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भावुक कवि-मन की राजस्थानी कहानियां / डॉ. नीरज दइया

 राजस्थानी की समृध होती आधुनिक कहानी परंपरा में ओमप्रकाश भाटिया एक सुपरिचित कहानीकार के रूप में पर्याप्त ख्यातिप्राप्त हैं। ‘उफणतौ आभौ’ उनका दूसरा कहानी-संग्रह है। उनका पहला संग्रह- ‘सुरदेवता’ चर्चित रहा है। इस संग्रह में उससे आगे की कहानियां हैं। यहां अनेक कथा-प्रयोग और वर्तमान संदर्भों में उनका हस्तक्षेप पाठक-मन को प्रभावित करने वाला है। इन कहानियों का कैनवास व्यापक और विस्तृत है, जिसमें कहानीकार ने अपनी व्यक्तिगत जीवनानुभूतियों के साथ-साथ अपने बदलते परिवेश को भी शब्दवद्ध किया है। कहानियों में उनका जैसलमेर और बैंक की नौकरी भी जैसे अपने निजी रंगों में अभिव्यक्ति पाती हैं। घर-परिवार और समाज के अनेक रंगों से सज्जित इन कहानियों में जहां कुछ अविस्मरणीय घटना-क्रम है वहीं अनेक बिंबों और यादों को भी यहां चित्रित किया गया है।
    कहानीकार भाटिया आधुनिकता की आंधी में नित्य बदलते और निरंतर ध्वस्त होते संस्कारों, जीवन-मूल्यों की दिशा में हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं। उन्होंने अपने इर्द-गिर्द तेजी से बदलते समय और समाज को जिस धैर्य और मार्मिकता से अंकित किया है वह उन्हें उल्लेखनीय बनाता है। विभिन्न विरोधाभासों, अहसासों के बीच जीवन में स्थितियों में जिस प्रकार तेजी से बदलाव आ रहा है, उसे उसी रूप में व्यक्ति-मन में पैठती अनेक महीन बातों के जाल को सुलझाते हुए इन कहानियों में पात्रों के साथ-साथ हमारा अंतस अभिव्यक्त होता है।
    ‘अदीठ डोरो’ सूं’ कहानी की दो पंक्तियां देखें- ‘धीरै-धीरै टैम निकळतोग्यौ। दुनिया अेक पीढी आगै निकळगी।’ मुझे लगता है कि संग्रह ‘उफणतौ आभौ’ की सभी कहानियां इन्हीं दो पंक्तियों में अभिव्यक्त होती दो पीढियों में एक के आगे निकलने और दूसरी के पीछे रह जाने की त्रासदी को जैसे गाती है। संभवतः इसी आधार पर ओमप्रकाश भाटिया को आधुनिक होते घर-परिवार और देश-समाज की त्रासदी को वर्णित करने वाला प्रतिनिधि कहानीकार इसीलिए कहा जाता है। उनके यहां राजस्थान अपने पूरे देशकाल और परिवेश के शानदार रंगों में अपनी लोक-संस्कृति के साथ उभरता है। उल्लेखनीय है कि उसके यहां जिस सहजता और सरलता से लोकजीवन में आधुनिकता के रंग-ढंग नजर आते हैं वह विकास की पोल खलते हुए अपनी जड़ों का स्मरण कराने वाले हैं। हमारे बेहद आत्मीय संबंधों में जो अंतर आता जा रहा है उसे भी बहुत सुंदर ढंग से वे अपनी कहानियों के माध्यम से चित्रित करते हैं।
    विशेष पिता-पुत्र के बीच फैलते अंतराल और मुखर होते मौन की दुविधा का अंकन प्रभावित करने वाला है। पिता-पुत्र से अधिक प्यारा और भरोसेमंद संबंध समाज में भला क्या होगा किंतु दोनों की घर-परिवार की बातों-स्थितियों के बीच बदलते रंगों से अवगत करता कहानीकार-मन जैसे उनकी मनःस्थितियों के उतार-चढाव को शब्द-दर-शब्द इस बखूबी से उकेरता है कि कहानी के अंत में ग्लानि से मन भर जाता है। यह कहानियां हमें हमारे