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अगंभीर होते समय-समाज की सहज-सशक्त अभिव्यक्ति / डॉ. नीरज दइया

लिखना बेहद कठिन है। लिखना शब्द के भीतर छिपा नकार ‘लिख ना’ को जब से मैंने पहचना है, वह ‘ना’ मुझे रोकता रहता है। पहले जब यह पहचान नहीं हुई थी तब मैं खूब लिखता हूं। लिखता तो अब भी हूं किंतु इस ना को सुनते और समझते हुए। अब लिखते समय बड़ा संकट यह रहता है कि क्या लिखा जाए और क्या कुछ छोड़ दिया जाए। लिखने में सब कुछ लिखा नहीं जा सकता है। लिखने से पहले अपने पूर्ववर्ती रचनाकारों को पढ़ते हुए विधा में हुए कामों के साथ अपनी परंपरा को पहचान सकते हैं। प्रत्येक लेखक को यह फैसला करना होता है कि उसे क्या कुछ किस विधा में लिखना है, क्या कुछ नहीं लिखना।
    मुझे लगता है कि लिखना लुका-छिपी के खेल जैसा है। शब्दों का अजब-गजब जादू है। भाषा में असंभव को संभव करने की शक्ति है। वैसे शब्द तो सभी के लिए समान है, किंतु शब्दों का प्रयोग और अभिप्राय जब हम वाक्यों में प्रयुक्त कर करते हैं तो वह कला कहलती है। हमारे यहां शब्द को ब्रह्म कहा गया है। शब्द का ज्ञान और संस्कार देने वाला गुरु होता है। भारतीय परंपरा में गुरु सर्वाधिक उच्च पद पर आसीन है। उसे गोविंद से भी बड़ा और महान बताया गया है।
    जीवन में यदि एक योग्य गुरु मिल जाए तो जीवन सफल हो जाता है। मैं बड़ा सौभाग्यशाली हूं कि मुझे मेरे जीवन में अनेक गुरुजनों का आशीर्वाद मिला है। प्रो. अजय जोशी जी बैचलर ऑफ जर्नलिज्म एंड मास कम्युनिकेशन में मेरे गुरुदेव रहे हैं। वाणिज्य और अर्थशास्त्र के विद्वान होने के साथ-साथ वे पत्रकारिता और जनसंचार के प्राध्यापक और साहित्य अध्येयता रहे हैं। प्रो. जोशी का जीवन विद्यार्थियों के कल्याण और सतत मार्गर्दशन के लिए समर्पित है। शैक्षणिक और समाजिक कार्यों का उल्लेख यहां अभिप्राय नहीं है। अच्छा तो यह होता कि वे मेरी किसी किताब की भूमिका लिखते और मुझे आशीर्वाद देते। किंतु यहां हो कुछ विपरीत रहा है। मुझे गुरुवर प्रो. अजय जोशी ने अपने नए व्यंग्य-संग्रह ‘पत्नीस्यमूडम’ की भूमिका लिखने का आदेश दे दिया तो मैं आश्चर्य और संकोच से हमारे समय के अग्रजों के नाम गिनवाने लगा। किंतु वे अपने निर्णय को बदलना नहीं चाहते थे। ऐसे में गुरु-वचन की अवहेलना कर मैं घृष्टता कैसे कर सकता था।
    यह कलयुग है और इसमें बहुत कुछ उल्टा-पुल्टा हो रहा है। इसी उल्टे-पुल्टे को ठीक ढंग से देखने-दिखाने का आयुध व्यंग्य विधा है। हमारे समय में व्यंग्य को बेहद सरल-सहज मान लिया गया है किंतु व्यंग्य लिखना अपने आप में नाकों चने चबाने जैसा है। यह चने कुछ ज्यादा कठोर और कष्टकारक होने स्वाभाविक हैं जब कोई वामांगी को केंद्र में रखने की सोचता है। स्त्री और पुरुष से यह संसार चलता है और स्त्री को देश की आधी आबादी कहा जाता है। यह व्यंग्य संग्रह अपने नाम और विषयगत अवधारणा से हमें प्रभावित करने वाला है।
     ‘पत्नीस्यमूडम’ शीर्षक नया, आकर्षक और गूढ़ता से भरा हुआ है। मूड के अनेक सेड्स हमें यहां मिलेंगे। साहित्य और खाकर व्यंग्य का काम नए शब्दों को गढ़ना और बरतना है। प्रो. अजय जोशी विगत पांच-सात वर्षों से व्यंग्य लिखे रहे हैं। उनके नियमित कॉलम प्रकाशित होते रहे हैं। देश-विदेश की पत्र-पत्रिकाओं में उनकी रचनाओं को स्थान मिला है। इससे पूर्व उनके दो व्यंग्य-संकलन प्रकाशित हो चुके हैं। अनेक व्यंग्य-संकलनों में आपकी रचनाओं को स्थान मिला है। कहने का अभिप्राय है कि बीकानेर के अजय जोशी जी देश के व्यंग्यकारों में प्रमुखता से शामिल हो रहे हैं।
