनेक नए घटकों को जोड़ते हुए जैसे विस्तारित वैश्विक जगत में मनुष्य की पहचान को उसकी अपनी एक इकाई के साथ प्रस्तुत करती हैं। इस विस्तार को हम हमारी अनुभूतियों में समाहित करने के लिए जब कविता में उतरते हैं, तब जाने-अनजाने अनेक संदर्भ हमारे सामने आते हैं। ‘जुले-लेह’ कविता में जुले का अभिप्राय स्वागत है, इसका भान कविता कराती है। यदि नहीं कराती है तो वह पाठक को प्रेरित करती है कि देश के भीतर और आस-पास के क्षेत्रों के अनेक शब्दों को उनके सांस्कृतिक जीवन के साथ ग्रहण करना जरूरी है। लोक और विज्ञान के द्वंद्व को भी कविता में प्रकारांतर से प्रस्तुत किया गया है। इसी कविता में कवि के जीवन और उसकी विकसित होती विचारधारों के संघर्षों को भी हम देख सकते हैं।
            धरती पर प्रांतों की सीमाएं हैं। एक राजस्थान तो दूसरा केरल है जहां से कवयित्री के जीवन संदर्भ जुड़े हैं। ऐसे में धरती के भू-भागों की विविधताओं में आकाश, चंद्रमा और बादलों की विविधता अथवा समानता के विषय में क्या कहा जाएगा?
            ‘इसे मून-लैंड कहते हैं/ नवांग छेरिंग कहता है-/ तो फिर चंद वैसा नहीं जैसा कि/ मुझे दिखता है?/ उदयपुर की झील में/ कांसे की थाली सा तैरता/ नारियल के दरख्तों में/ उलझा सा/ बादलों से झगड़ता सा’ रति सक्सेना के यहां कविताओं का मूल संघर्ष चीजों की वास्तविकताओं के उझले होने का है। सवाल यह है कि जो जहां से जैसी दिखती है या कहें दिखाई जाती है, वह केंद्र और अक्ष के बदल जाने पर भिन्न क्यों हो जाती है? स्थितियों के बनने और बिगड़ने के इस क्रम में वह अनेक यात्राएं करती है। जिस भांति कोई योगी जगह-जगह ईश्वर को खोजता है, वैसे ही कवयित्री परम सत्य की तलाश में यात्राओं में भटकन झेलती है। यह भटकन भीतरी है। जो सदैव आकुलता और उत्सुकता से सत्य को परखना चाहती है। उदाहरण के लिए- जैसे कामाक्षी के मंदिर में पहुंच कर कवयित्री ने एक कविता रची- ‘गर्भ जल के संस्कार’। जिसमें परम सत्य के खंड-खंड में विभाजित कर सत्य को संस्कार के नाम पर विचलित करने का बोध होता है, वहीं भक्त और शिव का मर्म भी उद्घाटित होता है।
            दुनिया का प्रयास है कि सभी कुछ समानांतर रहे और जीवन अपनी अबाध गति से जैसा बह रहा है वैसे ही बहे, और बहता रहे। किंतु इस जैसे रूप पर रति सक्सेना की कविताएं यथास्थितिवाद का प्रतिरोध है। ‘मैं सूरज तो नहीं कि/ निकले मेरे तन से/ उजाले की लकीरें/ फिर भी/ फूट पड़ती है/ कालिख भरी परछाई/ जब भी मैं खड़ी होती हूं/ सूरज के विरोध में।’
            कविताओं में जहां सीधे-सीधे विचार और कार्य-क्रिया के स्तर विरोधाभास को कवयित्री ताड़ लेती है, वहीं बहुत सूक्ष्म अनुभूतियां भी उनकी कविताओं में बेहद कोमलता के साथ स्थान पाती हैं- ‘लिफाफा आया/ साथ आई छुअन/ ढेर सारी यादों से घिरी।’ (उसका खत) अथवा- ‘पहली याद आई/ तिनका धर, चली गई/ दूसरी ने तिनकों पर/ सजा दिए तिनकें/ धीरे-धीरे/ घोंसला ही चहचहा उठा।’ (याद-2)
