आज दौड़-भाग की जिंदगी में जहाँ साहित्य पर समय का संकट मंडरा रहा है, वहीं अभिव्यक्ति के माध्यमों में वृद्धि हुई है। ऐसे में किसी भी रचना के लिए सबसे बड़ी चुनौती पठनीयता है। पाठ की संरचना में रचनाकार ऐसा क्या कर सकता है कि पाठक व्यापक फलक की रचनाओं में प्रवेश कर उसे पूरा पढ़ जाए। साहित्य में ऐसी अनेक रचनाएँ और रचनाकार हैं, जिनके लिए कहा जाता है कि उनके पास जादुई भाषा-शैली है। ऐसी ही जादुई भाषा-शैली के उपन्यासकार रत्नकुमार सांभरिया हैं, जिनका 424 पृष्ठों का वृहद उपन्यास ‘साँप’ बेहद लोकप्रिय रहा है। हरियाणा और राजस्थान के अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कारों से इसे सम्मानित किया गया है। हमारे समाज में पुरस्कार-सम्मान किसी रचना को आकर्षण के केंद्र में लाते हैं, वहीं स्वयं रचना में भी ऐसे अनेक घटक होते हैं जिससे वह अपने पाठकों का विश्वास अर्जित करती है। हमें विचार करना चाहिए कि ‘साँप’ एक ऐसा उपन्यास क्यों और कैसे बना है ? वह अपने पाठकों की चेतना में स्थाई निधि के रूप में संचित हो सकने का सामर्थ्य रखता है। क्यों ?
इसका उत्तर लेखक रत्नकुमार सांभरिया का दलित वंचित वर्ग का रचनाकार होना नहीं है। दलित वर्ग की अपनी एक धारा भारतीय साहित्य में है, किंतु उनमें कुछ ऐसे हैं, जो अपनी वर्गीय सीमाओं से बाहर आकर खड़े हुए हैं। सांभरिया ऐसे ही एक रचनाकार हैं और उनकी पूर्व की अनेक रचनाओं में भी समाज के कुछ वर्गों की पीड़ा, संत्रास और घुमंतू जीवन की मुखर अभिव्यक्ति हम देख सकते हैं। रत्नकुमार सांभरिया की रचनाओं में हमारे समय और समाज का यथार्थ प्रस्तुत हुआ है। वे मार्मिक सच्चाई को केंद्र में रखते हुए बड़े प्रश्न किसी हस्तक्षेप के रूप में प्रस्तुत करते हैं। क्यों आज़ादी के इतने सालों बाद भी कुछ वर्ग फटेहाल-बदहाल और ऐसा जीवन जीने के लिए विवश हैं ? सपेरा- कालबेलिया, कंजर, मदारी, कलंदर, कुचबंद, नट, बाजीगर, भांड-बहुरूपिया जैसे वर्गों के सामने जीवन जीने की चुनौतियाँ अधिक क्यों हैं ? इन घुमंतुओं के लिए मूलभूत आवश्यकता रोटी-कपड़ा और मकान के लिए संकट और संघर्ष क्यों है ? क्या कारण है कि अब तक उनके लिए स्थाई आवास और रोजगार की समस्या के विषय में पुखता निदान नहीं हुआ है ?