    ‘पत्नीस्यमूडम’ संग्रह का शीर्षक इसमें संकलित एक रचना से लिया गया है जो इसी शीर्षक से संकलित है। शीर्षक का मूल उत्स संस्कृत का यह श्लोक है-
नृपस्य चित्तं, कृपणस्य वित्तम; मनोरथाः दुर्जनमानवानाम्।
त्रिया चरित्रं, पुरुषस्य भाग्यम; देवो न जानाति कुतो मनुष्यः।।
    (अर्थ- राजा का चित्त, कंजूस का धन, दुर्जनों का मनोरथ, पुरुष का भाग्य और स्त्रियों का चरित्र देवता तक नहीं जान पाते तो मनुष्यों की तो बात ही क्या है।)
     ‘पुरुषस्य भाग्यम’ पद को बदलते हुए यहां ‘पत्नीस्य मूडम’ किया गया है। हास्य कवि सुरेंद्र शर्मा ने घर-परिवार की केंद्र बिंदु पत्नी पर खूब हास्य कविताएं लिखी हैं। हम व्यंग्य की बात करेंगे तो हमारे समय के लगभग सभी व्यंग्यकारों ने इस विषय को स्पर्श अवश्य किया है, किंतु इस विषय से इतना लिपटने का साहस अब तक किसी दूसरे व्यंग्यकार में नहीं देखा गया है। यहां मेरे अध्ययन की सीमा का भी मुझे भान है इसलिए यह भी कहा जा सकता है कि ऐसा बहुत कम हुआ ।
    ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता’ उक्ति की तर्ज पर यहां इस कृति ‘पत्नीस्यमूडम’ के संबंध में कहना होगा कि पत्नी अनंत पत्नी कथा अनंता.... पत्नी की महिमा और अनंत कथा का बखान जितना जिस रूप में किया जाए वह कम है। किंतु यहां त्रासदी यह है कि व्यंग्य में आलोचना और नकारात्मक तत्वों को अधिक रेखांकित किया जाता है। पक्ष के साथ बड़े रूप में पत्नी के विपक्षी होने की इस अमर कथा में बहुत कुछ हमें अपने घर-परिवार और जीवन जैसा प्रतीत होगा। मैं मानता हूं कि रचनाकार की रचनाओं को उसके जीवन और अनुभव से खाद-पानी मिलता है और वह आगे बढ़ता है। यहां इन रचनाओं में जो खाद-पानी है और जिन से पत्नी के विविध चरित्र में अनेक आयामों का उद्घाटन हुआ है।    
    ‘पत्नीस्यमूडम’ संग्रह में प्रो. अजय जोशी जी के 34 व्यंग्य संकलित किए गए हैं। इन रचनाओं में सर्वाधिक प्रभावित करने वाली बात प्रस्तुत कथ्य और भाषा की सहजता और सरलता है। अनेक रचनाओं में हमें गीतों की पंक्तियां अथवा कोई समसामयिक घटना-स्थिति का स्पर्श मिलता है तो मन मुदित होता है। व्यंग्यकार का भरसक प्रयास रहा है कि वे जो कुछ भी कहें वह सीधे-सरल और बहुत संक्षेप में कहा जाए। भाषा की वक्रता का खेल खेलना व्यंग्य में प्रो. अजय जोशी को अधिक पसंद नहीं है। इन रचनाओं में भाषा की वक्रता जहां कहीं है वह भी सहज प्राप्य है। अनेक स्थलों पर पात्रों के संवादों के कारण भी हम व्यंग्य के मर्म को पहचान पाते हैं। हास्य से गुदगुदाते हैं। जो कुछ कहा गया है वह हमारे आस-पास का है। इन रचनाओं में जो जैसा है उसे वैसा ही चित्रित करते हुए, उसके किसी अन्य अथवा उन्नत होने की संभवानाओं को भी संकेत में अभिव्यक्त किया गया है। व्यंग्य में स्थान स्थान पर हास्य का साथ रचनाओं की चुभन को सहनीय बनाने वाला है।
    पति-पत्नी के संबंधों को हमारे यहां सात जन्मों का संबंध कहा गया है और यदि प्रत्येक जन्म में यह सात जन्म का संबंध गुणित होता रहे तो संबंध जन्म-जनांतर का बन जाता है। इस संबंध में परस्पर सहयोग, सद्भाव और सहानुभूति के साथ-साथ सर्वाधिक जरूरी घटक प्रेम कितना है, यह पड़ताल का इन रचनाओं क मूल उद्देश्य है।