            परंपरा और आधुनिकता के बीच जो गणित व्यवस्थिति है, उसे कोई भाट नहीं जानता और ना ही कोई ज्योतिषी भविष्य के गणित को जानता है। रति सक्सेना का विश्चास है कि जिंदगी का कोई ज्योषिती नहीं है। इससे भी महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि ‘शुरु हो सकता है/ सफर कहीं भी/ कभी भी।’ (जिंदगी का ज्योषित) कविता के परंपरागत शिल्प और शैली को भी ‘खेल खतम, पैसा हजम’ जैसी कविता में नवप्रयोग के स्तर पर सहेजने का प्रयास है। ‘झील पर मंडराती, मसालों की खुशबू’ कविता में अपने अग्रज वरिष्ठ कवियों के काव्यांशों को कविता में प्रस्तुत करते हुए काव्य-परंपरा का विकास नए संदर्भों में प्रस्तुत हुआ है। ‘एक खिड़की आठ सलाखें’ की एक कविता ‘रास्ता’ जैसे अब तक की इस पूरी चर्चा को बहुत कम शब्दों में अभिव्यक्त करती है- ‘आधा रास्ता/ पता पूछने में गुजरा/ आधा/ मुकाम खोजते/ मंजिल तक/ पहुंच न पाए कि/ गुम हो गया/ पूरा रास्ता।’ उनकी कविताओं में हर बार एक नया आरंभ और अगाज देखने को मिलता है।
            कवयित्री रति सक्सेना का यह काव्यात्मक अंवेषण है कि उनके अहसास पाठकों तक संप्रेषित होता हैं- ‘हंसी एक प्रार्थना है।’ यह एक विरल अनुभव है- ‘हंसी एक प्रार्थना है/ जिसे दुहराव की जरूरत नहीं/ आलाप से लेकर स्थाई तक पहुंचन के लिए/ सम्मिलित स्वरों की जरूरत होती है।’ और यहां यह कहना जरूरी नहीं है कि यह सम्मिलित स्वरों में सभी के स्वरों के समाहित होने की कामना है। संगीत और लय के साथ जीवन की सार्थकता के लिए प्रार्थना के इस नवीन आविष्कार के साथ ही, इस कविता की अगली पंक्तियां भी इसी भाव को विस्तार देती है- ‘हंसी का आलाप ईश्वर को जगाता है/ स्थाई पर आते-आते यह समय से जुड़ जाती है।’ केवल इसी कविता में नहीं वरन अन्य अनेक कविताओं में रति सक्सेना के यहां अखिल संसार के मंगल की कामना का भाव देखा जा सकता है।
            रति सक्सेना कविता में हमारे सामने एक ऐसे वितान को रचती हैं कि उसमें हमारी दृष्टि दूर-दूर तक जाने और पहुंचने में समर्थ होती है। उनके यहां ऐसा क्यों है इसलिए एक उत्तर उनकी कविता- ‘सपनों की भटकन’ में मिलता है, जिसमें वे लिखती हैं- ‘हर सुबह/ शुरु हो जाती है, मेरे सपनों की/ भटकन।’ असल में प्रतिदिन की यह भटकन किसी स्थिरता और स्थाई भाव की खोज है। अपनी एक अन्य कविता में कवयित्री का कहना है- ‘अक्सर मैं अपनी जड़ों को खोजती/ न जाने कहां कहां भटक आती हूं।’ (‘जड़े’ : पृष्ठ-14)
            हर व्यक्ति का अपना एक संघर्ष होता है जिसमें वह बाहर-भीतर जूझता है। स्त्री के लिए एक घर और उसकी जड़ें जहां एक आंगन तक उसकी उडान को संकुचित बनाने के उपक्रम रहे है, वहीं सपनों की उड़ान के लिए उसकी अपनी परिकल्पना और वितान की अभिलाषा भी रही है। यह संयोग नहीं है कि ‘चींटी के पर’ नाम से वर्ष 2012 में रति सक्सेना की यात्रा-वृतांत की एक पुस्तक प्रकाशित हुई। वहीं उन्होंने इसी शीर्षक से वर्ष 2014 में एक कविता लिखी जो उनके संग्रह ‘हँसी एक प्रार्थना है’ (2019) में संकलित है। उनके यात्रा-वृतांत एक किस्म की उनकी डायरी भी है। जिसमें यात्राओं के साथ न केवल कविताओं का उल्लेख है वरन अनेक कविताएं और उनकी रचना-प्रक्रिया और काव्य-चिंतन को भी हम सतत रूप से विकासित होता देख सकते हैं।
            ‘उन्होंने कहा- चींटी के पर नहीं होते/ फिर कहा- पर हो तो भी वह उडेगी नहीं/ यदि उड़ान ही नहीं तो परों की व्यथा कैसी?
