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प्रकाश मनु के सात रोचक बाल उपन्यास/ डॉ. नीरज दइया

 

प्रकाश मनु के सात रोचक बाल उपन्यास

डॉ. नीरज दइया

 

            बाल साहित्य में प्रकाश मनु चर्चित नाम है। आपने साहित्य की विविध विधाओं में लेखन किया है किंतु विशेष ख्याति आपको बालसाहित्यकार के रूप में मिली है। इसके अनेक कारणों में पहला कारण बच्चों की लोकप्रिय पत्रिका ‘नंदन’ के संपादन से पच्चीस वर्षों तक जुड़े रहना और दूसरा कारण आपके नाम साहित्य अकादेमी नई दिल्ली का प्रथम बाल साहित्य पुरस्कार होना कहे जाते हैं। किंतु इनसे भी बड़ा कारण है आपका सतत लेखन और बाल साहित्य के प्रति समर्पण। आपने बाल साहित्य के विकास को ध्यान में रखते हुए बाल कहानियां, बाल उपन्यास, बाल नाटक और बाल कविताओं के साथ ही बाल साहित्य को केंद्र में रखते हुए महत्त्वपूर्ण आलोचनात्मक कार्य भी किया है। ‘हिंदी बाल साहित्य का इतिहास’ और ‘हिंदी बाल साहित्य नई चुनौतियां और संभावनाएं’ आपकी प्रमुख आलोचनात्मक पुस्तकें है। बाल साहित्य के विशद लेखन के बाद आपकी रचनाओं पर केंद्रित अनेक बड़े संकलन भी प्रकाशित हुए हैं। यथा- ‘चार बाल उपन्यास’, ‘बच्चों के तीन उपन्यास’, ‘मेरी संपूर्ण बाल कविताएं’, ‘बच्चों की एक सौ एक कविताएं’, ‘प्रकाश मनु की सौ श्रेष्ठ बाल कविताएं’, ‘चुनमुन के नन्हे-मुन्ने गीत’, ‘बच्चों की अनोखी हास्य कविताएं’, ‘प्रकाश मनु की लोकप्रिय कहानियां’, ‘बच्चों की सदाबाहर कहानियां’, ‘बच्चों को सीख देने वाली इक्यावन कहानियां’, ‘इक्कीसवीं सदी के बाल नाटक’, ‘इक्कीसवीं सदी की श्रेष्ठ बाल कहानियां’, ‘मेरी प्रिय बाल कहानियां’, ‘बच्चों की इक्यावन हास्य कथाएं’, और ‘बच्चों को सीख देते अनोखे नाटक’ आदि-आदि। आपने पौराणिक कहानियों और बाल साहित्य के लिए अनेक घटकों पर विशद कार्य किया है इसी क्रम में डायमंड बुक्स द्वारा प्रकाशित ‘बच्चों के सात रोचक उपन्यास’ वर्ष 2024 में प्रकाशित हुआ है। इस संकलन में आपके पूर्व प्रकाशित सात रोचक उपन्यास संकलित हैं- जिसमें साहित्य अकादेमी के बाल साहित्य पुरस्कार से सम्मानित उपन्यास ‘एक था ठुनठुनिया’ भी शामिल है। प्रकाशक ने पुस्तक के आवरण पर इसका उल्लेख भी किया है। इसमें शामिल अन्य उपन्यास हैं- ‘नन्हीं गोगो के अजीब कारनामे’, ‘सब्जियों का मेला’, ‘फागुन गांव की परी’, ‘सांताक्लाज का पिटारा’, ‘दुनिया का सबसे अनोखा चोर’ और ‘किरनापुर का शहीद मेला’। साथ ही इस संकलन में पंद्रह पृष्ठों की विशद भूमिका में प्रकाश मनु ने अपनी रचना यात्रा और संकलित उपन्यासों की पृष्ठभूमि के साथ कथानकों पर प्रकाश डाला है। यहां यह भी उल्लेख किया जाना चाहिए कि आपकी पूर्व प्रकाशित कृति ‘चार बाल उपन्यास’ में भी ‘सांताक्लाज का पिटारा’ बाल उपन्यास को शामिल किया गया था और वह इसमें भी है। यह कृति प्रकाश मनु ने ‘बाल साहित्य में अपने ढंग के निराले लेखक देवेंद्रकुमार जी को, जिन्होंने बड़ों के साथ-साथ बच्चों के लिए भी एक से एक लाजवाब कहानियां और उपन्यास लिखें, बड़े आदर के साथ’ समर्पित की है।    