    ‘पत्नीस्यमूडम’ संग्रह की प्रथम रचना की आरंभिक पंक्तियां हैं- ‘अरे सुनो तो... अपनी पत्नी प्राणेश्वरी के ये शब्द सुनते ही हमारे पड़ौसी प्राणनाथ एकदम एलर्ट मुद्रा में आ जाते हैं, चाहे वो कहीं भी हो, कैसी भी स्थिति में हो। जिस प्रकार चौकीदार को मालिक द्वारा आवाज लगाते ही वह नींद से जागकर आंख मलते हए अटेंशन खड़े होकर आंख के ऊपर ललाट पर उल्टी हथेली रखकर सलाम ठोकते हैं ठीक वैसे ही प्राणनाथ जी ने भी किया।’
    यह पति-पत्नी का आधुनिक प्रेम है अथवा आधुनिक सभ्यता के कारण बदलती भयावह स्थितियां। व्यंग्य में अतिश्योक्ति का स्थान होता है किंतु सर्वाधिक प्रभावशाली व्यंग्य करुणा और संवेदशील स्थितियों में कहा गया है। ‘गृहलक्ष्मी का वेतन’ व्यंग्य में पत्नी के कार्यों का गहन मूल्यांकन करते हुए उनका अर्थिक विश्लेषण अवलोकन प्रस्तुत हुआ है। वेतन का अभिप्राय जब हम इस व्यंग्य रचना के माध्यम से समझने का प्रयास करते हैं तो हमारे भीतर सहानुभूति का अज्रस स्रोत प्रवाहित होने लगता है।
    साहित्य और कविता को लेकर बहुत कुछ इस संग्रह की रचनाओं में कहा गया है। कविमन जिह्वा बावरी, कोने में कहराये कविता, चुटकी बजाते ही कविता, बेबस कवि बलवान, पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ और हिंदी साहित्य बीस रुपये किलो जैसी अनेक रचनाएं संग्रह में संकलित हैं। जिनमें कविता की बदहाली और साहित्य के प्रति अगंभीर होते समय-समाज को रेखांकित किया गया है। माना कि यहां अभिव्यक्त जो सत्य है वह एकदम नया नहीं है, किंतु नया है वह जिससे स्थानीयता के साथ बातों को सहजता से उठाया गया है, वह फिर फिर चिंतन-मनन योग्य है। जमीन पर रहते हुए हम हवा में उड़ने की बातें करते हैं, किंतु सर्वप्रथम हमें जमीन पर चलना आना चाहिए... यह सीख इन रचनाओं के मर्म में समाहित है।
    इस संग्रह की अंतिम रचना ‘निंदक नियर ही है’ की बात करें तो उसमें व्यंग्यकार ने घर में पत्नी और बाहर साहित्यिक मित्रों की निंदाओं का आगार बताया है। ज्ञानी बाबा से बतियाते हुए जिस सहजता से यह रचना प्रस्तुत होती है उसमें सादगी-सरलता संवाद प्रभवाशाली है। मेरा मानना है कि वर्तमान स्थितियों के यथार्थ से व्यंग्य को पहचना लेना ही इन रचनाओं की प्रमुखता है। प्रेम, विवाह और तलाक जैसे अनेक मुद्दों के साथ ही हमारे समाज के बदलते समीकरणों को भी संग्रह की रचनाओं में स्थान मिला है। इन रचनाओं की विशेषताओं में यह प्रमुख विशेषता भी है कि संग्रह की प्रत्येक रचना खुद अपने बारे में कहने में समर्थ है, उसकी व्याख्या अथवा अतिरिक्त टिप्पणी की आवश्यकता नहीं है। जिस प्रकार इनसाइक्लोपीडिया में हमें सभी प्रकार की जानकारियां मिलती है, उसी प्रकार यह यह संग्रह ‘पत्नीस्यमूडम’ पत्नी के विविध आयामों को समेटता हुआ एक छोटा-मोटा इनसाइक्लोपीडिया है।
    इस व्यंग्य संग्रह ‘पत्नीस्यमूडम’ के लिए मैं अपने गुरुवर प्रो. अजय जोशी को बहुत-बहुत बधाई और शुभकानाएं व्यक्त करते हुए कृति का स्वागत करता हूं।  
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पुस्तक : पत्नीस्यमूडम (व्यंग्य संग्रह)
व्यंग्यकार : डॉ. अजय जोशी
प्रकाशक  : नवकिरण प्रकाशन,बिस्सों का चौक,बीकानेर 334001 मो. 941968900
संस्करण : 2022, पृष्ठ :96
 मूल्य : 200/- हार्ड बाउंड
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-    डॉ. नीरज दइया


 

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