            परों पर चींटी की मौत सवार है/ मौत में उड़ान है/ चींटी ने उड़ना शुरु कर दिया।’
            यह विरोधाभास और संघर्ष ही जीवन में स्त्रियों की अस्मिता अथवा आगामी पीढ़ियों के लिए उड़ान के लिए एक किस्म का बीज बोना है। जिसे इस कविता की अंतिम पंक्तियों में कवयित्री ने रेखांकित भी किया है- ‘चींटी ने अगली पीढ़ी के लिए/ उड़ान का बीज बो दिया।’ (चींटी के पर : पृष्ठ-15) किसी अहम से परे यह विनम्रता और विश्वास ही रति सक्सेना को एक अलग और विशिष्ट अंदाज की कवयित्री स्थापित करता है।
            ‘पिता एक पहाड़ थे, जिनके नीचे हम/ बरसाती रातों में अभय पाते/ पिता एक दाहड़ थे, जो सोते में भी/ हमारी नसों में खलबली मचा देती/ पिता एक दीवार थे, जो हर बहारी तूफान को/ भीतर आने से रोकते।’ (आखिर बचता क्या है?, पृष्ठ-19) पिता के भूमिका बहुत बड़ी होती है और ‘पितृ तर्पण’ और ‘पिता’ जैसी कविताओं में भी पिता के चले जाने के बाद की अनुभूतियों को बेहद मार्मिकता से साथ प्रस्तुत किया गया है। इसी प्रकार मां और अन्य संबंधों के विषय में अथवा अपने पुराने शहर उदयपुर के बारे में हो या अन्य स्थान विशेष के संबंध में आपकी कविताओं में अनेक स्मृतियां हैं। जिनको हम अनेक अनुभवों के रूप में देखते हैं। वहीं इन कविताओं में कवि-मन का समय-रेखा पर गतिशील रहते हुए निरंतर एक आत्मसंवाद करना भी लुभाता है। अपनी बाद की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी के लिए कवयित्री को दुनिया में अभिव्यक्ति को बनाए रखना है, वहीं वह नए-नए रूपों और माध्यमों की तलाश में यह कह कर हमें उत्साहित करती हैं- ‘मैं लिखना चाहती हूं-/ उस कविता को/ जो तुम्हारे रुदन के भीतर सुर में/ भीगी हुई दीपक बाती की तरह/ लहक-लहक कर जल रही हो।’ (पृष्ठ- 29-30)    
            रति सक्सेना के यहां किसी भी वस्तु अथवा बिंब को जहां विशद अर्थ में प्रस्तुत किया गया है, वहीं उनके अनेक पक्षों को संकेतों के साथ उभरने की भी भरपूर ललक है। कहीं कहीं अर्थ सीधे और सपाट है जहां कोई किसी प्रकार का प्रतिरोध नहीं है। किंतु जहां प्रतिरोध है उसे उस रूप में चित्रित करते हुए आगे बढ़ते हुए, उसके भीतर के सकारात्मक पक्षों पर भी विचार किया गया है। समय के साथ-साथ संसार में भी निरंतर बदलाव हो रहा है। कवयित्री समय के साथ अपनी कविताओं में व्यक्ति और समाज की बदलती भूमिकाओं के साथ परिवर्तित होती स्थितियों का आकलन प्रस्तुत करती हैं। वह अपनी कविताओं में रूढ़ता को छोड़कर सदैव नवीनता का स्वागत करने को उत्सुक है। वह काव्य-भाषा और शिल्प के साथ नवीन बिंबों द्वारा कविताओं को विशिष्टता प्रदान करती रही हैं।