            प्रकाश मनु बच्चों के सुविख्यात कथाकार हैं और बच्चे, किशोर, बड़े-बूढ़े भी आपकी रचनाओं को खूब रस ले-लेकर पढ़ने, सराहने के साथ ही जीवन के लिए बहुत कुछ सीखते हैं। निसंदेह बाल साहित्य लेखन में यह बड़ी चुनौती रहती है कि वह पठनीय हो और भाषा के स्तर पर विशेष ध्यान रखा जाए। ऐसा गद्य जिसे पढ़कर बच्चे रोमांचित हो, उनका मनोरंजन हो और सोचकता के साथ साथ वे पढ़ने के खेल में कुछ सीख भी सकें। उत्सुकता और कौतुकपूर्ण बाल रचनाएं बच्चों को आकर्षित करती हैं। स्वयं प्रकाश मनु का मानना है- ‘बच्चों और बचपन को पूरी निश्छलता के साथ प्यार किए बिना आप बच्चों के लिए कुछ भी लिख नहीं सकते।’ वे वर्षों से सक्रिय हैं और लेखन के आरंभिक काल से ही बाल मनोविज्ञान के गहरे अध्येता रहे हैं। वे जानते हैं कि बच्चों को कैसे लुभाना है। यही कारण है कि उनकी रचनाओं में प्रयोग के साथ भाषा की कलात्मकता देखी जा सकती है।

            सद्य प्रकाशित संकलन की भूमिका को आपने शीर्षक दिया है- ‘मेरे बाल उपन्यासों में भोला और नटखट बचपन झांक रहा है....’ संभवतः प्रत्येक बाल रचना में बचपन को झांकना जरूरी होता है। इसी सूत्र से रचनाएं बाल पाठकों को प्रिय होती हैं। उन्हें लगाता है कि किताब में चित्रित दुनिया उनकी अपनी दुनिया है। इस संकलन में संकलित पहला बाल उपन्यास उनका चर्चित उपन्यास ‘एक था ठुनठुनिया’ है, जिसमें नायक का नाम ‘ठुनठुनिया’ प्रभावित करने वाला है। इस उपन्यास की विशेषता है कि इसे छोटे-छोटे छब्बीस अध्यायों के रूप में बुना गया है और प्रत्येक अध्याय की अपनी कहानी स्वतंत्र होते हुए भी व्यापक रूप में एक औपन्यासिक कोलाज निर्मित करती है। प्रकाश मनु अपनी रचनाओं में साहित्य की परंपरा से खुद को जोड़ने हुए आधुनिकता को अंगीकार करने वाले रचनाकार हैं। वे लोक-साहित्य से भी अपनी रचनाओं को समृद्ध करते रहे हैं। राजस्थानी में ‘झिंतरियो’ और ‘झिंडियो’ नाम को दो बाल पात्र लोक साहित्य में हैं जो नानी के घर जाते समय जंगली जानवरों से संवाद करते हैं। सभी से एक ही कौल ‘नानी रै घर जावण दे, मोटो-ताजो हुय’र आवण दे, पाछो घिरतै नै खा लियै।’ और बाद में नानी के घर से ढोलकी में बैठ कर वह सब को गच्चा देता प्रस्थान करता है- ‘चल मेरी ढोलकी ढमाक ढम’। यहां इसे उल्लेखित करने का कारण यह है कि ठुनठुनिया असल में उसी झिंडिये की पृष्ठभूमि से विकसित मुझे उसका आधुनिक रूप लगता है। वह और यह दोनों ही जीवन-संघर्षों में अपनी अदम्य शक्ति और बल से आगे बढ़ते हैं। इसी भांति इस बाल उपन्यास के दूसरे अध्याय ‘मेले में हाथी’ में हमें वह बालक स्मरण हो आता है जो राजा को नंगा बोलने का साहस दर्शाता है तो तीसरे अध्याय ‘आह रे मालपूए’ में भी उसकी स्मरण शक्ति और मालपुए के नाम बदलने की कथा में पुरानी लोक कथा झांकती नजर आती हैं। आगे की कथाओं में भी ऐसे अनेक घटक शामिल हैं जैसे बांसुरी बजाना अथवा भालू का मुखौटा पहन कर लोगों को डराना आदि कहीं-कहीं किसी अन्य घटना अथवा रचना से प्रेरित-प्रभावित हैं। ये शैल्पिक प्रयोग और लोक-साहित्य के प्रभाव उपन्यास की रोचकता में वृद्धि करने वाले हैं।  

