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आधुनिक राजस्थानी साहित्य का विहंगम परिदृश्य / डॉ. नीरज दइया


 कृति :  राजस्थानी विरासत का वैभव (आलोचना)

रचनाकार : नंद भारद्वाज

प्रकाशक : राजस्थानी ग्रंथागार, जोधपुर  

पृष्ठ : 192 ; मूल्य : 300/-

प्रथम संस्करण : 2023

समीक्षक : डॉ. नीरज दइया

 

 

 राजस्थानी साहित्य में प्रथम आलोचना-पुस्तक का श्रेय विधिवत रूप से ‘दौर अर दायरो’ (1981) नंद भारद्वाज को दिया जाता है। लंबे अंतराल के बाद ‘नवी कविता रौ आज अर आगम’ (2023) राजस्थानी में आपकी दूसरी आलोचना पुस्तक प्रकाशित हुई है। यहां यह भी उल्लेखनीय है आलोचना के क्षेत्र में नंद भारद्वाज ने वर्ष 2016 में आलोचना की वैश्विक विरासत का एक विशद परिचय राजस्थानी में अनुवाद के माध्यम से करवाया है। जिसमें देश-विदेश के अनेक आलोचकों के महत्त्वपूर्ण आलेखों का राजस्थानी भाषा में अनुवाद प्रस्तुत किया गया है। उनके इस संग्रह के लिए लिखी उनकी यादगार भूमिका का हिंदी अनुवाद ‘साहित्य आलोचना की आधारभूमि’ को इस संग्रह में शामिल किया गया है। ‘साहित्य परंपरा और नया रचनाकर्म’ आपकी चर्चित हिंदी आलोचना पुस्तक है। राजस्थानी और हिंदी आलोचना की दिशा में अन्य विधाओं की अपेक्षा में बहुत कम किए जाने की महती आवश्यकता है।
    हिंदी और राजस्थानी साहित्य में नंद भारद्वाज एक प्रतिष्ठत कवि-कहानीकार, संपादक, अनुवादक और आलोचक के रूप में पहचाने जाते हैं। आपने विविध विधाओं में विपुल कार्य किया है। भारत की किसी भी प्रांतीय भाषा का हिंदी अथवा अन्य प्रांतीय भाषाओं से सीधा-सीधा मुकाबला या तुलना के स्थान पर वर्तमान समय की एक बड़ी जरूरत यह है कि हमें हमारी प्रांतीय भाषाओं, साहित्य और कला-संस्कृति से संबंधित आलोचनात्मक पुस्तकें हिंदी-अंग्रेजी में लानी चाहिए, जिससे देश-दुनिया में भारतीय साहित्य का एक व्यापक परिदृश्य निर्मित हो सके। इसी दृष्टिकोण से मैं नंद भारद्वाज की सद्य प्रकाशित पुस्तक- ‘राजस्थानी विरासत का वैभव’ को देखता हूं।
    पुस्तक की भूमिका के रूप में ‘अपनी बात’ में आलोचक नंद भारद्वाज पुरजोर तरीके से लिखते हैं- ‘संसार की किसी भाषा के साहित्य की उसके पिछले-अगले या मौजूदा समय की दूसरी साहित्य विधाओं के साथ कोई प्रतिस्पर्धा या तुलना नहीं हो सकती और न यह करना उचित ही है। प्रत्येक भाषा और साहित्य का अपना विकास-क्रम है, उसकी अपनी कठिनाइयां हैं और उनसे उबरने के उपाय भी उन्हीं को खोजने हैं। लोक-भाषा जन-अभिव्यक्ति का आधार होती है। प्रत्येक जन-समुदाय अपने ऐतिहासिक विकास-क्रम में जो भाषा अर्जित और विकसित करता है, वही उसके सर्जनात्मक विकास की सारी संभावनाएं खोलती है। उसकी उपेक्षा करके कोई माध्यम जनता के साथ सार्थक संवाद कायम नहीं कर सकता। इस आधारभूत सत्य के साथ ही लोक-भाषाओं को अपनी ऊर्जा को बचाकर रखनी है। साहित्य का काम अपने उसी लोक-जीवन के मनोबल को बचाये रखना है। दरअसल भाषा, साहित्य और संवाद के यही वे सूत्र हैं, जिन्हें जान-समझ कर ही शायद हम किसी नये सार्थक सृजन की कल्पना कर पाएं।’ (पृष्ठ- 8)