            अपने समकालीनों से अलग उनका कविता को देखने-परखने और कहने का अपना अलग नजरिया है। जैसे- ‘कौन कहता है कि सपने/ नींद को बेहद प्यार करते हैं/ कुछ सपने ऐसे होते हैं जो/ भोली सी नींद पर बुलडोजर से/ कुचल कर गुजर जाते हैं/ नींद अकबका कर जगती है/ अंग-अंग समेटती हुई।’ (पृष्ठ-39), ‘मेरी दाहिनी आंख ने/ मेरी बाईं के विरोध में/ बगावत छेड़ दी है।’ (दृष्टिविरोध : पृष्ठ-34) अथवा ‘मुझे यह शहर एक गदबदा खरगोश लगता है।’ (पृष्ठ-36)
            एक अन्य उदाहरण के रूप में हम ‘किताब परख लेती है’ कविता को देख सकते हैं। जिसमें किताबों की क्षमताओं के साथ उसके पाठक के अहसास और सावधानी को बेहद सुंदर रूप में अभिव्यक्त किया गया है-
            ‘पढ़ने से पहले/ किताब को धीमे से खोल/ उसकी खुश्बू को नथुनों में भरो/ और फिर गुटक लो/ हौले से/
            मन बरगद बना/ इस तरह छवा लो/ कि अक्षर/ उतर आये पखेरू से/
            इंतजार करो/ एक बरगद के खुल जाने का/ जिसमें गूंथे पड़े हैं/ हजारों अर्थ/
            फिर महसूस करो/ पंखों की सरसराहट।’ (पृष्ठ-43)
            यह अकारण नहीं है कि रति सक्सेना की कविता जमीन पर चलती हुई वहीं से आसमान का चेहरा देखना दिखाना चाहती है, वहीं नकली सभ्यताओं के किलों की चूले हिलाकर परिवर्तन की मांग करती है। उनके रचना-संसार में अनेक कविताएं देश-विदेश के कवियों के लिए लिखी गई हैं, वहीं विभिन्न कला-माध्यमों यथा फिल्मों और जगहों आदि से प्रभावित हो कर भी उनकी अनेक कविताएं मिलती हैं। जाहिर है कि इन विशद संदर्भों के लिए पाठक को अपने धरातल से उस तक पहुंचने में समय और श्रम दोनों देना होंगे, किंतु यह हिंदी और भारतीय कविता की एक उपलब्धि है कि उनकी कविता का वितान बेहद व्यापक है जो इतना कुछ समेटे हुए हैं। उदाहरण के लिए ‘सूरज को सहेजती तुम!’ कविता को देखा जा सकता है जिसे ट्रिन सूमेत्स के लिए रति सक्सेना ने चार मार्च 2015 को लिखा है। ‘सूरज के होने से कुछ नहीं होता/ बस हमें उसे सहेजना आना चाहिये,/ दुनिया के किसी भी कोने से/ तुम्हारी कविता के शब्द मेरे कानों में फुसफुसाते हैं।’ (पृष्ठ-55) यह कवि, कविता और भावक का एक त्रिभुज है। इसमें सभी के अपने अपने स्थान, प्रयास और चयन हैं। यहां यह काव्यांश भी देख सकते हैं- ‘कविता खुद चुनती है/ कलम को और उसे थामने वाली/ अंगुलियों को, अंगुलियों पर/ बैठे शब्दों को,/ और शब्दों में दिखाई न देते भावों को।’ (पृष्ठ-60)