            ठुनठुनिया के परिवार की आर्थिक दशा ठीक नहीं हैं। उसके पिता नहीं है और मां बहुत गरीबी में उसे पाल-पोस रही है। बच्चे को घर की परेशानियों के क्या मतलब। वह तो उम्मीद का दामन थामे मस्ती भरा जीवन जीना चाहता है और जीता है। लेखक ने ठुनठुनिये को बड़ा खुशमिजाज, हरफनमौला और हाजिरजवाब चित्रित किया है और उसकी बड़ी से बड़ी मुश्किलों के बीच ऐसे रास्ते निकाल आते हैं कि वह आगे बढ़ता चला जाता है। वह पढ़ाई लिखाई में कम और हाथ के हुनर सीखने में अधिक रुचि प्रदर्शित करता है। उसे किताबी पढ़ाई के स्थान पर जिंदगी को अपने ही ढंग से जीने में आनंद आता है। वह रग्घू चाचा के पास जाकर खिलौने बनाना सीखता है तो कभी कठपुतलियां बनाने का काम करता है और बाद में कठपुतलियों को नचाने का काम शुरू कर देता है। उसके शो के दौरान उसे मास्टर अयोध्या बाबू मिलते हैं जो बताते हैं कि मां बीमारी है और ठुनठुनिया सब कुछ छोड़-छाड़ कर घर की ओर दौड़ पड़ता है।

            पढ़ाई के साथ-साथ हाथ का हुनर सीखना और कोई काम छोटा बड़ा नहीं होता है इस बात को लेखक प्रकाश मनु ठुनठुनिया के माध्यम से बाल पाठकों में मध्य इस उपन्यास से प्रतिस्थापित करते हैं। इस उपन्यास में मां के पास धन का अभाव आरंभ में प्रदशित किया गया है किंतु बाद में ठुनठुनिया पर वह बड़ा खर्च करने में सक्षम दिखाई जाती है।

            ‘एक दिन ठुनठुनिया दौड़ा-दौड़ा घर गया। मां से बोला- मां-मां, एक इकन्नी तो देना। कंचे लेने हैं।

            गोमती दुखी होकर बोली- ‘बेटा, आज तो घर में बिल्कुल पैसे नहीं है। वैसे तो तेरे सारे शौक पूरे हों, इतने पैसे हमारे पास कहां हैं। बस, किसी तरह गुजारा चलता रहे, इतना-भर ही मेरे पास है। आगे तू बड़ा होकर कमाने लगेगा तो...। कहते-कहते मां की आंखें गीली हो गई।

            - नहीं मां, नहीं। एक इकन्नी तो आज मुझे दे दे, फिर नहीं मांगूगा। ठुनठुनिया के जिद करते हुए कहा।

            गोमती के पास उस समय मुश्किल से कुछ आने बचे थे। सोच रही है कि वह पैसा घर की जरूरतों के लिए बचाकर रखा जाए। उसी से निकालकर गोमती ने इकन्नी दी, तो ठुनठुनिया उसी समय भागा और इकन्नी के आठ नए-नकोर कंचे खरीद लाया।’ (पृष्ठ-40)

