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अस्सी बरस की आंखें और कहानी की पांखें ० डॉ. नीरज दइया

डॉ. विद्या पालीवाल का पहला कहानी संग्रह ‘दरकते रिश्ते’ कई कारणों से महत्त्वपूर्ण कहा जा सकता है। पहला यह कि लेखिका ने जीवन के अस्सी बसंत देखें हैं, वे कहानी के विकास की साक्षी रही हैं। यहां प्रथम दृष्टि में प्रामाणिक तौर पर यह भी माना जा सकता है कि इन कहानियों का यथार्थ अस्सी बरस बूढ़ी आंखें उजागर कर रही हैं, अस्तु दरकते रिश्तों का सच आधिकारिक रूप से प्रगट होने की संभवानाएं लिए है। डॉ. पालीवाल साहित्य और शिक्षा से जीवन पर्यंत जुड़ी हुई हैं और उन्हें बदलते साहित्य और समाज का बेहतर अनुभव है। संभवत यही कारण है कि वे जीवन की स्थितियों से कहानियों को पहचाने में सक्षम हैं। यह भी उल्लेखनीय है कि संग्रह की कहानियों के विषय में लेखिका ने कोई दावा नहीं किया है, उन्होंने पुस्तक के प्रारंभ में विनम्रता पूर्वक ‘आत्मकथ्य’ में लिखा है- ‘आज मन-पथिक जीवन के चौराहे पर खड़ा दिग्भ्रमित है.... प्रश्नों का अंबार है.... अपेक्षा है सांस्कृतिक जीवन संतुलन की। इन्हीं प्रश्नों में गुम्फित यत्र-तत्र बिखरे, मुड़े-तुड़े, भूले-बिसरे कथा सूत्रों को भाषा की रूप विधा में प्रस्तुत करने का प्रयास भर किया है...।’ 
    लेखिका के इस प्रयास की बानगी    संग्रह ‘दरकते रिश्ते’ की इक्कीस कहानियां में विभिन्न स्तर पर देखी जा सकती है। कहानी-कला के हिसाब से देखा जाए तो ये कहानियां अपनी विधा से दायरे तक सीमित नहीं रहती। प्रथम तो यही कि लेखिका जिस अवस्था में है उसमें अध्यात्म की झलक इन कहानियों में प्रयुक्त भक्ति और दर्शन की काव्य-पंक्तियों में देखी जा सकती है। संग्रह की प्रथम कहानी ‘उठ चले अवधूत’ में लेखिका ने वृद्धावस्था के उस अंतिम छोर को छूने का प्रयास किया है जिसमें केवल और केवल भक्ति और भगवान का आलंबन होता है। नरेटर के रूप में कहानी में जीया की जीवन-यात्रा को सहेजना उनके उदात्त चरित्र को व्यंजित करती है किंतु कहानी की पांखें संस्मरण और रेखाचित्र विधाओं तक फैली प्रतीत होती है। 
    कुछ कहानियों के नाम कहानी के मुख्य चरित्रों पर आधारित है, जैसे- भागवन्ती, झिलमिल, भाभा, गोली वाले बाबा, मां, अम्मा, बिंधेश्वर। ऐसी कहानियां में कहानी कम, शब्द-चित्र और संस्मरण की झलक अधिक नजर आती है। चरित्रों की मार्मिकता और लेखिका के सकारात्मक दृष्टिकोण के चलते कहानियों में जीवन मूल्यों और आदर्शों की बातें अनुभव और विचार के रूप में प्रस्तुत हुई है। आकार में ये कहानियां छोटी-छोटी हैं और जहां कहानी का विस्तार देखने को मिलता है, वहां भी केंद्रीय संवेदना उसके विशेष अंश तक सीमित रहती है। ‘सांप-सीढ़ी’ जैसी कहानी में बस एक खेल के प्रसंग से अपने अंतर्मन में झाकने और थोड़े से संवादों के बल पर कहानी की रचना करना लेखिका की सफलता है। ऐसा भी कहा जा सकता है कि बोध कथाओं और नीति कथाओं की भांति इन कहानियों का भी अपना एक उद्देश्य है, जिसे लेकर इन कहानियों की रचना की गई है।