            कविता को कवि लिखता है अथवा कविता खुद कवि को लिखती है? रचना के पारंपरारिक रूप से इतर सक्सेना के काव्य संसार में नवीनता का कारण जहां कवयित्री की अनेक यात्राएं हैं, वहीं उनका स्वयं का भीतर ही भीतर भी निरंतर यात्रारत रहना है। बाहर और भीतर के ये आकलन ही हैं कि उसे कोई मुगालता नहीं है। ‘मुगालते पालना’ जैसे कविता में वे लिखती हैं- ‘बड़ा आसान होता है/ मुलागते पालना/ सीने के करीब की चार इंची जेब में/ चार मील लंबा मुगालता सिमट आता है।’ (पृष्ठ-75)
            यहां चार नहीं, चार सौ अथवा चार हजार मील लंबा मुगालता यह भी है कि रति सक्सेना की अनेक कविताएं अपने आप में इतनी व्यापक और बड़ी है कि उन पर विस्तार से बात की जा सकती है। इन कविताओं को किसी एक धारा, सूत्र अथवा विचार के बंधन में हम बांध नहीं सकते हैं क्योंकि इनमें हर बार अपने अतीत से मोहभंग के साथ नवीनता को स्वीकारने का भाव है। यह नवीनता विषयों की विविधता के साथ हमारे सामने अनेक नए विमर्शों के दरवाजे खोलती हैं, जिसमें पुराना सब कुछ खो जाता है और कवयित्री ‘खोना’ कविता में लिखती हैं- ‘खोना मेरे लिए उतना ही सहज है जितना कि/ सांस लेना, उंघना, या फिर सोने के खुर्राटे लेना/ इतना त्वरित कि ‘ख’ का उच्चारण करते ही/ खोने की प्रक्रिया शुरु हो जाती है और/ पूरी होने से पहले ही खोजने की।’ (पृष्ठ-90)
            कहना होगा कि वैश्विक स्तर पर हिंदी और भारतीय कविता के लिए संघर्षरत कवयित्री रति सक्सेना की अपनी काव्य-यात्रा में विविध रंगों के साथ कला मानकों द्वारा निरंतर आगे बढ़ते हुए विभिन्न प्रतिमान प्रस्तुत किए हैं। इन प्रतिमानों का समय रहते हुए आकलन और मूल्यांकन करते हुए इस काव्य यात्रा से गुजरना बेहद जरूरी है। अंत में इस काव्यांश से मैं अपनी बात पूरी करना चाहूंगा- ‘अक्षर मेरी अंगुलियों के पौरों पर टिक गए/ जिस वक्त मेरे कंप्यूटर पर एक नई/ कविता जन्म ले रही थी/ समय मेरे आसपास/ पालतू कुत्ते सा मंडरा रहा था।’ (पृष्ठ-120) यहां महज कविता के जन्म की स्थिति का साधारण वर्णन नहीं है, अपितु कवयित्री रति सक्सेना अपनी अनुभूतियों की अभिव्यक्त एक अलग और विशिष्ट अंदाज से कर रही हैं। इस अभिव्यक्ति में जहां संवेदना है तो वहीं एक विशद अध्यनन के साथ वैश्विक काव्य-परिदृश्य के अवलोकन के साथ नवीताबोध भी समाहित है। मैं कामना करता हूं कि इसी प्रकार नई नई कविताओं के जन्म से आपका काव्य-संसार समृद्ध होता रहेगा।
००००

- डॉ. नीरज दइया


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NAND JI SE HATHAI (साक्षात्कार)

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