खेल लेखक के रूप में विख्यात और व्यंग्यकार के रूप में चर्चित आत्माराम भाटी के सद्य प्रकाशित व्यंग्य संग्रह ‘पर्दा न उठाओ’ में मूलतः भारतीय समाज में निषेध के प्रति जो आकर्पण है, उसे व्यंजित करने के प्रयास लिए हुए हैं। व्यंग्य अथवा किसी भी विधा में रचनाकार का एक अनिवार्य लक्षित घटक सारे पर्दों को उठाने के साथ ही सामाजिक यथार्थ और बदलते मूल्यों पर प्रकाश डालना होता है। समय के साथ आधुनिक होते समाज की विसंगतियों को व्यंग्य में बखूबी से व्यंजित किया जाता है और आत्माराम भाटी ने अपने पहले व्यंग्य संग्रह ‘परनिंदा सम रस कहुं नाहिं’ (2018) में यही कार्य किया था। सद्य प्रकाशित व्यंग्य-संग्रह में उसके बाद लिखी चयनित पच्चीस व्यंग्य रचनाएं संकलित है।
प्रख्यात व्यंग्यकार ज्ञान चतुर्वेदी ने इस संग्रह की भूमिका लिखते हुए वर्तमान व्यंग्य परिदृश्य और लेखन पर प्रकाश डालते हुए व्यंग्य विधा की बारीकियों के विषय में भी अनेक संकेत देते हुए वे लिखते हैं- ‘आत्मारम भाटी का व्यंग्य लेखन अपनी तरह से बड़ी ईमानदार कोशिश है।’
मेरा मानना है कि रचना-दर-रचना में ऐसी ही कोशिश रचनाकार को अंततः किसी बड़े मुकाम तक ले जाती है। लेखन में सतत सक्रिय होना और अपने समकालीन साहित्य से जुड़े रहना एक बड़ा सूत्र है जिससे रचनाओं में उत्तरोतर विकास किया जा सकता है। हम विचार करें कि साहित्य में व्यंग्य बहुत लिखे गए हैं और लिखें जाएंगे किंतु किसी रचनाकार के पास ऐसा निजी क्या होता है जिससे उसके लेखन को पाठक बिना उसके नाम के भी पहचान सके। यदि ऐसा होता है कि रचना स्वयं रचनाकार का पता देने लगे तो समझा जाना चाहिए कि यात्रा का मार्ग सही है। आत्माराम भाटी भी इस मार्ग के पथिक हैं और वे निरंतर प्रयासरत दिखाई देते हैं कि उनकी रचनाएं खुद उनका पता दे।
आत्माराम भाटी की इन व्यंग्य रचनाओं को उनके पहले व्यंग्य संग्रह की विकास यात्रा के रूप में देखा जाना चाहिए। यहां भी उनके पहले संग्रह की भांति स्थानियता के साथ-साथ कुछ ऐसे घटक हैं, जो उनके निजी प्रतीत होते हैं। उदाहरण के लिए वे अपनी व्यंग्य रचनाओं में कुछ पात्रों के नामों को लेकर अपनी निजता बनाने का प्रयास कर रहे हैं। कुछ पात्र उनके अपने हैं जैसे- घोटू काका, निगेटिव काका, रसिया महाराज, डंकोली महाराज आदि। अपने प्रिय पात्रों के नामकरण के साथ ही बीकानेर शहर की अपनी भाषा-शैली और शब्दावली में राजस्थानी का मिठास भी उन्हें अपनी मिट्टी से जोड़ता है। स्वयं आत्माराम भाटी भी अपनी रचनाओं में ‘लेखक’ जी के नाम से बार-बार उपस्थित हो कर ध्यानाकर्षण का विषय बनते हैं।
शहर बीकानेर की अलमस्त जीवन-शैली को सहजता से चित्रित करते हुए व्यंग्यकार आत्माराम भाटी बिना किसी बड़ी योजनाओं और भाषिक लालित्य का प्रदर्शन किए बहुधा केवल अभिधा शक्ति के बल पर दाव खेलते हैं। जीवन की सहजता, सरलता और सुगमता में जो आत्मीय अथवा कहीं कहीं नाटकीय भी है जो पात्रों के परस्पर संवाद से प्रगट होती हुई उनकी रचनाओं में ऐसी विसंगतियों को उजागर करती हैं जो ना केवल उनके शहर अथवा राज्य की होकर सर्वदेशीय है।