            यह वही ठुनठुनिया है जिसमें अध्याय दो में मेले में मां के साथ घूमते हुए दस रुपए की मलाई वाली कुल्फी खाई, दो बार चरखी वाला झूला झूला और फिर मां के साथ पीं-पीं बाजा और गुब्बारे लेकर लौटा था। साथ ही उसके साथ जो उसकी मां है वह अध्याय दस में ठुनठुनिया के लिए स्कूल में फीस के पूरे साढ़े पांच रुपये जमा करती है और उसे नई किताबें, कॉपियां, बस्ता खरीद कर देती है। सवाल बालकों के मन में भले उठे ना उठे किंतु लेखक के मन में क्यों नहीं उठा कि रुपयों-पैसों की इस दुनिया में ठुनठुनिया को एक इकन्नी के लिए अध्याय सात में तरसाया क्यों गया है? यहां उपन्यास के कालखंड को लेकर यह भी कहा जा सकता है कि यह कैसी दुनिया है जहां एक इकन्नी में आठ नए-नकोर कंचे मिलते हैं वहीं दस रुपये में मलाई वाली कुल्फी और पूरे साढ़े पांच रुपये में स्कूल में दाखिला मिलता है। अब तो निःशुक्ल शिक्षा देने का समय चल रहा है।

            बाल साहित्य की रचनाओं में कल्पना और संयोग का बड़ा महत्त्व होता है इसलिए यह भी कहा जा सकता है कि सपनों की दुनिया में लेखक कुछ भी दिखा सकता है। यह भी सत्य है कि बच्चों के सामने जीवन के जटिल यथार्थ को प्रस्तुत करते हुए उनके विकास और कल्पनाओं को बाधित नहीं किया जाना चाहिए। इस खूबसूरत दुनिया में कुछ भी हो सकता है अथवा कहें कि लेखक कुछ भी घटित होता हुआ दिखा सकता है। बच्चे भोले हैं नासमझ और नादान है। किंतु क्या हमारे समय और समाज में बच्चे वे पुराने वाले भोले बच्चे अब भी बचे हुए हैं क्या? बच्चे बहुत कुछ जानते हैं और वे इतना जानते हैं कि बड़े भी नहीं जानते हैं। वे अपने आधुनिक समय में तकनीक के द्वारा इतने आगे बढ़ चुके हैं कि उनके पास बहुत सारे रास्ते हैं। दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुनने वाले बच्चे अब नहीं रहे हैं, और तो और अब ऐसे दादा-दादी और नाना-नानी भी नहीं रहे हैं। अब बच्चे कार्टून और एनिमेशन वीडियो की दुनिया में प्रवेश के बाद ज्ञान-विज्ञान के अनेक साधनों से जुड़ गए हैं। उनमें बड़ा बदलाव आ चुका है ऐसे में बाल साहित्य के सामने अनेक नई चुनौतियां भी निसंदेह सामने है।

            इस कृति के दूसरे बाल उपन्यास ‘नन्ही गोगो के अजीब कारनामें’ में एक छोटी, बहुत छोटी-सी बच्ची गोगो और उसकी दुनिया है। इस बालिका का देश और दुनिया को देखने का अपना नजरिया है। यहां इस दुनिया के यथार्थ के साथ-साथ गोगो की एक काल्पनिक दुनिया भी चलती है। वह दोनों जगहों पर अपने कारनामों से हिम्मत और हौसला दर्शाती हुई नई-नई बातें और जानकारियां देती हैं। प्रकाश मनु की भाषा शैली में प्रवाह है जिससे इस बाल उपन्यास में एक के बाद दूसरे घटना क्रम को जोड़ते हुए पहले बाल उपन्यास की भांति कोलाज निर्मित होता है। इन सभी बाल उपन्यासों में एक उल्लेखनीय घटक छोटी-छोटी काव्यात्मक बाननियां भी हैं। समग्रता से विचार करें तो बाल उपन्यास के बीच इस प्रकार की काव्य-रचनाओं में पाठक अधिक रस नहीं लेता है। इनका ध्वन्यात्मक प्रभाव अथवा गेयता में संदेह नहीं है किंतु गद्य का पाठक किसी भी कथा में आगे क्या हुआ जानने को उत्सुक रहता है इसलिए इनको पढ़ने में छोड़ता भी चले तो मूल कथा में कोई अंतर नहीं आता है। गद्य और पद्य के समानांतर पहले चंपू भी विधा के रूप में प्रचलित रहा है। किसी गद्य रचना में पद्य रचनाओं की अधिकता से वह गद्य गद्य नहीं चंपू कहलाता है और वर्तमान में चंपू का प्रचलन नहीं है। अब ठुनठुनिया के विषय में इन पंक्तियों पर विचार करें-

भालू रे भालू!