    प्रख्यात लेखक डॉ. राजेन्द्र मोहन भटनागर ने कहानी संग्रह की भूमिका में लिखा है- ‘ये कहानियां आज के वास्तविक जीवन की ऐसी सच्चाई है जो मानव-मन को कचोट रही है। बदलते परिवेश में, भाग-दौड़ भरे जीवन को परोस कर मानव-समाज में जहां-जहां अंधेरा, विषाद और कंटकों को बोया है उस सबका अन्तर्विश्लेषण ये कहानियां सशक्त रूप से कर रही हैं। निसंदेह कहानीकार ने प्रायः प्रत्येक कहानी में, जहां उसे अवसर मिला है, बहुत कुशलता से उसके अंतर्मन की अकही पीड़ा को सामने लाने में तनिक भी संकोच नहीं किया है।’
    ‘भाभा’ कहानी अन्य कहानियों की तुलना में अपेक्षाकृत आकार में बड़ी है किंतु कहानी के अंतिम दृश्य में भाभा द्वारा बड़े संकोच से अपनी कमर में दबाये हुए टमाटर रंग के ब्लाउज पीस को निकाल कर उस पर ग्यारह रुपये तिलक लगाकर देते हुए यह कहना- बेटा! या साधारण सीख है पर याद राखजो, भूल जो मति... म्हारा नानीजी रो पूरो ध्यान राख जो। पढ़ते हुए राजस्थानी के प्रख्यात कहानीकार रामेश्वर दयाल श्रीमाली की कहानी ‘कांचळी’ का स्मरण कराती है। भाभा और कांचळी कहानी के उद्देश्यों में अंतर अवश्य है। जहां भाभा में दो वृद्धाओं के माध्यम से पारिवारिक विभेद और संबंधों का सच उजागर होता है वहीं कांचळी में रीति-रिवाज और संस्कारों में धन के कारण बदलती मानसिकता की मार्मिक व्यंजना मिलती है।
    डॉ. विद्या पालीवाल की कहानियों से गुजरते हुए हम हमारे बदलते समय और आधुनिकता के चलते दरकते संबंधों का सच गहराई से देख-परख सकते हैं। यहां संबंधों के बीच खोती जा रही संवेदनशीलता के अनेक दृश्य हैं तो कोमल बाल मन से उद्घाटित हृदयस्पर्शी यादगार संवाद भी। अंत में बस इतना ही कि इन कहानियों के विषय में प्रसिद्ध कवि ज्योतिपुंज की फ्लैप पर लिखे इस कथन सहमत हो सकते हैं- ‘ये कहानियां हर पाठक के मन को झकझोरती रहेंगी और उन्हें संकल्पबद्ध होकर अपने कर्त्तव्य-पथ पर अग्रसर होने को प्रेरित करेंगी। जीवन मूल्यों के प्रति सकारात्मक सोच को दृढ़ करने में सहायक होंगी।’
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० दरकते रिश्ते (कहानी संग्रह) डॉ. विद्या पालीवाल ; प्रकाशक- हिमांशु पब्लिकेशन्स, 464, हिरण मगरी, सेक्टर-11, उदयपुर ;  संस्करण- 2014 ; मूल्य- 175/- ; पृष्ठ- 120
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 समकालीन कहानी और स्वांत-सुखाय लेखन की जुगलबंदी ० डॉ. नीरज दइया

निशात आलम ‘दख़ल’ का पहला कहानी संग्रह है- ‘रसवाला’। संग्रह में दस कहानियां और एक लघुकथा संकलित है। यहां उल्लेखनीय है कि कवि दख़ल की पांच काव्य-कृतियां प्रकाशित हुई हैं, तथा शीघ्र प्रकाश्य 23 किताबों के नाम अंतिम फ्लैल पर दिए गए हैं। पुस्तक में ‘दो शब्द’ के अंतर्गत कहानीकार निशात आलम ‘दख़ल’ लिखते हैं- “मेरे जीवन में कहानी का उदय मात्र एक वर्ष की अवधि में हुआ। चार कहानियां लिख कर छोड़ दीं। जिसमें से दो प्रकाशित हुई जिन्हें लेकर प्रशंसा के कई मोबाइल आए एसएमएस आए, तब मैंने अनुभव किया कि जो लिखा गया है वह सफल रहा शंका समाधान हुई। मित्रों ने कहा दस कहानियां लिख लो एक प्य्स्ताक के रूप में कहानी संग्रह तैयार हो जायेगा। मुझे कठिन लग रहा था चुप होकर बैठा था, मैं जीवन में कभी हताश नहीं हुआ समय-समय पर आत्मप्रेरणा मिलती गई।”
