‘धन्य है आम आदमी’ (2021) व्यंग्यकार फारूक आफरीदी का दूसरा व्यंग्य-संग्रह है। उनके पहले संग्रह ‘मीनमेख’ (1998) से काफी अंतराल के बाद यह संग्रह आया है। इस बीच आपका व्यंग्य संग्रह ‘बुद्धि का बफर स्टॉक’ नाम से आने वाला था, किंतु नहीं प्रकाशित हो सका। आलेख लेखकों की अगंभीरता के कारण कुछ जगह यह संग्रह के रूप में उल्लेखित भी हुआ है। खैर, सद्य प्रकाशित संग्रह में 41 व्यंग्य रचनाएं शामिल हैं। पहली रचना का शीर्षक ‘बुद्धि का बफर स्टॉक’ है। शीर्षक व्यंग्य ‘धन्य है आम आदमी’ को इसके बाद दूसरे स्थान पर रखा गया है। वैसे किसी शीर्षक रचना को संग्रह में किस क्रम पर दिया जाए, इसका कोई निर्धारित नियम-कानून नहीं है। अनेक जगहर यह भी हुआ है कि पुस्तक का जो शीर्षक है उस नाम से संग्रह में कोई रचना नहीं होती है। किंतु यहां जो शीर्षक है वह संग्रह में संकलित रचनाओं के केंद्रीय स्वर को व्यंजित करने वाला है। साथ ही यह शीर्षक पाठकों को आकर्पित करता है कि व्यंग्यकार फारूक आफरीदी ‘आम आदमी’को धन्य क्यों कह रहे हैं। व्यंग्यकार का आम आदमी को प्रमुखता देना कोई आम बात नहीं है। भक्त कवि कुंभनदास जी ने बेशक कहा हो कि ‘संतन को कहा सीकरी सों काम’, पर आम आदमी की बात करने वाले हमारे व्यंग्यकार तो स्वयं ही सीकरी से करीबी जुड़ाव रखते हैं और उनकी पनहियां वर्षों से सही-सलामत है। वे अपनी इसी पनहियां को दुसाले में लपेट कर व्यंग्यकार के रूप में चलाते रहे हैं और फिलहाल सीकरी ही उनका ठिकाना है।
राजस्थान के सूचना और जनसंपर्क विभाग के संयुक्त निदेशक पद से सेवानिवृत होकर फारूक आफरीदी वर्तमान में मुख्यमंत्री के विशेषाधिकारी के रूप में अपनी सेवाएं दे रहे हैं। दूसरी सूचना आपके पास है कि वे वर्षों से विविध विधाओं में एक लेखक के रूप में सक्रिय रहे हैं। अन्य विधाओं की तुलना में व्यंग्य लेखन जोखिम भरा इसलिए है कि इसमें रचनाकार जो भी बात कहता है उसे उसके काम और आस-पास की दुनिया से जोड़ कर देखा-परखा जाता है। यह अकारण नहीं है कि ‘धन्य है आम आदमी’ में एक व्यंग्यकार के रूप में फारूक आफरीदी की चिंताओं के केंद्र में लेखकों की दुनिया के साथ-साथ बदलती सत्ता और समाज के अनेक पक्ष हैं। इन रचनाओं में व्यक्ति और सत्ताओं के बदलते स्वभाव का आकलन है वहीं जो गलत और ठीक नहीं है उस पर निशाने साधते हुए जिम्मेदारी और बेबाकी से अपनी बात कहने का हौसला है। संग्रह की पहली रचना का आरंभिक अंश देखें-
‘बुद्धिराम का यह कहना सौ टका शुद्ध है कि भगवान ने आदमी को जो बुद्धि दी है, उसका वह जबरदस्त दुरुपयोग कर रहा है। ऊपर वालों को सारे बुद्धिजीवियों की बुद्धि का बफर स्टॉक कर लेना चाहिए। मान लो ऊपर वाला दूसरे कामों में व्यस्त हो अथवा लगता हो कि अभी यह उनकी प्राथमिकता नहीं है तो यह काम प्राइवेट सेक्टर को आसानी से सौंपा जा सकता है। प्राइवेट सेक्टर का जब सारे टीवी चैनलों पर कब्जा है तो यह एक चुटकीभर काम है। वैसे भी आजकल सरकार अपनी दूसरी बड़ी जिम्मेदारियों को देखते हुए निजी क्षेत्र को सारे उपक्रम सौंपकर अपने दायित्व से पल्ला झाड़ रही है।’ (पृष्ठ-7)