अम्मां, मैं तेरा भालू!

अभी-अभी चलकर जंगल से आया भालू,

ला खिला दे, ला खिला दे, दो-चार आलू!

अम्मां, मैं नहीं टालू,

अम्मां, मैं नहीं कालू,

अम्मां, मैं तेरा भालू...!

अथवा

ठुनठुनिया जी, ठुनठुनिया,

हां जी, हां जी... ठुनठुनिया,

ठुन-ठुन, ठुन-ठुन ठुनठुनिया,

ठिन-ठिन, ठिन-ठिन ठुनठुनिया,

देखो, मैं हूं ठुनठुनिया!

हां जी, हां जी... ठुनठुनिया!

            मेरा मानना है कि प्रिय ठुनठुनिया को प्रकाश मनु जी केवल बड़े मजे से कलामुंडियां खाने देते तो बेहतर था किंतु वे उसे खाते हुए जोर जोर से गाने का कार्य देते हुए मूल कथा को आगे या पीछे नहीं ले जा रहे हैं। सांताक्लॉज का पिटारा और अन्य बाल उपन्यासों में प्रयुक्त काव्यात्मक गीति अंशों के विषय में भी मेरा विनम्र मानना है कि यह फिल्मी अंदाज बच्चों को गद्य के बीच काव्य के कारण पाठ में कूदने फांदने को ही बाध्य करता है। हां यदि इनका नाट्य रूपांतरण किया गया और मंचन में ऐसे काव्यात्मक अंश हो तो अवश्य वे संगीत और वादन-यंत्रों के सहयोग से बेहद प्रभावशाली हो सकते हैं।

            इसके साथ ही बालसाहित्यकार के सामने यह भी चुनौती है कि वह किस आयु वर्ग के लिए लिख रहा है। ऐसा कुछ इन सात बाल उपन्यासों के संदर्भ में कहीं निर्धारित नहीं है। बाल उपन्यास में शब्द-सीमा अन्य रचनाओं की तुलना में अधिक होती है तो उसे पढ़ने वाले पाठक भी बहुत छोटे-छोटे नर्सरी राइम वाले तो होगे नहीं। मैं मानता हूं कि अब भी ‘बा-बा ब्लेक शीप’ वाला दौर गया नहीं है किंतु यह सब छोटे बच्चों के लिए है। उनके लिए जो पढ़ने के रास्ते से अभी-अभी जुड़े हैं, ऐसे बच्चों को इन बाल उपन्यास का पाठक नहीं कहा जा सकता है।

            हास्य-विनोद और कौतुक से भरपूर ‘सब्जियों का मेला’ बाल उपन्यास अजीब और निराला लगेगा है। सब्जियों का मानवीकरण करना निसंदेह बच्चों को नवीन कल्पनाशीलता सौंपना है। सब्जियां भी हमारी दुनिया की भांति समानांतर अपनी दुनिया रखती है। वे भी बिल्कुल मनुष्यों की तरह ही बोलती-बतियाती हैं और उनका पूरा जीता-जागता संसार इस उपन्यास के माध्यम से सामने आता है। नाम बड़े रोचक बन पड़े हैं और इन नामों के माध्यम से लिंग भेद की अच्छी जानकारी अप्रत्यक्ष रूप से बच्चों को होती है।  