हाशिए का जीवन जीने वाले खानाबदोश समाज पर केंदित उपन्यास ‘साँप’ अपने समय को रेखांकित करता एक उल्लेखनीय उपन्यास है। इससे पहले भी अनेक घुमंतू जातियों और समाजों को केंद्र में रखते हुए ऐसी अनेक रचनाएँ लिखी गई हैं। किंतु यहां विशेषतः कालबेलिया, करनट, मदारी आदि वंचित समाज के लिए सहानुभूति के साथ-साथ लेखकीय स्वानुभूतियों का अहसास पाठकों को होता है। कुछ कौतूहल या कहें औत्सुक्य द्वारा इसमें अपने पाठकों को कथानक से जोड़े रखने का हुनर है। भाषा में एक ऐसा जादू है कि निरंतर प्रवाह को बनाए रखने में उपन्यास सक्षम है।
‘लखीनाथ सपेरा और मिलनदेवी के जज़्बात को’ समर्पित यह उपन्यास अपने आवरण और शीर्षक ‘साँप’ से एक संकेत करता है। आदम और हव्वा के बीच जो साँप उपस्थित हुआ था, वह वर्षों बाद इस उपन्यास के नायक-नायिका लखीनाथ सपेरा और मिलनदेवी के सामने बार-बार आता है। फल खाने की बात कहता है किंतु लखीनाथ का संयम प्रभावित करने वाला है और वह एक आदर्श स्थिति भी प्रतीत होती है। जब समाज में इतना पतन हो रहा है तो पर्दे के पीछे चोरी छुपे कुछ हो तो भला कौन देखने वाला है। लखीनाथ को दुनिया की परवाह नहीं, किंतु प्रेम के मामले में वह अद्वितीय है। कुछ ऐसा है उसमें जो उसे एक नज़र देखने से ही दिखाई देता है। शायद इसलिए ही मिलनदेवी प्रभावित हुई और जब प्रभाव इतना गहरा हुआ तो उससे जुड़ती चली गई। उसकी पूरी दुनिया और कार्य-व्यवहार सब कुछ उसी के लिए समर्पित हो गए। अस्तु यहाँ यह कहना उचित होगा कि उपन्यास में जहाँ मूल रूप से वंचित वर्गों की व्यथा-कथा है पर उसके साथ-साथ प्रमुख प्राणतत्त्व प्रेम-संबंध है।
उपन्यास के आरंभ में मकान बनाने के लिए जमीन पूजन का मोहक परिदृश्य पाठकों को बाँध लेता है। नींव में रखने के लिए चाँदी के नाग-नागिन का जोड़ा असल में उपन्यास की एक तरह से नींव है, जिस पर पूरा उपन्यास टिका हुआ है। यहाँ यह सब कुछ इतना वास्तविकता में उजागर होता भाषा के माध्यम से दिखाई देता है कि लखीनाथ द्वारा असली साँप को पकड़ते समय उसके हाथों में जैसे पाठक और उपन्यास की नायिका मिलनदेवी दोनों ही पकड़ा दिए जाते हैं। यह सत्य है कि उपन्यासकार ने उपन्यास में ऐसे अनेक अवसर प्रस्तुत किए हैं, जहाँ मिलनदेवी और लखीनाथ का मिलन हो सकता था, किंतु रचनाकार यहाँ एक आदर्श-पाठ पढ़ाने की ठाने हुए है कि ‘नैतिकता’ को बनाएँ और बचाए रखने के लिए आदमी का छोटा-बड़ा अथवा अमीर-गरीब होना ज़रूरी नहीं है। असल में ‘साँप’ प्रेम की एक अबूझ पहेली है जिसमें मिलनदेवी का बांझ होना और संतान-लालसा में उसके प्रयास क्रिया-कलाप बेहद रोमांचकारी है। उपन्यास में प्रतीकों और भाषा के द्वारा होने वाले मानसिक विचलन और असंयम को बहुत सुंदर ढंग से चित्रित किया गया है। यह लेखक की सफलता है कि वह सब कुछ कहते हुए भी बहुत कुछ अपने पाठकों पर छोड़ देता है।