संस्कारों का स्मरण कराती हुई बहुत पुरजोर स्वर में कहती हैं कि आधुनिकता ने लोगां की अक्कल निकाल ली है। इसी कारण आज हमारे जीवन का सबसे बड़ा संकट यही त्रासदी है कि हमारे जीवन में मूल्यों का अभाव पसर गया है और चौफेर पसरे इस एकांत में मन व्याकुल है। सरल-सहज और प्रवाहमयी भाषा में पीढियों के अंतराल और उनमें पसरते सूनेपन को रचने की क्षमता ओमप्रकाश भाटिया की कहानियों में देखी जा सकती है। भाषा की प्रामाणिकता के साथ ही उसका मानक स्वरूप भी यहां देखा जा सकता है।
    ‘थारै गियां पछै’ कहानी को डायरी-शिल्प में एक सफल प्रयोग मान सकते हैं, तो ‘मुट्ठी सूं फिसळती जिंदगी’ में एड्स की बात से आधुनिक जीवन के भटकाव और नई पीढी में लुप्त होते संस्कारों की त्रासदी का प्रस्तुतीकरण हुआ है। पैसों के पीछे पागल हुए पात्रों को ‘रेस’, ‘किस्तों में’ और ‘समझदार दीखतौ डोफौ आदमी’ जैसी कहानियों में देखा जा सकता है। जीवन और जड़ों से जुड़े रहने के प्रयासों को कहानी ‘बेकळू में सरगम बजातो बायरियो’ में अभिव्यक्ति मिली है। कहानीकार ओमप्रकाश भाटिया की कहानियां बिना किसी उपदेस के यहां यह कहने में सफल रहती है कि नई पीढ़ी बहुत आगे निकल चुकी है, किंतु इस बहुत आगे निकलना खतरनाक है। इस आगे निकल जाने में जो पीछे बहुत कुछ छूटता चला गया है और छूटता चला जा रहा है, उसे इस मुश्किल दौर में सहेजना-संभालना बेहद बहुत जरूरी है। कहानीकार की यही चिंता इन कहानियों को उपयोगी और सार्थक संग्रह बनाने में सक्षम है। साथ ही कहानियों के पात्रों और नरेटर के कथनों में जिस भाषा के मुहावरे को मानक रूप में रचने का प्रयास हुआ है, वह रेखांकित किए जाने योग्य है।
    इन सब विशेषताओं के साथ कहीं ओमप्रकाश भाटिया के कहानीकार में उनका भावुक कवि-मन भी विद्यमान है। कहानियों में कहीं-कहीं जमीनी यर्थाथ के साथ कवियों जैसी भावुकता के क्षणों में अतिरंजना मुखरित है। औपन्यासिकता विस्तार और इस अरिरंजना से किसी फिल्म की भांति कहानीकार अपने मूल स्वर और संदेश से विचलित भी होता है। फिर भी समग्र रूप से उनके कहानीकार के विषय में संग्रह के आरंभ में वरिष्ठ कहानीकार बुलाकी शर्मा की इस बात से सहमत हुआ जा सकता है- ‘प्रत्येक कहानी में वे अपना श्रेष्ठ देने की प्रयास करते हैं। उनकी कहानियां लंबे समय तक पाठकों के दिलों-दिमाग में मंथन करती हैं, उन्हें विचलित और संवेदित करती है। एक पाठक के रूप में मुझे भी वे कहानियां संवेदित करती रही है तभी वे मेरे पसंदीदा कहानीकार बने हुए हैं।’ निसंदेह ओमप्रकाश भाटिया अपने साथी कहानीकारों और पाठकों के पसंदीदा कहानीकार हैं।  
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ऊफणतौ आभौ (राजस्थानी कहानी संग्रह)
कहानीकार : ओमप्रकाश भाटिया
प्रकाशक : रॉयल पब्लिकेशन, 18, शक्ति कॉलोनी, गली नंबर 2, लोको शेड रोड, रातानाड़ा, जोधपुर
पृष्ठ : 136 ; मूल्य : 300/- ; संस्करण : 2019

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डॉ. नीरज  दइया


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