    ‘राजस्थानी विरासत का वैभव’ में राजस्‍थानी साहित्‍य की विविध विधाओं पर केंदित बाईस साहित्यिक निबंधों को संग्रहित किया गया है, जिससे राजस्थानी साहित्य की विरासत और समकालीन राजस्थानी लेखन के बारे में समुचित जानकारी प्राप्त हो सके। यहां यह उल्लेखनीय है कि इन निबंधों को पिछले दशकों में राजस्थानी की पत्र-पत्रिकाओं और साहित्यिक आयोजनों के लिए राजस्थानी अथवा हिंदी में लिखा-पढ़ा गया है। असल में यह पुस्तक कवि-आलोचक नंद भारद्वाज के सुनियोजित चिंतन का फलन है। उन्होंने ‘अपनी बात’ में लिखा है- ‘राजस्थानी लेखन की अलग-अलग विधाओं में लिखते-पढ़ते बहुत से रचनाकारों को पिछले वर्षों में हुए अच्छे सृजन के मुकाबले अगर आलोचना का पक्ष कुछ कमजोर नजर आता है तो इस पर अफसोस करने की बजाय उसके कारणों को जानने-समझने का प्रयास अवश्य करना चाहिए।’ निसंदेह यह एक ऐसा झरोखा है जिसमें हमें आधुनिक राजस्थानी साहित्य का विहंगम परिदृश्य देखने को मिलता है।  
    पुस्तक के प्रथम निबंध में नंद भारद्वाज द्वारा साहित्य अकादेमी पुरस्कार- 2005 के समय दिए गए लेखकीय वक्तव्य का प्रारूप है। ‘भाषा के मान बिना’ शीर्षक से संग्रहित इस आलेख में लेखक ने अपने लेखन और भाषाई जमीन पर प्रकाश डालते हुए पुरस्कृत उपन्यास ‘साम्हीं खुलतो मारग’ पर अपनी बात रखी है। इस में राजस्थानी की समृद्ध विरासत के साथ वर्तमान समय की आवश्यकताओं को देखते हुए राजस्थानी भाषा की मान्यता नहीं दिए जाने पर गहन पीड़ा की अभिव्यक्ति हुई है। संग्रह के दूसरे निबंध- ‘राजपुताना में आजादी की अलख’ में पर्याप्त उदाहरणों के साथ इस बात को रेखांकित किया गया है कि राजस्थान में आजादी के आंदोलन में राजस्थानी भाषा और साहित्य का अतुलनीय योगदान रहा है। इसी विषय से संबंधित अन्य पक्षों को ‘स्वाधीनता आंदोलन, कविता और जनकवि उस्ताद’ में उद्धटित किया गया है। नंद भारद्वाज ने हमारी राजस्थानी विरासत को स्पष्ट करते हुए आधुनिक राजस्थानी कविता के अग्रिम पंक्ति के कवि के रूप में स्थापित जनकवि उस्ताद की कविताओं पर प्रकाश डाला है। पुस्तक में ‘उस्ताद’ के साथ अन्य कवियों के रूप में प्रतिष्ठित राजस्थानी कवि सत्यप्रकाश जोशी, नारायणसिंह भाटी, पारस अरोड़ा, हरीश भादानी के अवदान पर भी व्यापक-विशद चर्चा और विमर्श प्रस्तुत हुआ है। आधुनिक कविता की परंपरा-विकास को ‘राजस्थानी काव्य-परंपरा और पृष्ठभूमि’ और ‘नयी कविता का बदलता परिदृश्य’ जैसे निबंधों में जानने-पहचानने के साथ रेखांकित करने की दिशा में सार्थक प्रयास हुआ है। काव्यालोचना के अंतर्गत ‘राजस्थानी की प्रगतिशील काव्यधारा’ और ‘जन-जागरण की कविता और उस्ताद’ जैसे निबंधों के माध्यम से कविता में सक्रिय विविध धाराओं और रचनाओं का आलोचनात्मक परिचय मिलता है।