    कहा जा सकता है कि किसी भी रचना के लिए प्रेरणा-प्रोत्साह के साथ आत्मप्रेरणा ही वह घटक है जिससे सृजन होता है। सृजन को निरंतरता मिलती है। यह स्वांत-सुखाय लेखन का ही प्रमाण है कि कवि दख़ल की इतनी कृतियां अब तक अप्रकाशित है और उन में ‘लावारिस’ नामक कहानी संग्रह भी शामिल है। इस संग्रह में इसी नाम से एक कहानी भी संकलित है। पाठकों और मित्रों के विचार निसंदेह किसी भी लेखक के लिए महत्त्वपूर्ण होते हैं किंतु उससे भी महत्त्वपूर्ण होता है जिस विधा में सृजन किया जाए उस विधा को जानाना। कहानी, आत्मकथा, संस्मरण आदि अनेक विधाएं अपने अनुशासन की मांग तो करती हैं। कवि दख़ल जब कहानी लिखते हैं तो उन्हें अपने कवि को भीतर से कम से कम इतना तो बाहर निकला ही देना चाहिए कि वह कहानी में अपना शेर ना सुनाने लगे। कहानी में जो कुछ कहना है वह महज सृजित पात्रों और परिवेश आदि के द्वारा ही कहना है। उपदेश और आदर्श में कहानी में अनावश्यक कहानीकार की चपलता से कहानी का शिल्प बाधित होता है।
    निशात आलम ‘दख़ल’ की इन कहानियों में तकनीकी खामियों के रहते भी जो बात बेहद प्रभावित करती है वह इन कहानियों की पठनीयता है। कहानी का वितान किसी उपन्यास की भांति फैला हुआ अनेक घटना प्रसंगों को लिए हुए है। साथ ही कहानी में कहानी सुनने-सुनाने की प्रविधि अंतर्निहित है। ‘वचन’ कहानी में ठाकुर-ठकुरानी के दौर की एक मार्मस्पर्शी ऐतिहासिक कथा जैसी प्रतीत होती है, जहां वचन को धर्म के रूप में सक़फ़ द्वारा निभाना प्रभावित करता है। कहानी ‘मेरा कन्हैया’ की आधार भूमि कहानीकर ‘दख़ल’ की देखी-भोगी प्रतीत होती है। लगता है कि उन्होंने जैसे अपने जीवन के किसी घटना-प्रसंग को ही सिलसिलेवार प्रस्तुत कर दिया है। ‘मणिधर नागिन’ कहानी हमें दूसरे लोक में ले जाती है। यह कहानी रोमांच और रहस्य से भरी हुई है। ‘स्वार्थ’ कहानी को एक परिपूर्ण लघुकथा कहा जा सकता है।   
    कहानी संग्रह का शीर्षक ‘रसवाला’ असल में कहानी ‘कवि रसवाला’ से प्रेरित है, जो कहानी कम कवि रसवाला का साक्षात्कार अधिक प्रतीत होती है। ऐसा नहीं है कि कहानी में इस अथवा अन्य विधाओं का प्रयोग संभव नहीं, किंतु यहां स्वयं के शेरों-शायरी से कहानी का मूल उद्देश्य विचलित होता है और कहानी विधा की सीमाओं का अतिक्रमण करती है। कहानी में शिल्प और भाषा का महत्त्व होता है। भाषा की बानगी के लिए इसी कहानी का अंतिम अंश देखा जा सकता है- “किसी को कष्ट देना, अधिकार छीनना, बेईमानी, विश्वासघात, आदि पाप कर्म हैं। किसी की