मुख्य नायक लखीनाथ अपनी शर्तों पर जीवन बसर करने वाला व्यक्ति है, जिसने अपने जीवन में बड़े भाई के गुजर जाने पर भाभी को पत्नी के रूप में अंगीकार किया है। वह अपने चरित्र से इतना सबल पात्र चित्रित किया गया है कि अनेक स्थलों पर डगमगाते हुए दिखता जरूर है, किंतु वह गिरता नहीं है। ‘साँप’ में ऐसे अनेक पात्र भी प्रस्तुत किए गए हैं जो नायिका के रूप-लावण्य पर मुग्ध हैं। वे सब कुछ कर गुजरने को तैयार भी है, किंतु नायिका बचते-बचाते हुए पूरे परिदृश्य में अपनी छाप छोड़ती है। उपन्यास में अंत तक यह जिज्ञासा बनी रहती है कि नायक-नायिका का मिलन होगा या नहीं। उपन्यास में यह प्रेम-प्रसंग अनेक स्तरों पर हमें प्रभावित करता है।
लखीनाथ का अपनी पत्नी के प्रति प्रेम और विश्वास ही है कि वह उपन्यास के अंत में अपने बच्चे को नायिका मिलनदेवी को सौंपने की स्थितियों को सहजता से निर्मित कर देता है। उपन्यास में गोद लिए गए बच्चे को स्वयं का बच्चा सिद्ध करने के लिए जो प्रयास अथवा कहें प्रपंच किए गए हैं वह भी हमारे सभ्य समाज के अनेक तथ्यों को उजागर करने वाले हैं। यह उपन्यास कहता है कि प्रेम और विश्वास के संबंध कितने स्थाई और सुदीर्घ होते हैं।
उपन्यास का नायक लखीनाथ सपेरा मुख्यमंत्री के सामने कहता है- ‘साब हम, धरती बिछावां, आकास ओढ़ां, अपना पसीना से नहा लेवां अर भूख खाकै सो जावां।’ एक ऐसी सच्चाई है जिससे पाठक जुड़ता है तो जुड़ता चला जाता है और उपन्यास के अंत में यह सामूहिक वर्ग-संघर्ष के प्रतिफलन के रूप में कुछ उपलब्धियाँ के रूप में हमें दिखाई देता है। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि वंचित मानव समुदाय के संघर्ष में उनके जीव-जंतुओं और जानवरों को भी सहभागी होते प्रस्तुत करना रोमांचकारी है। ये ''साँप'' जैसे हमारा मार्गदर्शन करता है कि कुछ ऐसा भी हो सकता है अथवा स्थितियों और हालत को बदलने के लिए ऐसा किया जा सकता है।
उपन्यास का एक प्रमुख घटक हमारे समाज के विभिन्न वर्गों में स्त्रियों की बदलती छवियों को उनके चरित्रों के माध्यम से उजागर करना भी रहा है। उपन्यास ‘साँप’ में अनेक पात्रों-चरित्रों और घटनाओं पर विस्तार से चर्चा की जा सकती है, किंतु कुछ स्त्री पात्रों जैसे रमतीबाई, रोशनीबाई और सरकीबाई की चारित्रिक क्षमता उन्हें अद्वितीय और अविस्मरणीय बनाती है। उपन्यास के नायक लखीनाथ की पत्नी का नाम है- रमतीबाई, जो उससे चार बरस बड़ी है। उसके पीछे भी कहानी है कि वह उसके बड़े भाई की पत्नी थी। लखीनाथ का भाई सरूपानाथ असमय इस संसार को छोड़ कर चला गया। भाग्य की विडंबना दो माह की गर्भवती रमतीबाई को सर्प-दंश से दिवंगत हुए पति के तेरहवें पर ही देवर लखीनाथ की चूड़ियाँ पहना दी जाती हैं। उनकी जाति में विधवा रखने का रिवाज नहीं है। रमती के जीवन में आरंभ से ही एक खल पात्र सपरा रहा, किंतु उसने अपने चरित्र पर दाग लगाने नहीं दिया। रमतीबाई ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि उसे अपने बच्चे को लखीनाथ की बात पर आदर्श पत्नी की भूमिका में मिलनदेवी को सौंपना पड़ेगा। मिलनदेवी को अपने बच्चे को सौंपते हुए वह कहती है- ‘सेठाणी, सपेरा की मूँछ को बाल अर सपेरन की जुबान से बड़ी ना होवै, कोट कचेड़ी।’ इस प्रकार का त्याग-बलिदान और विश्वास का चित्रण दुर्लभ है।