यहां न केवल अपने समकालीन समय और उसके सामजिक संदर्भों के प्रति गहरे सरोकार हैं वरन पाठकों के लिए भाषा में उत्सुकता और कौतूहल भी जबरदस्त है। व्यंग्यकार अपनी बात को होले-होले जाहिर करते हुए जैसे सत्य को उजागर करते हुए पहले हमें उससे धीरे-धीरे जोड़ता है। यह पाठकीय जुड़ाव ही एक गति देते हुए किसी दिशा और सोच के लिए प्रेरित-प्रोत्साहित करता है। यहां बात किसी घटना-प्रसंग अथवा स्थिति के सही और गलत रूप की नहीं है। असल में व्यंग्यकार को जो कुछ गलत प्रतीत हो रहा है अथवा वास्तव में जो गलत है, उसे कहने का जोखिम उठाना बड़ी बात है। वह किसी विषय के लिए एक बार व्यंग्य लिखकर इतिश्री करने वालों में नहीं है, इसके लिए एक ही विषय पर अनेक बार प्रहार करना भी उसे मंजूर है।
इन व्यंग्य रचनाओं के प्रमुख घटक के रूप में हम प्रयुक्त भाषा को रेखांकित कर सकते हैं। भाषा का सही और सटीक प्रयोग ही पाठकों को भी उन मुद्दों पर विचारशील-विवेकवान बना सकता है। सहमति-असहमति के अवसर को रखते हुए व्यंग्यकार व्यंग के मूल उद्देश्य अपने समय और समाज की विसंगतियों को उजागर करना नहीं भूलता है। व्यंग्यकार के भीतर स्थितियों को परिवर्तित करने की अभिलाषा के साथ-साथ जनमत को किसी बदलाव के लिए जाग्रत-प्रेरित करना भी है। माना कि व्यंग्य में व्यंग्यकार का यह कहना- ‘आजकल सरकार अपनी दूसरी बड़ी जिम्मेदारियों को देखते हुए निजी क्षेत्र को सारे उपक्रम सौंपकर अपने दायित्व से पल्ला झाड़ रही है।’ पर्याप्त नहीं है, किंतु गौर करेंगे तो समय पर किसी पक्ष में अपनी उपस्थिति दर्ज करना ही सही होता है। क्योंकि जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध। एक रचनाकार के लिए कुछ कहने और लिखने के अतिरिक्त कुछ नहीं है, उसी में वह आम आदमी के लिए कुछ कर सकता है। वैसे स्वयं लेखक भी कोई बहुत विशेष या खास आदमी नहीं होता है, वह भी एक आम आदमी है और आम आदमियों के बीच ही रहते-रचते हुए खटता है।
लेखक को बुद्धिजीवी कहा जाता है और व्यंग्यकार फारूक आफरीदी का मानना है कि बुद्धिजीवी ताक-झांक करते हुए बवेला मचा देते हैं। अस्तु निडर, निर्भीक होकर व्यंग्य में बेबाकी से अपनी बात कहना इस संग्रह कि विशेषता है। यह अंश भी देखें- ‘बुद्धिजीवियों ने देशभक्तों और देश दोनों को दांव पर लगा दिया है। इससे देश की दुनिया में बेवजह थू-थू होती है। आसान बातें भी इन लोगों की समझ में नहीं आती कि सरकार माई-बाप होती है। सरकार की हर बात का सम्मान करना चाहिए अन्यथा जीते जी नरक का भागी बनना पड़ेगा।’ (पृष्ठ-8) अथवा शीर्षक व्यंग्य का यह आरंभिक अंश लें- ‘राम खिलावन जी हमारे क्षेत्र के प्रिय नेता हैं। बस, एक मामूली सी दिक्कत है कि उन्हें चुनाव जीतने के बाद एकांतवास पर जाने की आदत है। आम चुनाव आने पर वे अपनी कुर्सी से अधिक अपने मतदाताओं को प्यार करने लगते हैं। चुनाव की घोषणा से लेकर मतदान तिथि के स्वर्णिम काल में वे अपने मतदाताओं को तमाम खुशियां बांट देना चाहते हैं। इसमें वे अपनी जान लगा देते हैं।’ (पृष्ठ-10) कहना होगा कि आम आदमी को सजग सचेत करते हुए व्यंग्यकार कोई बहुत नई और अनोखी बात नहीं कह-कर रहा है, किंतु वह जो कह-कर रहा है वह समसामयिक और प्रासंगिक है।
फारूक आफरीदी के इस संग्रह में अनेक प्रयोग भी देखे जा सकते हैं जिसमें वे ना केवल भाषा के स्तर पर प्रयोग करते हैं वरन शिल्पगत प्रयोग भी करते हैं। पत्र-शैली, संवाद शैली, डायरी शैली, प्रश्नोत्तर शैली के साथ ही दृश्यों का कोलाज भी इस संग्रह की व्यंग्य रचनाओं को महत्त्वपूर्ण बनाता है। उदाहरण के लिए ‘उमंग भरे उठावने’ की बात करें तो इसमें एक संपादक ने उठावने पर व्यंग्य भेजने की मांग को बहुत प्रभावी ढंग से उठाते हुए पांच दृश्यों का जो कोलाज प्रस्तुत किया है वह विशेष उल्लेखनीय है। हमारे समय में संवेदनाओं के पतन और संवेदनहीनता के अनेक उदाहरण संग्रह के अन्य व्यंग्य भी प्रस्तुत करते हैं। यही नहीं यहां व्यक्ति की निर्ज्जलता और फिटाई को भी व्यंग्यकार ने अनेक जगह उजागर किया है। यांत्रिक होते हमारे समाज की विडरूपता के कुछ चित्र ‘फेसबुक की फनाफन दुनिया’ और ‘सरकार से साक्षात्कार’ जैसे व्यंग्य प्रस्तुत करते हैं।
‘यथा प्रजा तथा राजा’ का यह अंश देखें- ‘भ्रष्टाचार ने तत्काल मुझे टोका- धीरे बेटा धीरे, इतनी तीव्र वाणी में हमारा उद्घोष शोभा नहीं देता। इससे तुम ख्वामखाह पर्दे के पीछे हमारे यज्ञ में आहुति देने वाले शरीफ लोगों से हमरा वैर बढ़ा दोगो। उन्हें बेवजह नाराज कर लोगे। कभी चुप भी रहना भी लाभदायक होता है। (पृष्ठ-43) सजीव संवाद और सीधी बात करने का हुनर अनेक व्यंग्य रचनाओं में देखा जा सकता है। ‘मतदाता के नाम विधायक जी का पत्र’ अथवा ‘सफलता का कोडवर्ड’ में सभी स्थितियों को सामान्य रूप से प्रस्तुत करते हुए असमान्य होते जा रहे समय-समाज को प्रस्तुत किया गया है वहीं ‘वे लेखक हैं जो लिखते-लिखते हैं पढ़ते नहीं’ जैसे व्यंग्य अपनी करुणा से हमें दूर तक बहा ले जाने में सक्षम हैं।