    आजादी के बाद अनेक रचनाकारों द्वारा हिंदी में प्रांतीय भाषाओं के रचनाकारों के बारे में शोध आलेख लिखे जाते रहे हैं। उन आलेखों में प्राचीन और मध्यकालीन रचनाओं और रचनाकारों के बारे में जानने के अवसर मिलते थे वहीं इधर ऐसे प्रयासों में रुचि और प्रयास कम दिखाई दे रहे हैं। कहना होगा कि यह हिंदी में राजस्थानी के बारे में ‘राजस्थानी साहित्य का समकाल’ (2020) नीरज दइया के बाद यह दूसरी पुस्तक है जिसमें राजस्थानी साहित्य के बारे में हिंदी में निबंधों के माध्यम से आधुनिक राजस्थानी साहित्य का विहंगम परिदृश्य प्रस्तुत हो रहा है। यह भी संभव है ऐसी अन्य पुस्तकें भी प्रकाशिय हुई हो और मेरे संज्ञान में नहीं हो।
    नंद भारद्वाज जहां स्वयं एक प्रतिष्ठित कवि-आलोचक के रूप में राजस्थानी से जुड़े रहे हैं वहीं उन्होंने संपादन की दिशा में भी अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य किए हैं। साहित्य अकादेमी नई दिल्ली के लिए आजादी के बाद की राजस्थानी कविताओं का एक प्रतिनिधि संकलन ‘जातरा अर पड़ाव’ नाम से प्रकाशित किया गया, जिसका संपादन नंद भारद्वाज ने किया है। इसी पुस्तक का प्रकाशन साहित्य अकादेमी ने हिंदी में भी किया है। यहां अनुवादक के रूप में संपादक नंद भारद्वाज की उल्लेखनीय भूमिका रही है। संकलन की भूमिका को भी इस संग्रह में एक निबंध में शामिल किया गया है। इसी प्रकार नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया नई दिल्ली के लिए आजादी के बाद की राजस्थानी कहानियों का एक संकलन नंद भारद्वाज ने संपादित किया- ‘तीन बीसी पार’ अर्थात साठ वर्षों की राजस्थानी कहानीकारों की चयनित कहानियां का संग्रह। इसकी विशद भूमिका में उन्होंने आधुनिक राजस्थानी कहानी के क्रमिक विकास और विविध पड़ावों को प्रस्तुत किया हैं। हर्ष का विषय है कि एनबीटी द्वारा इस मूल राजस्थानी के कहानी संग्रह का इसी नाम- ‘तीन बीसी पार’ से हिंदी में भी प्रकाशन किया है। इस संग्रह भूमिका को निबंध के रूप में इस संग्रह में समाहित किया गया है। यही कारण है कि इन निबंधों में लेखक का विशद अध्ययन और चिंतन मुंह बोलता है।
    राजस्थानी गद्य की विरासत में लक्ष्मीकुमार चूड़ावत, विजयदान देथा और अन्नाराम सुदामा जैसे प्रतिष्ठित लेखकों के अवदान को साहित्य के विविध पक्षों को समाहित करते हुए रखा गया है। ‘राजस्थानी कथा-लेखन का राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य’ में तीन बीसी पार की कथा-यात्रा का विस्तार है, वहीं ‘राजस्थानी कहानियों का पहला शतक’ में डॉ. नीरज दइया द्वारा संपादित कहानी संग्रह- ‘101 राजस्थानी कहानियां’ पर