यह इसलिए भी संभव हो सका क्योंकि लखीनाथ की पत्नी रमतीबाई जानती है कि उसके पति और मिलनदेवी के बीच बहुत कुछ चल रहा है, किंतु वह अपने पति पर पूरा यकीन करती है। जब सभी को घरों के पट्टे मिल जाते हैं और लखीनाथ को जानबूझ कर वंचित कर दिया जाता है तो एक दृश्य में उपन्यसकार सांभरिया ने इसी तथ्य को इस प्रकार रेखांकित किया है- ‘लखीनाथ की पत्नी रमतीबाई की एक आँख में डाह था, दूसरी आँख में पट्टा न मिलने का दाह था। दाह की दग्घता ने डाह को फूँक दिया था। वह आस बाँधे मिलनदेवी की ओर टुकुर-टुकुर देखती रही, बस। धीरे से बोली- 'थमी जुगत बिठाओ।’ (पृष्ठ-271)
इसी प्रकार उपन्यास में सद्चरित्र महिला सरकीबाई मदारन एक उदाहरण है जिसने कमजोर होते हुए भी अपने चरित्र को सहेजे रखा है। कामांध थानेदार को उसने अपने वफादर कुत्ते के बल पर पूरी रात अर्द्धनग्न खड़ा रखने का साहस दिखाया। ऐसी संघर्षशील और जूझारू महिला चरित्र को उपन्यास में जिस प्रकार चित्रित किया गया है वह अपने आप में एक अनुपम उदाहरण है। एक अन्य स्त्री चरित्र के रूप में रोशनीबाई है, जो बोलाराम की पत्नी है। वह बेबाक है और अपने समाज के बड़े-बूढ़ों के सामने खुलकर अपनी बात कहती है- ‘वाह! वाह! बियाह मेरा से करयो। रहवै दूसरी के लार। रात-बिरात चोर सो आवै। मारे, पीटे। मेरी मजूरी खोस ले जावै। बसती माता नियाव करै।’ (पृष्ठ-329)
सार रूप में कहें तो उपन्यास ऐसे अनेक चरित्रों के रंगों से सजा घर के भीतर-बाहर स्त्रियों के जीवन के विविध पक्षों को प्रस्तुत करता है। यहाँ उनका संघर्ष भी है और संत्रास भी। उनके जीवन की वास्तविकताएँ और छद्म आवरण भी हैं। यहाँ असली-नकली चेहरों पर चढ़ते-उतारे भावों की अभिव्यक्ति है तो समय के साथ परिवर्तित होती जीवन-स्थितियाँ और समझौते भी हैं। देश-समाज के विकास के लिए राजनीति में राजनीति करने वाले चरित्र यहाँ है, तो कुछ सच्चाई का दामन पकड़े निष्कलंक लोग भी हैं, जिनके होने से कुछ आशाएँ और उम्मीदें जिंदा हैं। पुलिस और प्रशासन की लापरवाही के साथ अनेक अंतर्कथाएँ हैं, जो राज्य के बड़े से बड़े मंत्री-मुख्यमंत्री आदि की उपस्थिति इस उपन्यास को एक महाकाव्यात्मक रूप देती हैं। उपन्यास अपने भीतर एक पूरे समय, समाज और विकास की विविध धाराओं को समेटे हुए है।
राजस्थानी और हरियाणवी भाषा के अनेक शब्दों को अपनी भाषा-शैली में सहजता से प्रयुक्त करते हुए रत्नकुमार सांभरिया ने इसमें अपने प्रतीक गढ़े हैं। 'साँप' उपन्यास अपने लोकरंग में सहज अभिव्यक्ति के लिए प्रयुक्त लोकोक्तियों, मुहावरों और देशज शब्दों के बेजोड़ प्रयोग के लिए याद किया जाता रहेगा। इसमें प्रस्तुत लोक-जीवन और परंपरागत तथ्यों-जानकारियों को उजागर करना निसंदेह सहज सरल नहीं रहा है, जिसके लिए लेखक ने बहुत परिश्रम किया है। उपन्यास के अंत में अध्यायवार अनेक शब्दों, पदों के अभिप्राय देना इसमें छुपी दुनिया को जानने-समझने में मददगार साबित होते हैं। उपन्यास को हम आदर्श प्रेम के साथ ही वंचित वर्गीय पात्रों के जीवन, संस्कृति, परिवेश, स्थितियों-परिस्थितियों का एक वृहद कोलाज कह सकते हैं। इससे गुजना स्वयं को समृद्ध करना है।
-------------साँप (उपन्यास) रत्नकुमार सांभरिया ; प्रकाशक- सेतु प्रकाशन, नोएडा ; संस्करण- 2022 ; पृष्ठ- 424 ; मूल्य- 375/-
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