‘यातायात नियम और घमंडीलाल’ व्यंग्य रचना में वे एक दैनिक घटनाक्रम के द्वारा जैसे नियमों को पालन करने का पाठ पढ़ाते हैं तो ‘कला मंचों की व्यथा’ में बदलते समय के साथ आधुनिकता के साथ रंगमंच के खोते जाने की व्यथा-कथा निर्माणाधीन रंगमंच और शहर के सिनेमा थियेटर के संवादों से प्रस्तुत करते हैं। शहर के मस्ती भरे जीवन को मुहल्ले के चौक में पनवाड़ी की दुकान पर होने वाले संवाद में देख सकते हैं जिसमें ‘ओलिंपिक में ज्यादा पदक के लिए सुझाव’ देते हुए मनचले बिना कुछ सोचे-समझे और जाने आत्मविश्वास के साथ बेतुके सुझाव देते हैं। मूर्खता और अज्ञानता का अपना आनंद है। एक उदाहरण देखिए-
“मैंने कहा- आप सही कह रहे हो। हम देखते हैं कि सड़क पर कोई विदेशी लोग दिखे नहीं कि सारा जरूरी काम छोड़कर उसकी ओर सभी ऐसे देखने लग जाएंगे जैसे कोई आदमी न होकर अंतरीक्ष से आए हुए एलियंस हों।
हमारे निगेटिव काका का पोता डफोलिया चाहे अंग्रेजी न भी आए तो भी उनके पास जाकर हाय हैलो करने लग जाता है। टूटी-फूटी अंग्रेजी में नाम, देश व सब कुछ पूछ लेगा। मजे की बात यह भी है कि जब डफोलिया अंग्रेजों से बात कर रहा होता है तो मुहल्ले के दस और लड़के उसके पास जाकर ऐसे खड़े हो जाते हैं जैसे डफोलिया किसी बड़ी हस्ती का सक्षात्कार कर रहा हो।'' (विदेशी का चस्का ; पृष्ठ-86-87)
‘डफोलिया’ शब्द का अभिप्राय जो कुछ नहीं जानता हो, मूर्ख को कहते हैं ‘डफोल’ और उसी से यह शब्द बना है। यह उनका अपना पात्र है और लेखक ने इसका संबंध अपने पेटेंट पात्र निगेटिव काका से जोड़कर उसे इनका पोता बताया है। शहर की संस्कृति में यह रंग जाने कब से छाया हुआ है और यहां ऐसे होने पर विरोध का जो धीमा स्वर है वही व्यंग्य का प्रमुख लक्ष्य है। आत्माराम भाटी की व्यंग्य रचनाओं में जहां ऐसी अनेक समस्याएं है तो उनके विषय में अपने मत को व्यक्त करने वाले पात्र और संवाद भी हैं। यहां केवल मूर्खों की मूर्खताएं ही नहीं वरन उनके विषय में सही बयान भी इन कथात्मक रंग में रंगी रचनाओं में हमें मिलते हैं।
‘योग्यता पर भारी सिफारिश’, ‘नया साल नए संकल्प’, ‘कोरोना काल में पत्नी की दादागिरी’, ‘पुस्तक लिखने की धमकी’, ‘सरकारी नौकरी के पायदे’ जैसी अनेक रचनाओं के शीर्षक अपने विषय का खुलासा करते हुए अपनी व्यथा-कथा कहने में सक्षम है। कुछ व्यंग्य रचनाओं में उनका प्रिय विषय खेल और खिलाड़ी भी केंद्र में रखा गया है। किताब का नाम ‘पर्दा न उठाओ’ रखा गया है पर पर्दा तो उठाना ही होता है। समीक्षा और आलोचना में बिना पर्दा उठाए रचनाओं के विषय और रूप-रंग का पाठकों को कैसे अंदाजा होगा। किंतु सत्य यह भी है कि कोई व्यंग्यकार अथवा रचनाकार देश-समाज, घर-परिवार और व्यस्था के भारी भरकम पर्दों को कितना और कब तक उठाएगा। किसी व्यंग्य रचना में व्यंग्यकार बस कुछ संकेत करता है। वह कुछ दिखाता और कुछ छिपा छोड़ देता है। उसका उद्देश्य तो असल में किसी भी दृश्य को देखते समय जो पर्दा तो हर देखने वाले की आंखों पर होता है उसे उठाना होता है। सत्य यह है कि किसी भी कृति से रू-ब-रू होने के लिए पर्दा तो स्वयं पाठक को ही उठाना होता है यहां बस उसका आह्वान किया गया है।
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पर्दा न उठाओ (व्यंग्य-संग्रह) आत्माराम भाटी, प्रकाशक- इंडिया नेटबुक्स प्राइवेट लिमिटेड नोएडा, संस्करण : 2023, पृष्ठ : 96, मूल्य : 200/-
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डॉ. नीरज दइया
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