            ‘फागुन गांव में आई परी’ को यहां बाल उपन्यास के रूप में शामिल किया गया है और इसी नाम से एक रचना स्वयं प्रकाश मनु ने संपादक के रूप में ‘श्रेष्ठ बाल कहानियां’ (भाग-2) प्रकाशन वर्ष 2023 में शामिल की है। यह एक रोचक फंतासी विधा के स्तर पर उपन्यास है अथवा कहानी है। क्या किसी कहानी को रचना का विकास करते हुए उपन्यास का रूप दिया जा सकता है? अथवा किसी उपन्यास को काट छांट कर कहानी का रूप दे सकते हैं क्या? यह किसी रचना के प्रति लेखकीय ईमानदारी भी है कि उसके विधा रूप को स्पष्ट किया गया। प्रकाश मनु ने लेखकीय ईमानदारी का परिचय देते हुए इस पुस्तक की भूमिका में इस संबंध में लिखा भी है- ‘मेरा यह बाल उपन्यास थोड़े संक्षिप्त रूप में बाल साहित्य की बहुचर्चित पत्रिका बालवाटिका में छपा था, तो इस पर पाठकों के फोन और चिट्ठियों की जैसे बारिश आ गई।’

            किसी बाल उपन्यास को लेखक अपनी इच्छा से संक्षिप्त कर सकता है उसे श्रेष्ठ बाल कहानी के रूप में भी प्रकाशित कर सकता है और तो और अपनी भूमिका में उसका सार भी बच्चों बड़ों को बता सकता है। क्या यह सभी बातें सही है? मुझे लगता है कि रचना को बड़े धैर्य और धीरज से लिखा जाना चाहिए और यदि वह कहानी है तो कहानी है और बाल उपन्यास है तो वह बाल उपन्यास है। इस प्रकार विधाओं में आवाजाही आलोचना और मूल्यांकन को प्रभावित करती है। रचना में वे कौनसे घटक है जिनको जोड़कर हम किसी कहानी को उपन्यास का रूप दे सकते हैं। कथा-तत्वों की बात करें तो काफी समानता के बाद भी कोई रचना और उसका आवेग स्वयं निर्धारित करता है कि वह कहानी के रूप में जन्म लेती है अथवा उपन्यास के रूप में। विभिन्न कहानियों का कोई कोलाज जोड़ते हुए उसे बाल उपन्यास का रूप दिया जा सकता है और ऐसा प्रकाश मनु ने किया भी है। किसी पात्र और घटनाओं के शृंखलाबद्ध लेखन का भी प्रचलन रहा है और अनेक रचनाओं को अनेक भागों में लिखा भी गया है। एक कहानी से दूसरी और दूसरी से तीसरी का निकलना आगे से आगे चलना हमारी भारतीय कथा-परंपरा में है भी। यहां भी यह शोध खोज का विषय है कि वरिष्ठ बाल साहित्यकार प्रकाश मनु ‘फागुन गांव में आई परी’ के बाल कहानी और बाल उपन्यास में क्या-क्या, कहां-कहां और कितना-कितना परिवर्तन परिवर्द्धन कैसे-कैसे करते हैं।

            इस उपन्यास में परी जो विशुद्ध काल्पनिक है को वास्तविक दुनिया में उतरने का अभिप्राय दो दुनिया को जोड़ना है। स्वयं लेखक ने इस संबंध में लिखा भी  है- ‘मैं अपनी इस कथाकृति के जरिए बताना चाहता हूं कि देखो भाई, बदले हुए जमाने की परियां भी कितनी बदल गई है, और परीकथाएं भी। पर उन्हें देखने का हमारा नजरिया आज भी पिछड़ा हुआ है। मेरा मानना है कि हम नए जमाने की नई परीकथाएं लिखें, तो उसमें बहुत कुछ नया होगा, और वे बच्चों के दिल पर कहीं ज्यादा असर छोड़ेंगी।’ इस बाल उपन्यास में ग्रामीण जीवन के यथार्थ से परी को जोड़ते हुए यहां गांव के सीधे-सरल लोग, उनका निश्छल प्रेम और मेहनत-सच्चाई का आदर्श प्रस्तुत किया गया है। यह ऐसा आदर्श है जो परियों को भी लुभाता है।

