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डॉ. हरीश नवल के चश्मे से व्यंग्य को देखना / डॉ. नीरज दइया

आज हिंदी व्यंग्य को जिन गिने-चुने नामों ने पहचान दी है, उनमें एक प्रमुख नाम हरीश नवल का है। पहली पुस्तक पर आपको युवा ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलना ध्यानाकर्षकण का विषय रहा है। किंतु बाद में आपकी सतत साहित्य-साधना में भाषा का सयंमित व्यवहार विशेष उल्लेखनीय उपलब्धि है। सद्य प्रकाशित व्यंग्य कृति ‘गांधी जी का चश्मा’ के माध्यम से व्यंग्यकार हरीश नवल यह प्रमाणित करते हैं कि व्यंग्य में बहुत कम शब्दों में बहुत गहरी-गंभीर बात कही जा सकती है।
    शीर्षक व्यंग्य ‘गांधी जा चश्मा’ की बात करें तो आरंभ में लगता है कि गांधी का चश्मा जो 2.55 करोड़ रुपये में हुआ नीलाम और अमरीका के एक व्यक्ति ने खरीदा उसका कहीं कोई संदर्भ होगा। किंतु नहीं यह व्यंग्य विगत सात दशकों से दो अक्टूबर को गांधी जंयती पर होने वाले मेलों पर सधा हुआ व्यंग्य है। इसके शीर्षक और आरंभ को पढ़ते हुए कहानीकार संजीव की कहानी ‘नेता जी का चश्मा’ का स्मरण होता है, जिसमें एक बालक की देशभक्ति को बहुत सकारात्मक ढंग से प्रस्तुत किया है। यहां इस व्यंग्य रचना में अहिंसा नगर में जंयती समारोह आयोजन से पूर्व गांधी जी की मूर्ति जो एक बहुत बड़े शिल्पकार ने बनाई है का चश्मा गायब होने का प्रकरण है। बिना चश्मे के गांधी जी आंखें जैसे उनमें अश्रु भरे हैं, होंठ बहुत सूखे हुए हैं... तिस पर व्यंग्कार का कहना कि ‘गांधी जी के चेहरे पर चश्मे के कारण गांधी जी का पूरा चेहरा कहां दिखता था’ हमारे सारे चश्में उतार देने को पर्याप्त है। आखिर चश्मा गया कहां का रहस्य अंत में स्वयं गांधी जी के श्रीमुख से किया गया है। गांधी जी के पूरा कथन स्वयं में परिपूर्ण व्यंग्य है- ‘सुनो तुमसे ही कह सकता हूं, तुम जैसे मेरे आचरण का अनुकरण करने वाले अब मुट्ठी भर ही रह गए हैं, विगत सात दशकों से देखता आ रहा हूं कि मेरे विचारों की रोज हत्या हो रही है, जबकि मेरी हत्या केवल एक बार ही हुई, सोचता रहा, देखता रहा कि बदलती हुई सफेद, लाल, केसरी आदि टोपियों वालों में कोई तो मेरे सपनों को आरंभ करेगा लेकिन सभी एक से ही आचारण को अपनाते रहे। मेरी सोच धीरे-धीरे मरती रही। अब मुझसे देखा नहीं जाता इसलिए मैंने खुद ही अपना चश्मा उतार कर नष्ट कर दिया।’
    हरीश नवल का मानना है कि व्यंग्य की चोट दुशाले में लपेट कर मारे गए जूते जैसी होनी चाहिए। वह सीधा सपाट व्यंग्य प्रस्तुत नहीं करते, वरन कुछ पेच और घुमाव उनकी प्रवृत्ति है। स्वयं को बिना मुखर किए जब व्यंग्यकार कभी बहुत गहन-गंभीर बात प्रस्तुत करता है तो जाहिर है वह पाठकों से एक ज्ञान-स्तर की भी मांग और उम्मीद करता है। ऐसी अपेक्षा के पूरित नहीं होने पर पाठक थम जाता है और सोचने लगता है कि क्या कह दिया गया है... यह सोचने अथवा अवकाश देना हिंदी व्यंग्य में विरल है। हरीश नवल ने वर्षों अध्यापन का कार्य किया और वे साहित्य के विधिवत अध्येयता रहे हैं, अतः उनकी अनेक रचनाओं में साहित्य-इतिहास और परंपरा को बहुत सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया गया है।
