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कितना कम जानते हैं हम दुनिया के बारे में.../ डॉ. नीरज दइया

रति सक्सेना को किसी परिचय की सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता है। वे विख्यात कवयित्री, संपादक और अनुवादक के अतिरिक्त वैदिक साहित्य की अध्येता के रूप में देश-विदेश में जानी-पहचानी जाती हैं। देश-विदेश में उन्होंने अनेक यात्राएं की है और उनकी रचनाओं के अनुवाद भी देश विदेश की अनेक भाषाओं में हुए हैं। यही सब उनके सद्य प्रकाशित संस्मरण संग्रह ‘स्याह पर्दों के ऊपर’ के अंतिम कवर पेज पर दिए परिचय में भी मिलता है। इन सब से इतर बेहद प्रभावशाली उनका गद्य लेखन है जो मुझे बेहद प्रभावित करता रहा है। ‘चींटी के पर’, ‘सफर के पड़ाव’ और ‘अटारी पर चांद’ आदि यात्रा-वृतांत के बाद संस्मरण संग्रह ‘स्याह पर्दों के ऊपर’ से गुजरना एक अद्वितीय अनुभव है।       आज यदि रति सक्सेना को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारतीय कवयित्री के रूप में पहचान मिली है, तो यह उनके व्यापक कार्यों की उपलब्धि है। हम जानते हैं कि केवल भारतीय ही नहीं वैश्विक जगत में भी महिलाओं के लिए देस-विदेस में घर से बाहर निकलने के रास्ते आसान नहीं हैं। सक्सेना की वैश्विक यात्राओं में जब वे कविता पाठ के लिए आमंत्रित की गईं तो पहली बात यह आमंत्रण अपने आप में एक स्वीकृति है और इसको निभाना भी सहज कहां है। उनकी नवीन कृति के चार संस्मरण एक प्रकार से चार अध्याय हैं। इसके पहले संस्मरण का शीर्षक- ‘स्याह पर्दों के ऊपर सुर्ख लिबास- ईरान में बिताए दिन’ से कृति को शीर्षक दिया गया है जो पूरी कृति ही नहीं रति सक्सेना की रचनात्मकता का केंद्रीय घटक भी रहा है। वे देश-दुनिया में समानता के विचार को लेकर चलने वाली लेखिका है। ईरान में बिताए दिन हो या अन्य स्थलों की उनकी यात्राएं उनके सोच में जहां इतिहास, कला, संस्कृति और मानव-विकास की मुख्य धाराएं गतिशील रहती हैं वहीं वे हमें अपने शब्दों के माध्यम से किसी कथा-रस में डुबोकर अपने गद्य के द्वारा जैसे साथ चलने को विवश भी करती हैं। उनका किसी स्थल अथवा शहर-जमीन को देखना उसके पूरे परिदृश्य के साथ विकासशील सभ्यता के रूप में देखना है जहां जीवन और व्यवहार के साथ आधुनिकता भी है। कहना होगा कि वे मानवता के पक्ष को प्रबल-प्रखर करने की पक्षधर रहीं है। अपने पहले स्मरण में एक स्थान पर वे लिखती हैं- ‘आज भी ‘कुर्द’ सम्प्रदाय के लोग अपने हकों के लिए लड़ रहे हैं। इस्लामी देशों में ही इनका संहार हो रहा है। कितना कम जानते हैं हम दुनिया के बारे में, मान्यताओं के बारे में, मैं सोचने लगी।’ (पृष्ठ-9) निसंदेह यह कृति हमारे इस कम जानने को कुछ हद तक विस्तार देती हुई ना केवल नई नई जानकारियों से हमें अवगत कराती है वरन एक दिशा भी देती है कि हम इस दिशा में चले। अपने आप और अपनी-अपनी परिधियों से बाहर निकले। देखें कि स्याह पर्दों के भीतर और बाहर की दुनिया कैसी है। देश और दुनिया में इतने विकास के बाद भी हमारे समानांतर ऐसी दुनिया भी है जहां महिलाएं अपने घरों की दुनिया में तो आजाद है किंतु बाहर की दुनिया में उन पर पहरा और पाबंदिया हैं।  