आलोचनात्मक आलेख इस पुस्तक में शामिल किया गया है। रचना और आलोचना के संबंधों को ‘राजस्थानी सृजन और आलोचना’ जैसे निबंध में रेखांकित करते हुए नंद भारद्वाज लिखते हैं- ‘हर रचना के साथ सर्जक का अपना आत्मिक लगाव और मोह होना स्वाभाविक बात है, वह उतना निरपेक्ष नहीं हो सकता कि अपनी रचना का सही मूल्य महत्व स्वयं ही आंक ले। यह कार्य एक सजग अध्येता और अच्छा आलोचक ही निरपेक्ष ढंग से कर पाता है और इसी अर्थ में एक युग के रचनाकर्म के साथ कुछ आलोचक भी सामने आते हैं, जो उस युग के सृजन को अपने समय की कसौटी पर परखते हैं और उसका सही मूल्य-महत्व आंकते हैं।’ (पृष्ठ-147) यह कृति इसी मूल्य-महत्त्व को आंकने का एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है। यह आलेख नंद भारद्वाज ने साहित्य अकादेमी द्वारा आयोजित सेमीनार में बीज वक्तव्य के रूप में दिया था जिसे यहां संग्रहित किया गया है।
    आज यह बहुत जरूरी है कि हम भाषा और साहित्य की चुनौतियों को जानने समझने का प्रयास करें। इसी विषय पर ‘राजस्थानी भाषा और साहित्य की चुनौतियां’ पर एक उल्लेखनीय और जरूरी निबंध इस संग्रह में शामिल है। साहित्य और सिनेमा का संबंध बहुत पुराना है और एक दौर ऐसा भी रहा है जब हिंदी सिनेमा में कुछ राजस्थानी गीत बेहद लोकप्रिय हुए हैं। पुस्तक के अंत में ‘राजस्थानी सिनेमा : दुविधाओं के दरिया पार’ में राजस्थानी सिनेमा की गहन पड़ताल भारतीय सिनेमा के परिप्रेक्ष्य में की गई है। राजस्थानी के श्रेष्ठ साहित्य को सिनेमा जैसे लोकप्रिय माध्यम में ले जाने के लिए जहां अनेक दुविधाएं-चुनौनियां हैं, वहीं इच्छाशक्ति का अभाव भी है। लेखक के इस कथन से सहमत हो सकते हैं- ‘फिल्म निर्माण आज एक बेहद खर्चीला माध्यम हो गया है और उस प्रतिस्पर्धा रहने के लिए उसी स्तर की तैयारी की जरूरत है, इसके बावजूद सीमित संसाधनों में बेहतर रचनाशीलता का प्रयोग करते हुए सार्थक और कामयाब फिल्मों के निर्माण की संभावनाएं कम नहीं हैं। जरूरत है तो उस जज्बे और सूझबूझ को बनाए रखने की, जो एक फिल्मकार के जुनून को सार्थकता प्रदान करती है।’  (पृष्ठ- 191)
    यह पुस्तक इस बात का भी प्रमाण है कि हिंदी अथवा अन्य प्रांतीय भाषाओं की तुलना में समकालीन राजस्थानी आलोचना किसी भी प्रकार से कमतर नहीं वरन वह भारतीय साहित्य आलोचना का एक अभिन्न और महत्त्वपूर्ण घटक के रूप में रेखांकित किए जाने योग्य है। राजस्थानी की समृद्ध विरासत के वैभव के साथ ही समकालीन राजस्थानी साहित्य का एक कोलाज प्रस्तुत कर निसंदेह इस कृति द्वारा आलोचक नंद भारद्वाज ने उल्लेखनीय कार्य किया है। साहित्य की विविध विधाओं को लेकर प्रांतीय भाषाओं से हिंदी में ऐसे कार्य निरंतर होने चाहिए।    


      समीक्षक : डॉ. नीरज दइया





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