सेवा करना, सन्तुष्ट कर देना, तृष्णा मिटा देना, प्रसन्न चित कर देना आत्म तृप्ति कर देना कर्म है। जिनको पुनः समझाता हूं कहते हुए चल दिए। मस्ती के साथ लम्बे-लम्बे डग भरते हुए जैसे उनको कोई आकर्षण खींच रहा है पता नहीं महाकवि उपन्यासकार, कहानीकार, शायर, शहंशाह यानी कवि रसवाला कहां गए। अब कब मिलेंगे या नहीं मिलेंगे? कुछ पता नहीं परंतु जाते-जाते कटु अनुभव करा गए। चरित्र का, सौंदर्य का, मधुशाला का, मधुबाला का, दामने दाग़ का, संसार का, कवियों का, जीवन का, डुपलीकेट का, समय हाथ मार जाता है, रैगज़ीन का, कवि रसवाले को बहुत-बहुत धन्यवाद।”
     कहानीकार के पास कहने को बहुत कुछ है और वह बहुत कुछ कहता है किंतु संग्रह की कहानियों में डायरी, संस्मरण और आत्मकथा के अंश कहानी में परिवर्तित नहीं हुए हैं। जैसे ‘पवित्रता’ कहानी की पंक्तियां देखें- ‘1975 में मेरा व्यापार जोधपुर से हटकर झूंझनूं एवं हिसास की तरफ हो गया।’ (पृष्ठ-16); ‘सन्‍  1977 की बात होगी मैं घूमता हुआ चिड़ावा की सड़क पर जा रहा था’ (पृष्ठ-17); ‘उसने कहा- पूरे 35 वर्ष व्यतीत हो चुके हैं, मैं एक दिन भी तुमको नहीं भूली, तुम भूल गए।’ (पृष्ठ-20); ‘रात्रि के 11 बज चुके थे। मैंने कहा- सो जाओ। मैं अपने मंत्रों के उच्चारण में लग गया। रात्रि के 3 बजे सोया। लगभग सुबह के 5 बजे होंगे, कुछ-कुछ अंधेरा था। ऐसा लगा मेरे पैर कोई छू रहा है। (पृष्ठ-21) कहनी में स्वीटी और कथानायक के पवित्र प्रेम का विमर्श लंबा चलता है और कहानी के अंत में आदर्श स्थिति के साथ कवि की कुछ पंक्तियां दर्ज हैं जो उनके हृदय पर बन आती है! कहानी ‘धर्म पुत्रियां’ में भी ऐसा ही एक प्रसंग है जिसमें आधुनिकता के साथ बदलती मानसिकता के साथ नायक की आदर्श छवि प्रस्तुत की गई है। कहानी ‘पानी-पतासा’ भी प्रेम केंद्रित कहनी है जिसमें ट्रीटमेंट के स्तर पर अंत में किसी फिल्म की भांति नायक नायिका का मरणोपरांत नई दुनिया में मिलन दिखाया गया है।
    संग्रह की भूमिका में साहित्यकार शिवचरण सेन ‘शिवा’ ने इस प्रथम कहानी पर कहानीकार का उत्साहवर्द्धन करते हुए भाषा-पक्ष के विषय में संकेत किया है- ‘निशात आलम दख़ल ने अपनी संपूर्ण कहानियों में कथ्य, भाव, संवाद के धरातल पर प्रतिष्ठित कर भाषा-शैली में हिंदी-उर्दू के समन्वय का रंग भी अजब ही भरा है। सरलता, सुबोधता, हृदयगम्यता की दृष्टि से दख़ल जी की कहानियां बेहद सफल बन पड़ी है। कमी है तो बस इतनी कि वाक्यों में कहीं-कहीं तारतम्य का आभाव है।’ उम्मीद है कि आगामी संग्रह में समकालीन कहानी और स्वांत-सुखाय लेखन की जुगलबंदी बेहतर होगी।
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० रसवाला (कहानी संग्रह) निशात आलम ‘दख़ल’ ; प्रकाशक- बोधि प्रकाशन, एफ-77, सेक्टर-9, रोड नं.- 11. करतारपुरा, इंडस्ट्रियल एरिया, बाईस गोदाम, जयपुर ;  संस्करण- 2016 ; मूल्य- 200/- ; पृष्ठ- 120
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