    मैंने इससे पूर्व भी रति सक्सेना के गद्य लेखन पर विचार करते हुए लिखा था- ‘किसी भी वैश्विक आयोजन में भाषा को लेकर जो बाधाएं और दुविधाएं होती हैं उनका यहां खुल कर वर्णन किया गया है। हम सोचते हैं कि अंग्रेजी वैश्विक भाषा है किंतु बहुत स्थानों पर किस प्रकार अंग्रेजी पंगु हो जाती है। अपनी इस विवश्ता को झेलना कितना संत्रास देता है। हम पढ़े-लिखे होते हुए भी मूक-बधिक अथवा कहें अनेक भाषाओं की जानकारी के बावजूद निरक्षर जैसे हो जाते हैं। ऐसे में यहां यह व्यंजित होना बेहद सुखद प्रतीत होता है कि मानवता और मानवीय संवेदनाओं की भी अपनी एक  भाषा होती है।’ यह बात उनकी ईरान यात्रा के संदर्भ में भी एकदम सही प्रतीत होती है। एक खतरनाक तथ्य बहुत बेबाकी के साथ इस संस्मरण में यह भी सामने आता है कि इस्लामिक देशों में स्याह पर्दों के पीछे का संसार कितना भयानक है और वहीं पढ़े-लिखे और कवि-समाज में भी यह मानसिकता गहरे तक घर किए हुए हैं कि रति सक्सेना जैसी कवयित्री को भी आहत होना पड़ता है। साहित्य भी बहुत बाद में उनके बीच संवाद के लिए एक कमजोर सा पुल निर्मित कर पाता है। उनके पास अपने अनुभवों को कहने का एक हुनर है जिसमें हम सतत रूप से जानना चाहते हैं कि आगे क्या हुआ, उनका कविता पाठ कैसा रहा। उन्होंने बिना भाषा और संवाद के कैसे समय गुजारा। यहां आंखों देखे विवरण के साथ ही अनेक ऐतिहासिक तथ्यों को भी गद्य में बेहद सुंदरता के साथ बुना गया है कि वह हमारे अनुभव और ज्ञान में वृद्धि करने वाला है।      
    रति सक्सेना के साथ विविध यात्राओं में हमारा मन रमता जाता है। अ कोरुना जो स्पैन का गैलेसियन प्रांत हो अथवा विन्सेन्ट मारटिनेज रिस्को आगरो का नगर या फिर लडंन सभी यात्राओं में कविता के लिए उनकी दीवानगी के साथ बहुत कुछ जानने और अनुभव बटोरने की उनकी अदम्य इच्छाएं हमें भीतर तक उजास से भर देती है। इन दूरस्थ स्थलों के लिए हमारे मनों में भी हूक सी उठती है कि हम भी कभी कहीं घूमने जाएं यह इन संस्मरणों की सार्थकता है। लुइस विन्सेन्ट संस्था के परिचय के साथ ही उसके इतिहास में गांधी जी और रवींद्र नाथ टैगोर के यादगार प्रसंग भी यहां हमें मोहित करते हैं। लंडन से रति सक्सेना का अरिरिक्त मोह रहा है इसका पहला कारण उनकी बेटी वहीं रहती हैं, दूसरा और उससे भी बड़ा तथ्य वहां के साहित्य का वैश्विक साहित्य में स्थान और माध्यम भाषा के रूप में अंग्रेजी की विकास यात्रा भी है। यह संस्मरण पुस्तक है और अपने अंतिम संस्मरण में बहुत कुछ देने के विकल्प में लेखिका ने शेक्सपियर के विषय में विस्तार से जानकारी दी है जो किसी आलेख और शोध की श्रेणी को स्पर्श करते हुए संस्मरण के उस रस से फिर फिर बाहर पंख पसारता है। किंतु इसके अंत में कविता-पाठ के लिए उनकी यात्रा पुनः इसे संस्मरण की श्रेणी में लाने में सफल रहती है। इस संग्रह में रति सक्सेना की कविताओं के साथ अन्य कवियों की कविताओं के कुछ अनुवाद भी हमारी इस यात्रा को एक नया आनंद प्रदान करने वाले हैं। आशा है कि उनके पास अब भी अपनी अनेक यात्राओं के संस्मरण शेष हैं, जो हमें उनकी आगामी पुस्तकों से सुलभ होते रहेंगे।  
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पुस्तक का नाम – स्याह पर्दों के ऊपर (संस्मरण)
कवि – रति सक्सेना
प्रकाशक – न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन, नई दिल्ली
पृष्ठ- 96
संस्करण - 2023
मूल्य- 225/-

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डॉ. नीरज दइया


 


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