            ‘सांताक्लाज का पिटारा’ बेहद रोमांचक और कौतुक पूर्ण बाल उपन्यास है। इसमें बच्चों से खुद उनका प्यारा दोस्त बनकर सांता मिलता है। उनकी समस्याओं और जरूरतों को जानने समझने के साथ ही उनके निदान के लिए भी वह जुट जाता है। हर साल क्रिसमस पर लाखों बच्चों को वह चुपके से सुंदर, रंग-बिरंगे उपहार दे जाता है। इस बाल उपन्यास में आरंभ से लेकर अंत तक, कठोर जीवन के सत्यों को बातों बातों में किस्से-कहानियों की शक्ल में बुना गया है। सांता दुनिया में खुशियां बांटते हुए बच्चों में एक दूसरे से तुलना का भाव जगाता हुआ हमें जीवन संघर्ष के लिए प्रेरित करता है। अनेक बच्चों को यह महसूस करता है कि उनकी मुश्किलें तो कुछ नहीं है।

            बकौल लेखक इस पुस्तक में दो एकदम नए बाल उपन्यास शामिल हैं- ‘दुनिया का सबसे अनोखा चोर’ और ‘हिरनापुर का शहीद मेला’। इनमें ‘दुनिया का सबसे अनोखा चोर’ में एक जीनियस चोर के अजीबोगरीब चरित्र को उजागर करने के प्रयासों के साथ ही उसके विचित्र कारनामों की किस्से हैं वहीं उसके लिए एक छोटा जीनियस बाल पात्र के रूप में प्रस्तुत किया है। चोर ने एक ऐसा सुपर कंप्यूटर बना लिया है, जिसके जरिए वह किसी भी आदमी के मन को काबू करके, अपने ढंग से चला सकता है। वह चोर लोगों को वश में कर उनके दिमाग पढ़कर बड़े आराम से बड़ी चोरियों के कारनामे करता और अंत में सहासी बाल कहानियों की भांति नायक उसे उसके घर में घुसकर अपने तरीके से पकड़ लेता है। वहीं छोटे से बाल उपन्यास ‘हिरनापुर का शहीद मेला’ में देश प्रेम की भावना से ओतप्रोत कथा है। देश के लिए कुछ कर गुजरने की भावनाओं के लिए ऐसी प्रेरणास्पद रचनाओं का अपना महत्त्व होता है।  

            प्रकाश मनु का मानना है कि बच्चों या बड़ों के लिए लिखने में उन्हें कोई फर्क नजर नहीं आता। ऐसा वे अपनी निजी रचनात्मकता के सिलसिले में कहते हैं कि दोनों ही अवस्थाओं में लेखक के भीतर दबाव या तनाव में कोई अंतर नहीं होता। यह बाल साहित्य के प्रति रागात्मकता से जुड़ने की अवस्था है। बच्चों के लिए लिखना बड़ों के लिए लिखने से भी अधिक चुनौतीपूर्ण है ऐसा नहीं है कि बच्चों के लिए लिखना है तो जो मर्जी आए लिख दिया जाए। प्रकाश मनु अपने रचनात्मक अनुभव को साझा करते यह भी लिखते हैं कि उन्हें बाल साहित्य लिखते हुए पचास बरस से अधिक समय हो गया है किंतु अब भी जब वे किसी नई रचना को शुरू करते हैं तो उन्हें प्रतीत होता है कि जैसे वे पहली बार हाथ में कलम पकड़ रहे हैं और जब तक रचना पूरी हो कर आनंद के क्षणों तक नहीं पहुँचती, वे निरंतर उसके प्रति श्रम से निष्ठावान रहते हुए उत्साहित रहते हैं। आत्ममूल्यांनक के बाद ही वे रचना को प्रकाशित कराते हैं। यह उनका बाल साहित्य के प्रति अतिरिक्त लगाव है कि वे इस अवस्था में भी रत्ती भर दंभ नहीं करते हैं और सतत रूप से सक्रिय रहते हैं। वे बच्चों के लिए लिखने की अपार ऊर्जा और आनंद को बच्चों और बचपन को पूरी निश्छलता के साथ प्यार करते हुए पाते हैं। कामना है कि वे सतत सक्रिय रहते हुए बाल साहित्य की श्रीवृद्धि करते रहेंगे।  

    

डॉ. नीरज दइया,

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कृति :  बच्चों के सात रोचक उपन्यास  (बाल उपन्यास संग्रह) 

लेखक : प्रकाश मनु

प्रकाशक : डायमंड बुक्स, नई दिल्ली 

 पृष्ठ : 316 ; मूल्य : 300/- ; पहला संस्करण : 2024

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