    ‘बिल्लो रानी और ईश वंदना’ में फिल्मी गीतों के माध्यम से भावक के भावों के बदले जाने का और जहां चाह वहां राहा कि उक्ति का विस्तार है। जहां जो नहीं है वहां वह जो मनवांछित है को ढूंढ़ लेने की प्रवृति को यहां अतिरेक के साथ प्रस्तुत करते हुए हरीश नवल पाठकों को हास्य के द्वार तक ले जाते हैं, किंतु कोई खुल कर या खिलखिला कर हंसे उससे पहले ही व्यंग्य की मार से वह तिलमिलाहट से भर देते हैं। कहना होगा कि हरीश नवल के व्यंग्यकार में उनका कहानीकार अधिक मुखर होता है, तब वे अपेक्षाकृत अधिक प्रभावशाली व्यंग्य देते हैं। ‘उफ़ भईया जी चोट’, ‘जन विकास यात्रा’, ‘देश की मिट्टी और नाराद जी’ अथवा ‘प्रिय राजेन्द्र जी’ जैसे व्यंग्य इसके उदाहरण है। देश में नेताओं की मोनोपोली, धन का अपव्यय, व्यवस्था की खामिया और आधुनिक समय-समाज में घर करती संवेदनहीनता को प्रस्तुत करते हुए हरीश नवल के व्यंग्य यदि अपने पाठक में संवेदना जाग्रत करते हैं तो यह बड़ी सफलता है। आधुनिक युग में वैसे तो पाठक सर्वज्ञान है और सब कुछ जानता है, जो जानता हो उसको कुछ बताना बेहद मुश्किल काम है फिर भी व्यंग्यकार उसके जानने को बढ़ाते हुए जैसे द्विगुणित करने का मुश्किल काम बड़ी सरलता से करने का हुनर रखते हैं।
    ‘निदान नींद का’ की बात करें जो मूलतः लघुकथा के रूप में है और बड़ा मारक व्यंग्य यहां सांकेतिक है। राजा आदंदारित्य का नियम था कि वह प्रातः महामंत्री के साथ नगर का विहंगम दृश्य देखते और जहां से धुआं उठता दिखाई नहीं देता तो महामंत्री को पता करने का आदेश देता कि उस घर में अंगीठी क्यों नहीं जली। वह उसकी व्यवस्था करने का आदेश भी देते और महामंत्री इस नियम से दुखी क्योंकि वे प्रातः की नींद में कोई बाधा नहीं चाहते थे। महामंत्री ने अपने मित्र राज-वैज्ञानिक तारादत्त से निदान के रूप में धुएं रहित अंगीठी का अविष्कार करवा पर्यावरण की शुद्धता की दुहाई देते हुए राजाज्ञा प्राप्त कर वैसी अंगीठी हर घर में पहुंचा दी और अब राजा को कहां भोजन बना और कहां नहीं इसका भेद नहीं मिल पाता था। प्रतीक के माध्यम से व्यवस्था पर सुंदर कटाक्ष किया गया है, किंतु अब ऐसे राजा नहीं रहे और महामंत्री ही राजा बन गए हैं- जो जागते हुए भी गहरी नींद में ही रहते हैं। ऐसी अनेक छोटी और मध्यम आकार की रचनाओं को पढ़ते हुए अभिभूत हुआ जा सकता है, यह प्रभाव कृति और कृतिकार की विशेषता है।
    शब्दों के श्लेष और वक्रोकी के अतिरिक्त भाषा-व्यंजना के माध्यम से हरीश नवल हमारे समक्ष ऐसे व्यंग्य को प्रस्तुत करते हैं जो दूसरों से अलग और अपने अंदाज के कारण प्रभावशाली है। वैसे इस पुस्तक की यह विशेषता है कि व्यंग्य भले आकार में छोटा अथवा बड़ा हो, वह निबंध, कथा अथवा लघुकथा के रूप में हो किंतु वह सदैव अपने शिल्प, भाषा के साधा हुआ है, यहां नए विषयों की तलाश के कारण व्यंग्य प्रभावशाली है। पुस्तक के अंत में हरीश नवल के व्यंग्य अवदान को रेखांकित करता पंद्रह पृष्ठों का एक आलेख ‘व्यंग्य कमल : हरीश नवल’ बिना लेखक के नाम के दिया गया है। लेखक प्रकाशक किसी की भी भूल रही हो पर गूगल बाबा नहीं भूलते और उनके द्वारा पता चल सकता है कि यह आलेख डॉ. आरती स्मित द्वारा लिखा गया, जो ‘सेतु’ में वर्ष 2017 में प्रकाशित हुआ है। इस आलेख के अंतिम अनुच्छेदों को हटा कर पुस्तक के अंत में गांधी बाबा को चित्र में मुस्कुराते हुए दिखाया गया है। इस कृति के माध्यम से डॉ. हरीश नवल के चश्मे से समकालीन व्यंग्य को देखना बेहद सुखद है।
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पुस्तक का नाम : गांधी जी का चश्मा ; लेखक : हरीश नवल
विधा – व्यंग्य ; संस्करण – 2021 ; पृष्ठ संख्या – 132 ; मूल्य – 200/- रुपए
प्रकाशक – किताबगंज प्रकाशन, सवाई माधोपुर

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डॉ. नीरज दइया


 

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