‘कोरोना के डर से दुनिया में भले ही बदलाव दृष्टिगोर हो रहा हो, भलाई करने वालों का पलड़ा भारी होता जा रहा हो, सहिष्णुता बढ़ रही हो, मानवता के प्रति लोगों का झुकाव हो, एक-दूसरे के दुःख-दर्द को बांटने की भावना विकसित हो रही हो, लेकिन सत्ता पिपासुओं को उनका पॉजिटिव रोल नहीं सुहाता। सत्ता पितासु इसमें अपने को असुरक्षित पाते हैं। इसलिए बंधु! सता सुखवीरों ने भुजबल और धनबल दोनों को साध लिया है। उन्हें बड़े प्यार और जतन से पाला-पोसा जा रहा है। मानव-सेवा के इतर उनके चरित्र को अब नया रंग-रूप देने और नई भूमिका में सामने लाने के लिए तैयार किया जा रहा है। साम्राज्यवाद नए अवतार में फिर लौट आया है। सत्ता पिपासुओं की भूख और गहरी हो गई है। इस भूख को मिटाने में धनबल और भुजबल ही हैं जो इनके सत्ता संर्वद्धन में अपनी महती भूमिका निभा सकते हैं।’ (पृष्ठ- 89) व्यंग्य ‘धनबल और भुजबल नई भूमिका में’ के साधुराम का यह कथन किसी भी अतिरिक्त व्याख्या अथवा विस्तार की अपेक्षा नहीं रखता है।
संग्रह के अनेक विषयों के विविध पक्षों पर हमें व्यंग्यों में ऐसे अनेक पंच वाक्य मिलेंगे कि हम व्यंग्यकार के सम्मोहन में बंधते चले जाते हैं। साथ ही इस संग्रह में हमारे समय के अनेक ऐसे विषयों पर व्यंग्य हैं जिन पर अन्य व्यंग्यकारों ने भी कलम चलाई है और उनको कुछ विद्वान घिसे-पिटे विषयों की संज्ञा देते हैं। विषय पुराना हो या नया उसके साथ लेखक ने किस प्रकार भाषा का बरताव करते हुए प्रस्तुत किया है यह महत्त्वपूर्ण होता है। व्यंग्यकार के सामजिक सरोकार यदि पाठकों को प्रभावित करते हैं तो वह सफल रचनाकार कहा जाता है और इस मामले में हम समाज-सत्ता के बीच एक लेखक फारूक आफरीदी की दुनिया कैसी है वह रचनाओं के माध्यम से जान-परख सकते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो आम आदमी की दुनिया कैसी है? यह जानना सच में बेहद सुखद है कि इन व्यंग्य रचनाओं में उम्मीद का स्वर शेष है। जहां विद्रूपताएं और विसंगतियां है वहां आशा और उम्मीद रखते हुए लगातार रचना इन व्यंग्य रचनाओं का सबल पक्ष है।
यह संग्रह हमारे सामने अपने समय और समाज की सच्ची तश्वीर प्रस्तुत करते हुए आम आदमी के जीवट और जूझारूपन को धन्य-धन्य कहते हुए कामना करता है यह संसार सुंदर हो। ऐसा संसार जिसमें कुछ कानून-कायदों के साथ थोड़ा-बहुत आदर्श भी हो। इसलिए यह जरूरी है कि छोटे-छोटे संघर्षों और प्रतिरोधी के स्वरों को पहचना हम कर सकें। संभवतः जीवन-गाड़ी को पटरी पर बनाए रखने की यही सबसे बड़ी मुहिम है जो इस व्यंग्य संग्रह के माध्यम से फारूक आफरीदी करते नजर आते हैं। इस कृति को लेखक ने अपनी शरीके हयात दिलकीश बेगम साहिबा को समर्पित किया है और कलमकार मंच ने इसे सुंदर ढंग से प्रकाशित किया है।
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पुस्तक : धन्य है आम आदमी (व्यंग्य संग्रह)
व्यंग्यकार : फारूक आफरीदी
प्रकाशक : कलमकार मंच, 3 विष्णु विहार, अर्जुन नगर, दुर्गापुरा, जयपुर-302018
संस्करण : 2021, पृष्ठ : 126, मूल्य : 180/-
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